बेहतरीन हिंदी कहानी: कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और विद्रोह - अनुज


कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और विद्रोह - अनुज #शब्दांकन

कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और विद्रोह

- अनुज

पहले पढ़िए अनुज क्या कहते हैं इस कहानी के दस साल होने पर ...

आज मेरे साहित्यिक जीवन के दस वर्ष पूरे हो गए हैं।  दस वर्ष पूर्व भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका 'वागर्थ' के नवम्बर, 2005 अंक में मेरी पहली कहानी 'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' प्रकाशित हुई थी। यह कहानी मैंने एक ऐसे व्यक्ति को केन्द्र में रखकर लिखी थी जो पागलों की तरह जेएनयू कैम्पस में घूमता रहता था, जून की दोपहरी में कम्बल ओढ़कर गंगा ढाबा पर बैठा रहता था, गाने गाया करता था और कभी-कभी तो ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ भी दिया करता था। जिन लोगों ने विद्रोही जी को उन दिनों देखा होगा वे मेरी इन बातों की पुष्टि करेंगे। मैंने उन्हीं विद्रोही जी को कैरेक्टर बनाकर अपनी पहली कहानी लिखी थी। मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ और आज आपसब को यह कहते हुए गर्व महसूस कर रहा हूँ कि - मेरा साहित्यिक जीवन तो उसी समय सफल हो गया था जब विद्रोही जी ने मेरी कहानी पढ़कर मुझे गले लगाया था और कहा था, "साथी, मैं आपको जीवन-भर नहीं भूलूँगा, आपने कहानी लिखकर मुझे यह समझा दिया है कि इस हुलिया में मुझे लोग सनकी समझते हैं…..आपने भी तो मुझे सनकी ही समझ लिया है…." यह कहते हुए वे रोने लगे थे और उन्होंने रुँधे गले से मुझे कहा था, "साथी, तोह हमके अमर कई देहलअ…।" जिन लोगों ने विद्रोही जी को उन दिनों देखा होगा, आज वे विद्रोही जी को पहचान नहीं पाएँगे। अब उनका हुलिया बदल चुका है। वे अब पैंट-शर्ट और जिन्स या टी-शर्ट आदि में दिखते हैं। उनकी सनक भी समाप्त हो गयी है। मैं इसे अपनी कहानी की सफलता मानता हूँ, अपने साहित्यिक योगदान की उपलब्धि मानता हूँ।

18 नवम्बर के दिन, वर्ष 2005 को मुझे 'वागर्थ' की प्रति मिली थी जिसमें मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। 'वागर्थ' का वह अंक उस महीने देर से छपकर आया था। इससे संबंधित एक घटना साझा करता हूँ :- साहित्य की दुनिया में मेरी जिस लेखक से पहली मित्रता हुई थी, वे हैं – अजय नवरिया। मैं उन्हें बहुत याद करता रहता हूँ, हालांकि अपनी-अपनी वयस्तताओं के कारण हमारा मिलना-जुलना अब कम ही हो पाता है, फिर भी आज मैं उन्हें याद करते हुए, उन्हीं की ज़ुबानी कही हुई एक घटना आपसब से शेयर करता हूँ – "आई.आई.सी. में रवीन्द्र कालिया और राजेन्द्र यादव जी के बीच बातचीत चल रही थी। अजय राजेन्द्र यादव जी के करीबी रहे थे, प्राय: साथ ही रहते थे, वे भी वहाँ मौजूद थे। राजेन्द्र यादव जी ने कालिया जी से पूछा था – 'तुम्हारा अंक आया नहीं अबतक, क्या हो गया?' रवीन्द्र जी ने कहा – 'एक नए लड़के की कहानी आ गयी थी, मुझे कहानी इतनी अच्छी लगी कि सब रोक-राक के उस कहानी को छाप रहा हूँ। इसी के कारण अंक में देरी हो गयी है।' यह चर्चा मेरी इसी कहानी 'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' को लेकर ही चल रही थी। बाद के वर्षों में 'नया ज्ञानोदय' में छपी मेरी कहानी 'खूँटा' और 'हंस' में छपी 'फ़ैसला सुरक्षित है' खासी चर्चित रही थीं। फिर भी, पहली कहानी तो पहली ही होती है। मैं किसी भी रचनाकार की पहली रचना को पहले प्यार की तरह मानता हूँ।

