लंबी कहानी
अंधेरों से आती आवाज़ें
प्रेमचंद गांधी
मेरी आदत है कि मैं आम तौर पर अंजान नंबरों से आने वाले फोन नहीं उठाता हूं। लेकिन फोन जब सरकारी हो तो क्या कर सकते हैं, हो सकता है कोई कामकाजी फोन हो। घर आने पर भी फोन बजता ही रहता है। मोबाइल ने दफ्तर को घर और बिस्तर तक फैला दिया है। इस वक्त रात के दस बजे हैं और इसी नंबर से यह तीसरी कॉल है, पिछली दो कॉल मैंने अटेंड नहीं की। खीज में हार कर मैंने फोन उठा ही लिया।
‘हलो’ ’नमस्ते’ ’जी नमस्ते‘ ’मैं बोल रही हूं‘ ’हां मैडम, कहिये‘
‘पहचानो तो सही कौन हूं मैं...’ ’सॉरी, नहीं पहचान पा रहा हूं मैडम।‘ ’मेरी आवाज़ पहली बार तो नहीं सुन रहे...‘ ’आई एम रीयली सॉरी मैडम, नहीं पहचान पा रहा...’ कह कर मैंने अपना सिर सोफे की पुश्त से लगाया और पांव सामने सेंटर टेबल पर फैला दिये। उधर कुछ देर अबोला रहा, फिर आवाज़ आई, ‘हां, अब कैसे पहचानोगे ये आवाज़, दूरियां बरसों की हों तो आवाज़ें भी अनजानी हो जाती हैं ना...’
मैं एकदम सकपका गया, लेकिन संयत होकर जवाब देने लगा, ‘जी हां, वक्त की मार से आवाज़ें भी बदल जाती हैं।‘
‘लेकिन इतनी भी नहीं बदलती श्याम बाबू।‘
एक तेज़ झटका-सा लगा मुझे।
***
प्रेम चंद गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्म। दो कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’ और ‘चांद के आईने में’ के अलावा एक निबंध संग्रह ‘संस्कृति का समकाल’ प्रकाशित। समसामयिक और कला, संस्कृति के सवालों पर निरंतर लेखन। कई नियमित स्तंभ लिखे। सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्मान। अनुवाद, सिनेमा और सभी कलाओं में गहरी रूचि। कुछ नाटक भी लिखे। टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया। दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा।
संपर्क : 220, रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्पाइन, विद्याधर नगर, जयपुर 302 023
मोबाइल: 09829190626
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कर्फ्यू का सिलसिला ख़त्म हुए अब सात दिन बीत चुके थे। फिर भी पिछले सात दिनों की तरह बस में बहुत भीड़ थी। जैसे-तैसे करके मैं भी चढ़ ही गया। सुबह का वक्त होता ही ऐसा है कि आप कुछ नहीं कर सकते। ठसाठस बस में भी नौकरीपेशा आदमी को सवार होना ही पड़ता है। पायदान से ऊपर खिसकने की जगह मिल जाए तो गनीमत है। किस्मत से अगले ही स्टॉप पर कुछ सवारियां उतरीं तो ज़रा-सी जगह बनी। मैंने राहत की सांस लेते हुए खिड़की के पास जगह तलाश की तो मिलती दिखाई दी। आप जानते ही हैं कि इन सिटी बसों को बस मालिक अस्पताल की एंबुलेंस जैसी बना देते हैं। दोनों तरफ़ दो लंबी तख्तनुमा सीटें और एक तख्त पीछे की ओर। बाकी रही खाली जगह में सवारियां ठूंस दी जाती हैं।
तो जहां जगह मिलती दिखाई दे रही थी, वहां खिड़की के पास एक लंबी छरहरी महिला खड़ी थी। मैं वहां जैसे-तैसे खड़ा हो ही गया। उसके हाथों में ताज़ी मेहंदी लगी थी और हिना की खुश्बू आ रही थी। भीड़ भरी बस में यह एक खुशनुमा बात थी। सब एक दूसरे से इस कदर सटकर खड़े थे कि सांसों की गर्मी तक महसूस कर सकते थे। दिसंबर की सर्दियों में यह बुरा ना मानने वाली बात थी और वो भी तब जब शहर दंगा-फ़साद और कर्फ्यू के बाद फिर से पुरानी लय हासिल करने के लिए हांफता-दौड़ता आगे बढ़ रहा हो। ख़ैर, मैं अब आराम से खड़ा था। मेहंदी लगे हाथों वाली स्त्री की आंखें बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि जैसे अब बोल ही पड़ेंगी। उसकी लंबाई मुझसे आधा इंच ज्यादा ही रही होगी। अगर मैंने जूते नहीं पहने होते तो वह मुझसे और लंबी लगती। लेकिन बंधेज की गुलाबी साड़ी में वह लंबी ही लग रही थी। बस में रोज आने वाले सहयात्रियों को देखकर मुस्कुराना एक आम रिवाज़ है। मेरी आदत में भी मुंह सुजाकर खड़ा होना शामिल नहीं है, सो मैं आदतन मुस्कुराता हुआ उसे देख रहा था। वह भी जवाब में मुस्कुराई। मैं इस डर से कि कहीं यह महिला मेरी मुस्कुराहट को ग़लत ना समझ ले, अपना मुंह फेरकर कहीं और देखने लगा। हालांकि दिसंबर का यह महीना मुस्कुराने का नहीं था। पूरे देश में जगह-जगह दंगे-फसाद हो रहे थे और मुस्कुराहट को जैसे अभिशाप माना जा रहा था। इसीलिये ज्यादातर लोगों के चेहरों पर कर्फ्यू की दहशत जैसी चुप्पी छाई हुई थी।
***
मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, ‘कहां हो तुम...’
‘इसी जहां में’
‘कोई खोज-ख़बर नहीं मिली इतने बरसों में... वो नंबर बिल्कुल ग़लत निकले।‘
एक खिलखिलाहट-सी गूंजती चली गई उस पार।
‘मैंने तो कहा ही था कि मेरा कोई फोन नंबर नहीं है। वैसे भी नंबरों का क्या है श्याम बाबू, बदलते रहते हैं, जैसे तुम्हारे भी इस बीच कितने नंबर बदल गये... है ना...’
‘हां, तबादलों ने कहां-कहां नहीं घुमाया मुझे... लेकिन आप कहां हैं आजकल...’
‘जब एक बार कह दिया तुम तो फिर ये आप बीच में क्यों ले आते हो श्याम बाबू...’
‘ओके, कहां हो तुम...’
‘गुजरात...’
मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला, कुछ देर तक मेरी चुप्पी को भांप कर उसने कहा, ‘गुजरात में जिंदा हूं, यही सोच रहे हो ना...’ और उसके इतना कहते ही दस बरस पहले का गुजरात मेरी आंखों के सामने आ गया। उन दिनों मैं भी सूरत में था। उन दो बरसों में मैंने जैसे एक पूरी सदी देख ली थी। लेकिन उसके जवाब में मैं फोन पर कुछ नहीं कह पाया, बस ‘हुंह’ करके रह गया।
***
लेकिन वहां उस बस में जगह ही कितनी थी जो गर्दन घुमाकर कहीं और देखा जा सकता। बस उन रास्तों से गुज़र रही थी, जहां जले हुए टायरों के निशान मैंने कल देखे थे और जिनकी तस्वीरें अखबारों में छपी थीं, टीवी पर दिखाई गई थीं। मुझे वापस वहीं बस में लौटना पड़ा। उसके हाथों में लाख की चूडियां थीं, लाल, हरी और पीली। मैंने अपने मुस्कुराते होंठों को दबाते हुए देखा, वह दबी मुस्कान में चूडियों से खेल रही थी। एकाएक उसने खेल बंद कर दिया और मेरी ओर देखने लगी। उसका देखना कुछ इस तरह का था कि मैं अपनी दबी मुस्कुराहट को बाहर लाने के लिए मज़बूर हो गया। उसकी चमकतीं-बोलती आंखें कुछ और खिल गईं। इस बार उसकी मुस्कुराहट में उन्मुक्तता थी। एक बेलौस और बिंदास मुस्कान। मैं एक बार तो बिल्कुल झेंप ही गया। फिर मैंने देखा कि वह शायद मेरी झेंप का मज़ा ले रही है, इस पर मैं हौले-से मुस्कुराया तो उसकी आंखों से जैसे रोशनी का एक बड़ा फैलता हुआ दायरा मुझे अपने आगोश में लेता चला गया। मोहक मुस्कान के जादू में मैंने ख़ुद को संभाले रखने के लिए दांये हाथ से बस की छत से लगा डंडा पकड़ रखा था। पता नहीं क्यों मैंने एकाएक उसे छोड़कर बांये हाथ से खिड़की की सलाख़ पकड़ ली। इस बार मैंने ग़ौर से देखा उसकी देह बहुत पतली-दुबली थी। उसके गहरे कत्थई पुलोवर के बटन खुले हुए थे, जिनकी वजह से उसका सरकारी स्कूल की मास्टरनियों जैसा, नाभि से नीचे तक देह को ढंकता हुआ पीला ब्लाउज दिख रहा था। जहां अक्सर पुरुषों की नज़र जाती है, वहां कुछ ख़ास नहीं था, जो उसके सौंदर्य या कि आकर्षण में इजाफा करे। लंबा अंडाकार चेहरा था और सांवली रंगत। सुतवां नाक और पतले होंठ, जैसे चंपा के फूल की पंखुडि़यां। उसके दांत कुछ लंबे थे या कहें कि जबड़ा हल्का-सा बड़ा था। बावजूद इसके उसकी सुंदरता में कोई कमी नहीं थी। ऐसा होता है ना कि चेहरे या देह का कोई अंग चाहे कुछ अलग ही क्यों न हो, ख़ास वजहों से कई बार अजीब नहीं लगता है। इस स्त्री के मामले में शायद इसका कारण उसकी आंखें रही होंगी या कि नाक और होंठ, ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता।
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उधर फोन पर बड़ी देर तक अबोलापन छाया रहा। लगा जैसे सिसकियां सुनाई दे रही हैं चुपचाप। मैं उठकर बेडरूम में चला आया। खामोश सिसकियों ने मुझे अंधेरे में ही बिस्तर पर धकेल दिया। आंखें बंद कर मैं दो तकियों को सिरहाने लगाकर अधलेटा हो गया। चुप्पी को तोड़ते हुए मैंने ही कहा, ‘सुनो, मुझसे तुम्हारी सिसकियां नहीं सुनी जातीं...’
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद बस हुंह की आवाज़ आई।
ज़रा देर के लिए लगा जैसे चूडि़यां खनक रही हैं, फिर बारी-बारी से एक दरवाजा खुलने और बंद होने की आवाज़ सुनाई दी।
‘ओह सॉरी... कितनी पुरानी बातें याद आ गईं श्याम... खुद को रोक नहीं पाई मैं... आंसुओं के साथ बहुत कुछ बह निकला... लेकिन तुम परेशान मत होना...’
