वैवाहिक बलात्कार है: फोन पर निकाह और तलाक़-तलाक़-तलाक़ — डॉ सुजाता मिश्र #TripleTalaq

ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे पर भारत में जिस तरह की दुविधा का माहौल है, जिस तरह अधिकतर लोगों ने 'नेताओं वाली चुप्पी' ओढ़ी हुई है, उसे समझना कम से कम मेरे लिए मुश्किल है. समझ नहीं आता कैसे कोई प्रगतिवादी 'तलाक़-तलाक़-तलाक़' जैसे अधर्मी, अमानवीय कृत्य की पैरवी कर सकता है और अगर वह सच में इसे 'ज़रूरी' मानता है तो वह इसे स्त्री-पुरुष दोनों के लिए सामान और हर धर्म में शामिल किये जाने की पैरवी क्यों कर न करे !!!?  
सुजाता मिश्र के पिछली टिप्पणी "प्रेम कीजिये, शादी कीजिये पर पुराने रिश्तों की शहादत पर नही" को ख़ूब सराहा गया, जिसका कारण उनका लॉजिकल-लेखन है, एक बार पुनः उनकी बेबाक निष्पक्ष लेख 'ट्रिपल तलाक़: वैवाहिक बलात्कार ? ' आप शब्दांकन पाठकों के लिए.

भरत तिवारी
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“तीन तलाक़” के माध्यम से सम्बंध तोड़ने का मुख्य रूप से एकाधिकार पुरुषों के पास है, स्त्रियों को बहुत सीमित अधिकार दिये गये है...
Dr Sujata Mishra


फोन पर ही निकाह हो गया, और जब मन आया तलाक़ दे दिया, क्या इसे हम वैवाहिक बलात्कार नही कहेंगे?

ट्रिपल तलाक़: वैवाहिक बलात्कार ?

— डॉ सुजाता मिश्र


इस्लाम मे “निकाह” एक पुरूष और एक स्त्री का अपनी मर्जी से एक दूसरें के साथ ‘शौहर और बीवी’ के रूप मे रहने का फैसला हैं। जिसे एक पाक रिश्ता माना गया है। इसकी तीन शर्तें हैं :
कि पुरुष वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों को उठाने की शपथ ले,
एक निश्चित रकम जो आपसी बातचीत से तय हो, “मेहर” के रूप में औरत को दे और
इस नये सम्बन्ध की समाज मे घोषणा की जाये।

साथ ही यदि देखा जाये तो ‘तलाक़’ शब्द इस्लाम की ही देन है, यानि शौहर–बीवी मे आपसी मनमुटाव की स्थिति मे इस्लाम उन्हें आपसी सहमति से अलग होने की रजामंदी देता है, जिसे ‘तलाक़’ कहते हैं। “तलाक़” का इस्लामिक तरीका यह है कि जब यह अहसास हो कि जीवन की गाड़ी को साथ-साथ चलाया नहीं जा सकता है, तब क़ाज़ी मामले की जाँच करके दोनों पक्षों को कुछ दिन और साथ गुज़ारने की सलाह दे सकता है अथवा गवाहों के सामने पहली तलाक़ दे दी जाती है, उसके बाद दोनों को 40 दिन तक अच्छी तरह से साथ रहने के लिए कहा जाता है। अब अगर 40 दिन के बाद भी उन्हें लगता है तो फिर दूसरी बार गवाहों के सामने "तलाक़" कहा जाता है, इस तरह दो "तलाक़" हो जाती हैं और फिर से 40 दिन तक साथ रहा जाता है। अगर फिर से 40 दिन बाद भी लगता है कि साथ नहीं रहा जा सकता है तब जाकर तीसरी बार तलाक़ दी जाती है और इस तरह तलाक़ मुकम्मल होती है। इस तरह देखा जाये तो इस्लाम मे “निकाह” को बेहद पवित्र माना गया है, किंतु इतना लचकीलापन भी रखा गया कि आपसी सहमति से अलग हुआ जा सके, जिसमें पति–पत्नी को रिश्ता तोडने के पूर्व 120 दिन का समय दिया जाता है, यानि 4 महीने का वक़्त दिया जाता है रिश्ता बचाये रखने के लिये पुनर्विचार हेतु...

