क्या अब जेएनयू (JNU) का मिथक टूट चुका है? — अनुज

क्या अब 'जेएनयू' का मिथक टूट चुका है?

— अनुज

क्या अब 'जेएनयू' का मिथक टूट चुका है? — अनुज #शब्दांकन

पिछले दिनों घटी 'जेएनयू' की घटना ने बहुत सारे सवालों पर सोचने को विवश कर दिया है। 'जेएनयू' तो छात्र राजनीति का गढ़ रहा ही है! कोई नई बात तो नहीं है। और यह भी उतना ही सच है कि 'जेएनयू' के छात्रों ने इसी कैम्पस में बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ भी लड़ीं हैं। 1983 में तो इतना बड़ा छात्र आन्दोलन हुआ था कि इंदिरा गाँधी को 'जेएनयू' की अपनी चांस्लरशिप छोड़नी पड़ी थी, 'जेएनयू' कैम्पस में ताला लग गया था और हॉस्टल खाली करा दिए गए थे। लेकिन उन दिनों भी किसी ने देशद्रोह की बात नहीं की थी या किसी आतंकवादी का इसतरह गुणगान नहीं किया था, जैसा कि पिछले दिनों सुनने को मिला है। याद रहे कि 1983 के आन्दोलन को भी वामपंथी छात्र संगठनों ने ही नेतृत्व प्रदान किया था। जबकि उन दिनों भी देश में पाकिस्तान की तर्ज पर 'खालिस्तान' नाम के एक नये देश के निर्माण की लड़ाई लड़ी जा रही थी। कुछ सिरफिरे लोगों ने हिन्दुस्तान को एक बार फिर से बाँटने की तैयारी कर ली थी। जैसे कि आज कश्मीर को लेकर चल रही है। लेकिन उन दिनों में भी, हमने तो नहीं सुना कि कभी किसी ने कैम्पस में 'खालिस्तान' की अवधारणा के जनक जगजीत सिंह चौहान की जय-जयकार की हो या फिर कि किसी ने जरनैल सिंह भिंडरवाले के पक्ष में खड़े होकर नारे लगाए हों। पूरे देश में कहाँ कभी सतवंत सिंह और बेअंत सिंह के गुणगान किए गए थे!

फिर आज वे कौन सी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयीं हैं कि अफ़ज़ल गुरु के जय-जयकार की नौबत आ गयी! कौन है यह अफ़ज़ल गुरु? क्या इसने अल्बर्ट एक्का की तरह देश की अस्मिता की खातिर जान दे दी थी, भगत सिंह की तरह देश की आजादी के लिए फांसी पर झूल गया था, क्या कारगिल का शहीद था या फिर सियाचीन में देश की रक्षा करते हुए बर्फ़ में दब गया था? कौन था यह अफ़ज़ल गुरु?

जब देश की न्याय व्यवस्था अफ़ज़ल गुरु को आतंकवादी घोषित करके फांसी दे चुकी है तो फिर उसे समर्थन किस आधार पर दिया जा रहा है? चलिए हमने एक क्षण के लिए आपकी यह बात मान ली और मैं उसी पुराने तर्क की बात करता हूँ कि अफ़ज़ल गुरु को फांसी नहीं दी जानी चाहिए थी और उसे रिहा कर दिया जाना चाहिए था। हमने आपकी यह बात भी मान ली कि भारत के माननीय न्यायमूर्तियों से गलती हो गयी और उसे बिना किसी ठोस सबूत के फांसी दे दी गयी थी। लेकिन इन सब बातों को मान लेने के बावजूद इस तर्क का कोई आधार कहाँ बनता है कि 'जेएनयू' जैसी महान 'लेगेसी' वाले विश्वविद्यालय के परिसर में उस व्यक्ति की जय-जयकार की जाए? ऐसा क्या किया था उस आदमी ने इस देश के लिए, भारतीय समाज के लिए, देश के छात्रों के लिए या फिर 'जेएनयू' कैम्पस के लिए कि 'जेएनयू' कैम्पस उस शख़्स को इस तरह याद करे और उसका गुणगान करे? अगर आपको अपने देश की व्यवस्था से कोई शिकायत है तो आप 'जेएनयू' परिसर में देश की न्याय-व्यवस्था पर बहस कर सकते थे, देश के उच्चतम न्यायालय की कार्य प्रणाली पर और उसके निर्णय पर सवाल उठा सकते थे, उच्चतम न्यायालय के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी कर सकते थे, सरकार को आड़े हाथों ले सकते थे, लेकिन अफ़ज़ल गुरु की जय-जयकार करने के पीछे क्या तर्क बनता है?

