रवीन्द्र कालिया: ख़त्म हुआ साहित्य का एक और अध्याय -अनुज


रवीन्द्र कालिया: ख़त्म हुआ साहित्य का एक और अध्याय -अनुज #शब्दांकन

नए घोड़ों पर किस तरह दाव लगाया जाता है, अगर किसी को सीखना हो तो वह कालिया जी से सीखे

 -अनुज



जिस तरह गुलेरीजी की कहानी 'उसने कहा था' की एक पंक्ति – 'तेरी कुड़माई हो गयी…' को हिन्दी साहित्य का कोई भी व्यक्ति भूल नहीं सकता, ठीक उसी तरह 'नौ साल छोटी पत्नी' की यह पंक्ति – '…अरबी भाषा में बुआ के बेटे को ही रक़ीब कहते हैं…', पाठकों के जहन में घूमती रहती है। भेद सिर्फ इतना कि गुलेरीजी की पंक्ति प्रेम की अभिव्यक्ति है जबकि रवीन्द्र कालिया की यह पंक्ति उनकी व्यंग्य शैली और व्यंग्य के भीतर से झांकती गहरी अनुभूति का निदर्श प्रस्तुत करती है। उनके इलाहाबाद के दिनों को तो मैंने देखा नहीं था लेकिन दिल्ली के दिनों में तो मैं आस-पास ही था। दिल्ली में पत्रिकाओं का दो ही ऐसा दफ्तर था जहाँ ठहाके गूँजते रहते थे – एक दरियागंज स्थित राजेन्द्र यादव के 'हंस' का और दूसरा लोदी कॉलोनी स्थित रवीन्द्र कालिया के 'नया ज्ञानोदय' का। लेकिन अब ख़त्म हुआ साहित्य का वह अध्याय ! राजेन्द्र जी को तो गए अर्सा बीत गया, एक ये बचे थे, तो अब ये भी चल दिए हाथ झाड़कर! चला गया साहित्य का एक ऐसा हँसमुख और बिन्दास खिलाड़ी, जो घोर तनाव के क्षण में भी हमेशा खिलंदड़ी के मूड में रहता था। अपने अंतिम दिनों के दौरान जब डॉक्टर उन्हें कुछ सलाह-वलाह दे रहे थे और स्वस्थ हो जाने का आश्वासन दे रहे थे तो उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के डॉक्टर से सीधे-सीधे पूछ लिया, "इतना बताइये कि मेरे पास और कितने दिन बचे हैं?" डॉक्टर ने कहा, "तीन महीने।" इंसान का खिलंदड़ीपन और बिन्दासपन देखिए, और जीवट भी, कि डॉक्टर से पटलकर पूछते हैं, "क्या इस तीन महीने में आज का दिन भी शामिल है?" और फिर हँसने लगे हो-हो कर। यह तो हमसब जानते थे कि यह गाड़ी अब और अधिक दिन चलने वाली नहीं है लेकिन इतनी जल्दी रुक जाएगी, यह भी नहीं जानते थे।

'नौ साल छोटी पत्नी', 'काला रजिस्टर', 'खुदा सही सलामत है' और 'ग़ालिब छुटी शराब' जैसी कालजयी रचनाओं के रचयिता रवीन्द्र कालिया की उपलब्धियों में से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि उन्होंने लिखना कभी बंद नहीं किया चाहे अंतिम दौर की ला-इलाज बीमारी से जूझने के ही दिन क्यों न रहे हों। इस घोर बीमारी के दौरान भी उपन्यास लिखा- '17, रानाडे रोड' और अंतिम समय पर इलाहाबाद पर एक कुछ लिखने की योजना भी बना रहे थे जबकि जानते थे कि अब उनके पास समय और बचा नहीं है। शराब के बहुत शौक़ीन व्यक्ति थे। जब बीमार हुए और पीना छूट गया तो उदास होकर बोलते कि पता नहीं अब जी ही क्यों रहा हूँ। जब बीमार हुए थे तो कवि मित्र उमेश चौहान और मैं उनके घर उन्हें देखने गए थे। चलते समय पता नहीं घर के किस-किस कोने से शराब की खुली-अधखुली बोतलें उठा लाए और उदास होते हुए बोले कि ये सब अब हमारे किसी काम की नहीं हैं, तुम लोग ले जाओ। जब डॉक्टर ने शराब के लिए सख्ती से मना कर दिया, तब पीते तो नहीं थे लेकिन शराब की बातें बहुत धार्मिक भाव से करते थे और जब शराब पर बोलने लगते तो ऐसा लगता मानो पी ही रहे हों।


रवीन्द्र कालिया से मेरा दस वर्षों का संबंध था। मैंने कभी कालिया जी को गंभीर मुद्रा में नहीं देखा। कभी किसी बात की फिक्र नहीं करते थे। अगर कभी वे किसी बात से परेशान होते भी और थोड़ी देर गंभीर मुद्रा में दिखते भी, तो तत्काल अगले ही क्षण फिर ठहाके लगाकर हँसने लगते। मेरी कहानी ('अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया') पर 'परिकथा' में किश्तवार चर्चा चल रही थी और बहुत से बड़े विद्वानों ने उस चर्चा में भाग लिया था और इसकी हर तरफ चर्चा चल रही थी। लेकिन इस विषय पर 'नया ज्ञानोदय' ने टिप्पणी करते हुए लिखा कि "…यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अनुज की कहानी पर इतनी चर्चा क्यों चल रही है?" उन दिनों रवीन्द्र कालिया 'नया ज्ञानोदय' के सम्पादक थे। मैंने इस टिप्पणी पर आपत्ति व्यक्त की और उनसे शिकायत की तो उन्होंने कहा, "परेशान मत हो, हमलोग तो जानबूझकर अपने ही लोगों से अपने खिलाफ़ लिखवाया करते थे।"

साहित्यिक पत्रकारिता को आसमान में खड़ा करने वाले रवीन्द्र कालिया के बारे में और क्या कहूँ - चाहे मैं होऊँ या आज की चमचम करने वाली युवा पीढ़ी, मेरी पीढ़ी के अस्सी प्रतिशत साहित्यकार, सबको खड़ा करने वाले सम्पादक रवीन्द्र कालिया ही थे । वर्ष 2004-06 के दौरान 'वागर्थ' के साथ और वर्ष 2006-09 के दौरान साहित्यकाश में अपना परचम लहराने वाली युवा पीढ़ी के अधिकतर साहित्यकारों को कालिया जी ने ही लॉन्च किया था। मेरे समय की पूरी-की-पूरी युवा पीढ़ी, जो आज परिपक्व होकर तैयार खड़ी दिख रही है, उनकी कर्ज़दार है।

अनुज
798, बाबाखड़ग सिंह मार्ग,
नई दिल्ली-110001.
मो. 09868009750
ई-मेल – anuj.writer@gmail.com
मैं कालिया जी को अपने समय का सबसे बड़ा सम्पादक मानता हूँ। वे समय की चाप को पहचानते थे। वे कहानी या किसी भी रचना को उड़ती नज़र से देखकर ही यह भांप लेते थे कि अमुक चीज छपनी चाहिए या नहीं या फिर छपनी चाहिए तो उसका पत्रिका में स्थान कहाँ होना चाहिए। वे नए रचनाकारों को खूब तरज़ीह देते थे। मेरी तो पहली कहानी ही कालिया जी ने छापी थी – 'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' (वागर्थ, नवम्बर, 2005)। हालांकि बाद के वर्षों में मेरी कई कहानियाँ 'नया ज्ञानोदय', 'हंस', 'परिकथा', 'कथादेश', 'पाखी' आदि पत्रिकाओं में छपती रहीं, लकिन पहली कहानी तो पहली ही होती है, पहले प्यार की तरह ! जिस महीने मेरी पहली कहानी छपी थी, 'वागर्थ' का वह अंक उस महीने देर से छपकर आया था। आई.आई.सी. में रवीन्द्र कालिया और राजेन्द्र यादव जी के बीच बातचीत चल रही थी। मुझे यह कहानी मौके पर मौजूद एक मित्र, जो राजेन्द्र यादव के बहुत करीबी थे, ने बहुत बाद में सुनायी थी। राजेन्द्र यादव जी ने कालिया जी से पूछा – 'वागर्थ का तुम्हारा इस महीने का अंक आया नहीं मार्केट में अबतक, क्या हो गया?' रवीन्द्र जी ने कहा – 'एक नए लड़के की कहानी आ गयी थी, मुझे कहानी इतनी अच्छी लगी कि सब रोक-राक के उस कहानी को छाप रहा हूँ। इसी के कारण अंक में देरी हो गयी है।' यह चर्चा मेरी इसी कहानी 'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' को लेकर ही चल रही थी। किसी नितान्त नए कहानीकार की कहानी अगर पसन्द आ गयी तो सब रोक-राककर भी छाप देते थे। नए घोड़ों पर किस तरह दाव लगाया जाता है, अगर किसी को सीखना हो तो वह कालिया जी से सीखे। मैंने उन्हें सम्पादन करते हुए बहुत क़रीब से देखा है और बहुत कुछ सीखा भी है। वे कहते थे कि "पत्रिका को ऐसे गेट-अप में होना चाहिए कि यदि स्टॉल पर किसी ने पत्रिका हाथ में उठा ली तो वह फिर पत्रिका वापस स्टॉल पर न रखे, खरीद ही ले।" मैंने 'कथा' का सम्पादन करते हुए उनकी इस बात को हमेशा ध्यान में रखा है।

बहुत सारी यादें हैं उनके साथ बीते दिनों की, बहुत सारे संस्मरण हैं, क्या-क्या लिखूँ, ऊँगलियाँ चल नहीं रही, मन भारी हुआ जा रहा है और यादें हौच-पौच हो रही हैं, सब घालमेल। पता नहीं इतनी जल्दी क्या हो रही थी जाने की! हर काम में जल्दी करते रहते थे, कुछ करना है तो अभी ही करना है...! अब और कुछ नहीं, इतना ही कह सकता हूँ, कालिया जी, आप हमेशा हमारे मन में रहेंगे!





००००००००००००००००

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل