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प्रेम भारद्वाज - सुंदरता दुनिया को बचा सकती है, आदमी को नहीं


इस निर्मम समय में हम निराश-हताश लोगों से बचते हैं - प्रेम भारद्वाज #शब्दांकन

इस निर्मम समय में हम निराश-हताश लोगों से बचते हैं

- प्रेम भारद्वाज


वसंत के हत्यारों की खोज


हम सब जो जीवित हैं
अपना एक जीवन गुजारते हैं इसे जीने में
और एक दूसरा जीवन उस बारे में सोचने में
और जो इकलौता जीवन हमारे पास होता है
वह बंटा होता है 
सच्चे और झूठे जीवन के बारे में
लेकिन कोई नहीं बता सकता
कौन-सा सच्चा है
और झूठा कौन-सा
जैसे-जैसे हम जीते जाते हैं
वह अभिशप्त होता है सोचने के लिए
'फर्नांदो पैसोआ'


अगर ईश्वर है (जो कि नहीं है) और वह प्रार्थनाएं सुनता है (जानता हूं वह पत्थर है) तो मैं इस दुनिया के वास्ते अभी और इसी वक्त यह प्रार्थना करता हूं (इसे मेरी इच्छा समझा जाए) कि अगला क्षण आने से पहले दुनिया की तमाम भाषाओं-बोलियों के शब्द जलकर भस्म हो जाएं। शब्दों की मलिनता और उनके बढ़ते फरेब से घबराकर मैं यह कहने को मजबूर हूं कि शब्दों ने जितना इस सभ्यता को दिया है उससे ज्यादा मनुष्यता से छीना है। आप आजाद हैं मेरी इस सोच को अव्यावहारिक, अवैज्ञानिक और पागलपन करार देने के लिए। लेकिन शब्दों के दोगलेदन के खिलाफ उनके मिट जाने की कामना को मेरा प्रतिरोध माना जाए।

भूख रोटी से मिटती है
शब्द रोटी नहीं बनते


शब्द की ईजाद आदमी को आदमी से जोड़ने, भावों की अभिव्यक्ति और सभ्य होने के लिए हुई थी। लेकिन शब्दों ने आदमी को अदमीयत से दूर कर दिया। सभ्यता एक मुखौटा, एक पोशाक बनकर रह गई। इस पोशाक के नीचे हम एक आदिम युग की तरह बर्बर और असभ्य हैं। शब्द नहीं होते तो विद्यालय नहीं होते, विश्वविद्यालय नहीं होते। वहां रोहित वेमुला नहीं होता। ‘राष्ट्रवाद’ के रस्से से बांधकर उसका निष्कासन नहीं होता, उसका खत नहीं होता। खत आखिरी नहीं होता। और उसके दर्द को बयां करने के लिए मुझे फिर से दिलफरेब शब्दों की शरण में नहीं जाना पड़ता।

खामोश होने से पहले उसकी पसलियों के नीचे धड़कते दिल में सपने थे। 26 साल पहले जिसकी नाभिनाल से काटकर अलग कर दिया गया वह मां थी। वह महज टुकड़ा नहीं, पूरा का पूरा जिगर था अपनी इस मां का। अब मां है। जिगर नहीं है। जिगर के बगैर जीना क्या होता है, अगर आप यह जानना चाहते हैं तो रोहित की मां के चेहरे को देखिए जहां दर्द ने अपनी आवाज खो दी है।

जिस तरह से बासठ लोगों ने दुनिया की आधी संपदा पर कब्जा जमा लिया है। उसी तरह से चंद लोगों ने खुद को मंच पर स्थापित कर बाकी लोगों को मैदान पर धकेल दिया है

दक्षिण के कन्याकुमारी के इलाके से ठीक उल्टी दिशा में स्थित कश्मीर है। वहां भी वसंत में अंत की कथाएं हैं। वहां भी मां है। उसकी आंखों में इंतजार है। इंतजार कश्मीर का दर्द है। पच्चीस सालों से वह अपने जवान बेटे का इंतजार कर रही है। मगर कमबख्त दिल है कि हकीकत को कबूल करने से खौफ खाता है। हौलनाक सच को स्वीकारने का साहस नहीं होता। उम्मीद को आप भरम का नाम दे दीजिए। लेकिन इस दुनिया में करोड़ों लोग हैं, जिनके लिए मृत्यु की तंग स्याह कोठरी में उम्मीद रोशनी की एक बेहद महीन लकीर है जो उनको यह भरोसा देती है कि कोठरी के बाहर सूरज है, उजाला है। यह भरोसा ‘कजा’ और ‘सजा’ के स्याहपन को कम कर देता है। यह एक सांस से अगली सांस तक के सफर को आसान तो नहीं मगर जारी रखने में मददगार जरूर साबित होता है।

