बैंगनी फूलों वाला पेड़
~ स्वाति तिवारी
चाणक्यपुरी वाला हमारा सरकारी बंगला, जहां दिल्ली, दिल्ली है ऐसा कम ही लगता। साफ-सुथरा वीआईपी एरिया। इतनी हरियाली दिल्ली के किसी और इलाके में शायद ही देखने को मिले। हमारे घर के सामने तो जैसे सघन अशोक वाटिका ही बनी थी। यह एक हरा-भरा सरकारी बगीचा है। बगीचे में तमाम तरह के पेड़-पौधे हैं, पर मेरी दृष्टि में बगीचे में सबसे खूबसूरत पेड़ वही है जिसके ऊपर गर्मी-भर बैंगनी रंग के फूल खिलते हैं। हर बार जब भी वह पेड़ बैंगनी फूलों से लद जाता, मैं उसका नाम जानने को उतावली होती-कई बार किताबों, पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने पलटती, शायद इस पेड़ का वर्णन या फोटो दिख जाए, पर आज तक नहीं जान पाई इसका नाम। लंबे तने वाले इस पेड़ के शीर्ष पर फैले छोटे-छोटे जामुनी रंग के फूल और कलियों के गुच्छे मुझे किसी ग्रामीण की वायल की फूलों वाली चुनरी जैसे लगते। घर के बाईं तरफ वाली खिड़की खोलते ही ध्यान उधर चला जाता। काफी बड़े क्षेत्र में पेड़ की छत्रछाया फैली हुई। गुलमोहर जैसे आकार-प्रकार के इस पेड़ पर तरह-तरह के पंछी अपना बसेरा बनाए रहते हैं। फागुन के बाद तपती दोपहर में जब ज्यादातर पेड़ पतझड़ का गम मना रहे होते हैं या फिर अंगारे जैसे सुर्ख रंग के फूलों से धधकते लगते हैं ऐसे में शांत बैंगनी रंग के फूलों से ढका यह पेड़ आंखों और दिल को सुकून देता है। पेड़ के नीचे ज्यादातर छांव रहती है शायद इसीलिए वहां एक बेंच भी लगी है। अक्सर राहगीर उस बेंच पर सुस्ता लेते हैं। शाम को मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग एकत्र होते हैं। बहुत बार मेरा भी मन करता उस ठंडक में जाकर कुछ बिखरे बैंगनी फूल उठा लाऊं।
एक दोपहर जब गर्मी अभी शेष थी और ठंडी-गरम मिली-जुली हवा स्पर्श कर रही थी, मैं सोनरंग की वायल में फूल टांकती अपने कमरे में बैठी थी। खिड़की खुली थी और रेडियो पर मेरा मनपसंद गजलों का कार्यक्रम बज रहा था-उस भरी दोपहर में खिड़की से मेरी नजर पेड़ की तरफ गई तो मैंने देखा, पेड़ के नीचे एक लड़का और एक लड़की बैठे हैं। वे दोनों अपने-आप में ही मग्न थे-जाने क्यूं अच्छा लगा उन्हें देखकर, मैं कुछ देर देखती रही। फिर अनायास ही मैं मुस्करा उठी और खिड़की बंद कर, आंखें मूंद लेट गई। लड़का और लड़की खयालों में ही रहे-प्यार की गुनगुनी दोपहर ऐसी ही होती है- एक राहत भरी छांह को तलाशती हुई। धुंधलाती स्मृतियों में ऐसी ही किसी दोपहरी में बरसों पहले एक ग्रीटिंग कार्ड स्केच के ऊपर लिखी गुलजार की पंक्तियों का शब्द-शब्द याद आने लगा-
याद है, एक दिन
मेरे मेज पे बैठे-बैठे
सिगरेट की डिबिया पर तुमने
छोटे-से इस पौधे का
एक स्केच बनाया था!
आकर देखो,
उस पौधे पर फूल आया है!