​कुछ लोगों का यह मानना है कि मीडिया फैब्रिकेट करके न्यूज़ बना रहा है, 'जेएनयू'  को बदनाम कर रहा है। यह हो सकता है। मीडिया प्राय: ऐसा करता है। मैं आपकी बात मान ले रहा हूँ। 'जेएनयू' से चिढ़े बैठे लोगों की कमी नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो आज मीडिया वर्ल्ड में ऊँचे ओहदे पर काम कर रहे हैं और उन्होंने 'जेएनयू' की प्रवेश परीक्षा दो-दो बार दी थी और फेल हो गए थे। और जब उनका चयन नहीं हुआ था, तभी से वे 'जेएनयू' को पेट भर धारा-प्रवाह गालियाँ देते हैं। मैं ऐसे भी लोगों को जानता हूँ जो यह सुनते ही कि आप 'जेएनयू' के छात्र हैं, बिना किसी लाग-लपेट के यह मान लेंगे कि आप अपने-आप को आसमान की चीज़ समझते होंगे, आपको समाज की सच्चाई का कुछ अता-पता नहीं होगा और आप एक 'आइवरी टावर' में बैठकर देश की हालत पर विचार करने वाले 'श्यूडो इंटेलेक्चुअल' होंगे और आप रूस और चीन के पिछलग्गू व्यक्ति होंगे और आप में वे सारे गुण-अवगुण भरे होंगे जो 'कम्युनिस्टों' में नहीं पाए जाने चाहिएँ, आदि-आदि। कुछ लोग तो 'जेएनयू' का नाम सुनते ही अजीब ढंग से मुँह सिकोड़ लेते हैं। वे यह मान लेते हैं कि आप एक दिखावटी प्रोग्रेसिव सोच के व्यक्ति होंगे, अच्छी अंग्रेजी बोलते होंगे, जिन्स और कुर्ता पहनते होंगे, सिगरेट तो जरूर ही पीते होंगे, आपकी एक गर्लफैंड अवश्य होगी, आप अपने कॅरिअर के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते होंगे, आपको कार्ल मार्क्स के 'कैपिटल' का तीनों खंड तो कंडस्थ होगा ही और आप 'हो-ची मीन' और 'चे-ग्वेरा' आदि को अपना आदर्श मानते होंगे। ऐसे पता नहीं कितने ही मिथक 'जेएनयू' के नाम के साथ चस्पा हैं। ऐसे में, लोग कहानी बना सकते हैं, मीडिया न्यूज़ फ्रेम कर सकता है। लेकिन, मुझे टेलीविज़न के स्क्रीन पर तो इतना दिख रहा है ना कि लोगों ने हाथों में अफ़ज़ल गुरु की तस्वीरें ले रखी हैं, जैसे वह कोई जयप्रकाश नारायण रहा हो! उस जलसे में उसके नाम के नारे गूँज रहे थे। फिर वे नारे कैसे थे? क्या वे नारे उस आतंकवादी के पक्ष में नहीं, ख़िलाफ में लगाए जा रहे थे? क्या उस दिन 9 फरवरी, 2016 को, कैम्पस में उसकी फांसी का जश्न मनाया जा रहा था? वहाँ क्या हो रहा था? वह अवसर कौन-सा था कि कैम्पस में इतने छात्र एकठ्ठा होकर जश्न मना रहे थे? 