अंत में, मैं अपने पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने अबतक मुझे अपना अपार प्यार दिया है। मैं साहित्य के आलोचकों और साथी लेखकों को उनके मित्रवत् सहयोग के लिए धन्यवाद देता हूँ।

- अनुज
18 नवम्बर 2016


कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और विद्रोह


गंगा ढाबे का शांत सा माहौल मुझे नास्टैल्जिक बना देता है। लैम्पपोस्ट की पीली मद्धिम रोशनी जब बिखरे पड़े बेजान पत्थरों से टकराकर धुंध में बिखरती है तो ऐसा लगता है मानो पत्थर भी बोलने लगे हों। ढाबे पर बिखरे पड़े ये बेडौल और बेजान पत्थर छात्रों के बैठने के काम आते थे। इन बेजान पत्थरों ने इस कैम्पस में न जाने कितने ही राजनैतिक सिद्धांतों को जन्मते और मरते देखा है।
बेहतरीन हिंदी कहानी: कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और विद्रोह - अनुज #शब्दांकन

हाथ में पचास पैसे की चाय वाली प्याली लिए, जींस की पैंट और लम्बे कुर्ते में सिगरेट के धुँए उड़ाती लड़के-लड़कियों की टोली, न जाने किन सिद्धांतों को लेकर आपस में इतनी मशगूल होती थी कि कब रात के दो बज जाते और कब सुबह हो जाती, पता ही नहीं चलता था। उन दिनों सिद्धांत भी तो बहुतेरो होते थे। अब तो दक्षिणपंथी भी धीरे-धीरे क़ाबिज़ होने लगे हैं, नहीं तो एक समय था जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) कैम्पस में दक्षिणपंथी कहने भर को हुआ करते थे। वामपंथ के ही इतने फिरके होते थे और वामपंथियों में ही इतनी आपसी खींचतान रहती थी कि किसी दूसरी विचारधारा के लिए अवकाश ही कहाँ होता था !

ऐसे में, अपने को अ-पॉलिटिकल समझने वाले कुछ लोगों ने इन पंथ के झगड़ों से अपने को अलग कर लिया था। वे अपने को 'फ्री थिंकर्स' कहते थे। लेकिन, धीरे-धीरे ये 'फ्री थिंकर्स' भी एक अलग समूह बन गए और एक नई विचारधारा बनकर अस्तित्व में आ गए थे। कुछ ही समय में, इन लोगों ने कैम्पस में एक मजबूत संगठन खड़ा कर लिया और अपनी एक स्वतंत्र राजनैतिक पहचान भी बना ली थी। किसी विचारधारा से नहीं जुड़ना भी शायद एक विचारधारा ही होती है।

ढाबे पर बिखरे पड़े इन पत्थरों पर बैठे छात्र-छात्राओं का गोल हो या कि प्रेमालाप में लिप्त जोड़े, दुनियाभर की राजनैतिक गतिविधियों और उनकी पेंचीदगियों को बड़ी ही बैद्धिक-संजीदगी से क्षणभर में समेटकर इस ढाबे पर ले आते थे। यहाँ रोमांस के मानदंड भी मार्क्सवाद और उसके सहयोगी वादों से ही निर्धारित होते थे। प्रेमालाप के विषय भी प्राय: राजनैतिक ही हुआ करते थे। ऐसी कुछ विशेषतायें ही तो थीं जो अन्य विश्वविद्यालयों की भेड़-चाल से जेएनयू को अलग करती थीं।