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मेरा बांया हाथ अब खिड़की की छड़ को पकड़े हुए दौड़ती बस में देह का संतुलन बना रहा था। वैसे इतनी भीड़ में इसकी कोई संभावना नहीं होती कि आप गिर सकें, लेकिन किसी और पर नहीं गिर पड़ें इसके लिए संतुलन बनाकर रखना होता है। दंगे, दहशत और दंद-फंद के इस माहौल में इतना संतुलन नहीं रखें तो पूरा शहर जल जाये। कई महिलाएं इसे जानबूझकर की गई शरारत मान बैठती हैं, इसलिए ख़ास ध्यान रखना होता है। आधा घंटे का सफ़र कई बार ऐसे हालात में जिंदगी भर का सबक बन जाता है। बसों में कभी-कभार यात्रा करने वाले इस बात को नहीं जानते और गालियों के साथ मार भी खा बैठते हैं। मेरी पीठ के ऐन पीछे एक मोटी स्त्री बैठी थी, जिसका ध्यान रखना जरूरी था, वरना वह ज़रा-सा स्पर्श होते ही तूफान मचा सकती थी। मेरे जैसे रोज़ के यात्री इस बात से पूरी तरह परिचित थे। मैंने कनखियों से देखा कि मेहंदी लगा एक हाथ भी अब खिड़की की सलाख थाम चुका था। बाहर बहुत ठंड थी। हम दोनों जिस तरह खड़े थे, उससे खिड़की के बाहर कुछ नहीं दिख रहा था, बस ठंडी हवा अंगुलियों को जैसे सहला रही थी। मैंने महसूस किया कि थोड़ी देर बाद ही मेरी अंगुलियों पर एक खुरदुरी गर्माहट तैर रही थी। बस के अंदर उसकी आंखें चमक रही थीं। झिझकते हुए मैंने अपना हाथ वहां से हटाकर भीतर ले लिया। एक स्टॉप पर कुछ और सवारियां भीतर दाखिल हो गईं। जगह लगातार कम पड़ती जा रही थी। उसने मेहंदी रचा अपना हाथ साड़ी में लपेटा और मेरे ठंडे हाथ के नजदीक ले आई। दोनों हाथ अब उसके पर्स के पीछे थे, उसने आराम से मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। जैसे दहशतगर्दी के माहौल में किसी ख़ौफ़ज़दा इंसान को पनाह मिल गई हो। वह चुपचाप मुस्कुरा रही थी और उसकी आंखों की चमक बढ़ती जा रही थी। मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया। बंधेज का टेक्स्चर और उसके हाथों का खुरदुरापन अब बहुत मृदु लग रहा था। उसने अपनी अंगुलियां अब मेरी अंगुलियों में स्नेह से जकड़ ली थीं, जैसे चुपके-से हाथ मिलाने की कोशिश की जा रही हो। कामयाबी में उसने मेरे हाथ की अंगुलियों में अपनी अंगुलियां लपेटते हुए जैसे दो पंजों का शिकंजा कस दिया था।
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अक्टूबर के महीने में आधी रात से कुछ पहले का वक्त था यह और मौसम में हल्की सर्दी की दस्तकें साफ महसूस की जा सकती थीं। उसने थोड़ी देर में बात करने के लिए कहकर फोन काट दिया था। मैं सिरहाने रखा पतला कंबल लेकर अंधेरे में ही लेट गया था। बीस साल के जिन गुमशुदा अंधेरों से उसकी आवाज़ सुनाई दे रही थी, वहां मेरे कमरे की रोशनी का कोई अर्थ नहीं था। आग, वहशत, दहशत, जलते हुए असंख्य अमानवीय दृश्यों के बीच मेरे आसपास जैसे हिना की खुश्बू के भंवर तैरने लगे थे और दोनों एकमेक होकर एक अजीब चिरायंध पैदा कर रहे थे।
मैं खाना खा चुका था, लेकिन इस फोन से जैसे सब कुछ एक झटके में बदल गया था। अजीब-सी बेचैनी और घबराहट छाई हुई थी। कमरे के भीतर के अंधेरे में जैसे आग की लपटों में जलते हुए गुजरात-गोधरा के दृश्य मेरे सामने भयानक दानवी अट्टहास करते नज़र आ रहे थे। डर और बेचैनी के मारे मैंने हाथ बढ़ाकर नाइट लैंप जलाया। हल्का पीला प्रकाश अपनी पूरी उदासी के साथ मेरे वजूद में तैर गया।
मैं उठा और चुपचाप अलमारी खोलकर वोदका की बोतल निकाल ली। एक गिलास में थोड़ी उंडेलने के बाद बोतल वापस रख दी। पानी मिलाया और कंबल खींचकर फिर से अधलेटी मुद्रा में पसर गया। गिलास हाथ में लेकर सिप करने लगा। दिमाग में कितना कुछ जमा था बीस बरसों का, सब ऊपर-नीचे होने लगा। भीतर के अंधेरे इतने गहरे थे कि रोशनी सहन नहीं हो रही थी। इसीलिये वोदका का सहारा लेते हुए मैंने नाइट लैंप बुझा दिया।
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जल्दी ही मेरा स्टॉप आने वाला था। मैंने हौले से हाथ छुड़ाया और मुस्कुराया। जहां मुझे उतरना था, वहां बस लगभग पूरी तरह खाली होने वाली थी। बस रुकने पर हम दोनों मुस्कुराते हुए आगे पीछे उतरे।
मैं उतरकर आगे बढ़ा तो वह साथ चलने लगी। उसने बिना किसी संबोधन या औपचारिकता के कहा, ‘आंखें बहुत बुरा करती हैं, किसी का कोई दोष नहीं इसमें।‘ मैं बस मुस्कुरा दिया। उसने पूछा, ‘कहां जाना है?’ मैंने कहा, ‘दिल्ली गेट’ और वह मुस्कुरा दी। मैं आम तौर पर बस से उतरकर रिक्शा करता हूं और आधा किमी दूर अपने ऑफिस पहुंचता हूं। कई बार समय हो तो पैदल चल देता हूं। आज पता नहीं क्यों पैदल ही चले जा रहा था। अब मेरे कदम उसके साथ कदमताल कर रहे थे। मैंने उसका नाम पूछा तो जवाब मिला ‘आशा’। मैंने भी अपना नाम बता दिया, ‘श्याम’। मैंने सवाल किया, ‘आप किस स्कूल में पढ़ाती हैं?’ उसने आश्चर्य से कहा, ‘आपको कैसे मालूम?’ मैंने कहा, ‘मास्टरनियों के ही ब्लाउज आजकल लंबे होते हैं, वरना कौन पहनता है ऐसे...।’ सुनकर उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई। हम चलते हुए ही बातें करते जा रहे थे, क्योंकि मुझे ऑफिस पहुंचने की जल्दी थी। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि यहां उसका पीहर है और वह किसी शादी में आई हुई है। मेरा ऑफिस आ गया था। मैंने कहा, ‘अगर आपके पास वक्त है तो कुछ देर रुकें। मैं बस अंदर जाकर हाजिरी लगाकर वापस आता हूं, फिर साथ बैठकर चाय पियेंगे।‘ उसने मेरा प्रस्ताव मंजूर करते हुए कहा, ‘ठीक है, मैं इंतजार करती हूं।‘ वह वहीं भीड़ भरी सड़क पर खड़ी रही और मैं भीतर चला गया।
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मैंने वोदका का छोटा ही पैग बनाया था और बहुत धीमे सिप कर रहा था, फिर भी मेरा पैग खत्म होने जा रहा था। मैंने अनुमान लगाया कि उसने दुबारा फोन करने के लिए कहा था तो उस बात को गुज़रे भी करीब आधा घंटा हो चुका है। मैंने मोबाइल देखा, रात के सवा ग्यारह बजे थे। खुद फोन करूं कि नहीं करूं की मनस्थिति में ही कई मिनट खर्च कर दिये। कई बार सोचा लेकिन हर बार हिम्मत जवाब दे जाती। पता नहीं कौन उठा ले, इतनी रात गये किसी महिला को फोन करना और वो भी ऐसी महिला को, जिससे कोई संबंध ही नहीं... और है भी तो बताया नहीं जा सकता।
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मैं चाहता तो उसे कैंटीन में बिठा सकता था, लेकिन ऑफिस वालों का क्या भरोसा, कुछ का कुछ समझ बैठें, जबकि सच में कुछ हुआ ही नहीं है अभी तक तो। मैं गया, हाजिरी लगाई और बॉस को यह कहकर निकला कि कोई मिलने वाले आए हैं, इसलिये थोड़ी देर में उन्हें चाय-पानी करवाकर आता हूं। यह एक सामान्य बात है और इस पर कोई ध्यान नहीं देता। बॉस ने बस इतना कहा कि सुबह-सुबह ही मिलने वाले आ गये, खैर कोई बात नहीं। मैं बाहर आया तो वह फुटपाथ पर खड़ी थी। मैंने उसके पास जाकर कहा, ‘आइये।‘ मैं उसे लेकर सड़क के उस पार ज़रा-सी दूरी पर बने एक रेस्टोरेंट में ले गया। अभी वहां आमदरफ्त शुरु नहीं हुई थी, पूरा रेस्टोरेंट खाली पड़ा था। वह मेरे सामने बैठी थी। पानी आया और वह चुपचाप पानी पीने लगी। मैंने भी उसके सामने कुछ दिखाने के अंदाज में पानी को चुस्कियां लेकर पिया। जैसे कोई पनाह में आया हुआ शख्स डरते हुए पानी पीता है।
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मैं चाहता तो एक और पैग बना सकता था। इस अकेले घर में मुझे रोकने वाला तो कोई नहीं, लेकिन मन नहीं माना। हां, एक पैग से कुछ अजीब किस्म का आत्मविश्वास आ गया था। बांये हाथ का अंगूठा उसके नंबर को कई बार डायल करने के बाद काट चुका था। जेहन में जैसे बस ‘श्याम बाबू’ का ही स्वर तैर रहा था।
सिवा उसके किसी ने मुझे जीवन में श्याम बाबू नहीं कहा। इसलिए यह संबोधन सुनते ही मेरी चेतना के तार झनझना उठे थे।
बहुत इंतज़ार के बाद हारकर मैंने सारी हिम्मत जुटाई और उसका फोन डायल कर ही दिया। बहुत देर तक घंटी जाती रही, लेकिन किसी ने उधर से फोन रिसीव नहीं किया।
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बातों का सिलसिला उसने ही शुरु किया। ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।‘ मैंने भी खुशी जाहिर की। उसने बताया कि शादी बचपन में ही हो गई थी। वह शहर में रहती थी, इसलिये पढ़ती रही और उधर पति पहले तो खेती में लगा रहा, फिर कुवैत चला गया। पति के वापस आने तक उसकी स्कूल में नौकरी लग चुकी थी। अब वह अपने दसवीं फेल पति के साथ शहर से करीब 60 किमी दूर ससुराल के अपने गांव में रहती है और पड़ौस के ही गांव में उसकी पोस्टिंग है। पति ने कमाये हुए पैसों से और जमीन खरीद ली है, अब वह पूरी तरह खेती में लगा रहता है। एक बेटा और एक बेटी है, दोनों पढ़ रहे हैं। अजीब बात है कि हमारी बातचीत में एक बार भी दंगे-फ़साद का जि़क्र नहीं आया। जबकि उसने अपना पीहर जिस इलाके में बताया था, वहां बहुत कुछ होने की ख़बरें मिलती रही थीं। हम दोनों ही शायद उस दहशत और गर्दो-गुबार से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें पूरा शहर ही नहीं देश भी मुब्तिला था। ऐसा होता ही है, मनुष्य यंत्रणा से बाहर निकलने के रास्ते जहां खोज लेता है, वहां से उसी दुश्चक्र में नहीं जाना चाहता।
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मैं अजीब निराशा में घिरा जा रहा था। उम्मीद छोड़कर मैंने सोने की कोशिश की। कंबल को खींचकर गर्दन तक ले आया। हसरत से मोबाइल बिस्तर के कोने में रखा और दो में से एक तकिये को अपनी बाजू में सटा लिया। मैं उसके ख़यालों में ही डूबा सोने की कोशिश में था कि मोबाइल बजा। उसी का फोन था।
‘हलो... हां, सॉरी श्याम बाबू... बहुत से काम निपटाने थे घर के। तुम बहुत चिंता में रहे होंगे ना...’
