क्रांतिकारी पार्टी के सामने चुनौतियां
अरुण माहेश्वरी
आज किसानों की जमीन को पूंजीपतियों की लोलुपता से बचाने की चिंता प्रमुख है।
सीपीआई(एम) की 21वीं पार्टी कांग्रेस (14-19 अप्रैल 2015) होने जा रही है। क्रांतिकारी वामपंथ के अभी भारी दुर्दिन चल रहे हैं। यह समय इतिहास से संक्रमण के तमाम बिंदुओं को मिटाने का समय कहलाता है। संक्रमण का अर्थ सिर्फ चीजों का बदलना नहीं है, बल्कि परिवर्तन के मानदंडों तक का भी बदलना है ; जीवन के सच के पूरे फलक का बदलना है। वैसे तो बदलाव प्रकृति का नियम है। आज हमे घेरी हुई तमाम चीजें अकल्पनीय गति से बदल रही है। हर दिन एक तकनीक पुरानी होती है, एक नयी तकनीक जन्म लेती है। मार्क्स ने कहा था कि उत्पादन के साधनों के लगातार क्रांतिकरण के बिना पूंजीवाद जीवित नहीं रह सकता। लेकिन यह बदलाव ऐसा है जिसमें चीजें बदलती है, ताकि समाज न बदले, सामाजिक संबंध न बदले। घुमा कर कहे तो यह यथास्थितिकारी परिवर्तन है।
भारत में ही कांग्रेस-शासन के अंत और मोदी सरकार के आने के बाद भी कहीं कोई स्थिरता नहीं है। मोदी और आरएसएस का हिंदुत्व एक दिन के लिये भी चलता नजर नहीं आता। अभी से लोगों में इससे निजात पाने की खलबली है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व जीत इसी नये संक्रमण के साफ संकेत दे रही है।
सामाजिक क्रांति की परिकल्पना से ऐसे बदलाव का कोई संबंध नहीं है। राजनीतिक क्रांति सामूहिक मुक्ति की एक सर्वथा नयी परिकल्पना से समाज को बांधती है। यहां से समाज के पुनर्विन्यास के एक नये दीर्घकालीन यज्ञ का प्रारंभ होता है। यह एक ऐतिहासिक संयोग है जब सिर्फ चीजें नहीं बदलती, बदलाव के सिद्धांत और मानदंड तक बदल जाते हैं। यह संयोग स्वत:स्फूर्त ढंग से पैदा नहीं होता। ऐसे संयोग को बनाने के लिये, परिवर्तनकामी सामाजिक शक्तियों को संगठिन करने के लिये क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी को गहरी निष्ठा के साथ लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ती है; अकूत त्याग-बलिदान करने पड़ते हैं।
एक समय था, जब पूंजीवाद उदीयमान था और उसकी सारी चमक-दमक को कोरा भ्रम बताते हुए वामपंथी क्रांतिकारी आसानी से यह भविष्यवाणी कर देते थे कि यह चमक ज्यादा दिन नहीं चलने वाली, शीघ्र ही इस पूंजीवादी विकास का खोल फट जायेगा। यह खुद अपने गर्भ से अपनी कब्र खोदने वाले संगठिन और अनुशासित सर्वहारा वर्ग को पैदा कर रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी उसीकी पार्टी है। और इस प्रकार उसमें एक अनोखा आकर्षण था। दुनिया की एक तिहाई आबादी उसकी छत्र-छाया में आगयी थी। सोवियत संघ हर मायने में अमेरिका को टक्कर देने वाली महाशक्ति था।