यहाँ दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों को रोमांस के अवसर कम ही प्राप्त हो पाते थे और शायद इसीलिए वे गुस्साए रहते थे। ईर्ष्या और क्रोध का यह ग्राफ़ महाजन के ब्याज़ की तरह बढ़ता रहता था और इस तरह उनकी जो छवि उभर कर सामने आती थी उसे वामपंथी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे और उन्हें 'लुम्पेन' कहकर उनकी भर्त्सना किया करते थे।

उन्हीं दिनों इस कैम्पस में वामपंथियों के एक नए फिरके का जन्म हुआ जो अपने तेवर में पिछली सभी वामपंथी विचारधाराओं में सबसे अधिक आक्रामक और जुझारु था। इसका नाम था 'आइसा'। अपने को एक मिशन बनाकर चलने वाली किसी भी आक्रामक और जुझारू विचारधारा की सफलता में संदेह की गुंजाइश कम ही होती है। शायद यही कारण था कि 'आइसा' ने भी कैम्पस में सफलता के कई सोपान चढ़े।

उन दिनों जेएनयू की छात्र राजनीति का चरित्र देश के मौजूदा राजनैतिक चरित्र से भिन्न था। यहाँ छात्र-संघ के चुनाव जाति और धर्म के आधार पर नहीं लड़े जाते थे बल्कि यहाँ चुनाव एक सिद्धांत की लड़ाई होते थे। कुछ और भी समीकरण थे जो चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। चुनाव की दृष्टि से एक लड़के को एक वोट माना जाता था जबकि एक लड़की को कम-से-कम चार वोट समझा जाता था। किसी लड़की के पास उसके अपने वोट के अलावा उसके 'ब्वॉय फ्रैंड' का एक वोट और कम-से-कम दो वोट रक़ीबों के होते थे। कभी-कभी 'ब्वॉय फ्रैंड' का वोट सैद्धांतिक विरोध के कारण अनिश्चित भी हो जाया करता था, लेकिन रक़ीबों के वोट-बैंक में सेंध नहीं लग पाती थी। 'आइसा', 'एसएफआई' और 'एआईएसएफ' जैसे सभी छात्र संगठनों में लड़कियों को अपने-अपने दलों का काडर बनाने की आपसी होड़ लगी रहती थी। 'एनएसयूआई', 'फ्री थिंकर्स' और 'डीआरएसओ' जैसे संगठन इस होड़ में हर बार पिछड़ जाते थे। जिसका सीधा असर चुनाव के नतीज़ों पर पड़ता था। 'एनएसयूआई' और 'डीआरएसओ' अपनी लाख़ कोशिशों के बावज़ूद फ्रेशर्स को अपने संगठन से जोड़ पाने में असफ़ल हो जाते थे। इनसे जुड़ने वाली लड़कियाँ प्रायः पी-एच.डी की होती थीं या फिर 'नाइन-बी-एक्सटेंशन' पर चल रही होती थीं। ज़ाहिर है कि उनका 'मॉर्केट वैल्यू' इतना नहीं होता था कि उनसे चार वोट या उससे अधिक की उम्मीद की जा सके। उन्हें एक वोट ही माना जाता था। उनके लिए कोई मारा-मारी भी नहीं थी। एक वोट वाली इन्हीं लड़कियों ने कैम्पस के लोगों को इस रहस्य से अवगत कराया था कि जेएनयू में भी लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ की वारदात होती है। नहीं तो, यहाँ के मुक्त-माहौल में किसे अंदाज़ा हो सकता था कि घुटन भरे छोटे-छोटे क़स्बों की तरह यहाँ भी लड़कियों को छेड़ने की वारदात होती होगी!

