Janmat Sangrah ki Raah ke Jokhim — Shekhar Gupta
जनमत संग्रह की राह के जोखिम — शेखर गुप्ता
बीते 17 सालों (करगिल के बाद) में पांच ऐसे उकसावे के मौके आए हैं जब जनता ने पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए मतदान कर दिया होता। इन सभी अवसरों पर सरकार ने जनता के गुस्से की अनदेखी करने का समझदारी भरा फैसला लिया। हमने जिन लोगों को एक तय मियाद के लिए शासन करने को चुना है उनसे यही उम्मीद भी रहती है।
स्विस लोग कई क्षेत्रों में और जीवन की गुणवत्ता के क्षेत्र में वैश्विक मानक तय कर सकते हैं। लेकिन याद रखिए इस लोकतांत्रिक देश ने अपनी महिलाओं को मताधिकार 1971 में दिया। वह भी संसद से पारित होने के 12 साल बाद। पुरुषों के जनमत संग्रह के जरिये इसे रोका गया था।सदियों के दौरान विकसित हुए आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के लिए इन दिनों चुनौती आ खड़ी हुई है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र की मांग जोरशोर से सुनने को मिल रही है। इसमें बार-बार जनमत संग्रह के अलावा, वापस बुलाने का अधिकार, आनुपातिक प्रतिनिधित्व और सत्ता प्रतिष्ठान के अधिकार सीमित करने जैसी मांगें शामिल हैं। यह अराजकता की ओर ले जाएगा। और हां, मैं दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए जनमत संग्रह कराने की अरविंद केजरीवाल की मांग से चिंतित नहीं हूं। भाग्यवश हमारे संविधान में इसकी व्यवस्था नहीं है। अगर होती तो इसका स्वाद हमें सबसे पहले कश्मीर में पता लगा होता। लेकिन इसके चलते आधुनिक राज्यों की विश्वसनीयता को एक बड़ी चुनौती नमूदार हुई है। प्रत्यक्ष मतदान काफी हद तक यूरोपीय अवधारणा है। लेकिन यह पहला मौका है जब इसका प्रयोग एक अत्यंत अहम मसले के अलावा एक देश की सार्वभौमिक प्रतिबद्धताओं को लेकर किया गया है। जब तक जनमत संग्रह स्कूली पाठ्यक्रम, कुछ घरेलू विवादास्पद करों, विचारों आदि तक सीमित थे, तब तक कोई समस्या नहीं थी। हालांकि हाल ही में स्विट्जरलैंड के लोगों ने मतदान कर मीनारनुमा किसी भी निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया जो पूरी तरह बहुसंख्यकवादी और संवेदनहीन फैसला था। स्विस लोग कई क्षेत्रों में और जीवन की गुणवत्ता के क्षेत्र में वैश्विक मानक तय कर सकते हैं। लेकिन याद रखिए इस लोकतांत्रिक देश ने अपनी महिलाओं को मताधिकार 1971 में दिया। वह भी संसद से पारित होने के 12 साल बाद। पुरुषों के जनमत संग्रह के जरिये इसे रोका गया था।
अगर आधुनिक लोकतंत्र की आधारशिला तय अवधि के लिए चुनी गई स्थिर, विश्वसनीय और भरोसेमंद सरकार पर रखी जाती है तो निरंतर लोकलुभावन मतदान और अप्रत्याशित अनुमान इसे पूरी तरह नष्ट कर देंगे।
बुरे विचार अधिक संक्रामक होते हैं। नीदरलैंड के यूरोपीय संघ में बने रहने को लेकर जनमत संग्रह की मांग पहले ही अनिश्चितता बढ़ा रही है। कनाडा और ब्रिटेन को क्यूबेक और स्कॉटलैंड में नए दबाव का सामना करना होगा। ऐसी भावना ऐसे अन्य देशों में भी पनप सकती है जो अधिक जटिल और विविधतापूर्ण हैं। अगर आधुनिक लोकतंत्र की आधारशिला तय अवधि के लिए चुनी गई स्थिर, विश्वसनीय और भरोसेमंद सरकार पर रखी जाती है तो निरंतर लोकलुभावन मतदान और अप्रत्याशित अनुमान इसे पूरी तरह नष्ट कर देंगे। ऐसे में किसी भी सरकार के लिए कड़े निर्णय लेना असंभव हो जाएगा। वह व्यापक राष्ट्रीय हित के मसलों पर पूरा समय लेकर जनमत तैयार करेगी और फिर तय समय पर मतदान के जरिये इसका फैसला होगा।
लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि शासन कौन करेगा यह भले ही मतदान तय करता है लेकिन संविधान, कानून और मूलभूत सिद्धांतों में स्थिरता होती है और इनकी अभेद्यता के चलते बहुमत का प्रयोग बहुसंख्यकवाद के लिए नहीं किया जा सकता।
अब जरा इसे भारत पर लागू करके देखें। अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने को लेकर मतदान होता है। तो तमिलनाडु को ऐसा करने से या जम्मू कश्मीर को अपने आपको संप्रभु घोषित करने से किस प्रकार रोका जाएगा? या फिर शायद अत्यधिक क्रोध में जैसा कि 2010 में पथराव वाले दिनों में दिखा था, वह पाकिस्तान में विलय का चयन कर ले? विदर्भ और बुंदेलखंड खुद को अलग राज्य घोषित कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश का शेष हिस्सा इसके खिलाफ मतदान कर सकता है। चूंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है इसलिए जाहिर तौर पर बाकी का देश उसे पूरी तरह केंद्र शासित प्रदेश बनाने के लिए मतदान कर सकता है।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र मौजूदा समय में उदारवादियों की प्रमुख मांग के रूप में उभरा है। यहां एक प्रश्न है: आप किसे प्राथमिकता देंगे, न्यायालय के फैसले को या एक ऐसे संविधान संशोधन को जो आईपीसी की धारा 377 को खारिज करता हो या इस विषय पर जनमत संग्रह कराया जाना चाहिए? बाबा रामदेव के विचार को शायद जीत हासिल हो। या फिर अयोध्या में मंदिर निर्माण पर मतदान हो, संविधान का अनुच्छेद 370 रद्द करने पर, सिंधु जल संधि पर, शिमला समझौते पर, ताशकंद समझौते पर मतदान हो तो? अगर ये सारी बातें एकतरफा झुकाव वाली लग रही हैं तो उभरते हिंदू राष्ट्रवादियों की बात कर लेते हैं। आरक्षण नीति के पुनर्गठन पर मतदान हो तो? ऐसा वोट निश्चित तौर पर उच्च जातियों ने सर्वोच्च न्यायालय के आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा तय करने से जो वरीयता ले रखी है वह गायब हो जाएगी। देश की कुल आबादी में उच्च वर्ण के लोगों की हिस्सेदारी 20 फीसदी से ज्यादा नहीं है। उनकी स्वघोषित मेरिट का क्या होगा? बीते 17 सालों (करगिल के बाद) में पांच ऐसे उकसावे के मौके आए हैं जब जनता ने पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए मतदान कर दिया होता। इन सभी अवसरों पर सरकार ने जनता के गुस्से की अनदेखी करने का समझदारी भरा फैसला लिया। हमने जिन लोगों को एक तय मियाद के लिए शासन करने को चुना है उनसे यही उम्मीद भी रहती है।
