कृष्णा अग्निहोत्री - 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं


कृष्णा अग्निहोत्री - 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं #शब्दांकन

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला

- कृष्णा अग्निहोत्री


वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा अग्निहोत्री जी से हुई डॉ ऋतु भनोट की इस लम्बी बातचीत को शब्दांकन पर आपके लिए प्रकाशित करते हुए यह सोच रहा हूँ कि आख़िर क्यों ऐसा है कि हिंदी साहित्य जगत अपने-ही साहित्यकारों के साथ कई दफ़ा दोगला व्यवहार करता है? एक लेखक जिसे पाठकों का भरपूर प्यार मिलता हो उसे-ही आलोचक नज़रअंदाज़ किये जाए ... ज्यादा क्या कहूं आप सब समझदार हैं हाँ इतना ज़रूर कहना चाहुँगा कि कम से कम हम बीती ताहि बिसार दें और आगे की सुधि लें - और ऐसा न होने दें.

भरत तिवारी


Krishna Agnihotri Interview


ऋतु: कृष्णा, द्रोपदी को भी कहते हैं और जो कृष्ण प्रेम में तदाकार होकर कृष्णमय हो जाये उसे भी कृष्णा कहते हैं। जहाँ तक मैं आपको जानती हूं, आपके जीवन में प्रेमपक्ष तो क्षीण ही रहा क्योंकि आपके जीवन में आने वाले पतिनामधारी दोनों पुरुष प्रेम की परिभाषा तक से भी अपरिचित थे। तो क्या मैं यह समझूं कि देवी माँ की अनुकम्पा की छत्रछाया ने ही आपको आज की कृष्णा बनने का सम्बल दिया?

कृष्णा अग्निहोत्री : कृष्णा द्रौपदी का भी नाम है और कृष्णा राजस्थान की एक देशप्रेमी राजकुमारी का भी नाम था जिसने देश को बचाने हेतु विष का प्याला पिया था। जहाँ तक मेरी बात है, प्रेम मेरे लिये आज तक अपरिभाषित ही है। वैसे यह कहना तो असत्य होगा कि कभी भी, किसी भी क्षण में मैंने उसे अनुभूत नहीं किया। 16 वर्ष की थी, तब तो नहीं समझी थी जब शिवकुमार ने प्रेम व विवाह का प्रस्ताव रखा, वह जिज्ञासा का विषय रहा। डर-भय ने उसे समझने व अनुभूत होने का समय ही नहीं दिया।

विवाह पश्चात् मां की संस्कारी भावनावश भी मैं अजनबी, अनजाने, रूखे पति से प्यार नहीं कर सकी। तानाशाह, माँ व परिवार को ही सत्य मानने वाले पति ने प्यार नहीं किया अपितु एक दिन कह ही दिया कि वे मुझे प्यार नहीं करते तो अंतःमन की किसी कृष्णा ने धीरे से अन्याय के विरुद्ध सोचना आरंभ किया व जो मुझे अप्रिय माने और शक्ति प्रदर्शन करे, उसके विरुद्ध मैंने खामोशी से विद्रोह कर दिया। प्यार न पाने की व्यथा पाने के पूर्व ही अहसासी।

श्रीकांत के समय में उनकी नाटकीयता मेरे लिये कुछ समय तक अनोखी थी। न चाहकर भी मैंने यही अनुभूत किया कि जो एक चाहत है व भीतर पनपी है, वही प्यार है। कुछ समय बाद श्रीकांत के स्वार्थ, बच्चों के माध्यम से कही बातें, झूठ, तिरस्कार, अपमान, प्रतिष्ठा छीनने का प्रयास, लेखन को मिटाने के प्रयास, रुपये का लालच, मेरी एक-एक पल की चाहत को कुचलते ही गये। दुःखी, तिरस्कृत कृष्णा ने स्वयं व अपनी बच्ची को एक नरक से दूसरे नरक में रहने से बचाने का कठोर मन बना लिया। वो कदम उठाया जो बेहद कांटों भरा था। कह दिया, “मैं आपसे नहीं मिलना चाहती”। दुष्परिणाम भोगे, दो पतियों से अलग होने की सज़ा भरपूर भोगी। उस दुर्भाग्य के छींटे मेरी बेटी ने भी सहे।

मेरी अन्तर्रात्मा ने नाटकीयता, झूठ व आरोपित शोषण की पुनरावृत्ति से छुटकारा ले लिया। आप ठीक समझ रही हैं कि दुर्गा माँ की अदृश्य छाया के तले मैं उनकी अनुकम्पा से खाई व कुएं दोनों से बाहर आ आज की कृष्णा बन गई।


