तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो - प्रेम भारद्वाज

कुछ रोज़ पहले हतप्रभ था कि लोग बीते दिनों आसाम में हुई हत्याओं की तुलना पेशावर में हुई बच्चों की हत्या से अजीब ढंग से कर रहे थे, समझ नहीं आया कि क्या कहना/बताना/सीखाना चाह रहे थे.... क्या अब संवेदनशीलता इतनी सेलेक्टिव हो गयी है ???

मुझे प्रेम भारद्वाज सरीखा संवेदनशील संपादक दूसरा नहीं दीखता. ये तो नहीं पता कि अच्छे संपादक में क्या-क्या गुण होने चाहियें लेकिन इतना पता है कि संवेदनशीलता और मनुष्यता दैरेक्ट्ली प्रपोर्श्नल हैं...

पेशावर में हुए निर्मम हत्याकांड जिसमे बच्चों को निशाना बनाया गया उस पर उन्होंने जो बाते लिखी हैं वो भीतर तक झकझोरती हैं.... ...............

भरत तिवारी



मुझे अफसोस है कि जिनके बारे में ‘कागद कारे’ कर रहा हूं, वे शायद ही इन्हें पढ़ पाएं...प्रेम भारद्वाज

प्लीज... कब्र से घर ले चलो अंकल! 

(प्लीज, इसे हॉरर फिल्मों के दृश्यों से न जोड़ें, जादुई यथार्थवाद से तो कतई नहीं...) 

   बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं 
   अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें 
   भूख से 
   महामारी से 
   बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें 
   बच्चों को मारने वाले आप लोग! 
   एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिए जाएंगे 
   बच्चों को मारने वाले शासको! 
   सावधान! 
   एक दिन आपको बर्फ में फेंक दिया जाएगा 
   जहां आप लोग गलते हुए मरेंगे 
   और आपकी बंदूकें भी बर्फ में गल जाएंगी 
                                    [आलोकधन्वा]


तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो 
प्रेम भारद्वाज




उन्होंने कहा- गुलाब पर लिखो, जिंदगी खुशी का फूल बन जाएगी। उन्होंने फिर कहा- अपनी कहानी का अंत सुखांत करो, सुखी हो जाओगे। एक बार और दोहराया- बेहद हौलनाक अंधेरा है तुम्हारे हर्फों में, उजाले भरो इनमें। फिर-फिर कहा- आप खुद को उदासी की खोह में छिपाने के लिए बहाने ढूंढ़ते हैं और आपको मिल भी जाते हैं... अगर आपका घर कब्र में तब्दील हो गया है तो अपने हालात के लिए आप खुद जिम्मेदार हैं... दिसंबर को जनवरी बनाओ। कांटो को फूल। अंधेरे को उजाला। गम को खुशी। मैं ऐसा ही करने को आगे बढ़ा कि गोलियों की बौछार हो गई... फूलों का बगीचा कब्रिस्तान बन गया। पेशावर से पूर्वोत्तर तक लाशें ही लाशें। दिसंबर को जनवरी बनाने की मेरी कोशिश कैसे लहूलुहान हो गई, इसे जरा आप भी देख और महसूस कर लीजिए, बशर्ते कि आपके पास थोड़ा-सा वक्त हो और अपना मूड खराब करने की कूवत भी। 

सर्द स्याह रात की हाड़ कंपा देने वाली ठंड। बाहर धुंध। भीतर धुंआ। सब कुछ को गर्क करता माहौल। रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ पढ़ते और रजाई की गर्माहट में खुद को खुशनुमा महसूस करते लगा कि यही वक्त है पेशावर में मारे गए बच्चों पर संपादकीय लिख ही डाला जाए। कलम उठाया ही था, पहला शब्द लिखने ही जा रहा था कि दरवाजे पर बहुत तेज दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही सामने का दृश्य देखकर दंग रह गया... 

-क्या अंकल... सबकी तरह तुम भी घर में रहकर कब्र के बारे में लिख रहे हो? 

-तुम्हारा चेहरा उन अंकल से मिलता है जिन्होंने हमें मारा... और उनका हमारे अब्बा से। 

-वहां कब्र में दम घुटता है, बहुत अंधेरा है... अंधेरे से बहुत डर लगता अंकल, इसलिए वहां से हम भाग आए हैं। 

-वहां बहुत सर्दी है... प्लीज अंकल हमें रजाई में अपने साथ सुला लो न... 

-हमें बहुत भूख लगी है... कुछ खाने को दो न...! 

-हमने बहुत से दरवाजों पर दस्तक दी... कोई नहीं खुला। कुछ ने खोलकर झटाक से बंद कर लिया... वे हमें प्रेत समझ रहे हैं... जो बच्चे सारी दुनिया से डरते हैं, उनसे भी कोई डरता है क्या... 

-हमें पनाह चाहिए अंकल! 

मैं दरवाजे से अलग हट जाता हूं। खून से लथपथ वे तमाम बच्चे इस अंदाज में घर में दाखिल हो जाते हैं जैसे स्कूल से भूखे-प्यासे घर लौटे हों। घर का आकार जादुई तरीके से बढ़ गया। बच्चे सबसे पहले किचेन में गए जिसको जो भी मिला खाने लगा... यह देखकर ऐसी खुशी मिली जिसे शायद मैं जिंदगी में पहली बार महसूस कर रहा था। वे मेरी रजाई में दुबक जाते हैं, मुझे भी साथ लेकर। मैं चुप हूं। वे बेचैन... -अंकल हर महीने तो लिखते हो अलग-अलग विषयों पर। इस बार हम पर लिखो न... हम बोलेंगे, तुम सुनना... हम बच्चों की कोई नहीं सुनता... तुम सुन लो...। 

मैं सुन रहा था। मुझे सुनना था। मैं सुनना चाहता था उन आवाजों को जिसे सादियों से अनसुना किया जाता रहा है। 

-अंकल, क्या तुम बता सकते हो? हमें हर जगह हर बार क्यों मारा जाता है? 

-अरे बुद्धू, मारने वालों में कोई भी आंटी नहीं थी न, इसीलिए हम मारे गए। अगर होती तो हम बच जाते। आंटी को अपना बच्चा याद आ जाता जो हमारी ही तरह का होता... आंटियां औरत होती हैं न। टीचर ने सिखाया था कि औरतें जन्म देना जानती हैं, मारने का काम मर्द करता है... औरतें तो हमेशा बचाती हैं- धन, इज्जत, मर्यादा, इंसानियत और दुनिया भी। 

-मैं ऐसा नहीं कह सकती दोस्त... मेरी तरफ इतनी हैरानी से मत देखो... तुमको सिर्फ मेरी आवाज सुनाई देगी... चेहरा या आकार नहीं क्योंकि मैं भ्रूण हूं... मैं जब अपनी मां के पेट में थी तो मुझे चौथे महीने ही खत्म कर दिया गया... मुझे खत्म मान लिया गया... मैं नहीं हूं, मगर मैं हूं... और नहीं होकर भी होना या होकर भी नहीं होना मेरा अभिशाप है... मेरा अपराध इतना भर था कि मैं मादा भ्रूण थी, पैदा होकर लड़की बनती तो स्त्री हो जाती... मेरी मां को बेटी ही चाहिए थी... बड़ी लालसा थी उसकी, अभी वह 45 साल की है। लेकिन वह लालसा खत्म नहीं हुई है। उसको आज भी पछतावा है कि मेरे पिता और अपने पति के कहने पर वह क्यों जननी से हत्यारिन बन गई। वह खुद को मेरी हत्यारिन मानती है। पिता समझाते हैं कि तब पैसे की कमी थी... मैं पिता को नहीं समझा पाई कि क्या गरीबों के घर बेटियां जन्म नहीं लेती हैं, क्यों मुझे बोझ मान लिया गया... क्या ले लेती मैं- गोद में बित्ता भर जगह। अंजुरी भर दूध। कुल्ला भर पानी मैं अलग से अपने लिए कोई जगह भी तो नहीं घेरती। मां के वजूद और उसके स्नेह में मिसरी की तरह घुल जाती। पानी में घुल गई मिसरी की मिठास को फिर पानी से अलग करने की पीड़ा, पानी और मिसरी के लिए कितनी यातनादायक होती है, इसे मेरी मां जानती है जो होकर भी नहीं है और मैं जो नहीं होकर भी हूं। उसके गर्भ, उसके दिल, दिमाग, नमकीन आंसुओं, हर वक्त धमनियों में बहते खून में मैं खुद को आकार लेते देखना चाहती थी अंकल, देख न सकी... चाहती थी लोग मुझे देखें, मेरी मां मुझे देखे... देखना चाहती थी कि वह मुझे जन्म देने के बाद पहली बार मुझे कैसे देखती है। उसकी आंखों में तैरते प्यार को देखने की तमन्ना थी... मां समझती है कि मैं मर गई, लेकिन मैं हूं। अंकल तुम उसे इतना बता देना कि वह मेरी हत्यारिन नहीं है। मैं तो मरी ही नहीं। उसके सीने से मेरी हत्या का बोझ हट जाएगा, जो उसके रातों को उसे सोने नहीं देता। दिन में चैन से जीने नहीं देता। 

-हमें दंगे में इसलिए मार दिया गया क्योंकि हम मुसलमान के बच्चे थे। हमें तो हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, भगवान-खुदा का फर्क भी समझ में नहीं आता... क्या मुसलमान होना खराब बात है अंकल? 