जिस संगठित मजदूर वर्ग को सामाजिक क्रांति का मूल वाहक माना गया था, जो अपनी मुक्ति के साथ शोषण की व्यवस्था के पूरे टाट को उलट देगा, उसे तो इस व्यवस्था ने क्रमश: स्वयं एक निवेशक का रूप दे दिया है। जैसे एक पूंजीवादी निवेशक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है वैसे ही यह संगठित मजदूर भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और कई उपभोगों के लिये बैंकों से कर्ज लेता है।
लेकिन आज ! समाजवाद के पराभव की बाद की इस नयी सहस्त्राब्दी के इन 15 सालों को देखिये। यह पहले के किसी भी समय से कहीं ज्यादा उथल-पुथल से भरा हुआ है। 2008 के अमेरिकी संकट ने सभ्यता के अंतिम सत्य कहे जाने वाले नव-उदारवाद को ध्वस्त कर दिया। आज हमारे पड़ौस के पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर रूस सहित पूरा मध्य और मध्यपूर्व एशिया धधक रहा है। मध्यपूर्व में तो इराक, सीरिया, मिस्र, फिलिस्तीन - देश के देश खंडहरों में तब्दील किये जा रहे हैं। अमेरिका का पिछवाड़ा कहलाने वाले लातिन अमेरिका के तमाम देशों ने पिछले तीन दशकों में क्रमश: अमेरिकी दादागिरी और उसकी नव-उदारवादी नीतियों को, अमेरिका के पिछलग्गूपन को नफरत के साथ ठुकरा दिया है। ग्रीस, स्पेन सहित पूरे यूरोप में इस भूकंप के झटके महसूस किये जाने लगे हैं। अफ्रीका के अधिकांश देशों में ‘सभ्यता-प्रसारी’ पूंजी के प्रवेश के पहले ही उसे मध्ययुगीन बर्बरता के अंधेरे में पड़े रहने के लिये छोड़ दिया गया है। जापान, चीन, कोरिया और हिंद-चीनी जातियों के देशों के साथ डालर-साम्राज्य की परस्पर-निर्भरशीलता इतनी जटिल गांठों से बंध गयी है कि कौन किसके हित को साध रहा है, निश्चयात्मक रूप से कहना मुश्किल लगता है। लेकिन यह सच है कि लातिन अमेरिका, अफ्रीका के देशों की तुलना में, जो हाल के काल तक विश्व पूंजी की खुली लूट और सस्ते श्रम के सबसे बड़े स्रोत बने हुए थे, इस हिंद-चीनी जगत में गरीबी उतनी उत्कट और नग्न रूप में नहीं दिखाई देती है।
कहने का मतलब है कि इस नयी सहस्त्राब्दी में दुनिया एक बेहद विकट रूप ले चुकी है। युद्ध, आतंक, विद्रोह, गला-काट प्रतियोगिता, मुनाफे की तलाश में पूंजी का बेतहाशा एक देश से दूसरे देश भागना। चारो और कुछ भी स्थिर नहीं दिखाई देता। यह सहस्त्राब्दी घनघोर अस्थिरता, अनिश्चयता और संकटों से भरी सहस्त्राब्दी बनती नजर आती है। दुनिया के कोने-कोने में जैसे हर क्षण संक्रमण के ऐतिहासिक संयोग, सब-कुछ उलट-पुलट जाने के क्षण बनते दिखाई दे रहे हैं। भारत में ही कांग्रेस-शासन के अंत और मोदी सरकार के आने के बाद भी कहीं कोई स्थिरता नहीं है। मोदी और आरएसएस का हिंदुत्व एक दिन के लिये भी चलता नजर नहीं आता। अभी से लोगों में इससे निजात पाने की खलबली है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व जीत इसी नये संक्रमण के साफ संकेत दे रही है।
अरुण माहेश्वरी
हिन्दी के जाने-माने मार्क्सवादी विद्वान, राजनीतिक टिप्पणीकार, साहित्यिक आलोचक, आर्थिक समीक्षक, वामपंथी सिद्धांतकार....
