रवीन्द्र कालिया, शुद्धतावाद के विशुद्ध विरोधी
- अशोक चक्रधर
दायें से रवींद्र कालिया, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मधु गोस्वामी और अशोक चक्रधर
— चौं रे चम्पू! तू हमैं रबींद्र कालिया की अंतिम बिदाई में चौं नायं लै गयौ? खूब कहानी पढ़ीं उनकी, खूब संस्मरन पढ़े। उनके संग की कोई बात बता।
— संस्मरण तो अनेक हैं चचा। वे एक ज़िंदादिल, अल्हड़, फक्कड़, बेबाक कहने वाले, सरल सौम्य और शांत प्रकृति के इंसान थे। सब जानते हैं कि साठोत्तरी कहानी के इस पुरोधा ने शिथिलप्राय पत्रिकाओं को नया जीवन दिया। युवा लेखकों को सर्वाधिक प्रोत्साहित किया। ममता कालिया और वे सदा एकदूसरे की पूरक-शक्ति रहे। हिंदी के लिए दोनों की लड़ाई बाज़ारवाद और शुद्धतावाद से रही। जीवन के हर मोर्चे पर वे ममताजी के सहारे कभी नहीं हारे। गिरती सेहत से निरंतर जूझे। ममताजी अपने पति की कार्मिक परेशानियों को अच्छी तरह जानती थीं। वे हौसल-ए-कालिया थीं।
— परेसानी कैसी?
— परेशानियां उनकी साफ़गोई से पैदा होती थीं। प्रेम को वे एक ऊर्जा मानते थे। नाक-भौं चढ़ाने वाले पुराणखंडी लोगों को रचनात्मक उत्तर देने के लिए ही उन्होंने ‘प्रेम’ पर अनेक विशेषांक निकाले। यहां तक कि बेवफ़ाई अंक भी निकाले। दैहिक संबंधों के प्रति उनका खुलापन हिंदी के शुद्धतावादियों को जमता नहीं था, लेकिन नए कहानीकारों के लिए वे मसीहा बन गए। ख़ैर, स्वयं से जुड़ा एक वाकया बताता हूं। हम इंडिया हैबीटैट सेंटर में जयजयवंती संगोष्ठियों का आयोजन किया करते थे। ‘हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी’ उन गोष्ठियों का केंद्रीय फलक होता था, जिसके अंतर्गत हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े विषयों पर विमर्श होता था। उद्देश्य यह रहता था कि हिंदी के साहित्यकारों को भाषा-प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाय और विनम्रतापूर्वक उन्हें हिंदी को मिली कम्प्यूटरप्रदत्त सुविधाओं से परिचित कराया जाए। गोष्ठियों को आकर्षक बनाए रखने के लिए उनमें कविता के रोचक तत्व और प्रौद्योगिकी के भौंचक तत्व रहते थे। ‘वाणी बदले भाषा में और दमके इंटरनेट’ उस दिन का विषय था। हमें ‘स्पीच टु टैक्स्ट’ और इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति को रेखांकित करना था।
— कब की बात ऐ?
— बात है नौ दस साल पुरानी। हमें जागरूक और सकर्मक वक्ताओं की तलाश रहती थी। गोष्ठियों में अतिथियों की व्यवस्था करने वाले प्रवासी संसार के संपादक राकेश पांडे ने बताया कि रवींद्र कालिया जी के पुत्र प्रबुद्ध कालिया वेबसाइट निर्माण में काफ़ी सक्रिय रहते हैं। प्रबुद्ध कहीं व्यस्त थे, लेकिन अपना सौभाग्य कि उनके यशस्वी माता-पिता युगल श्री रवींद्र कालिया और ममता कालिया ने मुख्य अतिथि बनना स्वीकार किया।
— का कही उन्नैं?
— उन्होंने कहा कि हिंदी को अगर नई टेक्नॉलॉजी से जोड़कर नहीं चलेंगे तो हिंदी की प्रगति नहीं होगी। रवींद्र जी ने बताया कि
— ममताजी कछू बोलीं?
— डॉ. मधु गोस्वामी का ‘विदेशों में हिंदी-शिक्षण’ व्याख्यान सुनकर वे बोलीं कि हिंदी तो अपने देश में दूर से ही आ रही है। कई बार ऐसा लगता है कि जब हिंदी विदेश से होकर यहां आएगी, तभी वह हमारे लिए ज़्यादा वरेण्य और करेण्य होगी। आज उत्तरशती में हम दुर्गा सप्तशती की भाषा में हिंदी नहीं लिख सकते। हमें अपनी भाषा अपने समय के अनुरूप बदलनी होगी।
— खरी बात करी उन्नैंऊं!
— अरे चचा! फिर उन्होंने कहा कि मुझे कोई लम्बा वक्तव्य नहीं देना है, भाषण के बाद अब चूंकि कविता की बारी है इसलिए आज सुबह लिखी हुई एक कविता सुनाती हूं। ममताजी ने ऐसी कविता सुनाई जिसमें शुद्धतावादियों पर करारा व्यंग्य था। कविता में उन्होंने एक प्रकार से रवींद्र जी की पीड़ा को ही शब्द दिए थे। उनकी कविता सुनिए,
‘पत्रिका का अध्यक्ष शुद्धतावादी था,
शुद्ध दूध,
शुद्ध मसाले,
शुद्ध घी के साथ-साथ
शुद्ध साहित्य का समर्थक।
प्रेम-प्रसंग उसे तिलमिला देते।
वो संपादक की नाक के पास
उंगली ले जाकर कहता,
नहीं नहीं
संपादक जी ये बिल्कुल नहीं चलेगा!
रिश्तों में
इतनी बेपर्दगी
शब्दों में मुसीबत ढाती है।
लेखकों को लिखते शर्म नहीं आती?
मुझे पढ़ते आ जाती है।
अपने बीबी-बच्चों से
पत्रिका छुपानी पड़ जाती है।
सभी सदस्य शोर मचाते,
कहानियां बदमाश हैं।
संपादक को लगता,
वो कहे क्या कि
आपके बच्चे राखियां बांधने से पैदा हो गए
या आपकी पत्नी को भस्म चटाई गई थी?
वो चुप रहता।
चुप्पी में ही चातुर्य
और सातत्य था।
उसकी इच्छा होती
वो ज़ोर-ज़ोर से पूंछ फटकार कर कहे,
कहानी समय का दर्पण है।
समय ही बेलगाम है।
कहानियों की लगाम कहां से थामूं?
प्रकट वो कहता,
मुझे एक झाड़ू और झाड़न दीजिए,
मैं हर कहानी से
चुंबन और आलिंगन,
स्पर्श और विमर्श
झाड़ फटकार कर
कहानी को निरापद बनाता हूं।
लेकिन आप लोग
ज़रा होटों के कोरों से लार तो पौंछ लीजिए।’
कालिया जी बहुत याद आ रहे हैं चचा। सन बारह में उनके साथ जोहान्निसबर्ग गए तब उनसे ज़िंदगी और तकनीक पर ज़िंदादिल बातें हुईं। वहां वे इतने प्रेरित हो गए कि उन्होंने लौटते ही एंड्रोइड का एक मोबाइल फोन ख़रीदा। ज्ञानपीठ में उनके सहयोगी और जामिआ के मेरे शिष्य महेश्वर ने बताया कि वे ख़ाली समय में फ़ोन पर लगे रहते थे। जिज्ञासू छात्र की तरह तसल्ली से सुनते थे और अपने प्रयत्नों में सफल होने पर बच्चों की तरह ख़ुश होते थे।
— ममताजी कूं मेई ओर ते सांतुना दइयो लल्ला! और रबींद्र जी कूं मेरी स्रद्धांजली!
(एक को छोड़कर सभी चित्र : मीनाक्षी पायल)
००००००००००००००००