जब-जब भी अपने बगीचे के आम पर बौर आते रहे ये पंक्तियां याद करती रही... हां, चुपचाप पौधे पर फूल खिलते रहे। यह विचार उठता रहा कि यह पेड़ इन पंछी जैसे लड़के-लड़की को भी एक बसेरा बसाने का सुंदर सपना दे रहा है। करवट बदल सोने की कोशिश करती, पर थकान के बावजूद नींद नहीं आनी थी, न आई! सधे रिकाॅर्ड की तरह दिमाग पर कुछ विस्मृत तरंगें उठने लगीं। मैं बेचैन अहसास के साथ फिर करवट बदलती हूं, पर लगा, वह लड़का और लड़की और वह बैंगनी फूलों वाला पेड़ मेरे स्मृति-पटल से विस्मृत होने के भ्रम की धूल झाड़ रहे हैं- क्या हो गया है मुझे? उठकर बैठ जाती हूं। एक कुनमुनाहट-सी भीतर रेंगने लगती है। मैंने खिड़की खोल दी। तपी हुई हवा का एक झोंका घर में प्रवेश कर गया। मेरी नजरें फिर पेड़ के नीचे गईं, अब लड़का और लड़की जा चुके थे। वहां कोई नहीं था। उस रिक्त हुए स्थान पर कुछ बैंगनी फूल झड़े हुए थे। फूल मुस्करा रहे थे। शायद प्यार की उनकी छोटी-सी मुलाकात का अहसास वहां मौजूद था। मैं पलटी, रेडियो पर अंतिम गजल बज रही थी-
पसीने-पसीने हुए जा रहे हो,
ये बोलो से चले आ रहे हो...
जगजीत सिंह चित्रा सिंह के प्यार की सारी कशिश उनके स्वर में उतर आती है। उठकर मैं किचन में गई और चाय बनाकर ले आई। खाली घर में जाने क्यूं लगने लगा, मैं अकेली नहीं हूं। एक अहसास है जो मेरे साथ-साथ चल-फिर रहा है। चाय का कप पकड़े-पकड़े खयाल आया कि लंबे अरसे बाद आज फिर दोपहर में चाय की तलब? क्या मतलब है इसका? नौकरी छोड़ने और शादी होने के बाद से दोपहर में चाय तो मैंने पी ही नहीं थी।
अगला दिन-फिर वही दोपहर, वही मैं और मेरा खालीपन। आम के पेड़ पर तोते बोल रहे थे - उनकी आवाज के साथ मैं कमरे से बाहर आ गई और आम के पेड़ के नीचे चली गई। एक अलग ही अहसास फैलने लगा मेरे वजूद पर। आम की पत्तियां तोड़कर हथेली पर मसल डाली, पत्तियों की महक अच्छी लगती है मुझे। यादों की महक-सी छाने लगी मुझ पर... तुम कितना चिढ़ते थे, मेरी इस आदत पर...सारे हाथ गंदे कर लेती हो तनु, एलर्जी हो जाएगी। मैं इन पत्तियों को सूंघती थी और छींकें तुम्हें आती थीं। कितना सुखद होता था वो लंच टाइम जब हम चाय की गुमटी के पीछे वाले आम के पेड़ों के झुरमुट के नीचे जा बैठते थे। तुम मेरे लंच बाॅक्स में रोज आम का अचार देखते ही मुस्कराने लगते थे। "तनु, थोड़े आम के पत्ते घर ले जाओ, सब्जी बना लेना। तुम्हारा बस चले तो तुम आम के पत्ते भी खाने लगोगी"।
‘‘हां तो, तुम्हें भी खिलाऊंगी, क्या बिगाड़ा है आम के पेड़ ने तुम्हारा? बैठते तो रोज यहीं हैं?’’
‘‘अच्छा, बाबा अच्छा है, जनाब यह छत्रछाया आपकी है हम पर खट्टी-मीठी।’’
‘‘हां, अब आई अकल।’’
‘‘अच्छा तनु, अगर ये नीम का पेड़ होता तो क्या तुम निंबोली का अचार डालतीं?’’
