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जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज - अरुण माहेश्वरी | Arun Maheshwari on Casteism and Brahiminism


जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज ... 

अरुण माहेश्वरी

अर्चना वर्मा जी ने अपनी फेसबुक की वाल पर ‘ब्राह्मणवाद’ शीर्षक से सात पोस्ट लगाई है। इसमें उन्होंने बड़ी सरलता से ब्राह्मणवाद के प्रसंग में कुछ मौलिक बातें कही है। उनकी बातों का लुब्बे-लुबाब यह है कि - क्यों ब्राह्मणवाद के नाम पर बेचारी ब्राह्मण जाति को लपेटा जाता है जबकि ब्राह्मणवाद का समानार्थी पद है जातिवाद। यदि जातिवाद कहके उससे अभिहित सारी बातें कही जा सकती है, और कही जाती रही है तो फिर फिजूल में ब्राह्मणवाद का वितंडा खड़ा करने का क्या मतलब है?
Arun Maheshwari on Casteism and Brahiminism

हमारा सवाल है कि क्या सचमुच ब्राह्मणवाद और जातिवाद समानार्थी है? ब्राह्मणवाद का इतिहास तो यह बात नहीं कहता। जातिवाद ब्राह्मणवाद की उपज जरूर है लेकिन ब्राह्मणवाद नहीं है। भारतीय दर्शन के इतिहासकारों के अनुसार ईसापूर्व 900 से लेकर ईस्वी सन् 400 के बीच के लंबे काल में वैदिक मंत्रों की संहिताओं, ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के बाद एक अलग कोटि का साहित्य सामने आया था जिसे ब्राह्मणग्रंथों के रूप में जाना जाता है। इन ग्रंथों में नाना प्रकार के अनुष्ठानों से जुड़े विधि-विधानों, कर्मकांडों, यागयज्ञों, कट्टरपंथी मान्यताओं ओर काल्पनिक प्रतीक योजनाओं की भरमार है। महीनों, सालों, दो-दो साल तक चलने वालें यज्ञों के विधान दिये हुए हैं। इतिहासकार इस काल को भारत की भौतिक उन्नति के साथ ही वर्ण व्यवस्था के उदय का भी काल बताते हैं।

इन ब्राह्मण ग्रंथों का ही आगे विकास आरण्यक ग्रंथों में हुआ। योग, यज्ञ के बजाय इनमें ध्यान और मनन को महत्व दिया गया। फिर आए उपनिषद। इन्हें साधारणतया ब्राह्मण ग्रंथों की परंपरा का अंश मानने पर भी उनके विकास में ब्राह्मणेत्तर चिंतन का पर्याप्त प्रभाव रहा। भारतीय चित्त के विकास के इतिहास में ब्राह्मणों के युग से उपनिषद युग में प्रवेश करना एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। हरप्रसाद शास्त्री तो इसे प्राचीन भारत में हुई एक गौरवशाली बौद्धिक क्रांति कहते थे। ब्राह्मण विचारधारा का आरण्यक विचाराधारा में परिवर्तन भारतीय मूल्यों के परिवर्तन का नया चरण था जिसमें यज्ञानुष्ठान के बजाय ध्यानोपासना पर बल दिया जाने लगा।

वेदांत दर्शन के उत्तरकाल में ब्रह्म के जिस महान स्वरूप की कल्पना की गई थी वह वेदों में प्रयुक्त ब्रह्म शब्द से बिल्कुल अलग थी। वेदों के भाष्यकारों के अनुसार वहां आए ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ है - बलि या अन्नाहुति, सामगान, तंत्र और तंत्र विद्या, सफल याजि्ञक अनुष्ठान, मंत्रोच्चार और आहुतियां, होता द्वारा मंत्र पाठ, महान। इसीलिये, भारतीय इतिहास में ब्राह्मणवाद समानार्थी है कर्मकांडों का, अंध-विश्वासों, धार्मिक रूढि़वाद, पोंगापंथ, का। समाज के कठोर जातिवादि विभाजन, छुआछूत और खास प्रकार के शुचिता बोध का। इन सबके समुच्चय का। ईसापूर्व 900 से ईस्वीं 400 तक चले इस दौर को हरप्रसाद शास्त्री भारत की चरम भौतिक उन्नति से लेकर जातियों में पर्यवसन का दौर कहते हैं। उनके शब्दों में - ‘वैदिक उपद्रव का काल’। मनुस्मृति इसी दौर में रची गयी सामाजिक संरचना से जुड़े कठोर विधानों की संहिता है, ब्राह्मणवादी सनातन धर्म की सामाजिक संहिता, छुआछूत और शुचिता के संस्कार तक जाने वाली एक खास संहिता।

ऐसे में यदि हम अर्चना वर्मा की सलाह मान ले तो हम ‘भारतीय चित्त’ के निर्माण के इस अनोखे शुचिता बोध वाले विशेष विचारधारात्मक पहलू की समझ के सूत्र को ही गंवा देंगे। डा. अंबेडकर ब्राह्मणवाद का जिक्र ऐसे ही नहीं किया करते थे। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि विचारधारा के क्षेत्र में यह एक विशेष भारतीय परिघटना है। इसकी जगह सिर्फ जातिवाद का उल्लेख इस समस्या को उसके वास्तविक इतिहास से काट कर पूरी तरह से अबूझ बना देने का उपक्रम होगा।

कहना न होगा, भारतीय चिंतन के विकास का इतिहास इसी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ाई का इतिहास है । भारतीय नवजागरण तक का इतिहास भी, जिसके प्रमुख नेता ब्राह्मण जाति के लोग ही थे। आज भी तमाम स्तरों पर यह लड़ाई जारी है।

अरुण माहेश्वरी
CF-204, Salt Lake, Kolkata – 700064
ईमेल: arunmaheshwari1951@gmail.com
मो०: 09831097219

ली क्वान यू (Lee Kuan Yew) और उनकी विरासत - अरुण माहेश्वरी | Founding Father of Singapore, Dies at 91


ली क्वान यू (Lee Kuan Yew) और उनकी विरासत - अरुण माहेश्वरी |  Founding Father of Singapore, Dies at 91
Lee Kuan Yew, Founding Father of Singapore, Dies at 91

