खुशियों की होम डिलिवरी 5 - ममता कालिया | Khushiyon ki Home Delivery 5 - Mamta Kaliya

किस तरह संसद सदस्य पाठक ने शादी के आश्वासन के साथ श्यामा को यौन संबंध के लिए राज़ी किया और कैसे वह लगातार जनसेवा और लोक छवि की दुहाई देकर शादी से बचता रहा।
खुशियों की होम डिलिवरी 5 - ममता कालिया | Khushiyon ki Home Delivery 5 - Mamta Kaliya

"खुशियों की होम डिलिवरी" (अंतिम भाग)

~ ममता कालिया

खुशियों की होम डिलिवरी - 1
खुशियों की होम डिलिवरी - 2
खुशियों की होम डिलिवरी - 3
खुशियों की होम डिलिवरी - 4

इसी श्यामा यादव की भूली हुई दास्तान, ‘खुलासा’ की टीम ने सर्वेश की अगुआई में खोज निकाली थी। किस तरह संसद सदस्य पाठक ने शादी के आश्वासन के साथ श्यामा को यौन संबंध के लिए राज़ी किया और कैसे वह लगातार जनसेवा और लोक छवि की दुहाई देकर शादी से बचता रहा। उसने उसे अपने संसदीय क्षेत्र से दूर राजकोट के कॉलेज में नौकरी दिलवा दी और बच्चे की परवरिश से इनकार किया।

सर्वेश सिगरेट के कश लगाता अपनी कामयाबी की शेखी बघार रहा था, ‘‘कल जब मेरी रिपोर्ट छपेगी, बस धमाका हो जाएगा! पाठक के गुरूर का गुब्बारा यूँ फूट जाएगा!’’

‘‘इससे क्या हासिल होगा?’’ रुचि से कहे बिना रुका न गया।

‘‘तुम्हें इसका हासिल ही समझ नहीं आ रहा। एक नेता, जनता के सामने आदर्श बघारता है, हर वक्त अपने बलिदान और सादगी का राग अलापता है, उसका भंडाफोड़ होना चाहिए कि नहीं।’’

‘‘यह थोड़ा अमानवीय भी है। आप किसी के निजी जीवन में झाँको और जो कुछ भी उसका गोपन है, उसे ओपन करो।’’

‘‘नेता का जीवन सार्वजनिक होता है। उसमें कुछ भी गोपन नहीं होता। हमारी खोजी पत्रकारिता का उसूल है, जो ग़लत है उसे रँगे हाथ पकड़ो!’’

‘‘साथ में उस महिला का भी भंडाफोड़ हो जाएगा। हो सकता है उसकी नौकरी पर बन आए या उसका बेटा उससे नफ़रत करने लगे।’’

‘‘कैसा उलट सोचती हो तुम? उस महिला को तो इतने वर्षों का लंबित न्याय मिलेगा। रही बच्चे की बात! उसे श्यामा यादव पहले ही बता चुकी है कि उसका पिता कौन है।’’

‘‘कुछ भी हो, मुझे तुम्हारी खोजी पत्रकारिता काफी क्रूर लगती है।’’

बीजी ने आकर कहा, ‘‘तुम लोग बहस ही करदे रहोगे कि रोटी-शोटी भी खाओगे। मंदा तो अज फिर छुट्टी पे सी। जैसी भी बनी, मैइयों बनाई है रोटी!’’

‘‘क्यों रुचि, तुमने नहीं बनाया खाना?’’ सर्वेश को ताज्जुब हुआ।

बीजी बोलीं, ‘‘तेरे जांदे ही ऐदे तो पहिए लग जांदे हैं। एतवार दी गई ये आज दिसी है।’’

‘‘ऐसा क्या काम आ गया? तुमने बीजी की भी फ़िक़र नहीं की?’’


‘‘कई मीटिंग थीं। शो की नई शक्ल देनी थी।’’

‘‘फिर भी तुम्हें शाम तक घर आ जाना चाहिए। मान लो मंदा भी घर बैठ जाए तो माँ को कौन देखे?’’