-हमें बिहार के जातीय नरसंहार में बेरहमी से कत्ल किया गया क्योंकि हम दलित घर में जन्मे थे... हमें पेट में ही इसलिए नष्ट कर दिया गया क्योंकि उनको डर था कि हम जन्म लेकर नक्सली बनेंगे... ये नक्सली क्या होता है अंकल? 

-हमारे कंधों पर हथियारों का बोझ है... खिलौने से खेलने वाले दिनों में हम पर कभी काम का बोझ तो कभी एके-47 का... हम हर जगह हैं अंकल... फुटपाथ पर भीख मांगते... चाय की दूकान, होटलों में बर्तन धोते... चोरी करते... राहत शिविरों में जन्म लेते, निठारी में दरिंदगी का शिकार बनते। गाली सुनते, गाली देते। हम गरीब बच्चे हैं, काले हैं... दलित हैं... इसलिए इस धरती का एक नरक कोना हमारे लिए सदा से ही सुरक्षित रहता है...। 

-हमें खरीदा और बेचा जाता है... हम ‘चीज’ हैं... हम अनाथालयों में अपनी बदनसीबी के साथ हैं। जेलों में सजा भुगत रहे हैं मां के संग। हम कभी जायज हैं, कभी नाजायज। नाजायज औलाद क्या होती है अंकल? 

-हमारी गर्दन कबूतर की गर्दन से भी नाजुक और कमजोर है... हम कमजोर गर्दन भर हैं अंकल, जिसे कभी भी कोई मरोड़कर, छुरी से काट डालता है। 

-जब बड़ा हो जाना हत्यारा हो जाना है तो हे ईश्वर मेरे साथ इस वक्त दुनिया के किसी भी बच्चे को कभी बड़ा मत होने देना। 

-वह कौन सा अदृश्य तीर है जिसके निशाने पर इस दुनिया का हर बच्चा है... तीर लिए हुए वह पुरुष कौन है... 

... 

बच्चे अब खामोश हो गए हैं। उनकी खामोशी खुशनुमा नहीं है। वे सबके सब सिसक रहे हैं। बेशक बात अतिशयोक्ति की परिधि में दाखिल हो सकती है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है तो मैंने मान लिया है, मानने की माकूल वजह भी जरूर होगी जिसे फिलहाल तलाशने की फुर्सत नहीं है। बच्चों की बर्बर हत्याओं पर लिखना एक असहनीय दर्द से गुजरने के साथ-साथ एक बार फिर से मरे बच्चों को मारने सरीखा है। मेरे जैसे बहुत सारे पढ़ने-लिखने वाले लोग ऐसा करते हैं। इसे मजबूरी, पेशा कुछ भी नाम दे दीजिए, लेकिन है तो यह धंधेबाजी ही, संवेदना की सौदेबाजी ही। 

हमारा एक पैर सभ्यता तो दूसरा बर्बरता की जमीन पर टिका है। हम सभ्य और क्रूर एक साथ हैं। हम में से 90 फीसदी ईश्वर को मानते हैं। उसके सामने सजदे में झुककर इबादत-प्रार्थना करते हैं। बच्चों को ईश्वर का रूप भी मानते हैं। अजीब घालमेल है। जिसे खुदा मानते हैं, उसके ही सीने में खंजर उतार देना हमने कहां से सीखा? दुनिया में अब तक के इतिहास में जब कभी भी किसी बच्चे की हत्या हुई होगी। तब-तब सभ्यता और मनुष्यता के हलक से चीखें निकली होंगी। किसी भी बच्चे का निर्मम अंत हमारे ‘होने’ की हत्या है? 

नहीं समझ पाता हूं क्यों लोग मुस्कुराते हुए एक रूमानी शोक से भर जाते हैं। क्यों जख्म रिसकर एक नए जख्म को जन्म दे देता है। हमारे भीतर का बच्चा कब, कहां और क्यों गायब हो जाता है। हम कभी उसकी गुमशुदगी पर गमगीन-परेशान क्यों नहीं होते? बच्चे हमेशा ही बर्बरता की सलीब पर टंगे रहे। कुछ मोड़ और कुछ पड़ाव तो याद आ सकते हैं, लेकिन हर पल में लिपटा लहूलुहान बचपन न हमेशा दिखाई देता और न ही हम देखना चाहते हैं। 

अब हम उनकी मौत पर दो मिनट का मौन रखेंगे, मोमबत्ती जलाएंगे। गोष्ठियां करेंगे। लेख-संपादकीय लिखेंगे। टी.वी. पर चिंता करते दिखेंगे...? और फिर खामोशी। कुछ दिन बाद! हमारा मौन ही उनकी मौत की वजह है। मोमबत्ती घरों-दिलों में रोशन होनी चाहिए, सड़क पर लैंपपोस्ट की तल्ख रोशनी में नहीं। लेखन से पहले जीवन होना चाहिए। जीवन- सुंदर और सवंदेनशील। लेकिन जो चाहिए वह है नहीं। जो है वह भयावह है। अनुराग कश्यप की फिल्म ‘अगली’ की उस मासूम बच्ची की तरह ही इस देश में कई बच्चे मर-कट रहे हैं जिनकी तलाश में सब अपना स्कोर सेट कर रहे हैं। बच्ची अंततः दम तोड़ देती है। हमारा स्वार्थ ही बच्चों का हत्यारा है। उनके प्रति बेपरवाही ही बर्बरता। वे नर्म-नाजुक, कमजोर हैं। उन पर खंजर लटका है। उनको जिबह किया जाता है। गर्दन इसलिए भी काटी जाती है क्योंकि वहां कोई हड्डी नहीं होती। रघुवीर सहाय के ‘रामदास’ को मालूम था कि उसकी हत्या होगी। हत्यारे को मालूम था कि वह उसकी हत्या करने वाला है। समाज भी जान रहा था कि रामदास की हत्या होने जा रही है। लेकिन किसी ने इसका प्रतिरोध नहीं किया। न समाज ने, न खुद रामदास ने ही। जहां प्रतिरोध न हो वहां हत्या हमेशा ही सुलभ हो जाया करती है, जैसे हमारे समाज में बच्चों को मारना कबूतर को मारने से भी ज्यादा आसान हो गया है। वे नहीं जानते हैं कि मुस्कुराते बच्चे से सुंदर इस सृष्टि में कुछ भी नहीं। बच्चों की हत्या से भयावह इस ब्रह्मांड में कुछ और नहीं। 

मेरे भीतर का अंधकार रोशनी की चाहत में और अधिक गहरा हो गया है। उम्मीदों की वैशाखियों पर झूलती उदासी भी फिसलकर फिर से नीचे दर्द की घाटियों में जा पहुंची। फूल को छूने की चाहत में हाथ खून से रंग गए। नए साल के पहले दिन, पहली सुबह उसकी प्रथम किरण को मुट्ठी में भर लेने की तीव्र इच्छा बच्चों की चीत्कार में कहीं खो गई। 

मुझे अफसोस है कि जिनके बारे में ‘कागद कारे’ कर रहा हूं, वे शायद ही इन्हें पढ़ पाएं। इस अंकल की रजाई में गर्माहट पाने वाले उन तमाम बच्चों में कोई भी एक इन शब्दों के मरहम से राहत पा सके। ठीक उसी तरह जिस तरह प्रेमचंद के ‘कफन’ के घीसू-माधव तक वह कहानी आज भी नहीं पहुंची। मैं आगे कुछ और लिखना चाहता हूं कि सहसा एक बच्चा बोल पड़ा: 

-अंकल दो प्रार्थनाएं सुन लो। पहले यह कि तुम अंधेरे बंद कमरे में औरों की तरह केवल लिखते ही रहोगे या बाहर निकलकर हमारे लिए कुछ करोगे भी। बकियों की तरह तुम भी हमें एक विषय मानकर प्रतिष्ठा, नाम, इनाम बटोरना चाहते हो। प्लीज अपने प्रोफेसन के फ्रेम को तोड़कर कुछ करो क्योंकि तुम सबसे पहले इंसान हो। 

-अंकल, क्या तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो, अंधेरे में जीते हों... अगर ऐसा है तो गलत है। तुम इस कब्र को घर में बदलो और प्लीज हमें कब्र के अंधेरे से निकालकर घर के उजाले और शोर में ले चलो...।

prem bhardwaj
editor pakhi 

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