‘‘हां डालती, ‘प्रणव छाप निंबोली अचार’। डालती और तुम्हें ही खिलाती, समझे! ’’
‘‘प्रणव, तुमसे अलग हो यादों की निंबोली ही तो समेट रही हूं...’’
अगली दोपहर फिर तोते मेरे बगीचे के अमरूद कच्चे ही गिराकर उड़ गए। मैं अमरूद उठा अंदर आने लगी अनायास ही नजर सामने वाली बेंच पर चली गई। आज फिर वही लड़का और लड़की वहां आकर बैठे थे। मैंने घड़ी पर नजर डाली - एक बजकर तीस मिनट। ओ... लंच टाइम! मैं कमरे में आ गई। रेडियो आॅन किया, दर्द-भरा एक अहसास बहने लगा-
हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू
हाथ से छूके इसे रिश्तों का इलजाम ना दो
सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो-
मैं चाहकर भी आज खिड़की बंद नहीं कर पाई।
आज शनिवार, सेकंड शनिवार। विनय का आॅफ होता है और मेरा फुलडे वर्किंग डे। विनय का सब काम आराम से करने का दिन। विनय सुबह गार्डन ठीक करते हैं, फिर अखबार और बार-बार चाय। एक बजे लंच। किचन समेट मैं कमरे में आई रेडियो आॅन किया और खिड़की खोली।
पेड़ के नीचे वही लड़का-लड़की आकर बैठे थे। विनय ने मुझे टोका, ‘‘क्या तनु, भरी दोपहरी में खिड़की से गरम लपट आएगी।’’
मैं अपनी धुन में थी, बोल पड़ी, ‘‘नहीं विनय, पिछले कुछ दिनों से मैं जब भी ये खिड़की खोलती हूं, एक पाॅजिटिव एनर्जी कमरे में आती है। एक ऐसा अहसास जो दोपहर के मेरे अकेलेपन को बाँट लेता है। सामनेवाले बैंगनी फूल दोपहर की गर्मी को छांट देते हैं और गाने सुनते दोपहर कट जाती है।’’
‘‘अच्छा!’’ विनय मुस्करा उठे। ‘‘तुम औरतें भी ना, पाॅजिटिव एनर्जी के रास्ते ढूंढ ही लेती हो, जैसे चाय के प्याले, रेडियो के बोर करते गानों में...’’
‘‘आप भी ना... बस हर बात का मजाक बना देते हैं।’’
विनय उठकर मेरे पास आ गए। हाथ में चाय का प्याला देखकर बोले, ‘‘अच्छा! तो दफ्तर वालों की तरह घरवालियां भी लंच टाइम में चाय पी लेती हैं। पाॅजिटिव एनर्जी वाली।’’ विनय भी खिड़की के पास मेरे साथ आ खड़े हुए थे।
‘‘ऐ...तनु, देखो, तुम्हारे बैंगनी फूलों वाले पेड़ के नीचे प्यार की कोंपलें फूटने लगी हैं।’’ ये चहककर बोले।
‘‘हां, आजकल यह जोड़ा रोज ही आकर यहां बैठता है।’’
‘‘तो पाॅजिटिव एनर्जी यहीं से आती है!’’ विनय मुस्करा उठे।
मैं खिसिया गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो।
‘‘आप भी ना...’’
विनय ने मुझे बांहों में समेटते हुए, आंखें मूंदकर कहा, ‘‘सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है। दोनों वहीं मिलते हैं, बस, नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी। कहानी वही होती है। किस्से वही होते हैं। पेड़ कभी-कभी गुलमोहर का होता है या बैंगनी फूलों वाला, क्या फर्क पड़ता है। द एंड सभी का एक-सा ही...’’
विनय खिड़की बंद कर लेट गए। पास ही के तकिये पर करवट बदलते हुए मैं महसूस कर रही थी। विनय के अंदर भी यादों का कोई पन्ना खुल गया है शायद। तो क्या, बैंगनी फूलों वाले पेड़ ने इनके अंदर भी स्मृतियों के विस्मृत होते किसी पन्ने की धूल झाड़ दी ? मेरे आम के पेड़ का राज समझते हुए इन्हें कोई गुलमोहर याद आ गया। रेडियो आॅन किया...शुरू हो रही थी गुलजार साहब की एक नई नज्म:
मैं कायनात में, सय्यारों से भटकता था
धुएं में, धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूं सदियों तक
गिरा है वक्त से कट के जो लम्हा, उसकी तरह
मैंने उठकर देखा, खिड़की से, जोड़ा चला गया था। शायद कल फिर मिलने का वादा लेकर।
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मुट्ठी में बंद चाॅकलेट
~ स्वाति तिवारी
अभी ठीक से नींद खुली भी नहीं थी कि किसी ने फोन घनघना दिया। एक बार तो मन में आया, बजने दूं अपने आप बंद हो जाएगा। सुबह-सुबह कौन नींद खराब करे। सर्द रात में सुबह-सुबह ही तो अच्छी लगती है नींद, जब बिस्तर गरमा जाता है रातभर में। एक बार बाहर निकले कि गई गरमाहट।
‘‘लो तुम्हारा फोन है...’’ माथे पर होठों का स्पर्श करते हुए मलय ने जगाया था।
इतनी सुबह...उ... ऽऽऽ...कौन है?
‘‘तुम ही देख लो।’’
‘‘हैलो, जन्मदिन मुबारक हो!’’
‘‘थैंक्यू, थैंक्यू! मैं हांफने लगी बगैर दौड़े ही।
‘‘मैं आ रहा हूँ दिल्ली, आज का दिन तुम्हारे साथ बिताने...।’’ उधर से आई आवाज में पिछले पैंतालीस सालों का अपनापन चाशनी की तरह भरा था।
‘‘व्हाॅट....तुम....दिल्ली...क्यूं?’’
‘‘आज तुम्हारा पचासवां जन्मदिन है, याद है बचपन में एक बार मैं तुम्हारा जन्मदिन भूल गया था।’’
‘‘हां तो ?’’
‘‘तब तुम्हारा गुस्सा...तौबा-तौबा!’’
‘‘ ऽऽऽ...।’’
‘‘ तब तुमने वादा लिया था कि तुम्हारा जन्मदिन कम से कम पचास साल तक नहीं भूलूं... तो कैसे भूलता यह पचासवां जन्मदिन?
‘‘ओह! तुम भी ना ...।’’
मैने फोन रख दिया। अच्छा हुआ मलय अखबार और मेरे लिए चाय का प्याला लेने चले गए थे, वरना झूठ बोलना मुश्किल होता।
उठकर बैठी तो पंलग के पास ड्रेसिंग टेबल पर एक गिफ्ट पैक और गुलाब के फूल रखे थे और जनाब चाय लिए खड़े थे।
‘‘हैप्पी बर्थ, डे...।’’
’’मैं तो भूल ही गई थी, वो तो अभी...’’ बोलते-बोलते चुप हो गई थी मैं।
‘‘किसका फोन था?’’
‘‘मेरे आॅफिस... वो नया कम्प्यूटर इंजीनियर आया था न संजीव, उसी का।’’
‘‘ओह! तो जनाब हमसे पहले बाजी मारना चाहते थे बर्थ-डे विश करके...क्यूं?’’
‘‘आप भी न मलय...बाज नहीं आएंगे, अपनी मसखरी से ! ’’
‘‘पर बर्थ-डे बेबी... हमने तो रात में बारह बजे ही बर्थ-डे विश कर दिया था...हमसे नहीं जीत सकता कोई !’’ मलय मजाक ही मजाक में अपनी बात कह गए थे।
‘‘क्या मलय आप भी...वो मुझसे दस साल तो छोटा होगा उम्र में, मेरे बेटे से थोड़-सा बड़ा दिखता है बस... ’’ पर थैंक्स संजीव, तुम्हारा नाम याद आ गया वक्त पर, वरना मलय को बताती कि फोन शेखर का था... तो उनका मूड सारा दिन आॅफ रहता। वो आ रहा है यह बता देती तो शायद पूरे हफ्ते या शायद पूरे महीने ही...
