कहानी: भीतरी सांकल - बलराम अग्रवाल


कहानी

भीतरी सांकल

बलराम अग्रवाल



असगर मियां जिस समय बस से उतरे, नौ बज चुके थे । सड़क पर सन्नाटा था...गजब का सन्नाटा । उनके हाथ–पैर सुन्न–से पड़ने लगे । गला खुश्क हो आया । दिल की धड़कनें धीमी पड़ गई–सी लगीं । एक भी रिक्शेवाला नहीं! उनकी तो बात छोड़िए, गरीब इनसान हैं बेचारे । दंगा–फसाद में गरीब आदमी ही ज्यादा डरता है; मरने से नहीं, पकड़े और घसीटे जाने से । लेकिन कुत्तों और गायों को क्या हुआ जो इस कदर सड़क को घेरे हुए लेटे और खड़े रहते हैं कि लोगों का आराम से गुजरना मुहाल कर देते हैं! वे सब किधर गए ? और... तीन–चार जो दूसरे लोग उतरे थे बस से वे ? हालांकि उनमें से कोई भी उनकी जान–पहचान का न था; लेकिन उतरते ही वे सब के सब कब अंधेरे में बिला गए, पता ही न चला ।

आम दिनों में, रात के नौ बजे का समय इस शहर में ऐसा नहीं होता कि इतनी मुर्दनी छा जाती हो । नौ से बारह बजे वाला सिनेमा का शो खत्म होने के बाद साढ़े बारह–एक बजे तक भी कम से कम हलवाइयों की दुकानें तो खुली ही रहती हैं । एक–दो पल तो असगर मियां की समझ में ही नहीं आया कि वे करें क्या ? किधर जाएं ? तभी उनकी निगाह सामने वाले चौराहे पर खड़े पी–ए–सी– दल पर पड़ी । वे अंदर तक हिल गए । वास्ता तो उनका कभी पड़ा नहीं था; लेकिन सुन उन्होंने काफी रखा था कि कर्फ्यू के दिनों में सड़क पर टहलते आदमी को पी०ए०सी० वाले कपास की तरह धुनते हैं । ‘घर यहां से दो किलोमीटर की दूरी पर है असगर मियां, और पूरे चार चौराहे पार करने पड़ेंगे वहां पहुंचने तक!’ वे खुद से बोले–—‘हादसा अगर दंगाइयों ने नहीं किया; पहले, दूसरे, तीसरे चौराहे पर तैनात पी–ए–सी– वालों ने नहीं किया; तो क्या गारंटी है कि चौथे चौराहे पर तैनात पी–ए–सी– वाले नहीं कर डालेंगे ?’ एकाएक उन्हें ख्याल आया कि अपने अहमद भाई का मकान पास में ही है । इस डरावनी और खतरनाक रात में किसी भी तरह का कोई खतरा मोल लेना उन्हें अक्लमंदी नजर नहीं आया । घर में अकेली बैठी नाजमा की निगाह में तो वे अभी भी दिल्ली में ही थे ।

अब पहुंचूं या सवेरे, क्या फर्क पड़ता है–—यह सोचते ही उनके कदम ख़ुद ब ख़ुद अहमद भाई के मकान की ओर मुड़ गए । कभी भी न पहुंचने या टूटा–फूटा पहुंचने से कहीं बेहतर है कि देर से ही सही, सही–सलामत घर पहुंचूं–—उन्होंने सोचा ।

हुआ यों था कि बकरीद के तुरंत बाद असगर मियां को दुकान में सौदा कुछ कम महसूस होने लगा । सोचा, दिल्ली जाकर किनारी बाज़ार और सदर बाज़ार वगैरह से कुछ जरूरी आइटम खरीद लाए जाएं । खाली–सी दिखने वाली दुकान में, खरीदारी की तो बात ही अलग है, ग्राहक घुसने से भी कतराता है । घर पर जिक्र किया तो नाजमा बेगम ने साफ मना कर दिया; कहा–—‘मियां, दिल्ली जाने से अच्छा है कि यहीं के थोक दुकानदारों से माल उठा लो । उमर और शरीर दोनों का ख्याल करो ।’

‘यहां पर बीस परसेंट से कम मुनाफे पर माल नहीं देते हैं हरामखोर ।’ उनकी बात पर वह बोले ।

‘अपना और माल का किराया–भाड़ा लगाकर दस परसेंट तो अपना भी खर्च हो ही जाता होगा ?’ नाजमा बी ने पूछा ।

‘हां, इतना तो हो जाता है ।’ उन्होंने कहा, ‘कोई पुलिस वाला या सेल्स टैक्स वाला पीछे पड़ जाय तो पंद्रह परसेंट भी समझ लो ।’

‘तब ?’ नाजमा बी भड़कीं, ‘सौ में पांच रुपल्ली के पीछे जान जोखिम में डालना कहां की अक्लमंदी है इस उमर में ?’

‘सवाल पांच रुपल्ली का नहीं है बेगम ।’ उन्होंने दलील दी, ‘यहां के थोक दुकानदारों पर माल की ज्यादा वैराइटी नहीं मिल पाती है । ...वही सामान उठाना पड़ता है, जो इनके पास मौजूद हो ।’

‘तो ?’

‘तो यह कि ग्राहक ऐसी चीज पर अटकता है जो बाजार में दूसरे दुकानदारों के पास न हो या उनसे कुछ हटकर, अलग–सी हो । अलग–सी दिखने वाली चीज पर मुनाफा भी चार पैसे ज्यादा मिल जाता है ।’ असगर मियां ने समझाने के अंदाज में कहा ।

नाजमा बी उनकी बात से सहमत हो गई हों, ऐसा नहीं था; लेकिन निरुत्तर जरूर रह गईं । उन्हें चुप देखकर असगर मियां मन ही मन डर रहे थे कि बेगम साहिबा के दिमाग में उनकी दलील के खिलाफ कोई नया पैंतरा न पैदा हो जाय । वे चुपचाप उनका चेहरा निहारते बैठे रहे और चारपाई की उधड़ी हुई बान को अपनी तर्जनी उंगली पर लपेटते–उधेड़ते रहे ।

‘कब जाओगे ?’ कुछ देर की चुप्पी के बाद नाजमा ने पूछा ।

‘जाना ही है तो देर क्या करना,’ वे बोले, ‘कल सबेरे–सबेरे निकल जाता हूं ।’

‘सबेरे–सबेरे क्यों; गाड़ियां तो रातभर चलती हैं दिल्ली के लिए । पैसे लो और अभी निकल जाओ ।’ नाजमा ने ताना कसा ।

‘तुम तो बुरा मान जाती हो जरा–जरा सी बात का ।’ असगर मियां आहत स्वर में बोले, खाली दुकान खाने को दौड़ती है...’

‘तो... ? खाली घर हमें काटने को नहीं दौड़ता क्या ?’ बेगम ने नहले पे देहला जड़ा । एक बारगी तो असगर मियां उनका चेहरा ताकते रह गए । फिर दबी–सी आवाज में बोले, ‘कमाल करती हो नाजमा! भई, सुबह को जाऊंगा और देर रात तक लौट आऊंगा ...और फिर, पहली बार तो जा नहीं रहा हूं दिल्ली; पहले भी जाता रहा हूं ।’

इतना कहकर वे चुप बैठ गए; लेकिन नाजमा बी ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो बोले, ‘दुकान जाता हूं, तब भी तो अकेली ही रहती हो सुबह से शाम तक!’