अब सामने इस साल का नया कैलेंडर है। इसके बारह महीनों में  दर्द के बारह चेहरे हैं। इसे बारहमासा समझने की भूल मत कीजिएगा। बारह जख्मों का चेहरा है, जिनके नाम हैं, हर चेहरे की कहानी है जो एक-सी ही मालूम होती हैं। इन कथाओं में कोई नायक नहीं है और खलनायक के चेहरे में कई चेहरे घुले-मिले हैं जिनमें से असली को पहचानना कठिन है। यह वक्त का सितम नहीं है। न बदनसीबी का उलझा जाल। ये कहानियां उस कश्मीर की हैं जो सियासत की सलीब पर टंगा वह जिस्म है जो जीने-मरने के फर्क को

भूलकर ‘सहने’ को अपना मुस्तकबिल नहीं मान पा रहा है। खैर ठाकुर प्रसाद, कालनिर्णय और विजय माल्या के नंगी तस्वीरों वाले कैलेंडर से जुदा इस ‘इंतजार कैलेंडर’ को तैयार किया है एपीडीपी ने। इसके मुताबिक 1989 से अब तक कश्मीर में 8,000 से लेकर 10,000 लोग लापता हुए हैं जिनमें अधिकतर युवा हैं। लापता हुए हजारों लोगों में से बारह युवाओं की तस्वीर इस कैलेंडर के बारह पन्नों पर लगाई गई है। हर तस्वीर के साथ उस शख्स के लापता होने की कहानी भी लिखी गई है। दुख की कथाएं अलग होती हैं। उसका रंग एक होता है। अलग-अलग दिनों में शरणार्थी बनकर रहने वाली पीड़ा और अलग-अलग आंखों से बहने वाले आंसुओं का रंग एक होता है। भूगोल और काल इसमें फर्क नहीं कर पाते। सृष्टि में प्रथम बार रोने वाले वियोगी के आंसू और रोहित के लिए रोने वाली उसकी मां के आंसुओं में कोई फर्क नहीं है।

शब्द ही वह पनाहगाह हैं, जहां झूठ छिपता है

रोहित और कश्मीर में ‘इंतजार कैलेंडर’ और प्रकाश के अंत के बीच कुछ घटनाएं जो आहत करती हैं। सिनेमा-रंगमंच के एक अभिनेता ‘थे’ राजेश विवेक। वह इस कदर खामोशी से कूच कर गए कि कहीं किसी ने नोटिस तक नहीं ली। युवा रंग समीक्षक अमितेश कुमार ठीक लिखा, ‘‘रंगमंच उन्हें जीविका नहीं दे सका और सिनेमा उनकी प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं कर सका। कई मौकों पर हम जान भी नहीं पाते कि ऐसा अभिनेता किस आत्मसंघर्ष से गुजरा होगा।’’ हम सामने खड़़े आदमी को देखते है, उसके भीतर छटपटाते-जूझते असहाय-बेबस आदमी को नहीं। हम सब अपनी बेबसी को सबसे छिपाकर ढोते रहते हैं। जबकि हम कहार नहीं होते। पालकी समाज से गायब है। वह सिर्फ तस्वीरों-फिल्मों में रह गई। मगर हम सब ऐसे कहार हैं जो अपने-अपने दुखों की ‘पालकी’ चुपचाप ढो रहे हैं। हमें  यह डर भी है कि हमें कोई कहार न समझ ले, हमारे कंधे  पर  पड़े बोझ को देख हमें  ‘दीन-हीन’ न मान ले। हम सब ‘हार’ से बचने के लिए गुमनाम कहार बन गए हैं।

प्रेम भारद्वाज - सुंदरता दुनिया को बचा सकती है, आदमी को नहीं #शब्दांकन
इन पंक्तियों के लिखे जाने के बीच ही हमारा युवा कवि-मित्र प्रकाश भी हताशा के अंधेरे में फना हो गया। शब्दों ने उसका साथ नहीं दिया। उसे शब्द से ज्यादा अर्थ की जरूरत थी जो नहीं मिला। वह आगरा में ताजमहल के पीछे दस हजार महीने में पत्नी-बच्चे समेत अपनी जिंदगी जीने के नाम पर थेथरई कर रहा था। वह अपनी कविता दिखाता था। दुःख छिपाता था। ताजमहल की ऐतिहासिक सुंदरता भी उसके संत्रास को कम नहीं कर सकी। सुंदरता दुनिया को बचा सकती है, आदमी को नहीं। संवेदनहीन होते समय में वह खालिश संवेदना से लबरेज था। अगर ज्यादा भावुक नहीं होता तो कुछ भी कर लेता। जिंदगी को अभी और जी लेता। रोहित की तरह प्रकाश की इच्छा भी बड़ा लेखक बनने की थी। बड़े लेखक की समाज में क्या हैसियत है, इसे भी जरा देख लिया जाए। जिस दिन प्रकाश ने दुनिया को अलविदा कहा उसी दिन दोपहर को हिंदी के एक बड़े लेखक अपने युवा मित्रा के साथ रोजगार ढूंढ़ रहे थे। सत्तर साल की उम्र में उनको दिल्ली में  रहने के लिए न्यूनतम धन  की दरकार है। इसके लिए वह बेहद परेशान हैं। वह पिछले चालीस साल से शब्द रच रहे हैं- नाम मिला, मगर नाम से क्या होता है। भूख रोटी से मिटती है। शब्द रोटी नहीं बनते।