ऋतु: महिला आत्मकथा लेखन बेहद चुनौतीपूर्ण तथा जोखिम भरा है। अपनी आत्मकथा लिखते समय क्या आपको कभी दुविधा अथवा संकोच का सामना करना पड़ा? क्या आप कभी यह सोचकर द्विधाग्रस्त हुईं कि एक स्त्री के जीवन की नग्न सच्चाइयों पर पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी होगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : मुझे आत्मकथा हेतु मेरे मित्र वीरेन्द्र सक्सेना ने प्रेरित किया। उस समय सारी आत्मकथाएं पढ़ीं तो मेरे मन में सच्चाई से सच लिखने की हौंस, उत्साह था, जो कई आत्मकथाओं में नहीं है। मेरी दोनों आत्मकथाएं सच और सच से भरी हैं। उस समय जोश में कुछ लोगों के नाम भी लिख दिये, बचपन की घटनाएं साफगोई से लिखीं ताकि दूसरे उसे समझें व उनके बच्चे बचें।

कुछ पुरुषों ने व मेरे साथ की लेखिकाओं ने कहा, ‘‘आपको नाम लेकर नहीं लिखना था।’’ मुझे आश्चर्य है कि लेखिकाएं ही शोषणकर्ता का नाम नहीं जानना चाहतीं या उसे रुष्ट नहीं करना चाहतीं जबकि राजेन्द्र यादव, अवस्थी जी ने ही बुरा नहीं माना। हां प्रभाकर क्षोत्रिय, नामवर जी, हिमांशु नाराज़ है और मेरे लेखन को पसंद नहीं करते। मैं समझौतावादी नहीं रही।

मेरी बेटी को भड़काया गया, सूर्यकांत नागर ने मुझे अश्लील व दिनेश द्विवेदी जैसे अवसरवादी ने सिनिकल तक कह दिया। पाठकों ने सराहा और मेरी आत्मकथा पर जम्मू से लेकर कुमाऊँ तक पी-एच. डी हो रही है।


ऋतुः प्रकाशन से पुरस्कृत होने की राजनीति के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी? साहित्यिक खेमेबाजी, गुटबंदी का क्या आपको कभी शिकार होना पड़ा? यदि हाँ, तो इस पैंतरेबाजी से विलग रहकर साहित्य में अपनी पहचान बनाने की यात्रा आपने कैसे तय की?

कृष्णा अग्निहोत्री : प्रकाशकों की गुटबाजी व तानाशाही का पूरी तरह शिकार रही जिसके कारण विलम्ब से मेरा मूल्यांकन हो रहा है। इस संदर्भ में अरविंद बाजपेयी जी, अमन प्रकाशन, अलग हैं, उन्होंने न मुझे देखा, न मिले, तब भी वे मुझे प्रोत्साहन देकर छाप रहे हैं व प्रसार, प्रचार भरपूर है।

उनके प्रयास से ‘आना इस देश’ कोल्हापुर विश्वविद्यालय के तीसरे वर्ष में पाठ्यक्रम के कोर्स में लगा है। गुटबाजी से तो अलग हूं ही। परन्तु ठप्पेबाजी ने तो सताया। इन्दिरा गांधी पर उपन्यास लिखा ‘बित्ता भर की छोकरी’ जो निहायत अच्छा बना पर क्रांग्रेस के ठप्पे ने उसे पछाड़ दिया।

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला। अब लिखना तो भीतर से संबंधित है। छोटे से छोटे प्रकाशक ने किताबें छापीं और मैं अनवरत् लिखती जा रही हूं।

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला- कृष्णा अग्निहोत्री #शब्दांकन


ऋतुः महिला रचनाकार अपनी रचनाओं में जब भी शारीरिक संबंधों की चर्चा करती हैं तो अधिकतर उनके लेखन को ‘बोल्ड’ अथवा ‘अश्लील’ कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है। महिला लेखन के संदर्भ में आप बेबाक बयानी और अश्लीलता के महीन अंतर को कैसे परिभाषित करेंगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत के पुरुष समाज में आज भी 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं। अब तक वे ही नारी के नख-शिख का जैसा चाहे विवरण कर आनंद उठाते रहे और उसे शृंगार भावना के अंतर्गत तौलते रहे, अब उन्हें अपना यह अधिकार पुरुषों के अतिरिक्त स्त्री को सौंपते बुरा लगता है, इसीलिये उन्हें हमारा छोटा सा भी विवरण काटता है कि यह चौके की दासी हमसे भी अच्छा चित्रण करती है, मेरी कहानी ‘अंतिम स्त्री’ को नागर ने अश्लील कहा पर मैं भारत के कुछ तटस्थ समीक्षकों से प्रार्थना करुंगी कि वे मेरे 17 कहानी संग्रहों में से रोमानी चित्र के अतिरिक्त कोई अश्लीलता ढूंढ दें

यही कथन उपन्यास तईं है, लेकिन कुछ तो लोग कहेंगे, तो कहना है, आरोपित करना ही है तो करो, कुछ भी बोलो, बिना पढ़े बोलो। अश्लीलता के खुले चित्रण से भावनाएं प्रभावित होती हैं जैसे पागल नग्न घूमेगा तो हम उसे अश्लील नहीं कहेंगे परन्तु छोटे, झीने, उभारने वाले वस्त्र पहने युवती का चित्रण अश्लीलता होगी।


ऋतुः कृष्णा जी, आप वैचारिक धरातल पर किस राजनीतिक पार्टी के साथ जुड़ी हैं?