‘हां,’ इस बात से तिलमिलाकर नाजमा बोलीं, ‘लेकिन तसल्ली तो रहती है कि आप आसपास ...इस शहर में ही हैं ...दिल उखड़ता है तो बुरका डालकर निकल जाती हूं दुकान की तरफ । देख आती हूं एक निगाह; और तसल्ली पाकर काम में लग जाती हूं घर आकर ।’ फिर मुंह बिचकाकर कहा, ‘...लेकिन आपको इस सब से क्या; रूखे हो जनम से ।’

बाप रे! एकदम यही बात तो, जब तक जीं, अम्मीजान कहती रहीं, ‘मुआ असगर तो निरा रूखा है जनम से ।’ यही बात, जब से ब्याहकर आयी हैं उनके घर, नाजमा बी दोहराती रहती हैं, ‘ठीक कहती हैं अम्मीजान, रूखे हो जनम से ।’ और कभी–कभी तो खुद उन्हें भी लगता है कि वे वाकई रूखे और नीरस हैं पूरी तरह । दोस्ती, लगाव, प्यार–—उनका सिर्फ एक के साथ है–—दुकान के साथ । दुकान उनकी जीनत है, जन्नत है और वहां बैठना ही उनकी इबादत है ।

एकाएक सड़क किनारे की एक दुकान के चबूतरे के नीचे से सरसराहट की आवाज सुन एक पल को वे ठिठक–से गए । कलेजा धक्–से गले को आ गया । कान कड़े–से होकर आवाज का जायजा लेने को दाएं–बाएं घूमने–से लगे; घोड़े के कानों की तरह । आवाज की दिशा में गरदन घुमाकर देखने की उनकी हिम्मत नहीं हुई । चौकन्ना–सा होते हुए चाल कुछ तेज कर दी, बस । ‘जाल तू जलाल तू, आई बला को टाल तू’ का जाप भीतर ही भीतर इतनी तेजी से चल पड़ा कि पता ही नहीं चला, कितनी बार उसे पढ़ गए वे । बावजूद इस ताकतवर मंत्र के, उन्हें लगता रहा कि चबूतरे के नीचे सरसराने वाली बला टल नहीं रही बल्कि धीरे–धीरे करीब आती जा रही है । काला भुजंग, मांसल शरीर, कड़वे तेल में नहाया हुआ । पलक झपकते ही मुट्ठी से रपट जाने वाली चिकनाहट । जैसे–जैसे दुकानें पार करके आगे बढ़ते रहे, बला एक से दो, दो से तीन और तीन से चार होती रही । आठ–दस दुकानों के बाद तो जैसे पूरा हुजूम ही पीछे लग गया । उनके माथे पर पसीना चू आया; चाल खुद ब खुद कुछ–और तेज हो गई । उन्हें लगा कि एक–एक बला के हाथ में चौड़े फाल वाला चाकू है । घुप अंधेरा होने के बावजूद उन चाकुओं का फाल उन्हें चमचमाता–सा नजर आ रहा था ।

‘या अल्लाह! मैंने ये कैसी बेवकूफी कर दी!!’–—वे मन ही मन बुदबुदाए–—‘जेब में न मकान का पता लिखा कोई पुर्जा है न दुकान का । अपनी पहचान के लिए कोई निशानी भी जेब में नहीं छोड़ी । मुसलमान होने का डर मन में ऐसा समाया कि सामान खरीदने के सारे बिल फाड़कर चलती बस की खिड़की से बाहर फेंक दिए रास्ते में ही । बिल्टी की रसीद भी डाक से भेजवा देने के लिए कह आया दिल्ली वाले होल सेलर को । बचे हुए पचास रुपए के नोट को बत्ती बनाकर पाजामे के नेफे में उड़स लिया था; लेकिन उस पर उनका नाम–पता थोड़े ही लिखा है । उसका तो पता भी शायद किसी को न लगे । पोस्टमार्टम करने से पहले लाश का पाजामा तो इस बेरहमी से उतार फेंक दिया जाएगा जैसे हलाल किए बकरे के बदन से खाल उतारकर फेंक दी जाती है । गोल टोपी को आई.एस.बी.टी. से बस में बैठते ही सिर से उतारकर जेब के हवाले कर लिया था; बाद में, उसे भी कागज की चिंदियों के साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया!