बेटे को उखड़ते पाकर बीजी वापस रसोई में चली गई।

‘‘सर्वेश मेरे काम के घंटे कितने अजीब हैं, तुम जानते हो।’’

‘‘जब मैं शहर में रहूँ, तुम्हें पूरी छूट है, जैसे मर्जी आओ जाओ।’’

रुचि ने मुस्कुराकर अपना जादुई जुमला इस्तेमाल किया, ‘‘इसीलिए तो मैं सबसे कहती हूँ, तुम तो मेरे पंद्रह अगस्त हो!’’

सर्वेश का मूड भी अच्छा हो गया। उसे इसी के साथ ख़याल आया कि उसकी जि़ंदगी का अकेलापन इसी ठुमरी-सी ठिगनी, प्यारी, चंचल रुचि की वजह से दूर हुआ। इसके आते ही घर में कितनी रौनक आ गई और जीवन में बहार। सही अर्थों में यही है उसकी छब्बीस जनवरी। पहले विवाह की तिक्तता और रिक्तता—दोनों से मुक्त होने में रुचि का बहुत योगदान था। जिन छोटी-छोटी बातों पर उसकी पूर्व पत्नी मनजीत तूफान खड़ा कर देती थी, रुचि उनकी तरफ़ ध्यान भी नहीं देती, जैसे सिगरेट की राख चाय के कप में झाडऩा, बिना पैर धोये बिस्तर पर लेटना या बिना ब्रश किए सो जाना।

‘‘मेरे लिए तुम वह हो जो एक विज्ञापन बोलता है—खुशियों की होम डिलिवरी।’’

रात बादलों पर तैरते हुए बीती। तकियों के तालमेल ने करवटों की हिमाकत के आगे हार मान ली। साँसों का सितार झाला बजाता रहा। दोनों की आत्मा एक ही आकुल पुकार करती रही, ‘‘हम इतनी देर से क्यों मिले!’’

उस पूरे सप्ताह ऊष्मा भरी स्फूर्ति रुचि और सर्वेश को तरंगित करती रही। दोनों एक दूसरे की उपलब्धियों से खुश रहे। जीने के उत्साह में रुचि को वे खाने भी अच्छे लगे, जिनसे उसे प्राय: परहेज़ था। राजमा उसे गरिष्ठ पदार्थ लगता था और बेमज़ा। एक दिन घर में बीजी ने राजमा बनाए तो रुचि ने खूब तारीफ़ करके खाए।

उसने कहा, ‘‘आपने इतनी मुश्किल चीज़ को कैसे इतना सुपाच्य बना दिया, यह ताज्जुब है।’’

बीजी ने कहा, ‘‘देख मेरी गल सुन। घर में भले ही घासफूस बनाओ, परोसते बखत ओदे विच इक चम्मच मुहब्बत रला दो। चीज़ आपेही सवाद हो जागी।’’

रुचि हँसी, ‘‘वाह बीजी, आपकी बात मैं अगले एपिसोड में ज़रूर बताऊँगी! इक चम्मच मुहब्बत तो नायाब रेसिपी (व्यंजन-विधि) होगी।’’

शुक्रवार की रात ऑि़फस से घर आते वक्त सर्वेश ने अपनी गाड़ी ओशिवरा की तरफ़ मोड़ दी। उसे अपना कत्थई कुर्ता और क्रीम रंग की जैकेट शनिवार की प्रेस क्लब मीटिंग के लिए चाहिए था।

अपने चाबी के गुच्छे से जब उसने फ्लैट का दरवाज़ा खोला, एक बार बाहर निकल उसने नंबर पढ़ा। वह अपने ही घर में आया था। कमरे में हर चीज़ बिखरी पड़ी थी। मेज़ पर कॉफी, चाय के जूठे प्याले, सोफे पर खुले हुए अख़बार और फ़र्श पर स्लीपरें और जूते। रसोई में जूठी प्लेटों का अंबार लगा था। चारों तरफ़ बिखराव। उसने फाटक के सुरक्षाकर्मी से पूछा, ‘‘घर में पीछे से कोई आया था क्या?’’

