मर्दानगी रक्षा करने में होती है - नीरजा पांडेय

नीरजा पाण्डेय की लेखनी बहुत सशक्त है, उनकी कहानियां, कवितायेँ पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने में उनके लेख हमेशा सजग रहे हैं, स्त्री के प्रति किसी भी तरह का अन्याय उन्हें उद्वेलित करता है शीघ्र ही उनका उपन्यास प्रकाशित होना है. पढ़िए कि आखिर वो क्या बाते रहीं जिन्होंने उनसे यह उपन्यास लिखवाया...  

Some basic question rasied by the author Neerja Pandey, solving them can solve a lot of problems that women are facing. Manhood is in protecting !!!

नीरजा पांडेय

23 जुलाई 1961
ए.म.ए. (हिंदी)
स्त्री विमर्श पर पु्स्तक प्रेस में
संपर्क
14, अल्कापुरी कालोनी,
कुर्सी रोड,
लखनऊ (उ.प्र.)
मोबाईल: 09453101567
 जब भी अखबार में नारी उत्पीड़न की कोई घटना पढ़ती मन व्याकुल हो जाता, विद्रोही हो जाता, शब्द कागज पर आने के लिए मचलने लगते परन्तु फिर दैनिक व्यस्तता के बीच घुटकर दम तोड़ देते। अचानक पारिवारिक जीवन में कुछ ऐसी घटना घटी, जिसने मन को झकझोर कर रख दिया।

अब मेरे सामने दो ही रास्ते थे। एक यह कि मैं अपनी कलम तोड हूँ और भविष्य में ‘‘स्त्री विमर्श’’ पर कभी कुछ न लिखूँ, दूसरा रास्ता यह कि कलम को ही हथियार बना लूँ और समाज में घुटती हुई नारी को आवाज हूँ। लोगों की मानसिकता बदलने का प्रयत्न करूँ शायद कभी भविष्य में स्त्री की दशा में कुछ परिवर्तन आ जाये। .................... - नीरजा पाण्डेय

मर्दानगी रक्षा करने में होती है 

नीरजा पाण्डेय

बेटी को भी तो कभी माँ ने नौ महीने अपनी कोख में रखा था। उसकी हर किलकारी पर सभी न्योछावर हुए थे। जब पहली बार घर में उसने डगमगाते कदम रखे थे तो माता-पिता का हृदय खुशी से फूला नहीं समाया था
नारी उत्पीड़न की न जाने कितनी घटनायें हम सभी प्रतिदिन अखबार में पढ़ते हैं, जो हमको अधिक सोचने के लिए विवश करती हैं और फिर हम उन्हें भुलाकर अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। दिन पर दिन वर्ष पर वर्ष बीतते जाते हैं, न हमारी सोच बदलती है न समाज का ढंग बदलता है।

क्या हमने कभी सोचा है कि ये घटनायें जिसके ऊपर गुजरती हैं उसका जीवन कितना अभिशप्त हो जाता है? क्या गुनाह होता है उसका जिसके लिए उसे पूरा जीवन न्योछावर करना पड़ता है? उस बेटी को भी तो कभी माँ ने नौ महीने अपनी कोख में रखा था। उसकी हर किलकारी पर सभी न्योछावर हुए थे। जब पहली बार घर में उसने डगमगाते कदम रखे थे तो माता-पिता का हृदय खुशी से फूला नहीं समाया था। कभी भी किसी को यह आभास नहीं हुआ कि बेटे की हँसी मन को ज्यादा खुश करती है और लड़की की किलकारी कम।

फिर कहाँ पर, कब यह बात समाज के बीच आ गई कि लड़की के साथ इतने अन्याय होने लगे और उन सभी घटनाओं के साक्षी बने हम आप और हमसे मिलकर बना यह समाज।
क्यों नहीं ये मुट्ठी भर लोग जो समाज को बदनाम कर रहे हैं, जो पुरुष जाति के कलंक हैं, उन्हें पूरी पुरुष जाति मिलकर सबक सिखा देती।
वह घर की प्यारी तुतलाती बिटिया, वह कलाई में राखी बाँधती बहना, खुद बासी खाकर बच्चों को, पति को ताजा खिलाती माँ, और पत्नी फिर ममता लुटाती भाभी, हर दुःख में साथ देने वाली पत्नी, सभी रिश्तों में केवल अपने को न्योछावर करने वाली नारी के ऊपर कब और क्यों गलत निगाहें उठने लगीं। वह 3-4 वर्ष की हुई नहीं कि लोगों ने उसमें स्त्री का रूप खोज लिया, वह और बड़ी हुई तो उसे हर सड़क चलते ने अपनी जागीर समझकर जो चाहा बोला, जैसा चाहा वैसा व्यवहार किया, जब चाहा तो रास्ते चलते उठा लिया। ट्रेन में, बस में, सफर करते परेशान किया। आखिर क्यों? 

न उसकी उम्र का लिहाज, न अपनी उम्र की गरिमा का ध्यान बस सामने लड़की है, चाहे वह किसी भी उम्र की हो उससे मनोरंजन करने का मानो जन्मसिद्ध अधिकार मिला है। हमारे समाज को अखिर क्यों?

