आत्महत्या करने के कारण और रोकथाम | Aatmhatya ke karan | Veena Sharma


आत्महत्या

कब तक

— वीणा शर्मा

अरस्तु का कहना है कि समस्या से भागना कायरता है, आत्महत्या भले ही मृत्यु के समक्ष बहादुरी है लेकिन इसका उद्देश्य गलत है। टायन्बी कहते हैं कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नही। हर रोज समाचारों में कही न कही किसी की आत्महत्या की सूचना भी अवश्य होती है। कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी अथवा किसान ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु ने जीवन पर बड़ी सहजता से विजय प्राप्त कर ली है। समस्याएँ विराट हो गई है अथवा हमारी सहनशक्ति क्षीण हुई है। कोमल एक बहुत ही प्यारी बच्ची थी अभी कल तक वह है में शामिल थी। आज नही है। उसने आत्महत्या कर ली पत्र में लिखा कि वह अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरी नही उतर पायी इसलिये उसने जीने से बेहतर मृत्यु को स्वीकार कर लिया है। अँग्रेज़ी विषय में फेल होने के कारण उसका भविष्य ही समाप्त हो गया है क्योंकि अब अँग्रेज़ी ऑनर्स में उसके भविष्य की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो गईं है। माता-पिता अलग सदमें की सी हालत में थे। इस आत्महत्या के पीछे बहुत बड़ा कारण उनका अपना अति महत्वाकांक्षी होना ही साबित कर रहा था। इस नाते कई बार स्वयं माता-पिता ही अपने बच्चों के हत्यारे बन जाते हैं। एक हिन्दी भाषी सामान्य मध्यमवर्गीय छोटा सा परिवार, जिसमें माता-पिता और दो बच्चे बड़ी कोमल और एक छोटा बेटा है। कोमल पढ़ने में कोई बहुत अच्छी नही थी बल्कि उसकी रुचियाँ भिन्न थी लेकिन माता पिता इतने महत्वाकांक्षी कि उनकी बेटी या तो मेडिकल करेगी अन्यथा कम अज कम अँग्रेज़ी ऑनर्स में तो अवश्य जायेगी। मैं कोमल को जानती थी विज्ञान विषयों में न तो उसे रुचि थी और न ही वह अच्छी पकड़ ही बना पायी। दूसरे वह दसवीं के बाद यहाँ पढ़ने आयी थी । इससे पहले उसका परिवार उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे में था। सभी विषयों का माध्यम अँग्रेज़ी रखवाने के कारण न तो वह विषयों के साथ न्याय कर पायी और न ही स्वयं के साथ। माता पिता के दबाव के कारण वह जी तोड़ मेहनत करती थी लेकिन अँग्रेज़ी में वह दक्षता हासिल नही कर पायी जो उसे अंकों के साथ आगे लेकर जा पाती, इसलिये अक्सर वह अपने परिणामों की बाबत झूठ बोल दिया करती थी। और आज अखबार मेरे सामने है अपने दोनों परिणामों को घोषित करता हुआ। एक में पचास प्रतिशत अंक और दूसरे में उसकी आत्महत्या।
जनसत्ता में प्रकाशित वीणा शर्मा का आलेख जिसमे उन्होंने jeevan mein tanav ke karan aatmhatya और अन्य कारणों पर लिखा है

डाॅ. वीणा शर्मा

असि.प्रोफेसर (हिन्दी)
गार्गी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
मो०: 9650536258

कोमल को मैंने जितना जाना था वह बहुत अच्छी डिजाइनर बन सकती थी। मैंने उसके कमरे की सुरुचि सम्पन्नता देखी थी। सीधी-सरल वस्तुओं को कैसे कलात्मक दृष्टि प्रदान कर देती थी। स्कूल में भी उसने चित्रकारी में और पत्रिकाओं की डिजायनिंग में ढेरों पुरस्कार जीते थे लेकिन उसके ये सारे पुरस्कार उस सपने के समक्ष बेकार थे, जो सपना उसके माता-पिता ने अपनी आँखों में कोमल के माध्यम से सजा रखा था। अक्सर माँ-बाप अपनी अधूरी इच्छाओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरी करते हैं। कुछ सफल भी हो जाते हैं लेकिन फिर उस बच्चे की अपनी इच्छा जीवन भर उसका पीछा नही छोड़ती और वह अपनी वर्तमान स्थिति से भी सन्तुष्ट नही हो पाता। ऐसे बच्चे आधा-अधूरा जीवन बिताते हुए असन्तुष्ट से रहते हैं। यह अवस्था कई बार उन्हें अवसाद की स्थिति तक ले जाती है। कोमल भी संभवतः इस अवसाद से जूझ रही होगी। पेपरों के बाद वह बस दो बार मुझसे मिली थी। दोनों बार मेरे यह पूछने पर कि उसके पेपर कैसे हुए हैं, उसका जवाब बहुत सन्तोषजनक नही था। संभवतः वह अंग्रेज़ी भाषा से जूझ रही थी अथवा उसके अवसाद का कोई और ही कारण था कि वह उतने अंक ले पायेगी या नही जितने उसके माता-पिता को अपेक्षा थी। दरअसल समस्या यही से शुरु होती है। जब माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षाओं की गठरी अपनी सन्तान पर उनकी स्वीकृति जाने बिना लाद देते हैं तो बच्चा उस अनचाहे बोझ को केवल ढोता ही है और ढोने में जो मजबूरी का भाव है वही उन्हें निराशा की ओर ढकेलता है। असमर्थता के साथ असफल होने का भय उनकी रही सही हिम्मत भी खींच लेता है जिसका नतीजा कोमल सरीखा होता है। माता-पिता बगैर यह जाने कि उनके बच्चे की रुचि किसमें है, साथ ही वह कहाँ पिछड़ रहा है और उसमें वह कितना आगे बढ़ पाएगा, नही सोच पाते। बच्चे पढ़ाई के साथ माता-पिता की अधूरी इच्छाओं के बोझ को बस्तों के साथ-साथ टाँगें रहते हैं। एक प्राइमरी स्कूल की चतुर्थ कक्षा की अध्यापिका ने बताया कि कई बार छात्र आधे अंक के लिये भी गिड़गिड़ाने लगते है कि उन्हें अपनी माँ को जवाब देना पड़ेगा आधा अंक कम क्यों आया।

