किरण सिंह: कहानी: द्रौपदी पीक | Everest, Hindi Kahani-Kiran Singh


द्रौपदी पीक

~ किरण सिंह

Draupadi Peak, Everest by Kiran Singh, read hindi adventure stories

कहानी कहने की कला में पारंगत होती-सी किरण सिंह ने हिंदी-कहानी-साहित्य में – जहाँ तक मुझे लगता है - एक बिलकुल नया विषय जोड़ा है, जिस पर अंग्रेजी आदि भाषाओँ में तो लिखा जाता रहा है लेकिन हिंदी में शायद साहसिक-जोख़िम-साहित्य (एडवेंचर) न के बराबर ही लिखा गया है (लुगदी में भले ही लुगदी-तरीके का मिल जाए) ... हमें यह तो पता है कि एवेरस्ट पर विजय अति-साहसिक और दुर्लभ है लेकिन ऐसा क्यों है यह नहीं पता ‘द्रौपदी पीक’ पढ़ने के बाद एवरेस्ट-विजय से जुड़े उन सवालों के जवाब भी मिल जाते हैं जिन सवालों के होने तक का हमें पता नहीं। हॉलीवुड से ‘एवरेस्ट’ नाम की एक फिल्म हाल ही (सितम्बर 2015) आयी है – खासी चर्चित इस फिल्म को मैंने अभी चंद रोज़ पहले देखा – चूँकि किरण सिंह की ‘द्रौपदी पीक’ पहले ही (‘हंस’ अक्तूबर 2015) पढ़ चुका था इसलिए फ़िल्म देखने की इच्छा कुछ उस तरह की थी कि शायद जो पढ़ा है वह कुछ देखने को मिलेगा। फिल्म हिट है, लोगों को पसंद भी आ रही है लेकिन अगर दर्शक ने किरण सिंह की कहानी - जो फिल्म बनने से पहले आयी है - पढ़ी हो तो यह फिल्म उन्हें (मेरी तरह) निराश करेगी। आप आजमा सकते हैं – पढ़िए ‘द्रौपदी पीक’ और उसके बाद फिल्म देखिये... मल्टी-लेयर-कहानी, जिसमें हर पात्र का वर्तमान, भूत और यहाँ तक की भविष्य भी चित्रित है। लम्बी कहानी जिससे मुझे तक़रीबन-तक़रीबन एक अच्छे-लघु-उपन्यास को पढ़ने से मिलने वाला आनंद मिला। हंस अक्तूबर २०१५ में प्रकाशित किरण सिंह की कहानी ‘द्रौपदी पीक’ एवेरेस्ट-विजय और नागाओं के ऐसे चित्रों को दिखाती है जिन्हें हमने अब तक नहीं देखा था, जो सच्चाई की उन चमकती परत को खोलते हैं जिनके नीचे बदबूदार सच ढंका हुआ था... 

यह शोधपरक कहानी लिखने में लेखिका को अवश्य ही बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी और भावनाओं ने ज़रूर मुझ पाठक की तरह उन्हें भी भिगोया होगा अब आप - शब्दांकन पाठक - की बारी है...
- भरत तिवारी

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द्रौपदी पीक 


 ‘‘वहाँ देखिए! वोऽ ऊँची पहाड़ी। वहाँ कोई यह इबारत लिखने क्यों चढ़ा होगा - ‘मृत्यु के समय आँखें नहीं, सच देखने का अंदाज़ उलटता है।’’

‘‘कहाँ ? नहीं तो।’’

‘‘अभ्रक पत्थर से लिखा मेरी आँख में चमक रहा है!’’

अधिकारी ने चौंक कर उस लड़की से मुखातिब होने के लिए सिर उठाया-‘‘ देश भारत... भारत में कहाँ ? गाँव का नाम क्यों नहीं भरा, ऐं ?’’ 

‘‘उसकी क्या...क्या जरुरत सर ?’’ 

‘‘ओ! तो इस वास्ते मेरा ध्यान भटका रही थीं। पशुपति कृपा करें यदि आप वहाँ पर...’’

‘‘मर गईं तो ? लाशें जब निजाम उतरवाता तक नही तो पोस्टल ऐड्रेस की क्या.. ?’’

‘‘जरुरत है। घर पर खबर तो की जा सके।’’

‘‘वो...मैं माँ की उम्मीद नहीं मरने देना चाहती।’’ अब वह आँखें सिकोड़ कर चिरौरी करने लगी थी। 

‘‘आज़मगढ़़ ? मीरसराय...संजरपुर ? वहाँ की हो तो भी बता दो !’’ अधिकारी मुस्कुराया।

‘‘आप मुझे बेइज़्ज़त कर रहे हैं।’’ उसने खिड़की का सींखचा झटक कर थामा।

‘‘ऐसा क्या कहा मैंने ? आँ ? तुम्हारा दिमागी संतुलन चढ़ाई लायक नहीं। ठीक से खड़ी तक तो हो नहीं पा रही हो! लगातार हिल रही हो। विंडो से हटो। दोरजी! नेक्स्ट भेजो।’’ 

 उस लड़की ने खिड़की से फेंका गया अपना फार्म उठाया और बेंच पर बैठ गई। उसे शुबहा हुआ कि उसका दिमाग वाक़ई क़ाबू में नहीं क्या ? काले ग्लिटर पेन से फार्म पर लिखा दिखाई दिया-

 ‘ऊँचाई, आत्महत्या की भी जगह है।’

 यह मई का महीना है। ‘द्रौपदी पीक’ पर अन्तिम रुप से चढ़ने की अनुमति देने से पहले, पड़ोसी देश के माउंटेनियरिंग एजेन्सी के दफ्तर में, काग़जात की जाँच हो रही है। 

काग़ज पर इस चोटी का नाम एवरेस्ट है। पीछे के वर्षो में यह चोटी चार सेंटीमीटर बढ़ी है, इसका स्वभाव ‘क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा’ हुआ है और बहुत से पर्वतारोही समिट यानी चोटी फतह करने में असफल हुए हैं, मरे हैं। तब से, इस चोटी के लिए सूदूर उत्तरी तलहटी में प्रचलित नाम - द्रौपदी, लोकप्रिय होता चला गया है। उत्तरी तलहटी के बाशिन्दों का मानना है कि द्रौपदी यहीं की बेटी थी। वह ख़ूब ऊँचाई पर, भूल से चढ़ती गईं भेड़ों की रेहड़ अपने़ कंधे पर लाद लाती। नदी में पानी कम होने लगता तो बर्फ के पहाड़ उतार कर पटक देती। एक लकड़ी छिलती और सात लटके फल छेद देती। कुन्ती, माद्री के छः देवदार से लड़कों और कुन्ती के उस आबनूसी रंग भतीजे ने द्रौपदी को यहीं देखा था। 

एजेन्सी का सबसे अनुभवी शेरपा दोरजी, ग़ौर से उस लड़की को देख रहा था। सभी पर्वतारोहियों, लड़कियों के साथ तो ज़रुर ही, उनके माँ-बाप थे। यह लड़की भारत से ही अपना काम अकेले देख रही थी। क्लियरेंस मिल जाने पर उसके साथ बतौर शेरपा दोरजी को ही जाना था।

 ‘‘लड़की रो रही है, जाने दो उसे।’’ दोरजी ने उँगलियों में थूक लगाकर काग़ज पलटती, गिरे काग़जात और घिरे बालों को उठाती,‘‘मेरा बीएचयू...हिन्दूऽ यूनिवर्सिटी...का आईडी कहाँ गया ?’’ अगल-बगल बैठे अनजान लोगों से पूछती, उस लड़की को दिखा कर अधिकारी से कहा। 



 ‘‘तुम कबसे जीने के लिए जान लेने लगे दोरजी ?’’ एजेन्सी का वह अधिकारी दोरजी को बुश्शर्ट से अपनी ओर खिंचते हुए फुसफुसाया-

 ‘‘लड़की गिलहरी की तरह चलती है, पंजों पर चौंकती हुई। ’’ 

 ‘‘दोरजी! तुम सोलह बार समिट कर चुके हो। लड़की नटराज है कि नटिनी यह तुम जानो। तुम गारंटी लेते हो तो यह दरख़्वास्त मंजूर...वैसे भी, हमारी पहली और आख़िरी शर्त तो पूरी है।’’ अधिकारी ने नोटों से खुद को हवा की और हाँक लगाई -‘‘लाइए, क्या नाम...घूँघरु जी! काग़जांे पर मुहर लगा दूँ।’’ 

 ‘‘मेरे पाँवों में कंपन नहीं, थिरकन है।’’लड़की ने मुहर लगा काग़ज ले लिया, तब कहा।

 ‘‘चलो, चलो! नेक्स्ट...’’

 ‘‘श्रीमान! मैं नव-नागा सम्प्रदाय से पुरुषोत्तम दास!’’

 ऋचाओं के उच्चारण सी सम ध्वनि सुन कर दोरजी ने निगाह उठाई। वह एक युवा योगी था। उसकी पसलियों पर त्वचा, जड़ पर मढ़ी हुई छाल भर था। ध्यान-धूनी से, संन्यासी की आँखें बीमार पत्तियों सी थीं। आँखों के बीच में सफेद जाला जैसा पड़ गया था और वे कोरों की ओर लाल थीं। 

 ‘‘चढ़ाई का मक़सद ?’’ 

 ‘‘मक़सद नहीं प्रयोजन...हिन्दू धर्मऽध्वजा सबसे ऊँचा फहराना है।’’ 

 ‘‘उत्तम! अतिउत्तम! अब ठीक है न। अच्छा हाँ! आप की शेरपा शोमोलुंगमा हैं।’’

 ‘‘शोमोलुंगमा यानी पर्वतों की देवी! यह नाम तो स्त्रीलिंग है। मैं आजीवन कठोर ब्रह्मचर्य का संकल्पी हूँ!’’ जैसे गोमांस खाने का प्रस्ताव रखा गया हो इस तरह वह पीछे हटा।

 ‘‘हम अपनी महिला शेरपा को सिर्फ आपके साथ ही भेज सकते हैं।’’ अधिकारी की मुस्की में सम्मान था। 

 ‘‘किन्तु मैं स्त्री की छाया से भी दूर रहता हूँ।’’

 ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि ऊँचाई की ओर चढ़ता हुआ इंसान मौलिक होता है। उसकी कार्बन काॅपी या छाया नहीं बनती।’’ कोई आवाज घाटियों से आती प्रतिध्वनि सी थी। 

 युवा योगी ने घूम कर देखा। वह बर्फ के रंग की, पठार सा चपटा चेहरा, बगल से पहाड़ी रास्तों का कर्व, सामने से घाटियाँ और चोटियाँ थी। 

 ‘‘ज्ञान की बातें...एक पहाड़ी औरत के मुख से!’’ उसने मन में सोचा। और कहा-‘‘ आपद् काले आपद् धर्मः। ठीक है। विवशता है।’’ 



 द्रौपदी पीक पर जाने वाले इस इस दल का नेता दोरजी था। माउंटेनियरिंग एजेन्सी के गेस्ट हाउस में वे चारों ठहरे थे। दोरजी लगातार चढ़ाई की तकनीक और तैयारी की बातें समझा रहा था-

 ‘‘पशुपतिनाथ मन्दिर के पीछे सिर्फ माउंटेनियरिंग किट्स की दुकाने हैं। हम रघुमणि के यहाँ से जुमार, रस्सियाँ, क्रॅम्पास वगैरह खरीदने चल रहे हैं। ’’ 

 मन्दिर के पीछे की गली में पहुँच कर दोरजी ने गर्व से कहा-‘‘हमारे पूर्वज तेनजिंग, एडमण्ड हिलेरी भी इन्ही रास्तों पर चले थे।’’ कोई जवाब न पाकर दोरजी पलटा। योगी पशुपतिनाथ मन्दिर की ओर बढ़ चुका था और घुँघरु सौन्दर्य प्रसाधनों की दुकान में थी। दोरजी को ध्यान हुआ कि कल से दोनों बस हूँ-हाँ ही कर रहे हैं।

 ‘‘शोमा! इन दोनों को लेकर गेस्ट हाउस पहुँचो।’’

 वे चारों रात का खाना खाने के बाद, घास पर, चुपचाप बैठे थे। दोरजी को शोमोलुंगमा ने इशारा किया। दोरजी ने बात शुरु की-

 ‘‘दोनों मेरी ओर देखो! रघुमणि, सुबह जिसकी दुकान पर हम गए थे, वह तुम्हारे वतन का है। उसके बारे में इण्डिया में सभी यही जानते हैं कि वह चढ़ाई के दौरान मर चुका है। उन्नीस सौ निन्यानबे के साल, जिस साल भयानक एवलांशे...बर्फीला तूफान आया था, रघुमणि पूरा एक दिन बर्फ में दबा रहा। चढ़ाई के लिए तीस लाख रुपए का कर्ज़, गल चुकी नाक, हार का अपमान... वह लौट कर नहीं गया। यहाँ से बैठा वह शिखर को हसरत से देखता है। उसके घर वाले उसे खोजते रहे। हार कर इंश्योरेंस का पैसा ले लिए। कई साल बाद, उसके घरवालों को पता लगा कि रघुमणि जिन्दा है। तब तक वह पैसा खर्च हो चुका था। रघुमणि की तरह, कई देशों के लोग यहाँ पहचान बदल कर रह रहे हैं।’’

 ‘‘कहानी मत सुनाइए, स्पष्ट कहिए ?’’ योगी ने ललछौंही आँखें उठाईं।

 ‘‘तो सुनो स्पष्ट!’’ शोमा ने आवाज ऊँची की ‘‘तुम दोनों में जुनून नहीं है। चढ़ाई में तुम्हारे आगे हम रहेंगे। हम अगुआ नहीं, प्यादे हैं। तुम्हारी ढिलाई से हम मारे जाएँगे। ’’

 घूँघरु ने अंजुरी में पानी लिया। चेहरे पर कँपकँपाती उँगलियाँ फिराते हुए शोमोलुंगमा से कहा-‘‘मै डर रही हूँ। लेकिन मैं पार करना चाहती हूँ। माँ क़सम।’’ 

 ‘‘मुझे मृत्यु...मेरा आशय...मुक्ति चाहिए। वह वहाँ पहुँच कर ही मिलेगी।’’ योगी ने कहा।

 ‘‘तो तय रहा। कल हेलीकाप्टर से हम लुकला बाजार चलेंगे। उसके बाद हमें पैदल चलना है और ढाई महीने तक साथ रहना है। बेहतर होगा कि हम ज़िन्दादिली से रहें और आपस में बात करें।’’

 ‘‘मौत या जीत।’’ घुँघरु ने संकोच से कहा।

 ‘‘सिर्फ जीत।’’ शोमा ने दुरुस्त दिया। 

 चारों ने हाथ मिलाया। पोर्टरों ने याक पुचकारे, उन पर सामान बैठाया। और यात्रा आरंभ हुई।

 लुकला से आगे दाहिनी तरफ भुरभुरे पहाड़ हैं। जिन पर चरवाहे बकरियाँ चराते हुए नेपाली भाषा का गीत गा रहे थे-‘‘ हे शिव! तुम हमको साँस कम देते हो। हमारे लोग तुम्हारे पास चलते चले जा रहे हैं। हमारी खेती कौन करे, हमारे आदमी भेजो।’’

 चकत्तेदार गाल के बच्चे, पर्वतारोहियों के प्रत्येक दल के साथ, अपने गाँव की सीमा तक दौड़ते। इन बच्चों के लिए पवतारोहियों की जेब इलायची दाना से भरी होती। दौड़ते हुए बच्चों को देते समय कुछ दाने गिर ही जाते। तेंगबोचे मोनेस्ट्री तक का रास्ता तो चीटियों की क़तार बता देती है।

 याकों के गले की घंटियाँ सुनकर, पहाड़ियों पर खड़े तपस्वी, अपनी ओर निगाह खींचने के लिए खँखार लेते। पूँछ के नीचे फोड़ा लिए बेघर खच्चर, गर्दनें मोड़ कर इन्हें देखते और उदास हो जाते।


सातवें दिन शाम को वे तेंगबोचे मोनेस्ट्री पहुँचे हैं। 

 ‘‘यह जगह इतनी सुंदर है कि यहाँ से आगे जाने की इच्छा नहीं होती।’’ शोमा ने 12687 फीट की ऊँचाई पर गांधार शैली में बने तिब्बती बौद्ध मठ को देखते हुए कहा। क्रमशः दूर जाती हुई अमाडबलम, ल्होत्से और एवरेस्ट की ऊँची चोटी एक के पीछे एक यहाँ से दिखाई दे रही थी। ऐसा लग रहा था प्रकृति ने अपने सौन्दर्य का प्रथम द्वितीय तृतीय यहीं सजा दिया है। 

 दोरजी हँसे-‘‘मठ के भीतर यती... हिममानव की खोपड़ी भी रखी है, शोमा!’’ 

