छावनी में बेघर
- अल्पना मिश्र
बाहर जो हो रहा होता है, वह मानो नींद में हो रहा होता है। जो नींद में हो रहा होता है, वह बाहर गुम गया-सा लगता है। उस गुम गये को तलाशती रहती मैं यहाँ-वहाँ खटर-पटर करती रहती हूँ। यानी कि घर के काम में अपने को उलझाये रखती हूँ। घर के काम देह को उलझा लेते हैं, मन को नहीं उलझा पाते। मन जाने कैसा-कैसा होता रहता है। कपड़े धूप में डालने को सोच रही हूँ। अलमारी खोलती हूँ कि पहले उन्हीं के कपड़े दिखते हैं। उनके सूट, पैंट, शर्ट, टाई, बेल्ट, पुराने नेमटैब, कुछ स्टार्स, टँगी हुई बेरे...सबमें से कुछ उनका-सा महक उठा है। मैं वहीं रुक गयी हूँ। जाने के पहले जो इतना हलचल किये हुए थे, सो अब अचानक इतना खाली हो गया है, जैसे जीवन से कुछ बड़ा जरूरी निकाल लिया गया हो। नहीं, मैं रुकती नहीं हूँ। मुझे घर के काम निपटाने हैं। बच्चे स्कूल गये हुए हैं, उनके आने के पहले यह काम कर लूँ तो अच्छा। आज धूप भी अच्छी है। बादल और धूप के मामले में इस शहर का कोई भरोसा नहीं। मैं कपड़े उठाये घर के पीछे आ गयी हूँ। यहाँ कुछ प्लास्टिक की कुर्सियाँ पड़ी हैं। कुर्सियों पर कुछ मोटे कपड़े और हल्के कपड़े तार पर डाल रही हूँ। मुझे गाड़ी की आवाज सुनाई पड़ रही है। अतीत से निकलकर एक लाल रंग की मारुति कार मेरे ही घर की तरफ आ रही है। गाड़ी नयी है। मैं भागकर खिड़की पर आ गयी हूँ। गाड़ी घर के आगे रुक गयी है। और ये देखिए, दरवाजा खुला, उसमें सेे एक खूबसूरत नौजवान उतरा है। लम्बा, सलोना, फबती हुई मूँछें। उसने सिर पर टोपी पहन रखी है। अमूमन ऐसी टोपी वह कभी नहीं पहनता। कोई टोक सकता है उसे। उसका सिर गंजा है। वह टोपी नहीं उतार रहा। टोपी जैसे उसका शिरस्त्राण है।
दूसरी तरफ का भी दरवाजा खुला। उधर से एक छरहरी लड़की उतरी है। पीछे के दरवाजे झपाटे से खुले हैं। उसमें से उछलते हुए दो छोटे बच्चे उतरे हैं। ऐसे, जैसे दो फूल गेंद बन गये हैं। उनमें हवा भर दी गयी है और अब वे बिना टप्पा खाये नहीं चल सकते। छरहरी लड़की ने दौड़कर टप्पा खाती दोनों गेदों को एक-दूसरे से टकरा जाने से बचाया है।
छरहरी लड़की मिसेज कुमार हैं। कुछ पहले तक उन्हें लोक ‘मीनू’ कह लेते थे, लेकिन अब यहाँ उनके पति जिस पद पर आये हैं, वहाँ से उन्हें सिर्फ और सिर्फ मिसेज कुमार कहा जा सकता है। बल्कि अब तो कोई साथवाला मिले और ‘मीनू’ कह दे तो वे सकुचा जाती हैं, जैसे किसी भूले की याद दिला दी गयी हो, जैसे गड्ढे से खोदकर किसी को जिन्दा किया जा रहा हो।
मिसेज कुमार के हाथ में पानी की दो बोतल है। दो इसलिए कि दोनों गेंद रूपी बच्चों को अलग-अलग एक ही समय पर दिया जा सके और वे पानी के लिए किये जानेवाले युद्ध में हताहत न हों। वह दरवाजे तक आकर रुक गयी हैं। दरवाजे पर ताला है। उन्हें नहीं पता कि इस दरवाजे के भीतर के कमरे में एक खिड़की है, जिसमें से मैं उन्हें देख रही हूँ। उन्हे यह भी नहीं पता कि उनके इस दृश्य से खिसक जाने के बाद भी मैं जब चाहूँ यह पूरा दृश्य देख लूँगी। देखती रहूँगी। रिवाइंड कर कर के। ये मेरे मन की आँखें हैं, जिसमें यह दृश्य चलता रहता है। चाभी उस सजीले नौजवान ने मिसेज कुमार की तरफ उछाल कर फेंकी है। और ये देखिए, मिसेज कुमार ने उसे लोक लिया है। वे थोड़ा सा मुस्करायी हैं। नौजवान मन में मुस्कराया है, मिसेज कुमार को मुस्कराते देख कर। बाहर से वह दुःखी दिख रहा है। उसने बच्चों से कहा है-“पहले अन्दर चलो।” अब वे कमरे में दाखिल हो गये हैं।
मैं तुम्हें देख पा रही हूँ मिसेज कुमार। तुम्हें यानी अपने आप को। तुम्हारे यानी अपने ही उतरे चेहरे को देख पा रही हूँ। तुम चाहे लाख मुस्कराकर मेजर कुमार की तरफ देखो, पहले जैसी शरारत इन आँखों में अब नहीं आनेवाली। तुम मान क्यों नहीं लेती कि उदास हो तुम। जैसे कि मेजर कुमार।
“फौज में गंजे नहीं हो सकते।” कोई कहता है।
“पर हमारे कुछ रिचुअल्स भी हैं।” नौजवान धीरे से कहता है।
“कौन?” कोई बिना पूछे पूछता है।
“पिताजी।” वह बिना कहे कहता है।
“टोपी लगाये रखना, आॅफिस में बेरे या कैप। दिन निकल जाएँगे, किसी को पता नहीं चलेगा।”
वह दुःखी हो गया है। क्या उसके पिता जी का जाना किसी को पता नहीं चलना चाहिए? छुट्टी की दरखास्त में तो वह लिखकर ही गया था। सबको पता तो है, पर सबसे छिपाना है अपने को भी, अपने घर को भी।
फौज में घर मतलब बीवी-बच्चे। पिता जी बीवी-बच्चों में शामिल नहीं हैं। वे गाँव में शामिल हैं। गाँव घर से अलग होता है। वे चाहे जिस शहर में रहें, वह गाँव होगा। सबके माता-पिता दूर हैं, माने गाँव में हैं। हम गाँव जा सकते हैं, गाँव को ला नहीं सकते। ला भी दें, तो कुछ गिनती के दिनों के लिए और अगर यहीं रखने की जिद करें तो गाँव बोर होने लगेगा। वापस जाने की जिद करने लगेगा। लोग जानेंगे तो कहेंगे-‘उनके घर ‘गेस्ट’ आये हैं।’ या ‘उनके घर से ‘गेस्ट’ चले गये।’ उसने कभी सुना भी नहीं कि यहाँ, इस छावनी के भीतर रहते हुए किसी घर में उनके साथ रह रहे माता-पिता में से कोई चल बसा हो। उनके लिए कफन, बाँस वगैरह का इन्तजाम किया जा रहा हो। कन्धा देने के लिए तमाम लोग इन्तजार में खड़े हों। पंडित-वंडित बुलाने की माथापच्ची हो।
“हूँ” वह कहता है।
“घर पर बहुत सारी समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।” यह वह नहीं कहता।
“किसी का जाना बहुत कुछ को हिला देता है। जैसे हिला हुआ पानी। उसे सम पर आने में कुछ वक्त लगता है।” यह भी वह नहीं कहता।
“हूँ” कहता है, जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है। ‘देखते हैं’ जैसा भी।
“पहले अन्दर चलो।” मेजर कुमार ने बच्चों से कहा है।
वह लड़की मीनू फुर्ती से घर को कुछ ठीक कर लेने में जुट गयी है। उसे भइया (फौजी सिपाही) की कमी खल रही है। होता तो पैकिंग के काम में मदद कर देता। पर वह पहले ही चला गया है। क्या पता था कि सब ऐसे इतने अकस्मात होगा। अकस्मात जाना पड़ेगा। दोनों ही जगह। पिता के हमेशा के लिए चले जाने पर और कारगिल युद्ध में बुलावा आने पर। तमाम यूनिट का मूव आॅर्डर आ गया है। लड़की मीनू किचन से लेकर बेडरूम तक, बच्चों से लेकर पति तक, गाँव से लौटे समान से लेकर कल ले जाए जानेवाले सामान तक फिसल रही है।
मेजर कुमार चुप हैं।
“ये लीजिए। इसे पहनाइए जरा।” जानबूझकर मिसेज कुमार ने छोटे बेटे की बाँह पकड़कर मेजर कुमार के आगे कर दिया है। छोटे का कपड़ा और पाउडर का डिब्बा वहीं रख दिया है।
जीवन के किसी भी क्षण में आदमी यूं ही कैसे बैठा रह सकता है। उस क्षण से निकलना होता है। हर उस क्षण के पार जाना होता है।
मेजर कुमार ने पाउडर का डिब्बा उठा लिया है और पाउडर लगाकर उछलते फिसलते, टप्पा खाते बच्चे को खींच-खाँच करते हुए कपड़ा पहना रहे हैं।
“फिक्र क्यों कर रहे हैं? सुबह तक सब हो जाएगा। बस आप अपना बी पी टी वाला पिट्ठू और सारे यूनीफार्म एक बार देख लें। डी.एम.एस. बूट, हंटर शूज वगैरह...” मिसेज कुमार याद दिलाएँगी।
“हूँ” मेजर कुमार कहेंगे। जिसका मतलब कुछ भी हो सकता है। ‘मन नहीं है’ जैसा कुछ भी। पिट्ठू लाकर उलट देंगे और एक-एक चीज को वापस गिनते हुए उसी में रखने लगेंगे। जंगल यूनीफार्म यानी काॅम्बैट डेªस में दिन गुजरेंगे अब तो। और वे अपनी काॅम्बैट यूनीफार्म ठीक करने लगेंगे।
मिसेज कुमार किचन से खाना लाकर मेज पर रख रही है। उनकी फूलों की दोनों गेंद दिन भर इतना उछली है कि अब सोने लगी हैं। मिसेज कुमार उन्हें खिलाने की कोशिश कर रही हैं, पर दोनों खाने को तैयार नहीं हैं।
“तंग मत करो उन्हें। जाने दो।”
मेजर कुमार काॅम्बैट पर नेमटैब लगाते हुए कहते हैं।
मिसेज कुमार ने बच्चों को खिलाना छोड़ दिया है। वे सोफे पर सोये हुए छोटे को उठाते हुए काॅम्बैट यूनीफार्म पर झुके मेजर कुमार को देखती हैं। मेजर कुमार उन्हें नहीं देख रहे हैं। देखते तो उन्हें रोककर खुद बच्चे को उठाने आ जाते।
“आपके लिए केक बना दूँ? ले जाने के लिए?”
मिसेज कुमार वापस किचन में आ गयी हैं। वहीं से कहती हैं। इतनी तेज आवाज में, जैसे मेजर कुमार बहुत दूर हों। बहुत दूर। पाकिस्तान बाॅर्डर पर। ठीक लाइन आॅफ कंट्रोल पर। वहीं से उनसे पूछना है। वहीं से बतियाना है।
“नहीं।”
मेजर कुमार इतने धीरे से कहते हैं, जैसे मिसेज कुमार बहुत पास हों। बिल्कुल उनकी बगल में या उनके कन्धे पर झुकी हुई।
“तुम तो बहादुर हो।”
जाने कब मेजर कुमार आकर उनके पीछे बिल्कुल करीब खड़े हो गये हैं।
“मैं रो नहीं रही हूँ।” मिसेज कुमार बिना पीछे मुड़े कहती हैं।
मेजर कुमार धीरे से उनका कन्धा छूते हैं और मिसेज कुमार पीछे मुड़कर झटके से मेजर कुमार के सीने में अपना मुँह छिपा लेती हैं। मेजर कुमार धीरे से उन्हें अपनी बाँहों के घेरे में ले लेते हैं। फिर कोई कुछ नहीं बोलेगा।
मैं लाल रंग की मारुति कार सीखने की जद्दोजहद में हूँ। जल्दी में उन्होंने स्टार्ट करना और गियर बदलना बताया है। शुरू में मैं इसी सीख के बल पर गाड़ी को आगे-पीछे कर लेती थी। अब हिम्मत थोड़ी बढ़ी है। बाहर तक निकालकर मोड़ने की कोशिश कर रही हूँ।
“मौका नहीं मिला, नहीं तो मैं तुम्हें...”