सुरक्षाकर्मी बोला, ‘‘जी, रुचि मैडम के बेटे रहते हैं यहाँ। कभी उनके दोस्त लोग आए होते हैं।’’

दिमाग़ का चक्का उलटा घूमने लगा सर्वेश का। रुचि का बेटा कहाँ से आ गया, वह भी इतना बड़ा, जो यहाँ पर हो! उसने रुचि को फोन लगाया। रुचि के प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग चल रही थी। उसके सहायक ने बताया, ‘‘मैम को थोड़ा वक्त लगेगा सर, मैं उनसे फोन करवाता हूँ।’’

गुस्से का गुबार धूल की तरह उसके दिल-दिमाग़ में फैलता गया। उसने किसी तरह बेतरतीब सामान सरकाकर अपने कपड़े अलमारी से निकाले। किसी ने उसके कपड़े हैंगर से हटाकर शेल्फ़ में रख दिए थे। हैंगर में अजीबो-ग़रीब ग्रेफिटी वाली टी-शर्ट और जींस लटके हुए थे। उसने भड़ाम से अलमारी बंद की और जान-बूझकर ताला नहीं लगाया। फाटक पर उसने सुरक्षाकर्मी को डाँटा, ‘‘तुम्हारे होने का क्या फायदा! कोई भी ऐरा-गैरा हमारे घर में घुस जाता है!’’

सुरक्षाकर्मी ने कहा, ‘‘मेमसाब खुद अपनी चाबी बाबा लोग को देकर गईं, अपुन क्या बोलने का!’

सर्वेश नारंग को गुस्सा इतनी तेज़ आया कि अगर गगन उसके सामने पड़ता तो मार खा जाता। घर पहुँचने तक उसने कई जगह ट्रैफिक को कोसा, मुंबई की भीड़ को गाली दी और झटके से ब्रेक लगाए। अभी वह गाड़ी पार्किंग परिसर में लगा रहा था कि फोन झनझनाया। यह रुचि थी।

‘‘सॉरी डार्लिंग, अभी खाली हुई हूँ! लगातार रिकॉर्डिंग हुई।’’

सर्वेश ने कहा, ‘‘तुम क्या करती हो, कहाँ रहती हो, इसका हिसाब मेरे पास क्या है?’’

‘‘हैलो, मैं रुचि बोल रही हूँ।’’

‘‘सुन लिया मैंने, बहरा नहीं हूँ और भी बहुत कुछ सुन लिया! तुम्हारे घर से आ रहा हूँ।’’

रुचि का जी धक्-से रह गया। गगन के आ जाने के शुरुआती दिनों में उसे बेचैनी और आशंका थी कि इस नई स्थिति का रहस्योद्घाटन किस तरह होगा। लेकिन फिर काम-काज की सघनता और संलिप्तता ने भय का दंश कम कर दिया। उसे यह भी आश्वासन था कि अपने पहले विवाह के बारे में उसने सर्वेश को बता रखा है। जिस दिन उसे पता चलेगा, वह आहत होगा, आहत करेगा और अंत में इस तथ्य को स्वीकार करेगा, ऐसा रुचि का ख़याल था।

रुचि भागी हुई घर आई। वहाँ सर्वेश नहीं था। मंदा ने उसे एक चिट पकड़ाई, जिस पर लिखा था ‘‘माँ के सामने मैं कोई ड्रामा नहीं चाहता। सीसीडी पर मिलो, मैं वहीं हूँ।’’

रुचि उलटे पैरों कैफे कॉफी डे पहुँची। ‘‘अ लॉट कैन हैपन ओवर कॉफी’’ साइनबोर्ड पढ़कर उसने मन ही मन कामना की, ‘हे भगवान, सर्वेश का गुस्सा शांत हो जाए!’ यह वह जगह है, जहाँ वे घंटों बैठते और प्यार की बातें करते थे। वे ही दिन लौट आएँ। सर्वेश काउंटर के सबसे क़रीब वाले कोने में बैठा सिगरेट पी रहा था। कॉफी का मग उसके सामने रखा था, भरा हुआ और अनछुआ।

रुचि ने सामने बैठते ही कहा, ‘‘आय एम सॉरी सर्वेश! मैं तुम्हें बताने ही वाली थी।’’

‘‘तुमने क्या सोचा? मुझे पता नहीं चलेगा। मैं खोजी कुत्ता, मेरे घर में सेंध लग रही और मैं ही अनजान हूँ, लानत है मेरी जॉब पर! मेरी बीवी अचानक एक पला-पलाया, हट्टा-कट्टा साँड मेरे सामने खड़ा कर कह रही है—यह उसका बेटा है!’’