मलय से झूठ बोलना इतना आसान नहीं और झूठ बोलना भी कौन चाहता है? पर कभी-कभी अनचाही परिस्थितियां आदमी को झूठ बोलने पर मजबूर कर देती हैं। घर की शांति बनी रहे और जिसके साथ जीवनभर का रिश्ता है उसे दुःख भी न पहुंचे, यही सोचकर झूठ बोलना पड़ा। मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बन कर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा। अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी कभी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है? बचपन का एक साथी सपनों का हमसफर ही बन पाया था कि दूसरा जीवनभर के लिए हमसफर बन गया। एक ने सात फेरे में सात जन्मों के वचन ले लिए तो दूसरा छूटते हाथ से केवल एक वादा ही कर पाया था जब भी मिलेंगे अच्छे दोस्त बनकर ही मिलेंगे। जीवन के हर सुख-दुःख में अदृश्य साथ खड़े रहेंगे। वादे के साथ तमाम लक्ष्मण रेखाएं दोनों ने अपने बीच खींच ली थीं, और उम्र के पचास सालों में कभी नहीं लांघा और लांघने से मिलना ही क्या था? एक-दूसरे की नजरों में हमेशा सम्मान देखने की इच्छा से ज्यादा शायद कुछ नहीं चाहा था हमने। मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं अदृश्य होती हैं। दूसरे कहां देख पाते हैं! रिश्तों की मर्यादा को देखने से ज्यादा जरूरी होता है समझना! पर उसके लिए अंतर्दृष्टि चाहिए। उसने कितनी सच्चाई से, खुलेपन से मलय को बताया था कि शेखर उसका बचपन का दोस्त है।
पर मलय ने शेखर को वह सम्मान नहीं दिया जिससे वह पारिवारिक रिश्तों में जगह पा सके और तब से शेखर से बात होती भी तो वह बताने से टाल जाती। एक औपचारिकता भर गया था दिल से जुड़ा यह रिश्ता।
और फिर पिछले सालों से तो लखनऊ छोड़ ही दिया था उसने, मलय का प्रमोशन दिल्ली होते ही। शेखर से बस कभी-कभार ही फोन पर बात होती। आठ साल पहले लखनऊ छोड़ते वक्त मुलाकात हुई थी काॅफी हाऊस में। शेखर ने विदाई भोज का निमंत्रण भी दिया था पर अगली बार कहकर टाल दिया था। जानती थी मलय नहीं जाएंगे और मैं अकेले कहीं नहीं जाती लंच या डिनर पर।
इन आठ सालों में कितना कुछ था जो बैठकर बांटना था शेखर के साथ। बाबूजी के जाने के बाद एक वही तो है जिससे कई मसलों पर राय-मशवरा करने से राहत मिलती है मन को। मलय की और बच्चों की शिकायतें, मलय की अच्छाइयां, भाई-बहनों से बढ़ती दूरी, चचेरे, ममेरे रिश्ते वह बचपन से सभी विषयों पर शेखर से बात करती रही है। मलय मेरे जीवन, मेरे घर हर क्षेत्र से जुड़े हैं, कोई भी बात मलय को बताने से वे प्रभावित होते हैं और मैं नहीं चाहती कि मलय परेशान हों। शेखर को बताने से वह अभिन्न मित्र होने के बावजूद एक द्रष्टा की तरह उस बात को देखता और राय देता है। एक अंतर्दृष्टि की तरह जरूरी होता है जीवन में ऐसा द्रष्टा। नाश्ता और खाना बनाते-बनाते मैं अनमनी-सी ही रही। एक उथल-पुथल थी मन में।