कृष्णा अग्निहोत्री : किसी राजनीतिक पार्टी के साथ मेरा कोई जुड़ाव नहीं रहा। मेरे माता-पिता कांग्रेस से जुड़े थे इसलिये लोगों ने सोचा कि मैं भी कांग्रेस से हूँ, परंतु वास्तविकता यही है कि कांग्रेस के प्रति मेरा झुकाव कभी नहीं था ।


ऋतुः आपका उपन्यास ‘बित्ता भर की छोकरी’ श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन व व्यक्तित्व पर केन्द्रित है, इंदिरा जी पर आधारित उपन्यास लिखने के पीछे क्या विशेष कारण रहे?

कृष्णा अग्निहोत्री : इंदिरा जी मेरी प्रिय राजनेत्री रहीं हैं, जिसका सम्बंध उनके व्यक्तित्व से अधिक है। मेरा उनकी राजनीतिक पार्टी के साथ कोई लगाव नहीं था। मेरा विचार है कि भले ही वे किसी भी राजनीतिक दल से क्यूँ न जुड़ी होतीं, उनका किरदार ऐसा ही शानदार होता। श्री राजेन्द्र यादव ने किसी प्रसंग में एक बार कहा था कि महिला रचनाकार किसी राजनेता पर उपन्यास क्यूं नहीं लिखती? उनके शब्दों ने भी अवचेतन में ‘बित्ता भर की छोकरी’ का बीजवपन होने में अपनी भूमिका निभाई। राजेन्द्र जी ने प्रस्तुत उपन्यास को बहुत सराहा व इसकी समीक्षा भी ‘हंस’ में छापी।


ऋतुः हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक पुस्तकों का योगदान देने वाली महिला लेखिका होने पर भी आपका वैसा मूल्यांकन नहीं हो पाया, जिसकी आप अधिकारिणी हैं, इस विषय में आप क्या कहना चाहेंगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : एक कड़वी सच्चाई है कि प्रचार-प्रसार उन साहित्यकारों का होता है, पुरस्कार उन्हें मिलता है जो राजनीति से जुडे़ हैं। यद्यपि यह बात सब पर लागू नहीं होती परंतु अधिकतर लोग इस श्रेणी में आते हैं। मानती हूँ, अपने समर्थकों की कमी से जितना मूल्यांकन होना था- नहीं हो रहा- क्योंकि आज की समीक्षा व पत्रकारिता अपने-अपने ही को रेवड़ी बांट रही है - तब भी माँ दुर्गा की दया है कि मैं चुप नहीं, बौखलाती हूं गलत से, कुछ देर तक धराशायी हो जाती हूँ, पुनः उठ खड़ी होती हूं और लिखने के लिए तख्ती हाथ में उठा लेती हूं।

मेरे सर पर कभी कोई वरदहस्त नहीं रहा। बड़ी लम्बी संघर्षपूर्ण लेखन यात्रा है मेरी- पता नहीं लोग कैसे एक कहानी- एक लेख लिखकर विज्ञप्ति पा लेते हैं। मैं तो इतना लिखकर भी अपने आस-पास सही मूल्यांकन की दृष्टि भी नहीं पा सकी। मेरा लेखन परंपरावादी नहीं पूर्ण मानव मूल्यों से भरा है और शनैः-शनैः उसका मूल्यांकन हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।




ऋतुः कृष्णा जी, आपको समकालीन महिला रचनाकारों से विलग करके कैसे आँका जा सकता है? लेखन के क्षेत्र में आपकी कौन सी ऐसी उपलब्धि है जो आपको विलक्षण अथवा अद्वितीय बनाती है?

कृष्णा अग्निहोत्री : आपने सही पूछा कि लेखिकाएं अच्छा लिख रही हैं, फिर मैं उनसे अलग कैसे कही जा सकती हूँ? आपके प्रश्न के उत्तर में मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि मेरे लेखन में विविधता बहुत है। अधिकतर महिलाओं ने प्रेम संबंधों, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर साहित्य रचना की परंतु मैंने अपनी रचनाओं में मानव जीवन के सभी रंग समेटे हैं।


ऋतुः मैं चाहूंगी कि आप अपनी कुछ मुख्य रचनाओं के आधार पर अपनी बात को थोड़ा और विस्तार से स्पष्ट करें?