“एक्सपर्ट बना देते, यही न।” मैं उनके पूरे वाक्य को जान लेती हूँ।
पिता जी के हमेशा के लिए चले जाने के कुछ दिन पहले ही यह नयी गाड़ी खरीदी गयी थी, उसके बाद तो वक्त ही नहीं थमा। मेजर कुमार को कारगिल जाने के लिए निकलना पड़ा। लेकिन कौन कहेगा कि वे चले गये हैं? अभी इस वक्त नहीं हैं! वे तो जैसे अभी-अभी गये हैं, जरा-सा, यहीं मोड़ तक। आ जाएँगे। आते ही होंगे। पूरा घर वैसा का वैसा पड़ा है। उनके जूतों के निशान तक फर्श पर पड़े हैं। कौन कह सकता है कि पुराने हैं? मौसम ने सुखा दिया है बस। यहाँ मैं पोंछा नहीं लगाने देती। यह मुझे गन्दा नहीं लगता। पहले लगता था, जब मेजर कुमार यहाँ थे। कितना भी मना करो कि जूते जब गन्दे हों तो पीछेवाले रास्ते से आओ। पर कहाँ? वे हर बार भूल जाते और जैसे ही अपने जूतों के निशान देखते, ग्लानि से भर जाते। “ओ हो” फिर खुद कहते, “जाने दो।”
“कौन दिन भर पोंछेगा, बताइए?”
“जाने दो।” के अन्दाज में वे फिर हँसते और अब मैं इन्हीं जूतों के निशान को बचा ले जाना चाहती हूँ।
मैं क्या सोचती खड़ी हूँ, जबकि मेरे हाथ में ऐडम ब्रांच की चिट्ठी है। पन्द्रह दिन हुए हैं मेजर कुमार को गये हुए और हमें जीवन समेटकर यहाँ से जाना है। कहाँ? कहीं दूर नहीं। यहीं छावनी के भीतर। दो कमरों में। मुझे अकेले नहीं जाना है। मुझ जैसे सबको जाना है। सबको जूतों के निशान यहीं छोड़ देना है।
ऐडम ब्रांच ने लिखा है - “फील्ड में गये आॅफिसर्स की फेमिलीज सरप्लस हो गयी हैं। घर उतने नहीं हैं। जो आॅफिसर फील्ड ड्यूटी करके आ रहे हैं, उन्हें घर देना पहली प्राथमिकता है। इसलिए जब तक आपको सिविल में किराये का घर नहीं मिलता, हम आपको दो कमरे उपलब्ध करा रहे हैं। एस एफ ए (सेपरेटेड फेमिली एकामोडेशन) के मिलने में बहुत समय है। वहाँ की लाइन में आपका वेटिंग नम्बर 174 है। एस एफ ए में घर उपलब्ध होते ही हम आपको सूचित करेंगे। आप चाहें तो सीधा सिविल में शिफ्ट कर सकती हैं।”
मिसेज वर्मा अड़ गयी हैं।
“ऐसे कैसे चले जाएँ हम दो कमरों में? एकेडमिक सेशन पूरा होने के पहले घर नहीं खाली करेंगे। मेरे हसबैंड वार (युद्ध) में हैं और आप इस समय हमसे घर खाली करने के लिए कह रहे हैं?”
“सी ओ की फैमिली को तो नहीं हटा रहे हैं आप लोग?”
किसी ने नाराज होकर कहा है।
एडम आॅफिसर खुद आये हैं इस बार। शर्मिंदा से समझा रहे हैं-“मैडम, हम क्या कर सकते हैं? सरप्लस फैमिलीज हो गयी हैं, इस समय। आप ही बताइए, जो तीन, पाँच या छः साल फील्ड में रहकर आ रहे हैं, उन्हें भी तो घर चाहिए। उन्हें फील्ड प्रीयारिटी तो मिलेगी ही। हम यहाँ पोस्टेड आॅफिसर्स का ही हिसाब रख पाएँगे। आपको दिक्कत नहीं होगी। हम जवान भेज देंगे। शिफ्टिंग में जवान आपकी मदद करवा देंगे।”
“उसमें किचन नहीं है। छोटे से कमरे हैं। सामान कहाँ रखेंगे? गाड़ी कहाँ आएगी?”
“तब आपको घंघोड़ा भेज देते हैं। वहाँ कुछ पुराने बँगले पड़े हैं। रिपेयर होकर मिल सकते हैं।”
“घंघोड़ा! ओह गाॅड! उतनी दूर से मेरे बच्चे पढ़ने कैसे आएँगे?”
