head advt

व्यंग्य: पतलेपन का भूत - अभिषेक अवस्थी | Satire by Abhishek Awasthi

भगवान ने एक ही जीवन दिया है , उसपर भी मैं अपने पेट का मान सम्मान न करूँ तो कैसे चलेगा भला?

पतलेपन का भूत

अभिषेक अवस्थी

hindi vyangya Satire by Abhishek Awasthi

मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं (शायद इसे पढ़ने के बाद घनिष्ठता कटुता मे बदल जाए), श्री ज्ञानिचन्द। आज से तकरीबन छः माह पूर्व उन्हें खाने पीने का बड़ा चस्का लगा हुआ था। समोसा, चिली पोटैटो, पकौड़े, पनीर और पनीर के व्यंजन के साथ बड़ी - बड़ी वैज्ञानिक टाइप डींगे हांक कर लोगों का दिमाग खाने मे उस्ताद हुए जा रहे थे। उनकी तंदरुस्ती देख लोग हैरान और घरवाले परेशान थे। काम धंधा कुछ था नहीं, बस बड़ी - बड़ी छोड़ना ही उनकी दिनचर्या मे शुमार था। बहसबाजी मे तो  किसी भी हद तक जाकर अपनी जीत दर्ज करवाने मे साहब को जन्मजात महारत हासिल थी। लोग बाग तो उन्हे उनके मोटापे के कारण एक चर्चित टी.वी. सिरियल के किरदार ‘श्री राम कपूर’ तक कहने लगे थे। 

मोटापे का ताना सुन - सुन कर मेरे मित्र अक्सर बहुत परेशान हो जाया करते थे। परंतु वह परेशानी कोई लज़ीज़ पकवान देखते ही काफ़ूर हो जाती थी। वे कहते, ‘भगवान ने एक ही जीवन दिया है , उसपर भी मैं अपने पेट का मान सम्मान न करूँ तो कैसे चलेगा भला?’

लेकिन एक दिन न जाने किसी करीबी ने उन्हे क्या पट्टी पढ़ाई कि उनकी प्रेरणा का स्तर रक्तचाप के उच्चतम स्तर को भी पार कर गया। मन मे पतला होने की ललक (या यूं कहें कि पतलेपन का भूत पाले) वो मेरे पास आए और बिना देर किए बोल पड़े –

‘दोस्त... अब बहुत हुआ’। 

‘अरे! क्या हुआ?’ मैंने उनके सीताफल जैसे चेहरे पर अपनी आंखे टपकाते हुए पूछा।

‘बस... बहुत हो गया। अब और नहीं सहा जाता....लोगों के ताने सुन सुन कर मैं तंग आ गया हूँ’।

मैं तुरंत समझ गया कि मेरे परम मित्र किस ग़म मे डूब कर साँसे अंदर बाहर कर रहें हैं। अपने व्यंगविहीन मन को शांत करते हुए मैंने उन्हे समझाया, ‘देखो ज्ञानू... ये सब तो होता ही रहता है। लोगो के पास आजकल फालतू समय बहुत है तो बक-बक तो करेंगे ही। तुम बेकार मे अपनी चर्बी कम मत करो’।

‘नहीं यार... अब तो पतला होने का भूत सवार है मुझ पर। पतला हो कर ही दम लूँगा, चाहे जो हो जाये।’

‘अच्छा! तो इस बाबत क्या योजना है’? 

‘दौड़ लगाऊँगा – कम खाऊँगा’। 

‘ठीक है तो फिर कल से ही अपनी योजना को सांसदों के वेतन वृद्धि के बिल की भांति तत्काल प्रभाव से लागू कर दो’।

‘नहीं, कल तो शनिवार है। सोच रहा हूँ कि सीधा सोमवार से ही शुरू करूँ’।

तना कहने के बाद मेरे मित्र ने मुझसे विदा एवं शुभकामना ली और अपने घर लौट गए। 

क़रीबन तीन माह के पश्चात जब मैं ज्ञानीचन्द्र से मिला, तो मैं क्या, कोई ‘साइज़ जीरो’ की फिगर वाली मॉडल भी शर्म के मारे पानी – पानी हो जाती। वह तो स्वयं को मोटा समझ तुरंत ‘क्रैश डाइटिंग’ पर चली जाती। जनाब बिलकुल स्लिम ट्रिम थे। पेट और पीठ का प्रेम प्रत्यक्ष रूप से झलक रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों सलीम और अनारकली की तरह मिलने को बेकरार हुए जा रहे हों। बस बीच मे अकबर जैसी अंतड़ियाँ अवरोध बन रहीं थी। कंधे पेट-पीठ के प्रेम को झुकते हुए सलाम ठोक रहे थे। मैं तो बंदे की फिगर पे फिदा हो गया, और उसे एक टक देखता ही रह गया।

देखा! मैंने कर दिखाया न!” उन्होने ने मेरे भौचक्केपन मे ख़लल डालते हुए कहा।

“हाँ, यह तो कमाल ही हो गया भाई.... कैसे किया?”

“बोला था न, दौड़ लगाऊँगा ....खूब खाऊँगा।”

“जान पड़ता है कि दौड़ तो खूब लगाई पर खाया पिया कुछ नहीं।”

“बस सुबह दो घंटे दौड़ने के बाद मदर डेरी के दूध का पैकेट और दोपहर मे एक रोटी।”

“वाह! कमाल की इच्छाशक्ति है तुम्हारी।”

स, ज्ञानीचन्द्र जी गद गद हो गए और धन्यवाद की जगह ‘आई डिजर्व इट’ बोल कर निकल लिए।

ह दिन था, और आज का दिन। ज्ञानी जी ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ के राम कपूर से ‘लापतागंज’ के ‘एलिजा’ हो गए हैं। तेज़ हवा चलने पर मैं उन्हें एक बार फोन कर के हालचाल अवश्य ले लेता हूँ। सब बदल गया था किन्तु उनकी एक आदत अब भी नहीं गयी थी। जब से जनाब पतले हुए हैं तब से लोगों को विज्ञान और गणित की बातें छोड़, पतले होने के बारे मे ज्ञान बांटते फिर रहे हैं। वह भी बिना मांगे। कई बार तो सड़क चलते ही लोगों को उनके मोटापे के बारे मे सचेत करते हुए पाये जाते हैं। अब जनाब को हर दूसरा व्यक्ति मोटा नज़र आने लगा है। कल ही जनाब पिटते – पिटते बचे थे।

गर कोई उन्हे नोटिस न करे और उनकी ‘छरहरी काया’ पर सकारात्मक टिप्पणी न करे तो समझो क़यामत आ गई। जनाब खुद ही अपनी शर्ट ऊपर उठा कर अपने पेट और पीठ को मिलाने की दुर्लभ दास्तां बयान कर डालते और कहते “मैं तो पतला हो गया।” लोगो को सलाह देते कि उनकी तरह दौड़ लगाएँ और कमसिन काया पाएँ। जूते और ट्रैक सूट ब्रांडेड होने चाहिए और एक बार दौड़ना शुरू करे तो रूकना मना है। चाहे सांस फूलने से दम ही क्यों न निकल जाए। 

खाना पीना तो सच मे कम कर दिया है, बस शाम को दो उबले अंडे और दूध के साथ ‘वेजीटेबल जूस’ जरूर लेने लगे हैं। दोपहर को यह कह कर खाना नहीं खाते कि भूख नहीं हैं। शाम के चार बजते ही मदर डेरी के मुहाने पर पहुँच जाते हैं। रिश्तेदारों के समक्ष कुछ भी नहीं खाते, किन्तु अगर पनीर का कोई व्यंजन हो तो बाहर खुले मे ताबड़तोड़ शुरू हो जाते हैं। 

ब जब भी वो मुझसे भेंट करने आते हैं, मेरा तो आत्मविश्वास डगमगा जाता है। मेरी स्वयं की चर्बी से मुझे ऐसे घृणा होती है, मानो मेरी चर्बी किसी नेता की खाल हो। और इच्छाशक्ति!! उसकी तो पूछिये ही मत साहब। मैं भी बगले झाँकता हुआ उनसे न मिलने का बहाना सोचता रहता हूँ, लेकिन वो मुझे अपनी ‘भाग मित्रम भाग’ की गाथा का सही श्रोता मान कर पकड़ ही लेते हैं। 

सुना है मित्र महोदय आने वाले समय मे किसी मैराथन मे भी भाग लेने जा रहे हैं। मैंने उन्हे  शुभकामनाएँ देने का विचार तो किया है, परंतु एक और दौड़ गाथा सुनने की तथा अपने अंदर बची नहीं है। सोच रहा हूँ छुट्टी पर निकल जाऊँ। विडम्बना यही है कि मेरा और उनका दफ़्तर एक ही है।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?