‘हां, चिंता तो थी ही। मैंने फोन किया तो कोई जवाब नहीं मिला।‘
‘हां, मैं मोबाइल यहां कमरे में ही छोड़ गई थी। किचन और बाकी काम यानी दरवाज़े बंद करने वगैरह में काफी वक्त लग गया।‘
‘क्यों घर में कोई नहीं है क्या...’
‘हां, तुम्हारे घर में कौन है इस वक्त...’
‘कोई नहीं, अकेला हूं बस’
‘हम भी अकेले तुम भी अकेले... मजा आ रहा है कसम से... हाहाहा’
पहली बार उसकी खिखिलाहट अच्छी लगी।
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खाली रेस्टोरेंट में जब तक चाय आई वह अपनी संक्षिप्त कथा सुनाती रही। चाय आने के बाद उसने मेज पर टिका मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा, ‘दोस्ती मत तोड़ना।‘ मैंने कहा, ‘नहीं तोड़ेंगे।‘ इस पर उसने मेरा हाथ कसकर दबा दिया। अब मैं ठीक से उसके हाथों का खुरदुरापन महसूस कर रहा था। गांव की गृहस्थी में उसके लंबे पतले हाथ सारी नजाकत खो चुके थे। मेहंदी और नेल पॉलिश के बावजूद एक सरकारी स्कूल मास्टरनी की ग्रामीण गृहस्थी के सारे दाग-धब्बे उसके हाथों की लकीरों में चस्पां थे। लेकिन उन हाथों में गहरी ऊष्मा थी, जिंदगी की गरमास से चमकती आंखों में जैसे कोई तड़प थी। मुझे गांव में अपनी पत्नी और मां के हाथ याद आ गये, जो उतने ही खुरदुरे थे।
***
‘अब मैं आराम से लाइट बंद कर बिस्तर पर लेटी हूं। तुमसे कितनी बातें करनी हैं मुझे। सुनो तुम्हें बुरा तो नहीं लग रहा मेरा बात करना...’
‘बुरा क्यों लगेगा...’
‘कि ये अचानक कहां से आ गई बीस साल बाद... वो हॉरर फिल्म याद है ना...’
‘हां, याद है’
‘तुम्हें डर तो नहीं लगा मुझसे, हाहाहा...’
‘नहीं, बस चौंक गया था मैं’
‘अच्छा और चौंकने के बाद क्या किया... व्हिस्की पी, है ना...’
‘नहीं वोदका...’
‘हुंह, ओहदे के साथ ब्रांड बदल लिया...’
‘नहीं, घर में थी ही वोदका...’
‘तो अकेले-अकेले वोदका गटक गये...’
‘तुम तो पता नहीं कहां चली गई थी...’
‘अब आ गई ना, बोलो क्या सुनना चाहोगे...’
‘जो तुम चाहो...’ ’लेकिन पहले अपनी सुनाओ...’
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उसने मेरे बारे में पूछा। अकेला रहता हूं, एक सरकारी फ्लैट मिला हुआ है। पत्नी गांव में है और मां-बापू के साथ खेती-गृहस्थी संभालती है। दो बेटे हैं, जो उधर ही पढ़ते हैं। गांव यहां से बहुत दूर है, इसलिये महीने में दो-एक बार गांव चला जाता हूं। ऑफिस में बहुत काम है, इसलिए देर तक रुकना होता है। कई बार छुट्टी के दिन भी आकर काम करना पड़ता है। उसने मेरा फोन नंबर मांगा। यह मोबाइल के आने से पहले के दिनों की बात है, मैंने अपना ऑफिस का नंबर दे दिया। मेरे घर पर फोन नहीं है। उसने अपने घर का फोन नंबर देते हुए कहा कि शाम को सात बजे के आसपास ही करना। उस वक्त मैं ही फोन उठाती हूं। मैंने फोन नंबर तो ले लिया। मैं जानता था कि मैं उसे कभी फोन नहीं करूंगा। उसने पूछा कि अब कब मिलेंगे? मैंने कहा, ‘अगर वक्त हो तो शनिवार को मिल सकते हैं। उस दिन यूं तो छुट्टी रहती है, लेकिन दो-चार घंटे ऑफिस आना पड़ता है। दंगों और कर्फ्यू के कारण बहुत काम अभी अपडेट किया जाना है। लंच के वक्त मिल सकते हैं।‘ शनिवार को आने में अभी चार दिन थे। मैंने सोचा कि चार दिन में तो बहुत कुछ बदल जाता है। पता नहीं इसका मूड भी बदल जाए। लेकिन उसने कहा कि शादी में अभी कई दिन हैं और वह अगले दो सप्ताह तक शहर में ही रहेगी, इसलिए शनिवार को मिलने में कोई दिक्कत नहीं। चाय पीकर हम बाहर निकले तो दोस्ती जैसा एक संबंध बन चुका था। उसे अपने स्कूल के किसी काम से नजदीक ही शिक्षा विभाग में जाना था। मैंने उसे रिक्शे में बिठाया और अपने ऑफिस में घुसकर काम में जुट गया।
***
‘लगता है जैसे सब कुछ खत्म हो गया...’
मेरी बातें सुनकर वह आहें भर कर बोली, ‘ओह, इतना कुछ हो गया और तुम्हें मेरी याद तक नहीं आईं...’ ’याद करता था, लेकिन तुम तो रहस्य की तरह आई और रहस्य की तरह ही गायब भी हो गई।‘
‘हां, जिंदगी कई बार अपने आप में ही रहस्य हो जाती है ना... जैसे हमारा मिलना और बिछुड़ना...’
‘तुम कहां रही इस बीच...’
‘वो भी एक लंबी कहानी है श्याम... जिस्मानी रोगों ने तुमसे इतना सब छीन लिया और मुझसे समाजी रोगों ने...’
उसके इतना कहते ही जैसे एक लंबी खामोशी छा गई।
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मैं केंद्र सरकार के सांख्यिकी विभाग में वरिष्ठ सहायक हूं। मेरे सेक्शन में मेरे साथ सबसे बड़े बॉस यानी निदेशक बैठते हैं। हम दोनों दूसरी मंजिल पर बने एक कमरे में बैठते हैं। यहीं बॉस का केबिन है, जिसमें लगे फोन का एक एक्स्टेंशन मेरे पास है। बॉस की गैर मौज़ूदगी में मैं ही सारे फोन सुनता हूं। कहने के लिए हम दोनों के पास एक चपरासी है, लेकिन वह आम तौर पर नीचे ही रहता है, क्योंकि उसके पास रिकार्ड का भी अतिरिक्त कार्यभार है। जब साहब उसकी रिमोट घंटी बजाते हैं, वो अवतरित हो जाता है। दिन में लंच के समय एक फोन आया, उस वक्त बॉस खाना खाने गये हुए थे और मैं टिफिन सेंटर से आया अपना खाना खा चुका था, इसलिए फोन मुझे ही उठाना था। मैंने दो-तीन बार ‘हलो’ किया, लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। मैं थक कर फोन रखने ही जा रहा था कि एक स्त्री-स्वर में ‘हलो’ सुनाई दिया। मैंने आदतन कहा कि मैडम, साहब खाना खाने गये हैं, बाद में बात कीजियेगा। लेकिन उधर से जैसे एक खिलखिलाहट गूंजी, ‘हमें तो आपसे बात करनी है, साहब से नहीं।‘ मैं चौंक गया था। दरअसल मेरे लिए ऑफिस में फोन बहुत कम आते हैं। मुश्किल से कभी गांव से बेटे का किसी सामान के लिए फोन आ जाए तो अलग बात है, वरना नहीं। इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ और मैं दफ्तरी काम के दबाव में कल्पना ही नहीं कर सका कि मेरे लिए किसी महिला का फोन भी आ सकता है। फोन पर गूंजती खिलखिलाहट ने ही कहा, ‘क्या सुबह की बात भी भूल गये श्याम बाबू...।‘ मेरा माथा ठनका, ‘ओह तो ये आशा है।‘ मैंने ‘सॉरी’ कहते हुए बात जारी रखी। उसने बताया कि शिक्षा विभाग के काम से वह अब फ्री हुई है। मैंने उसे समझाया कि वैसे तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह चाहे तो सिर्फ लंच के दौरान या फिर शाम को छह बजे बाद फोन करे, उस वक्त आराम से बात हो सकती है। बॉस के आने से बस ज़रा देर पहले उसने फोन काटा और कहा कि शाम को बात होगी।
उस दिन शाम को फिर उसका फोन आया और वह इधर-उधर की बहुत सारी बातें करती रही। एक दिन में दो फोन और एक मुलाकात में वह मेरे बारे में बहुत कुछ जान चुकी थी। जैसे कि मैं बहुत आत्मकेंद्रित आदमी हूं, दुनिया-जहान के लफड़ों में नहीं पड़ता। कॉलेज के दिनों में दोस्तों की संगत में संगीत सुनने का जो चस्का लगा था, वो बहुत आगे तक बढ़ चुका है, जिसमें अब अपनी ख़ुद की रूचि का और इजाफा हो चुका है। इसके साथ ख़बरें सुनने, पढ़ने के अलावा ऑफिस की लाइब्रेरी में आने वाली पत्रिकाएं पढ़ लेता हूं। सुबह का नाश्ता और शाम का खाना ख़ुद बनाता हूं, लंच में खाना बाहर से मंगवाता हूं, क्योंकि बरसों पहले एक निराश्रित विधवा ने यह टिफिन सेंटर अपना स्वावलंबी जीवन जीने के लिए शुरु किया था, तभी से उसके यहां से दोपहर का गर्म खाना आ रहा है।... करीब बीस मिनट बात करने के बाद उस दिन उसने शाम की बात ख़त्म की।
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उसका फोन कट गया था। मैंने मिलाने की कोशिश की तो कपंनी का संदेश सुनाई दिया कि आउट ऑफ कवरेज एरिया अथवा स्विच ऑफ है। विचित्र-सी झुंझलाहट हो रही थी कि आखिर यह सब हो क्या रहा है।
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वापसी में घर जाते हुए बस में सुबह की सारी घटना याद आती रही और अजीबोगरीब ख़याल आते रहे। मन को आज़ादी मिले तो वह कल्पना के ना जाने कितने घोड़े दौड़ाने लगता है। कई किस्म के ख्वाबों में डूबता-उतराता मैं घर के नज़दीक वाले स्टॉप पर उतरा तो कदम ख़ुद-ब-ख़ुद शराब की दुकान की ओर बढ़ते गये। मैं कभी-कभार ही शराब पीता हूं और घर पर रखता भी हूं लेकिन आज .... एक पूरी बोतल व्हिस्की की खरीदी और रास्ते से अंडे वगैरह खरीदते हुए घर पहुंचा। नये-पुराने फिल्मी गीत और ग़ज़लों के मुखड़े जुबां पर आ रहे थे। खुशकिस्मती से हमारा इलाका दंगों से बचा हुआ था, इसलिये मेरा मन ऐसी बातें कर रहा था। एक नशा-सा तारी था जेहन पर, जिसमें मदमाता मैं अपने घर पहुंचा था।