कृष्णा अग्निहोत्री : टपरेवाले’ उपन्यास में टपरे वालों की छिछलन भरी दुःखद स्थिति है। ‘नीलोफर’ उपन्यास में पहली बार अरब की गुलाम प्रथा, आदिवासी क्षेत्र के अंधकार व विदेशों के मशीनीकरण का चित्रण है। ‘बित्ताभर की छोकरी’ राजनीतिक उपन्यास है जिसमें इंदिरा जी का व्यक्तिगत जीवन वर्णित है, उनके संघर्ष को एक पत्रकार के माध्यम से अंकित करते हुए देश की समकालीन समस्याओं का चित्रांकन कठिन कार्य रहा। ‘मैं अपराधी हूं’ उपन्यास के माध्यम से मैंने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि हम हमेशा देश की परिस्थितियों के लिए राजनीति व नेताओं को दोषी ठहराते हैं, जबकि दोषी हम स्वयं हैं क्योंकि हमारी निष्क्रियता ही देश की मौजूदा परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है। ‘बात एक औरत की‘ में एक पत्नी का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण व महिला अधिकारों को प्रस्तुत किया है तथा ‘कुमारिकाएँ’ में भारत में परिस्थितिवश कुमारी रह जाने वाली लड़कियों की स्थिति का पारिवारिक व सामाजिक चित्र है। ‘आना इस देश’ उपन्यास में भारत-पाकिस्तान की भौगोलिक सरहदों से बंटे परंतु मानवता के सूत्र में बंधे लोगों की पीड़ा का चित्रण है।

डॉ. ऋतु भनोट

एम.ए., पी-एच.डी. (हिंदी) पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़.
यू.जी सी. की ओर से हिंदी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में पोस्ट डॉक्टोरेल रिसर्च फेलो
संपर्क:
4485, दर्शन विहार सेक्टर-68, मोहाली
ritubhanot@yahoo.com

इतिहास हो या अंचल या विदेश, बिना पूरा अध्ययन व उसमें डूबे मैं कुछ नहीं लिखती। मैंने मध्यप्रदेश, झाबुआ, जलगाँव का दौरा किया। अरब के आदिवासियों की कहानी भी प्रस्तुत की। मेरा नवीनतम उपन्यास ‘प्रशस्तेकर्माणी’ इसी कड़ी की अगली रचना है जिसमें आदिवासी, कालबेलिया, बसोड़, कुम्हार तक मैंने दलित चेतना को बढ़ाया है। किसी भी महिला रचनाकार का रचना फलक इतना विस्तृत नहीं है। नाटक भी लिखा, बाल साहित्य की रचना भी की, डायरी भी छप रही है, निबन्ध भी प्रकशित हो रहे हैं। मैं चाहती हूँ मेरे साहित्य के मूल्यांकन में इस बात को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाये।


ऋतुः  अपनी प्रिय लेखिकाओं के बारे में कुछ बताएं?

कृष्णा अग्निहोत्री :  महिला रचनाकार बहुत अच्छा लिख रही हैं परन्तु यदि मुझे अपनी प्रिय लेखिकाओं के बारे में बताना है तो  मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा का लेखन मुझे बहुत प्रिय है। मेरी समकालीन लेखिकाओं में से ममता कालिया तथा नासिरा शर्मा मेरी प्रिय लेखिकाएं हैं। आधुनिक लेखिकाओं में से नीलिमा सिंह, नीलिमा कुलश्रेष्ठ, प्रतिभा मिश्र तथा इंदिरा दांगी बहुत अच्छा लिख रही हैं।


ऋतुः आपके लिए साहित्य क्या है, क्या आप साहित्य का उपयोग जीवन यापन हेतु करती हैं?

कृष्णा अग्निहोत्री : साहित्य एक सोद्देश्यपूर्ण संवेदना है, जो अमूल्य है। मैंने आर्थिक संकट वर्षों झेला है परन्तु न तो कभी अर्थ की मांग रखी और ना ही पुरस्कारों की जोड़-तोड़ से उसे कमाने की लालसा रखी। पढ़ी, प्राध्यापक बनीं और लिखती रही। लघु पत्रिकाओं व सभी छोटे प्रकाशकों से अर्थ की आशा न रख प्रकाशन करवाया। बाजारवाद साहित्य का विघटन है, मैं इस दौड़ में शामिल नहीं हूं। लेखन मेरा व्यवसाय नहीं, मेरा जीवन है- और जीवन किसी लाभ की आशा के साथ नहीं जिया जाता। लेखन मेरा प्रियतम, मित्र, आत्मीय है।


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