head advt

विभूति नारायण राय: साहित्य अकादमी | Vibhuti Narayan Rai


साहित्य अकादमी इतनी छोटी कब से हो गयी कि उसके खैरख्वाहों ने पुरस्कार लौटाने वालों से इससे जुड़े यश और अर्थ का हिसाब माँगना शुरू कर दिया?

~ विभूति नारायण राय


सत्तर के दशक का फ्रांस। लोकप्रियता और राष्ट्रभक्ति की लहरों पर चढ़कर शीर्ष तक पहुँचा द गाल असंतुष्ट जनता के उभार से परेशान था। अलजीरिया फ्रांसीसी गुलामी की ज़ंजीरें तोडने को व्याकुल था और पेरिस की सड़कों पर छात्र, मजदूर और लेखक उसकी आज़ादी के समर्थन में उतर गये थे। ज्यां पाल सार्त्र जैसे बुद्धिजीवी इस जन उभार का नेतृत्व कर रहे थे। किसी चाटुकार ने राष्ट्रपति द गाल को सलाह दी कि सार्त्र को गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए और तब द गाल ने वह ऐतिहासिक उत्तर दिया था कि हम फ्रांस को गिरफ्तार नहीं कर सकते। उसके लिए सार्त्र फ्रांस था।



जरा आज के भारत से इसकी तुलना कीजिये। विवेक और तर्क के पक्ष में आवाज उठाते हुए दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्या होती है। इनमें कलबुर्गी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित लेखक थे। वैसे तो साहित्य अकादमी को किसी भी तरह की असहिष्णुता  और हिंसा के विरोध में खड़ा दिखना चाहिए पर कलबुर्गी तो उसके द्वारा सम्मानित भी थे अतः उनकी हत्या पर यह स्वाभाविक अपेक्षा की ही जा सकती थी कि अकादमी कम से कम एक शोक सभा करेगी और इस जघन्य घटना की निंदा करेगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। अकादमी के दक्षिणपंथी नेतृत्व ने खुद तो पहल की ही नहीं, याद दिलाये जाने पर भी अपने चाटुकारों से इस तरह के बयान जारी कराए जिनसे ध्वनि निकलती थी कि कलबुर्गी के साथ जो हुआ वे उसी के पात्र थे या जिन लेखकों ने अपने सम्मान लौटाए हैं वे सभी बाहरी शक्तियों से संचालित हो रहे हैं।

सिर्फ एक अहंकारी संस्था ही ऐसा सवाल कर सकती थी कि उसके द्वारा पुरस्कृत लेखक सम्मान तो लौटा सकते हैं पर पुरस्कार मात्र से जो ख्याति उन्होंने अर्जित की है उसे कैसे वापस करेंगे? बड़ी से बड़ी संस्था भी सम्मान की घोषणा इस विनम्रता के साथ करती है कि किसी लेखक को सम्मानित करते समय वह स्वयं सम्मानित महसूस कर रही है। साहित्य अकादमी इतनी छोटी कब से हो गयी कि उसके खैरख्वाहों ने पुरस्कार लौटाने वालों से इससे जुड़े यश और अर्थ का हिसाब माँगना शुरू कर दिया? इसका उत्तर तलाशना बहुत मुश्किल नहीं है। अगर गोपीचंद नारंग और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जैसे छोटे कद के लोग साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुने जायेंगे तो उसकी विश्वसनीयता कम होगी ही। अकादमी के निर्वाचक मंडल के चयन की प्रक्रिया ही ऐसी है कि अगर कोई चतुर तिकड़मबाज़ दो-तीन साल धैर्य से कोशिश करे तो वे अपना अध्यक्ष चुनने में सफल हो सकते हैं। नारंग और तिवारी की जोड़ी ने यही किया था और इसमें वे कामयाब भी हुए। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के समय में पहली बार ऐसा लग रहा है कि साहित्य अकादमी भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय का ही एक विस्तार है। जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आज़ाद द्वारा स्थापित तथा लम्बे समय तक सप्रयास अपनी स्वायत्तता बचाए रखने वाली संस्था का सर्वथा अयोग्य और अवसरवादी नेतृत्व खुद ही सरकार के सामने समर्पण कर रहा है।

दुर्भाग्य से यह सब तब हो रहा है जब देश जवाहरलाल नेहरू की 125वीं वर्ष गाँठ मनाने की तैयारी कर रहा है।

चैनलों पर, अख़बारों में या बातचीत के दौरान अकसर यह सवाल पूछा जा रहा है कि सम्मान लौटाने से क्या होगा? क्या लेखकों को अपनी ही संस्था का विरोध करना चाहिए? या सरकार पर इसका कुछ असर पड़ेगा भी? कुछ संदिग्ध किस्म के लेखकों का हवाला देकर यह दलील दी जा रही है कि पहले तो जोड़-तोड़ कर उन्होंने सम्मान हासिल किये और अब इन्हें लौटा कर वे प्रचार का एक नया तरीका अपना रहे हैं। मेरा मानना है कि आज के माहौल में ये सारे प्रश्न बेमानी हैं। जब घर में आग लगी हो तो यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि उसे बुझाने के लिए कौन दौड़ा। हर व्यक्ति को अपने सामर्थ्य भर इस प्रक्रिया में भाग लेना ही चाहिए। देश में जिस तरह से असहिष्णुता का माहौल पैदा किया जा रहा है और असहमति के लिए जगह छोटी पड़ती जा रही है उसमें हर प्रतिरोध का महत्व है। सम्मान लौटा कर रचनाकारों ने और कुछ किया हो या नहीं यह तो साबित कर ही दिया है कि असहिष्णुता को वाक ओवर नहीं मिलने जा रहा है।


बिहार के चुनाव में एक मजेदार दृश्य दिखाई दिया। मध्य वर्ग और अपने समर्थकों के बीच माडरेट छवि बनाने की कोशिश कर रहे नितीश कुमार एक तांत्रिक के साथ धरा गये। लालू तो सार्वजनिक रूप से तन्त्र-मन्त्र, पूजा-पाठ करते ही रहे हैं, नितीश पहली बार इस चक्कर में पकड़े गये। पर यह तो देखिये उन्हें इस पर टोक कौन रहा है — नरेंद्र मोदी जिन्होंने मुम्बई में डाक्टरों के एक सम्मेलन में भागीदारों का ज्ञानवर्धन किया था कि गणेश जी के शरीर पर हाथी का सर किसी प्लास्टिक सर्जन ने फिट किया था या जिनके रक्षा मंत्री अपने वैज्ञानिकों से दधीचि की हड्डियों   का रहस्य तलाश कर वज्र सरीखे अस्त्र बनाने की सलाह देते हैं।

यह एक छोटी सी घटना इस तथ्य की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि राजनीति का हमारा शीर्ष नेतृत्व वैज्ञानिक चेतना से किस कदर महरूम है। यही कारण है कि डाक्टर अम्बेडकर की क़समें खाने वाले ये लोग आज भी उनकी सीख मान कर जातियों का समूलोच्छेदन न करके उसे मजबूत करने का ही काम कर रहे हैं।

वर्तमान साहित्य के पिछले अंक में हमने भाई परमानंद और जवाहरलाल नेहरू के बीच 1935 में सरस्वती में   छपी एक बहस दी थी और उस पर पाठकों की व्यापक प्रतिक्रियायें प्राप्त हो रही हैं। उन्हें हम अगले किसी अंक में छापेंगे।

इस बीच हिंदी के सुपरिचित कवि वीरेन डंगवाल, साहित्येतिहास के गम्भीर अध्येता गोपाल राय और जन पक्षधर थियेटर एक्टिविस्ट/अभिनेता युगल किशोर हमारा साथ छोड़ कर चले गये। इन सभी का वर्तमान साहित्य परिवार की ओर से आत्मीय स्मरण।

००००००००००००००००