जेएनयू में 'एबीवीपी' को एक सांप्रदायिक संगठन समझा जाता था। इसीलिए इसकी सदस्यता जैसे प्रतिबंधित थी। जो थोड़े बहुत लोग इसके लिए काम करते थे वे भी इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने से कतराते थे। चूँकि जेएनयू कैम्पस में 'एबीवीपी' की सदस्यता को सार्वजनिक स्वीकृति प्राप्त नहीं थी, इसलिए इसकी सदस्यता लेना "आ बैल मुझे मार" वाली बात हुआ करती थी।

ढाबे पर चर्चा बहुत गर्म हुआ करती थी लेकिन कोलाहल कहीं नहीं होता था। कभी-कभी कोई खिलखिलाती हँसी गूँज जाया करती थी, लेकिन यह पता नहीं चल पाता था कि यह हँसी कहाँ से और किस बात पर आई थी। पास में एयरपोर्ट था इसलिए प्रत्येक दस-पाँच मिनट में गुज़रने वाला हवाई जहाज़ हहाता हुआ आता और पूरे वातावरण को शोर के सैलाब से भर देता था। कुछ ही सेकण्डों में हवाई जहाज गुजर जाता और सब कुछ फिर से पहले जैसा शांत हो जाया करता था। ऐसे में, इस पूरे वातावरण की रहस्यमयी चुप्पी को दूर से आती किसी के ज़ोर-ज़ोर से गाने की आवाज़ चीरती रहती थी।

विद्रोही जी क्या गाते थे, मालूम नहीं। लेकिन, चूँकि आवाज़ दिल से निकलती थी इसीलिए कर्कश नहीं लगती थी। धुन भी उनकी होती थी ओर बोल भी उनके।

मैंने एक दिन उनसे पूछा,

"विद्रोही जी आप ये क्या गाते रहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता है।"

उनके अपने तर्क होते थे।

उन्होंने कहा, "कल झेलम लॉन के कार्यक्रम में वह विदेशी महिला जो चीख़ रही थी, क्या आपकी समझ में आ रहा था?"

मैंने 'ना' में सर हिला दिया। उन्होंने फिर पूछा,

"जब आप उसे तल्लीनता से सुन सकते हैं तो फिर मुझे क्यों नहीं?"

उनका सीधा सा सवाल था। मैं मुँह ताकता रह गया। उनकी बात भी ठीक थी। इस तरह के कार्यक्रमों में, ऐसे लोग भी ख़ासी दिलचस्पी लेकर तल्लीन हो जाया करते थे, जिनका संगीत से कोई लेना-देना नहीं होता था। लोग-बाग ऐसा महज इस डर से करते थे ताकि कोई ये ना कह दे कि आप 'इंटेलेक्चुअल' नहीं हैं।

"साथी, यदि मेरा गाना आपकी समझ में नहीं आ रहा है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? आप अपने को परिमार्जित कीजिए।" विद्रोही जी मुझसे मुखातिब थे। उन्होंने अपनी बात जारी रखी।

"रासो तो आपने पढ़ा ही होगा? कई ऐसे रासो काव्य हैं जिन्हें सामने रख दिया जाए तो हिन्दी जानने का दावा करने वाले अच्छे-अच्छों को अपनी औक़ात समझ में आ जाए।"

विद्रोही जी के कहने का तात्पर्य मेरी समझ में इतना ही आ रहा था कि वे जो कुछ भी गा रहे हैं वह अर्थहीन या किसी सनकी का आलाप नहीं है बल्कि कुछ ऐसी गंभीर बातें हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए। पूरा गंगा ढाबा विद्रोही जी का श्रोता हुआ करता था लेकिन वास्तव में उन्हें सुनता शायद ही कोई था।

मैंने पूछा, "विद्रोही जी, जब कोई सुन नहीं रहा है तो आप इस तरह ज़ोर-ज़ोर से क्यों गा रहे हैं?"