अनगिनत बलाओं से घिरे, बेहद डरे हुए, कदम–ब–कदम वे आगे बढ़ते और सोचते रहे– ‘दाढ़ी रखता नहीं हूं और सिजदे में भी बस इतना ही झुकता हूं कि माथे पर उसकी निशानी न चस्पां हो जाय । पीछे लग गए इन नामाकूलों ने चाकू घोंपकर हत्या तो कर ही डालनी है इस वक्त । आसपास क्या, दूर–दूर तक न कोई पुलिसवाला नजर आ रहा है न पी–ए–सी– वाला । अलबत्ता तो डर के कारण गले से आवाज ही नहीं निकलेगी; फर्ज करो, निकली भी, तो जान बचाने के लिए इस समय किसे पुकारूंगा! पुकारा भी तो घर–दुकान से निकलकर मुझ तक आएगा कौन ? मर गया तो सुबह से पहले किसी की नजर लाश पर पड़ेगी, लगता नहीं है । जेब में नाम या नंबर का पुर्जा पाए बिना पुलिस वाले किसके घर पहुंचाएंगे लाश को ? पाजामा नीचे करके मजहब तय करेंगे और दो–चार दिन रखकर फोटो खींच लावारिस मान दफना देंगे । फोटो को थाने के बोर्ड पर चिपका देंगे ताकि बाद की तफ्तीश में घरवालों, दोस्तों, रिश्तेदारों द्वारा पहचान लिया जा सके ।’

उन्हें दिल्ली से वापिस आने की अपनी उतावली पर अफसोस होने लगा । चार दिन पहले यही अफसोस उन्हें दिल्ली जाने की उतावली पर हुआ था । वे लोकल होल सेलर से ही सामान उठा लेने की नाजमा की बात मान जाते तो कोई मुसीबत न झेलनी पड़ती । दिल्ली सदर बाजार और किनारी बाजार में पूरा दिन खपाकर अपनी जरूरत का तकरीबन सारा सामान एक जगह बंधवाकर उन्होंने बिल्टी करा दिया था । घर वापसी के लिए शाम ढले वे आई.एस.बी.टी. भी पहुंच गए थे । वहां जाकर पता चला कि शहर और आसपास के इलाकों में जबर्दस्त दंगा फैलने की वजह से बेमियादी कर्फ्यू लगा दिया गया है इसलिए कोई बस उधर नहीं जा रही है । वे सिर थामकर जहां के तहां बैठ गए थे । उनके खुद के पास तो मोबाइल फोन जैसी कोई चीज थी नहीं । इधर–उधर एस०टी०डी० बूथ तलाश कर उन्होंने नाजमा बी का हाल जानने और अपना हाल बताने के लिए फोन मिलाने की भरसक कोशिश की लेकिन बेकार । इलाके के किसी भी आदमी का फोन नहीं लग पाया था । सरकारी आदेश से नेटवर्क ब्लॉक कर दिए गए थे शायद । वे वापस सदर बाजार गए और अच्छी जान–पहचान के एक दुकानदार को बिल्टी पकड़ाकर बोले, ‘अस्सलांवालेकुम हाशिम भाई ।’

‘सलावालेकुम असगर मियां,’ हाशिम मुस्कराकर बोला, ‘कोई आइटम बाकी रह गया क्या ?’

‘नहीं भाई,’ उन्होंने कहा, ‘आई०एस०बी०टी० पहुंचा तो पता चला कि शहर में दंगा फैल गया है । बसों का जाना–आना बंद रहेगा कर्फ्यू रहने तक ।’

‘ओह!’ हाशिम ने आह भरकर कहा, ‘तो रुकने का इंतजाम करूं कहीं ?’