हमारे यहाँ बुद्धिजीवियों और स्त्री चिंतकों का एक बड़ा तबका महिलाओं की आज़ादी के नाम पर विवाह संस्था के अस्तित्व पर ही सवाल उठाता रहा है (वैवाहिक बलात्कार के नाम पर) ...जिसमें कई तरह के गैर जरूरी तथा गैर वाज़िब आरोप भी प्रकारांतर से सामने आये हैं, और गौर करने की बात यह है कि ये सभी आरोप सिर्फ “विवाह” पर लगाये गये है “निकाह” या “मैरिज” पर नही। 





कालांतर मे लोगो ने “तीन तलाक़” को एक हथकंड़ा बना लिया, (ठीक उसी तरह जैसे हिंदू विवाह मे “दहेज कानून” का कुछ महिलाओ ने दुरुपयोग किया...) और जिसके चलते आज इस्लामिक विवाह सवालों के घेरे मे है, जिसकी एक बड़ी वजह यह रही कि “तीन तलाक़” के माध्यम से सम्बंध तोडने का मुख्य रूप से एकाधिकार पुरुषों के पास है, स्त्रियों को बहुत सीमित अधिकार दिये गये है...अगर किसी महिला का पति शराबी, जुआरी, नामर्द, मार-पीट करने वाला या किसी ऐसी सामाजिक बुराई में लिप्त है जो कि समाज में लज्जा का कारण हो तो उसे तलाक़ लेने का हक है। इसके लिए उसे भी क़ाज़ी के पास जाना होता है। इसके साथ-साथ ऐसी स्थिति में उसको 40-40 दिन तक इंतज़ार करने की भी आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि महिला के आरोप सही पाए जाने की स्थिति में फ़ौरन विवाह विच्छेद का अधिकार मिल जाता है, जिसको 'खुला' कहा जाता है। इसके ठीक विपरीत पुरुषों को एकाधिक विवाह और तलाक़ के मामले मे ज्यादा रियायत दी गयी है (या समय के साथ आ गयी है)।

“तीन तलाक़” जैसी कुप्रथा जो दुनिया के तमाम मुस्लिम देशों से हटा दी गयी है, उसे हम भारत जैसे “धर्म निरपेक्ष” देश मे आखिर क्यों बने रहना चाहते है ? 

तमाम प्रावधानों के बावज़ूद भी हाल के वर्षों मे तीन तलाक़ से पीड़ित- प्रताड़ित मुस्लिम महिलाओं की संख्या मे काफी इज़ाफा हुआ है, और इसी वजह से एक समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठा...यदि हम हिंदू धर्म पर ही ध्यान दे तो अपने मूल रूप मे “तलाक़” की अवधारणा हिंदू धर्म मे भी नही थी...हिंदू धर्म मे अपने मूल रूप मे विवाह जीवन के 16 मुख्य संस्कारो मे से एक है जिसे “ पाणिग्रहण संस्कार” कहा जाता है । हिंदू धर्म मे विवाह को सात जन्मो का बंधन माना जाता है, जिसमें “सम्बन्ध विच्छेद” या “तलाक़” जैसा शब्द था ही नही। किंतु फिर ऐसे अनेक मामले सामने आये जिसके चलते विवाह को कानूनी जामे मे लपेटा जाना जरूरी प्रतीत हुआ, और वर्तमान मे हिंदू विवाह को बकायदा हिंदू विवाह एक्ट 1955 के अंतर्गत ही मान्य किया है। जिसमें बाकायदा शादी का रजिस्ट्रेशन करवाना होता है, जहाँ आपको शादी का प्रमाणपत्र दिया जाता है, और इस वर्तमान व्यवस्था मे तलाक़ का भी प्रावधान है...इसलिये वर्तमान मे विवाह को “विवाह संस्था” कहा जाने का चलन है...विवाह संस्था शब्द ईसाइयत की देन है जहाँ विवाह को “सेक्रेड इंस्टिट्यूशन” कहा गया है, यहाँ तक की मुस्लिम समाज मे विवाह के लिये प्रचलित शब्द “निकाह” (अरबी भाषा) का अर्थ भी करारनामा (कांट्रैक्ट) है....