विद्रोही को जवाब सोचना नहीं पड़ता था। हमेशा हाज़िर जवाब। लेकिन नपे-तुले शब्दों में, मानो किसी मंच से बोल रहे हों।

बोले, "देखिए साथी, नहीं सुनते हुए भी आज आपने मुझसे यह सब तो पूछ ही लिया ना। एक दिन आएगा जब समय आप सब से पूछेगा कि विद्रोही से क्यों नहीं पूछा।"

हालांकि मुझे उनकी बातें अटपटी सी लग रही थीं, लेकिन मैंने चर्चा ज़ारी रखी।

"विद्रोही जी, आपने संगीत तो सीखा नहीं है लेकिन गाते आप सुर में हैं", विद्रोही के नाराज़ होने की आशंका से मैंने दबी ज़ुबान में पूछा।

विद्रोही जी ने दार्शनिकों की तरह जवाब दिया, "साथी, सीखकर कोई कलाकार नहीं बनता। कला अन्दर की चीज़ होती है जो कविता-कहानी, गीत-संगीत और विद्रोही की अटपटी बातों में ही अभिव्यक्त होती है।"

विद्रोही आसमान की ओर देख रहे थे और मैं विद्रोही की ओर। विद्रोही की बातें मेरी समझ से परे होती थीं। लेकिन मैं सुनता बहुत धैर्य से था।

मैंने पूछा, "विद्रोही जी, अभी-अभी आप जो गा रहे थे, उसका क्या अर्थ है?"

विद्रोही हँसे पर कुछ बोले नहीं।

उन्होंने मुझसे पूछा, "अच्छा साथी, ये बताइये कि यदि मैं आपको अभी दो-तीन पृष्ठों का कोई गद्य पढ़कर सुनाने लगूँ तो क्या आप सुनेंगे?"

फिर थोड़ा थमकर मुस्कुराते हुए बोले, "मैं ढाबे पर खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगूँ और कहूँ कि भाइयों, मुझे सुनो, तो आज की ही रात पागल घोषित कर दिया जाऊँगा। लेकिन गीत-संगीत में यही सुविधा होती है कि आप इसके माध्यम से कहीं भी, कुछ भी कह सकते हैं। गद्य सुनने की नहीं, पढ़ने की चीज़ होता है। श्रव्य तो गीत-संगीत और काव्य ही हो सकते हैं।"।

मुझे विद्रोही की बातों में सनक से अधिक बौद्धिकता दिख रही थी। शायद बौद्धिकता को ही सनक कहते हैं। मैंने किसी से सुन रखा था कि स्वस्थ और अस्वस्थ मानसिक स्थितियों के बीच की विभाजक-रेखा बहुत क्षीण होती है। आज मैं यह महसूस कर रहा था। मैंने एक सिगरेट सुलगाई।

"साथी, एक सिगरेट मुझे भी पिलाइये", विद्रोही जी ने आदेश किया।

मैंने उन्हें एक सिगरेट दी और पूछा, "चाय पिएँगे आप?"

"क्यों नहीं, आप पिलाएँगे तो ज़रूर पीऊँगा", उन्होंने हामी भरी।

विद्रोही जी थोड़ी देर चुप रहे।

फिर सिगरेट की एक लम्बी कश लेते हुए बोले,

"साथी, मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन किससे कहूँ? कौन सुनेगा? किसे फ़ुर्सत है? क्या यह क्राउड सुनेगी जिसे अपने कॅरिअर, गर्ल-फ्रैंड और बॉय-फ्रैंड के अलावा कुछ और दिखता ही नहीं? कौन सुनेगा? मैं ढाबे पर खड़े होकर बांग तो नहीं दे सकता ना! इसीलिए गाता हूँ। कोई यह तो नहीं कहेगा कि 'अरे पगले, क्या सनकियों की तरह बोल रहा है'। इसीलिए मैं गा-गा कर अपनी बात कहता हूँ।" विद्रोही जी बोलते हुए भावुक हो गए थे।