वह कहीं भी नौकरी करती है तो उसके हेड आफीसर्स या मालिक उसे जैसे अपनी सम्पत्ति समझकर जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं और उसकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं।

आज स्त्रियों के लिए सरकार की ओर से इतने कानून बने हैं फिर भी कितनी लड़कियाँ उसका इस्तेमाल करने की हिम्मत जुटा पाती हैं? जो हिम्मत दिखाती हैं उनका क्या परिणाम होता है यह किसी से छिपा नहीं है।

जो दूसरे की लड़कियों को, स्त्रियों को मनोरंजन का साधन समझते हैं, अपने घर की लड़कियों को बॉडीगार्ड बनकर हरकदम छोड़ने लेने जाने जाते हैं क्योंकि उनके मन में यह डर था कि समाज गलत है? उनके अपने मन में गलत था। उनके मन में केवल यह आता है कि जिसको जो करना है करे पर मेरे घर की लड़कियाँ सुरक्षित रहें। क्यों नहीं उनके दिल में आता कि मर्दानगी लूटने में नहीं होती है, छेड़ने में नहीं होती बल्कि असली मर्दानगी रक्षा करने में होती है, बचाने में होती है।

सड़क पर चलती लड़की वह किसी की भी बेटी हो, है तो पूरे समाज की बेटी, फिर क्यों नहीं दिमाग में आता कि सभी को उसकी सुरक्षा का ध्यान देना चाहिए। क्यों हम मुँह मोड़ लेते है। कोई हमारे घर की थोड़े है? कब आयेगी यह समझ हमारे समाज को? कब कसेगा शिंकजा उन शोहदों पर जिन्हें न अपनी चिन्ता है न परिवार की न देश की और न समाज की, क्यों नहीं ये मुट्ठी भर लोग जो समाज को बदनाम कर रहे हैं, जो पुरुष जाति के कलंक हैं, उन्हें पूरी पुरुष जाति मिलकर सबक सिखा देती।

सभी पुरुष अपनी ताकत का प्रयोग करें, इन शोहदों को ठिकाने लगाने में, अपनी मर्दानगी का प्रयोग करें, इन्हें सजा दिलाने में।

क्योंकि कोई भी घटना होती है तो पूरी पुरुष जाति का अपमान होता है। वह भाई जो बहना का प्यार है, वह पिता जिसकी जिम्मेदारी बेटी है। वह पति जो पत्नी का सर्वस्व है। सभी परेशान हैं अपने-अपने घर की सुरक्षा में।

क्यों नहीं परेशान होते, वे हर बेटी की सुरक्षा में? फिर तो अपने लिए सोचना ही नहीं पड़ेगा। समाज की हर बेटी सुरक्षित होगी और विकृत मानसिकता वाले चन्द मुटठी भर लोग जेल की सलाखों के पीछे होंगे। तब न हमें कानून के सहारे की जरूरत होगी और न पुलिस को दोष देने की। जब तक हम आप नहीं चहेंगे, तब तक यह घटनायें बढ़ती ही जायेंगी और हमारी बेटियाँ अभिशप्त होती ही रहेंगी। चाहे तेजाब से या दुराचार से।

अभी भी समय है हम हर घटना के दर्द को अपने दिल पर महसूस करें और फिर उसके खिलाफ एक जंग शुरू कर दें। यह न सोचें कि यह हमारे घर की लड़की नहीं है। क्योंकि कल यह घटना हमारे साथ भी हो सकती है। इसलिए हमें समाज से ही इस बुराई को समाप्त करने का प्रयत्न करना होगा। क्या यह सम्भव हो पायेगा? कुछ भी असम्भव नहीं होता? बस सोचने की जरूरत होती है।

अभी तो कोई सोचना ही नहीं चाहता, सजा दिलाना ही नहीं चाहता। जिस दिन इस सोच की शुरुआत होगी कि समाज की प्रत्येक लड़की हमारी लड़की है, हमारी बहन है, उससे हमें मनुष्य की तरह व्यवहार करना चाहिए, वह दिन हमारी नारी जाति के जन्म लेने का सही दिन होगा। इंतजार रहेगा उस घड़ी का हम सब को।

जब नारी को घर में या बाहर एक संवेदनशील मनुष्य होने का पद प्राप्त होगा, क्योंकि नारी जाति घरेलू तिरस्कार को भी भोगने में पीछे नहीं है।

इस उपन्यास की मैं उर्फ ‘मानसी’ एक ऐसी संवेदनशील लड़की है जो नारी की वर्तमान दशा से सदैव चिंतित रहती है और पेपर में, न्यूज में कहीं भी कोई घटना सुनकर उसी में उलझी रहती है कि कैसे लड़कियाँ इस समाज में सुरक्षित हो पायेंगी? भू्रण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक की प्रत्येक घटना उसे हिलाकर रख देती है। दूसरी तरफ वह एक उपन्यास पढ़ती है, संयोग से नारी की अच्छी छवि जैसी उसकी कल्पना में थी उपन्यास की नायिका का जीवन बिल्कुल वैसा ही चित्रित है, जिसको पढ़कर वह बहुत खुश होती है।

इस तरह मानसी और उसके द्वारा पढ़े जाने वाले उपन्यास की नायिका सुमिता के बीच पूरी कहानी घूमती रहती है।

उपन्यास पढ़ने के बाद अगर पाठकों की मनःस्थिति भी मानसी की तरह हो जाती है, सभी घटनाएं पाठक को व्याकुल करती हैं तो मेरे प्रश्नों का उत्तर मुझे मिल जायेगा और वह दिल दूर नहीं जब हर कन्या की रक्षा का भार समाज के हर पुरुष का होगा।

क्योंकि हमारी संस्कृति हमें संवेदनशील बनाती है, तो फिर हम सब क्यों, हम क्या कर सकते हैं? कहकर पल्ला झाड़ते रहते हैं, जिस दिन ऐसा कहेंगे उसी दिन हम बेटियों का सही मान रखना सीख जायेंगे।

नीरजा पांडेय
ए.म.ए. (हिंदी)
23 जुलाई 1961
स्त्री विमर्श पर पु्स्तक प्रेस में
आकाशवाणी लखनऊ से भी रचनायें प्रसारित
09453101567
14, अल्कापुरी कालोनी,
कुर्सी रोड,
लखनऊ (उ.प्र.)

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