अनदेखी की आग - भरत तिवारी | Bharat Tiwari on Suicides in India


अनदेखी की आग 

- भरत तिवारी

जनसत्ता 'दुनिया मेरे आगे' 1 मई 2015 में प्रकाशित  लेख  । लिंक  ... 

न सिर्फ आग पहले से जल रही थी बल्कि लोगों को लील भी रही थी । न उन्होंने आग देखी न जलते लोग, न उन्होंने आपको देखने दिया बात यहीं ख़त्म भी की जा सकती है, और है भी, कि आपने आग, धुआँ, चिंगारियां सब देखी लेकिन नहीं देखी। तब भी नहीं जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रीवेंटिंग स्यूसाइड रिपोर्ट आयी (सितम्बर २०१४) जिसके मुताबिक़ दुनिया भर में सबसे ज़्यादा आत्महत्या के मामले भारत में हो रहे हैं और जिसके आंकड़े कहते हैं कि भारत में साल 2012 में 2,58,075 लोगों ने आत्महत्या की और महिलाओं (99,977) के बजाए पुरुषों (1,58,098) की संख्या ज़्यादा है जिन्होंने अपनी जान ली है। दुनिया भर के देश आत्महत्या को रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं और हम, हमें नंबर वन बनना है जो कि फिलहाल ज्यादा आत्महत्या में हैं हम। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो (NCRB) की पिछली रिपोर्ट (2003-2013) को देखने पर पिछले दशक में 2003 और 2013 के बीच  21.6% की वृद्धि है... यहाँ ‘भयावह’ शब्द छोटा लग रहा है। आग की आँच अब इतनी बढ़ गयी है कि आपकी त्वचा भी झुलसने लगी है। आखिर कैसे लगी आग जंगल में? 22 अप्रैल की जंतरमंतर पर हुई घटना पर बात करने से पहले अगर पीछे मुड़कर देखा जाये तो आग एक – दो जगह ही नहीं बल्कि चारों दिशाओं में नज़र आएगी।

बेमौसम बारिश और ओलों से खड़ी फसल का नष्ट होने की तुलना हमें किसी फैक्ट्री में लगी आग, किसी परिवार के अर्निंग-मेंबर के ना रहने से करनी चाहिए, दरअसल हमें अहसास ही नहीं है कि किसान पर ऐसे वक़्त में क्या गुजरती होगी।  केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह के इस कथन का अर्थ क्या है “किसान कभी भी फ़सल ख़राब होने से आत्महत्या नहीं करते. वे इतने कमज़ोर नहीं होते कि आर्थिक नुक़सान न झेल पाएं और अपनी जान दे दें.” (२० अप्रैल २०१५ बीबीसी )। कमज़ोर, कौन कमज़ोर नहीं हो सकता, बुरे हालात जब बद से बदतर हो रहे हों और उम्मीद जगने को न राज़ी हो तो हर इंसान कमज़ोर पड़ेगा।

ये कैसी प्रगति का रास्ता है कि जो हमारे लिए भोजन उगाते हैं हम उनकी परेशानी को देखते तक नहीं? ऐसा रास्ता किस लिए जो लोगों को पहले भूखा रख रहा है और फिर उन्हें खुद को मिटा देने के रास्ते पर ले जा रहा है... जनवरी से मार्च 2015 तक महाराष्ट्र में 601 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, ये पिछले वर्ष से 30 प्रतिशत ज्यादा है। जन्तरमंतर पर हुई आत्महत्या को यदि हम बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो दिखेगा की गजेन्द्र की आत्महत्या वो आत्महत्या है जिसे करने का उसका इरादा नहीं था। पैर का डाल से फिसल जाना उसकी मौत का कारण बनता नज़र आता है। लेकिन जो भी हो एक इंसान की मौत हुई है और जो वहां ऐसा कुछ-भी रोकने के लिए ही उपस्थित था, उसने नहीं रोका। किसी भी रैली में क्या यह संभव है कि मंच पर बैठा आदमी किसी को पेड़ पर चढ़ने से रोक सके? मिडिया को दोष हम सिर्फ इसलिए दे पा रहे हैं कि वो वहां रैली को कवर करने के लिए मौजूद थी, और उसी समय एक आदमी पेड़ पर चढ़ जाता है, और दुर्घटना का शिकार हो जाता है, फिर तो वहां मौजूद हर इंसान दोषी हुआ, सिर्फ मिडिया या मंच पर मौजूद लोग ही नहीं... क्या कर रही थी पुलिस? क्या उसे भी बाकी सबकी तरह गजेन्द्र का पेड़ पर चढ़ना महज एक प्रदर्शन लग रहा था? और यदि ऐसा है भी तब भी पुलिस ने उसे क्यों नहीं रोका? कौन था वहां का प्रभारी क्यों आपको उसका नाम नहीं पता?

जो भी हो चूंकि घटना देश की राजधानी में घटी है इसलिए हमेशा की तरह सुर्खियों में है, जिसका बड़ा कारण मिडिया की भारी उपस्थिति ही होता है। दुखद यह है कि इस सब के बीच हम फिर आग को भूल गए हैं, किसान वहीं खड़ा है जहाँ था, जहाँ उसकी फसल नष्ट हुई है, जहाँ उसके ज़ेहन में आत्महत्या का विचार कभी भी उग उसे निगल सकता है।

अनदेखी की आग - भरत तिवारी | Bharat Tiwari on Suicides in India


एक आग और है जिसे हम नहीं देख रहे हैं, बीते वर्षों की आर्थिक मंदी का शिकार हर व्यवसाय हुआ है, और इस मंदी से सिर्फ व्यवसायी को ही नुकसान नहीं होता बल्कि एक पूरी श्रृंखला होती है जो प्रभावित होती है; मसलन रियल-इस्टेट की मंदी का प्रभाव बिल्डर को तो होता ही है, उसने भी क़र्ज़ लिया होगा बिल्डिंग बनाने के लिए, ईंट के व्यापारी को भी मंदी झेलनी पड़ रही होगी, और बिल्डिंग बनाने से जुड़े इंजीनियर, मजदूर, मिस्त्री सब परेशानी से गुजर रहे होंगे, उम्मीद की आशा ही आगे का रास्ता बनाती है लेकिन इस दफ़ा इस आशा को ओझल हुए दो-चार वर्ष बीत गए हैं, इन बीते वर्षों में यह आग बढ़ी ही होगी, इसका क्या परिणाम हो सकता है? ये न देखना पड़े तो ही बेहतर होगा। फौरन इलाज तलाशने का वक़्त है ये वरना झुलसी त्वचा का प्रतिशत १०० हो जायेगा।

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