प्रश्न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
अपूर्व जोशी
केंद्र सरकार बुद्धिजीवी समाज की एकजुटता से कम से कम यह संदेश पाने में सफल रही कि लोकतंत्र के स्थापित मूल्यों के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और जरूरत पड़ने पर हर मुमकिन हथियार का इस्तेमाल इन मूल्यों की रक्षा के लिए किया जाएगादेशभर के बुद्धिजीवी, विशेषकर लेखक, पत्रकार, कवि, रंगकर्मी आदि इन दिनों अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे को लेकर न केवल आक्रोशित हैं बल्कि मुखर भी होने लगे हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले के कस्बे दादरी में एक मुस्लिम की गौमांस खाने को लेकर उड़ी अफवाह के चलते हत्या के बाद से ही समाज का एक बड़ा वर्ग स्वयं को असुरक्षित तो समझ ही रहा है, उसे लगता है कि देशभर में सत्ता के खिलाफ स्वर बुलंद करने वालों को सुनियोजित तरीके से खामोश करने की मुहिम चलाई जा रही है। उनकी इस सोच के पीछे वाजिब कारण हैं। अगस्त 2013 में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई थी। महाराष्ट्र की संस्था अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कर्ता-धर्ता नरेंद्र दाभोलकर को लंबे अर्से से जान से मारने की धमकी दी जा रही थी। उनके विरोधी चाहते थे कि वह अंधविश्वास को खत्म करने की अपनी मुहिम रोक लें। ऐसा न करने पर उनकी निर्मम हत्या 20 अगस्त 2013 को पुणे में गोली मार कर दी गई। वह पेशे से डाक्टर थे और उन्होंने काला जादू समेत नाना प्रकार के अंधविश्वास के खिलाफ एक मुहिम छेड़ रखी थी। उनके हत्यारों का आज तक पता नहीं चल पाया है। मुंबई हाईकोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी है। फिलहाल अब तक सीबीआई भी कुछ खास पता नहीं लगा सकी है। 25 लाख का भारी-भरकम इनाम सीबीआई ने दाभोलकर के हत्यारे का पता देने वाले को देने की घोषणा तक की है।
फरवरी 2014 में कम्युनिस्ट पार्टी के वयोवृद्ध नेता गोविंद पनसारे को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में मार दिया गया। गोविंद पानसारे को उनकी पुस्तक ‘शिवाजी कौन होता’ के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। गोविंद पानसारे अंतरजातीय विवाह के बड़े पक्षधर थे। उनकी संस्था ऐसे विवाह कराने के अलावा पुत्र प्राप्ति के लिए कराए जाने वाले यज्ञ आदि का विरोध करती थी। नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद पनसारे ने सार्वजनिक अपील के जरिए लोगों से अंधविश्वास, काला जादू आदि के विरोध में आने को कहा था। इक्कीस किताबों के लेखक गोविंद पानसारे को अपनी किताब ‘शिवाजी कौन होता’ के चलते दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों के कोप का शिकार होना पड़ा था। इस पुस्तक में उन्होंने शिवाजी को एक ऐसे शासक के रूप में प्रस्तुत किया जो धर्म-निरपेक्ष था, जिसने अपनी सेना में मुसलमान सेनानायक रखे और जो धर्म के आधार पर भेदभाव की किसी भी संकीर्ण सोच से ऊपर था। 16 फरवरी 2015 की सुबह पानसारे और उनकी पत्नी पर सैर से वापस लौटते समय प्राणघातक हमला किया गया। इस हमले में उनकी पत्नी की जान तो बच गई, लेकिन 20 फरवरी को अस्पताल में गोविंद पानसारे ने दम तोड़ दिया। महाराष्ट्र पुलिस ने नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड की भांति इस हत्याकांड का सुराग देने वाले को 25 लाख का ईनाम दिए जाने की घोषणा की है, लेकिन कुछ भी सफलता हाथ नहीं आई है। इस जघन्य हत्याकांड के अभी छह माह भी नहीं बीते थे कि एक और तर्कशील, प्रगतिवादी आवाज को खामोश कर दिया गया। इस बार निशाने पर रहे प्रसिद्ध कन्नड़ विद्वान, कन्नड़ विश्वविद्यालय, हम्पी के उपकुलपति एमएम कलबुर्गी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कलबुर्गी की 30 अगस्त 2015 की सुबह गोली मार हत्या की गई। कर्नाटक के प्रभावशाली लिंगायत समाज के कलबुर्गी को उनके हिंदू विरोधी विचारों के चलते कई बार बड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। माना जा रहा है कि कलबुर्गी की हत्या के पीछे किसी कट्टर हिंदूवादी संगठन के बजाय लिंगायत समाज के भीतर की राजनीति का हाथ है। बहरहाल, इस हत्या के बाद से ही बुद्धिजीवी वर्ग लामबंद होने लगा। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता, निर्देशक और रंगकर्मी गिरीश कर्नाड ने विरोध प्रदर्शनों का मोर्चा संभाला तो हिंदी के प्रख्यात रचनाकार उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर अपना विरोध दर्ज कराया। तब से लेकर अब तक कई प्रतिष्ठित लेखकों, रंगकर्मियों आदि ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव बनाने का काम किया है।