‘‘मैंने कहा न मैं बतानेवाली थी। मैं अपने अंदर हिम्मत जुटा रही थी।’’ रुचि ने कहा।

‘‘हिम्मत और हिमाक़त की तुम्हारे अंदर कहाँ कमी है रुचि! तुमने इस गगन नाम के लड़के को उसके घर से अलग करके मँगवा लिया, इसका मतलब इसके बाप से भी तुम्हारी बोलचाल है!’’

‘‘तुम गुस्से में ग़लत समझ रहे हो सर्वेश! उस आदमी से मुझे नफ़रत है! उसने गगन को घर से निकाल दिया। मैंने तो सिर्फ इंसानियत के नाते गगन को शरण दी है।’’

‘‘तुम्हें यह पता है गगन कैसा लड़का है, उसकी सोहबत किन लड़कों से है! तुम्हारा फ्लैट भटियारखाना बन गया है!’’ सर्वेश का गुस्सा कम नहीं हुआ।

‘‘उसके आने के बाद तो मैं वहाँ पर गई भी नहीं। वक्त ही कहाँ है मेरे पास?’’

‘‘तुम इतनी सीधी भी नहीं हो रुचि! आखिर बंबई जैसे शहर में वह कैसे जि़ंदा रह रहा है। तुमने उसे काफी रुपये दे रखे होंगे!’’

रुचि चुप रह गई। जब गगन ने अपनी ज़रूरतों और मुसीबतों का रोना रोया, तब रुचि ने अपना स्टेट बैंक का एटीएम कार्ड उसे थमा दिया। अपना पिन नंबर बताते हुए उसने यह भी जता दिया था कि उसके खाते में सिर्फ पचपन हज़ार रुपये हैं। इसके आगे वह किसी मदद की उम्मीद न रखे। यह सब सर्वेश को बताना नई मुसीबत को बुलाने जैसा था।

रुचि ने कन्नी काटते हुए कहा, ‘‘मेरे सामने दो ही विकल्प थे सर्वेश! मैं बेटे को अपनी आँखों के सामने बरबाद होते देखती या उसे सँभाल लेती। मेरे अलावा और उसका है भी कौन!’’

सर्वेश का गुस्सा भभक गया, ‘‘मेरे सामने बेटा शब्द बोलने की बेशर्मी कर रही हो! शादी के पहले और बाद तुमने कभी इसकी ख़बर नहीं लगने दी। अचानक तुम मेरे सामने यह बेटा नाम का बिगड़ैल बैल पेश कर रही हो! जब मैं बाप नहीं रहा तब तुम्हें भी मैं माँ नहीं रहने दूँगा!’’

उन दोनों की आवाज़ें कभी ऊँची तो कभी अस्फुट हो रही थीं। कैफे काउंटर पर खड़े कर्मचारियों के अंदर कौतूहल पैदा होने लगा। दोनों प्रसिद्ध हस्तियाँ थीं, जिनका इस कैफे में बैठना भी ख़बर बनने-जैसा था। आम तौर पर कैफे के कर्मचारी अपने अतिथियों की बातचीत पर गौर नहीं करते, लेकिन इस मेज़ का वार्तालाप आलाप और संलाप की सीमाएँ तोड़ विवाद और प्रलाप पर जा पहुँचा। कैफे का मैनेजर दुविधा में था। इतने नियमित आनेवाले ग्राहकों के प्रति वह उद्दंड नहीं होना चाहता था। शांत रहने की चिट भिजवाना एक तरीका हो सकता था पर जहाँ तक हो इसके इस्तेमाल से वह बचता।

रुचि की बरदाश्त की भी सीमा थी। उसने कहा, ‘यह तो कोई तर्क नहीं है कि अगर तुम अपना बेटा खो बैठे तो मैं भी निस्संतान हो जाऊँ! हम दोनों के बीच यही एक बच्चा बचा है।’’

‘‘उसके लिए मेरे अंदर कोई पितृत्व नहीं है!’’

‘‘लेकिन मैं अपने मातृत्व का गला नहीं दबा सकती!’’

‘‘मैं तो दबा सकता हूँ!’’ सर्वेश ने दाँत पीसते हुए अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर रुचि की गर्दन पकड़ ली। काउंटर के कर्मचारी जो अभी तक छुपी नज़र से इस मेज़ की गतिविधि देख रहे थे, लपककर मेज़ के पास आए और रुचि को पति की गिरफ्त से छुड़ाते हुए बोले, ‘‘सर वॉट आर यू डूइंग टु योर वाइफ़?’’

तीन मेज़ छोड़ कर मेज़ नंबर दो पर एक महिला पत्रकार अपने मित्र के साथ मौजूद थी। उसने अपने मोबाइल फोन के कैमरे में यह दृश्य कैद कर लिया।

रुचि की आँखें अवमानना और अपमान से धधक उठीं। इस उग्र, उद्दंड और असभ्य आदमी को वह नहीं जानती। वह इसे अपना साथी कैसे समझे?

वे उठे और अपनी अपनी कार से अलग-अलग दिशाओं में बढ़ गए।

रुचि ने ड्राइवर से ओशिवरा चलने को कहा। युनाइटेड चेंबर्स के फाटक पर सुरक्षाकर्मी बहादुर ने बताया, ‘‘मैडम आप ज़रा बाबा लोग को सँभालें, बहुत हल्ला मचाते अक्खा रात!’’

रुचि को यह सुनना अच्छा नहीं लगा। वह लिफ्ट से ऊपर पहुँची।

फ्लैट का दरवाज़ा चौपट खुला था। अंदर गगन और दो अन्य लड़के पंचम सुर पर धूम के गाने पर उछल-कूद कर रहे थे। सारे घर की बत्तियाँ जली हुई थीं। कमरे में सिगरेट का धुआँ इतना ज़्यादा था कि रुचि को खाँसी आने लगी। गगन आगे बढ़कर आया, ‘‘मॉम हैलो, वीकएंड पर मेरे दोस्तों ने डांस और डिनर का प्रोग्राम बनाया है, होप यू डोंट माइंड!’’

रुचि की कठोर मुद्रा देखकर दोस्तों ने अपने क़दम रोके। उन्होंने एशट्रे में सिगरेटें कुचलीं और इशारे से गगन को संकेत किया कि वे जा रहे हैं। जैसे ही गगन अकेला सामने पड़ा, रुचि ने एक दन्नाता हुआ थप्पड़ उसके गाल पर लगाया, ‘‘यू रोग!’’

गगन सिर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा।

‘‘इसीलिए मुझसे शरण माँगने आए थे कि मेरा नाम भी डुबो दो! वापस जाओ बेहूदे बाप के पास, वही तुम्हारा सही ठिकाना है!’’

बिना कोई सफाई दिए, गगन ने यही कहा, ‘‘मम्मा ग़लती हो गई, माफी दे दो!’’

‘‘यह बदबू कैसी आ रही है, कमरे से?’’

‘‘वो लड़के स्मोक कर रहे थे।’’

‘‘सिर्फ सिगरेट की बू नहीं है यह गगन! तुम नशा करने लगे हो?’’

‘‘मम्मी उन लड़कों ने भरी हुई सिगरेट पी थी, मैंने नहीं।’’ गगन ने हकलाते हुए कहा और पास रखी कुर्सी पर निढाल, बेहाल बैठ गया। उसकी आँखों में लाल डोरे खिंचे थे। बैठा-बैठा ही वह तंद्रा में चला गया। रुचि का मन हुआ वह वापस वर्ली चली जाए लेकिन वहाँ भी यहाँ की आँच पहुँच चुकी थी। इसी गगन के कारण वह अपने साथी से संघर्ष की स्थिति में आई। अतीत कब तक उसका पीछा करेगा, कहना मुश्किल था। ‘सेकंड टाइम लकी’—दूसरी बार खुशि़कस्मत लोग पता नहीं किस गड्ढे में अपना अतीत दबा-छिपाकर रखते होंगे। प्रसिद्ध लोगों के लिए गोपनीयता एक असंभव मरीचिका है।

इसका पूरा परिचय उसे अगली सुबह मिला, जब हर अख़बार के स्थानीय पन्ने पर, कहीं दो कॉलम, कहीं तीन कॉलम में उसकी वह तसवीर छपी हुई थी, जिसमें सर्वेश नारंग के हाथ उसकी गर्दन पर कसे हुए थे। तसवीर के नीचे कहीं शीर्षक था, ‘रुचि की रसोई का स्वाद बेस्वाद’। कहीं लिखा था—’यह खुशियों की होम डिलिवरी नहीं है’। एक अख़बार ने बड़ा-सा प्रश्नचिह्न लगाकर पूछा था, ‘क्या यही प्रेम है?’