'एक और ब्रह्मांड' जैसे बहु-चर्चित, बहुपठित जीवनीमूलक उपन्यास और अन्य कई लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक, हिंदी में जनवादी साहित्य आंदोलन के निर्माण में एक केन्द्रीय भूमिका अदा करने वाली पत्रिका 'क़लम' के संपादक और '80 के दशक से ही जनवादी साहित्य आंदोलन की एक नेतृत्वकारी हस्ती ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में इनकी किताब 'आरएसएस और उसकी विचारधारा' को आरएसएस के बारे में लगभग एक पाठ्य-पुस्तक की तरह की सबसे प्रामाणिक पुस्तक कहा जा सकता है । इसी प्रकार, पश्चिम बंगाल में 34 सालों की कम्युनिस्ट सरकार और भूमि-सुधार के क्षेत्र में उसके ऐतिहासिक कामों का जो प्रामाणिक आख्यान उनकी पुस्तक 'पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति' में मिलता है, वह दुर्लभ है । 'नयी आर्थिक नीति : कितनी नयी', सन् '91 के बाद से भारतीय अर्थ-व्यवस्था के नये ऐतिहासिक मोड़ पर अपने प्रकार की अकेली किताब है ।
युगांतकारी मार्क्सवादी चिंतक अन्तोनियो ग्राम्शी को केन्द्र में रख कर लिखी गई उनकी पुस्तक 'सिरहाने ग्राम्शी' ग्राम्शी की तरह के एक गहन और बहु-स्तरीय चिंतक की मूल स्थापनाओं को जिस सफाई से पेश करती ही, वह अन्यत्र शायद ही कहीं मिलेगा । चिले के विश्व-प्रसिद्ध नोबेलजयी कवि पाब्लो नेरुदा पर 'पाब्लो नेरुदा : एक क़ैदी की खुली दुनिया' को डा. नामवर सिंह ने हिन्दी में नेरुदा के जीवन और कृतित्व पर लिखी गई सबसे अधिक प्रामाणिक और तथ्यमूलक पुस्तक कहा है । केंद्रीय साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित 'भारतीय साहित्य के निर्माता' श्रंखला में हिन्दी के सर्वजनप्रिय जनकवि हरीश भादानी पर इनकी किताब इस जनकवि के संपूर्ण व्यक्तित्व का जो विवेचन प्रस्तुत करती है, अप्रतिम है ।
अरुण माहेश्वरी ने अपनी पहली पुस्तक, 'साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार' से ही हिन्दी में वाद-विवाद-संवाद की श्रेष्ठ मार्क्सवादी परंपरा में अपना ख़ास स्थान बना लिया था । परवर्ती दिनों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के साप्ताहिक मुखपत्र 'स्वाधीनता' में सालों तक प्रकाशित होने वाले इनके नियमित लेखन और 'जनसत्ता' हिंदी दैनिक में इनके स्तंभ 'चतुर्दिक' तथा अक्सर प्रकाशित होने वाले राजनीतिक लेखों ने हिंदी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है ।
प्रकाशित पुस्तकें - (1) साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार; (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा ; (3) नई आर्थिक नीति : कितनी नई; (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड; (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक), (6) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (7) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी (11) धर्म, संस्कृति और राजनीति (12) समाजवाद की समस्याएं ।
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मो०: 09831097219
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में गौर करने की बात यही है कि दुनिया में कहीं भी आज संक्रमण के ऐसे तमाम ऐतिहासिक संयोगों के नेतृत्व में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं दिखाई दे रही है। यहां तक कि हाल में ग्रीस में, जहां की कम्युनिस्ट पार्टी ऐतिहासिक तौर पर वहां की राजनीति में एक प्रमुख स्थान रखती है, नव उदारवाद - विरोधी विकल्प के रूप में सिर्जिया नामक एक नयी पार्टी सामने आगयी। कुल मिला कर, ऐसा लगता है जैसे कम्युनिस्ट पार्टियां इस सारे उथल-पुथल का किनारे से नजारा करते हुए पूंजीवाद के आवर्तित संकट और उसके विखंडन के आलाप में डूबी हुई है, इसे संगठित करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। और, शायद यही वजह है कि चीजें कहीं भी वह रूप नहीं ले पारही है जिसे सामाजिक क्रांति की संज्ञा दी जा सके - ऐसे संक्रमण की संज्ञा जिसके बाद जीवन का कुछ भी वैसा नहीं रहेगा, जैसा कि अब तक रहा है ; जब परिवर्तन के ही मानदंड बदल जायेंगे !
आज के क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन को इन सारे उथल-पुथल वाले संयोगों में अपनी भूमिका के बारे में सही जवाबदेही करनी है। प्रतिरोध और परिवर्तन के सभी कटे-छटे अराजक द्वीपों को सामाजिक रूपांतरण के एक सकारात्मक कार्यक्रम से कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए, इसके रास्ते की तलाश करनी है। अन्यथा यह समूचा प्रतिरोध, विस्फोट पूरी तरह नपूंसक और निरर्थक साबित होगा क्योंकि इसे दिशा देने वाली चेतना और संगठित कोशिश जो नदारद है। इस निरर्थकता के संकेत भी सर्वत्र दिखाई देने लगे हैं। अरब की वसंत क्रांति जिसमें तुनिसिया से शुरू करके मिस्र, लीबिया, येमन, बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, कुवैत, मोरक्को, इसराइल, सुडान, मोरिशस, ओमन, सउदी अरबिया, जिबोती, पश्चिमी सहारा और फिलिस्तीन आदि सब जगह व्यापक जन-आक्रोश फूट पड़ा था, उसकी परिणतियां सबके सामने हैं।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि दुनिया की परिस्थिति में अभी संक्रमण की जितनी ज्यादा संभावनाएं दिखाई देती है, उसके राजनीतिक रूपाकारों में उतनी ही ज्यादा नपूंसकता, नया कुछ भी देने में असमर्थता दिखाई देती है। हमारे यहां ही बुद्धिजीवियों और जुझारू कार्यकर्ताओं तक के पास जैसे कहने-करने को कुछ नहीं रह गया है।
आज इस असंभव सी दिखाई दे रही परिस्थिति के मूल सामाजिक कारणों की भी ठोस पड़ताल की जरूरत है। जिस संगठित मजदूर वर्ग को सामाजिक क्रांति का मूल वाहक माना गया था, जो अपनी मुक्ति के साथ शोषण की व्यवस्था के पूरे टाट को उलट देगा, उसे तो इस व्यवस्था ने क्रमश: स्वयं एक निवेशक का रूप दे दिया है। जैसे एक पूंजीवादी निवेशक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है वैसे ही यह संगठित मजदूर भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और कई उपभोगों के लिये बैंकों से कर्ज लेता है। मार्क्स ने कहा था कि पूंजी और श्रम के बीच आदान-प्रदान के बाद ही पूंजीपति और श्रमिक के रूप में हमारी सामूहिक पहचान सामने आती है। लेकिन ऋण नामक औजार के जरिये यह पहचान एक नया रूप ग्रहण कर रही है - मुनाफे के लिये कर्ज लेने वाले पूंजीवादी उद्यमी और खुद के लिये कर्ज लेने वाले मजदूर उद्यमी। फर्क सिर्फ यह है कि एक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है और दूसरा जिंदा रहने के लिये। जो पूंजीपति का एक स्वतंत्र निर्णय है वह मजदूर के जीवन की मजबूरी है; महाजनी व्यवस्था में कर्ज उसकी गुलामी का सबब है।
कर्ज तो बड़े-बड़े देशों की स्वतंत्रता को हर लेता है। अभी कुछ साल पहले ही जब अर्जेंटीना ने वेनेजुएला की मदद से आईएमएफ के कर्ज को चुका दिया तो उससे आईएमएफ के अधिकारी खुश होने के बजाय रुष्ट हो गये थे। वे इससे अर्जेंटीना में वित्तीय अनुशासनहीनता फैल जाने का खतरा देखने लगे थे। अर्जेंटीना को आईएमएफ का कर्ज उसे अनुशासित रखने के लिये था। इसीलिये कर्ज में डूबा आदमी गुलाम मान लिया जाता है, भले वह कर्ज महाजन से मिले या राज्य से ।
ऐसे और भी कई पहलू हो सकते है जिन्हें आज के समय में श्रमजीवियों के पांवों की नयी बेडि़यों के रूप में देखा जा सकता है। मसलन हमारे यहां भूमि के विषय को ही लिया जाए। एक समय जमींदारों से भूमि को छीन का गरीबों में बांट देने के कृषि क्रांति, भूमि सुधार आंदोलन और सहभागी जनतंत्र के पंचायती राज ने गांव के गरीबों को आंदोलित किया था। आज किसानों की जमीन को पूंजीपतियों की लोलुपता से बचाने की चिंता प्रमुख है। गांव में साइकिल की जगह मोटरसाइकिल ने आकर पूंजीवाद के दूतों की पैठ को तीव्र और गहरा किया है।
इसीलिये क्रांतिकारी पार्टी की पहली जरूरत यह है कि वह दृढ़ता के साथ ‘विकास’ के मिथक को तोड़े। विकास का यह रूप आदमी की स्वतंत्रता नहीं, उसकी दयनीयता, उसकी गुलामी की जंजीरें पैदा करता है। चमकते शहरों के गर्भ में और ज्यादा वैषम्य, आमलोगों की जिंदगी की और भी भारी दुर्दशा पनप रही है। यह गरीबी के आधुनिकीकरण का रास्ता है। क्रांतिकारी आंदोलन को तमाम गरीबों, उत्पीडि़तों, विस्थापितों के ऐसे नये गठजोड़ को कायम करने के काम को प्राथमिकता देनी होगी जो राजनीति में एक निर्णायक हस्तक्षेप करने में समर्थ हो। यूपीए -2 के अंतिम दिनों में अपनाया गया भूमि अधिग्रहण विधेयक इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जो किसान जनता के हितों में ऐसे ही संयुक्त प्रतिरोध से उत्पन्न एक निर्णायक कदम था। यह गांवों की खुली लूट पर टिके झूठे विकास के अंत का रास्ता भी दिखाता है। भारत में इस विधेयक के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर 17 मार्च को समूचे विपक्ष का संसद भवन से राष्ट्रपति भवन तक पैदल मार्च करके राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपना निश्चित तौर पर संक्रमण के संयोग को पैदा करने में सक्षम राजनीतिक कार्रवाई की दिशा में उठा हुआ कदम है।
ऐसा ही एक और मसला मोदी सरकार से अभिन्न आरएसएस और सांप्रदायिक जहर फैलाने की उसकी नीतियों का है। वे देश की जनता की एकता को तोड़ कर कॉरपोरेट फासीवाद के लिये रास्ता साफ करना चाहते हैं। इसके प्रतिरोध में भी समूचे विपक्ष की एकता राजनीति एक और संक्रमणकारी संयोग की स्थिति पैदा करने की संभावना लिये हुए है।
इस परिप्रेक्ष्य में जब हम सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में विचार के लिये उसकी केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी किये गये दो दस्तावेजों, राजनीतिक और कार्यनीतिक लाइन की समीक्षा का मसौदा और राजनीतिक प्रस्ताव का मसौदा, को देखते हैं तो हमें गहरी निराशा हाथ लगती है। राजनीतिक कार्यनीतिक लाइन का अर्थ होता है पार्टी के दूरगामी रणनीतिगत लक्ष्यों की दिशा में कदम-ब-कदम आगे बढ़ने की ठोस जमीनी राजनीति। सीपीआई(एम) ने अपने इस मसौदे में पार्टी की सिर्फ इधर के सालों की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन की समीक्षा नहीं की है, बल्कि 1990 के बाद से इन 25 सालों के बहाने सीपीआई(एम) के जन्मकाल से लेकर अब तक की समूची कार्यनीतिक लाइन पर प्रश्न उठा दिया है।
हमारी दृष्टि में किसी भी क्रांतिकारी पार्टी के लिये यह ऐसा खतरनाक सोच है, जो तत्वत: पार्टी के अब तक के अस्तित्व के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा देता है और यही सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व के खोखलेपन को भी दर्शाता है। यह पूरा मामला कुछ अजीब से गोरखधंधे सा दिखाई देता है। इस मसौदे में ‘वाम मोर्चा’, ‘वाम जनतांत्रिक मोर्चा’, ‘वाम जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का गठबंधन’, ‘संयुक्त मोर्चा’ और ‘तीसरा मोर्चा’ आदि पदों के साथ ऐसी अमूर्त चर्चा की गयी है कि जिसके ठोस राजनीतिक मायनों को समझने में अच्छो-अच्छो का सिर चकरा जाए। सच यह है कि वास्तविक इतिहास से काट कर देखने पर इन पदों का अपने में कोई मूल्य नहीं है। वे स्वयं में भविष्य को संवारने के लिए कोई नुस्खा या योजना पेश नहीं करते। असल कठिनाई तो तब आती है जब हम इन अमूर्त पदों से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री का वास्तविक चित्रण शुरू करते हैं।
मजे की बात यह है कि लगभग 15 पृष्ठों के इस दस्तावेज में इसी ‘वास्तविक चित्रण’ के काम की, पार्टी के सामने आई बड़ी-बड़ी राजनीतिक चुनौतियों और भूमि सुधार, पंचायती राज और सत्ता के विकेंद्रकरण आदि के क्षेत्र में उसकी बड़ी-बड़ी राजनीतिक उपलब्धियों को रखने की कोई कोशिश नहीं है। न इसमें 34 साल तक एक राज्य में सरकार चलाने के विरल ऐतिहासिक अनुभवों का कायदे से उल्लेख है, न ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के ऐतिहासिक प्रस्ताव का, न यूपीए -1 के ठोस अनुभवों का। इस दस्तावेज के अंत में जिस प्रकार यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के निर्णय को गलत समय पर लिया गया निर्णय बता कर और पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की विफलता की चर्चा से उसे संतुलित किया गया है, वह भारत में वामपंथ की पराजयों के कारणों के विषय पर सिवाय एक लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें और जो भी हो, राजनीति जरूर नहीं है। यह कहता कम छिपाता ज्यादा है; सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व की राजनीतिक अकर्मण्यता पर महज पर्दादारी का काम करता है।
यही वह बिंदु है जब राजनीति के नये आयतन को हासिल करने के पहलू पर नये रूप में विचार करने की जरूरत है। यह किसी भी सर्वसमावेशवाद से कत्तई हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिये एकता और निर्मम संघर्ष का नजरिया जरूरी है। सर्वसमावेशी दृष्टि से कभी भी संक्रमण के ऐतिहासिक संयोग पैदा नहीं हो सकते, न पार्टी के बाहर और न पार्टी के अंदर ही। अब तक जो हुआ, उसके प्रति अत्यधिक क्षमायाचना के चक्कर में पड़ने की कोई वजह समझ में नहीं आती। यह एक प्रकार से स्मारकों को ढहा कर अतीत से मुक्ति पाने का नपुंसक तरीका है। पुरानी भूलों के बजाय चर्चा उन भूलों के कारणों की, उनके पीछे की सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं की होनी चाहिए। और सबसे बड़ी जरूरत इन ऐतिहासिक भूलों के कारकों से निष्ठुरता के साथ मुक्ति पाने की है, न कि किसी सर्वसमावेशवाद के तहत लाशों के बोझ को ढोने की।
प्रश्न है कि क्या भारतीय वामपंथ में ऐसे किसी गहरे नश्तर को सह पाने की ताकत बची हुई है ? इसी सवाल पर भारत में संक्रमण के संयोग और सामाजिक रूपांतरण के घटक वामपंथ का भविष्य निर्भर करता है।
गालिब का बहुत लोकप्रिय शेर है :
‘‘रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।’’
हमारी यही कामना है कि सीपीआई(एम) की आगामी 21वीं कांग्रेस ‘भले-भले’ में पूरी न हो !
अरुण माहेश्वरी
1 टिप्पणियाँ
भारतीय नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार 22-03-2015 को चर्चा मंच "करूँ तेरा आह्वान " (चर्चा - 1925) पर भी होगी!
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