हजारों किलोमीटर का लंबा सफर तय करके कोई मुझे पचासवें जन्मदिन पर बधाई देने आ रहा है... इस ख्याल ने उम्र को सोलहवें साल-सा खुशनुमा बना दिया। पर मन ही मन कुढ़ती रही, क्योंकि पचास साल की उम्र में भी मैं एक पढ़ी-लिखी कामकाजी आधुनिक स्त्री सामाजिकता के दायरों में भी वही परंपरागत डरपोक भारतीय नारी जो पति की पसंद-नापसंद से आगे कोई सोच नहीं रखती। भीरू स्त्री जो घर को शक के दायरों से बचाने और अपने संतानत्व को सिद्ध करने से ज्यादा कोई हैसियत नहीं रखती। पच्चीस साल की बेटी, बीस साल के जवान बेटे की मां जो परिवार के हर सदस्य के जन्मदिन पर उनके दोस्तों को दावत देती रही पर अपनी उम्र के पचासवें वर्ष तक अपनी पसंद के एक व्यक्ति को चाय पर भी घर आमंत्रित नहीं कर सकी। मलय से बात करूं या न करूं, इसी ऊहापोह में अनिर्णय के साथ दफ्तर जा बैठी। चार बजे तक शेखर को नहीं बता पाई कि मैं कहां मिलूंगी।
‘‘छह बजे मेरा राजधानी एक्सप्रेस का टिकट है वापसी का। क्या तुम मिलना नहीं चाहती अनु?’’
‘‘ नहीं शेखर ऐसा नहीं है थोड़ा सिरदर्द है। तुम्हें तो पता है इन दिनों मुझे माइग्रेन रहता है। हाँ, ऐसा करो चाणक्यपुरी से आगे मेरा दफ्तर ग्रीन पार्क में है, मैं बीस मिनट बाद वहीं नीचे वाली कैंटीन के बाहर मिलती हूं। तुम्हें भी बीस मिनट आने में लगेंगे... ओ.के.।’’
जैसे ही नीचे उतरी सामने से आते शेखर को देख लगा जैसे बांहे फैलाए चला आ रहा है। मन हुआ कि मैं भी दौड़कर उसके पास पहुंच जाऊं। पास पहुंची तो उसने रजनीगंधा की एक कली देते हुए कहा, ‘‘ हैप्पी बर्थ-डे अनु।’’
‘‘और मैंने अपनी हथेली में दबाई अपने नातिन की चाॅकलेट सामने कर दी। मुंह मीठा करो शेखर।’’
‘‘ वाह! तो तुम अब भी चाॅकलेट खाती हो।’’
‘‘हां, नानी हूं न गुड़िया की। उसके साथ खानी पड़ती है।’’
‘‘कैसी हो तुम?’’
‘‘ मैं ठीक ही हूं।’’
‘‘थोड़ी दुबली हो गई हो।’’
‘‘तुम भी तो दुबले लग रहे हो।’’
‘‘चलो छोड़ो।’’
‘‘जानती हो मैं आज पूरा दिन तुम्हारे साथ बिताना चाहता था... पर तुमने लिफ्ट ही नही दी।’’
‘‘कुछ कहूं।’’
‘‘नहीं, कुछ मत कहो तुमसे मिलने का वादा था मेरा, पूरा हुआ। मेरी टैक्सी खड़ी है सामने, हो सके तो वहां तक साथ चलो।’’
‘‘चलती हूं वहीं से मुझे मेट्रो पकड़नी है।’’
‘‘तुम आज आॅफिस से छुट्टी नहीं ले सकती थी?’’
‘‘सब कुछ जानते-समझते हो, तब यह प्रश्न क्यों?’’