यह बेवकूफी आगे भी जारी रह सकती है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने ट्विटर पर संदेश लिखकर लोगों से इस बारे में राय मांगी थी कि क्या रघुराम राजन को दोबारा रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया जाना चाहिए? इस सांसद के अपने समर्थकों से बने 'निर्वाचक मंडल’ ने राजन के लिए बड़ी संख्या में नकारात्मक मत दिया था। एक और नेता हैं जो अपने ट्विटर हैंडल और सोशल मीडिया के जरिये गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किए जाने की मांग को लेकर एक तरह से जनमत संग्रह चला रहे हैं। उनका कहना है कि 'मौजूदा राष्ट्रीय पशु बाघ जहां लोगों को खाता है वहीं गाय हम लोगों का पेट भरती है।’
अतीत, खासकर प्राचीन समय की सभी उत्कृष्ट चीजों को लेकर एक नए तरह का आसक्ति भाव देखा जा रहा है। प्राचीन समय, खासकर हमारे अपने वैशाली के बारे में भी काफी कुछ कहा जा रहा है। (बिहार में मुजफ्फरपुर से बाहर निकलते ही आपको वैशाली का साइनबोर्ड दिखेगा जिसमें लिखा है कि दुनिया का सबसे प्राचीन लोकतंत्र आपका स्वागत करता है।) अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में भी लिच्छवी राजवंश की वैशाली को प्रत्यक्ष लोकतंत्र के प्रतीक रूप में दिखाया गया है। घोषणापत्र के मुताबिक वैशाली में नाममात्र के राजा को अपने हरेक फैसले पर लोगों की राय लेनी पड़ती थी। इतिहासकार भी हमें बताते हैं कि आर्थिक रूप से समृद्ध लेकिन सैनिक रूप से कमजोर वैशाली पड़ोसी जनपद मगध के हमले में नष्ट हो गया। मगध की सेना ने वैशाली पर उस समय हमला बोला था जब इसके लोग इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि क्या उन्हें लड़ना चाहिए और अगर हां तो कहां और किस तरह से लड़ा जाए? वह राज्य और उसका नरेश एक मजाक साबित हुआ था।
डेविड कैमरन ने अपने देश के साथ ही समूचे यूरोप को भी नीचा दिखाया है। कैमरन ने एक ऐसे मुद्दे पर जनमत संग्रह करा दिया जिसको लेकर खुद उनकी पार्टी में भी मतभेद था। बेहतर तो यह होता कि पहले वह अपनी पार्टी में इस पर मतदान कराते और अगर पार्टी का बहुमत यूरोपीय संघ से बाहर जाने के पक्ष में होता तो वह चुनाव कराने का ऐलान कर सकते थे।
पुनश्च: सन 1974 में हुए पहले पोकरण परमाणु परीक्षण की सफलता की घोषणा के लिए 'बुद्ध मुस्करा रहे हैं’ जैसा कूट शब्द क्यों प्रयोग किया गया? मेरे मित्र और पूर्व सहयोगी विनय सीतापति (पीवी नरसिंह राव की उनकी लिखी जीवनी, हाफ लॉयन अगले सप्ताह आ रही है) ने अपने शोध में इसका उत्तर तलाश किया है। ऐसा लगता है कि डॉ. राजा रमन्ना भी मगध द्वारा वैशाली के विनाश से परिचित थे। बुद्ध इसे लेकर परेशान थे और उनको लगा था कि अगर वैशाली के पास भी तथाकथित प्रत्यक्ष लोकतंत्र के बजाय सक्षम सैन्य शक्ति होती युद्ध को टाला जा सकता था क्योंकि तब कोई कड़े फैसले नहीं करता। माना जाता है कि उन्होंने कहा था कि 'केवल समान शक्तिशाली या समान कमजोर राष्ट्रों के बीच शांति स्थापित रह सकती है।’ यही वजह है कि रमन्ना ने इंदिरा गांधी से कहा, 'बुद्ध मुस्करा रहे हैं।’ क्योंकि भारत ने अपना शक्ति संतुलन हासिल कर लिया था।
साभार बिज़नस स्टैंडर्ड
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1 टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-06-2016) को "अपना भारत देश-चमचे वफादार नहीं होते" (चर्चा अंक-2385) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'