‘शुक्रिया हाशिम भाई,’ उन्होंने कहा, ‘आप बस यह बिल्टी रख लीजिए । दो–चार दिन में कर्फ्यू हट जाने की जैसे ही आपको खबर मिले, डाक से भेज देना ।’

‘हां–हां असगर मियां, क्यों नहीं ।’ बिल्टी को उनसे लेकर गल्ले में रखते हुए हाशिम बोला, ‘मैं ध्यान रखूंगा । आप बेफिक्र रहिए ।’

बिल्टी हाशिम को पकड़ाकर वे सदर से बाहर की एक मस्जिद के इमाम के पास चले गए थे जो पहले ही उन्हें अच्छी तरह जानता था । कर्फ्यू वाले चार दिन उन्होंने सड़कों और बाजारों में आवाराओं की तरह घूमते हुए बिताए । नाजमा बी के बारे में सोच–सोचकर उन्होंने हजार से ज्यादा बार अल्लाह से माफी मांग ली थी–—‘इस बार माफ कर दो परवरदिगार... नाजमा को महफूज रखो... अब के बाद उनको इस तरह अकेला छोड़कर शहर से बाहर कहीं नहीं जाऊंगा... ।’

चलते–चलते सड़क पर पड़े ईंट के अद्धे से उनका पैर टकराया । एक सख्त आवाज के साथ वह कुछेक इंच आगे जा लुढ़का । असगर मियां की तंद्रा टूटी । बलाओं ने फिर उन्हें आ घेरा । आज, शाम से कुछ पहले के समाचारों में उन्होंने सुना था कि शहर के हालात सामान्य हो चले हैं इसलिए प्रशासन ने कर्फ्यू उठा लिया है और राज्य परिवहन की बसों को सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक आवाजाही की इजाजत दे दी है । यह सुनते ही उनका मन खुले बछड़े की तरह उछल पड़ा और अगले दो ही पल में उसने उन्हें आई.एस.बी.टी.पहुंचा दिया । जिस समय बस में बैठे, पांच बज रहे थे शाम के; और ठीक साढ़े पांच बजे ड्राइवर ने बस को सड़क पर दौड़ाना शुरू कर दिया था । शहर तक पहुंचने में तीन–सवा तीन घंटे से ज्यादा समय नहीं लगेगा—उन्होंने सोचा था; और हुआ भी यही । ड्राइवर ने इस कदर बस को दौड़ाया जैसे टोस्ट पर मक्खन फैला रहा हो—एकदम बेरोक ।

पिछले दो–चार दिनों की घटनाओं को बार–बार अपने भीतर उलटते–पलटते और अपने आप से अनगिनत बातें करते–से असगर मियां अहमद की गली के मुहाने तक आ पहुंचे । गली के भीतर बाहरी सड़क से भी ज्यादा घटाटोप था । एक पल को वे ठिठक–से गए; लेकिन पीछे लगी बलाओं ने उन्हें रुकने न दिया या कहें कि कत्ल करने के लिए जबरन गली के अंधकार में धकेल दिया ।

बलराम अग्रवाल

जन्म : 26  नवंबर, 1952 को उत्तर प्रदेश के जिला बुलन्दशहर में
शिक्षा : पीएच॰ डी॰ (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
पुस्तकें :
कथा-साहित्य
सरसों के फूल (1994),
ज़ुबैदा (2004),
चन्ना चरनदास (2004),
खुले पंजों वाली चील (2015),
पीले पंखों वाली तितलियाँ (2015)
बालसाहित्य
दूसरा भीम (1997),
ग्यारह अभिनेय बाल एकांकी (2012),
अकबर के नौ रत्न (2015),
सचित्र वाल्मीकि रामायण (2015),
भारत रत्न विजेता (2015)
समग्र अध्ययन
उत्तराखण्ड (2011),
खलील जिब्रान(2012)

अनुवाद व पुनर्लेखन : 
(अंग्रेजी से) अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ (2000); अनेक विदेशी कहानियाँ व लघुकथाएँ; लॉर्ड आर्थर सेविले’ज़ क्राइम एंड अदर स्टोरीज़  (ऑस्कर वाइल्ड)। (संस्कृत से) सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण (2014)

संपादन : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ (1997), तेलुगु की मानक लघुकथाएँ (2010), समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद (आलोचना:2012), राष्ट्रप्रेम के गीत:जय हो! (2012), लघुकथा:पड़ाव और पड़ताल खण्ड-2 (2014); कुछ वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के 25 संकलन।

संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल : +918826499115                              
ई-मेल : 2611ableram@gmail.com


पूरी तरह भुतहा माहौल था । यहां से वहां तक एक भी मकान ऐसा नहीं था जिसके किसी दरवाजे या खिड़की की दराज से छनकर रोशनी की कोई किरन बाहर आ रही हो । डर की वजह से यूं तो वैसे ही उनकी आंखें फैली–सी थीं, अंधेरे में देखने के लिए पुतलियां आप ही आप कुछ–और फैल गईं । रक्तचाप बढ़–सा गया । गली, गली न रहकर अंधेरे की सुरंग बन गई थी जिसमें वे चल नहीं रहे थे; बल्कि यंत्रचालित–से स्वमेव ही आगे को सरक रहे थे । बलाएं अब पीछे से निकलकर उनके अगल–बगल तक बढ़ आई थीं और साथ–साथ चलने लगी थीं । ‘इन नामाकूलों से बच निकलने का अब कोई मौका नहीं बचा है असगर...’—उनके भीतर से आवाज आई । बचाव की गरज से दाएं–बाएं पुतलियां घुमाते–से मन ही मन एक बार वे पुन: शुरू हो गए—‘जाल तू जलाल तू, आई बला को टाल तू...जाल तू जलाल तू, आई बला को... ।’ यह जाप करते–करते वे कब अहमद के मकान के सामने जा खड़े हुए, खुद उन्हें भी पता न चला । बहरहाल, उन्होंने राहत की सांस ली– ‘शुक्र है अल्लाह का; मैं अब मारा भी गया तो चिंता की कोई बात नहीं, लाश को आसपास के लोगों द्वारा पहचान लिया जाएगा ।’ राहत की इस सांस के साथ ही काफी दूर से पीछा करती चली आ रही बलाएं अंधकार में घुल–मिलकर गायब हो गईं । वे अहमद के मकान के सामने खड़े रह गए, निपट अकेले ।

असगर मियां ने अनुमान लगाया साढ़े नौ बज गए होंगे; ज्यादा से ज्यादा पौने दस । सो जाने का समय तो नहीं है; लेकिन गली के किसी भी मकान से जिंदगी की लहर नहीं फूट रही । न रोशनी की कोई किरन, न किसी तरह की कोई आवाज । वे सोच में पड़ गए–—क्या करें ? अगले ही पल उन्होंने तय किया कि यह समय संकोच या शर्म का नहीं, अपने आप को सुरक्षित करने का है । भले ही इस समय पूरी गली में सन्नाटा है; लेकिन यह सन्नाटा यहां पूरी रात रहेगा, इस बात की क्या गारंटी है ? पता नहीं कौन, कब यहां आ धमके! दंगाई आएं, पुलिस वाले आएं या पी–ए–सी– वाले–—खतरा उन्हें सबसे है । हिम्मत जुटाकर उन्होंने अहमद के दरवाजे की चौखट के दाएं किनारे पर लगे कॉलबेल के बटन को दबा दिया । घंटी नहीं बजी । उन्होंने उसे दोबारा दबाया, फिर तिबारा; लेकिन घंटी नहीं बजी । बिजली ही गुल है शायद–—उन्होंने सोचा—वक्त बुरा हो तो हर शै गुल हो सकती है । हारकर दरवाजे पर लटकी बाहरी सांकल को पकड़कर जोरों से खड़खड़ा दिया उन्होंने–—खड़–खड़–खड़–खड़...खड़–खड़–खड़–खड़ ।