ली क्वान यू और उनकी विरासत

अरुण माहेश्वरी

ली क्वान यू, सिंगापुर के किंवदंती नेता, पूरब का बुद्धिमान व्यक्ति, सन् 1959 में अंग्रेजो से सिंगापुर की मुक्ति के बाद से लगभग छ: दशक से भी ज्यादा समय तक एक जनतांत्रिक प्रणाली में इस द्वीप शहर के एकछत्र नेता, सिंगापुर के निर्माता।  आज वे नहीं रहे। लेकिन एक छोटे से देश की प्रयोगशाला में उन्होंने जो उपलब्धियां की है, उनसे उनके पीछे विकास और शासन से जुड़े कई ऐसे महत्वपूर्ण सवाल छूट गये है, जिनसे आज दुनिया की संभवत: हर सरकार को किसी न किसी रूप में टकराना ही होगा। ली क्वान का सिंगापुर आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र में पूरब और पश्चिम की परस्पर-निर्भरशीलता का एक ऐसा जटिल मॉडल पेश करता है, जिसमें कौन किसके हितों को साध रहा है कहना मुश्किल है, लेकिन वहां की व्यापक जनता के जीवन-स्तर पर इसका गहरा असर पड़ा है। पूरब का एक सबसे गरीब क्षेत्र आज दुनिया का एक सबसे चमचमाता हुआ, मानव विकास के अनेक मानदंडों पर काफी अग्रणी क्षेत्र प्रतीत होता है और इसकी हम तब तक अवहेलना नहीं कर सकते जब तक हम किसी ऐसे सोच में न डूबे हो कि ‘जगत प्रतीति मिथ्या है’।


अंग्रेजों ने अपनी वाणिज्यिक गतिविधियों के बंदरगाह शहर के तौर पर सिंगापुर के अलावा इसी क्षेत्र के और भी दो क्षेत्रों को चुना था - कुआलालमपुर के निकट मेलाका और मलयेशिया के उत्तर-पश्चिमी तट से लगा हुआ पेनांग। 1959 में अंग्रेजों ने सिंगापुर को स्वशासन का अधिकार दिया था और पिपुल्स ऐक्शन पार्टी के नेता ली के हाथ में कमान आई। 1963 में उसके मलय संघ में शामिल होने से मलयेशिया का जन्म हुआ। लेकिन दो साल बाद ही, कुछ जातीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में 1965 में सिंगापुर को इस संघ से निकाल दिया गया और वह एक स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में सामने आया। और तब से लेकर अब तक वहां ली क्वान की पिपुल्स एक्शन पार्टी का ही शासन रहा है। विपक्ष कभी भी पनप नहीं पाया या उसे पनपने नहीं दिया गया। 

कहा जाता है कि सिंगापुर के जन्म की परिस्थितियों और उसके अति-क्षुद्र आकार के चलते ही वहां अस्तित्वीय संकट के बोध पर टिकी ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां तैयार हुई जिनकी वजह से वहां जनतंत्र के आवरण में ही एकदलीय तानाशाही की व्यवस्था कायम हुई। ली ने सख्त हाथों से कमान संभाली और इस नवोदित छोटे से देश को अपने प्रकार का एक खास सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिये ही उसे विश्व वित्तीय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग बना दिया। देखते ही देखते, यह बंदरगाह, देश पूरब में विश्व पूंजीवाद की नाक बन गया। इससे उसे दुश्मनों की कुनजर से सुरक्षा मिली, तो इसके साथ ही विकास के कामों के लिये जरूरी पूंजी का अबाध प्रवाह। पूरब के बुद्धिमान कहे जाने वाले ली ने सिंगापुर की इस स्थिति को पूरी मजबूती से बनाये रखा - सिंगापुर दिन-प्रतिदिन चमकता रहा और विकास के एक खास शहर-केंद्रित मॉडल के उदाहरण के तौर पर आज वह सारी दुनिया के शासकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। 

सिंगापुर के साथ अक्सर चीन की तुलना की जाती है। एक देश घोषित तौर पर पूंजीवाद के रास्ते को अपनाए हुए है और दूसरा समाजवाद को। लेकिन दोनों में कुछ अनोखी समानताओं को देखा जाता है। दोनों जगह एकदलीय शासन है और नीतियों के नाम पर शहरीकरण पर अतिरिक्त बल। राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में विचारकों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारों को किसी प्रशासनिक औजार से ज्यादा कोई महत्व देने के लिये तैयार नहीं है। शासन के साथ किसी भी देश की आबादी की संरचना के प्रश्नों, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को वे कोई महत्व नहीं देते हैं। उनकी दृष्टि में विकास का लक्ष्य एक पूर्व-निर्धारित परम सत्य है, जिसे आज की दुनिया में नव-उदारवाद का लक्ष्य कहा जा सकता है। उनके अनुसार, शासन का काम पूरी शक्ति के साथ उस दिशा में तेजी से बढ़ना भर है। यही वजह है कि जब 2008 में अमेरिका में सब-प्राइम संकट के साथ वित्तीय क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मची थी, उसके पहले तक अमेरिकी जनतांत्रिक प्रणाली को एक कमजोर प्रणाली बताते हुए अक्सर चीन की सख्त शासन प्रणाली की दुहाइयां दी जाती थी। यह सोच आज भी हमेशा वैकल्पिक शासन प्रणालियों पर विचार के क्रम में किसी न किसी रूप में सामने आता रहता है। इस मामले में सिंगापुर एक बहुत ही छोटे देश के नाते कोई ठोस विकल्प न होने पर भी एक सीमित क्षेत्र के विकास के मॉडल के रूप में वह हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है। 

भारत में आज स्मार्ट सिटी की चर्चा जोरों से चल रही है। देश की कई राज्य सरकारें अपने-अपने तरीके से शहरीकरण के इस खास प्रकार के अभियान में ही अपना भविष्य देख रही है। इसमें अक्सर भारत के राजनीतिज्ञ सिंगापुर की यात्रा पर जाते हुए और विकास के ली के बताये हुए मॉडल का अध्ययन करते हुए पाए जाते हैं। मोदी जी ने स्वच्छ भारत का जो नारा दिया है, उसके पीछे भी शहरी स्वच्छता का वही आदर्श किसी न किसी रूप में झलकता हुआ दिखाई देता है, जैसा कि सिंगापुर में दिखाई देता है। 