बहरहाल हमारे यहाँ बुद्धिजीवियों और स्त्री चिंतकों का एक बड़ा तबका महिलाओं की आज़ादी के नाम पर विवाह संस्था के अस्तित्व पर ही सवाल उठाता रहा है (वैवाहिक बलात्कार के नाम पर) ...जिसमें कई तरह के गैर जरूरी तथा गैर वाज़िब आरोप भी प्रकारांतर से सामने आये हैं, और गौर करने की बात यह है कि ये सभी आरोप सिर्फ “विवाह” पर लगाये गये है “निकाह” या “मैरिज” पर नही। हम बहुत आसानी से विवाह, निकाह और मैरिज को एक बात मान लेते है, लेकिन विरोध करने वाले ऐसा कतई नही सोचते...यदि हम समझने की कोशिश करे तो हिंदू धर्म मे विवाह की मूल व्यवस्था बहुत लचीली थी, जहाँ 8 प्रकार के विवाह मान्य थे ....जिनमें से एक था ‘गंधर्व विवाह’, जिसे हम वर्तमान मे ‘प्रेम विवाह’ या ‘लिव इन’ के रूप मे जानते है... बुद्धिजीवी “क्रांति” के रूप मे जानते हैं...यानि परिवार वालों की सहमती के बिना वर–वधू द्वारा आपस मे विवाह कर लेना गंधर्व विवाह कहलाता था....दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्व विवाह ही किया था, और उनके पुत्र “भरत” के नाम पर ही हमारे देश का नाम “भारतवर्ष” बना...अत: जब बुद्धिजीवी प्रेम विवाह को अपनी वैचारिक क्रांति की देन बताते हैं तो यह समझा जा सकता है कि यह विचारधारा अपने समय से कितनी पीछे चल रही है...वही जब कोई व्यक्ति या संस्था भारतीय संस्कृति के रक्षक के रूप मे प्रेमियों या प्रेम का विरोध करता है तो यह समझा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति के विषय मे उनकी जानकारी कितनी न्यून है...बावज़ूद इन सबके, समय के साथ विवाह मे आयी विकृतियों को स्वीकारते हुए हिंदू विवाह को कानून के अंतर्गत ला खड़ा किया, और खुशी की बात यह है कि आज हिंदू धर्म ही है, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों के लिये, विवाह करना आसान है तो वही आपस मे सामंजस्य ना मिलने पर तलाक़ लेना भी आसान है। तलाक़ के लिये आप किसी मंदिर के पुजारी या पंड़ितो की रज़ामंदी के लिये मजबूर नही हो...इसके ठीक विपरीत इस्लाम मे “तीन तलाक़” को लेकर हो रहे हंगामे जिससे आप पाठक वाकिफ हैं, जो कि एक कानूनी प्रक्रिया न होकर, मौलवियों काजियों की रजामंदी पर आधारित है, जिसमें ऐसे अनेक मामले है जहाँ पुरुष अपनी मर्ज़ी से तलाक़ देने या निकाह करने के लिये स्वतंत्र है, टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा के पति शोएब अख्तर का अपनी पूर्व पत्नी से निकाह और फिर तलाक़ इसका ज्वलंत उदाहरण है...फोन पर ही निकाह हो गया, और जब मन आया तलाक़ दे दिया, क्या इसे हम वैवाहिक बलात्कार नही कहेंगे? इसी तरह इसाईयत मे तलाक़ लेना बहुत मुश्किल काम है, आपको बाकायदा चर्च की अनुमति लेनी होगी, जो मिलना बहुत मुश्किल होती है, उसके बाद ही आप सिविल कोर्ट मे तलाक़ ले सकते हो, यदि चर्च की अनुमति के बिना कोर्ट का दरवाज़ा खटखाटाया तो आपका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है...कुल मिलाकर देखा जाये तो हिंदू धर्म मे तलाक़ जैसा कोई शब्द नहीं था किन्तु समयानुसार आज उसमें “तलाक़” की व्यवस्था है लेकिन इस्लाम के मानने वालों में जहाँ आज भी महिलायें “मज़हब” की आड़ मे कई तरह से प्रताड़ित हो रही हैं, उनके लिये इन स्त्री चिंतको के पास ना वक़्त है, ना भावना...“तीन तलाक़” जैसी कुप्रथा जो दुनिया के तमाम मुस्लिम देशों से हटा दी गयी है, उसे हम भारत जैसे “धर्म निरपेक्ष” देश मे आखिर क्यों बने रहना चाहते है ? क्या जीने की आज़ादी के दायरे मे “मुस्लिम महिलायें” नही आती ? क्या आपके नारी–विमर्श मे मुस्लिम महिलाओं पर कोई चिंतन है ही नही ? और यदि आपका स्त्री विमर्श सच्चा है तो खुलकर इस मुद्दे पर सामने आइये...मुस्लिम समाज की महिलाओं को आपकी जरूरत है ।

समय के साथ यदि किसी व्यवस्था मे सुधार की जरूरत हो तो उस सुधार को लाया जाना चाहिये, उसको धर्म या मज़हब का रंग देना ही नही चाहिये, परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है, फिर शरियत को इस नियम के दायरे से बाहर क्यो रखा जाये? समान नागरिक संहिता आज की जरूरत है, यदि हम यह चाहते है कि मुस्लिम महिलायें भी देश की तरक्की मे बराबरी की भागीदार बने तो इसे लागू किया जाना चाहिये, तीन तलाक़ के खौफ से मुस्लिम महिलाओ को आज़ाद करने के लिये आगे आईये...
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