किसी ने मुझे बताया कि वहाँ अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनायी जा रही थी। मेरी तो यही बात समझ में नहीं आ रही है कि आख़िर अफ़ज़ल गुरु की बरसी क्यों मनायी जा रही थी? जहाँ तक मैं समझता हूँ और मुझे उसके नाम से यह मालूम होता है कि अफ़ज़ल गुरु मुस्लिम रहा होगा। जाहिर है कि वह इस्लाम को मानता होगा। फिर बरसी क्यों मनायी जा रही थी? इस्लाम में तो बरसी का कोई 'कॉन्सेप्ट' नहीं है? बल्कि यह तो इस्लाम के ख़िलाफ़ बात है। इस्लाम में तो मरने के बाद केवल तीन दिन का मातम रखते हैं! फिर रह जाती है इंसान की नेकी, उसके द्वारा किए गए अच्छे कार्य। इस्लाम का तो जन्म ही आडम्बरों के ख़िलाफ़ हुआ था। फिर यह बरसी की बात कहाँ से आई? जिन बातों की इजाज़त  क़ुरान की आयतें नहीं देतीं, वह इस्लाम के ख़िलाफ़ होती हैं। इसका अर्थ तो यह है कि उस दिन कैम्पस में कुछ लोग सिर्फ हिन्दुस्तान की ही नहीं, इस्लाम की भी मुख़ालफ़त कर रहे थे, उसकी बुनियाद के साथ खिलवाड़ कर रहे थे! अब सवाल यह उठता है कि 9 फरवरी को उस जलसे में मौजूद वे कौन लोग थे जो इस्लाम का नाम लेकर इस्लाम का मज़ाक उड़ा रहे थे? अभी आपने बरसी मनाकर इस्लाम की मुख़ालफ़त करनी शुरु की है, कल होकर आप कुछ और भी करने लगेंगे। अब जब 'जेएनयू' कैम्पस में इतना सब कुछ हो ही रहा है तो अब तो इतना ही बचा है कि अफ़ज़ल गुरु की एक मूर्ति गंगा ढाबा पर स्थापित कर दी जाए और साथ में, मसूद अज़हर और दाऊद भाई आदि चंद और देवताओं की भी मूर्तियाँ लग जाएँ तो 'कोरम' पूरा हो जाए! फिर उसी के सामने अजान देने की भी शुरुआत कर ही दीजिए...! देर किस बात की? हालांकि इस्लाम तो इसकी इजाज़त नहीं देगा, क्योंकि इस्लाम में बुतपरस्ती को क़ुफ्र माना गया है, लेकिन उन्हें क्या! ऐसा करके भारत विरोधी नारे लगाने वाले और अपनी राजनीति के लिए कुछ भी कर देने वाले अवसरवादी राजनैतिक लोग अपने गुरुवर, अफ़ज़ल गुरु जी महाराज के प्रति अपनी गहरी आस्था और भी गहरे ढंग से तो व्यक्त कर सकेंगे ही! …शर्म भी नहीं आती लोगों को..! 

शायद 'जेएनयू' की छात्र राजनीति अब वह नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। जब हमलोग जेएनयू में पढ़ते थे, वामपंथ अपने शबाब पर हुआ करता था। 'एआईएसएफ', 'एसएफआई', 'डीआरएसओ' और 'फ्री-थिंकर्स' जैसे छात्र-संगठन चुनाव लड़ते थे। राजनैतिक रूप से तो जेएनयू हमेशा से ही संवेदनशील रहा है! जब चुनाव के समय 'प्रेसिडेंशियल डिबेट' होता था और विविध छात्र संगठनों के उम्मीदवार अपना भाषण देते थे और अन्य उम्मीदवारों के साथ बहस करते थे और छात्रों के सवालों का उत्तर देते थे तो ऐसा लगता था मानो बड़े-बड़े विद्वानों का कोई सम्मेलन हो रहा है। हमसब रात-रातभर डिबेट सुनते रहते थे। दुनिया भर की समस्याओं पर बहस खड़ी होती थी- कहीं 'थियानमेन स्क्वॉयर' में छात्रों पर गोलियाँ चलतीं और जेएनयू रणभूमि बन जाता था....। बहुत कुछ ऐसा होता था जो आज भी हमसब को 'नॉस्टैल्जिक' बना देता है।

लगता है कि अब छात्र राजनीति वाह्य तत्वों से अधिक प्रभावित रहने लगी है और छात्र नेता अब मुख्य-धारा की राजनीति के हथियारों की तरह इस्तेमाल होने लगे हैं, 'हाईजैक्ड' हो गए हैं। अब छात्र-राजनीति वैसा 'प्रेशर ग्रुप' नहीं रही कि दलगत बातों से ऊपर उठकर छात्र-हित में स्वस्थ और सकारात्मक राजनीति करे बल्कि छात्र राजनीति भी चुनावी राजनीति की तरह सस्ती और बाज़ारु हो गयी है। हमसब यह देखकर उदास हैं, और बस इतना ही कह सकते हैं कि 'जेएनयू' की राजनीति की उस परम्परा का वहन किया जाना चाहिए जहाँ राजनीति पैम्पलैट से होती थी, प्रेशर ग्रुप की तरह होती थी और चंद अन्य विश्वविद्यालयों की तरह बंदूक और आतंक के सहारे राजनीति नहीं होती थी। आप सब से इतना ही आग्रह कर सकता हूँ कि छात्र राजनीति को स्वस्थ डिबेट और सही तर्कों पर आधारित एक प्रेशर ग्रुप की तरह काम करने दीजिए। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कैम्पस के बाहर की मुख्य-धारा की राजनीति में तो गलीज़ भरी ही हुई है, 'जेएनयू' में भी उसी तरह की गलीज़ की जरूरत है क्या? देश का भविष्य आप सब ही हैं, ले जाइये जहाँ ले जाना है, हमसब अब कर ही क्या सकते हैं? यह देश आपका है, भविष्य आपका है। लेकिन इतना-भर तो कहूँगा ही कि ऐसा कुछ मत कीजिए कि हमसब कहीं यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस करें कि हम भी कभी जेएनयू के छात्र रहे हैं...!