अपने दो कमरे के फ्लैट में पहुंचकर मैं सबसे पहले अलमारी में लगे आदमकद आइने के सामने जा खड़ा हुआ। किसी आत्ममुग्ध नायिका की तरह ख़ुद को निहारा तो लगा कि शक्ल-सूरत इतनी बुरी भी नहीं है कि कोई पसंद ही ना करे। उसने आंखों के लिए कुछ कहा था, मैंने पहली बार गौर किया कि मेरी आंखें सच में कुछ-कुछ आकर्षक हैं। लेकिन कमाल है पहली बार किसी अंजान महिला ने इस पर ध्यान दिया। यूं गांवों में इस किस्म की शहरी बातों का वक्त ही कहां होता है, जो कोई किसी को कुछ कहे। खैर, कपड़े बदलकर सबसे पहले फ्रिज खोलकर देखा कि क्या बनाया जा सकता है? अंडे देखकर लालच आ गया कि आज सिर्फ अंडे ही खायेंगे। सुबह का गूंदा हुआ आटा रखा था। काम चल जाएगा। हरी मिर्च, प्याज, अदरक और हरा धनिया निकाला और अंडे लेकर रसोई में गया। तेज गति से हाथ चलाये और आशा की आशाएं संजोते हुए अंडा करी बनाई और चार चपातियां सेंक कर बाहर आ गया। फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकाली और एक पैग बनाया। टीवी पर चैनल बदलते हुए धीरे-धीरे चुस्कियां लेता रहा। देश में ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक में दंगे फैले हुए थे। हर समाचार चैनल पर वही ख़बरें थीं। मैंने हार कर टीवी को म्यूट कर दिया और अपना म्यूजिक प्लेयर चालू कर दिया। कुछ राहत महसूस हुई। सुबह जो कैसेट लगी हुई थी, वही आगे चल पड़ी। अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन बंधु दानिश अलीगढ़ी की ग़ज़ल पेश कर रहे थे। यूं महसूस हुआ जैसे ग़ज़ल मेरे ही दिल का हाल बयां कर रही थी।
दो जवां दिलों का ग़म दूरियां समझती हैं कौन याद करता है हिचकियां समझती हैं।
ग़ज़ल के अशआर और सुरीली गायकी में तैरते हुए पहला पैग खत्म किया और दूसरा बनाया। मन में पता नहीं क्या-क्या उमड़ रहा था। वही ग़ज़ल फिर से रिबाइंड कर दी। मुझे अपने हाथ पर उस खुरदुरी गर्माहट का अहसास बार-बार महसूस हो रहा था। उसकी काया अब शराब के नशे के साथ ‘कनक छड़ी-सी कामिनी’ का अहसास दे रही थी। खुद को गालियां देने का मन कर रहा था कि जब वो ख़ुद अपना हाथ दे रही थी तो कंबख्त उसे एक बार भी क्यों नहीं दबाया। बेवकूफ कहीं के, गंवार आदमी। उसे मेहंदी, बंधेज की साड़ी और लाख की चूडियों के बावजूद किसी तरह का कोई नैतिक संकट नहीं था, लेकिन तुम...। इसी उहापोह में नौ बज गये और तीसरा पैग भी ख़त्म हो गया। उठकर रसोई में गया और खाना लगाया। पागल मन ने जैसे पहला कौर आशा को खिलाना चाहा और बदले में आशा ने मुझे ही खिला दिया। अब शनिवार बहुत दूर लग रहा था। मन गाये जा रहा था, ‘हमारी सांसों में आज तक वो हिना की खुश्बू महक रही है...।‘
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मैं समझ गया था कि उसके मोबाइल की बैटरी जवाब दे चुकी है इसलिये अब शायद ही बात हो पाए। मैंने देखा कि रात के साढे बारह बज चुके हैं, इसलिये अब सोने में ही भलाई है। मैं एक बार फिर सोने की कोशिश करने में जुट गया। अगले दिन दशहरे का अवकाश था इसलिए इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि सुबह उठकर ऑफिस जाना है। वोदका का नशा था कि दिन भर की दिमागी माथापच्ची या कहें कि उससे दुबारा बात होने की आश्वस्ति, नींद दस्तक देने लगी थी।
एक ख्वाब की ओर नींद लिये जा रही थी कि मोबाइल फिर बज उठा।
‘हलो, हमें नींद चुराकर सोने वाले की नींद हराम करनी है... क्या आप तैयार हैं इसके लिए...’
‘हाहाहा, तुम भी ना कमाल करती हो...’
‘क्यों क्या हुआ...’
‘कभी काम आ जाता है तो कभी तुम्हारी बैटरी खत्म हो जाती है...’
‘ऐ सुनो, बैटरी मेरी नहीं मोबाइल की खत्म हुई है। मेरी तो जानते ही हो ना तुम...’ ’हां, पता है...’
‘हाहाहा... क्या कर रहे हो... सो गये थे ना...’
‘हां’
‘क्या सोचकर सोए थे कि अब उसका फोन नहीं आएगा... अरे जालिम तुम्हें नींद कैसे आ गई...’
‘जैसे बीस बरस बाद तुम्हें मेरी याद आ गई’ ’हां, ये हुआ ना नहले पे दहला’
‘अच्छा एक बात बताओ, तुम्हें मेरा नंबर कैसे मिला...’
‘आज के जमाने में किसी सरकारी अफसर का नंबर मिलना कोई मुश्किल काम तो है नहीं’
‘फिर भी...’
‘तुम्हारे ऑफिस की वेबसाइट से’
‘तो तुमने वेबसाइट से खोजा मेरा नंबर...’
‘हां, इसमें चौंकने की क्या बात है...’ ’तुम कंप्यूटर, वेबसाइट ये कब से जानने लगी गंवार मास्टरनी...’
‘ऐ सुनो, अब मैं वो गंवार मास्टरनी नहीं हूं लंबे ब्लाउज वाली...’
‘तो क्या अब स्लीवलैस टॉपर और जींस पहनने लगी हो...’
‘नहीं, उससे भी आगे चली गई हूं...’
‘कितनी आगे...’
‘सोचके देखो...’
‘हुंह’
‘क्या हुआ यार...सोच जवाब दे गई क्या...’
‘नहीं, कुछ याद आ गया...’
‘हां, वो तो याद आएगा ही... सुनो...’
‘हां, बोलो’
‘एक बार बोलो ना...’
‘क्या...’
‘वही...’
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दूसरे दिन फिर दोपहर में लंच के दौरान उसका फोन आया। उसने पहले मेरा हालचाल पूछा तो मैंने कहा, ‘मैं ठीक हूं, आप बताइये क्या हाल हैं?’
‘मैं भी ठीक हूं।‘ ’गुड और क्या...’
’बाकी सब ठीक है। एक बात बताइये, आपको बिल्कुल भी याद नहीं आई क्या मेरी... मुझे तो बहुत याद आई... पूरी रात जागती रही, एक पल भी नींद नहीं आई... आप तो खर्राटे मार सोते रहे होंगे... है ना...’ ’जी, ऐसी बात नहीं है... बहुत याद आई आपकी और उसी याद में आपने सपनों में बुला लिया और...’
‘और क्या... बताइये ना...’ उसने चिहुंक कर पूछा तो मैं चुप लगा गया। मेरी ख़ामोशी से चिढ़कर उसने कहा, ‘आप बहुत जालिम हो।‘ ’क्यों, ऐसा क्या कर दिया मैंने’, मेरा सवाल था।
‘अरे, मुझे ख्वाबों में बुलाकर पूरी रात जगाये रखते हो और पूछते हो कि क्या किया..’ उसकी जोरों की हंसी गूंजी।
‘नहीं, मैंने कहां बुलाया था, आप तो खुद-ब-खुद चली आईं।‘
‘तो क्या करती... दिल ने ऐसा मज़बूर किया कि आना ही पड़ा।‘
‘तो सारा कुसूर दिल का है, मुझे क्यों दोष देती हैं आप...’ ’यार दोष तो आपकी ज़ालिम आंखों का है... वही खींचकर लिए जाती हैं और मैं दीवानी-सी चली आती हूं।‘
‘और मैं हिना की खुश्बू में लिपटा हुआ हूं।‘ ’कसम से...’ ’हां, कसम से’ ’तो एक दिन आपको इस खुश्बू में नहला देंगे।‘
कहकर वह खिलखिलाती बातें करती रही और मैं उसका साथ देता रहा। शनिवार को मिलने के वादे के साथ बात खत्म हुई।
रोज़ बिला नागा दिन में दो बार उसके फोन आते रहे। एक बार तो हम झगड़ भी पड़े। हुआ यूं कि उसने मुझसे कहा कि मैं ज़ोर से उसे ‘आई लव यू’ कहूं तो वो मान जाएगी कि सच में मैं उससे प्रेम करता हूं। अब ये सब सरकारी दफ्तर के फोन पर कैसे कहा जा सकता है, सोचिये.....। मैंने कहा कि कभी-भी कोई भी ऊपर आ सकता है, लोग क्या कहेंगे। लेकिन वो नहीं मानी। हार कर मैंने उसे हल्के से कहा तो उसने जिद पकड़ ली कि इतने हल्के से कहा है तो अब एक फोन-किस दो, अच्छा-सा। मरता क्या न करता, उसकी बात मानी और जिंदगी में पहली बार किसी को फोन पर किस दिया। अब तक ऐसे दृश्य सिर्फ सिनेमा में ही देखे थे।
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मैंने कह दिया जो उसके कानों की चाहत थी।
‘लेकिन उस दिन की तरह ज़ोर से कहो ना... ऑफिस में इतनी तेज़ आवाज़ में कह सकते हो, यह तो घर है यार... और वैसे भी अकेले हो...’
‘तुम भी ना कमाल करती हो... अब हमारी उम्र देखो, ऐसा पागलपन इस उम्र में शोभा नहीं देता...’
‘क्या उमर है हमारी... प्यार की कौनसी उम्र होती है... वैसे भी कौनसे बूढ़े हो गये हैं हम...’
‘ओके बाबा, लेकिन...’ मैं कुछ कहता इससे पहले ही उसने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘कुछ मत कहो अब तुम, मुझसे प्यार करते हो तो बस मेरी बात सुनो...’
‘हां, तुम अपने बारे में भी तो बताओ ना...’
‘वो एक लंबी दास्तान है श्याम बाबू... उस इतिहास को भूल जाने दो...’
फिर एक लंबी-सी खामोशी छा गई हमारे बीच। मैं बहुत कुछ पूछता रहा और वह बस हां-हूं करती रही। बस बीच-बीच में जिद करके अपने मन का चाहा मुझसे अनगिनत बार सुनती रही। ‘आई लव यू...’