अंकों के आधार पर विद्यार्थियों का आकलन करने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली कहाँ तक सही है, इसके बारे में समय-समय पर सवाल उठते रहते हैं। दूसरे हर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस अफसर बने ही देखना चाहते हैं। आज समाज पर नये उपनिवेशवाद, बाजारवाद और नये पूंजीवाद का वर्चस्व है। एक आम, सामान्य मजदूर इसमें से गायब है। इसके साथ ही आज जिसके पास पैसा है बाजार उसका मुक्त हृदय से स्वागत करता है वह कोई भी हो सकता है। अर्थात केन्द्र में पैसा है। हर माता पिता यही चाहते हैं कि उनके बच्चे खूब धन कमायें। पैसा केवल जीवन यापन का साधन मात्र अब नही रह गया है बल्कि सुविधाओं को भोगने का साधन बन गया है। इस सुविधा की कोई सीमा नही है। यह एक घातक सोच है। अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में ही माता-पिता अपने बच्चों को ऐसे कोर्स लेने के लिये बाध्य करते हैं जिसमें बच्चे दब कर रह जाते हैं। कुछ पिछड़ जाते हैं और कुछ आगे बढ़ भी जाते हैं। उनका लक्ष्य में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खुले द्वार होते हैं।

स्कूल कालेजों के परिणाम घोषित होते ही देश भर से ये समाचार आने लगते हैं अमुक जगह के फलां लड़के ने परीक्षा में कम अंक आने के कारण सल्फास की गोलियाँ खा ली अथवा फलां नगर की लड़की ने अंकों का प्रतिशत कम आने के कारण खुद की जान ले ली। इतने मासूम बच्चों की ऐसी दशा देख-सुन कर मन दहल जाता है। यह हालात केवल भारत में नही बल्कि यह समस्या दुनिया भर में है। आत्महत्या के मूल में अवसाद मुख्य कारण माना जाता है। ऐसा नही कि आत्महत्या की समस्या केवल विद्यार्थियों के साथ ही जुड़ी है। आज हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। कई विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। न पूरे प्राचीन रहे और न पूरे आधुनिक ही बन पाये, एक ओर हम अपनी संस्कृति का बखान करते हैं दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता के जबरदस्त आकर्षण में उलझे हैं। भाषा और वेशभूषा के मामले में अजीब दोचितेपन और दोहरे मापदण्डों में आज का समाज उलझा है। अँग्रेज़ी अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा है जिसे हमें सीखना चाहिये लेकिन भारत में जब यह मैकालियन ज्वर की तरह प्रत्येक के मस्तिष्क पर सवार हो जाती है तो समस्याएँ भी पैदा करती है। अनेक कस्बाई इलाकों से शहरों में पढ़ने आने वाले बच्चे इस ज्वर से संक्रमित होते हैं कुछ को तो यह ले डूबता है। बाकियों के लिये यह सफलता का पैमाना भी है। समाज के साथ स्वयं को न चला पाने वाले लोग ही मुख्य धारा से कट जाते हैं उनके अन्दर अवसाद की एक अलग ही दुनिया तैयार हो जाती है जिसमें वे जीने लगते हैं। ऐसे में सामाजिकता को काट कर चलने वाला हमारा आज का समाज उसमें अपना और योगदान दे देता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब पानी सिर से ऊपर जा चुकता है, तब जाकर समस्या का पता चलता है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला व्यक्ति केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिये सम्भावनायें तलाशता है। लेकिन नौकरी नही मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है। और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है।

आत्महत्या का अनुपात गाँवों और छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में अधिक है। हालांकि विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जो 1990 से आज तक बदस्तूर जारी है उसका कारण प्राकृतिक और सरकारी दोनों हैं संभवतः महानगरों में जिजीविषा के संकट भयंकर हैं। हर रोज आत्महत्याओं के कई उदाहरण अखबारों की सुर्खियों में होते हैं। कारण भले उनके अलग-अलग हों लेकिन चिंता की बात यह है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद को बढ़ावा दिया है, इसके लिये येन-केन-प्रकारेण पैसा जुटाना अपराध नही है। अब सन्तोष धन का स्थान अँग्रेज़ी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधाएँ सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये पैसा मुहैय्या नही होता है तब भी अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। यह केवल भारत की समस्या नही है विदेशों में तो इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में 2014 में कुल 42773 आत्महत्याएँ हुई। दूसरे अमेरिका में हर रोज 105 लोग आत्महत्या करते हैं इस तरह वहाँ वर्ष में अठतीस हजार मौतों का कारण आत्महत्या है। लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत किशोर किशोरियोँ तनाव ग्रस्त हैं जिनका डॉक्टरी इलाज चल रहा है। यह सब आज के अति भौतिकवादी युग की देन है। तकनालाजी ने मनुष्य को सुविधाएँ तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता छीन ली। उसे अधिक से अधिक मशीन और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है वह या तो आत्महत्या करता है या यात्रा। सोचती हूँ लोग दूसरा रास्ता क्यों नही अपनाते?
डाॅ. वीणा शर्मा
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