जाहिर सी बात है किसी भी लेखक, नाटककार, शिक्षक आदि के समक्ष अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए उपलब्ध हर उस मार्ग को चुनने की स्वतंत्रता है जिसके जरिए उसे अपनी आवाज सही तरह से सुने जाने का विश्वास हो। उदय प्रकाश ने जो शुरुआत की उस पर दादरी कांड के बाद तेजी से प्रतिक्रिया देखने को मिली है। हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखकों ने भी अपने पुरस्कार लौटाने शुरू कर दिए हैं। मोदी सरकार ने बुद्धिजीवी समाज की पीड़ा को समझने, उस पर मरहम लगाने के बजाय जले पर नमक छिड़कने का काम किया। संस्कृति मंत्री जैसे पद पर बैठा व्यक्ति यदि सीधे-सीधे लेखकों का यह कह मखौल उड़ाए कि पहले वे लिखना बंद कर दें बाद में सरकार तय करेगी कि करना क्या है, तो निश्चित ही सरकार की मंशा पर शंका उठनी तय है। डॉ महेश शर्मा का बयान, जिससे वह बाद में पलट गए, यह हतप्रभ करने वाला रहा। निश्चित ही न केवल लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी आदि बल्कि हर वह व्यक्ति इस समय चिंतित है, काफी हद तक खौफजदा भी है, जो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलों से लेकर धार्मिक उन्माद को भड़काए जाने वाले माहौल के पीछे की राजनीति और रणनीति को समझ रहा है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दंगों को भुलाया नहीं जा सकता। उन दंगों ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को बदलने का काम किया था। जो जाट कभी भी चौधरी चरण सिंह की विरासत से दूर नहीं हुआ, उस समुदाय ने इन दंगों के बाद चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह का साथ छोड़ दिया। पहली बार इतने बड़े स्तर पर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण देखने को मिला। इसलिए बिहार चुनाव के दौरान अखलाक का मारा जाना, विकास के मुद्दे पर लड़े जा रहे चुनाव में गौहत्या का बड़ा मुद्दा बन उभरना ऐसी आशंकाओं को जन्म देता है जो किसी भी विचारवान को विचलित करने का काम करती है। मैं समझता हूं कि केंद्र सरकार बुद्धिजीवी समाज की एकजुटता से कम से कम यह संदेश पाने में सफल रही कि लोकतंत्र के स्थापित मूल्यों के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और जरूरत पड़ने पर हर मुमकिन हथियार का इस्तेमाल इन मूल्यों की रक्षा के लिए किया जाएगा। असहमति का सम्मान स्वस्थ लोकतंत्र की पहली शर्त है। सत्ता हमेशा इससे मुंह मोड़ने का प्रयास करती है। जीवित और जागरूक समाज का यह दायित्व है कि वह सत्ता को समय-समय पर इस शर्त की याद दिलाता रहे। चलते-चलते बेटर इंडिया (www.thebetterindia.com) के सौजन्य से दो ऐसी बातें जो नकारात्मकता से भरे माहौल में आक्सीजन देने का काम करती हैं। चौबीस बरस की अमरीन कासिम जल्द ही महाराष्ट्र में ज्वाइंट ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट का पद संभालने जा रही हैं। आप पूछ सकते हैं कि इसमें ऐसा खास क्या है। खास यह है कि अमरीन कासिम एक बेहद गरीब परिवार से हैं। उससे भी खास यह कि उनके पिता गुलाम पठान नागपुर जिला जज के यहां चपरासी हैं। बचपन में कभी-कभी अपने पिता के साथ कोर्ट जाने वाली अमरीन ने ठान ली थी कि एक दिन वह जज की कुर्सी पर काबिज होगी। विषम, विपरीत परिस्थिति के बावजूद इस होनहार बालिका ने अपना लक्ष्य प्राप्त किया जो प्रेरणा के साथ-साथ सीख भी देता है कि हालात चाहे कितने भी खराब क्यों न हों, यदि संकल्प मजबूत हो तो राह मिलती ही मिलती है। एक अन्य ऐसा ही समाचार है मुंबई की स्याली का जो एक मोची की बेटी है, जो अपने स्कूल की तीन हजार मीटर दौड़ प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल लाई। खास यह कि यह बच्ची बगैर जूतों के दौड़ी थी। स्याली के पिता मंगेश जूतों की मरम्मत कर प्रतिमाह तीन से दस हजार तक की अनियमित कमाई करते हैं। उनकी दो बेटियां हैं जिन्हें वह अच्छी शिक्षा दिलाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। कहावत है कि सबसे अंधेरी रात में ही सबसे ज्यादा चमकने वाला सितारा दिखता है। स्याली ने यह साबित कर दिखाया।
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1 टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-10-2015) को "क्या रावण सचमुच मे मर गया" (चर्चा अंक-2139) (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'