शब्द रचकर चहकने वालों की एक अलग जमात है। जो जितनी मेले में है, उससे ज्यादा बाहर। उनके लिए सब कुछ मेला है। माॅल है। उत्सव है। ऐसे लोग हाथ में चिराग नहीं एलईडी बल्ब लेकर अँधेरे  ढूंढ़ रहे हैं। अपने कुत्तों पर एक महीने में हजारों रुपए खर्च करने वाले भूख पर कविता लिखते हैं। साए-सुकून का जीवन बसर करने वाले धूप का ताप बताते हैं। होगी हमारे लिए यह जिंदगी दोजखनामा, मगर उनके लिए वक्त का हर हर्फ मोहब्बतनामा है- ऐसी मोहब्बत जिसमें न ‘म’ से मर्म है, न ‘त’ से तड़प। बाकी सब कुछ है। नहीं बंधु। इसे जजमेंटल होना मत मानिए, इतना जरूर है कि यह बात सौ फीसदी नहीं सत्तर फीसदी लोगों पर लागू होती है जिस तरह से बासठ लोगों ने दुनिया की आधी संपदा पर कब्जा जमा लिया है। उसी तरह से चंद लोगों ने खुद को मंच पर स्थापित कर बाकी लोगों को मैदान पर धकेल दिया है। बात बस मैदान तक होती तो फिर भी गनीमत थी, लेकिन अब उन्हें मैदान से ‘मसान’ की और धिकयाया जा रहा है। ‘मंच’ का विपरीतार्थक शब्द ‘मसान’ तो नहीं। मंच, मैदान और मसान। मसान बनते मैदान। मंच वाले बेशक वहां करतब दिखाएं। मगर मैदान को मसान तो न बनने दें।

मां-बाप ने जाने क्या सोचकर उसका नाम प्रकाश रखा जो अंधेरे से निकलने की ताउम्र जद्दोजहद करता रहा। अंततः अंधेरे ने ही उसको निगल लिया। पिता फायर बिग्रेड में मकानों-भवनों में लगी आग बुझाते रहे। बेटे के भीतर की आग को नहीं शांत कर पाए। चालीस साल की उम्र, एमए, पी-एचडी, नेट, प्रतिभा, कविता-संग्रह, आलोचना, सच्चाई, ईमानदारी... ये सब मिलकर उसको एक अदद नौकरी नहीं दिला सके।