दरवाजे पर सांकल के खड़खड़ाने की आवाज इतनी भयानक हो सकती है, अब से पहले उन्हें नहीं मालूम था । खड़–खड़ की उस आवाज ने जैसे पूरे मुहल्ले को ही जगा डाला । असगर मियां डर–से गए । उन्होंने महसूस किया कि आसपास के कुछ मकानों की खिड़कियां गली में झांकने के लिए हल्की–सी हिली या खुली थीं । उन्हें अफसोस भी हुआ और डर भी लगा कि घुप अंधेरे में खड़ा होने की वजह से आसपास का कोई भी जन उन्हें पहचान नहीं पाएगा; लेकिन अपने लिए रौशनी पैदा करने का तो कोई तरीका इस समय उनके पास था ही नहीं । कत्ल के अपराधी सरीखे गरदन झुकाए वे बिना हिले जस के तस अपनी जगह पर खड़े रहे । अहमद के घर के भीतर कोई आहट महसूस न कर मजबूरन उन्हें दोबारा सांकल बजानी पड़ी । इस बार सफलता मिली । अहमद के घर की पहली मंजिल पर बाहर की ओर खुलने वाली खिड़की हल्की–सी खुली और उसमें से उसकी दस वर्षीया बेटी जास्मीन ने पुकारा–—‘कौ...ऽ...न ?’

यह आवाज सुनते ही असगर मियां के शरीर में जैसे प्राण लौट आए । गरदन उठाकर उन्होंने कहा, ‘मैं हूं बेटी, असगर ।’

‘इस वक्त ?’ उसने पूछा और गरदन घुमाकर एक बार पीछे को देखा ।

‘हां, दिल्ली से लौटा था तो...घर तक जाने की हिम्मत नहीं हुई; इसलिए...’

‘लेकिन अब्बू तो घर पर नहीं हैं,’ बच्ची ने कहा, ‘बाहर गए हुए हैं ।’ यों कहकर उसने असगर मियां के जवाब का इंतजार किए बिना खिड़की बंद कर ली ।

असगर मियां लुटे–पिटे–से वहां खड़े रह गए । वे जैसे–तैसे उस अंधेरी सुरंग को पार करके इस मकान तक पहुंचे थे । अब वापस यहां से कहीं–और जाना उनके बूते से बाहर था । दिल थामकर वे आगे बढ़े और अहमद के दरवाजे के सामने बनी चबूतरीनुमा सीढ़ी पर टिक गए । एकाएक उन्हें शेरू याद हो आया–—अहमद की गली का खूँखार कुत्ता । किधर गया वह ?

‘छोटा पिल्ला था, तभी कोई गली में छोड़ गया था ।’ अहमद ने एक दिन बताया था, ‘गली के बच्चों के साथ मिलकर जास्मीन ने इसे पाल लिया ।’

‘लेकिन पड़ा तो यह तुम्हारे मकान की इस चबूतरी पर ही रहता है ?’ असगर मियां ने पूछा था ।

‘हां, और–बच्चों के मुकाबले जास्मीन ही इसकी ज्यादा देखभाल करती थी न, इसीलिए । यह चबूतरी बचपन से ही इसका परमानेंट ठिकाना है ।’ अहमद बोला था, ‘लेकिन नजर यह पूरी गली पर रखता है । किसी की क्या मजाल कि इसके होते कोई अनजान इनसान या जानवर गली में कदम भी रख जाए ।’ फिर कुछ देर बाद बोला, ‘गली की छोड़ो, इस चबूतरी पर भी अपने और जास्मीन के अलावा किसी दूसरे को कभी टिकने नहीं देता है यह ।’

‘ऐसा ?’ असगर ने आश्चर्य से पूछा ।

‘जी, यकीन न हो तो आजमाकर देखना कभी ।’ अहमद बोला था, ‘तुम्हें मेरे साथ आते–जाते देखकर मेरे दोस्त के तौर पर यह पहचानता है; लेकिन इतनी दोस्ती नहीं रखता कि तुम इसकी जगह पर कब्जा करने की सोचो ।’

इसका सबूत असगर मियां को पिछले महीने मिला था ।

हुआ यह कि अहमद के साथ वे दिल्ली से लौटे थे । दोनों के कंधों पर सदर से लाए सामान की भारी–भरकम पोटली थी ।

‘असगर भाई, एक काम कीजिए...’ अहमद ने कहा ।

‘क्या ?’

‘दिन अभी काफी बाकी है । पहले मेरे घर चलकर कुछ देर आराम कर लीजिए । चाय–पानी लेकर घंटे भर बाद चले जाना ।’

‘जैसी तुम्हारी मर्जी ।’ असगर मियां बोले और अहमद के साथ ही इधर चले आए । दरअसल, जास्मीन को वे अपनी बच्ची जैसा ही मानते थे और जब भी दिल्ली जाते, उसके लिए कोई खिलौना या खाने की चीज लाना नहीं भूलते थे । इस बार उसके लिए वे चॉकलेट कैंडी लाए थे । उन्होंने सोचा कि कल के बजाय वे कैंडी आज ही जास्मीन को क्यों न दे दी जाए; बच्ची खुश हो जाएगी । घर की ओर बढ़ते हुए अहमद धनीराम हलवाई की दुकान से समोसे खरीदने के लिए थोड़ा आगे बढ़ गया और खुद वे, अहमद के घर के बाहर आ खड़े हुए । उस भारी–भरकम पोटली को कंधे से उतारकर उन्होंने दरवाजे के साथ वाली इस चबूतरी पर टिकाया ही था कि सड़क पर खड़ा शेरू उन पर गुर्रा उठा । उनकी समझ में नहीं आया था कि इतनी जान–पहचान के बावजूद भी वह उन पर गुर्रा क्यों रहा है! इतने में जास्मीन ने दरवाजा खोला । असगर मियां पर शेरू को गुर्राते देखकर वह बोली, ‘अपनी पोटली आपने इसकी चबूतरी पर टिका दी है न, इसीलिए गुर्रा रहा है ताऊजी । इसे यहां से हटा लीजिए ।’

यह सुनकर उन्होंने पोटली को चबूतरी पर से उठाकर पुन% कंधे पर रख लिया; और शेरू ने तुरंत गुर्राना बंद कर दिया था ।

गली दोबारा अंधेरे की सुरंग बन चुकी थी । बलाएं फिर से उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगी थीं । थकान, दहशत और अहमद के घर का दरवाजा न खुलने के अफसोस से हताश असगर मियां पहले तो उस चबूतरी पर बैठे, फिर धीरे–धीरे लेटते–से चले गए । पता ही नहीं चला कि कब उन्हें नींद आ गई; या यह कि वे बेहोश हो गए ।

सुबह पांच बजे के आसपास अहमद के दरवाजे की भीतरी सांकल खड़कने की आवाज से उनकी नींद टूटी । वे उठकर बैठ गए । उन्होंने देखा कि—चबूतरी के दूसरे कोने में शेरू सिकुड़ा–सिमटा–सा लेटा है! उन्हें दुगुनी हैरानी हुई जब दरवाजा खुला और दूध लाने वाला डोल हाथ में लटकाए अहमद उसके पीछे खड़ा नजर आया । अहमद भी उन्हें चबूतरी पर बैठा देखकर पूरी तरह सकपका गया ।

‘वह...मैं...मैं...’ वह हकलाया ।

‘कोई बात नहीं,’ असगर मियां खड़े होकर तपाक से बोले, ‘रात काटने को थोड़ा ठिकाना चाहिए था बस; सो इस बेजुबान ने मुझे दे दिया । चलता हूं, खुदा हाफिज ।’

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बहुवचन से साभार

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