“मैडम, तब तक आप दो कमरों में रहिए, फिर सिविल में अच्छा-सा घर देख लीजिए।”
सिविल में सीधा। नहीं, नहीं। हम सब अपने-अपने घरों से निकल आये हैं। ये दो कमरे तब तक के लिए ठीक हैं। मिसेज वर्मा परेशान सी बैठी हैं।
मैं ‘हाँ’ करती हूँ।
छोटे-छोटे दो कमरों में हम घर बना लेंगे। थोड़ी सी जगह में किचन, थोड़ी सी जगह में ड्राइंगरूम। किचन और ड्राइंगरूम को अलमारियों से बाँट देंगे। एक लकड़ी के बक्से पर गैस चूल्हा रख लेंगे। बाथरूम में बरतन धो लेंगे। दो चारपाइयाँ जोड़कर बेड बना लेंगे। बच्चों के साथ हमारा काम चल जाएगा। ज्यादातर सामान लकड़ी के बक्सों में पैक कर के रख देंगे। खासकर पार्टियों के बरतन, ग्लासेज, शोपीसेज, मोमेंटोज...।
इन दो कमरों में हमने अपनी गृहस्थी जमा ली है। ये मेस के पीछे बने पुराने कमरे हैं। लाइन से आठ-दस, फिर दूसरी लाइन, फिर तीसरी..... ये पंक्तियाँ लगभग वर्गाकार एक काॅलोनी बनाती हैं। बीच में मैदान जैसी खाली जगह है। कुछ पेड़-पौधे झाड़ियाँ बीच में लगी हैं। कभी की लगी होंगी। छूट गयी सी लगती हैं। हम यहाँ हैं। हमारे जैसे हर कमरे में यहाँ हैं। हमने मिलकर इसे जे जे काॅलोनी (झुग्गी-झोंपड़ी काॅलोनी) नाम दे दिया है। खूब सारे बच्चे इकट्ठे हो गये हैं। जे जे काॅलोनी चहक उठी है। दूर पार्क तक जाने की अब जरूरत नहीं रह गयी है। बच्चे हैं और बीच का मैदान है। हमारी आँखों के सामने ही खेल रहे हैं। कुछ लोगों की गाड़ियाँ, कमरों के आगे एक साथ बने लम्बे से बरामदे में आ सकती हैं, पर उससे जगह बन्द हो जाती है। इसलिए स्कूटर और कार सब अपने-अपने कमरों के आगे खड़े हैं। हम भी एक कवर खरीदकर लाये हैं, अपनी लाल मारुति के लिए। एक दूसरे से पूछकर हम गाड़ी चलाने में एक्सपर्ट होते जा रहे हैं। मिसेज रामचन्द्रन तो देखते ही देखते क्या बढ़िया चलाने लगीं। कभी शायद कोई मेरे बारे में भी ऐसा कहे।
अल्पना मिश्र
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
संपर्क :
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मोबाईल: 09911378341
ईमेल: alpana.mishra@yahoo.co.in
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
संपर्क :
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मोबाईल: 09911378341
ईमेल: alpana.mishra@yahoo.co.in
हम सभी सिविल में घर ढूँढ़ रहे हैं। बहुत महँगे घर हम नहीं ले सकते। हममें से कुछ ले सकते हैं, वे जिनके पीछे कोई आर्थिक सपोर्ट है। हमारे पीछे नहीं है। ले-देकर पति की तनखाह भर है। यहाँ इस शहर में ज्यादातर किराये के लिए घर एक कमरेवाले हैं। मतलब ज्यादातर लोगों ने विद्यार्थियों के लिए अपने घरों के ऊपर एक कमरा अतिरिक्त बनवाया है। घर की सुरक्षा भी हो जाए और किराया भी आए, कुछ इस हिसाब से। सिविल में घर ढूँढ़ना जैसे एक दूसरी दुनिया में प्रस्थान है हमारा। लोग यहाँ हमारे जैसी घर ढूँढ़ने निकली औरतों का कोई परिचित जानना चाहते हैं, जिनके बूते घर दिया जा सके। हम अपने बूते कुछ नहीं है। हमारा शहर में कोई परिचित नहीं। हम खुद शहर में हैं। एक-दूसरे के परिचित। लेकिन नहीं, किसी के भी पति को नीचे आने का मौका मिलेगा या किसी की यूनिट कहीं से कहीं जाएगी तो वह फुर्र से उड़ जाएगा। साथ निभाने के लिए रुका नहीं रह सकता। सिविल में लोग जानते होंगे यह सब। इसीलिए इसी शहर में हमसे हमारा पता माँगते हैं।
फिर भी हम नहीं मानते। बच्चों के स्कूल जाने के बाद जल्दी-जल्दी खाना बनाकर घर खोजने निकल पड़ते हैं। बच्चों के वापस आने के पहले हम भी वापस आते हैं। फिर शाम को निकलते हैं। बच्चों के खेलने के समय। घंटे-दो घंटे में वापस आ जाते हैं। बैरंग। हम हर मकान मालिक के घर में एक चिट्ठी डालना चाहते हैं। कृपया वे अपने घरों को इस तरह बनाएँ कि युद्धकाल में लड़ाई में गये फौजियों के परिवारों को एक कोना दिया जा सके। हम सरकार को चिट्ठी नहीं डाल सकते। पतियों की नौकरी पर बन आएगी। कितनों के पति ने स्टाफ काॅलेज क्लीयर कर लिया है। इस आॅपरेशन से सलामत लौटने पर उन्हें उज्ज्वल भविष्य मिल सकता है। औरतें पतियों के लिए अपनी दिक्कतें किनारे करती रहती हैं।
हम दो-तीन मिलकर हर दो-चार रोज के बाद एस.एफ. में अपनी वेटिंग का पता लगाने जाते हैं। पता चलता है महीने भर से वेटिंग जस की तस है। सालभर लग सकता है। कोई यूनिट कहीं पीस (शान्त क्षेत्र) में जाएगी, घर तभी खाली होंगे। हमारे पतियों को पता है कि हमें हमारे घरों से उठाकर इन दो कमरों और किसी-किसी को एक कमरे (पति की रैंक के मुताबिक) में पटक दिया गया है। लेकिन उनका फोन आने पर हमें यही कहना है-“यहाँ सब कुशल है। यहाँ की चिन्ता न करना।“ जबकि पिताजी के जाने के बाद से अम्माँ की तबीयत खराब चल रही है। उन्हें अपने पास लाना चाहती हूँ। बेहतर देखभाल हो सकेगी यहाँ। मैं बच्चों की पढ़ाई छुड़ाकर गाँव नहीं जा सकती। मेजर कुमार का छोटा भाई लम्बे समय तक बेरोजगार रहा, अब नशा करने लगा है। उसे कोई काम सौंपा ही नहीं जा सकता है। एक बहन का ससुराल में झगड़ा होता रहता है। किसी भी दिन वो बाल-बच्चे समेटे वापस आ सकती है। बड़ी बहन कोई मतलब नहीं रख पाती। उसकी शादी साॅफ्टवेयर इंजीनियर से हुई है। पति बहुत व्यस्त रहते हैं। उसी पर सब जिम्मेदारी है। इसलिए उसके लिए कुछ संभव नहीं हो पाता। अम्माँ को मुझे ही लाना होगा।
जाहिर है कि हमें अब तक घर नहीं मिल पाया है। मिसेज रेड्डी को मिल गया है। सुना है वे शिफ्ट कर रही हैं। वे हमारे घरोंवाली लाइन से दूर किसी लाइन के दो कमरों में हैं। मुझे नहीं मिला। बगल की मिसेज शर्मा और मिसेज मिश्रा को भी नहीं मिला। ऐडम ब्रांच से पत्र फिर आया है। दो महीने बीत चुके हैं। हमारे पास एक महीने का वक्त और है। फिर ये दो कमरे खाली न करने पर, पर स्क्वेयर फीट के हिसाब से डैमेज रेंट देना पड़ेगा। बाप रे! इन दो कमरों का किराया पड़ेगा। दस हजार रुपये प्रतिमाह। हम देने की औकात में नहीं हैं। हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि सचमुच पैसे काट लिये जाएँगे। हमारे पति इस देश के लिए लड़ने गये हैं तो उनकी तनख्वाह से भला पैसे कैसे काटे जा सकते हैं! वह भी दस हजार! आधी से ज्यादा तनख्वाह!