बाई की मदद से अभी रुचि अपना बिखरा घर ठीक भी नहीं कर पाई कि पत्रकारों ने उसका फोन घरघराना शुरू कर दिया, सबके पास एक-से-एक सवाल थे :

रुचि जी, सीसीडी में कल रात क्या आपका अपने पति से झगड़ा हुआ था?

रुचि जी, सर्वेश जी ने आपके गले पर हाथ क्यों रखा हुआ है?

रुचि, क्या यह भी कोई नई व्यंजन विधि की रिहर्सल चल रही है?

ऐसा कुछ नहीं है, आपको ग़लतफ़हमी हो रही है, जैसा गोलमोल जवाब रुचि के मुँह से सुनने पर पत्रकार निराश हुए। उन्होंने अपने माइक्रोफोन का मुँह सर्वेश की तरफ़ मोड़ दिया।

सर्वेश से उनके सवाल ज़्यादा तीखे और तल्ख़ थे।

आप दोनों का प्रेमविवाह हुआ। क्या आपने अपनी पत्नी का गला प्रेमवश पकड़ा हुआ है?

आपके बीच क्या बात हुई कि आप उनका गला दबाने लगे?

सुना है, आपकी पत्नी ने इस घटना के बाद आपको छोड़ दिया।

सर्वेश ने एक पत्रकार से कहा, ‘‘अरे यह सब एक मज़ाक़ के तहत हुआ। गौर से देखिए, वह रो भी नहीं रही है।’’

उसने दूसरे पत्रकार को बयान दिया, ‘‘आपको अनुमान लगाने की ज़रूरत नहीं है। यह हमारा निजी मामला है।’’

तीसरा पत्रकार ज़्यादा हठी था। उसने कहा, ‘‘सीसीडी जैसे सामाजिक, सार्वजनिक स्थान पर आपका आचरण बर्बरता की श्रेणी में आता है, इस पर आपको क्या कहना है?’’


सर्वेश ने मीडिया को बयान दिया, ‘‘हम दोनों के बीच कोई तनाव नहीं है। हम मज़ाक़ के मूड में कलह का नाटक कर रहे थे। मैंने उसकी गर्दन पर उँगलियाँ रखीं, लेकिन ज़रा भी दबाव नहीं डाला। देखिए गौर से, मेरी पत्नी न तो रो रही है न चीख़ रही है।’’

दृश्य मीडिया पर सीसीडी में खींची गई तसवीर कोण बदल-बदलकर दी जाने लगी। इस पर लंबी बहस छिड़ गई कि रुचि के चेहरे का भाव क्या है, क्रोध अथवा हर्ष का, विषाद अथवा सुख का। प्रेमविवाह की सफलता और विफलता पर विचार-विमर्श होने लगा। नारीवादियों ने इस मुद्दे पर रुचि शर्मा को लानतें दीं कि वह अपने साथ हुई क्रूरता का प्रतिकार प्रचंड शब्दों में क्यों नहीं करती। सभी चैनलों ने रुचि के पाककला कार्यक्रम दिखाने बंद कर दिए। इतना विवादग्रस्त चेहरा दिखाना उन्हें उचित नहीं लगा। केवल कुछ पत्रिकाओं में उसके कुकरी कॉलम बचे रहे।