रोहित और प्रकाश तो एक बानगी हैं। विश्वविद्यालय में ढेरों ऐसे युवा हैं जिनके तकिए की नीचे स्यूसाइड नोट लिखा रखा है, जो हत्या-आत्महत्या के बीच तनी रसी पर जीने का भरम रच रहे हैं। वे लोग मुगालते में हैं जो रोहित-प्रकाश की हत्या को आत्महत्या का नाम दे रहे हैं। ये हत्याएं हैं। हम सब भी हत्यारों की सूची में दर्ज हैं। इन हत्याओं में जितनी दोषी सत्ता-व्यवस्था है, उससे जरा भी कम हम नहीं हैं। रोहित को हमारी कायरता ने मारा तो प्रकाश को हमारी संवेदनहीनता ने। सितम तो यह है कि इस निर्मम समय में हम निराश-हताश लोगों से बचते हैं। जीने के लिए हौसला ही सबसे बड़ी ताकत  होती है, ‘मंजिल न दे, चिराग न दे, हौसला तो दे।’ हम हौसला देना भी भूल गए हैं। हम आवाज नहीं हैं । हमारे भीतर आवाज देने वाला शख्स कोई और है। ‘करो या मरो’ बोलने वाले गांधी होते हुए भी गांधी नहीं कोई और ही थे। गुलजार साहब माफ करेंगे, मगर हमारी आवाज ही हमारी पहचान नहीं है। अगर वह शब्द है। शब्द हमारा साथ नहीं देते। शब्दों के धुंध में अर्थ भटक जाता है- उलट-पुलटकर घायल हो जाता है। आंसुओं में लिपटा खारापन सच है, उनका बहना झूठ। लहू में घुला लोहा सच है, उसका रिसना झूठ। मेरी मौलिकता मेरा झूठ है। मेरी हंसी मेरा सुरक्षा-कवच। मेरे हाथों का चिराग मेरे मन के अंधेरे में अनगिनत मृतात्माओं के भटकाव को छिपाए रहता है। अकेले रोहित ही नहीं इस देश-दुनिया के अधिकश युवाओं-लोगों की सबसे बड़ी यंत्रणा उनका खाली हो जाना है। उस दुनिया में खुद को मिसफिट समझना है। उस दुनिया के लिए खुद को दयनीय मानना है जहां आदमी की अहमियत महज एक संख्या, वोट तक सीमित कर दी गई है। बेबसी की यही पगडंडी युवाओं को कभी अपराध, तो कभी आत्महत्या की अंधी गलियों में ले जाती है। रोहित-प्रकाश इसकी नवीनतम कड़ी हैं। अगर खिलने से पहले ही खत्म होने का सिलसिला जारी रहे, वसंत में अंत की परंपरा महफूज रहे तो हमें यह मान लेना चाहिए कि अब हम सबमें ‘अंध युग’ उतर आया है। अंधी सत्ता कुरुक्षेत्रा में मारे गए लोगों के शव गिनती है। आंखों में पट्टी बांधकर सत्ता की सहयोगी स्त्री सिर्फ लाशों से लिपटकर विलाप करती है। कोई महाविनाश रोकने के लिए जान की बाजी नहीं लगाता। आज न कुरुक्षेत्र है, न हस्तिनापुर। अब युद्ध  मैदानों में नहीं, मन में लड़े जाते हैं। महाभारत मन में होता हैं, और वह महज अठारह दिनों का नहीं होता। वहां हम ही पांडव हैं, हम ही कौरव। दोनों तरफ हम ही हैं- जीतता कोई भी हो, लहूलुहान तो मन ही होता है। हारते तो हम ही हैं।

फिर शब्दों के जरिए शब्दों पर लौटता हूं। दुनिया का सबसे खूबसूरत वह शिशु होता है जिसके पास भाव हैं, प्यार है, रोना है, हंसना-खेलना है मगर शब्द नहीं हैं। जैसे ही शब्द उसके भीतर दाखिल होते हैं, उसकी मासूमियत कम होती जाती है। पक्षी, दरख्त, फूल, नदी, सागर... किसी के पास शब्दों की मलिनता नहीं। समृद्धि मलिनता को बढ़ाती है। वह रिश्ता और वह प्रेम बहुत गहरा होता है जिसमें कम से कम शब्द होते हैं। शब्द ही वह पनाहगाह हैं, जहां झूठ छिपता है। शब्द नहीं होते तो झूठ नहीं होता, झूठ नहीं होता तो हम बहुत सारी अनिवार्य बुराइयों से बच जाते। जानता हूं सभ्यता के जिस मुकाम और विकास की जिस दहलीज पर दुनिया पहुंच गई है, वहां शब्दविहीन दुनिया और जीवन की कामना में कयामत से पहले ही कयामत होगी। एक ऐसे वसंत में जिसका माहौल कई संभावनाओं के अंत से निर्मित हुआ है, हम ख्वाब तो बुन ही सकते हैं। बुनना ही चाहिए, क्या ही अच्छा होता कि शब्द के जिस्म से झूठ-फरेब अलग हो जाते।

खैर, अब प्रधनमंत्री  रोहित की खुदकुशी पर आंसू बहा रहे हैं जिन्हें मगरमच्छी बताया जा रहा है। रोहित के आंदोलनकारियों के दर्द को भी कुछ लोग नकली साबित कर रहे हैं। कौन सही है, कौन गलत... यह तय करना कठिन है। हम ऐसे मुकाम पर हैं जहां कुछ भी अच्छा नहीं है, कुछ भी बुरा नहीं। मिट गया है अच्छे-बुरे का भेद। कोई साथ नहीं दे रहा है। किसी भी चीज पर विश्वास करने का कोई ठोस आधार नहीं। हम शब्दों की पोटली लेकर दुनिया के मेले में ‘जिंदगी ढूंढ़ रहे हैं।’ ...और अब हम शोकसभा करेंगे, लेख लिखेंगे, जिसमें मैं खुद भी शुमार हूं। हम बहस करेंगे, फिर अगली आत्महत्या या हत्या का इंतजार करेंगे... ताकि फिर किसी शोकसभा में शरीक हो सकें। दो शोकसभाओं के बीच का समय ही हमारा जीवन है, संघर्ष है।

'पाखी' फरवरी -2016 अंक का संपादकीय 
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