लेकिन हमारी समस्या यह है कि हम सिर्फ नारों और अभियानों में ही विकास का जाप करने पर ज्यादा यकीन करते हैं। देश का निर्माण एक व्यापक सांस्थानिक निर्माण का काम होता है। आजादी के इन 68 सालों में इस प्रकार का एक सांस्थानिक ढांचा हमारे यहां तैयार भी हुआ है। यह हमारे देश की ठोस वास्तविकता से जुड़ा हुआ ढांचा है जिसमें विकास के साथ जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित करने की भी व्यवस्थाएं है। बिल्कुल नीचे के स्तर तक स्वशासी संस्थाओं का निर्माण इसी दृष्टि से किया गया है। लेकिन मुसीबतों की जड़ यह है कि भ्रष्टाचार के कैंसर ने इस पूरी लोकतांत्रिक शासन की श्रृंखला को इतना पंगु कर दिया है कि जिसके कारण इसके वांछित परिणाम हासिल करना मुश्किल होगया है। हमारे यहां पंचायतें, नगरपालिकाएं और नगर-निगम  विकास के कामों को साधने के बजाय घनघोर भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये हैं। 

आज सिंगापुर के प्रयात नेता ली के महत्व को समझते हुए इस तथ्य को कभी भी ओझल नहीं किया जाना चाहिए कि ली ने अपने देश का कायाकल्प हवा में या कोरे नारों और विचारों से नहीं किया था। उन्होंने सिंगापुर को विश्व वित्तीय बाजार और विश्व व्यापार के एक केंद्र के साथ ही एक स्वच्छ और सुंदर देश के रूप में विकसित करने के लिये वहां एक सुनिश्चित सांस्थानिक ढांचा तैयार किया और उसे भ्रष्टाचार की तरह के कैंसर से यथासंभव बचाये रखा। सिंगापुर की सफलता के पीछे कहीं न कहीं ली के आधुनिक धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण, सिंगापुर को जातीय संघर्षों के उसके दर्दनाक इतिहास से मुक्त रखने की सचेत कोशिशों की भी बड़ी भूमिका रही है। सिंगापुर अपनी आजादी के समय जिस प्रकार के चीनी और मलय जातियों के बीच भयंकर जातीय संघर्षों से जर्जर था, वह आज सिंगापुर के लिये सुदूर अतीत की चीज बन गयी है। हर प्रकार की जातीय और सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्ति में भी सिंगापुर के विकास का रहस्य छिपा हुआ है।

अरुण माहेश्वरी
CF-204, Salt Lake, Kolkata – 700064
मो०: 09831097219

उदय प्रकाश को पीटने की धमकी - अरुण माहेश्वरी | Threats to Beat Uday Prakash - Arun Maheshwari


उदय प्रकाश को पीटने की धमकी : फासीवाद की पद-ध्वनि 

अरुण माहेश्वरी

सभी मित्रों का ध्यान एक बेहद चिंताजनक तथ्य की ओर दिलाना चाहता हूँ ।

पंकज कुमार झा नामक एक महोदय ने फ़ेसबुक में उदय प्रकाश की वाल पर प्रतिक्रिया देते हुए सीधे-सीधे उन्हें गंदी गालियाँ दी है और उन्हें सरे-आम पीटने की धमकी के साथ उनके खिलाफ जातिवादी घृणा का ज़हर फैलाने की कोशिश की है । उदयप्रकाश ने ब्राह्मणवाद से जुड़े प्राचीन चातुर्वर्ण्य सनातन धर्म और कर्मकांडों की प्रतिक्रियावादी परंपरा के ऐतिहासिक संदर्भ में आज के आधुनिक भारत को फिर से मध्ययुगीन अंधेरे में ले जाने वाली सांप्रदायिक ताक़तों के विरोध में एक पोस्ट लगाई थी, जिसमें ब्राह्मणवाद को एक राष्ट्र-विरोधी विचार बताया गया था । पंकज कुमार झा ने जान-बूझ कर उनकी इस पोस्ट को विकृत किया और ब्राह्मणवाद से अभिहित उसके विचारधारात्मक संदर्भों के बजाय उसे आज की ब्राह्मण जाति के विरोध का जातिवादी रूप देकर उनके खिलाफ जातिवादी घृणा फैलाने की कोशिश की है ।


उदय प्रकाश हिंदी के आज सबसे प्रतिष्ठित और जनप्रिय कथाकार है । देश और दुनिया की कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद हो चुका है और सब जगह बड़े आदर के साथ उनका नाम लिया जाता है । हिंदी के एक ऐसे ख्याति-प्राप्त सम्मानित रचनाकार को जातिवादी और सांप्रदायिक नफ़रत का शिकार बनाने की यह कोशिश साहित्य की अस्मिता पर आरहे ख़तरे का एक बेहद चिंताजनक संकेत देती है । यह समय है जब पूरे लेखक समुदाय को उदय प्रकाश के प्रति एकजुटता जाहिर करते हुए बदनीयती से भरे ऐसे जातिवादी-फासीवादी हमले के खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिये ।

अरुण माहेश्वरी
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क्रांतिकारी पार्टी के सामने चुनौतियां - अरुण माहेश्वरी | Arun Maheshwari on CPI(M) Congress


21st CPI (M) party congress to be held at Vishakhapatnam in Apr, 2015

क्रांतिकारी पार्टी के सामने चुनौतियां

अरुण माहेश्वरी

आज किसानों की जमीन को पूंजीपतियों की लोलुपता से बचाने की चिंता प्रमुख है। 
सीपीआई(एम) की 21वीं पार्टी कांग्रेस (14-19 अप्रैल 2015) होने जा रही है। क्रांतिकारी वामपंथ के अभी भारी दुर्दिन चल रहे हैं। यह समय इतिहास से संक्रमण के तमाम बिंदुओं को मिटाने का समय कहलाता है। संक्रमण का अर्थ सिर्फ चीजों का बदलना नहीं है, बल्कि परिवर्तन के मानदंडों तक का भी बदलना है ; जीवन के सच के पूरे फलक का बदलना है। वैसे तो बदलाव प्रकृति का नियम है। आज हमे घेरी हुई तमाम चीजें अकल्पनीय गति से बदल रही है। हर दिन एक तकनीक पुरानी होती है, एक नयी तकनीक जन्म लेती है। मार्क्स ने कहा था कि उत्पादन के साधनों के लगातार क्रांतिकरण के बिना पूंजीवाद जीवित नहीं रह सकता। लेकिन यह बदलाव ऐसा है जिसमें चीजें बदलती है, ताकि समाज न बदले, सामाजिक संबंध न बदले। घुमा कर कहे तो यह यथास्थितिकारी परिवर्तन है
भारत में ही कांग्रेस-शासन के अंत और मोदी सरकार के आने के बाद भी कहीं कोई स्थिरता नहीं है। मोदी और आरएसएस का हिंदुत्व एक दिन के लिये भी चलता नजर नहीं आता। अभी से लोगों में इससे निजात पाने की खलबली है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व जीत इसी नये संक्रमण के साफ संकेत दे रही है।
सामाजिक क्रांति की परिकल्पना से ऐसे बदलाव का कोई संबंध नहीं है। राजनीतिक क्रांति सामूहिक मुक्ति की एक सर्वथा नयी परिकल्पना से समाज को बांधती है। यहां से समाज के पुनर्विन्यास के एक नये दीर्घकालीन यज्ञ का प्रारंभ होता है। यह एक ऐतिहासिक संयोग है जब सिर्फ चीजें नहीं बदलती, बदलाव के सिद्धांत और मानदंड तक बदल जाते हैं। यह संयोग स्वत:स्फूर्त ढंग से पैदा नहीं होता। ऐसे संयोग को बनाने के लिये, परिवर्तनकामी सामाजिक शक्तियों को संगठिन करने के लिये क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी को गहरी निष्ठा के साथ लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ती है; अकूत त्याग-बलिदान करने पड़ते हैं।

एक समय था, जब पूंजीवाद उदीयमान था और उसकी सारी चमक-दमक को कोरा भ्रम बताते हुए वामपंथी क्रांतिकारी आसानी से यह भविष्यवाणी कर देते थे कि यह चमक ज्यादा दिन नहीं चलने वाली, शीघ्र ही इस पूंजीवादी विकास का खोल फट जायेगा। यह खुद अपने गर्भ से अपनी कब्र खोदने वाले संगठिन और अनुशासित सर्वहारा वर्ग को पैदा कर रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी उसीकी पार्टी है। और इस प्रकार उसमें एक अनोखा आकर्षण था। दुनिया की एक तिहाई आबादी उसकी छत्र-छाया में आगयी थी। सोवियत संघ हर मायने में अमेरिका को टक्कर देने वाली महाशक्ति था।
जिस संगठित मजदूर वर्ग को सामाजिक क्रांति का मूल वाहक माना गया था, जो अपनी मुक्ति के साथ शोषण की व्यवस्था के पूरे टाट को उलट देगा, उसे तो इस व्यवस्था ने क्रमश: स्वयं एक निवेशक का रूप दे दिया है। जैसे एक पूंजीवादी निवेशक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है वैसे ही यह संगठित मजदूर भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और कई उपभोगों के लिये बैंकों से कर्ज लेता है। 

लेकिन आज ! समाजवाद के पराभव की बाद की इस नयी सहस्त्राब्दी के इन 15 सालों को देखिये। यह पहले के किसी भी समय से कहीं ज्यादा उथल-पुथल से भरा हुआ है। 2008 के अमेरिकी संकट ने सभ्यता के अंतिम सत्य कहे जाने वाले नव-उदारवाद को ध्वस्त कर दिया। आज हमारे पड़ौस के पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर रूस सहित पूरा मध्य और मध्यपूर्व एशिया धधक रहा है। मध्यपूर्व में तो इराक, सीरिया, मिस्र, फिलिस्तीन - देश के देश खंडहरों में तब्दील किये जा रहे हैं। अमेरिका का पिछवाड़ा कहलाने वाले लातिन अमेरिका के तमाम देशों ने पिछले तीन दशकों में क्रमश: अमेरिकी दादागिरी और उसकी नव-उदारवादी नीतियों को, अमेरिका के पिछलग्गूपन को नफरत के साथ ठुकरा दिया है। ग्रीस, स्पेन सहित पूरे यूरोप में इस भूकंप के झटके महसूस किये जाने लगे हैं। अफ्रीका के अधिकांश देशों में ‘सभ्यता-प्रसारी’ पूंजी के प्रवेश के पहले ही उसे मध्ययुगीन बर्बरता के अंधेरे में पड़े रहने के लिये छोड़ दिया गया है। जापान, चीन, कोरिया और हिंद-चीनी जातियों के देशों के साथ डालर-साम्राज्य की परस्पर-निर्भरशीलता इतनी जटिल गांठों से बंध गयी है कि कौन किसके हित को साध रहा है, निश्चयात्मक रूप से कहना मुश्किल लगता है। लेकिन यह सच है कि लातिन अमेरिका, अफ्रीका के देशों की तुलना में, जो हाल के काल तक विश्व पूंजी की खुली लूट और सस्ते श्रम के सबसे बड़े स्रोत बने हुए थे, इस हिंद-चीनी जगत में गरीबी उतनी उत्कट और नग्न रूप में नहीं दिखाई देती है।

कहने का मतलब है कि इस नयी सहस्त्राब्दी में दुनिया एक बेहद विकट रूप ले चुकी है। युद्ध, आतंक, विद्रोह, गला-काट प्रतियोगिता, मुनाफे की तलाश में पूंजी का बेतहाशा एक देश से दूसरे देश भागना। चारो और कुछ भी स्थिर नहीं दिखाई देता। यह सहस्त्राब्दी घनघोर अस्थिरता, अनिश्चयता और संकटों से भरी सहस्त्राब्दी बनती नजर आती है। दुनिया के कोने-कोने में जैसे हर क्षण संक्रमण के ऐतिहासिक संयोग, सब-कुछ उलट-पुलट जाने के क्षण बनते दिखाई दे रहे हैं। भारत में ही कांग्रेस-शासन के अंत और मोदी सरकार के आने के बाद भी कहीं कोई स्थिरता नहीं है। मोदी और आरएसएस का हिंदुत्व एक दिन के लिये भी चलता नजर नहीं आता। अभी से लोगों में इससे निजात पाने की खलबली है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अभूतपूर्व जीत इसी नये संक्रमण के साफ संकेत दे रही है।

21st CPI (M) party congress to be held at Vishakhapatnam in Apr, 2015

अरुण माहेश्वरी

हिन्दी के जाने-माने मार्क्सवादी विद्वान, राजनीतिक टिप्पणीकार, साहित्यिक आलोचक, आर्थिक समीक्षक, वामपंथी सिद्धांतकार....

'एक और ब्रह्मांड' जैसे बहु-चर्चित, बहुपठित जीवनीमूलक उपन्यास और अन्य कई लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक, हिंदी में जनवादी साहित्य आंदोलन के निर्माण में एक केन्द्रीय भूमिका अदा करने वाली पत्रिका 'क़लम' के संपादक और '80 के दशक से ही जनवादी साहित्य आंदोलन की एक नेतृत्वकारी हस्ती ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में इनकी किताब 'आरएसएस और उसकी विचारधारा' को आरएसएस के बारे में लगभग एक पाठ्य-पुस्तक की तरह की सबसे प्रामाणिक पुस्तक कहा जा सकता है । इसी प्रकार, पश्चिम बंगाल में 34 सालों की कम्युनिस्ट सरकार और भूमि-सुधार के क्षेत्र में उसके ऐतिहासिक कामों का जो प्रामाणिक आख्यान उनकी पुस्तक 'पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति' में मिलता है, वह दुर्लभ है । 'नयी आर्थिक नीति : कितनी नयी', सन् '91 के बाद से भारतीय अर्थ-व्यवस्था के नये ऐतिहासिक मोड़ पर अपने प्रकार की अकेली किताब है ।

युगांतकारी मार्क्सवादी चिंतक अन्तोनियो ग्राम्शी को केन्द्र में रख कर लिखी गई उनकी पुस्तक 'सिरहाने ग्राम्शी' ग्राम्शी की तरह के एक गहन और बहु-स्तरीय चिंतक की मूल स्थापनाओं को जिस सफाई से पेश करती ही, वह अन्यत्र शायद ही कहीं मिलेगा । चिले के विश्व-प्रसिद्ध नोबेलजयी कवि पाब्लो नेरुदा पर 'पाब्लो नेरुदा : एक क़ैदी की खुली दुनिया' को डा. नामवर सिंह ने हिन्दी में नेरुदा के जीवन और कृतित्व पर लिखी गई सबसे अधिक प्रामाणिक और तथ्यमूलक पुस्तक कहा है । केंद्रीय साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित 'भारतीय साहित्य के निर्माता' श्रंखला में हिन्दी के सर्वजनप्रिय जनकवि हरीश भादानी पर इनकी किताब इस जनकवि के संपूर्ण व्यक्तित्व का जो विवेचन प्रस्तुत करती है, अप्रतिम है ।

अरुण माहेश्वरी ने अपनी पहली पुस्तक, 'साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार' से ही हिन्दी में वाद-विवाद-संवाद की श्रेष्ठ मार्क्सवादी परंपरा में अपना ख़ास स्थान बना लिया था । परवर्ती दिनों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के साप्ताहिक मुखपत्र 'स्वाधीनता' में सालों तक प्रकाशित होने वाले इनके नियमित लेखन और 'जनसत्ता' हिंदी दैनिक में इनके स्तंभ 'चतुर्दिक' तथा अक्सर प्रकाशित होने वाले राजनीतिक लेखों ने हिंदी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है ।

प्रकाशित पुस्तकें - (1) साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार; (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा ; (3) नई आर्थिक नीति : कितनी नई; (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड; (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक), (6) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (7) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी (11) धर्म, संस्कृति और राजनीति (12) समाजवाद की समस्याएं ।
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इस पूरे परिप्रेक्ष्य में गौर करने की बात यही है कि दुनिया में कहीं भी आज संक्रमण के ऐसे तमाम ऐतिहासिक संयोगों के नेतृत्व में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं दिखाई दे रही है। यहां तक कि हाल में ग्रीस में, जहां की कम्युनिस्ट पार्टी ऐतिहासिक तौर पर वहां की राजनीति में एक प्रमुख स्थान रखती है, नव उदारवाद - विरोधी विकल्प के रूप में सिर्जिया नामक एक नयी पार्टी सामने आगयी। कुल मिला कर, ऐसा लगता है जैसे कम्युनिस्ट पार्टियां इस सारे उथल-पुथल का किनारे से नजारा करते हुए पूंजीवाद के आवर्तित संकट और उसके विखंडन के आलाप में डूबी हुई है, इसे संगठित करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। और, शायद यही वजह है कि चीजें कहीं भी वह रूप नहीं ले पारही है जिसे सामाजिक क्रांति की संज्ञा दी जा सके - ऐसे संक्रमण की संज्ञा जिसके बाद जीवन का कुछ भी वैसा नहीं रहेगा, जैसा कि अब तक रहा है ; जब परिवर्तन के ही मानदंड बदल जायेंगे !

आज के क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन को इन सारे उथल-पुथल वाले संयोगों में अपनी भूमिका के बारे में सही जवाबदेही करनी है। प्रतिरोध और परिवर्तन के सभी  कटे-छटे अराजक द्वीपों को सामाजिक रूपांतरण के एक सकारात्मक कार्यक्रम से कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए, इसके रास्ते की तलाश करनी है। अन्यथा यह समूचा प्रतिरोध, विस्फोट पूरी तरह नपूंसक और निरर्थक साबित होगा क्योंकि इसे दिशा देने वाली चेतना और संगठित कोशिश जो नदारद है। इस निरर्थकता के संकेत भी सर्वत्र दिखाई देने लगे हैं। अरब की वसंत क्रांति जिसमें तुनिसिया से शुरू करके मिस्र, लीबिया, येमन, बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, कुवैत, मोरक्को, इसराइल, सुडान, मोरिशस, ओमन, सउदी अरबिया, जिबोती, पश्चिमी सहारा और फिलिस्तीन आदि सब जगह व्यापक जन-आक्रोश फूट पड़ा था, उसकी परिणतियां सबके सामने हैं।

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि दुनिया की परिस्थिति में अभी संक्रमण की जितनी ज्यादा संभावनाएं दिखाई देती है, उसके राजनीतिक रूपाकारों में उतनी ही ज्यादा नपूंसकता, नया कुछ भी देने में असमर्थता दिखाई देती है। हमारे यहां ही बुद्धिजीवियों और जुझारू कार्यकर्ताओं तक के पास जैसे कहने-करने को कुछ नहीं रह गया है।

आज इस असंभव सी दिखाई दे रही परिस्थिति के मूल सामाजिक कारणों की भी ठोस पड़ताल की जरूरत है। जिस संगठित मजदूर वर्ग को सामाजिक क्रांति का मूल वाहक माना गया था, जो अपनी मुक्ति के साथ शोषण की व्यवस्था के पूरे टाट को उलट देगा, उसे तो इस व्यवस्था ने क्रमश: स्वयं एक निवेशक का रूप दे दिया है। जैसे एक पूंजीवादी निवेशक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है वैसे ही यह संगठित मजदूर भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और कई उपभोगों के लिये बैंकों से कर्ज लेता है। मार्क्स ने कहा था कि पूंजी और श्रम के बीच आदान-प्रदान के बाद ही पूंजीपति और श्रमिक के रूप में हमारी सामूहिक पहचान सामने आती है। लेकिन ऋण नामक औजार के जरिये यह पहचान एक नया रूप ग्रहण कर रही है - मुनाफे के लिये कर्ज लेने वाले पूंजीवादी उद्यमी और खुद के लिये कर्ज लेने वाले मजदूर उद्यमी। फर्क सिर्फ यह है कि एक मुनाफे के लिये कर्ज लेता है और दूसरा जिंदा रहने के लिये। जो पूंजीपति का एक स्वतंत्र निर्णय है वह मजदूर के जीवन की मजबूरी है; महाजनी व्यवस्था में कर्ज उसकी गुलामी का सबब है।