रुचि अपने ओशिवरा वाले फ्लैट में एकाकी बैठकर सोचने लगी कि उसकी आगामी जि़ंदगी का नक्शा कैसा हो। गगन अकसर रोज सस्ते नशे की गिरफ्त में कॉलेज से गैरहाजि़र रहता। कभी वह घर के सामने बने पार्क की बेंच पर बैठा अपनी नींद पूरी करता, कभी लॉबी में सोया मिलता। अकसर गार्ड उसे खींच-तानकर घर में पहुँचाते। वह जागता, बिसूरता, माफी माँगता। दो-तीन दिन नॉर्मल रहता कि उसके किसी-न-किसी दोस्त का फोन आ जाता। वह फिर नशे की नाली में लुढ़क जाता।

रुचि की स्थिति विकट थी। उसके सामने कुएँ और खाई का विकल्प था। अगर वह गगन को घर से बाहर निकालती तो यह ऐसा होता, जैसे मुश्किल से बचाए गए इंसान को कगार पर पहुँचाकर वापस पानी में धकेलना।

इस घरेलू घनचक्कर से ज़रा पहले रुचि ने एक नया कार्यक्रम हाथ में लिया था, ‘खुशियों की होम डिलिवरी’। अभी उसका पाइलट जमा हुआ था। कार्यक्रम में दिखानी व्यंजन-विधियाँ ही थीं लेकिन उन्हें उत्सवों से जोड़ा गया था। जैसे अपै्रल में बैसाखी के मेले की झलकियों के बीच छोले-भटूरे और लस्सी का बनाया जाना। नवंबर में दिवाली के धूम-धड़ाके के साथ लड्डू बनाने की विधि। इसी तरह साल के हर महीने किसी-न-किसी त्योहार का जश्न और ज़ायका दिखाया जाना तय था। इस प्रस्ताव की मंज़ूरी की पूरी उम्मीद थी।

रुचि ने कार्यक्रम के निर्माता मेहरा ब्रदर्स को फोन पर अपनी असमर्थता बतानी चाही।

‘‘मैं इन दिनों थोड़ी परेशान चल रही हूँ, यह प्रोग्राम नहीं कर पाऊँगी।’’

मेहरा ब्रदर्स के बड़े भाई ज्योतिस्वरूप ने कहा, ‘‘परेशान कौन नहीं है रुचि जी! हमारे सामने भी बड़ी-बड़ी मुश्किलें हैं। इससे दुनिया के कामकाज बंद नहीं हो जाते।’’

‘‘मेहरा जी, मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। आपका प्रोग्राम हँसी-खुशी और मेले-ठेले का है। मैं निभा नहीं पाऊँगी। अवसाद गीले तौलिये की तरह मेरे मन पर पड़ा है!’’

‘‘तब तो और भी ज़रूरी है कि आप हमारा प्रोग्राम करें। इतने रंग-बिरंगे दृश्य देखकर आपका अवसाद छूमंतर हो जाएगा!’’

‘‘बाद में देखा जाएगा। अभी तो आपका पाइलट जमा हुआ है।’’

‘‘रुचि जी, हमें पाइलट मंज़ूर करवाना आता है। आप तैयार रहिए। द शो मस्ट गो ऑन!’’

रुचि का आत्मसम्मान थोड़ा-सा तुष्ट हुआ। दरअसल अख़बारों ने समस्त गोलाबारी सर्वेश नारंग की तरफ़ मोड़ दी। उसके कृत्य को पुरुषवादी सोच घोषित कर सभी स्त्रीवादी संगठन भी उसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए थे। सर्वेश के बारे में खोजी पत्रकार ऐसी-ऐसी ख़बरें खोजकर ला रहे थे, जिनसे रुचि भी अनभिज्ञ थी। यह तय था कि उसे अब वापस सर्वेश के पास नहीं जाना था। उसका सुख का सपना दूसरी बार टूटा था। कहाँ वह उसे अपना पंद्रह अगस्त मानती थी, कहाँ वह उसका छह अगस्त बन गया। उसने उसे हिरोशिमा की तरह ध्वस्त कर दिया। सर्वेश और गगन उसके विध्वंसीकरण के दो धु्रव थे।

रात भर रुचि सोच-विचार में डूबी रही। सुबह के सूरज के साथ उसने निश्चय किया, वह पति और पुत्र किसी की भी ज़्यादती नहीं सहेगी। वह अपना थोड़ा-सा सामान उठाकर कामकाजी लड़कियों के हॉस्टल में चली जाएगी।

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा