साहित्य के संत अशोक सेकसरिया को शब्दांकन परिवार की श्रधांजलि
अशोक सेकसरिया अच्छाई उपजाने वाले व्यक्ति थे - प्रयाग शुक्ल
साहित्य के संत अशोक सेकसरिया को शब्दांकन परिवार की श्रधांजलि
अशोक सेकसरिया अच्छाई उपजाने वाले व्यक्ति थे - प्रयाग शुक्ल
दो दिन से मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है, लगता है कि दुनिया ही अलग हो गयी है। अब सचमुच मुझे दुनिया एक दृश्य कि तरह दिखाई दे रही है – फिजिकल सम्बन्ध टूट-सा गया है। मैं जब उनसे मिला था तब 14 साल का था और सेक्सरियाजी 19 के होंगे तब भेंट हुई थी और तब से मैंने उन्हें साहित्य, राजनीति, और समाज की दुनिया में रहते हुए ही पाया। जैसे एक किसान फसल उपजाता है वैसे ही अशोक सेकसरिया अच्छाई उपजाने वाले व्यक्ति थे। अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ और बेबी हालदार की आत्मकथा ‘आलो आंधारि’ जैसी कृतियों के प्रोत्साहक थे अशोक सेकसरिया।
मैं उन्हें गांधी तत्व का व्यक्ति मानता हूँ, गांधी पर बात करते हुए उन्हें वास्तविक सुख मिलता था। उन्होंने अद्भुत जीवन जिया, सैकड़ों लोगों की आत्मीयता अर्जित की। जिसके निकट गए या जो उनके निकट आया वह रचना और सौन्दर्य को सराहने वाला बना।
उनसे कविता पर बात करना एक विलक्षण अनुभव था। अभी जब 23 नवंबर को उनके फिसल जाने की खबर सुनकर उनसे मिलने कोलकाता पहुंचा तो पीड़ा में भी उन्हें दूसरों की चिंता करते हुए देखा। यह मेरे लिए नयी बात नहीं थी। उन्हें जयशंकर प्रसाद की कविताओं का संगीत प्रिय था, सो एक शाम उनके बिस्तर के पास खड़े-खड़े मैंने उन्हें प्रसाद कि रचना “तुमुल कोलाहल कलह में/ मैं हृदय की बात रे मन! / विकल हो कर नित्य चंचल/ खोजती जब नींद के पल…” पूरी सुना दी क्योंकि वो मुझे कंठस्थ है, सुनकर प्रसन्न हुए और मुझे संतोष हुआ।
मैं उन्हें गांधी तत्व का व्यक्ति मानता हूँ, गांधी पर बात करते हुए उन्हें वास्तविक सुख मिलता था। उन्होंने अद्भुत जीवन जिया, सैकड़ों लोगों की आत्मीयता अर्जित की। जिसके निकट गए या जो उनके निकट आया वह रचना और सौन्दर्य को सराहने वाला बना।
उनसे कविता पर बात करना एक विलक्षण अनुभव था। अभी जब 23 नवंबर को उनके फिसल जाने की खबर सुनकर उनसे मिलने कोलकाता पहुंचा तो पीड़ा में भी उन्हें दूसरों की चिंता करते हुए देखा। यह मेरे लिए नयी बात नहीं थी। उन्हें जयशंकर प्रसाद की कविताओं का संगीत प्रिय था, सो एक शाम उनके बिस्तर के पास खड़े-खड़े मैंने उन्हें प्रसाद कि रचना “तुमुल कोलाहल कलह में/ मैं हृदय की बात रे मन! / विकल हो कर नित्य चंचल/ खोजती जब नींद के पल…” पूरी सुना दी क्योंकि वो मुझे कंठस्थ है, सुनकर प्रसन्न हुए और मुझे संतोष हुआ।
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