कर्ज तो बड़े-बड़े देशों की स्वतंत्रता को हर लेता है। अभी कुछ साल पहले ही जब अर्जेंटीना ने वेनेजुएला की मदद से आईएमएफ के कर्ज को चुका दिया तो उससे आईएमएफ के अधिकारी खुश होने के बजाय रुष्ट हो गये थे। वे इससे अर्जेंटीना में वित्तीय अनुशासनहीनता फैल जाने का खतरा देखने लगे थे। अर्जेंटीना को आईएमएफ का कर्ज उसे अनुशासित रखने के लिये था। इसीलिये कर्ज में डूबा आदमी गुलाम मान लिया जाता है, भले वह कर्ज महाजन से मिले या राज्य से ।

ऐसे और भी कई पहलू हो सकते है जिन्हें आज के समय में श्रमजीवियों के पांवों की नयी बेडि़यों के रूप में देखा जा सकता है। मसलन हमारे यहां भूमि के विषय को ही लिया जाए। एक समय जमींदारों से भूमि को छीन का गरीबों में बांट देने के कृषि क्रांति, भूमि सुधार आंदोलन और सहभागी जनतंत्र के पंचायती राज ने गांव के गरीबों को आंदोलित किया था। आज किसानों की जमीन को पूंजीपतियों की लोलुपता से बचाने की चिंता प्रमुख है। गांव में साइकिल की जगह मोटरसाइकिल ने आकर पूंजीवाद के दूतों की पैठ को तीव्र और गहरा किया है।

इसीलिये क्रांतिकारी पार्टी की पहली जरूरत यह है कि वह दृढ़ता के साथ ‘विकास’ के मिथक को तोड़े। विकास का यह रूप आदमी की स्वतंत्रता नहीं, उसकी दयनीयता, उसकी गुलामी की जंजीरें पैदा करता है। चमकते शहरों के गर्भ में और ज्यादा वैषम्य, आमलोगों की जिंदगी की और भी भारी दुर्दशा पनप रही है। यह गरीबी के आधुनिकीकरण का रास्ता है। क्रांतिकारी आंदोलन को तमाम गरीबों, उत्पीडि़तों, विस्थापितों के ऐसे नये गठजोड़ को कायम करने के काम को प्राथमिकता देनी होगी जो राजनीति में एक निर्णायक हस्तक्षेप करने में समर्थ हो। यूपीए -2 के अंतिम दिनों में अपनाया गया भूमि अधिग्रहण विधेयक इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जो किसान जनता के हितों में ऐसे ही संयुक्त प्रतिरोध से उत्पन्न एक निर्णायक कदम था। यह गांवों की खुली लूट पर टिके झूठे विकास के अंत का रास्ता भी दिखाता है। भारत में इस विधेयक के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर 17 मार्च को समूचे विपक्ष का संसद भवन से राष्ट्रपति भवन तक पैदल मार्च करके राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपना निश्चित तौर पर संक्रमण के संयोग को पैदा करने में सक्षम राजनीतिक कार्रवाई की दिशा में उठा हुआ कदम है।

ऐसा ही एक और मसला मोदी सरकार से अभिन्न आरएसएस और सांप्रदायिक जहर फैलाने की उसकी नीतियों का है। वे देश की जनता की एकता को तोड़ कर कॉरपोरेट फासीवाद के लिये रास्ता साफ करना चाहते हैं। इसके प्रतिरोध में भी समूचे विपक्ष की एकता राजनीति  एक और संक्रमणकारी संयोग की स्थिति पैदा करने की संभावना लिये हुए है।

इस परिप्रेक्ष्य में जब हम सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में विचार के लिये उसकी केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी किये गये दो दस्तावेजों, राजनीतिक और कार्यनीतिक लाइन की समीक्षा का मसौदा और राजनीतिक प्रस्ताव का मसौदा, को देखते हैं तो हमें गहरी निराशा हाथ लगती है। राजनीतिक कार्यनीतिक लाइन का अर्थ होता है पार्टी के दूरगामी रणनीतिगत लक्ष्यों की दिशा में कदम-ब-कदम आगे बढ़ने की ठोस जमीनी राजनीति। सीपीआई(एम) ने अपने इस मसौदे में पार्टी की सिर्फ इधर के सालों की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन की समीक्षा नहीं की है, बल्कि 1990 के बाद से इन 25 सालों के बहाने सीपीआई(एम) के जन्मकाल से लेकर अब तक की समूची कार्यनीतिक लाइन पर प्रश्न उठा दिया है।

हमारी दृष्टि में किसी भी क्रांतिकारी पार्टी के लिये यह ऐसा खतरनाक सोच है, जो तत्वत: पार्टी के अब तक के अस्तित्व के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा देता है और यही सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व के खोखलेपन को भी दर्शाता है। यह पूरा मामला कुछ अजीब से गोरखधंधे सा दिखाई देता है। इस मसौदे में ‘वाम मोर्चा’, ‘वाम जनतांत्रिक मोर्चा’, ‘वाम जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का गठबंधन’, ‘संयुक्त मोर्चा’ और ‘तीसरा मोर्चा’ आदि पदों के साथ ऐसी अमूर्त चर्चा की गयी है कि जिसके ठोस राजनीतिक मायनों को समझने में अच्छो-अच्छो का सिर चकरा जाए। सच यह है कि वास्तविक इतिहास से काट कर देखने पर इन पदों का अपने में कोई मूल्य नहीं है। वे स्वयं में भविष्य को संवारने के लिए कोई नुस्खा या योजना पेश नहीं करते। असल कठिनाई तो तब आती है जब हम इन अमूर्त पदों से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री का वास्तविक चित्रण शुरू करते हैं।