शेखर ने अपनी मुस्कराहट से खुद ही मेरे उत्तर की जगह भर दी थी।
‘‘फुटपाथ पर चलते हुए तुम्हें डर तो नहीं लगेगा अनुु?’’ शेखर ने बचपन की तरह छेड़ा था।
‘‘तुम साथ हो न किसी से डर नहीं लगेगा।’’
कह तो दिया पर मन ही मन डर रही थी, कहीं मलय मेट्रो स्टेशन के सामने गाड़ी लेकर आ गए तो।
शेखर ने पूछा, ‘‘चलें।’’
‘‘हां।’’
मेरे दफ्तर से मेट्रो स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है।
थोड़ा-सा ही चलना था, मैं शेखर से बात करते हुए चलती रही। बातें बेमानी थी मात्र औपचारिक सूचनाओं जैसी, लेकिन साथ चलने का अहसास एकदम अलग था। लगा इन चंद पलों में शेखर के साथ पूरा दिन गुजार देने का अहसास है। साथ चलते वे चंद कदम कितनी लंबी दूरी तय कर रहे थे बचपन से अब तक! शायद हमारे मन कदम-दर-कदम साथ चलते रहे।
‘‘मैं तुम्हारे लिए रजनीगंधा की एक सौ एक कलियां लाना चाहता था पर केवल एक ही ला पाया।’’ शेखर के इन शब्दों में वेदना थी या कसक या शायद दोनों का मिला-जुला भाव था।
‘‘नहीं शेखर! एक सौ एक कलियां हो या केवल एक, हैं तो दोनों भावनाओं की प्रतीक ही न? फिर एक कली तो आसानी से मेरे पर्स में, मेरे बालों कहीं रखकर घर तक ले जाई जा सकती है। अच्छा हुआ, एक ही लाए, ज्यादा लाते तो कहां रखती। शुभकामनाएं यहां-वहां तो नहीं पटक सकते न और इस एक कली में तुम्हारी सारी शुभकामनाएं हैं।’’
‘मेरे लिए यह रजनीगंधा की एक तुड़ी-मुड़ी कली नहीं फूलों की बहार है शेखर।’ कहना तो यही चाहती थी पर कहा नहीं।
‘‘शेखर! तुम्हें लंच, डिनर तो दूर एक कप काॅफी भी आॅफर नहीं कर पाई।’’
‘‘कोई फर्क नहीं पड़ता, यह चाॅकलेट है ना।’’ शेखर ने उस चाॅकलेट को अपनी जेब में रखा।
‘‘जानती हो, यह चॅाकलेट नहीं, हमारे रिश्ते की मिठास है। इससे मीठा कुछ भी नहीं।’’
हाथ हिलाते हुए शेखर ने विदा ली।
मेट्रो से घर पहुंचने तक रजनीगंधा की कली हथेली पर महकती रही, जिसकी महक अगले पचास साल और जीने की इच्छा जगा गई।
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2 टिप्पणियाँ
एक ही लड़का एक ही लड़की , आम की पत्तियों को मसल कर अनुभव की गई गंध ...
जवाब देंहटाएंचाकलेटी मिठास लिए जन्मदिन के अपने पराए अहसास ...
आपकी कहानी थोड़ा रूमानी हो लेने का एहसास जगाती चली है,आ. स्वाति तिवारी जी साधो ...
रूमानी कहानियाँ अक्सर आलसी लोगों की पसंद होती हैं, और जब इश्क को होता देखते हैं फ़ौरन पढ़ने या पढ़ते रहाने के प्यार में पड़ जाते वे जानना ही नहीं चाहते की इस गड़बडझाले के पीछे की लत उन्हें एक उपन्यासकार कहानीकार या लेखक की जिज्ञासाओं से परिचित कराती चलती है |
- प्रदीप यादव
रूमानी कहानियाँ अक्सर ही आलसी लोगों की पसंद होती हैं और जब इश्क को होता देखते हैं तोह फ़ौरन ही पढ़ने या पढ़ते रहाने के प्यार में पड़ जाते हैं | वे जानना ही नहीं चाहते की इस गड़बड-झाले के पीछे की लत उन्हें एक उपन्यासकार कहानीकार या लेखक की जिज्ञासाओं से परिचित कराती चलती है | -प्रदीप यादव
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