 शाम का अधूरा अँधेरा था। ‘‘ऊँ मने पद्मे हुम!’’ बौद्ध भिक्षुओं की एकजुट आवाज पसर रही थी। योगी समाधि के लिए एकांत में निकल गया था। सामने उठती-गिरती साँस वाली, साँवली इमजा नदी, उतान लेटी थी। 

 छपाक! 

 योगी की आँख धड़क कर खुली। इमजा नदी में खुली भुजाओं वाली एक शाख गिरी थी। ऐसे जैसे कोई मरगिल्ला लड़का बह रहा हो। लहरों में धक्के खाती वह दुबली शाख, योगी को अपने साथ ले गई- 



 ‘‘सुप्रभात ! इस महाकुंभ में आप का स्वागत है। सुबह के तीन बज रहे हैं। घना कोहरा बरस रहा है। मेले का सबसे बडा आर्कषण!...आज रहस्यमय नव-नागाओं का शाही स्नान होगा। नागा माने जो संसार में हैं ही नहीं...अनुपस्थित।’’ ऊँचे मचान से दूरदर्शन का आँखों देखा हाल जारी था।

 गंगा के सबसे सूने तट पर एक साधु के साथ एक नग्न किशोर गश्त कर रहे थे -‘‘अवधू बाबा! हमारे पास क्या है खोने को जो हम रोज रात को पहरा देते हैं।’’

 ‘‘पाने को तो है। कल पंचायत के बँटवारे में अस्मशान के पास का इलाका निरविकारी अखाड़े को गया है। सुना है किसी मारवाड़िन की अधफुँकी लाश पे तोले-तोले गहने मिले हैं मुर्दाखोर निरविकारियों को। माघ महीना तो अस्मशान का सहालग होता है। पूरे मुलुक से हेंई चले आते हैं मरने। निरविकारियों के लड़के तो जनानी मुरदों की राख ही छाना करते हैं। लेकिन हमारे नव-नागा अखाड़े को धन का नहीं, जन का लोभ है।’’

 ‘‘पर ये जगह तो निरजन है अवधू! गंगा मइया भी यहाँ गहरी हैं।’’ किशोर ने इतना कहा ही था कि... छपाक!

 ‘‘पुरुसोतमा! कूद! वो जो गिरा है ले आ !’’ अवधू बाबा ने उसे धक्का दे दिया था। 

 भँवर बनाती बैठती हुई वस्तु एक प्लास्टिक की बोरिया थी-‘‘अवधू बाबा! माघ के पानी में हमको कूदाए। बेकारे न! एतना भारी है! बस पाथर भरा है।’’

 ‘‘पत्थर फेंको...ताबड़-तोड़! मछरी होगी।’’ बाबा दोनों हाथों से खुद पत्थर निकाल रहे थे।

 ‘‘हम लोग तो शाकाहारी हैं बाबा!’’उसने इतना कहा ही था कि बोरे में नज़र आया...गुलाबी तलवा...मुँदी नन्हीं उँगलियाँ...काजर पारी मुलूर आँखें...ताजे कटे नाड़ का -‘‘बाबा लड़का!’’

 ‘‘नहीं मछरी।’’




 ‘‘भोले! मैं क्या करुँ ?’’ पुरुषोत्तम बच्चे को उल्टा करता.. पीठ पर थपकी मारता...पेट दबाता...उस नवजात के रोने की आवाज़ सन्नाटे में गूँजी। पुरुषोत्तम हँसा। कलेजे से लगाकर बुदबुदाया-‘‘छोटे...मेरे रहते तुम्हें कुछ नहीं होगा...मेरा बच्चा ! ’’

 योगी समाधि में चीख रहा था-‘‘छोटे ऽऽ...!’’ घाटियों से ठोकर खाकर लौटी अपनी आवाज़ से उसकी आँख खुल गई। 

 योगी की खोज में निकली शोमोलुंगमा सामने पहाड़ी पर थी। वह झट बैठी और पत्थर दिखने लगी।

 तेंगबोचे मोनेस्ट्री में दो दिन विश्राम करके वे निकल लिए थे। धीरे-धीरे हवा पतली होती जा रही थी। यह हवा इतनी आसानी से फेफड़ों में भर रही थी कि ग़़ुब्बारेपन का अहसास होता। आबादी विरल हो रही थी। ज़मीन, भुरभुरे पठार, फिर चट्टान...और अब चट्टान पर बर्फ की पतली परत आ गई थी। घंटियाँ, याकों के गले से सट गई थीं यानी कि अब बेस कैम्प के लिए खड़ी चढ़ाई शुरु थी।

 बेस कैंप का नज़ारा देख कर घुँघरु और योगी को भारी अचरज हुआ। मई-जून दो महीने के लिए वहाँ एक क़स्बा बसा हुआ था। दो हज़ार के लगभग तंबू थे। जेनरेटर मशीनें शोर कर रही थीं। सेटेलाइट से मौसम की एक्युरेट जानकारी के लिए बड़े-बड़े डिस्क लगे थे। पर्वतारोही कनेक्टिविटी न मिलने पर ज़ोर-ज़ोर से बातें कर कर रहे थे। किचन टेन्ट से मसालों और मांसाहार की महक उड़ रही थी। सूचना टेन्टों से ‘हलो...वेदर ब्राडकास्टिंग...’चढ़ाई और मौसम के हाल का प्रसारण हो रहा था। विश्व के कई देशों के लोग कहवा पीते हुए आपस में हँसी-ठिठोली कर रहे थे। 

 ‘‘यहाँ तो पशुपति मन्दिर के जैसी भीड़ है।’’ योगी ने शोमोलुंगमा से कहा।

 ‘‘वहाँ डर कर पाँव में झुके लोगों की भीड़ रहती है। यहाँ डर पर पाँव रख कर खड़े होने वालों की भीड़ है।’’शोमा ने फर्क बताया।

 ‘‘चारों तरफ आसमान से थोड़े ही नीचे तक ऊँची...खरबों टन बर्फ से ढकी चोटियाँ...बीच से झाँकती उघड़ी चट्टाने...बर्फीली हवाओं का शोर...जैसे फटी सफेद धोतियों वाली... काली पड़ गई वृन्दावनी विधवाएँ...कीर्तन गा रही हों।’’ योगी अवसाद में जा रहा था।

 ‘‘पुरुषोत्तम! यह सफेदी,यह ऊँचाई...प्रकृति अपने सर्वाधिक पवित्र और महान रूप में है।

 ‘‘महानता कैसी ! जो मुझे तुच्छता का भान करा रही है।’’

 ‘‘जैसे माँ की गोद में बच्चे।’’

 ‘‘शोमोलुंगमा जी! आप उपदेश बहुत देती हैं।’’ योगी ने होठ सिकोड़े।

 ‘‘सोचो, तुम नव-नागाओं के प्रवचन से लोगों का क्या हाल होता होगा।’’

 सवा महीने के साथ में योगी आज पहली बार हँसा था। ‘‘इस योगी से मेरा सिर्फ व्यावसायिक रिश्ता है।’’ यह मन में दुहराते हुए भी शोमा अपनी चोर नज़र उस पर टिकाए थी। 

 पहाड़ियों से छोटी-छोटी बर्फ की ढेरियाँ पिघल कर गिरने लगीं थीं। 

 ‘‘चलो घूँघरु, योगी, शोमा! अपने-अपने टेन्ट लगाओ। ’’ दोरजी ने पोर्टरों की मदद से याक पर लदे सामान उतारते हुए आवाज दी।

 किचन, डाइनिंग, स्टोर और सबके स्लीपिंग टेन्ट लग गए थे। बावर्ची को छोड़, सभी पोर्टर, याकों के साथ विदा हो गए थे। माहौल में ज़मीन छूटने की उदासी, नई दुनिया की उत्तेजना और ‘‘आगे क्या होगा ?’’ इस सवाल से तटस्थ दिखने की कोशिश थी। वे कहवा पीते हुए चोटियों का सौन्दर्य निहारने के बहाने उसे नाप-तौल रहे थे। दोरजी को याद आया कि एक औपचारिकता तो अभी बाक़ी रह गई है।

 ‘‘पुरुषोत्तम जी! कोई आपका अपना हो, नहीं तो जो आपका प्रायोजक है...उसको ही बता दीजिए कि आप यहाँ तक सकुशल पहुँच गए हैं। क्योंकि अब आगे... सब ठीक ही होगा...पर कोई भरोसा नहीं। ’’

 ‘‘प्रधानमंत्री ने दिए हैं... सत्तर लाख रुपए...फोन करुँ क्या उन्हें ?’’

 ‘‘अरे नहीं-नही!’’ शोमा समझ गई कि ‘कोई आपका अपना हो’, यह बात योगी को बुरी लग गई है। लेकिन इस घूँघरु का क्या मामला है ? इतने दिन में घूँघरु ने सिर्फ एक बार अपनी माँ से बात की है। वह भी याद दिलाने पर, और पिता से तो वह भी नहीं। ‘‘घूँघरु!’’ शोमा ने सेटेलाइट फोन घूँघरु को थमाया।

 ‘‘हाँ अम्मी!’’ कहने के साथ ही घूँघरु को अपनी पीठ पर दोरजी और शोमा की चिपकी हुई आँखें दिखीं। वह सँभलते हुए आगे बढ़ी और आवाज़ को कठोर बना लिया-‘‘हाँ माँ! मैं बेस कैंप पहुँच गई हूँ।’’ उधर से ‘‘मेरी गुड़िया!’’ कहा ही गया था कि ‘‘आवाज़ साफ नहीं आ रही है।’’ कह कर घूँघरु ने फोन काट दिया। एक और फोन मिलाया। उधर से किसी ने कहा-‘‘अहमद दिस साइड। ओ,यू! सब ख़ैरियत है न! घूँघरु, तुम्हारे सामने आसान रास्ते भी थे। खै़र...गुडलक!’’

 सुबह के चार बजे थे। घूँघरु, बर्फ की पत्थर बन चुकी ढेरी पर बैठी थी। शायद...बर्फ की घाटियों में पहली मर्तबा सोने से उसे नींद नहीं आई थी। चलते रहने के कारण पिंडलियाँ, गर्म तवे पर भीगे चने सी फड़क रही थीं। उसने निजात पाने के लिए चारों ओर देखना शुरु किया। छोटेपन का अहसास हरगिज़ कहाँ है ! जमीन पर का बांस भर ऊँचा सूरज आज उसकी बराबरी पर जलवाफरोश हो रहा है। अरे! बर्फ की छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ कैसी गुलाबी हो रही हैं... जैसे उस दिन रंगरेज ने राम चारों भाई और सहबालों के लिए, स्वयंवर का गुलाबी साफा, ऊँचे-नीचे सरकंडो पर पसारा था। मुँहअँधेरी रात के चाँद-तारे...राम की बारात में शरीक होने के लिए लालटेन लिए भागते आते केवट-भील।

 और टूटते तारे! ये झरते बेला हैं। मुझे देखती अम्मी के नूर चेहरे पर...ओह माँ! मुझे कल पूरी रात नींद नहीं आई-

 ‘‘घुँघरु! हौले शाख़ झकझोर! सारे फूल मेरे चेहरे पर गिरा रही है, जंगली! हाँ इतने से बढ़िया गजरा बन जाएगा। चल आ उतर! घर की राह धरें।’’

 दो मकान पार करते फिरदौस, शबनम और सुन्दरी कतार से खड़ी होकर उबटन मल रही थीं।

 ‘‘घूँघरु की अम्मी!.. उबटन में क्या-क्या डालती हो ? प्यारी कहो जरा! मुखड़ा नये पत्ते की नाईं निकल आया है तुम्हारा।’’ फिरदौस ने गले पड़ी अपनी झुर्रियाँ दिखाते हुए पूछा। 

 ‘‘मोटी हो गई हूँ न फिरदौस! उससे गाल तो तन गया मगर पेट पर सिलवटें आ गई हैं। जाने कौन सी बीमारी ने जकड़ा है... हर समय मुँह चलाते रहने का मन होता है।’’

 ‘‘जे तभी तो मैं पान कूचती रहे हूँ।’’

 ‘‘अच्छा, चलती हूँ। घुँघरु के अब्बा को चाय की तलब लग रही होगी।’’

 ‘‘कि कुछ और की तलब है!’’

 ‘‘हट् बेशरमो! बेटी साथ है...कुछ तो लिहाज़ करो।’’

 ‘‘अपनी भूल गईं। बात-बात पर कहा करती थीं-तवायफ रसूलपुर अजोध्धा का झूला। खाली करादें गिन्नी का झोला।’’

 वे अपने दिन और जलवे याद करके ज़ोर-ज़ोर से हँस रहीं थीं।

 नवाब गाज़ीउद्दीन हैदर का दारोगा बशीर बड़ा क़ाबिल था। वह अपने आका को एक यादगार तोहफा देना चाहता था। वह तोहफा क्या हो, इस पर बशीर ने कई बरस तक सोचा, और फिर उसने रसूलपुर की बुनियाद रखी। रसूलपुर में बसाने के लिए हिन्दोस्तान-तुर्कीस्तान से सुन्दरियाँ छाँटी जाने लगीं। छँटाई के वक़्त तीन बातों को तरजीह दी गई। एक कि उस कमसिन की कमर बशीर की मुट्ठी में आ जाए। दूसरा, उसके चेहरे पर नमक और राई यानी कि चमक और तिल हो। तीसरे कि जयदेव, जायसी, ग़ालिब, घनानन्द और तुलसी को गाने के लिए तलफ़्फ़़़ुज़ साफ हो। 

 बाकी, कथक की घुमरियाँ तो बशीर की तर्जनी सिखा देगी।

 रसूलपुर बस जाने के बाद, अपने बादशाह के कहे से, बशीर ने राम जनम के मौक़े पर झूला मेला का रिवाज शुरु किया। जो पचासों साल से नौ दिन का बदस्तूर जारी है। रसूलपुर की रक़्क़ासाएँ अपने को राम की साली कहती हैं। और इस पद से राम को गाली गाने का हक़ मानती हैं। रसूलपुर की यह हनक थी कि यहाँ की किसी बाई को बेटे के ब्याह में नहीं नचाया तो यह मुहावरा चलन में था-

 ‘‘रसूलपुरवाली से टीका नहीं किए तो जानो सब फीका किए।’’ 

 बीसवीं सदी के आखि़री दशक में राम पर दावेदारी बढ़ने लगी। जिस झूला मेले में सिर ही सिर दिखते थे वहाँ किसिम-किसिम की अफवाहों से आमद घटने लगी। 

 रसूलपुर अंडाकार बसाया गया है। बीच में मैदान है और हर-एक घर के आगे चबूतरा है। इस चबूतरे पर बैठी वे झूला मेले के शाम की तैयारी कर रही हैं- 

 ‘‘इग्यारह महीने पान के कत्थई दाँत इग्यारह दिन में क्या सुफैद होंगे गुलबदन।’’ नाम तो कुछ और था लेकिन दिन भर गुल करके पड़ी रहने के कारण उसका नाम गुल बदन पड़ गया था।

 ‘‘अमरो! सदके राम के, ये तेरी घूँघरु है। नज़र उतारुँ, कैसी पाकीज़ा सूरत बच्ची है।

 ‘‘इसी की फिक्र है। नींद हराम है गुलबदन!’’

 ‘‘नींदें तो हम सबहीं की हराम हो गई हैं। तुम तो जाने हो जोड़ों को गठिया चाप दिया है। पिछले साल कथक की तत्कारों के लिए पाँव जमीन पे मारती, राम! वो दरद फुंकारता कि समूची देह झनझना उठती। पब्लिक साली का क्या, अदा समझ कर ‘गजब,मार डाला!’ चिल्लाती थी।’’ 

 ‘‘इस बार नाचना नहीं। भौंहों की मुरकियाँ देना औ बैठी-बैठी गज़ल गा लेना।’’ 

 ‘‘बैठने का तो क़िस्सा सुनो! निकहत जान की पिछले साल माहवारी बन्द हुई। वो बेचारी सदमे में आ गई कि अब तो मैं चुक गई। मंच पर बैठी रह गई। पब्लिक जाने लगी तब उसने... आज जाने की ज़िद ना करो...यही तो रुआँसी हो कर गाया था। पब्लिक लौट आई कि गले में कैसी रुह को आर-पार करती पीर है। हमारी सज़ा तुम्हारा मजा!’’ कह कर गुलबदन सूखी आँखें पोंछने लगी।

 कोने वाले टीले की सलमा इन्हें देख कर यहीं आ गई थी। उसके हाथ में कई नाप की अंगिया थी। बाजार में जो अंगिया मिलती है, उसके कप में अब उनका सीना नहीं बैठता। गीले मैदे की तरह बगल से फैल कर निकल आता है या आगे लुढ़क आता है। पतली पट्टियों से पीठ का मांस हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की नाईं दो भाग में थुल्ल से बँट जाता है। सलमा घर पर ही बड़े कप और चौड़ी पट्टियों की अंगिया सिलती है। रसूलपुर में अब यही पहना जा रहा है।


‘‘क्या करें, अपनी बेटियों को उतारें क्या ? पढ़ाई लिखाई छुड़वा कर!’’ सभी धूप में खड़ी थीं।

 ‘‘बेटियों की न कहो। न दिल लगा के पढ़ रही हैं और न हमारे काम में आना चाहती हैं। बिन्नी की बेटी भी लौट आई न यूनीवरसिटी से।’’ वे अपनी साइज और नाप की अंगिया भी देखती जा रहीं थीं।

 ‘‘ये मरी घूँघरु भी, कहती है मुझे बहुत पढ़ना है। पर स्कूल जाने में ऐसी चोर है कि मार-पीट लो तब भी नहीं जाती।’’

 ‘‘बहुतेरी लड़कियाँ तो बम्बे निकल गई अपने यहाँ की। बार में नाचती थीं। वो भी बन्द हो गया। अब कहीं नवरात-ईद में हीरो-हिरोइन के पीछे काम मिल जाता है।’’

 ‘‘वो लोग तो नोट पर नोट रखने के लिए नाचते हैं। एक हम हैं कि एक रोटी पर दूसरी रोटी नहीं।’’

 ‘‘वे नाचें तो हीरोइन, हम नाचें तो रंडी। गरीब का सब काम ग़लीज़ है।’’ 

 ‘‘हमारी क़ौम-बिरादरी के बड़े...पढ़े लोग भी तो हमसे सिरफ बात करने आते हैं। हमारी ज़िन्दगी पे पिच्चर-पिच्चर...नाटक-नाटक खेल रहे हैं...बम्बई में नाम-नामा कमा रहे हैं...नखलऊ में रोटी-बोटी खा रहे हैं।’’ 

 ‘‘इसे कहते हैं दरद की दलाली।’’

 माँ के हाथों घिसटती जाती घूँघरु देख रही थी कि एक चाची अपनी फटी एड़ियों में मोम भर रही थी। कोई चाची सूख गए आल्ता की शीशी में बूँद-बूँद पानी डाल रही हैं, कोई चाची लटके गले को ढकने के लिए ज़रीदार पट्टे सिल रही हैं, कोई चाची...

 घर पहुँचते ही घूँघरु ने जो देखा सो माँ की हथेली से उँगलियाँ निकाल लीं-उसके अब्बू, बालू में ठंडी करने के लिए कोई बोतल गाड़ रहे थे-‘‘अमरो! तुमने गाना सोच लिया है न! थोड़ी पी लेना तो आवाज में सुरुर-खरज बना रहेगा।’’

 ‘‘यह क्यों नहीं कहते कि मेरी साँस कम उखड़ेगी।’’

 ‘‘तबला-ढोलक को धूप दिखा चुका हूँ। उँगलियों की नई सलाइयाँ बना रहा हूँ। देखना टन-टन बजेंगी!’’ 

 ‘‘तुम्हारी उँगलिया सूज गई हैं...पुरानी सलाइयाँ काम भी न करेंगी। इस बार मेले में कुछ मिले तो तुम्हारा लंबा इलाज कराऊँ।’’

 घूँघरु मुँह ढक कर लेट गई थी। एकदम से उसकी नींद खुली। फटे दुपट्टे में से उसने देखा कि अब्बू कभी आलाप, कभी दुहराव लेकर बड़ा बेसुरा गा रहे हैं। अम्मी ने अब्बू के बाँधने के लिए मारकीन का साफा पीले रंग में रंगा था। उसी से मुँह ढापकर मक्के के फूटते दानों जैसी हँस रही थीं।

 ‘‘रहने भी दो घूँघरु के अब्बू! पब्लिक भाग जाएगी।’’

 ‘‘साफ सुन लो अमरो! मैं बीच-बीच में गाऊँगा।’’

 ‘‘नहीं, हरगिज़ नहीं!’’

 ‘‘अमरो! भड़की हुई पब्लिक, तुम गाओगी तो चुप हो जाएगी लेकिन तुम्हारा दमा उखड़ गया तो... मुझे गाने देना।’’ 

 ‘‘नौटंकीबाज कहीं का!’’ घूँघरु ने मन ही मन अपने बाप को गाली दी। ‘‘माँ की इतनी ही क़द्र थी तो महल छोड़ के रसूलपुर तबलची बनने क्यों आया...माँ को महल में ले जाता न!’’

 अम्मी मुँह फेर के लहँगा निकालने लगी थीं-‘‘मैं तैयार होने जा रही हूँ। तुम जानते हो मुझे समय लगता है।’’

 अम्मी हर साल सिर्फ ज़री बदल देती हैं। पुराना लहँगा चमक उठता है। अम्मी ने अपने झाड़ू जैसे बालों को परांदा और मोटे गजरे से सँवार लिया। चोटी आगे करके लहँगे की मसकी हुई सिलाई पर टिका रही हैं। ऊपर चढ़ी जा रही चोली खींच कर थायरायड के कारण कमर में पड़ी सिलवटों को ढक रही है।

 ‘‘बस, इज़्ज़त के नाम पर सब ढकती रहो...ऐसा बुज़दिल बाप मिला है!’’ वह बड़बड़ाई और झूला में जाने के लिए उठ गई।

 आज नवमी के दिन पंडाल में सबसे ज्यादा भीड़ थी। वह सारंगी पर थी। सारंगी की आवाज़ से उसे रुलाई आ रही थी। 

 अम्मी ने कबीर निरगुन से इब्तिदा की-‘‘नइहरवा हमका ना भावे नइहरवा। साईं की नगरी परम अति सुन्दर...अति सुन्दर!’’ तबले के साथ पाँव की जुगलबंदी के लिए उन्हें मशक़्क़त करनी पड़ रही थी। 

 ‘‘अमरो जान! भजन नहीं, रंजन हो रंजन। सवा तीन बजे आना मुन्नी पान की दुकान पे!’’ गमछा लपेटे लौंडों की एक टोली ने फरमाइश की। उनकी देखा-देखी सब चिल्लाए-‘‘हाँ,हाँ! सवा तीन बजे मुन्नी!’’ 

 कमाल के सुर वाली अम्मी इस प्रस्ताव पर एकदम से चुप हो गईं। मेरी ओर देखीं-‘‘इसीलिए कहती हूँ कि पढ़-लिख लो।’’

 फिर पब्लिक से मुखातिब हुईं-‘‘मैं राम के छठीहार से जुड़ा अवधी का एक लोकगीत सुनाती हूँ। जिसे मैंने ख़ास आपके लिए, राग मिश्र असावरी और ताल चाचर-दीपचन्दी में बाँधा है। 

 रसिक जनो! घने पेड़ की छाया में एक हिरनी अनमनी खड़ी है-‘छापक पेड़ छिहुलिया के पतवन अति गहबर हो/ ताहि तर ठाड़ि हिरनिया त मन अति अनमन हो।’ उसका हिरना पूछता है कि- हिरनी! आज तुम क्यों मुरझाई हुई हो ? इस पर हिरनी बताती है कि रानी कौशल्या के बेटे का आज छठीहार है। दावत में मांस पकेगा। इसके लिए आज वे लोग तुम्हें मार डालेंगे। हिरनी, मचिया पर बैठी रानी कौशल्या से अर्ज करती है-‘मचीयहीं बइठल कोसिला रानी से हरिनी अरज करे हो/ रानी, मसुआ तो सीझेला रसोइया खलरिया हमें दिहतू न हो/ रानी, हिरि फिरी देखहूँ खलरिया हिरनो मोरे जिअतहि हो।’ रानी कौशल्या इतनी दया करतीं कि हिरना की खाल उसे दे देतीं। वह हिरना की खाल को घूम-फिर कर देखेगी और मानेगी कि उसका हिरना उसी में जीवित है। रानी कौशल्या हिरनी को खाल देने से मना कर देती हैं-‘‘जाहु-जाहु हरिनी अपना घरे खलरिया नाही देहब हो/ हरिनी, खलिरि के खजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलहिंन हो/ जब जब बाजहिं खजड़िया सबद सुनि हरिनी बहँकई हो/ हरिनी ठाड़ि ढेकुलवा के नीचे हिरनवा के बिसूरई हो। 

 ...साहिब लोगो! जब-जब हिरना के चाम से मढ़ी खजड़ी, राम बजाते हैं, ढेकुल के नीचे खड़ी हिरनी अपने हिरना की आवाज पहचान कर बहक जाती है...बिसूरने लगती है।’’ 

 भीड़ में सनाका छा गया। एक घड़ी बाद एक बोली सुनाई दी-‘‘निकली मुसलमान ही न! देखो राम जनम का सोहर गाते कैसा हिचकी बाँध के रो रही है!’’

 ‘‘ई सठिया गई है। इसकी लौंडिया पढ़ती है बारहवीं में...हम दोस्त-यार रस्ते में रुमाल बिछाए खडे़ रहते हैं उसके लिए...कई दिन से स्कूल नहीं आई...ऐ बूढ़ी! भेज उसे।’’ 

 ‘‘अरे, तवायफ की बेटी कहीं पढ़ गई तो अदा दिखा के सुर्रर्र से चढ़ जाएगी।’’

 अब्बू सिर नीचे किए अंधा-धुंध धप्...धप् तबला पीट रहे हैं। कई नौजवान हनुमान सेना के बन्दरों की तरह मंच पर धम्...धम् चढ़ने लगे हैं...एक ने माँ के दो सफेद बाल झटके से नोच लिए हैं... लहराता हुआ, हँसता हुआ सबको दिखा रहा है...एक मेरी ओर बढ़ रहा है...अब्बू ने मेरी सारंगी से तार खींच लिया है...मेरे आगे दोनों हाथ उठाए खड़े हैं...उनके हाथ से खून टप्..टप्...! 



 ‘‘घुँघरु! साँस खींचो...सिर घुटने से बाहर निकालो!’’ दोरजी घूँघरु को सीधा करने के लिए खपच्ची की तरह अपनी देह लगा कर उसे भींचे हुए था। एक पर एक बैठे दाँत चम्मच से खोल रहा था। घुँघरु एकदम से रोई। दोरजी मुस्कुराया। बेस कैम्प के डाक्टर ने बताया कि किसी डर की वजह से दिमाग की ओर रक्त प्रवाह बढ़ गया था।

 सुबह हुई। सैकड़ों लोग कुल्हाड़ी लिए नज़दीक की बर्फ की चट्टानों के पीछे जाने के लिए निकले। दूर जाना ख़तरनाक था। बर्फ से मल ढक दिया जाता। धूप तेज़ होती तो पीली लहर, बरास्ते ग्लेशियर, नदियों में गिरती। योगी को धक्का लगा। कई संत, हेलीकाप्टर से मँगवा कर यह पानी पीते हैं।

 शोमा ने वहाँ कुल्हाड़ी मारी जहाँ बर्फ की पपड़ी छूट रही थी। इकहरी परत के नीचे पानी था। बैटरी से चलने वाला राॅड शोमा ने पानी में डाल दिया। बर्फ के टब में आठ दस मग्गे गर्म पानी निकल आया। एक नहाती तो एक पहरा देती। कैम्प में कंघी करते हुए घूँघरु हँस रही थी। बाल, सूखी घास जैसे कड़े हो गए थे।



 ‘‘तुम ऐसे ही खूब हँसा करो।’’ दोरजी ने इत्मीनान की साँस लेते हुए कहा।

 ‘‘मेरे गार्जियन मत बनिए।’’ घूँघरु बिला वजह नाराज हो गई। थोड़ी देर बाद उसने कहा-‘‘सॉरी दोरजी!’’ 

 नाश्ते में चिकन सूप प्लेट में डालते ही ठंडा हो जाता। वे तीनों गर्म-गर्म पीने के लिए होड़ लगा कर पी रहे थे। और अपने बचपने पर हँस रहे थे। योगी अकेले अपने तंबू में था। सामने कटोरे में रखा मिल्क पाऊडर का घोल जम रहा था। अचानक उसे लगा कि तंबू के बाहर किसी स्त्री...शोमा की छाया है। वह मंत्र पढ़ना छोड़ कर, ऊपर चढ़ आई पैंट ठीक करने लगा।

 तीसरे दिन शोमा से नहीं रहा गया-‘‘योगी! तुम सिर्फ फल और दूध पर हो, क्यों ? ’’

 ‘‘क्योंकि मैं पोर्टर का छुआ नहीं खाऊँगा। वह मांसाहार बनाता है।’’

 ‘‘इस बर्फ में मांसाहार ज़रूरी है। फल और दूध पर तो तुम मर जाओगे।’’

 ‘‘जीव मांस खाकर जीवित रहने की अपेक्षा मैं मरना पसंद करुँगा।’’

 ‘‘ओफ्फो! ऐसे तो तुम्हारा खाना मुझे बनाना पड़ेगा।’’ 

 ‘‘अतिरिक्त धन ले लेना। और मेरा भोजन तैयार करने से पहले दो बूँद गंगाजल अपने ऊपर छिड़क लेना। मेरे सामान में गंगाजल है।’’

 ‘‘यहाँ तक आते-आते एक सेब एक हज़ार रुपए का पड़ता है। तुमने तीन दिन में जितना सेब खाया है, मैं सिर्फ उसीका हिसाब लगाऊँ तो कंगले हो जाओगे, समझे! बड़े आए अतिरिक्त धन देने वाले!’’

 योगी ने लाठियों-लातों की मार खाई थी। मगर ऐसी डांट नहीं खाई थी। वह अपना योगीपन भूल कर शोमा को देखने लगा-‘‘शिव! क्या यह दृष्टि-भ्रम है ? शोमा की काली आँखों पर नीला आसमान...कत्थई पुतलियों पर पीला सूरज है !’’

 ‘‘लड़ने में ताक़त मत जाया करो। हमें खूंबू ग्लेशियर निकलना है।’’ दोरजी की पुकार पर वे ट्रैकिंग सूट पहनने के लिए तंबुओं में चले गए। घूँघरु और शोमा, चेहरे पर सनस्क्रीन लोशन की मोटी परत लगाना नहीं भूली थीं।

 खूंबू ग्लेशियर पार करते हुए, घाटी के दोनों ओर बर्फ की चट्टानें, ऊँची चहारदीवारी की तरह खड़ी मिलती हैं। इससे घाटी में हवा बाहर ही रुक जाती है। सिर पर सूरज बहुत नज़दीक और सीधे चमक रहा था। घाटी में भयानक गर्मी से त्वचा जल रही थी, साँस फूल रही थी और आँखें चौंधिया रही थीं। पाँव के नीचे बर्फ पिघल कर बह रही थी जिससे फिसलन हो रही थी। कगारों पर बर्फ के विशाल छज्जे-से लटके थे। वासुकि फन जैसे उन झुके छज्जों के सिर पर गिरने और दब जाने का डर था। ग्लोबल वार्मिंग से बर्फ तेज़ी से पिघली थी और कहीं-कहीं चट्टानें निकल आईं थीं, जिन पर चढ़ाई अधिक जानलेवा थी।

 दोरजी, बिल्ली की तरह पाँवों की उँगलियाँ मोड़ कर पहले थाह लेते कि बर्फ पोली तो नहीं। फिर पूरा पाँव जमा कर आगे बढ़ते। इस तरह कई घण्टों में वे कुछ ही क़दम बढ़ पाते। पीछे से तीनों, दोरजी के पाँव के निशान पर पाँव रखते। शोमा देख रही थी कि आसन-प्राणायाम के बावजूद, योगी सबसे पीछे था। 

 अचानक घूँघरु ठमक गई। वह चीखने ही जा रही थी कि शोमा ने लपक कर उसका मुँह दबा लिया। और इशारा किया कि ध्वनि-तरंगों से जरा-मरा टिके छज्जे दरकने लगते हैं।

 उनके ठीक सामने, भूकंप में ज़मीन फटने जैसी कई किलोमीटर लंबी और गहरी दरार थी। उस दरार में लटका हुआ कोई ऊपर झाँक रहा था। उसका एक हाथ, पकड़ कर खींच लिया जाए, इस आस में हवा में फैला हुआ था। अपनी मृत्यु देखती उसकी आँखों की फटी पुतलियों पर और खुले मुँह में बर्फ भरी थी।

 ‘‘यहाँ क़दम-क़दम पर देहें-रुहें दबी हैं। मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा। धूप से जब दरारें चिटकती है तब ये जिस्म दिखाई देने लगते हैं, खेत में कटी रखी फसल की तरह। दरारें जब सिमट कर बन्द होने लगती हैं तब इनका भुरकुस बन जाता है। हड्डियों का चूरा नदियों में बह जाता है।’’

 ’’गंगा में भी ?’’ 

 ‘‘सबसे ज्यादा।’’

 ‘‘एवरेस्ट विश्व की सबसे बड़ी मर्चरी...लाशघर है।’’

 ‘‘फिर भी यहाँ हर साल हज़ारों लोग आते हैं।’’

 ‘‘क्योंकि जान देकर खेलने से ही ज़िन्दगी मिलती है।’’

 ‘‘लौट चलो, बादल लामबंद हो रहे हैं।’’ दोरजी का निर्देश हुआ।



 ‘‘मेरी धीमी गति के कारण...आज हम कम चले।’’ दोरजी के टेन्ट में गैस स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा था। किनारों से निकलती लपटों से हाथ सेंकते हुए वे चारों बैठे थे।

 ‘‘नहीं, नहीं! पहले दिन इतना ठीक है।’’ घूँघरु शव देख कर घबराई हुई थी। 

 ‘‘देवी शोमा का एक उपदेश है-पीठ पर कितना भी भार हो, चढ़ जाओगे। मन पर हल्का भी बोझ हो तो चढ़ाई में साँस उखड़ने लगती है।’’ शोमा की दिल्लगी पर योगी मुस्कुराया नहीं, सिर झुका लिया।

 ‘‘कल लहोत्से वाॅल की सीधी चढ़ाई है। समय से सो जाओ तुम लोग।’’ दोरजी ने तीनों को उनके तंबू में भेज दिया।

 रात के सन्नाटे में बड़े-बड़े शिलाखण्डों के खिसकने, अर्राते हुए टूटने-चिटकने, बर्फीले अंधड़ को काटते हुए गिरने, सतह पर टकरा कर बिखर जाने, सबकी मिली-जुली रौद्र ध्वनियाँ आ रही थीं। संन्यासी ने अपने तंबू की जालीदार खिड़की से आसमान देखा-आकाश गंगा की दूधिया लहर पटफेरा दे रही थी। जैसे मथानी से दही फेटा जा रहा हो। उसने स्टोव पर बर्फ पिघलाया। गुनगुने पानी से हाथ मुँह धोया और लौ धीमी करके ध्यान में बैठ गया-



 ‘‘पुरुषोत्तम भइया! आज हमको धूप बहुत अच्छी लग रही है !’’ 

 ‘‘हाँ छोटे! माघ की बारिश आज जाकर रुकी है। सुना दो कल्पवासिनी मर चुकी हैं।

 ‘‘वो बात मत करो भइया! डर लगता है।’’

 ‘‘अरे छोटे! वो देख, कंबल बबवा को...आज फिर बैठा है हजार छेद वाला कंबल ओढ़े!’’

 ‘‘ये माताएँ भी..एकदमे बऊक हैं...यह घाट सूना है न! आगा-पीछा देखे बिना.. नहाती जा रही हैं...नहाती जा रही हैं।’’

 ‘‘बलिहारी इनकी बुद्धि! भीगे पाँव बूढ्ढे के पास से गुजर रही हैं...पाय लगी कर रही हैं...उसके कटोरे में सिक्के डाल रही हैं।’’

 ‘‘पुरुषोत्तम भइया! आज बबवा ने दर्पण भी रखा है रेत के ढूह पर टिका कर...वो क्यांे ?’’

 ‘‘उसमें उस किनारे की माता-बहनें दिख रही हैं।’’

 ‘‘बहुत बड़ा हरामी है ये कंबल बबवा...मान गए!’’

 ‘‘देख तो छोटे! चार जनानी उस के पास बैठ गई हैं। मारेगी क्या इसे ? चल जरा पास चल के देखें। बबवा मारा जाए तब न मजा है!’’ 

 ‘‘हे डम!डम!’’कंबल बाबा डमरू बजाते हुए कह रहा था-‘‘इस दर्पण में तुम्हारे सब का भवितब्य दिखेगा। इसमें झाँको मैं बताता जाता हूँ!

 ‘‘चारों एक साथ झाँकें बाबा जी ऽऽ ?’’ उन पूरबिहा औरतों ने लहरा कर पूछा।

 ‘‘अवश्य... शिव...शिव! मेरे बचन पर ध्यान दो-‘‘तुम्हारा आदमी अपनी भौजाई का पालतू है और तुम पर शेर बनता है...जब से तुम ब्याह के आई तुम्हारे पाँव से ससुराल के दिन फिरे...तुम्हारी सबसे अच्छी सखी तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन बनेगी...तुम्हारी जेठानी इलजाम धरती हैं कि जब तुम दिशा-मैदान के लिए जाती हो उसी समय तुम्हारे जेठ भी लोटा लेकर क्यों निकलते हैं... सास कहती हैं कि तुम अपने कुँवारे देवर को दिन-रात दोनों टैम संगे रखो...उस बुरबक को कुछ ‘सिखाओ-पढ़ाओ’...तुम इजलास पे खड़ी होकर गवाही दे आओगी तो भी मरद कहेगा नाक न हो तो औरतें बिष्टा खा जाएँ... तुम्हारा आदमी रोज की तरह तुम्हें धुनने के लिए हाथ उठाएगा... तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँगें और जिस दिन उसका हाथ मरोड़ देंगे...उस दिन से तुम्हारा आदमी तुम्हारे पाँव छूने लगेगा। बस! बाकी के लिए कल आओ।’’ 

 ‘‘पंडिजी! आप हम सब औरतन के लिए एक ही बात कह रहे हैं!’’

 ‘‘दुनिया में औरतों का भाग्य और सब्जीमंडी में सब्जियों का भाव एक बराबर होता है। काहें कि सब सब्जी वाले मिल कर तय कर लेते हैं। कोई दाम बिगाड़ने वाला हो तो उसे जात बाहर किया जाता है।’’ 

 ‘‘आप कहे कि मेरा लड़का मेरे आदमी को मारेगा ! अइसा कइसे कहे ? मुँह में जाबी लगाइए। ’’

 ‘‘ए मनबिगड़ा पाँड़े! हमारी किसमत एक है न! तो दच्छिना भी एक, येलो-बड़का ठेंगा!’’ 

 ‘‘रउरा मुँह में काले चींटे वाली भेली (गुड़) ए साधुजी!’’ 

 ‘‘बुझा रहा है मेहरिया अहीर के साथे भाग गई है तब शोग (शोक) में साधु बन बैठे हैं ये!’’

 ‘‘उधर देखो नागा बालक लोग। वो लोग सही-सही भखौती करेंगे।’’ उन पराग कणों को अपनी ओर उड़ते आते देख वे दोनों भागे। दूर बालू में धँसे...खूब हँसे। वे दोनों अपने नव-नागा महामंडलेश्वर बाबा नागेन्द्र के प्रवचन से खिसक लिए थे। राह पड़ी सुतली कमर में बाँधे, उसमें चिरकुट फँसाए और आगे के हिस्से पर कैसहूँ टिकाए-ढके थे। 

 देवता लोग बूढ़े नहीं होते। इस कारण सभी पंडालों में, मुख्य गद्दी पर, तेल पी हुई त्वचा का किशोर ही बैठा था। पंडालों के बाहर लिखा हुआ था-वास्तविक शंकराचार्य, आदि शंकराचार्य, मुख्य शंकराचार्य, अर्वाचीन शंकराचार्य...मूल शंकराचार्य...फलाने पीठ के शंकराचार्य ढमकाने पीठ के...का पंडाल। स्वागतम्।

 ‘‘गुरु भाई! वो देखो सीता की विदाई हो रही है-

‘सीता चली ससुरार...रोएँ जनक जार-जार...कि नईहर छूटा हो।’’ 

कोई गेरुआधारी मंच से हिचकी ले-लेकर गाने के बाद कह रहा था-

‘‘माता जानकी को अपनी श्रद्धा से विदाई दें।’’ 

रेजर से दाढ़ी-मूँछ बनाने के बाद भी, छूटी खूँटियों वाला माता जानकी बना लौंडा, पंडाल में घूम रहा था। और चिढ़ रहा था कि ये मरी औरतें नेटा ज्यादा छीनक रही हैं, उसके आँचल में नोट कम डाल रही हैं।

 हरियल तोता से पत्ती निकलवाकर भाग्य बाँचने वाला साधु सड़क किनारे बैठा था। उसके पास मर्दो के लिए जितने कार्ड थे, उन सभी पर सिर्फ एक ही पंक्ति छपी थी-‘‘मेले में मनपसंद स़्त्री से एकांत में भेंट का अवसर!’’ इस बात पर मानुख दो रुपये की पीतल की अँगूठी दो सौ में लपक कर खरीदते।

 बड़े छाप की फूलों वाली नई साड़ी पहनीं, झोर की झोर औरतें, उस तोते वाले के पास बैठी थीं-‘‘पहले हमको बताइए मुन्ना रो रहा है...हमारे ये बुला रहे हैं।’’ वे हल्ला कर रहीं थीं। ‘सौभाग्य पत्ता’ निकालने के लिए वे तोते की चोंच छूकर उसे चुमकार दे रही थीं। तोता बौरा कर, पूँछ दुमदुमाता हुआ, दाएँ-बाएँ भागने लगता। तोते वाला दो रुपए दच्छिना माँगे तो भी-‘‘आप साधू हैं कि मलखान सिंह डाकू ?’’ ऐेसी बात चट् से कह देतीं। 

 ये जनानियाँ उसे कुछ भी कहती रहें, तोते वाला इस समय अपने को इन्द्र मान रहा था। उसकी निगाह, घुटनों से दब कर ब्लाउज से छलक-छलक बहरियाते अमृत कुंड पर थी। वे झट् ताड़ गईं। उस तोतेवाले के दोनों पंजों के बीच, मारकीन की झिल्ली धोती में, जमीन तक लटकती उसकी पोटली को कनखियों से एक दूसरे कोे दिखाईं और पान खाए दाँतों में पल्लू दाब कर बगलवाली के कान में कहीं-‘‘तोता भी-फोता भी!’’ 

 तोते वाला सुन कर सनक गया- ‘‘भागो! तुरत भागो यहाँ से तुम लोग!’’

 ‘‘छमा बाबाजी! बस एक बात, पइसा-कौड़ी कैसे होगा ? गरीबी...’’

 ‘‘इस बीमारी का इलाज बरम्हा के पास भी नहीं। मेरे बगल बैठो। मेला भर तो रोटी मैं ही दे दूँगा...बलाउज-साया भी।’’ तोते वाले को मौक़ा मिला। 

 ‘‘दुत्त रे ! छिनरा साधू !’’ वे अब जाकर भगी हैं वहाँ से।

 ‘‘ऐ चूड़ीवाले!’’ चूड़ीवाला चूड़ियाँ पहना रहा होता तो कहतीं -‘‘टैमे लेके...हाथ ठीक से थामिए...आहिस्ता दाबिए जी...हड़बड़ी में काहे हैं।’’ वहीं मेले-ठेले के रेले में किसी मर्द से हाथ छू भर जाए तो उसकी तेरी-तैसी करने पर उतर आतीं। 

 ‘‘बाल बिरहमन !’’ हाथ की जलेबी मुँह में रख के वे भरत को घेर लीं और कच से उसके पाँव पर गिर पड़ीं-‘‘बाबा! जिस पटीदार से मुकदमा लड़ रहे हैं उसके खलिहान में आग लग जाए। आपको नई लंगोट पहनाऊँगी !’’ 

 ‘‘बालक बाबा! हमारी सास हमारे और हमारे उनके बीच खटिया डाल के सोती है। आप तो देवता हैं...आपसे कहे में क्या लाज। गरीब के पास बेऔलादी दूर करे का और कौनो उपाय कहाँ है। अमीर-उमरा तो सुना शीशी-बोतल में भी संतान बो के जमा ले रहे हैं। बाबा! ऐसा जुगाड़ बइठे कि मेला से लौटूँ तो सास का मरा मुख देखने को पाऊँ।’’




 छोटू उनसे पाँव छुड़ा कर अपने पंडाल की ओर भागा। पुरुषोत्तम उसे पीछे से देख रहा था-‘‘मेरी चुरकी जितना ही था। कितनी जल्दी सोलह साल बीत गए।’’ 

 नव-नागाओं के डेरे सबसे किनारे बसाए गये थे। उधर की ओर आम-जन का प्रवेश प्रतिबन्धित था। भरत और पुरुषोत्तम अपने पंडाल में झुकते-छिपते घुसे और अवधू के पास कोने में बैठ गए। महामंडलेश्वर का संबोधन जारी था-‘‘आर्यावर्त में जब मुसलमानों का शासन हुआ तब हमारे पूर्वजों ने जिन्दा रहते अपना श्राद्ध किया, घर छोड़ा, कपड़े नदी में बहाए...और धर्म रक्षा के लिए हथियार उठाया। हम मुसलमानों से लड़े... अंगे्रजो से लोहा लिया...माहौल तैयार करके अपने आदमी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया। किन्तु वह ‘पूर्ण हिन्दू राष्ट्र-पूर्ण स्वच्छ गंगा’, हमारी इस माँग पर शीघ्रता नहीं कर रहा है। हम समझ गए हैं कि धर्म-युद्ध अकेले ही लड़ना है। इस हेतु हमने नव-नागाओं का अपना संगठन तैयार किया। कल के शाही स्नान के पश्चात हमारी आर-पार की लड़ाई शुरु हो रही है। दो-चार आत्माओं का हवन हो सकता है। आप सब तैयार हैं ?’’

 ‘‘प्राण देकर...प्राण देकर!’’ कई हज़ार नव-नागा त्रिशूल और फरसा उठा कर चिल्लाए। 

 ‘‘धन्य-धन्य! अब आप भोजन-भजन कीजिए। हमें कार्यकारिणी के पदाधिकारियों के साथ विशेष मंत्रणा करनी है।

 वह और छोटे, वरिष्ठ नागा पदाधिकारियों को भोजन करा रहे थे। पदाधिकारियों की बातें उनके कान में पड़ रही थीं-

 ‘‘पाप की संतानों से आपको क्यों आपत्ति है महामंडलेश्वर ? कोई हिन्दू अपनी संतान नागा साधु बनने के लिए नहीं चढ़ा रहा है... तो हम क्या करते ? हार कर हमने प्रशासन के कुछ लोगों से करार किया। आप तो जानते हैं खोए बच्चे...चुराए बच्चे...मेले में माँ के हाथ से हाथ छुड़वाए बच्चे... ये सौ में बारह ही घर पहुँच पाते हैं। बचे अट्ठासी कहाँ गए ? हमने उन्हें समझाया कि अंग प्रत्यारोपण के बाद इनकी मुलायम बोटी नालों में डाली जाए, भिखारी बनाने के लिए इनके पाँव आरा मशीन तले रखें जाएँ, अरबी शेखों का ये चूतड़ मलें, इससे अच्छा आप दो-चार को हमें दे दीजिए...धर्म कार्य से अपना इहलोक-परलोक सुधारिए।

 ...आप जानते हैं, हमारा दूसरा कदम यह है कि वे कुमारी और विधवा कन्याएँ, जो गर्हित आचरण से गर्भवती हो जाती हैं और जिन्हें उनके परिजन किले की तरफ पानी में ढकेल देते हैं या मेले में छोड़ जाते हैं, उन्हें हम अपने आश्रम में रखते हैं। जन्म लेते ही उनके बच्चों को उनसे ले लेते हैं और उन पतित स्त्रियों को जंगल में छोड़ दिया जाता है।’’

 ‘‘मैं कहता हूँ कि जंगल में क्यों छोड़ा जाए। हमारी सहायता करने वाले अधिकारियों में कई साँड़ भी होंगे। उन्हें बुलवा कर इन औरतों को गाभिन कराया जाए...’’

 ‘‘अभागिनों के लिए प्रायश्चित का यह विधान उचित लग रहा है... धर्म कार्य के लिए उत्पादन करने पर उनका पाप कटेगा। अब देखिए! पुरुषोत्तम और भरत ये दोनों ऐसी ही किसी स्त्री की संतान हैं...कितनी सेवा करते हैं हमारी।’’

 ‘‘आज इन्हीं दोनों का लुंचन संस्कार है न ?’’ महामंडलेश्वर ने पूछा।

 भरत का हाथ काँप गया। फूल के भारी कलछुल की दाल महामंडलेश्वर की तोंद पर गिर गई। भरत बहुत कमजोर है। वह पेट में आया होगा तब उसकीे माँ शायद खाना छोड़ कर रोती रही होगी।

 ‘‘इस भरत में दम नहीं। यह पुरुषोत्तम गुरु सेवा में अवश्य प्रवीण है। और हाँ, मैं कल एक घोषणा करूँगा।’’ बाबा नागेन्द्र ने गंजेड़ी आँखों से भरत को घूरा।

 गुरु सेवा का मतलब था-दिन में कई बार गुरु लोगों के बदन पर रगड़-रगड़ कर भभूत मलना। भांग की चिलम भर-भर देना। दिन भर अग्नि-कुंड सुलगाते रहना। माघ-कंुभ में नंगे बदन रहने वाले बाबा इस तरह अपने को गर्म रखते थे। उबियाए जवान नागा, बड़े-बाबाओं से ऐसे बदला लेते कि सुट्टा मार के चिलम जूठी कर देते या हुक्के के पानी में चुपके से थूक मिला देते।

 नव-नागा शिविर के बीच महाबीर जी का बांस गड़ा था। रोज रात में इस बांस के नीचे ढोलकें बजनी शुरु होतीं। ढोलकें पूरी उठान पर होतीं तब मेला-भूमि समझ जाती कि कोई किशोर लुंचन करता हुआ...अपने हाथों अपना शिश्न खींच-खींच कर नसें तोड़ता हुआ...चीत्कार करता जा रहा है।

 भरत बांस पकड़े हिम्मत जुटा रहा था। पुरुषोत्तम छुट्टी पाना चाहता था। उसने आँख बन्द की, साँस ली, जय भोले कहा और घसियारिन जैसे अपने खेत की ज़हरीली घास नोचती है...ढोलक उठान पर... शिश्न शाख पर मरे हुए सँपोले की तरह झूल गया। भरत एक बार झटका देने के बाद ही जमीन पर गिर पड़ा था। सिद्धेश्वर बाबा पास आए थे-‘‘चलो पानी में पेशाब करो।’’

 ‘‘पानी यहाँ कहाँ... गंगा में ?’’

 ‘‘हाँ।’’ 

 ‘‘ठीक, पानी लाल हो गया है। आज से तुम दोनों विधिवत् नव-नागा। चलो देव प्रणाम-गुरु प्रणाम...के बाद भभूत और खीर ग्रहण करो।’’

 शाही स्नान के लिए नव-नागाओं का लंबा जुलूस निकल रहा था। वे जटाओं पर और गले में गेंदे की कई-कई लंबी मालाएँ पहने थे जिससे तोंद और नंगई कुछ ढक पाई थी। प्रशासन इनसे डरता था और विशेष सावधान था। 

 दो मोटे साधुओं ने लपक कर दुबले-पतले भरत और पुरुषोत्तम को कंधे बैठा लिया। उनके दोनों पाँव आगे खींच लिए और चिल्लाए-‘‘नारा लगाओ...बरसो मेरे भोले शंकर...किरपा बनकर किरपा बनकर।’’ दोनों साधु जोश में लगातार सिर झटक रहे थे। भरत और पुरुषोत्तम के कुचले हुए अंगों में रक्त आ गया। दो किशोरों की भर्राई-रोनी-पतली आवाज़ अलग से गूँज रही थी- ‘‘तन मन बोले। बम बम भोले। ’’ नागाओं का जोश बढ़ चला-‘‘बालक भावविह्ल हो रहे हैं!’’ 

 हज़ारों नव-नागा डुबकी लगा रहे थे। जैसे ह्वेल मछलियाँ खेल रही हों। एकाएक महामंडलेश्वर नागेन्द्र, देह खुजलाते हुए पानी से बाहर निकले। उनके बदन पर चकत्ते उभर आए थे। वह हाँफते हुए उद्घोषकों के लिए बनाए गए मचान पर चढ़ गए। माइक छीन लिया-‘‘मुझे सुन रही माताओं! मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि अपना एक पुत्र हमें दें। हम आपके बालक को राष्ट्र-निर्माण, धर्म-संस्कृति पुनरुत्थान के लिए तैयार करेंगे। अपने लिए तो पशु भी जी लेते हैं। आप स्वयं देखिए कि गंगा जो हमारी पहचान है... वह कैसी मैली हो रही है। देखिए कि कानपुर में... भैंसांे के चमड़े ये मुसलमान जानबूझ कर गंगा में धोते हैं...पिशाब कहीं भी लगी हो आकर गंगा में करेंगे...हम अब ये सब सहन नहीं करेंगे।

 ...मेरे शिष्य भरत ने अभी-अभी गंगाजल अँजुरी में लेकर अन्न-जल त्याग का संकल्प लिया है। यह आमरण अनशन...प्रधानमंत्री स्वयं अपने हाथों जल पिलाएँगे...तब ही टूटेगा।’’

...शिष्य भरत! मचान पर आओ।’’ भरत दोनों पाँव फैलाए मचान पर चढ़ रहा था। भीड़ में से उचक कर उसे देखती औरतें चिन्ता में पड़ गईं-‘‘इतनी नाजुक उमर...इसकी माँ कैसी कठकरेजी रही होगी...भला अपना बच्चा कोई देता है...गंगा मइया रच्छा करना।’’

 रात में नव-नागाओं की समीक्षा बैठक हुई-‘‘महामंडलेश्वर! आपने एक धोबी पाट से सभी अखाड़ों को चित्त कर दिया। सभी समाचार पत्रों ने हमें ही छापा है।’’

 ‘‘प्रधानमंत्री को कृतघ्नता का दंड मिलना चाहिए।’’

 ‘‘भक्तों! शिव अनुकंपा है। अब आगे की रणनीति यह है कि एक बूँद और एक दाना भी भरत के मुख में न जाए। भरत के साथ पुरुषोत्तम को रखो। वह भरत को मरने नहीं देगा। एक जिम्मेदार नागा हर समय पहरे पर खड़ा रहे। मीडिया और प्रशासन हमारे पल-पल पर दृष्टि गड़ाए रहेगा। स्मरण रहे, तनिक भी लापरवाही न होेे।’’ महामंडलेश्वर बाबा नागेन्द्र, आदेश देकर सन्ध्या-पूजन के लिए उठ गए।

 आज अनशन का बारहवाँ दिन था। दो थंुबी गंगा में, दो रेत में गाड़ कर, उस पर बांस का चचरा बनाया गया था। चचेरे के नीचे तक आती मछलियाँ, भरत और पुरुषोत्तम को देख कर घूम जा रही थीं। भरत के बदन पर चर्बी नहीं थी जो इस भूख में अपने को गला कर उसकी मदद करती। वह बिजली गिरने से जले हुए ठूँठ जैसा दिखाई दे रहा था। 

 ‘‘छोटे! मेरा बच्चा! बस कल तक। अखबार में तुम्हारे बारे में छपा है- ‘‘बिगड़ रही है नव-नागा भरत की दशा।’’ आगे लिखा है कि मंत्री और कलक्टर कल तुमसे मिलने आएँगे। कल सब ठीक हो जाएगा!’’ निश्चेष्ट भरत ने ‘हाँ’ कहने के लिए पलकंे झपकाईं। पपड़ी पड़े होंठों की धारियों में रक्त की पतली लकीर जमी थी। पुरुषोत्तम ने भरत का सिर अपनी गोद में रखा था। वह भूख-नींद भूला कर जाप करते थका नहीं था-‘‘जय गंगा जी सदा सहाय...।’’

 ‘‘छोटे! मैं भजन सुनाता हूँ...गंगा मइया हर लो पीर हमार...’’पुरुषोत्तम ने इतना गाया ही था कि भरत का बेजान बदन करंट से दागा जा रहा हो...इस तरह उछलने-कँपने लगा। पुरुषोत्तम ने अपना भी कंबल ओढ़ा दिया। अब क्या करे ? आज के पहरेदार अवधू बाबा इन दोनों बच्चों को पहचानते थे। इसलिए छोड़ कर दिशा-मैदान के लिए निकल गए थे। 

 पुरुषोत्तम को याद आया-‘‘छोटे! सम्हाले रहना...बस मैं आया.. नागेन्दर बाबा की धूनी का गरम प्रसाद मलता हूँ...गुरु भभूत से एकदम ठीक हो जाओगे।’’

 वह भागा। नागेन्द्र बाबा के कुंड का भभूत... प्रसाद की पुड़िया बना कर बाँटा जाता है। वह जल्दबाजी में अखबार हाथ में लिए दौड़ पड़ा था। उसमें मुट्ठी-मुट्ठी भभूत लपेटा...वापस। ‘‘जय गंगा मइया! बच्चे की जिनगी तुम्हारी दी हुई है! सदा सहाय!’’वह भरत के माथे-छाती पर भभूत मलता जा रहा था। भरत के होंठो पर भभूत झर कर गिरा। भरत, अपने होंठों पर जीभ फिरा रहा था...वह चाट रहा था। सामने अखबार पर ढेर सारा भभूत.. वह अखबार पर पलट गया था। अब भरत भूखे कुकूर की तरह भभूत चाट रहा था... पुरुषोत्तम उसे चुपचाप देख रहा था कि...

 ‘‘पुरुसोत्तमा!’’ वह ठंठी आवाज सुनकर पुरुषोत्तम का खून सूख गया।

 वह मुड़ा। बाबा नागेन्द्र, बाबा अवधू और बहुत से नव-नागा... पुरुषोत्तम को आज वे सभी पहली बार नग्न दिखाई दे रहे थे। 

 ‘‘भोर में मंत्री-पत्रकार आ रहे हैं। साथ में डाॅक्टर होगें...जाँच होगी...तो अनशन पर बैठे नागा के पेट में क्या मिलेगा पुरुसोत्तमा ?’’ 

 भरत की इन्द्रिया इतनी कमजोर हो चुकी थीं कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वह ‘चट्...चट्’ अभी भी भभूत चाट रहा था।

 ‘‘महामंडलेश्वर का यह भभूत पीसा हुआ बादाम-अखरोट है पुरुषोत्तम...राख तो सिर्फ रंग के लिए मिला दिया जाता है।’’ अवधू बाबा ने बैठ कर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए इस तरह से कहा जैसे अब कुछ नहीं किया जा सकता। 

 ‘‘अवधू! तुम्हीं पहली बार भी बचाए थे!’’ पुरुषोत्तम गिड़गिड़ा रहा था। अवधू के इशारे को पकड़ कर पुरुषोत्तम अब बाबा नागेन्द्र के बाएँ पाँव पर मत्था रगड़ रहा था। 

 ‘‘लाओ तुम्हें सीधा कर दूँ भरत!’’ कहते हुए बाबा नागेन्द्र ने भरत के पेट के नीचे अपना दाहिना पैर घुसाया। ‘‘जहाँ से आए थे। वही जाओ। पुनः मूषको भव।’’ महामंडलेश्वर नागेन्द्र का हाथी-पाँव उछला और तेरह दिन का भूखा प्यासा भरत हवा में।

 उल्टा उछाले गए भरत की आँखें अपने पुरुषोत्तम भइया को देख रहीं थीं...‘भइया! तुम्हारे रहते...तुम्हारे रहते भइया!’ उसके खुल गए मुँह से राख खून लार...भरत की ओर देखती...पुरुषोत्तम की आँख में चू रहा था...

 छपाक! 



आधी रात को शोमा ने दोरजी को जगाया। योगी अपने तंबू में नहीं था। शोमा झुकी, सतह पर कान लगाया, किसी आवाज की थाह ली और खाइयों की दिशा में बढ़ी। खाइयों की ढलान से ठीक पहले, योगी दिखा। उसका पाँव बर्फ में धँस गया था। वह थोड़ी-थोड़ी देर पर चीख रहा था-‘‘मेराऽऽ बच्चा!’ ज़रा-ज़रा सी आवाज पर गिरने वाली शिलाएँ, इस चीत्कार पर सहम कर जम गई थीं। 

 आज ल्होत्से वाॅल की चढ़ाई स्थगित कर दी गई थी। घुँघरु ने खाली दिन का सदुपयोग किया। वह रैपर, डिब्बे, बर्तन, पुराने तंबू वगैरह बटोर कर सरकारी कैम्प में पहुँचा रही थी। ‘वे एण्ड पे’ स्कीम के तहत कबाड़ तौल कर पैसे मिलते। वैसे तो, यह सामान वापस लाने के लिए नीचे सिक्योरिटी जमा कराई जाती थी। लेकिन पैसे वाले लोग ख़ू़़ब चढ़ते और कबाड़ यहीं छोड़ कर उतर जाते। 

 शोमा ने घूँघरु को इशारा किया कि वह योगी को काम में लगाए। 

 ‘‘योगी भैया! बाहर आइए! चढ़ाई से कठिन है चढ़ाई के लिए पैसे जमा करना।’’ घूँघरु ने एक टूटे हेलीकाॅप्टर का डैना खींचने में योगी से मदद माँगी।

 ‘‘चढ़ाई से कठिन है चढ़ाई के बारे में लिखना-कहना। क्योंकि ज़मीन के लोग हमारे डर की... संघर्ष की कल्पना नहीं कर सकते हैं।’’ दोरजी ने घूँघरु की बात काटी।

 योगी ने गंभीरता से पूछा-‘‘घूँघरु! तुम्हें पैसों की जरुरत न होती तो तुम ये कूड़ा बटोरती ?’’

 ‘‘हाँ भाई, ऐसे तो सोचा नहीं।’’ 

 पिछले बीस दिनों में, बेस कैम्प से कैम्प तीन तक, वे कई बार रोटेशन कर चुके थे। यह दल वातावरण से एक्लेमेटाइज हो गया था। शरीर और मिज़ाज, इतनी ऊँचाई तक के लिए अनुकूलित हो चुके थे। सूचना तंबू से यह ख़बर जारी हुई कि तीन दिन के लिए ‘विंडो’ है। यानी चढ़ाई के लिहाज़ से तीन दिन मौसम खुला रहेगा। 

 ‘‘कल सुबह हमें फाइनल पुश के लिए निकलना है। कैम्प एक, दो, तीन में हम थोड़ी देर रुकेंगे। परसों दोपहर तक हम जेनेवा स्पर होते हुए साउथ कोल यानी ‘डेथ जोन’ में पहुँचेंगे। डेथ जोन छब्बीस हजार तीन सौ फीट की ऊँचाई पर है। हम वहाँ से आधी रात को समिट...फतह के लिए निकलेगें। समिट के तुरन्त बाद कैम्प तीन तक लौट कर ही आराम करना है। एक रात डेथ जोन में और बाइस-तेईस घण्टे लगातार चलना। वह भी पीठ पर ज़्ारुरी सामान, भारी कपड़े, वज़नी जूते और आॅक्सीजन मास्क के साथ। अपने को तैयार रखिए।’’ दोरजी ने बैठा कर समझाया। 

  बेस कैंप पर धीमी गति से नाच कर पूजा हुई। दोरजी ने बत्तख के मांस का चूरा और राई सबके सिर से घुमाकर खाई में फेंका। फाइनल यात्रा शुरु हुई।

 आज की रात वे डेथ जोन में हैं। शोमा और दोरजी उन्हें मानसिक रुप से तैयार करने के लिए थोड़ा-थोड़ा रोज याद दिलाते रहे हैं-‘‘इस जगह को डेथ जोन इसलिए कहा जाता है क्योंकि वहाँ शरीर का प्रकृति से एक्लेमेटाइजेशन या समायोजन पूरी तरह से बन्द हो जाता है। यहाँ पहुँचते ही शरीर अपने आप नष्ट होने लगता है। दो या तीन दिन आप डेथ जोन में रह गए तो विज्ञान की सारी तैयारी के बावजूद बैठे-बैठे मर जाएँगे। जैसे पतझर के मौसम में पत्तों को झरने से कोई नहीं बचा सकता।’’ 

 डेथ जोन और उसके ऊपर आॅक्सीजन शून्य क्षेत्र है। आॅक्सीजन मास्क के बिना आदमी वैसे ही साँस लेता है जैसे ज़मीन पर अस्थमा अटैक का मरीज़-‘‘यह टट्टी-पेशाब के लिए रेस्टटाॅप बैग है। इसे लोअर यानी पैन्ट की अन्दरूनी जेब में रखिए।’’

 ‘‘अब असली लड़ाई-असली चढ़ाई। एक कदम उठा...हवा में जीवन-मौत। एक कदम रखा...बर्फ में जीवन-मौत! ’’ दोरजी पल-पल सचेत करते रहते।



 वे चारों, कांटो वाले जूते बर्फ में गड़ाए खड़े थे। दोरजी ने हथेली हवा में उठा कर दबाव नापा-‘‘ अस्सी किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ़्तार है..जेट स्ट्रीम हवाओं की। तंबू तान लें। सावधान! हम सेकेंड के सौंवें हिस्से की लापरवाही से उड़ सकते हैं।’’ 

 तंबू के डैने फड़फड़ा रहे थे, कीलों पर पड़ने से ऐन पहले हथौड़ी थामा हाथ, हवा में मुड़ जाता...बदन को जर्क भी न लगे...तंबू लगाने में वे थक गए। तंबू में जाने से पहले घूँघरु ने एक नज़र चारों तरफ देखा-‘‘सही कहा गया है कि डेथ जोन विश्व का सबसे ऊँचा जंकयार्ड...कबाड़घर है।’’ समिट से लौटे, थक चुके पर्वतारोही बहुत सारा सामान यहाँ छोड़ कर उतर जाते हैं। वहाँ कई फटे तंबू थे। खाली सिलेंडर हवा के साथ खड़-खड़ करते डोल रहे थे। एक कैम्प से किसी पर्वतारोही का काला पड़ा पाँव बाहर निकला था। शोमा ने बताया कि किसी तम्बू में कोई कई साल से बैठा है... कोई लेटा है। 

 इस दल को एक ढाल पर जगह मिली थी। वे चित्त लेटे थे। जरा भी दाएँ-बाएँ हुए कि नीचे। इसलिए बड़ी कीलें, फ्रेम की तरह भी गाड़ी गई थीं। शोमा और दोरजी ने तय किया कि वे घूँघरु और योगी के साथ, उन्हीं के तंबू में रहेंगे। यहाँ आॅक्सीजन कमी से मतिभ्रम हो जाता है। ‘पता नहीं ज़िन्दा रहूँगा कि नहीं ?’ इस तरह की बात दिमाग़ में ज़रूर आती है और आरोही अपने अतीत में चला जाता है। उसी में कभी उसे लगता है कि वह ज़मीन पर है। वह उठ कर चलने लगता है और दरारों में गिर जाता है।

 ‘‘आप सो लीजिए।’’ दोरजी ने घूँघरु के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

 घूँघरु ने स्लीपिंग बैग पर हाथ मारते हुए कुछ पूछा। दोरजी ने समझाया कि स्लीपिंग बैग के नीचे की बर्फ गलती है तो पिचक जाता और बर्फ ऊपर से झर कर भर जाती है तो बैग फूल जाता है। 

 ‘‘इस फूल-पिचक में कोई कैसे सोएगा ?’’ घूँघरु मुस्कुराई। 

 सहसा घूँघरु को बाहर किसी के चलने और जूतों से बर्फ पर रास्ता बनाने के लिए ठोकर मारने की आवाज़ आई। उसने मास्क हटा कर कहा-




 ‘‘क्कोई है...खुले में...मर जाएगा।’’

 ‘‘वो मर चुका हैं। तुम सो जाओ!’’ 

 ‘‘मास्क से होंठ पर खुजली हो रही है।’’

 ‘‘जिससे चढ़ने की हिम्मत मिली है, उसके बारे में सोचो।’’ कहते हुए दोरजी सहजता से घँूघरु के होंठ खुजलाने लगा। घूँघरु को इत्मीनान हुआ।

 ‘‘अहमद...अहमद...दोरजी...’’ वह सो रही थी।

 ‘‘तुम लोग हर साल आते हो। डर नहीं लगता ?’’ योगी ने शोमा से पूछा। क्योंकि मास्क और टोपी से उसका चेहरा ढका हुआ था। वह स्त्री नहीं दिख रही थी। 

 ‘‘जिस हठ योग को आप साधना कहते हैं, वह हमारी रोजी है। आप संत हम शेरपा। आप फार्मर हम छोटी जोत के किसान। मौत हमें डरने की भी मोहलत नहीं देती। इधर खट्-उधर पट्!’’

‘‘हमारे लिए भी साधना, रोजी ही है।’’ कहते हुए योगी ने आँखें बन्द कर लीं। बाहर जेट स्ट्रीम हवाएँ, शिला खण्डों पर माथा पटकती...बर्फ की चट्टान लुढ़काती.. ऐसे दौड़ रही थीं जैसे उस रात- 

 उस रात, धारदार फरसा लिए नव-नागा चिल्लाते हुए शहर में दौड़ रहे थे- ‘‘नव-नागा श्री भरत ने जल समाधि ले ली है। सरकारी संवेदनहीनता से आहत... भरत ने जल समाधि ले ली...!’’ मुँह से जलती चिलमें निकाल वे दुकानों-मकानों में फेंकते जा रहे थे।

 सभी धर्म गुरु इसे संतन की उपेक्षा मान कर मैदान में आ गए। प्रशासन को ऊपर से आदेश था कि किसी तिलकधारी को छूना भी नहीं है। वे नगर फूँकते हैं तो फँूकने दो। हर-एक गुरु के देश भर में सैकड़ों पाँव पूजने वाले हैं। नगर की जली...कटी जनता के मुँह पर मुआवजा मारो। 

 अगले दिन ‘धर्म विजय’ जूलूस निकला। गृहमंत्री की बाबा नागेन्द्र से बात हो गई। तय हुआ कि प्रधानमंत्री स्वयम् घाट पर झाड़ू लगाएँगे। एक ‘भरत-कोष’ की स्थापना होगी, जिसके अध्यक्ष बाबा नागेन्द्र होंगे। इस कोष में करोड़ो रुपए गंगा सफाई अभियान के लिए जमा होगा। गंगा स्वच्छता के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए, एक युवा को द्रौपदी पीक पर भेजा जाएगा।



 ‘‘घूँघरु...ओ घूँघरु! उठो। पुरुषोत्तम...रेडी हो जाओ! हमें बारह बजे निकलना है।’’ दोरजी ने आवाज़ दी। 

 आॅक्सीजन मास्क, दो आॅक्सीजन सिलेण्डर, काॅफी, गर्म पानी का थर्मस, सूखे मेवे वगैरह और माथे पर कोयला खदानों वाली हेडलाइट...‘‘हम तैयार हैं!’’

 ‘‘एक बार फिर याद दिला दूँ...रात में मौसम स्थिर रहता है। सूरज निकलने के साथ ही बड़ी चट्टानें पिघल कर अपनी जड़ें छोड़ने लगती हैं। समुद्र का पानी गर्म होकर हवा का दबाव बनाता है और मौसम बिगड़ने लगता हैं। इसलिए सुबह पाँच बजे हमें वापसी के लिए मुड़ जाना है... किसी भी दशा में। दो ही आॅक्सीजन सिलेण्डर इसलिए कि पाँच बजे के बाद ठहरने की कोई गुंजाइश न रहे। यहाँ ग़लती सुधारने का मौक़ा नहीं। इसलिए सौ प्रतिशत भूल रहित काम।’’ 

 घूँघरु रुक कर पढ़ने लगी कि बर्फ पर खरोंच कर लिखा था-‘‘समय की क़द्र करो। अमर करने वाली दवा एक्सपायरी डेट के बाद खाओगे तो ज़हर होगा।’’ घूँघरु ने चारों तरफ देखा। सभी उससे दूर निकल गए थे। और तारे इतने पास थे कि लग्गी लेकर झहरा दो तो महुआ के फूल की तरह टपक गिरेंगे। बादल, ग़ुब्बारे की तरह सतह से टकरा कर उठ रहे थे। 

 उनकी निगाह अपने पैरों पर थी। वे थाह लेकर पाँव रखते, गर्दन सीधी करके लंबी साँस लेते फिर अगला पाँव रखते। ठीक इसी तरह एक-एक क़दम बढ़ना था। हेडलाइट्स एक निश्चित तरीके और तय अंतराल से ऊपर नीचे होतीं। 

 तापमान माइनस चालीस डिग्री सेल्सियस था। रुकना मना था। रुकते ही बदन का रक्त जमने लगता है। और तीस सेकेण्ड में मौत हो जाती है। अजीब है! सारे आधुनिक कपड़े, यन्त्र- फिर भी चलते रहना ही ज़िन्दा रखेगा। हाँ, यह भी-‘‘तेज मत चलना। तेज चलने से बदन का तापमान इतना बढ़ जाता है कि नसें फटने लगती हैं। ध्यान रहे- सम पर चलना है।’’ 

 ‘‘जीवन की महीन सच्चाइयाँ जो ज़मीन पर ओझल रहती हैं, द्रौपदी पीक पर उन्हें खुल कर खेलते देखोगे।’’ शोमा ने यह बात कही थी।

 द्रौपदी पीक के ठीक पीछे पूरा चाँद था। सामने देखते हुए योगी हकीकत भूल रहा था और उसे यह गाढ़ा भ्रम हो रहा था कि वह चाँद पकड़ने जा रहा है। 

 शोमा को अपने पीछे बर्फ चरमराने की आवाज नहीं आ रही थी। उसने आशंका से पीछे मुड़ कर देखा। योगी ने, चोटी पर घूम कर जाने वाली रस्सी पकड़ ली थी। वह रास्ता छोटा पर बहुत जोखिम भरा है। वह चिल्ला नहीं सकती थी। चिल्लाने पर बोतल का आॅक्सीजन एक झटके में खत्म हो जाता। बादलों का गुच्छा बीच में गिरा और योगी दिखाई देना बन्द हो गया।

 योगी ने दाएँ-बाए देखा। शोमा कहीं नहीं थी। हाँ, सामने की छोटी पहाड़ी के पीछे उसे कई आदमी...पाँच-छः रहे होंगे... रस्सी पकडे़ दिखाई दिए। अकेला पड़ गया योगी ख़ुद से बात करने लगा-‘‘इतने लोग उसके आगे हैं तो वह सही रास्ते पर है...महाजनो येन गतः स पंथाः। ये खड़े हैं, लगता है सुस्ता रहे हैं। मेरे लिए तो रास्ता छोड़ दें! मैं इन से विनती करता हूँ।’’ योगी ने अपने आगे के आदमी के कंधे पर हाथ रखा-

 ‘‘श्रीमान...कृपया..!’’ योगी के पाँव के पास भरभरा कर वह आदमी गिरा। टैªकिंग सूट में उसकी हड्डियाँ अपने हर जोड़ से धीरे से अलग हो गई। उसका सिर टूट कर, टोपी सहित ढलान पर लुढ़कने लगा। टैªकिंग सूट में वे छः लोग...जैसे अरगनी पर क्लिप के जरिए सूट टँगा हो...उनके अपने ही पंजे क्लिप थे...मरे हुए छः आदमी दशकों से खड़े थे। 

 हेड लाइट की रोशनी बर्फ में फैलती नहीं, जज़्ब हो जा रही थी। योगी सीटी बजाती आवाज़ में साँस खींचने लगा। उसके जबड़े से छातियों तक की नसें, छाते की तीलियों सी तनने-सिकुड़ने लगीं...सफेद बर्फ पीली दिखाई देने लगी। वह छः सूट के पीछे सातवाँ खड़ा हो गया। वह ज़मीन से यही सोच कर चला था कि यह शिव धाम है। यहाँ मरने से मुक्ति है...पर मरते हुए वह तड़प रहा है, अतृप्त है, रो रहा है- क्यों ? 

तभी किसी ने उसका मास्क उतार लिया। कौन है ? इसके चारों ओर बर्फीली हवा चक्राकार नाच रही है... देवी द्रौपदी तुम स्वयं आई हो ! क्या ? चुटकियों से झोंका लाती हो और तुम पर पड़े अनगिन पाँव के निशान खत्म...तुम स्त्री हो...चिर सुन्दरी...चिर कुमारी...अक्षत यौवना...तो तुम यह सब मुझसे क्यों बता रही हो...मैं ब्रह्मचारी हूँ।

 शोमा ने योगी का मास्क उतार कर उस पर गर्म पानी डाला। उसके मास्क के पाइप का आॅक्सीजन जम गया था। उसने योगी का थूथन दबाकर मुँह में गर्म काॅफी डाली और कान में चीखी-‘‘घोंटो...भरत का काम करना है।’’

 पाँच घण्टे से वे एक ही हरकत कर रहे थे। कई बार घूँघरु को लगता कि वह आगे बढ़ चुकी है और उसी स्थान पर क़दमताल करने लगती। आगे चलता दोरजी ऊँचा हाथ हिलाता तब उसकी चेतना लौटती। 

 सुबह के चार बजे वे हिलेरी स्टेप के नज़दीक पहुँचे। हिलेरी स्टेप आख़ि़री पायदान है। वे चारों बुरी तरह थक गए थे। शाबास...एक कदम और... हम पहुँच गए...वो दिख रही धुँआ उड़ाती सबसे ऊँची जगह... जहाँ खड़े होकर हम महानतम...’’ ख़ुद से इस तरह की बातें करते हुए वे जवाब देते अपने शरीर को फुसला लाए थे। 

 हिलेरी स्टेप ब्लेड के धार की तरह पतली रिज है। हिलेरी स्टेप के नीचे लगभग सौ लोग, लदी-फदी धुसी देह हिलाते, अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। एक दल के तीन-चार सदस्य, एक के पीछे एक, चढ़ते और उतर जाते। तब दूसरा दल चढ़ता। हिलेरी स्टेप पर एक समय में, एक आदमी के चढ़ने या उतरने भर की ही जगह है।

 ‘‘यहाँ तो ट्रैफिक जाम है।’’ पीछे की तरफ से भी रोशनियों की कतार आती दिखाई दे रही थी।

 ‘‘सब देशों को विज्ञापन भेजते हैं-‘चढ़ना हुआ आसान।’ जिन्होंने पर्वतारोहण की ठीक से ट्रेनिंग भी नहीं ली, उन्हें भी खट् से इजाज़त। तय तादात से डेढ़-दोगुना जियादा लोग आ रहे हैं यहाँ...पिकनिक मनाने...थ्रिल...एडवेंचर। पैसा ही परमिट है, प्रोग्रेस है।’’ 

 ‘‘...भूल जाते हैं कि प्रकृति, प्राइज है तो सरप्राइज भी। इस बर्फ में जब बदन का खू़न...जैसे ब्लडप्रेशर नापती मशीन का पारा चढ़ता है...वैसे जमने लगता है...तब आख़िर में बचा-खुचा सिर रोता है...कि अब क्या करें ? मरने वाले मूर्खों की कहानी नीचे कभी नहीं जाती। जीत कर जमीन पर पहुँचने वाले तो गढ़ी-मढ़ी डींगे-पींगे बताते है। रौब ग़ालिब करने के लिए खूब झूठ बोलते हैं। यहाँ सच जाँचने तो कभी-कोई आने वाला नहीं।’’

 ‘‘शोमा! धीरे बोलो, घूँघरु-योगी न सुनंे। एजेन्सी का एक अधिकारी मेरा दोस्त है, बता रहा था...अभी तो पूरे रास्ते रस्सियाँ बँधी ही हैं... आगे के सीजनों में ये शेरपा भेज कर पीक तक सीढ़ियाँ लगवा देंगे। आँधियों में सीढ़ियाँ उखड़-पुखड़ जाएँगी...एक खेप के शेरपा मारे जाएँगें तो...दूसरी खेप जाएगी। बेस कैंप पर रिसार्ट-मोजार्ट खुलेगा। विकास होगा और सभी देश कमीशन लेकर अपने यहाँ से चढ़ाई के लिए कैंडिडेट भेजेंगे।’’ दोरजी और शोमा एक दूजे के कान से मुँह सटाए थे।

 वहाँ बर्फ की सैकड़ों छोटी-छोटी ढेरिया थीं। घूँघरु और योगी ढेरियों पर बैठ-उठ रहे थे। 

 शोमा, बर्फ पर उँगलियों से कुछ उकेरती हुई उन ढेरियों को घूर रही थी। घूँघरु ने कनखियों से वह उकेरी हुई लिपि पढ़ने की कोशिश की-‘‘चढ़ने के लिए आसान रास्ता लिया तो चढ़ तो नहीं पाओगे। हाँ गिरना आसान होगा।’’ घूँघरु सोच रही थी कि यह भाषा पहचानी हुई सी है, कहाँ पढ़ा है उसने....

 कि तभी एक बवंडर घूम गया। ढेरियों पर जमी बर्फ उड़ने लगी़। योगी और घूँघरु लड़खड़ाते हुए उठ गए-कई जोड़ी आँखों के कोटर चोटी की ओर देख रहे थे। जिन ढेरियों पर वे बैठे थे...वे खोपड़ियाँ थीं।

 ‘‘जो लोग चोटी पर पहुँच जाते हैं वे जगह छेंक लेते हैं। ये अपने समय का इंतज़ार करते बेहतरीन लोग हैं।’’ शोमा में डराने वाली तटस्थता रहती है। 

 ‘‘शोमा! यह क्या रही हो ? मैं तुम्हारे साथ सोलह बार आ चुका हूँ। इस जगह खड़ी होकर तुमने जो हमेशा कहा है, वही कहो !’’

 ‘‘जो चलता है वो ढलता है...जो बैठ गया वो गलता है। इन सिरों को लाँघ कर आगे बढ़ो। सामने देखो...रोशनी की क़तार ऊपर जा रही है।’’ शोमा ने उदास मुस्कुराहट से सबको देखा और अन्त में एक बात और कही-‘‘हमारा आॅक्सीजन कम हो रहा है।’’ 

 ‘‘शोमा! निर्णय लिया जाए। क्या हम वापस चलें और फिर आएँ ?’’ दोरजी, शोमा की उदासी का इशारा समझ गया।

 ‘‘मुझे फिर न मौक़ा मिलेगा न धन।’’ घूँघरु ने जो साँस खींची तो आॅक्सीजन नली और ख़ाली दिखने लगी।

 ‘‘घूँघरु! पहाड़ यही रहेंगे, लाखों साल तक, ज़िन्दगी देखो।’’ 

 ‘‘मैं अपनी यह बेइज़्ज़त जिं़दगी दाँव पर लगाना चाहती हूँ।’’ 

 ‘‘मेरी बात मानो!’’

 ‘‘हमें मालूम है कि आप ख़तरा नहीं उठाने दंेगे। क्योंकि शेरपा का रिकार्ड बिगड़ता है तो मेहनताना घट जाता है।’’ योगी और घूँघरु अपने कंधे पर से दोरजी का हाथ गिरा कर आगे बढ़ गए थे। 

 हिलेरी स्टेप के नीचे प्रतीक्षा करते सभी पर्वतारोही लौटने लगे थे।

 योगी और घूँघरु, जैसे अनंत में चल रहे हों...आसमान को जाती चट्टान...स्वर्ग की सीढ़ियाँ...एक...दो...तीन!

 और वे शिखर पर थे। घूँघरु और योगी जल्दी-जल्दी आँसू पोंछते हुए चारों तरफ देख रहे थे। असंभव, संभव हो रहा था-सूरज उनसे नीचे से निकल रहा था। उसकी रोशनी में हिमालय सोने का पर्वत लग रहा था। धरती का अंतिम झुकाव यानी गोलाकार होना दिख रहा था। वे महानतम हैं! वे उच्चतम हैं! अब इसके बाद क्या जीतने को बचा! क्या देखने को बचा! कुछ भी नहीं। 

 घुँघरु घुटनों पर बैठ गई। उसने माँ की फोटो जेब से निकाली..

 अचानक सूरज ढकने लगा... पर्वतों के सुनहरे रंग पर साँप की तरह काला रंग रेंगने लगा...दोरजी ने घूँघरु और योगी का हाथ पकड़ लिया-

 ‘‘एक सेकेंड नहीं रुकने दूँगा। वापस चलो!’’ हमेशा मजबूत रहने वाले दोरजी रुँआसा था।

 शोमा की ठंडी आवाज सुन कर सभी चौंक गए-‘‘दोरजी! दोनों के वीडियो कैमरे से यहाँ की रिकार्डिग कर लीजिए। यह संसार कोशिश की नहीं...जीत की पूजा करता है। कैमरा बर्फ में नष्ट नहीं होगा। तुम दोनों अपने लोगों को संदेश भी दे दो।’’

 ‘‘क्..क्या हुआ ?’’

 ‘‘बस रिवाज है। पहले घूँघरु, बोलो जल्दी!’’

 ‘‘अहमद! मैं तुमसे बेइंतहा मुहब्बत करती हूँ। तुम्हारे बराबर बैठने लायक अपने को बनाने के लिए ही यहाँ तक आई हूँ। तुम देख रहे हो मैं जीत चुकी हूँ। अब मेरे माँ-बाप को महल में बुला लेना। गुजारिश है तुमसे। मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास!’’

 ‘‘पुरुषोत्तम, अब तुम!’’

 पुरुषोत्तम ने एक बैनर लहराया-‘‘हवा-पानी-पेड़ बचाइए। सबसे पहले बच्चे बचाइए।’’

 वे उतरने लगे थे।

 उस दिन द्रौपदी पीक पर चढ़ने वाला यह आख़िरी दल था। इस जीवन का लक्ष्य हासिल हो चुका था। अब ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए कोई प्रेरणा नहीं थी। वे अनजान कारणों से हदसे हुए थे। चाल धीमी थी।

 उधर दोरजी ने पूरब में भूरी हवाओं के झोंके गोलाकार बैठते-उभरते देखा। जैसे कोई धावक दौड़ते से पहले बदन तैयार करता है। वह बुदबुदा रहा था, राई दाना पीछे फेंक रहा था। पर कोई फायदा नहीं। तापमान पहाड़ियों से कंकड़ की तरह लुढ़कने लगा। शून्य से नीचे चालीस...पचास...साठ...डिग्री सेल्सियस...जेट स्ट्रीम हवाएँ रफ़्तार पकड़ने लगीं...अस्सी...सौ..एक सौ बीस किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ़्तार होती गई।

 ‘‘एक दूसरे को पकड़ो...चारों का वज़न एक हो...सिर नीचे करके बैठो...हम उड़ सकते हैं...पन्ना फटा ज़िन्दगी का!’’ दोरजी हँसा। 

 बर्फ के पर्वत उखड़ कर साढ़ों के सींग की तरह शून्य में टकरा रहे थे। खोपड़ियाँ नाचते हुए उछल रही थीं...फिसल रही थीं...बर्फ में दबी लाशें उतरा गईं...हूतूतू खेलती सफेद प्रेतात्माओं की तरह बर्फीली अंधी हवाएँ दौड़ रही थीं। तारे तड़ा-तड़ टूट कर हज़ारों फीट गहरे क़ब्र में दफ़्न हो रहे थे। सब कुछ पर कफ़न छा रहा था। उन चारों पर बर्फ की चादरें चढ़ने लगी...एक साथ बैठे उन चारों का एक बेनामी मज़ार बनने जा रहा था कि-

 एक वज़नी गोला, बर्फ लिपटते जाने के कारण क्रमशः विशाल बनता हुआ...उन्हें अपने लपेटे में लेकर गिरने लगा। 

 रास्ते में आती शिलाओं को वे पकड़ते...वह उखड़ कर साथ हो लेता...अब पीठ के नीचे जो बर्फ की दीवार थी...वह भी छिन गई...वे शून्य में गिर रहे हैं।

 घूँघरु बर्फ पर पेट के बल थी। मुस्कुराती हुई वह थोड़ी देर वैसे ही पड़ी रही। ‘’अब उठा जाए!’’ वह पलटी। इस बार की नज़र में जो मौत दिखी, वह ज़िन्दगी बच जाने के आनन्द के बाद भरी थी। 

 वह एक दरार की गोलाकर सतह पर थी। उसकी आँख के ऊपर देखने की सीमा तक बर्फ की कई किलोमीटर ऊँची दीवार थी। इतनी सफेदी कि अंधेरा छा रहा था। थोड़ी देर बाद उसने करवट ली। उसकी बाई ओर एक गोरी महिला का ताज़ा शव था। सामने एक बन्द सुरंग जैसी जगह थी। वहाँ बर्फ में लिपटे दोरजी पड़े थे। घूँघरु को याद आया कि वे चारों जब एक दूसरे से सटे बैठे थे तब दोरजी उसका हाथ पकड़े थे। 

 पत्थरा पर टकरा-टकरा कर गिरने के कारण उसकी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ थूर गई थीं। दोरजी की कराह सुन कर वह घिसटती हुई उनके पास गई। उनकी देह पर की बर्फ झाड़ने लगी। जाँघ पर हाथ लगते ही दोरजी ने चीख कर आँख खोली। घूँघरु ने देखा कि दोरजी का पाँव घुटने से लोथ की तरह लटका हुआ है।

 अब घूँघरु ने एक पल गँवाए बिना तेजी से सोचना शुरु किया-‘‘मरना तो सबको है। कोई आगे, कोई पीछे। लेकिन वह हार नहीं मानेगी। वह मरेगी भी तो जीने की कोशिश करके मरेगी।’’ 

 वह एकाग्र होकर सोच रही थी। यहाँ आॅक्सीजन की कमी नहीं। इसका अर्थ है कि गिरते हुए हम ज़मीन के करीब पहुँच गए हैं। इस रास्ते को देखा जाए। वह रेंगती हुई सामने की सुरंग में गई। क्या करे वह...कई किलोमीटर खड़ी दीवार पर चढ़ने की कोशिश...असंभव...जुमार...कुल्हाड़ी, उनका बैग तो उनके साथ ही नहीं है। रेंग कर लौटते हुए सुरंग की छत के हिस्से पर उसका हाथ जहाँ पड़ा, वहाँ की सतह उसे गीली महसूस हुई। ‘‘पानी जैसा है। पानी यहाँ कहाँ से ?’’ वह पहले दोरजी के पास चले।

 दोरजी ने घूँघरु को देखा, उनकी आँखें सिकुड़ीं और झुक गईं। एक बूँद आँख में अटकी थी-‘‘मेरा तो कोई नहीं। तुम्हारी अम्मा... अहमद।’’

 घूँघरु को लगा कि खाली जगह में पिता भरना चाहिए था।

 ‘‘मैंने आपकी बात नहीं मानी।’’

 ‘‘तुम सब मेरी ज़िम्मेदारी थे...जान देकर भी अब यह ग़लती नही सुधर सकती। मेरी आत्मा भटकेगी...इन्हीं दरारों में...अपने पूर्वजों की तरह।’’ दोरजी दर्द और दुख से फफक कर रो रहे थे।

 ‘‘हमारे पास समय बहुत कम है। न खाना है, न पानी।’’ उत्तेजना से घूँघरु का चेहरा लाल और विकृत हो रहा था।

 दोरजी समझ रहे थे कि यह जवानी का उत्साह है। बाकी यहाँ कुछ हो नहीं सकता। अगले ही पल वह घूँघरु की क्रूरता देखते रह गए...

 ‘‘हे माँ! तुम मर कर भी हमारी मदद कर रही हो!’’ घूँघरु उस मरी हुई औरत के ऊपरी भाग का गर्म सूट निकाल रही थी। गर्म कपड़े में , उस स्त्री का मांस, पानी डाल कर रखे चूने की तरह फूल चुका था। 

 घूँघरु ने उसी के कपड़े से लाश की बाँह का मांस पोंछा। और उसकी कोहनी की हड्डी कट् से निकाल ली। लाँघती हुई आई। दर्द से कराहते दोरजी के घुटने पर, वह हड्डी लगा कर, शव पर से उतारे कपड़े से बाँध दिया। दोरजी को घसीट कर दीवार के सहारे टिकाया-

 ‘‘कोई रास्ता बताओ दोरजी! मैं दिमाग की नसें फटने से न मर जाऊँ।’

 ‘‘बात करें। अहमद के बारे में।’’ दोरजी मुस्कुराया।

 ‘‘ठीक, अहमद की बात करें!‘‘ कहते हुए घूँघरु उठी। उस महिला की आधी बची बाँह की हड्डी उठाई और सामने के सुरंग की ओर रेंगते हुए जाने लगी। वह जगह-जगह हथेली लगा कर सुरंग की छत टटोल रही थी। एक जगह उसकी हथेली पर पानी की बूँद चिपक गई। वह हड्डी से वहाँ की बर्फ पर मारने लगी।

 ‘‘क्या कर रही हो ?’’ दोरजी की आवाज गूँजी।

 ‘‘कोशिश। मैं कुछ बता रही हूँ। तुम हुंकारी भरते रहना। शुरु करुँ।’’

 ‘‘हाँ!’’

 ‘‘मेरे दादा साहब बड़े ताल्लुकेदार थे। उन्होंने अब्बू से कहा कि वो अमरो यानी मेरी माँ से निकाह न करे। महल के जिस हिस्से में रक़्क़ासाएँ और रखैंलें रहती हैं, वहीं बगल में अमरो की कोठरी बनवा दंे। इस बात पर अब्बू ने महल छोड़ दिया और अम्मी के पास रहने आ गए। उस समय अम्मी के पास बहुत पैसे थे। उम्र बढ़ी। पैसे घटे। अब्बू झाड़ू लगा लेते, चाय बना लेते, तब माँ को उठाते। माँ को तो कथक-ठुमरी और खूबसूरत दिखने के अलावा और कुछ नहीं आता था। दोरजी! चुप क्यों हो गए ?’’

 ‘‘हाँ, ठीक हूँ।’’

 ‘‘हूँ-हाँ करते रहो। हाँ तो...माँ बताती है कि कई लोग अब्बू जैसे आशिक़ को देखने दूर-दूर से आते थे। माँ यह नहीं कहती कि अब न वैसी कला रही, न कला के क़द्रदान। वो कहती हैं-अब न वैसा प्रेम रहा, न प्रेम के क़द्रदान। मैं अपने अब्बू से बहुत चिढ़ती थी...और माँ से लड़ पड़ती। अब्बू महल छोड़ कर न आते, हमें रुपया भेजते रहते तो हम दोनों को ऐसी बेगै़रत ज़िन्दगी तो न जीनी पड़ती।’’ 

 ‘‘दोरजी! दोरजी!’’ दोरजी की क्षीण होती आवाज सुन कर वह सरकते हुए गुफा में आई। दोरजी का पाँव नीला पड़ रहा था।

 ‘‘लगता है, भीतर खून जम रहा है।’’

 दोरजी आँखें खोल कर मुस्कुराए और भौंहों से कुछ कहा।

 घूँघरु ने एक बार अपने को देखा। जगह-जगह मांसपेशी थूर कर काली पड़ी थी। रक्त की लकीरों पर बर्फ चिपकी थी-‘‘याद है! बचपन में चोट पर काग़ज साट लिया करते थे। बस, तुम हिम्मत नहीं हारना दोरजी!’’

 दोरजी ने कँपकँपाते हाथों से घूँघरु को छुआ, अधमुँदी आँखों से मुस्कुराए- ‘‘नहीं हारुँगा।’’

 ‘‘मैं बस आई दोरजी! ’’ 

 घूँघरु के स्कूल और घर के बीच दो सूने टीले पड़ते थे। वह रोज दौड़ते हुए रास्ता पार करती थी। उसके पाँव मजबूत हो गए थे। लेकिन जब वह रोटी बेलने चलती...‘‘इस अब्बू की वजह से हाथ कमजोर रहा...’’ घुँघरु के हाथ उठाए नहीं उठ रहे थे। एक घड़ी रुक कर उसने ताक़त बटोरी, हुम्म! हुम्म...! खोदना शुरु किया।

 ‘‘अहमद की बात करुँ ?’’

 ‘‘आँ..हाँ...’’

 ‘‘मैं बनारस पढ़ने आई। वहाँ से अपने दादा साहब को ख़त लिखा। दादा साहब ने खानदान के नए वारिस अहमद को मुझे लाने के लिए भेजा। फिर अहमद मुझसे बराबर मिलने आने लगा। मैंने अहमद से कहा, मुझसे मत मिलो। इतिहास दुहरा दिया जाएगा।’’ 

 ‘‘क्या जवाब दिया उसने ?’’ दोरजी ने बेचैन हो कर पूछा।

 ‘‘अहमद ने कहा-‘हाँ, यह बात तो है। तो तुम जो कहो, मैं वो करूँ।’’



 ‘‘यह तो ठीक नहीं कहा।’’

 ‘‘तुम्हंे दुनिया के तौर-तरीक़े नहीं मालूम दोरजी!’’ 

 ‘‘मुझे जानना भी नहीं। खै़र, फिर ?

 ‘‘फिर क्या-सफलता का शार्टकट एवरेस्ट! उसी समय हमारे बी ़एच ़य़ू की एक दीदी द्रौपदी पीक फतह करके लौटी थीं।’’

 बिना खाए-पिए आज पाँचवाँ दिन था... 

 घूँघरु ने सुरंग के छत की एक मोटी परत गिरा दी थी। लेकिन रास्ता नहीं मिला। अब उसका हाथ अपने आप गिरने लगा था। वह दो दिन से सुरंग में ही थी। दोरजी के पास नहीं लौटी थी। बस क्षीण आवाज में बुलाती-‘‘दोरजी!’’ दोरजी आँखें बन्द किए ही कहते-‘‘ऊँ!’’ दो दिन पहले जब वह दोरजी के पास घिसटती हुई आई थी। तब सूरज बहुत तेज चमक रहा था। सतह की बर्फ तेजी से पिघल रही थी। सुरंग ढालदार थी। उसने सूरज को सज़दा किया और अरबी में कुछ कहा।

 आज आठवाँ दिन था। वह बेदम, सुरंग में पड़ी इंतज़ार कर रही थी। जिस्म पर एक बूँद गिरी। वह सरकती हुई दोरजी के पास आई। धीमे से कहा-‘‘चलिए...हम बच गए।’’ वह दोरजी को घसीटती हुई, बड़ी देर में सुरंग तक ला पाई। सुरंग के छत की बर्फ की परत, पिघल कर पतली हो गई थी। उसने आहिस्ता से मारा...पपड़ी गिरी....छेद...और आँख के सामने सूरज था। उसने दोरजी की कमर में अपना जैकेट बाँधा। कपड़े का छोर पकड़े ही ऊपर गई और दोरजी को खींच कर बाहरी दुनिया की बर्फ पर ढह गई।

 ‘‘सूरज ने बचाया।’’ दोरजी ने कहा।

 ‘‘वह बुझ जाता तो मैं दफ़्न हो जाती।’’ वह घुटनों पर बाहों की कैंची डाले बैठी थी।

 ‘‘इसीलिए वह बुझ नहीं सकता था। तुमने उससे अरबी में कुछ कहा था।’’

 ‘‘यही कि वह इधर पन्द्रह दिन रातें छोटी करे। उधर पन्द्रह दिन रातें बड़ी करे।’’

 ‘‘सूरज ने भाषा नहीं, भाव पकड़ लिया था।’’

 ‘‘माँ खुश होगी। जैसे उन्हें अपने लिए अब्बा दिखे थे वैसे मेरे लिए तुम दिखोगे।’’

 ‘‘लेकिन...महल...’’

 ‘‘इंशाअल्लाह! मैं अब अपने बूते उन्हें सारी खुशियाँ दूँगी।’’

 ‘‘आमीन!’’

 योगी की मूच्र्छा टूटी। उसकी आँख में कुछ गड़ रहा था। बदबू भी आ रही थी। लगता है वह अपनी सही जगह... नर्क में है। उसने करवट ली और देखा तो-

 सामने शोमोलुंगमा बैठी मुस्कुरा रही थी-‘‘तुम काँप रहे थे। मैंने तुम्हें याक के बालों से ढक दिया था।’’

 ‘‘याक यहाँ कहाँ से आया ?’’ 

 ‘‘जैसे हम आए हैं।’’

 ‘‘यह कौन सी जगह है ?’’

 ‘‘यह दक्षिणी हिस्सा है। जिधर लंबी घास और याक से भरे पहाड़ हैं।’’

 योगी उठ कर बैठ गया। और चारों ओर देखने लगा। 

 वह एक विशाल चट्टान से छज्जे जैसी निकली जगह थी। जिस पर दाहिनी ओर के चट्टान के झुक आने से ओट हो गई थी। वह जगह शून्य में लटकी हुई थी। चारों तरफ कई मील गहरी खाई थी। घनी बर्फबारी थी और निकलने की कोई राह नहीं थी-‘‘ वाह रे भोले! स्वयं को मरते हुए देख कर मरना है। जैसी तेरी इच्छा!’’ 

 ‘‘घड़ी का अनुमान खो गया है।’’ शोमा देर तक चुप न रह सकी ।

 ‘‘चला-चली है। मैं अपने नियम नहीं बदलूँगा। मैं स्त्री से बात नहीं करुँगा।’’ योगी, अपने चोटों पर हाथ रख कर झुका हुआ था। 

 ‘‘आप डरते हैं स्त्री से।’’ शोमा जानती थी कि गिरे तापमान और घिरे वक़्त में योगी को रवाँ रखने का यही रास्ता है- ‘‘आप जो पोथी पढ़ के जानेंगे...’’ शोमा ने चुटकी बजाई...‘‘वो स्त्री सहज-बुद्धि से...यूँ जान लेती है। आप मर्दो में चुम्बक, रगड़ खाते-खाते वर्षो में आता है। स्त्री चुम्बक पैदा होती है।’’

 ‘‘यही लौह तत्व...उन्हें मूर्ख अहंकारी...पोर-पोर हत्यारा बनाता है।’’ 

 ‘‘झूठ! वे जीवन जन्माने वाली होती हैं।’’

 ‘‘इसी जीवन को...कि दामन हल्का रहे...तो वो दूसरे पुरुष के नीचे बिछा सकें...वे गंगा में दामन झाड़ आती हैं! सदा कुमारी-सदा पवित्र बनी रहना चाहती हैं, किसलिए ? ’’

 शोमोलुंगमा चट्टान से टेक लेकर बैठ गई। उसने खाई की गहराई का अंदाजा लगाने के लिए एक कंकड़ अपने दाहिने फेंका। वह बेआवाज़ पता नहीं कहा गया।

 ‘‘योगी! तुम्हें भूख लगी होगी।’’

 ‘‘तो! क्या खाएँगें ?’’

 ‘‘इस याक के खून की बर्फी।’’

 ‘‘सावधान! मेरा धर्म भ्रष्ट करने की नीयत न हो! मैं खाई में कूद जाऊँगा। ’’

 शोमा ने, आँख मलकाते याक के पुट्ठे पर हाथ रखा। याक ने अपने बदन को, शोमा का हाथ गिराने के लिए, झटका दिया। शोमा, तिरछे मुस्कुराई। योगी चिढ़ गया-

 ‘‘तुम्हारी हँसी लंबे दांतो वाले बनैले की तरह हिंó है शोमा!’’

 ‘‘अपने जीवन से प्रेम गुनाह नहीं।’’

 ‘‘आरतें प्रेम भी जानती हैं ?’’

 ‘‘औरतें प्रेम ही जानती हैं। और जो प्रेम नहीं जानते वो पूजा भी नहीं जानते।’’ 

 ‘‘जो पूजा जानते हैं, उन सबने तुम्हें ठगिनी कहा है।’’

 ‘‘आदमी उसी पर पाँव रखने की इच्छा रखता है, जो उससे ऊँचा होता है। उसी को मारता है, जिससे डरता है। उसी की निन्दा करता है, जिससे जलता है।’’

 ‘‘मैं प्रकृति के न्याय की प्रतीक्षा करुँगा।’’

 निर्जल-निराहार का आज पाँचवाँ दिन था। इस निस्तब्धता में, योगी को शोमा के कराहने की आवाज़, कई घण्टों से नहीं सुनाई दी थी। उसे बेचैनी होने लगी-’‘शोमा सही कह रही थी। मुझे इसे सिर्फ इंसान समझना चाहिए!’’ उसने इतने दिनों में पहली बार शोमा की ओर मुँह किया। वह लुढ़की हुई थी। 

 ‘‘मेरी आँख के आगे कोई न मरे। कोई न मरे। शेरपा...शेरपा शोमा...!’’

 योगी की बदहवास चीख से शोमा की पुतलियाँ हिलीं।

 ‘‘कौन बचना चाहिए ?’’ शोमा धीरे से पूछ रही थी।

 ‘‘मैं मानता हूँ।’’ योगी ने नज़रें झुका लीं।

 शोमा ने अपनी कनटोप उतारी। जूड़े का कांटा निकाल कर याक की गर्दन पर रख दिया। भूख से शिथिल याक की गर्दन में जुम्बिश तक न हुई। शोमा ने ताक़त इकट्ठा कर पैरों से ठोकर मारा। अपनी अंजुरी में रक्त की धार को रोक लिया।ं खून तुरन्त जम गया। उसे बर्फी की तरह तोड़ा। और खाने लगी। योगी को वह नरभक्षी...राक्षसी लग रही थी। 

 शोमा एक झटके से पलटी। योगी का जबड़ा दबा लिया। योगी, कांटे में फँसी मछली जैसे गर्म रेत पर पूँछ पटकती है, अपने पाँव पटक रहा था। शोमा ने उसके मुँह में सात आठ टुकड़े ठूँसे और हथेलियों से मुँह बन्द कर दिया। 

 योगी हलक में बार-बार उँगली डाल रहा था कि उल्टी हो। पर उल्टी हुई नहीं। 

 ‘‘बदन अपनी ज़रुरत जानता है। वह तुम्हारी नहीं सुनेगा। उल्टी नहीं होगी योगी!

 ‘‘मुझे शान्ति से मरने दो शोमा!’’

 ‘‘मैंने तुम्हारा ही अनुसरण किया है। याक या तुम ? कौन पहले मरना चाहिए !’’

 योगी चुप हो गया।

 आज सातवाँ दिन था। उन दोनों की त्वचा जगह-जगह से फट कर रिस रही थी। दम लगा कर साँस खीचते रहने से फेफड़े सूज गए थे। आँखें, गुठलियों की तरह लटक आईं थीं। जूतों के भीतर नाखून पक कर निकल गए थे। तापमान और गिरता जा रहा था।


 शोमा ने लेटे हुए ही हाथ बढ़ा कर याक को छुआ। याक पत्थर बन चुका था। वह समझ गई कि रक्त जमने से वे दोनों भी कल तक मर जाएँगे। 

 वह घिसटते हुए योगी के पास गई। फुसफुसा कर कहा कि याक की चर्बी खाने से बदन में गर्मी आएगी। चर्बी फाड़ने में योगी उसकी मदद करे। रक्त और मांस में कोई अन्तर नहीं। फिर भी योगी, शोमा की मदद करने से मना करता है तो वह हत्या और आत्महत्या का भागी होगा। कितनी लाख योनि के बाद मानव जन्म मिला है। उसे नष्ट करने से मुक्ति नहीं मिलेगी। शिव स्वयं में समाहित नहीं करेंगे। 

 योगी और शोमा, कील वाले जूतों से याक के बदन का मांस चीर रहे थे।

 आज दसवाँ दिन था। बेजान पड़ी शोमा की आँख खुली। एक तेज लहर से आधा बचा याक खाई में गिर चुका था। शोमा ने योगी को कंधे से हिलाया-‘‘अब क्या होगा ?’’

 ‘‘तुम्हारे पास अब जीवन का कोई तर्क नहीं बचा।’’ वह आँखों में हँसा जैसे शोमा की हार और उसकी जीत हुई हो।

 ‘‘यह शायद हमारे बीच की आख़िरी बातचीत है।’’

 ग्यारहवाँ दिन... साँस मन्द हो रही थी।

 बारहवें दिन योगी ने जूते फेंक दिए। टोपी गिरा दी। कपड़े नोच रहा था...टट्टी-पेशाब का रेस्टटाप बैग खाई की ओर मुँह करके खींच रहा था। उसके हिलने से बर्फ करक रही थी। 

 शोमा ने योगी की पीठ पर हाथ रखा, मतलब- यह क्या कर रहे हो ?

 योगी का मुँह बर्फ में धँसा था। उसकी फुसफुसाहट से बर्फ उड़ी।

 ‘‘बदन जम जाएगा। हवा भीतर गई तो...ज़िप मत खोलो।’’ उसने अन्दाज किया कि दिन-रात की बर्फबारी, भूख-प्यास, रक्त की कमी और लंबी होती मृत्यु से योगी विक्षिप्त हो रहा है। वह धीरे से उठ कर बैठी। 

 योगी की फटी पुतलियाँ कड़ी हो रहीं थीं। शोमा से कुछ कहने के लिए खोले गए मुँह में बर्फ भर रही थी। 

 ‘‘साथी! लौटो...मत जाओ!’’ बर्फीला झोंका उनका कमजोर बदन झिंझोड़ रहा था। उसने योगी को थामा। उसके खुले मुँह में अपनी उखड़ती साँस भरने लगी। उसका सीना कैसे पंप करे....योगी ने रेस्टटाॅप बैग खींचा है...लोअर की चेन खुली है...सब कैसे ढके...वह काँपते-हिलते योगी पर बैठी...सीना दबाती...साँस देती...गाल पर मारती...रोती...पुकारती...उस पर लेट जाती...उठ जाती।

 शोमा बेदम होकर गिरने वाली थी कि योगी के शिश्न में उसे सिहरन महसूस हुई। वह उत्साह से हुमचने लगी...एक ठोस...गीलापन...झुरझुरी के साथ योगी ने आँखें खोल दीं। 

 ‘‘ओह!’’ शोमा ने चट्टान से टेक लेकर बैठते हुए कहा।

 ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया ?

 ‘‘क्या ?’’

 ‘‘जिस कर्म से मैं और भरत जन्मे... मैं उस कर्म से भयानक घृणा करता हूँ। नागेन्द्र ने मेरा प्रेम छीना, तुमने मेरी घृणा भी मुझसे छीन ली! भरत गया...ब्रह्मचर्य गया...प्रण गया...मेरे जीने के आधार तिरोहित हुए।’’ 

 ‘‘मैंने कुछ नहीं किया। तुम्हारा अन्दरूनी... तुम्हारें नसें जीना चाहती थीं।’’ 

 ‘‘धूर्त! मेरे नाश का मुझ पर ही आरोप! शिव! मेरे इस कदम को आत्महत्या नहीं...प्रायश्चित मानना।’’

 ‘‘तुम्हारे आराध्य महायोगी शिव...इसी पर्वत पर छः महीने...’’

 ‘‘पिशाचिनी!’’

 ‘‘आपद् काले आपद् धर्मः... चलो, क्षमा करो!’’

 ‘‘नहीं!’’

 ‘‘मरो !... कहो तो ढकेल दूँ...वैसे ही जैसे तुम्हारे पितामह ने तुम्हें ढकेला था...क्योंकि तुम उन्हीं की औलाद थे...जैसे भरत के मामा ने भरत को फेंका...क्योंकि वो सामूहिक बलात्कार के बाद जनमा था... और तुम्हारी माएँ, वो उस समय जानवरों की तरह पाए से बँधी थीं।

 ...और सुनना है...तुम्हारे आश्रम के मानवेन्द्र, पद्मानन्द...इन्हें इनकी माँ के प्रेमियों ने फेंके...मर्दो के लिए प्रेम, सिर्फ संभोग था...बिना ज़िम्मेदारी के मजा था...प्रेम अवैध था...इसलिए इस प्रेम से पैदा बच्चे अवैध थे। तुम संत...नागा सब उन्हीं की शाखा हो। क्योंकि तुम्हारी किताबों में...स्त्री सहवास की पर्यायवाची है और सहवास पाप का। मैं तुम्हारे देवताओं की कुंडली खोलूँ...?’’

किरण सिंह

3/226, विश्वास खण्ड, गोमती नगर
लखनऊ-226010 
फोन - 9415800397
ईमेल: kiransingh66@gmail.com
 खाई में छलांग लगाने के लिए एक पाँव उठा चुका योगी स्तब्ध था-‘‘ठहरो! पहले यह बताओ कि तुम हमसे जुड़ी ये बातें...कैसे जानती हो ?’’ 

 ‘‘कुछ तुम मूच्र्छा में बड़बड़ाते रहे हो। कुछ हिमालय में घूमते वे औघड़ बकते रहते हैं जो जब मैदानों में रहते हैं तो भीख माँगने दरवाजे-दरवाजे जाते हैं और रात्रि विश्राम के लिए गाँव-गाँव ठहरते हैं।’’

 योगी मुड़ा।

 शोमा की आँखों में सूरज उग रहा था। उसकी छाती का हिस्सा, ग्लेशियर से नदी बनने जैसा दूधिया पिघल रहा रहा था। 

 ‘‘तुम शोमोलुंगमा...बर्फ की देवी...द्रौपदी हो।’’

 ‘‘तुम्हें मतिभ्रम हो रहा हैं।’’

 ‘‘सच कहो! मैं किस शक्ति से इतना बोल पा रहा हूँ।’’

 ‘‘क्योंकि मौसम साफ हो रहा है। तुम अंधे हो तो क्या, तुम्हारे अवचेतन को जीवन का मार्ग दिखाई दे रहा है।’’ 

 ‘‘कैसा मार्ग ? प्रेम का या विवाह का।’’

 ‘‘दोनों नहीं। दसियों साल से मेरे लोग ऊपर बर्फ पर सोए हैं। वे इंतज़ार कर रहे हैं कि कि उन्हें छिदे घड़े का पानी और साजी लकड़ियों की आग मिले। उनकी ब्याह दी गई प्रेमिकाएँ, पास बैठ कर उनके लिए देर तक रोएँ। माँ-बाबा, बचपन के दिनों के क़िस्से देर तक सुनाएँ। यार-दोस्त साथ छोड़ने के लिए देर तक गालियाँ दें। मुझे अपने बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करनी है, उन्हें उतारना है। 

 ‘‘चलो देवी !’’ 

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