मजे की बात यह है कि लगभग 15 पृष्ठों के इस दस्तावेज में इसी ‘वास्तविक चित्रण’ के काम की, पार्टी के सामने आई बड़ी-बड़ी राजनीतिक चुनौतियों और भूमि सुधार, पंचायती राज और सत्ता के विकेंद्रकरण आदि के क्षेत्र में उसकी बड़ी-बड़ी राजनीतिक उपलब्धियों को रखने की कोई कोशिश नहीं है। न इसमें 34 साल तक एक राज्य में सरकार चलाने के विरल ऐतिहासिक अनुभवों का कायदे से उल्लेख है, न ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के ऐतिहासिक प्रस्ताव का, न यूपीए -1 के ठोस अनुभवों का। इस दस्तावेज के अंत में जिस प्रकार यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के निर्णय को गलत समय पर लिया गया निर्णय बता कर और पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की विफलता की चर्चा से उसे  संतुलित किया गया है, वह भारत में वामपंथ की पराजयों के कारणों के विषय पर सिवाय एक लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें और जो भी हो, राजनीति जरूर नहीं है। यह कहता कम छिपाता ज्यादा है; सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व की राजनीतिक अकर्मण्यता पर महज पर्दादारी का काम करता है।

यही वह बिंदु है जब राजनीति के नये आयतन को हासिल करने के पहलू पर नये रूप में विचार करने की जरूरत है। यह किसी भी सर्वसमावेशवाद से कत्तई हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिये एकता और निर्मम संघर्ष का नजरिया जरूरी है। सर्वसमावेशी दृष्टि से कभी भी संक्रमण के ऐतिहासिक संयोग पैदा नहीं हो सकते, न पार्टी के बाहर और न पार्टी के अंदर ही। अब तक जो हुआ, उसके प्रति अत्यधिक क्षमायाचना के चक्कर में पड़ने की कोई वजह समझ में नहीं आती। यह एक प्रकार से स्मारकों को ढहा कर अतीत से मुक्ति पाने का नपुंसक तरीका है। पुरानी भूलों के बजाय चर्चा उन भूलों के कारणों की, उनके पीछे की सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं की होनी चाहिए। और सबसे बड़ी जरूरत इन ऐतिहासिक भूलों के कारकों से निष्ठुरता के साथ मुक्ति पाने की है, न कि किसी सर्वसमावेशवाद के तहत लाशों के बोझ को ढोने की।

प्रश्न है कि क्या भारतीय वामपंथ में ऐसे किसी गहरे नश्तर को सह पाने की ताकत बची हुई है ? इसी सवाल पर भारत में संक्रमण के संयोग और सामाजिक रूपांतरण के घटक वामपंथ का भविष्य निर्भर करता है।

गालिब का बहुत लोकप्रिय शेर है :
     ‘‘रगों  में  दौड़ने  फिरने  के  हम  नहीं  कायल
       जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।’’

हमारी यही कामना है कि सीपीआई(एम) की आगामी 21वीं कांग्रेस ‘भले-भले’ में पूरी न हो !
अरुण माहेश्वरी

माता पिता महंगी किताबें देने से कतराते हैं - गुलज़ार / Parents Shy Away From Giving Expensive Books - Gulzar

वाणी न्यास की स्थापना 

वाणी प्रकाशन

26 जुलाई, 2014, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नयी दिल्ली। वाणी न्यास की स्थापना तथा वाणी प्रकाशन की  50 वीं  वर्षगाँठ के अवसर पर प्रसिद्द लेखक व शायर गुलज़ार व जरपुर लिटरेचर फेस्टिवल की संस्थापक नमिता गोखले ने वाणी न्यास की ट्रस्टी के नाते राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय तीन फ़ेलोशिप की घोषणा की है।  वाणी न्यास की ओर से गुलज़ार ने प्रमुख उद्देश्यों की प्राप्ति के तहत बाल साहित्य में चित्रांकन एवं लेखन, हिंदी साहित्य में नवाचार लेखन तथा हिंदी साहित्य एवं भारतीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य का अंतराष्ट्रीय भाषाओँ में अनुवाद के लिए तीन शोधवृतियों की घोषणाएं की|  भारतीय और अंतराष्ट्रीय भाषा-साहित्य के बीच व्याहारिक संवाद स्थापित करने के लिए वाणी न्यास का लोकार्पण समारोह दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित समारोह में सफलता पूर्वक हुआ | वाणी न्यास की वेबसाइट www.vanifoundation.org का औपचारिक उद्घाटन  न्यास के मुख्य संरक्षक गुलज़ार के कर कमलों से हुआ| इस समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने की।

इस मौके पर गुलज़ार ने कहा कि उनकी बाल साहित्य में विशेष रूचि है और उन्होंने स्वीकार किया की बच्चों के लिए भारतीय भाषाओँ में श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध ही नहीं है।  माता पिता महंगे कपड़े, खिलौने व महंगी छुट्टियां तो बच्चों को देते हैं, पर महंगी किताबें देने से क्यों कतराते हैं? बाल साहित्य की मौजूदा खस्ता हालत को देखते हुए गुलज़ार ने वाणी न्यास की परिकल्पना में ज़मीनी सच्चाइयों को उत्तम रचनात्मक तरीके से बच्चों से शाया करने का आग्रह किया। गुलज़ार ने यह भी कहा कि मुक़ाबलातन दूसरी ज़ुबानों के हिंदी कोई छोटी ज़ुबान नहीं है। गड़बड़ सिर्फ निज़ाम / सिस्टम का मामला है।  आज़ादी के बाद बाकी कुछ बदलने की कोशिश ही नहीं की। हिंदी को सिर्फ राजभाषा घोषित कर दिया गया। हमने तो पुलिस की वर्दी तक नहीं बदली। हम हिंदी को अवाम से जोड़ नहीं पाये। अंतः बच्चों की किताबों का सवाल आते ही दो बातें सामने आती हैं- हमारे पास वाकई बच्चों का नया साहित्य नहीं है।  या तो हम विदेश से लाते हैं, अथवा महाभारत या रामायण को ही दोहराते रहते हैं।  नयी उपज कही नज़र नहीं आती। दूसरा बच्चों के मनोविज्ञान के अनुसार किताबें बनायीं भी नहीं जाती। इन्ही कमियों को ख़त्म करने की  पहल करने के लिए गुलज़ार ने वाणी न्यास को बधाई दी।  

वाणी न्यास में बाल साहित्य की शोधवृत्ति चयन समिति में बाल साहित्य विशेषज्ञ पारो आनंद ने समस्या जताते हुए कहा की धारणा है कि बच्चे आज कल पढ़ते नहीं है। इसका जवाब है कि हम बच्चों को दे क्या रहे हैं? मीडिया और इंटरनेट की ड्राइविंग फ़ोर्स बच्चे ही हैं। पारो आनंद का मानना है कि बच्चों को ऐसी ही पुस्तकें देनी चाहिए जो उन विषयों पर रौशनी डालती  हों जो कि वर्त्तमान परिपेक्ष में ज्वलंत हैं।  पारो आनंद ने काश्मीर से कन्याकुमारी तक लगभग तीन लाख आदिवासी, गरीब तबके व शहरी बच्चों के साथ उन्ही के लिए कार्य किया है।   