मैंने किराये का घर खोजने की मुहिम तेज कर दी है।
बल्लूपुर चैराहे के पास किसी ने एक खाली घर बताया है। वही देखने निकली हूँ। चैराहे पर भीड़ है। मैं अपनी दोनों फूल गेंदों को मजबूती से पकड़े हुए हूँ।
“मम्मा, क्या है वहाँ?” छोटे को बड़ी जिज्ञासा है।
“क्या है?” मैं भी भीड़ के निकट जाकर देखने की कोशिश करती हूँ।
एक फौजी ट्रक (थ्री टन) खड़ा है। उसके पीछे तिरंगे में लिपटा एक ताबूत रखा है। कोई जवान शहीद हो गया है। कारगिल से उसकी डेडबाॅडी आयी है। गोरखा राइफल्स के बहुत जवान शहीद हुए हैं इस बार। यहीं के भाई। हर एक-दो घर के बाद मातम है। मैं चुप खड़ी हूँ। अपनी दोनों फूल गेंद समेटे। पिछले दिनों प्रेमनगर मोहल्ले का जवान लड़का शहीद हुआ था। नयी-नयी शादी हुई थी।
“उसे तो लोगों ने खूब फूल चढ़ाये थे।”
“मम्मा, कौन मर गया?” छोटा पूछ रहा है।
बड़े को कुछ-कुछ समझ में आ रहा है। वह डर गया है। उसे फौजी थ्री टन समझ में आती है। उसे वह अपना मानता है।
“अपनी आर्मी का है।” वह छोटे को चुप कराने के लिए कहता है।
“घर पर तुझे पूरा बताऊँगा।”
“हाँ।”
मैं अपनी फूल गेंद समेटे भाग-सी रही हूँ। मुझे सारी फौज बकरा दिखाई पड़ रही है, जिसे खूब सजाया गया है, खिलाया-पिलाया गया है।
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?
थ्री टन वाला किसी से पता पूछ रहा है।
एक लेफ्टीनेंट के शरीर के टुकड़े पाकिस्तान ने लौटा दिया है। वायुसेना का पायलट नचिकेता अपने संघर्ष में कामयाब हो गया है। द्रास सेक्टर से कर्नल नारायणन सफेद राजमा नहीं ला पाये हैं। कहा था उन्होंने-“मैडम, भेजूँगा।” उनका शव ऐसे ही कहीं दूर उनके घर की तरफ ले जाया गया होगा। हम जान नहीं पाये। एक खूबसूरत कैप्टन माउथ आर्गन बजाते हुए शहीद होकर बहादुरी का प्रतीक बन गया है। एक लेफ्टीनेंट ने अब तक परमवीर चक्र पाये शहीदों के स्केच बनाये थे, वह अपनी स्केच बनाने की कला के साथ-साथ खत्म हो गया है। मेजर बिष्ट का शहीद शरीर उत्तरकाशी लाया जा रहा है। मेजर शर्मा की गाड़ी के आगेवाली काॅनवाय में ब्लास्ट हो गया है। एक अफसर, दो जे सी ओ, पाँच एन सी ओ मौके पर ही शहीद...।
प्रधानमंत्री लाल किले पर भाषण दे रहे हैं। देश की स्वतंत्रता को कितने वर्ष हुए, इसे सही-सही गिनने के लिए तमाम गणितज्ञ बुलाए गए हैं। जाने कौन लोग हैं, जो बारिश में भीगते हुए प्रधानमंत्री का भाषण सुन रहे हैं? बाकी लोग छतरियों के भीतर हैं। इस देश में इतनी छतरियाँ कहाँ से उग आयी हैं? स्कूलों में झंडा फहरा दिया गया है। बच्चे समवेत स्वर में गा रहे हैं-‘जन गण मन अधिनायक जय हे’... किसी मन्दिर में भजन की जगह देशभक्ति गीतों का फिल्मी कैसेट चल रहा है-‘मेरे देश की धरती...’
साबुन की टिकिया तिरंगे में लिपटी है। जो जितना देशभक्त है, वो उतना तिरंगेवाला साबुन खरीदेगा। गाड़ी की एक बड़ी कम्पनी ने तिरंगे के एक-एक रंग को लेकर नयी कार निकाली है।... लाल किले के बाहर पुलिस के एक जवान ने अपने अफसर को बन्धक बना लिया है। आतंकवादियों ने गाँव से लेकर दिल्ली तक माइनफील्ड बना दी है। लोग उस पर चल रहे हैं। माइनफील्ड जनता के लिए है। बड़े लोग उड़ कर चले जाते हैं... दुनियाभर से उठता विलाप हवा में भर गया है... तमाम अखबार और पत्रिकाएँ शहीदों के नाम पर आम जनता से चन्दा-वसूली में लगी हैं...
बावजूद इसके एक शहीद की बहन नेताओं के आगे आत्मदाह करने की कोशिश कर रही है। उसके भाई के नाम से सरकार ने पेट्रोल पम्प दिया है, जिसे कोई सरकारी कारिन्दा चलाता है। पैसा माँगने पर बेइज्जत करता है...
“रक्षा मन्त्रालय के क्या नियम हैं?”
मैं एक सीनियर आॅफिसर से पूछना चाहती हूँ।
“हमें ठीक से नहीं पता।” आॅफिसर कहेगा।
“क्यों नहीं पता? आपका परिवार नहीं है?”
