
कविताएं
– कुमार मुकुल
उम्र के भीतर अमरता स्थिर किए
आधी उम्र गुजार चुकाकोई ठिकाना नहीं बना
अब तक
क्या पिछले जन्म में
चिडिया था मैं
इस उस डाल
बसेरा करता
भाडे का एक कमरा है
अपनी उतरनें, यादें लिए
गुजरता जा रहा
तमाम जगहों से
पचासेक किताबें
किसी की छोडी फोल्डिंग
पुरानी तोसक
सिमट सूख चुकी जयपुरिया रजाई
किसी की भेंट की गुलाबी तश्तरियां
मोमबत्ती, पॉल कोल्हे की किताबें
बीतें समय की यादगाह
कंम्प्यूटर
सब चले चल रहे साथ
मुझको ढकेलते हुए
मेरी उम्र के भीतर
अपनी अमरता को स्थिर किए
आती जाती नौकरियां
बहाना देती रहती हैं
जीने भर
और एक सितारा
एक कतरा चांद
आधी अधूरी रातों में
बढाते है उंगलियां
जिनके तरल रौशन स्पर्श में
ढूंढ लेता हूं
अंधेरी गली का अपना कमरा
जहां एक बिछावन
मेरी मुद्राओं की छाप लिए
इंतजार कर रहा होता है
जहां रैक पर जमी
भुतही छायाओं सी
मुस्कराती किताबें
मेरा स्वागत करती हैं।
अपनेपन के मारे
अपनेपन के मारेबारहा
पत्थर फेंकते आ रहे हैं वे
गोया हम
हाड-मांस के पुतले नहीं
अमर पत्थर हों
हमारी आंखों में उन्हें
कुछ नहीं दीखता
जिबह किए जाने को तैयार
बछडों की तरह
जीवित रहने भर को
दाना पानी देते हुए
अपने झूठ पजाते आ रहे
युगों से वो।
अवसाद
अबआईना ही
घूरता है मुझे
और पार देखता है मेरे
तो शून्य नजर आता है
शून्य में चलती है
धूप की विराट नाव
पर अब वह
चांदनी की उज्जवल नदी में
नहीं बदलती
चांद की हंसिए सी धार अब
रेतती है स्वप्न
और धवल चांदनी में
शमशानों की राखपुती देह
अकडती चली जाती है
जहां खडखडाता है दुख
पीपल के प्रेत सा
अडभंगी घजा लिए
आता है
जाता है
कि चीखती है
आशा की प्रेतनी
सफेद जटा फैलाए
हू हू हू
हा हा हा
आ आ आ
हतवाक दिशाए
कुमार मुकुल
राजस्थान पत्रिकाडिजिटल फीचर सेक्शन
जयपुर
संपर्क:
मोती डुन्गरी.
45 गणेश नगर,
जयपुर
मोती डुन्गरी.
45 गणेश नगर,
जयपुर
मो०: 08769942898
ईमेल: kumarmukul07@gmail.com
सिरहाने
मेरे ही
धांगता है मुझे ही
समय का सर्वग्रासी कबंध
कि पुकार मेरे भीतर की
तोडती है दम
मेरे भीतर ही डांसती है रात
कि शिथिलगात मेरे
दलकते जाते हैं
दलकते जाते हैं ...।
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