इस मौके पर हिंदी में नवाचार लेखन को बढ़ावा देने के लिए वाणी न्यास द्वारा 'डॉ. प्रेम चन्द्र 'महेश' फ़ेलोशिप'  के समन्वयक सी.एस.डी.एस. के प्रोफेसर अभय कुमार दुबे ने सी.एस.डी.एस. में अपने शामिल होने से अब तक के सफरनामे  को याद किया और हिंदी में समाज विज्ञान की गंभीर आवश्यकता बताई।  हिंदी की समस्या को अंकित करते हुए कहा कि हिंदी भाषा में शोध अनुवाद के माधयम से आ रहा है न की मौलिक लेखन से। इसे मौलिक लेखन के रूप में लाने के लिए हिंदी में लेखन होना चाहिए।   सी.एस.डी.एस व वाणी प्रकाशन ने मिलकर ऐसा मंच प्रदान किया है जो मौलिक कार्य प्रकाशित कर रहा है।  

प्रसिद्ध कथाकार नमिता गोखले ने वाणी न्यास की ट्रस्टी अदिति माहेश्वरी के कार्य करने की दृढ़ संकल्पता को याद करते हुए कहा कि अनुवाद प्रणाली में बहुत अनुशासन चाहिए।  वाणी न्यास द्वाया रेजीडेंसी प्रोग्राम आवश्यक इसलिए है कि अनुवाद की समृद्धता के लिए दो संस्कृतियों, भाषाओँ के लेखकों व अनुवादकों को आपसी सहयोग से अनुवाद करना चाहिए। हमें अनुवाद भी चाहिए और भाषाई समृद्धता भी।  स्पेनिश लेखक गेब्रियल गार्सिया मारकेज़ तभी विश्व प्रसिद्ध हुए जब उनकी किताबों का अनुवाद हुआ।  इसी उम्मीद के साथ कि भारतीय लेखक भी विश्व प्रसिद्ध होंगे, नमिता गोखले ने इस  रेजीडेंसी प्रोग्राम से काफ़ी आशाएं जताई। साथ ही कार्यक्रम में इरशाद कामिल नें कहा कि वह सिनेमा में साहित्य का नमक घोलते आये हैं और इसीलिए अपनी अलग पहचान बना पाये हैं।  कामिल खुद हिंदी में पीएच डी हैं और हिंदी से संवेदना पूर्ण सम्बन्ध रखते हैं।   

न्यासी वरिष्ठ  कवि व अनुवादक अशोक वाजपेयी ने न्यास की सजगता को ताक़िद किया कि न्यास की स्वतंत्रता व निष्पक्षता को बरकरार रखा जाए। उन्होंने पुस्तकों की उपलब्धता के लिए पूरे देश में मुहीम चलने की बात सामने राखी। संचालन करते हुए विनीत कुमार ने वाणी प्रकाशन के पाठक व लेखकों के संबंधों को भी याद किया गया कि बहुत से पाठक जो की अब सिर्फ पाठक ही नहीं बल्कि लेखक या और भी किसी बड़े मुकाम तक पहुंच गए हैं, के भी इस प्रकाशन से मधुर सम्बन्ध रहे।  

इसके बाद साहित्य जगत और हिंदी भाषा पर खुली परिचर्चा शुरू  हुई | वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने बनारस के बहाने हिंदी भाषा की राजनितिक गलियारों में हुई उपेक्षा पर चिंता व्यक्त किया | उन्होंने अनुवाद के महत्व पर जोर देते हुए कहा की अनुवाद के द्वारा ही इस सांस्कृतिक विविधताओं से परिपूर्ण इस भारत देश में सेतु का निर्माण किया जा सकता है और गर्व की बात है की हिंदी इसमें सफल भी हो रही है |राजभाषा के रूप में हिंदी कितनी सफल हुई नहीं कहा जा सकता लेकिन सेतु भाषा बन चुकी है।  भारतीय भाषाओँ का प्रतिबिम्बन जितना हिंदी में हुआ है वह सर्वश्रेष्ठ है।   

वाणी न्यास के अध्यक्ष अरुण माहेश्वरी ने समरोह को संबोधित करते हुए कहा की वाणी परिवार का  उद्देश्य केवल व्यवसाय करना न होकर सामाजिक दायित्व के साथ आगे बढ़ना है और इसी विचार के साथ आज वाणी न्यास की स्थापना की जा रही है | माहेश्वरी ने कहा कि  इक्कीसवीं सदी अनंत संभावनाओं का समय है। भारत की संवैधानिक चौबीस भाषाएँ पर्याप्त समृद्ध और भाषा विज्ञान की दृष्टि से मजबूत हैं।  यह  भाषाएँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संवेदनशील होने के साथ एक दूसरों को दृढ़ता प्रदान करती आयी हैं परन्तु पिछले दशकों से इन सभी भाषाओं की सांस्कृतिक दूरियाँ बढ़ी हैं।  नतीजतन भारतीय भाषाओं व अंतर्राष्ट्रीय साहित्य को जानने व समझने के लिये भाषाओं की इच्छा शक्ति मजबूत तो है परन्तु फिर भी व्यावहारिक व व्यवस्थापरक दूरियाँ बनी हुई हैं और इन्ही दूरियों को ख़त्म करने के लिए वाणी न्यास संकल्पित है | वाणी न्यास की  प्रेरणा वाणी प्रकाशन के संस्थापक डॉ प्रेमचन्द्र 'महेश' हैं। 

वाणी न्यास के स्थापना के उपलक्ष्य पर आयोजित समारोह में कला समीक्षक विनोद भरद्वाज की पुस्तक सच्चा-झूठ, पत्रकार राकेश तिवारी की पुस्तक मुकुटधारी चूहा, गंगा प्रसाद विमल की कविता-संग्रह पचास कवितायेँ,  रॉकस्टार, जब वी मेट व हाईवे जैसी फिल्मों के मशहूर गीतकार इरशाद कामिल का नया नाटक  बोलती दीवारें, सुकृता पॉल कुमार की पुस्तक ड्रीम कैचर तथा नरेन्द्र कोहली की पुस्तक किताब देश के हित में का लोकार्पण किया गया।