“मैं पता करके बताऊँगा मैडम, आप चिन्ता न करें।”
क्या पता करके? फौज में पति के बाद औरतों को नौकरी नहीं दी जाती। यही। यही कि उन्हें पति के बदले कुछ पैसे दिये जाते हैं। अफसरों को कुछ ज्यादा, जवानों को कम। वह भी किसे मिलते हैं? जिनके घरवाले दौड़-भाग कर ले जाते हैं। उन्हें ही न। जब हमारा ये हाल है तो जवानों के परिवारों का क्या हाल होगा? किसके लिए हैं ये युद्ध? किसके लिए लड़ रहे हैं ये लोग? किसके लाभ के लिए? किसकी शान्ति के लिए? क्या निकल रहा है इनका परिणाम? क्या हो रहा है पीछे छूट गये परिवारों का?
पता नहीं कितने घरों में सिर्फ एक लड़के को नौकरी मिल पायी थी, अब वह भी गया।
इससे पहले तक कभी इतनी विचलित नहीं हुई मैं। इससे पहले तक युद्ध से जुड़े अपने भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा था। सोचती थी, युद्ध की जब कभी आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन यहाँ तो रोज युद्ध हैं, रोज युद्धबन्दी हैं, रोज हताहत हैं, रोज शहीद हैं...
“हमें नौकरी खोजनी चाहिए।”’ मैंने अपनी पड़ोसन से कहा है।
“हमें घर और नौकरी दोनों खोजना चाहिए।”
“कोई सूचना आयी?”
“हफ्तेभर से फोन बन्द हैं।”
“फोन हमारे जीवन की धड़कन हो गये हैं।”
“शायद आज लाइन खुल जाए।”
“उन्हें एहतियात बरतना होता है, पर परिवार को सूचना देने का कोई तो साधन..”
“कोशिश कर रहे होंगे।”
“हाँ।”
फोन पन्द्रह दिन से बन्द है। किसी भी प्रकार का सम्पर्क उन लोगों से नहीं हो पा रहा है। एहतियातन फौज ने सारे सम्पर्क काट दिये हैं। काश! कहीं से बस इतनी सूचना आती कि सब ठीक है।
मिसेज शर्मा के पास उनकी यूनिट से कोई जवान आया है। उनकी यूनिट की खबर लाया है। उसे नहीं पता मेजर कुमार कैसे हैं?
घर खाली करने का वार्निंग समय बीत गया है। आज सुबह-सुबह फोन पर अम्माँ के देहान्त की खबर आयी है। मैं बच्चों के साथ गाँव जा रही हूँ। परसों ऊपर से खबर आयी थी कि कुछ अफसरों को छुट्टी पर भेजा जाएगा। मेजर कुमार भी आनेवाले हैं। अब आएँगे तो सीधे गाँव आ जाएँगे। मैं रुक नहीं सकती इस समय। मेरे गये बिना वहाँ सब काम कैसे होंगे? मुझे जाना ही होगा। मैं बच्चों के साथ तैयारी में व्यस्त हूँ। कुछ पैसे भी हाथ में होने चाहिए। मन-ही-मन जोड़ घटा रही हूँ। क्या इस वक्त मेरे साथ मेजर कुमार की कमी को कोई चीज पूरा कर सकती है? पूरे पन्द्रह दिन बाद अचानक फोन पर मेजर कुमार की ब्रिगेड से मैसेज आया है।
“क्या मैसेज है?” मिसेज शर्मा अपने कमरे के सामने से मेरे कमरे की तरफ सरक आयी हैं।
“अगर आ रहे हैं तो तू एक दिन रुक जा मीनू। अकेले वहाँ मुश्किल में पड़ जाएगी।”
वे प्यार और दोस्ती के साथ कहती हैं।
“हूँ” मैंने मेजर कुमार की तरह कहा है। जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है। ‘बेकार की बात’ जैसा भी।
“उनका कुछ पता नहीं चल रहा है। पेट्रोलिंग ड्यूटी से ही... साथ में दो जवान भी लापता...” मैंने बहुत देर बाद अपने आप से कहा है।
मिसेज शर्मा मुझसे पहले दीवार का सहारा ले लेती हैं।
“तो तू जा, बच्चों को मेरे पास छोड़ दे।” कुछ ऐसा कहेंगी वे।
“हम उसके लिए प्रार्थना करेंगे।” ऐसा कुछ कहेंगे गाँव में लोग।
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