वे थोड़ी देर चुप रहे फिर उत्तेजित होते हुए बोल पड़े,

"टेलीविज़न पर पता नहीं कितने ही महाराज, कितने बापू, ये अलां, वो फलां घंटों बकवास करते रहते हैं तो लोग सुनते हैं या नहीं? मैं गाना ही तो गाता हूँ, इन तथाकथित साधु-महात्माओं की तरह भोली-भाली जनता का मानसिक शोषण करके पैसे तो नहीं बना रहा हूँ? मैं गा रहा हूँ, जिसे सुनना है सुने, नहीं तो मेरी बला से।"

विद्रोही जी आपे में नहीं थे। उन्हें गुस्से में देखकर मैंने अब वहाँ से खिसक निकलने में ही अपनी भलाई समझी थी।



श्यामाकांत सिंह 'विद्रोही' आज़मगढ़ के रहने वाले थे। आज़मगढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा क़स्बा है। यहाँ बड़ी-बड़ी विभूतियों ने जन्म लिया है और यहाँ की मिट्टी को कृतार्थ किया है। आज़मगढ़ की युवा-शक्ति इन विभूतियों का नाम बड़े गर्व से लेती है। इन्हीं विभूतियों में एक श्रेष्ठ नाम था अबू सलेम का जो यहाँ के बेरोज़गार नवयुवकों के आदर्श हुआ करते थे और जिन्होंने आज़मगढ़ का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया था। एक ज़माना था जब आम लोग गुंडे-बदमाशों से अपनी रिश्तेदारी छुपाया करते थे, लेकिन अब तो समाज के मानदण्ड ही बदल गए हैं। कहते हैं कि उमराव जान अदा भी यहीं-कहीं आस-पास के किसी क़स्बे की रहने वाली थीं। लेकिन अब तक लोग-बाग उन्हें भुला बैठे थे।

इसी आज़मगढ़ से बी.ए पास करने के बाद विद्रोही जेएनयू आ गए थे। सारे इलाके में शोर था कि विद्रोही की तो जि़न्दगी ही बन गयी। अब तो बड़ा अफ़सर बनकर ही लौटेगा। लेकिन जेएनयू आने के बाद विद्रोही अपने नाम को वास्तविक अर्थवत्ता देने में जुट गए। विद्रोही प्रवृत्ति तो थी ही, ग़रीब किसान का बेटा दिल्ली की आर्थिक विषमता को देखकर आंदोलित हो उठा। जेएनयू के प्रखर राजनैतिक माहौल ने आंदोलित मन को आश्रय भी दिया। जेएनयू की पूरी छात्र राजनीति बाँहे पसारे ऐसे ही उद्वेलित मन की तलाश में तो रहती थी। विद्रोही को भी एसएफआई का हार्डकोर काडर बनते देर ना लगी।

विद्रोही जेएनयू में हिन्दी विभाग के एक मेधावी छात्र थे। एम.ए, एम.फिल, फिर पी-एच.डी। लेकिन पी-एच.डी अधूरी रह गई। जीवन में एक विद्रोहिनी आ गर्इं। दोनों एक ही सेंटर में थे। बस बात आगे बढ़ गई। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा मानो तूलिका जी ही विद्रोही के शोध का विषय बन गई हों। सुबह-दोपहर-शाम, सब तूलिका जी के नाम। तूलिका जी सुन्दर तो थीं ही, अपनी सुन्दरता का मतलब भी समझती थीं। राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी रखती थीं इसीलिए पढ़ाई-लिखाई के लिए समय बच नहीं पाता था। लेकिन, विद्राही जी आख़िर किस मर्ज़ की दवा थे? तूलिका जी को परेशानी में तो देख नहीं सकते थे। फिर क्या था। उन्होंने तूलिका जी का पूरा एम.फिल डिज़र्टेशन ख़ुद ही लिख डाला। विभाग में इसे ख़ूब सराहा भी गया। इसी के बाद से विभाग में, तूलिका जी की मेधा भी चर्चा का विषय बन गयी थी।

उन दिनों 'आइसा' की कमान विनय जी के हाथों में थी। विनय जी की राजनैतिक दूरदर्शिता उन्हें यह मशवरा दे रही थी कि यदि किसी भी तरह से तूलिका को 'आइसा' से जोड़ लिया जाए, तो इसबार यूनियन पर उनका क़ब्ज़ा पक्का हो जाएगा। विनय जी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि तूलिका के इस दल से जुड़ जाने का अर्थ था मनचले लड़कों के एक बड़े जत्थे की निष्ठा-प्राप्ति।

आख़िरकार विनय जी अपने उद्देश्य में सफल हुए। माध्यम बने विद्रोही। विनय जी का जादू विद्रोही के सिर चढ़कर ऐसा बोला कि विद्रोही एसएफआई को छोड़, 'आइसा' के सदस्य बन गए। लेकिन विद्रोही और विनय जी की लम्बे समय तक निभ नहीं पाई। विद्रोही की विद्वता और ओज के साये तले विनय जी का आभा-मंडल मलिन पड़ता दिखने लगा। ऊँट पहाड़ के नीचे आ गया था।

दूसरी ओर, तूलिका जी को भी 'आइसा' से जुड़ने के बाद अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के पूरे होने के आसार दिखने लगे थे। विनय जी को भी तूलिका में बहुत सारी संभावनाएँ दिख रही थीं। वे तूलिका का राजनैतिक लाभ तो लेना चाहते थे ही, वे उससे उसके नारी होने के बावज़ूद राजनैतिक महत्वाकांक्षा रखने की क़ीमत भी वसूलना चाहते थे। किन्तु, विद्रोही के रहते उनकी यह योजना पूरी नहीं हो सकती थी। यह बात उनसे छुपी हुई नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें अब विद्रोही की उपस्थिति चुभने लगी थी। विनय जी नारी को सम्मोहित करने की कला में, विद्रोही की तुलना में, भले ही कमज़ोर थे परन्तु राजनैतिक प्रपंच में अव्वल थे। अबतक विनय जी ने विद्रोही के विरुद्ध हाथ-पैर मारना शुरु कर दिया था।

इधर विद्रोही की बे-वफ़ाई से आहत एसएफआई भी उनसे खार खाए बैठी थी। विनय जी अवसर से लाभ उठाना ख़ूब जानते थे। फिर क्या था। शत्रु का शत्रु मित्र होता है। विनय जी ने एसएफआई के साथ विद्रोही के विरूद्ध एक गुप्त संधि कर ली। इस नए मोर्चे ने विद्रोही की चूलें हिला दीं।

बावज़ूद इसके विद्रोही ने हार नहीं मानी। डटे रहे। उन्हें दल के अन्दर के एक मजबूत फिरके का समर्थन प्राप्त था। ताकत वहाँ से मिल रही थी। लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाती? वही हुआ जिसका अंदेशा था। नए गँठजोड़ ने तुरुप के इक्के की अंतिम चाल चली। विद्रोही साम्प्रदायिक संगठनों के एजेंट घोषित कर दिए गए। ऐसे में, अब किसी भी फिरके में उनका साथ देने का साहस बचा न रहा। विद्रोही 'आइसा' से बाहर निकाल दिये गए।

उन दिनों जेएनयू में साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़ने का सीधा अर्थ होता था नारी-समाज से तिरस्कृत होना। विनय जी ने अन्य छात्र राजनैतिक संगठनों से भी अपना गणित फिट कर लिया था। इस तरह बग़ैर किसी विरोध के विद्रोही जी कैम्पस में राजनैतिक रूप से अलग-थलग कर दिये गए। पी-एच.डी का काम भी अभी तीन-चौथाई से ज्यादा बाक़ी था। सारा समय तो तूलिका जी के एम.फिल डिज़र्टेशन में निकल चुका था। और अब तो तूलिका ने भी किनारा कर लिया था। विनय जी ने भी विद्रोही के विरूद्ध अपने राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल करने में कोई कसर रख नहीं छोड़ी थी। इसीलिए लाख़ कोशिशों के बावज़ूद, विद्रोही को "नाइन-बी एक्सटेंशन" भी नहीं मिल पाया। पी-एच.डी. अधूरी रह गई। और अंतत: विद्रोही जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से बाहर निकाल दिये गए।

कुछ समय तक विद्रोही कैम्पस से ग़ायब रहे। किसी को पता नहीं था कि कहाँ गए। लेकिन, कुछ महीनों के बाद वे कैम्पस में फिर से नज़र आए। अब यहाँ उनका कोई शत्रु नहीं था। वेश-भूषा भी बदली हुई थी। एक पुरानी सी जींस, मौला-कुचौला सा कुर्ता, पाँव में एक पुरानी हवाई चप्पल। दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी।

मैंने पूछा, "आजकल कहाँ हैं विद्रोही जी? क्या चल रहा है"?

विद्रोही आसमान की ओर शून्य में देखकर बड़बड़ाने लगे,

"मैं एक किसान हूँ, आसमान में धान रोप रहा हूँ। लोग कहते हैं कि अरे पगले, आसमान में कहीं धान उगता है? मैं कहता हूँ, अरे घेघले, जब इस धरती पर भगवान उग सकता है तो आसमान में धान क्यों नहीं उग सकता? और अब तो इन दोनों में से एक ही बात होगी। या तो आसमान में धान उगेगा या फिर धरती से भगवान उखड़ेगा।"

बड़बड़ाते हुए विद्रोही, बे-परवाह कदमों से धुंध में कहीं खो गए थे।

दिन-ब-दिन विद्रोही जी की सनक बढ़ती जा रही थी। पत्थरों पर आकर बैठ जाना, अपने-आप ही बड़बड़ करते रहना और ज़ोर-ज़ोर से गाना गाना। यह सब उनकी नित्यचर्या में शामिल हो गया था।

मैं जब भी जेएनयू आता तो मेरी आँखे विद्रोही को ढूँढ़ा करती थीं। वे प्राय: ढाबे पर मिल जाते थे। मैं उनसे ज़रूर मिलता और उन्हें एक प्याली चाय और एक विल्स फिल्टर सिगरेट पिलाता था। मैंने विद्रोही का छात्र-जीवन देखा था। शायद इसीलिए मैं उनसे सहानुभूति रखता था।

बहुत देर से मैं उन्हीं पत्थरों को घूर रहा था जिन पर बैठकर विद्रोही गाया करते थे। मैं न जाने ऐसे कितने ही ख़्यालों में ग़ुम था कि अचानक किसी ने मुझे टोका,

"इन पत्थरों में क्या ढूँढ़ रहे हो भाई?" मैं जैसे नींद से जागा।

मैंने कहा, "यहाँ बैठकर एक आदमी ज़ोर-ज़ोर से गाना गाया करता था। आज दीख नहीं रहा है !"

"आप शायद विद्रोही पगले की बात कर रहे हैं?" उसने मेरी ओर आश्चर्य से देखा।

"हाँ, हाँ वही", मैंने हामी भरी।

"अरे साहब, उसे मरे-खपे तो बरस बीत गए", उसने निरपेक्ष भाव से कहा।

"कब, कैसे?" मेरे मन में अचानक कई सवाल एक साथ उठ खडे़ हुए।

"अब राम जाने क्या हुआ था। कोई कहता है कि ठंड से अकड़ कर मर गया, तो कोई कहता है कि उसने आत्महत्या कर ली...... किसी को ठीक-ठीक मालूम नहीं कि क्या हुआ था। इन्हीं पत्थरों पर तो लुढ़की पड़ी थी लाश।" वह बहुत देर तक बोलता रहा था।

मैं भारी मन से कैम्पस से बाहर आ गया था। लेकिन विद्रोही के गाने आज भी मेरे कानों में गूँजते रहते हैं।

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