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शनिवार आने तक मैं रोज़ थोड़ी बहुत पीता रहा और हर शाम उसके ख्वाब देखता रहा। रोज़ दिन में दो बार उससे बात होती और हर बार उसके पास कोई प्लान होता कि शनिवार को यह करें कि वह करें। आखिर यही फाइनल हुआ कि उस दिन साथ में लंच करेंगे और कोई फिल्म देखेंगे।
शनिवार के दिन सुबह से ही मैं बहुत बेचैन रहा। क्या पहनूं, क्या नहीं पहनूं, यही उधेड़बुन चलती रही। आखिर हमेशा की तरह सरदी से बचाव वाले कपड़े पहने और ऑफिस के लिए निकल गया। करीब साढ़े बारह बजे उसका फोन आया कि वो घर से निकल चुकी है और बाजार में कोई काम निपटाकर सीधे मेरे ऑफिस के बाहर पहुंचेगी। यानी इस काम में उसे एक घंटे से कम का समय लगना था। मैंने कहा कि मैं डेढ़ बजे से पहले ही उसे बाहर मिलूंगा।
मैंने अपना काम जल्दी ही निपटा दिया और पंद्रह मिनट पहले ही बाहर चला आया। वह रिक्शे से उतरकर आ रही थी। आज उसने काले पुलोवर के साथ नीले फूलों वाली साड़ी पहन रखी थी और सामान्य स्त्रियों जैसा ब्लाउज। जब मैं उसके नजदीक पहुंचा तो उसने नमस्ते किया। मैंने कहा, ‘आज मास्टरनी नहीं लग रही हैं आप।‘ वह मुस्कुराई, ‘उस दिन तो शिक्षा विभाग जाना था, इसलिये पहना, हमेशा थोड़े पहनते हैं।‘ मैंने एक रिक्शा रोका और उसे इस इलाके के एक बढि़या रेस्टोरेंट ले चलने के लिए कहा। रिक्शे में वह मुझसे सटकर ऐसे बेफिक्र बैठी थी, जैसे हमें दुनिया का कोई डर न हो या कि हम पति-पत्नी हों। रेस्टोरेंट में जाकर वह कुछ असहज हुई। बाद में उसने बताया कि वह कभी ऐसे किसी रेस्टोरेंट में नहीं गई थी। वहां का हल्का संगीत और अंधेरा उसे फिल्मी लग रहा था। हमने साथ खाना खाया। उसके खाने में उसका गंवईपन साफ झलक रहा था। हालांकि उसने पूरी कोशिश की थी कि शहरी नफासत अपना सके। खाने के दौरान बात करते हुए उसने बताया कि उसने ग्रेजुएशन के बाद प्राइवेट एम.ए. किया और अंग्रेजी में बी.ए. भी किया। वह प्राइमरी के बजाय हाई स्कूल के छात्रों को पढ़ाना चाहती थी, इसलिए बी.एड. भी किया और सैकिंड ग्रेड टीचर की भर्ती परीक्षा के लिए फॉर्म भी भरा। लेकिन जिन दिनों में प्रतियोगी परीक्षा आयोजित हुई, उन्हीं दिनों उसके बेटा पैदा हुआ। वो चाहकर भी परीक्षा नहीं दे सकी। कई बरस पहले की यह बात बताते हुए उसके चेहरे पर जिंदगी के हालात से समझौता करने के निशान साफ़ महसूस किये जा सकते थे। इसके बाद तो वह घर-गृहस्थी में ऐसी उलझी कि सब कुछ छूट गया... और वो प्राइमरी की मास्टरनी ही रह गई। खाने के बाद उसे बहुत बुरा लगा जब तीन सौ से ज्यादा का बिल आया। उसे ऐसी फिजूलखर्ची पसंद नहीं थी।
हम बाहर निकले तो मैंने पूछा कि घर कब जाना है? उसने बताया कि वह शाम तक का कहकर आई है। मैंने एक रिक्शा रोका और एक सिनेमा हॉल चलने के लिए कहा। उसने पूछा, ‘कौनसी फिल्म देखने जा रहे हैं हम?’ मैंने कहा, ‘पता नहीं, जो लगी होगी, देख लेंगे।‘ वह मुस्कुरा दी। सिनेमा हॉल पहुंचकर रिक्शे वाले को पैसे देने के बाद मैंने उसे दो सौ रुपये देते हुए कहा कि दो बॉक्स के टिकट ले आओ। वह गई और टिकट ले आई। हम सिनेमा हॉल में पहुंचे तो हॉल खाली था। आज तो याद भी नहीं कि कौनसी फिल्म थी और क्या कहानी थी। बॉक्स में हमारे अलावा दो-चार जोड़े और थे। एक कोने में हम थे।
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उसकी बारंबार ‘आई लव यू’ की मांग से तंग आकर मैंने कहा, ‘इसके अलावा भी कुछ है जिंदगी में...’
‘हां, है तो सही, लेकिन इसके बिना शायद कुछ नहीं है...’
‘तो उसकी बात करो ना...’
‘वही तो कर रही हूं अब तक... तुम नहीं जानते, मैंने तुम्हें कितनी बार, कितनी तरह से याद किया है... तुम्हारे लिए दुआएं और बड़ी मन्नतें मांगी हैं मैंने... तब जाकर तुम मुझे फिर से मिले हो।’
‘अच्छा...’
‘हां’ कहकर वो एकदम ख़ामोश हो गई।
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हॉल के अंधेरे में टिकट चैकर के जाने के बाद उसने पूरे अधिकार के साथ मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। अपनी गोद में रखकर वो मेरा हाथ सहलाती रही। मैंने अपना सिर उसके कंधों पर टिका दिया और हम चुपचाप बतियाते रहे। अपनी पसंद, नापसंद से लेकर दुनिया जहान की बातें। उसने बताया कि उसे उपन्यास पढ़ना पसंद है, लेकिन वक्त नहीं मिलता। संगीत में उसे ग़ज़लें पसंद हैं, बस यही शौक कभी-कभार पूरा कर लेती है घर में। अंग्रेजी में बात करना और अंग्रेजी अखबार पढ़ना, न्यूज सुनना पसंद है, मगर गांव में तो बस रेडियो-टीवी पर अंग्रेजी न्यूज़ से काम चलाना पड़ता है। शहर आती है तो अंग्रेजी अखबार और किताबें ले जाती है, जो गांव जाने के बाद कई दिनों तक यूं ही पड़े रहते हैं। फिर अखबार किसी काम आ जाते हैं और किताबें पढ़े जाने का इंतज़ार करती रहती हैं। इन बातों के बीच उसका प्रेम प्रदर्शन भी चुपचाप चलता रहा। इंटरवल तक वह मेरे गाल और हाथ कई बार चूम चुकी थी।
बहुत-सी बातें की थीं हमने उस दिन, फिर भी लगता था कि बहुत-सी बातें रह गई हैं। मैंने उसे बताया कि मैं उससे मिलने के बाद रोज़ शराब के दो पैग पी रहा हूं तो उसे बुरा नहीं लगा। वह बस इतना ही बोली, ‘चलता है इतना तो।‘ फिल्म ख़त्म होने पर हम जब बाहर निकले तो अंधेरा गहरा रहा था। मैंने ऑटो रिक्शा रुकवाया और हम दोनों बैठ गये। उसने कहा कि वह घर तक ऑटो से नहीं जाएगी। मैंने कहा कि जहां तक जाना हो ऑटो ले जाये। मेरा घर रास्ते में पड़ता है इसलिए मैं रास्ते में उतर जाउंगा। वह मान गई। फिर मिलने की बात पर उसने कहा कि अगर मैं चाहूं तो वह कल शाम यानी इतवार के दिन वह मेरे घर आ सकती है। मैंने हां भर दी तो वह बहुत खुश हुई। मैंने उसे अपने घर का पता समझाया और लिख कर देना चाहा तो उसने कहा कि वह उस बिल्डिंग को पहचानती है। वह आसानी से पहुंच जाएगी। मैं दूसरी मंजिल पर रहता हूं। उसने कहा कि वह शाम सात बजे बाद दूध की डेयरी पर मेरा इंतजार करेगी। डेयरी मेरे फ्लैट की खिड़की से दिखती है।
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लंबी खामोशी के बाद उसने पूछा, ‘तुम्हारे घर से आकाश दिखता है...’ ’हां, लेकिन क्यों...’
‘बाहर आ जाओ, हम दोनों एक साथ आसमान में किसी बड़े तारे को देखेंगे... इस तरह इतने बरसों बाद मिलेंगे...’
‘मैं तारों को नहीं पहचानता...’
‘लेकिन हम तो पहचानते हैं ना एक दूसरे को और आसमान को... चलो बाहर निकलो और देखो...’
मैं उठकर बाहर निकला तो हल्की-सी कंपकंपी महसूस हुई।
‘क्या हुआ, सर्दी लग रही है...’ ’हां’
‘तो देखो अनगिनत तारे हमारे लिए रोशनी बिखेर रहे हैं...तुम वहां से कहोगे तो सितारों की रोशनी मुझ तक तुम्हारा संदेश ले आएगी...कहो, कहो ना’
‘क्या...’
‘अरे बुद्धू वही, जो अब तक कह रहे थे, आई लव यू...’
उसने किसी फिल्मी धुन पर गाते हुए जैसे आखिरी लफ्ज कहे।‘
***
अगला दिन कुछ ज्यादा ही बेचैनी लेकर नमूदार हुआ। पहले तो कुछ करने का मन ही नहीं हुआ। फिर मुझे लगा कि उसके स्वागत में कुछ कर लेना चाहिये। मैंने कपड़े धोने के बाद घर को सजाने-संवारने का काम शुरु किया। दोनों कमरों की और रसोई की अच्छी तरह सफाई की। अस्तव्यस्त चीजों को करीने से रखा। उसकी राह देखता हुआ मैं जल्दी से काम निपटाये जा रहा था। शाम गहराने लगी तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। बार-बार मैं खिड़की पर जाकर देख आता। दूर तक उसके आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी। सात बज गये तो मेरी हताशा बढ़ने लगी। पता नहीं उसे कोई काम हो गया हो और वह नहीं आये। मैंने उसके लिए दाल, चावल और आलू-मटर-पनीर की सब्जी भी बनाकर रख ली। आटा गूंद कर रख लिया। सोचा कि उसके हाथ की पकी रोटियां खायेंगे हम दोनों साथ-साथ। बेचैनी के साथ बढ़ती हताशा में मैंने एक पैग बना लिया।
जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर दानिश उसको मेरी आंखों की पुतलियां समझती हैं।
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वह मुझे सितारों के बारे में बताती रही और मैं सुनता रहा। कुछ देर बाद उसने कहा कि चलो अब सोने चलते हैं। मैं उसके इशारों पर भीतर आ गया। बाहर सच में ठंडक बढ़ गई थी, कंबल मुंह तक ले आने के बावजूद कंपकंपी हो रही थी।
‘सर्दी लग रही है क्या...’
‘हां, बाहर काफी ठंडक है।‘
‘अब तो मैं तुम्हें भीतर ले आई हूं, मेरे होते हुए सर्दी से डर... वो गाना याद है कि नहीं...’
‘कौनसा...’
‘हुस्न पहाड़ों का ओ सायबा... सरदी से डर कैसा संग गर्म जवानी है...’
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पहला पैग बहुत धीरे-धीरे सिप करते हुए मैं खिड़की से देखता रहा और आखिरकार आठ बजे उसकी लंबी कनक-छड़ी-सी कामिनी काया रास्ता तय करती हुई दिखाई दी। मैं दरवाजा उढ़का कर तेज़ कदमों से सीढि़यां उतर नीचे गया। उसने दूर से मुझे देखा और सीधे चली आई। आज वह सलवार सूट में थी। सर्दियों में इस वक्त सब लोग अपने घरों में दुबके होते हैं। कोई इक्का-दुक्का आदमी ही दिखता है सड़क पर। मैं जिस सरकारी बिल्डिंग में रहता था, उसमें ज्यादातर फ्लैट खाली पड़े थे। मेरे वाले फ्लोर पर तीन में से दो खाली थे। मैंने देखा कि नज़दीक आते-आते उसने अपनी चुन्नी सिर पर लगभग घूंघट की तरह सरका ली थी। सर्द अंधेरे में उसकी आंखें चमक रही थीं। बिल्कुल पास आकर वह हल्के से नमस्ते कर मेरे पीछे सीढि़यां चढ़ती ऊपर आ गई। मैंने कहा, ‘बहुत देर लगा दी आपने तो?’
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हम दोनों कितनी देर बातें करते रहे, याद नहीं। रात के करीब दो बज गये थे। उसने मांग की तो बरसों बाद हमने फोन पर फिर से चुंबनों का लेनदेन किया और पुरानी यादों में खो गये। मैंने बहुत जानना चाहा कि इन बीस बरसों में उसके साथ क्या हुआ, लेकिन वो चुप लगाती रही। मैंने आखिर उसे धमकी दी कि अगर वो नहीं बताएगी तो मैं फोन काट दूंगा। इस पर उसने कहा, ‘बताना तो नहीं चाहती तुम्हें, लेकिन बिना बताए हम आगे बात भी नहीं कर पाएंगे। अब बहुत देर हो गई है श्याम... मैं तुम्हारे पास आती हूं, सुबह बात करेंगे, गुड नाइट...’
‘लेकिन, इस वक्त मेरे पास...’
‘हां, तुम्हारे बगल में... चलो सुलाओ मुझे... सुबह बात करेंगे।‘ कहकर उसने फोन काट दिया।
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‘अब कैसे समझाउं कि सबको कैसे मनाकर बहाना बना कर आई हूं?’ उसने अपने पर्स के साथ एक छोटा बैग टेबल पर रखते हुए कहा। मैं रसोई से उसके लिए पानी लेकर आया। उसने पानी पिया और पानी पीते हुए ही पूरे घर का एक चक्कर लगाया।
‘तो ये है आपका खूबसूरत आशियाना?’
‘जी, क्या लेंगी आप? चाय, कॉफी या कुछ और?’
‘आप तो व्हिस्की लेंगे और हमें चाय में ही निपटा रहे हैं?... खुश्बू भी ना आंखों जितनी ही बुरी होती है दोस्त, सब बता देती है।’
‘तो आपके लिए बनाऊं... ?’
‘क्यों नहीं, आपकी दोस्ती के नाम एक जाम तो हम भी छलका सकते हैं?’
उसके इस बिंदास अंदाज पर मैं सच में मोहित हो गया। वह रसोई में गई और गिलास लाकर मेज पर रखते हुए कहने लगी, ‘तो डिनर तैयार है, बस चपातियां सेंकनी बाकी हैं?’
मैंने उसके लिए पैग बनाते हुए कहा, ‘आप तो बड़ी दूरदृष्टि रखती हैं।‘
‘आखिर दोस्त किसके हैं?’ उसने कहकहा लगाया।
उसने फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकाली और गिलास भर दिया। वह बेफिक्री में आराम से मेरे सामने वाली आरामकुर्सी में पसर गई। फिर कुछ देर बाद उठी, गिलास उठाया और मुझे उठने का संकेत किया। मैं समझ गया था। हम दोनों ने गिलास टकराये और कहा ‘दोस्ती के नाम चीयर्स।‘ उसने अपना गिलास मेरे मुंह से लगाया और मेरा गिलास अपने होठों से। हम दोनों ने इस तरह पहला सिप एक साथ लिया। उसने कहा, ‘अब मैं तुम्हारी जूठी हो गई हूं और तुम मेरे जूठे।‘ पता ही नहीं चला कि कब उसने ‘आप’ का रिश्ता तोड़कर ‘तुम’ से जोड़ लिया।
‘बहुत प्यारे हो तुम... बिल्कुल बच्चे जैसे। मुझे बहुत अच्छे लगते हो। आई लव यू... तुम गांव के होकर भी इतने कोमल-चिकने हो कि क्या बताऊं... कहीं से नहीं लगते गांव के... और मैं शहर की होकर भी गंवार लगती हूं... मास्टरनी होकर भी अनपढ़ लगती हूं... तुम्हारी आंखें पता नहीं क्या जादू करती हैं कि मैं ख़ुद इनमें खिंची चली आई। तुम्हारी आंखें हैं कि मछुआरे का जाल... और कितनी मछलियां फंस चुकी हैं इस जाल में?’
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कब नींद आई पता ही नहीं चला। सुबह जब आंख खुली तो धूप खिड़की से बहुत भीतर तक आ चुकी थी। काम वाली बाई आकर अपना काम करके जा चुकी थी। मैंने देखा मेरे मोबाइल की बैटरी खत्म होने का संकेत दे रही थी। सुबह के नौ बज रहे थे। मैंने फोन को चार्जर पर लगाया और बाथरूम में चला गया।
इस बीच मुझे सुनाई दिया कि फोन तीन बार बज चुका है। आज छुट्टी का दिन है, कोई सरकारी फोन तो होने से रहा। बड़ा बेटा लंदन से कर सकता है या छोटा वाला ऑस्ट्रेलिया से। लेकिन उसका भी तो हो सकता है। यह सोचते ही जैसे बदन में एक झुरझुरी-सी दौड़ गई। बाहर निकल कर देखा तो तीनों कॉल उसी के थे।
मैंने फोन लगाया तो कोई जवाब नहीं आया। मैंने किचन में जाकर अपने लिए चाय बनाई और अखबार पलटते हुए नाश्ता किया। इस बीच मैंने दो बार उसे कॉल किया। बस घंटी ही बजती रही। हार कर टीवी चलाया, हर चैनल पर बुराई के प्रतीक रावण पर अच्छाई के प्रतीक राम की विजय का जश्न मनाया जा रहा था। लेकिन मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं तो इसी उधेड़बुन में था कि मेरे जीवन में आई इस इकलौती रहस्यमयी स्त्री ने कैसे पिछले बीस बरस गुजारे होंगे, जिनमें वह मुझे बराबर खोजती रही। टीवी बंद करके फिर से फोन मिलाया। कामयाबी की दुआ करते हुए। तीन-चार घंटियों के बाद आखिर जवाब मिला, ‘हां, हैलो, सॉरी मैं बाथरूम में थी। कैसे हो...’ ’मैं ठीक हूं, तुम बताओ...’ ’ठीक हूं। कल बहुत परेशान किया ना मैंने...’ ’नहीं कोई बात नहीं...’
‘अब क्या करूं, अकेली हूं ना, तुम मिले तो लगा जिंदगी ही बदल गई मेरी...एक तुम ही तो हो जिसके साथ मैं अपने सारे अरमान निकाल सकती हूं। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा ना...’
‘नहीं, इट्स ओके’
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वह लगातार बोले जा रही थी। उसका बोलना अच्छा लग रहा था। मैं बस चुपचाप उसे सुन रहा था। अचानक उसने कहा, ‘मैं पहले कपड़े बदल कर आती हूं।‘ उसने अपना बैग उठाया और सामने बाथरूम में चली गई। मैं सोचता रहा कि इस आशा के भीतर कितनी आशायें दम तोड़ चुकी हैं और कितनी अभी जिंदा बची हैं, जिन्हें यह मेरे साथ पूरा करना चाहती है। मैं उसके खुरदुरे हाथों की गरमास को बारंबार अपने हाथ और गालों पर महसूस करता उसके अगले कदमों की कल्पना कर रहा था कि वह बाथरूम में से बिल्कुल बदली हुई निकली। मैं हैरत से उसे ऊपर से नीचे देखने लगा।
हे भगवान, उसने क्या ग़ज़ब का रूप धरा था। उसने अपने बाल एक जूड़े में बांध रखे थे। हो सकता है पहले से ही बंधे हों, जिन्हें मैं शॉल और चुन्नी के कारण नहीं देख पाया। कानों से उसके झुमके गायब थे और उनकी जगह लंबी-काली ईयरिंग्स लटक रही थीं। उसकी चमकती-बोलती आंखों पर कत्थई फ्रेम का हल्के पीले रंग का चश्मा था। होठों पर गहरी कत्थई लिपस्टिक थी। गले में काली चांदी का कोई एंटीक किस्म का हार था, जिसमें एक लॉकेट लटका था। उसके नीचे उसने एक पीली टी शर्ट पहन रखी थी, जिस पर अंग्रेजी में ‘लव’ लिखा हुआ था। उसकी लंबी-चुस्त टांगें एक फेडेड जींस में कसमसा रही थीं। बस उसके पांवों में वही सैंडल थे, जिन्हें वह पहनकर आई थी।
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‘तुमने बताया नहीं इस बीच क्या कुछ हुआ तुम्हारे साथ...’
‘तुम्हारे तो मां-बापू-बीवी सब एक-एक कर चले गये... जैसा कि तुमने बताया, बापू को दिल का दौरा पड़ा, मां को उनका ग़म और बीवी को कैंसर लील गया... और मेरे परिवार को ये समाज लील गया...’
‘कैसे... क्या हुआ...’
‘बेटे ने इंजीनियरिंग करने के बाद फैक्ट्री डालने की जिद कर ली थी... उसके बाप ने सारी ज़मीन बेच दी और बेटे ने गोधरा में खेती के औजार बनाने का कारखाना लगा लिया। बाप-बेटे कारखाना चलाने में लग गए। बेटी शादी के बाद चली गई अपनी ससुराल। मैंने अपना तबादला शहर के नज़दीक करा लिया और पीहर के पास में ही किराये से रहने लगी। जिंदगी ठीक ही चल रही थी, उम्मीद थी कि बेटे का कारखाना चल निकलेगा तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किस्मत में क्या लिखा है हम नहीं जानते।...’
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वह नई अदा से लहराती, बल खाती चली आ रही थी। और उसकी अदाओं में टीवी पर देखी गई बहुत-सी छवियां नज़र आ रही थीं। उसने दूर से ही हाथ लहराते हुए कहा, ‘हाय डियर, हाउ आर यू?’
‘आई एम फाईन... वॉव यू लुक्स ग्रेट...’ ’थैंक्स, बट सॉरी...’ ’सॉरी ? फॉर व्हाट?’
‘टुडे आई हैव किल्ड दैट ओल्ड ऐशा...’ ’ओह...इट्स ओके... रिलेक्स डियर, सिप योर ड्रिंक’ ’थैंक्यू, यू आर सो नाइस हनी....’ कहकर उसने अपना पैग उठाया, एक सिप लिया और मेज पर रख दिया। वह उस आरामकुर्सी में फिर से धंस गई। मैंने पूछा, ‘मैं अपना ड्रिंक बना लूं?’ उसने इशारे से कहा, ‘गो ऑन।‘ और मैं पैग बनाते हुए उसका बदला हुआ रूप देखता रहा। अगर मैं उसे नहीं जानता होता तो पहचान ही नहीं पाता कि यह वही सरकारी स्कूल की मास्टरनी है, जो लाख का चूड़ा पहनती है और नाभि से नीचे तक का ब्लाउज पहनती है। मैं पैग बनाकर हल्का होने के लिए बाथरूम गया तो देखा कि वहां उसके असल जीवन के कपड़े टंगे हुए हैं। सलवार, कमीज, चुन्नी और अंतर्वस्त्र।
मैं बाहर आया तो वह चहलकदमी कर रही थी। उसका पैग खत्म हो चुका था। उसने कहा, ‘आई वांट टू स्मोक।‘ मैं चकित था। मैं सिगरेट नहीं पीता, लेकिन किसी आगंतुक के लिए लाकर रख लेता हूं। पिछले दिनों जब बहन के जेठ आए थे तो उनके लिए लाकर रखी सिगरेट के पैकेट में कुछ बची थीं। मैंने सिगरेट लाकर दी तो उसने कहा, ‘डार्लिंग, मोहब्बत की आग सुलगा दी है तो इसे भी सुलगा दो ना प्लीज।‘ मैं रसोई में गया और माचिस लाकर सिगरेट सुलगा दी। वह खुश होकर बोली, ‘यू आर ग्रेट डियर। आई लव यू। मेरा पैग भी बना दो ना यार।‘ मैंने उसके लिए छोटा-सा पैग बनाया तो बोली, ‘इसे ज़रा प्यार से बनाओ ना, इस एक रात की रानी की सेहत का सवाल है डार्लिंग।‘ मैंने थोड़ा और बड़ा पैग बनाया। पानी डालने लगा तो कहने लगी, ‘यार इसमें दो आइस क्यूब डाल दो ना, इट्स टू हॉट हियर।‘ मैंने फ्रिज से आइस क्यूब निकाल कर उसके गिलास में डाली। वह आराम से कुर्सी से उठी और मेरे छोटे-से दीवान पर जा बैठी।
***
‘फिर क्या हुआ... चुप क्यों हो गई तुम...’
‘क्या होना था श्याम बाबू... वही हुआ जो नहीं होना चाहिये था... दकियानूसी ससुराल वालों की लापरवाही से बेटी चली गई...’
‘कैसे...’
‘वह पेट से थी और ससुराल वाले बेटे की आस में उसे पीर-फकीरों के ही ले जाते रहे और आखिरकार वो अपनी औलाद के साथ ही चली गई...’
‘ओह, भगवान...’
***
‘इधर आओ डियर, साथ बैठेंगे।‘
उसे सिगरेट पीना शायद नहीं आता था, इसलिये वह कभी सिगरेट का कश लेती तो कभी उसमें गुब्बारे की तरह हवा भरती और धुंआ उड़ता तो खुश होती। मैं अपना गिलास लेकर उसके पास जा बैठा, वह मेरे गले में हाथ डालकर सिगरेट फूंकने लगी। मैं चुपचाप बैठा था, उसने मेरा हाथ उठाकर अपनी पतली कमर पर लिया और मुस्कुराने लगी। उसने सिगरेट फेंक दी और मेरे गले में दोनों बांहों का हार बनाकर मुझे बेतहाशा चूमने लगी। हर बार उसके मुंह से ‘आई लव यू’ और ‘आई लाइक यू’ निकलता जा रहा था। मैं भी आखिर कब तक निश्चेष्ट रहता। शराब का असर हो रहा था, मैंने भी उसे कसकर बांहों में भर लिया। उसके चेहरे पर जैसे तृप्ति के भाव थे।
शराब बीच में ही छोड़कर मैं रसोई में गया, चपातियां बनाईं और खाना लगा दिया।
मैंने देखा वो तीसरा पैग खुद ही बनाकर पीना शुरु कर चुकी थी। बोतल में अभी एक पैग बचा था, मैंने उसे अपने गिलास में खाली कर लिया। रात के दस बज चुके थे। उसने बेमन से खाना खाया, हालांकि खाने की खूब तारीफ की। उसने शायद पहली बार शराब पी थी और वो भी इतनी तादाद में कि उसे ख़ुद को संभालने में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी। मैंने उसे सलाह दी कि एक बार मुंह धो ले तो अच्छा महसूस होगा। उसने फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकाली और रसोई के सिंक में ही मुंह धोकर आ गई। एक बार फिर वो आरामकुर्सी में धंस गई। मैंने बर्तन रसोई में रखे और चीजों को ठिकाने पर रखा। वो वहीं जमी हुई थी। मैंने पूछा, ‘आर यू ओके?’ उसने हाथ उठाकर इशारा किया तो मैं समझ गया कि उसे मदद की ज़रूरत है। मैंने उसकी दोनों बांहें थामीं तो वह खड़ी हो गई। मैंने उसे सहारा दिया और वह मेरे गाल चूम कर ‘आई लव यू’ कहती हुई मेरे सीने से लिपट गई। इसके बाद हम बेडरूम में थे।
***
‘फिर गोधरा के दंगों में पहले बेटा और फिर बाप दोनों कत्ल कर दिये गये... सब खत्म हो गया श्याम बाबू... इस बीच मैंने भी अपनी नौकरी छोड़ दी और गुजरात चली आई...’
‘फिर...’
***
***
दिसंबर की सर्दी में मुझे इतनी गर्मी कभी महसूस नहीं हुई, जितनी उस रात हुई। सुबह आंख खुली तो देखा वह मुझसे लिपटी हुई थी। उसके पतले-दुबले शरीर का ख़याल कर मैंने सोचा कि यह कैसे हुआ? मुझे तो एक अपेक्षाकृत स्थूल देह की आदत पड़ चुकी है, फिर इसके साथ कैसे? मैंने उसे हल्के-से अपने से अलग किया तो वह उल्टी लेट गई। उसकी पीठ पर अनगिनत निशान थे। मेरे माथे में गूंजने लगीं कुछ अस्फुट आवाजें... ‘प्लीज बाइट मी... ईट मी डियर...’ एक लंबी और अजीब-सी फिल्म थी वो, आंखों के आगे तैरती हुई, जिसमें एक अप्रत्याशित किस्म की उत्तेजनाओं का ज्वार था और इसके साथ ही था, भावों का एक ऐसा संसार, जिसमें मैं कभी नहीं उतरा था। शराब के नशे में उसकी बड़बड़ाहट अवचेतन की कई ग्रंथियां खोल चुकी थीं, लेकिन मैं खुद नशे में था, इसलिए कुछ याद नहीं।
हम जब बेडरूम में आए थे तो उसने मेरा चेहरा अपनी छातियों में छुपा लिया था। मैं उस वक्त उसकी देहगंध महसूस कर रहा था, जब उसने खुद अपनी टी शर्ट को ऊपर करते हुए मेरा सिर उसके नीचे ले लिया था। आम की छोटी कैरियों जैसे उसके स्तन मेरे मुंह में समा गये थे। सर्दी और उत्तेजना के मारे अगले कुछ पल बहुत वहशत में गुज़रे और हम एक ही रजाई के भीतर दाखिल हो गये। कोई आवरण नहीं रहा। हम सागर और नदी की तरह एक दूसरे में गिरते रहे। वह जैसे प्यास का एक कुआ थीं और मेरे पास कोई सागर नहीं था। हम दोनों बिना थके एक सफ़र पर चल रहे थे। उसके मुंह से जो शब्द निकल रहे थे, उन्हें लिखा नहीं जा सकता। बस इतना कह सकता हूं कि उसकी तमाम ग्रंथियां जैसे उन्हीं में खुल रही थीं। ... मालूम नहीं उसकी कितनी फरमाइशें मैंने उस रात पूरी कीं।...
उसका जूड़ा खुल गया था। लंबे बाल हिना की खुश्बू में सराबोर थे और मुझे अपने भीतर भी मेहंदी का एक पौधा उगता दिखाई देने लगा था। याद आया उसका यह कहना, ‘एक दिन आपको इस खुश्बू में नहला देंगे।‘
सिरहाने की ओर उसकी गुलाबी ब्रा रखी थी और पांवों की तरफ़ पीले फूलों वाली पैंटी। जींस और टी शर्ट कुर्सी पर आराम फरमा रहे थे। मैंने घड़ी में समय देखा तो सुबह के पांच बजने वाले थे। ट्यूबलाइट जल रही थी। रात उसी ने कहा था, ‘अंधेरे में एक जिंदगी गुजार दी है यार... आज की रात तो उजाला रहने दो।‘ मैंने उठकर लाइट बंद की। नंगे बदन में एक ठंडी झुरझुरी सी दौड़ गई। खिड़की से आते स्ट्रीट लाइट के उजाले में कमरा अब किसी फंतासी की तरह लग रहा था। फिर से घड़ी देखी, तो तारीख पर ध्यान गया। 25 दिसंबर, ओह आज तो क्रिसमस की छुट्टी है। चलो फिर सो जाओ। इस बार मैं बेहोशी में नहीं, बाकायदा होश में था। बांहें फैलाते ही वो फिर लिपट गई मुझसे।
***
‘फिर क्या... जो हुआ वो पूरा देश जानता है...’
‘लेकिन तुम अकेली...’
‘हां, क्या करती मैं... इतना कुछ होने के बाद कहां जाती... किस मुंह से जाती... पीहर में भी कोई नहीं बचा... मैं इकलौती बेटी, मां-बाप गुज़र चुके... और फिर है ही कौन जो इस बात की ख़बर ले कि हम जिंदा हैं या नहीं...’
‘लेकिन, कोई तो होगा रिश्तेदारी में...’
‘होंगे कहीं तो... रिश्तेदारियां वगैरह सब आदमी और दौलत रहने तक ही चलती हैं... जब मर्द चले गये तो क्या बचा...’
***
आठ बजे बाद हम दोनों उठे और बहुत देर बस बिस्तर में ही खामोश बैठे रहे। अब उसकी छरहरी देह बहुत अच्छी लगने लगी थी। उसने कहा कि जिंदगी में वो पहली बार किसी गैर मर्द के साथ रही है। मैंने कहा कि मैं भी पहली बार बीवी के अलावा किसी दूसरी महिला के साथ सोया हूं। उसने कहा कि यह हो नहीं सकता, क्योंकि तुम्हारी आंखें बहुत मोहक हैं। मैंने कहा कि यही बात मैं तुम्हारे लिए कह सकता हूं। इस पर वो सिनेमाई अंदाज में मेरे सीने पर सिर रखकर गुदगुदी करने लगी।
मैंने अपने कपड़े सम्हालने की कोशिश की तो उसने रोक दिया। उससे कारण पूछा तो बोली, ‘नहीं रहने दो, जिंदगी में पहली बार इस तरह सोई हूं, इस अहसास को महसूस कर लेने दो, पता नहीं फिर कभी मिले कि नहीं।‘
मैं निरुत्तर था।
‘आप बहुत अच्छे इंसान हैं।‘ वह अब तुम से आप पर आ गई थी।
‘आप भी बहुत अच्छी हैं।‘
‘नहीं, मैं बहुत बुरी हूं। तभी तो आपके साथ इतना कुछ कर डाला... सॉरी।‘
‘सॉरी की कोई बात नहीं। सब कुछ आपसी रज़ामंदी से हुआ।‘
‘आपको मेरी याद आएगी क्या?’ उसने मेरे बालों में अंगुलियां फेरते हुए पूछा।
‘हां, कैसे भूल सकूंगा मैं ये दिन और महीना?’
‘या ख़ुदा किसी को भी याद न रहे ये महीना....’ उसने वापस अपना चेहरा मेरे सीने में छुपाते हुए जैसे बहुत गहरी पीड़ा के साथ कहा।
‘क्या... ?’ ’दिसंबर, 1992 का महीना एक दर्दनाक इतिहास है...’
‘मतलब... ?’
‘यह दिसंबर, 1992 है और क्या...’ वह हौले-हौले बोलती जा रही थी।
’इसे याद रखने का मतलब एक हैवानियत के साल को याद रखना... जिसमें लाखों लोग मारे गये...’
***
***
‘किसी ने कोशिश नहीं की क्या तुम्हें तलाश करने की...’
‘गुजरात में इतने लोग मारे गये, कइयों की तो लाशें भी नहीं मिलीं... हमारी तलाश से किसी को क्या हासिल होना था, जो कोई हमें खोजने भी आता...’
‘लेकिन पारिवारिक रिश्तों में बहुत से ऐसे होते हैं जो बहुत नज़दीकी होते हैं, जिनमें मोहब्बत होती है, कोई तो होगा ऐसा अपना...’
‘नहीं, गुजरात में कोई अपनों की लाशें तलाश करने नहीं आता...’
***
'हां, लेकिन हमारा प्रेम...’
‘नहीं, कोई प्रेम नहीं हमारे बीच...’ उसने सीने पर लेटे-लेटे ही मेरी बांईं घुंडी पर जीभ फेरते हुए कहा।
‘तो फिर...’ ’बस एक अनुभव... सिर्फ एक अहसास... कि मज़हब से क्या कोई फर्क पड़ता है, इंसान-इंसान में, उनके बीच के संबंध में... आखिर कितने और कैसे अलग होते हैं, दो जुदा मजहबों के लोग?’
‘फिर... क्या अनुभव हुआ?’
‘...’ ’प्लीज बोलो ना... तुम अब रहस्य बनती जा रही हो’
‘मैं रहस्य थी और रहूंगी हमेशा के लिए...’
‘मतलब क्या... मेरे पास तुम्हारा फोन नंबर है...मैं कभी भी फोन कर लूंगा...’ ’कभी उसे मिलाया भी है?’
‘नहीं।‘ ’फिर, ज़रूरी तो नहीं कि वो मेरा ही नंबर हो...’ ’क्या ?’
‘हां, वो मेरा नंबर नहीं... मेरे पास कोई फोन नंबर नहीं, मेरी ऐसी हैसियत नहीं कि फोन रख सकूं...’
‘तो तुम टीचर नहीं हो क्या...’ ’वो तो हूं, लेकिन गांव में...’ ’तो क्या... ?’
‘आयशा नाम है मेरा...’
***
‘पता नहीं गोधरा और उसके बाद मारे गये लोगों की लाशें कहां हैं... हो सकता है हमारे रिश्तेदारों ने भी हमें ठिकाने लगा दी गई लाश ही समझ लिया हो...’
‘तुम तो तलाश कर सकती थी उन्हें... तुमने भी कोशिश नहीं की...’
‘मैं तो इतनी टूट चुकी थी कि क्या बताऊं। जब मैंने अपने बेटे और उसके बाप की लाशें तलाश की थीं तो मेरा हाल उस मां जैसा हो गया था, जिसका दुधमुंहा बच्चा मर जाए तो उसकी छातियों का दूध सूख जाता है... मेरे आंसू सूख गये थे... रोने की ताकत नहीं बची थी।‘
‘क्या कोई आस-पड़ौस का भी नहीं आया...’
‘कौन आता... दहशत के मारे यहां मुसलमान के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ... सबको अपनी जान की पड़ी थी श्याम बाबू।‘
‘इंसानियत इतनी भी नहीं गिरी थी...’
‘तुमने हैवानियत नहीं देखी ना, इसलिए इंसानियत की बात कर रहे हो...’
***
‘मैं तो आशा ही समझता रहा... फिर ये सब... ?’ ’क्या, सिंदूर, चूड़ा, मेहंदी वगैरह... ? वो तो हमारी जाति में सदियों पुराना रिवाज़ है। हम तो आज भी फेरे लेते हैं और भात भरते हैं।‘
‘फिर मेरे साथ यह रात और संबंध... ?’ उसने अपना बांया हाथ नीचे की ओर ले जाते हुए कहा, ’सच तो यह है कि आप उस दिन बहुत अच्छे लगे थे। एक दोस्ती शुरु हुई थी। मेरा कोई दोस्त नहीं। हम मुसलमानों में वैसे ही औरतों के मर्द दोस्त कहां होते हैं?... तो आपसे दोस्ती दिल की चाहत बन गई बस...।‘ यह कहते हुए उसने बहुत शोख़ शरारत में मेरे होठों के नीचे ठुड्डी को अपने लंबे दांतों से लगभग काट ही लिया। मैं उसके बालों में अंगुलियां फिरा रहा था, मैंने प्रतिक्रिया में उसकी एक लट खींच डाली। वो ‘उई मां’ कहती हुई मुझसे लिपटती चली गई।
***
‘लेकिन वो गांधी का गुजरात भी है...’
‘उस गांधी को मारने वाले ख़यालों का ही निजाम हो तो क्या होगा गुजरात में...’
‘लेकिन अच्छे लोग भी बहुत हैं वहां...’
‘होंगे, ज़रूर होंगे, अपने घरों में सुरक्षित और अफसोस जताते हुए लोग तो पूरी दुनिया में मिल ही जाते हैं...’
***
’मेरी जैसी बुरी औरत आपको नहीं मिलेगी इस दुनिया में। लेकिन पूरी कौम को बुरा मत कहना। ... मैंने रात जो प्रेम किया, वह सच्चा प्रेम है जो दो इंसानों की तरह दो कौमों में होना चाहिये... मैं प्यार में ढहती हुई एक बोसीदा इमारत थी और तुम मेरे कारसेवक....।‘
‘हे भगवान... ऐसा मत कहो आयशा, मैं उन दंगाइयों में नहीं हूं, जिन्होंने एक इतिहास को ध्वस्त किया है। मैं कभी वैसा नहीं हो सकता, जैसा ये सिरफिरे बना देना चाहते हैं। मैं कारसेवकों में नहीं हूं आयशा...’
कहते हुए पहले मेरा गला रुंधा, फिर मेरी रुलाई फूट पड़ी थी।
‘तुम्हारे ये लफ़्ज़ मेरे कानों में जिंदगी भर गूंजते रहेंगे... मैं प्यार में ढहती हुई एक बोसीदा इमारत और तुम मेरे कारसेवक....।... इन लफ़्जों को वापस ले लो आयशा... प्यार में कोई किसी को ढहाता नहीं है। मोहब्बत तो नई चीज़ें बनाती है, जैसे ताजमहल... ‘
‘कुछ सवालों का जवाब सन्नाटा ही होता है।‘
***
‘मेरा बेटा इंजीनियर था। उसने जो कारखाना लगाया था, उसमें वो ऐसी मशीनें बनाना चाहता था, जिनसे कम पानी में भी अच्छी खेती की जा सके... उसका सपना था कि एक दिन वह हवा की नमी को खेती के लायक पानी में बदल कर सूखे में भी चावल और गेहूं की फसल उगायेगा।‘
‘बदकिस्मती ने वो सब ख्वाब चूर-चूर कर दिये... कितने दुख की बात है।‘
‘हां श्याम, वक्त पता नहीं कब, किस चोले में हमारे सामने आ खड़ा होता है और हम पहचान ही नहीं पाते...।‘
***
और वो तुम्हारा लिबास बदलना वगैरह... ?’
‘कौनसी कौम है जो मॉडर्न नहीं होना चाहती... ? सबको आज़ादी चाहिये...’ ‘लेकिन बेडरूम के भीतर या कि दिलों में ही बस...’
‘हुंह... जितनी भी मिले हासिल कर लेनी चाहिये... पिंजरे में कैद परिंदों को देखा है... वो उस मौके का इंतजार करते हैं कि कब मालिक दरवाज़ा खुला छोड़ दे ज़रा देर के लिए तो तुरंत उड़ जाएं... वो पिंजरे के भीतर इसीलिए छोटी-छोटी उड़ान भरते रहते हैं, ताकि उड़ना नहीं भूल जायें।... बेडरूम पिंजरा ही तो है, यहां आकर हर औरत वनपाखी हो जाती है।... जो बिस्तर में भी बंदी बनी रहती हैं, वे कभी आज़ादी नहीं चख सकती।..’
मैंने उसका चेहरा अपनी तरफ़ किया और माथा चूमना चाहा। उसने मेरे होंठों पर अपने होंठ रख दिये और मुझ पर सवार हो गई।
थकी देह लिये हम दोनों बहुत देर चुपचाप लेटे रहे। मैंने उठकर ऊनी गाउन डाला और बाथरूम में चला गया। वापस आया तो वह सो रही थी। मैं रसोई में जाकर चाय बनाने लगा। कुछ खटपट हुई तो अंदाज हुआ कि वो बाथरूम गई होगी। मैं चाय बनाकर बेडरूम में लेकर आया तो देखा वह सलवार सूट पहने अपने कपड़े बैग में रख रही थी।
चाय खत्म हो चुकी थी और उसकी पैकिंग भी। वह आगे बढ़ी और पहले हाथ मिलाया, फिर गले लगी। उसने पूरा सामान पैक करने के बाद एक निगाह पूरे घर पर डाली और कहा, ‘सच, बहुत यादगार है यह रात।‘ जब वो जाने लगी तो मैंने पूछा, ‘अब कब मिलना होगा?’ ’मैं तो तितली हूं, घरेलू तितली... मेरी उम्र क्या? तितली की उम्र तो कुछ घंटों से लेकर बस एक साल की होती है... हमारे बीच तो 120 घंटे गुज़र गये... कमाल है कि तितली अभी जिंदा है...’ उसने मेरे गाल और होठों पर एक जोरदार चुंबन जड़ते हुए कहा, ‘जिंदगी में तुम्हें मेरी जैसी मुसलमान औरत नहीं मिलेगी, यह याद रखना... और हां, तुम्हारे जैसा कोई हिंदू मर्द भी नहीं मिलेगा मुझे...बाय...’
***
‘तुम्हारी दर्दनाक कहानी जानकर मैं सच में भीतर तक हिल गया हूं। मुझे बहुत अफसोस है... सच में कि एक दोस्त के नाते मैं कुछ नहीं कर पाया...’
‘कोई बात नहीं, तुम कर ही क्या सकते थे... लेकिन कभी सोचा न था कि मैं तुमसे फिर कभी दुबारा मिलूंगी।... लेकिन सब कुछ खत्म होने के बाद यूं लगा कि एक तुम ही हो सकते हो, जिसे मैं अपना कह सकती हूं।... और इसी तरह तुम्हें खोजती चली गई। खुदा का शुक्र है कि तुम मुझे मिल गये।‘
‘जिंदगी इसी तरह हमें किसी न किसी मोड़ पर मिला देती है आशा, जैसे बीस बरस पहले यूं ही मिलाया था।‘
‘हां, सच कहा तुमने... पता नहीं हमारी जिंदगी में इस तरह मिलना क्यों लिखा था...’
***
और वो खटखट करती सीढि़यां उतरती चली गई। मैं उसे खिड़की से जाते हुए देखता रहा, जैसे 6 दिसंबर के दिन देश एक ऐतिहासिक इमारत को गिरते हुए देख रहा था।
बाम से उतरती है जब हसीन दोशीज़ा जिस्म की नजाकत को सीढि़यां समझती हैं।
मेरी आंखों में उसके लिए उतने ही आंसू थे, जितने इस देश के किसी भी हिंदू की आंखों में किसी मंदिर का ध्वंस होने पर हो सकते थे। लेकिन उसकी आंखों में जो विश्वास था वो मुझे उसके बाद फिर कहीं नहीं दिखाई दिया। न हिंदुओं में और ना मुसलमानों में...।
***
‘अब क्या इरादा है तुम्हारा...’
‘कैसा इरादा... मैंने सब कुछ बेच दिया है अब... मेरे पास कुछ नहीं बचा अहमदाबाद के इस फ्लैट के सिवा... कुछ पैसा है जो बैंक में है, बस उसी से गुज़र जाएगी बची-खुची जिंदगी।‘
‘यह तो ख़ैर ठीक किया... लेकिन अकेलापन...’
‘अरे, काहे का अकेलापन... तुम हो ना मेरे पास... या कि तुम भी जा रहे हो लंदन-ऑस्ट्रेलिया...’
‘नहीं, मैं क्या करूंगा वहां जाकर। दोनों बेटों की गृहस्थियां जम गई हैं। दोनों ने वहीं की लड़कियों से शादियां कर ली हैं। अब तो वे ही नहीं आते इधर, बस कभी फोन आ जाता है हालचाल पूछने के लिए।‘
‘तो चलो मैं ही आ जाती हूं, तुम्हारी देखभाल के लिए...’
‘...’
‘क्या हुआ... सांप क्यों सूंघ गया... मैंने ग़लत बात कह दी क्या...’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं...’
‘तो फिर...’
‘तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली...’
‘सच...’
उसके इतना कहने के साथ ही मेरा मन जैसे गाने लगा...
तुम तो ख़ुद ही क़ातिल हो तुम ये बात क्या जानो क्यूं हुआ मैं दीवाना बेडि़यां समझती हैं
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