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साहित्यकारों का फेसबुक-हमाम और अनंत विजय का लेख | Sahitya ka 'Samikaran Kal' - Anant Vijay


साहित्य का 'समीकरण काल'

Sahitya ka 'Samikaran Kal' - Anant Vijay



अनंत विजय के इस लेख को पढ़ने से पहले एक नज़र उन प्रतिक्रियाओं पर डालते चलते हैं जो अनंत की फेसबुक वाल पर साहित्य से जुड़े लोगों ने दी हैं... जिस पर ख़ाकसार ने इतना ही कहा "वाह बड़े दिन बाद आपकी कलम ने काले को काला किया/लिखा"

anant vijay facebook wall




रजनी गुप्ता :  आपकी साफगोई को सलाम !!

भगवानदास मोरवाल:  मान्यवर, आपकी मेरे बारे में यह टिप्पणी न केवल निंदनीय है बल्कि बेहद आपत्तिजनक भी है कि 'हासिल हो रहा है भगवानदास मोरवाल सरीखे वरिष्ठ लेखक को जो फेसबुक के मंच को अपनी किताब के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करते हैं । अपनी किताब के प्रमोशन का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं बल्कि मौके पैदा कर लेते हैं ।' आपने बिना मेरी सहमति के जो यह टिप्पणी लगाईं है वह आपराधिक मानहानि के दायरे में आती है l अगर आपने सार्वजनिक रूप से अपने इस कृत्य के लिए माफ़ी नहीं मांगी , तो मजबूरन मुझे आपको आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि का कानूनी नोटिस भिजवाना पड़ेगा i

इंदिरा दांगी: शानदार लेख . ...पढ़कर आनंद आया . मैंने अपने नाटक आचार्य में भी ऐसा ही कुछ लिखा है 
अब पढ़िए और कहिए...

भरत तिवारी

साहित्यकारों का फेसबुक-हमाम और अनंत विजय का लेख



फेसबुक आपको साहित्यिक समीकरणों को समझने में मदद तो करता ही है कई बार इन समीकरणों को उघाड़कर रख देता है 
हिंदी साहित्य में फेसबुक अब एक अनिवार्य तत्व की तरह उपस्थित है । कई साहित्यकार इस माध्यम को लेकर खासे उत्साहित रहते हैं । उनका मानना है कि फेसबुक ने नए-पुराने लेखकों को एक खुला मंच दिया जहां आकर वो अपनी बात कर सकते हैं । इस मंच पर वो अपनी रचनाएं लिख सकते हैं, यहां अपनी राय प्रकट करने के साथ-साथ बहस मुहाबिसे में भी हिस्सा ले सकते हैं । इस माध्यम की वकालत करनेवालों को ये अभिव्यक्ति का ऐसा मंच मानते हैं जहां कोई बंदिश नहीं है । लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जो इस असीमित अधिकार को लेकर सशंकित रहता है और उनका तर्क होता है कि इससे साहित्य में अराजकता को बढ़ावा मिलता है । सोशल मीडिया के इन दो पक्षों पर ही बहस होती रहती है लेकिन इसका एक तीसरा और दिलचस्प पक्ष भी है । फेसबुक आपको साहित्यिक समीकरणों को समझने में मदद तो करता ही है कई बार इन समीकरणों को उघाड़कर रख देता है । हिंदी साहित्य में लेखकों के बीच समीकरण बनते बिगड़ते रहते हैं । इस बात को फेसबुक पर इनकी गतिविधियों से सहजता के साथ रेखांकित किया जा सकता है । हिंदी साहित्य का ये दौर समीकरणों का दौर है जहां ज्यादातर लेखक आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा में डूबे हैं । आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा ही साहित्य में नए समीकरणों को जन्म देती रहती है । इस वक्त साहित्य की दुनिया में हर रोज नए ध्रुवों और गुटों का जन्म होता है और इस जन्म की सूचना आपको फेसबुक पर मिल जाती है ।

भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर के बाहर मैत्रेयी पुष्पा के साथ नारे लगानेवाले साहित्यकार कालांतर में एक एक करके उनका साथ छोड़ गए

अपनी कहानी के सफल पाठ में लीन लेखिका वंदना राग
अपनी कहानी के सफल पाठ में लीन लेखिका वंदना राग

फेसबुक के लोकप्रिय होने के पहले तो होता ये था कि लेखकों को किसी के पक्ष में दिखने या खड़े होने के लिए लेख आदि लिखने पड़ते थे लेकिन फेसबुक ने वो काम आसान कर दिया । अब आप लाइक या कमेंट या शेयर कर किसी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं । कुछ सालों पहले जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय ने ज्ञानोदय पत्रिका में इंटरव्यू दिया था और उस इंटरव्यू के बाद छिनाल विवाद छिड़ा था तो मैत्रेयी पुष्पा ने उनके खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद किया था । भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर के बाहर मैत्रेयी पुष्पा के साथ नारे लगानेवाले साहित्यकार कालांतर में एक एक करके उनका साथ छोड़ गए । बिछड़े सभी बारी बारी बारी की तर्ज पर कोई वर्धा विश्वविद्यालय से जुड़ गया तो कोई कुलपति विभूति नारायण राय से किसी और तरह से उपकृत होकर उनके साथ हो लिया । इसी तरह से युवाओं को लेकर भी साहित्य में एक लंबी बहस चली थी जिसमें एक तरफ मैत्रेयी पुष्पा थीं और दूसरी तरफ कई लेखिकाएं । उस वक्त मैत्रेयी जी का खुलकर और लिखकर विरोध करनेवाली कई लेखिकाएं इन दिनों मैत्रेयी पुष्पा के साथ मंच साझा करती नजर आ रही हैं । मैत्रेयी पुष्पा भी उन लेखिकाओं के कार्यक्रमों में शिरकत कर रही हैं । तो इस तरह से अगर देखा जाए तो साहित्य जगत की इन जीवंतताओं का पता फेसबुक से ही चलता है । जीवंतता इस वजह से कह रहा हूं कि इसको गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है और मनोरंजन के तौर पर इसका आनंद उठाना चाहिए क्योंकि ये मंच सबको एक्सपोज करता चलता है । एक्सपोज इस वजह से कि जो कमेंट किए जाते हैं वो बहुधा व्यक्तिगत हो जाते हैं । चंद सालों पहले एक लेखिका ने दूसरी लेखिका के खिलाफ फर्जी आईडी से कई आपत्तिजनक पोस्ट डाले थे । तब शायद उनको मालूम नहीं रहा होगा कि कंप्यूटर और इंटरनेट के कनेक्शन की वजह से पोस्ट डालने वाले की पहचान हो सकती है । उस वक्त ये हुआ भी था और साहित्य जगत में बहुत बवाल खड़ा हुआ था ।

गुटबाजी के इस खुले खेल के अलावा भी फेसबुक साहित्यिक माहौल को जीवंत बनाए रखता है । फेसबुक को अगर आप नियमितता के साथ फॉलो करेंगे तो वहां आपको दो तीन लेखकों का एक ग्रुप नजर आएगा जो हर दिन किसी ना किसी तरह का विवाद उठाने के उपक्रम में जुड़े रहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इन लेखकों का ये छोटा गुट सुबह तय कर लेता है कि आज फलां लेखक को या फलां लेखिका को घेरना है और उसपर येनकेन प्रकारेण साहित्यिक या साहित्येतर वजह से हमले करने हैं । अपनी योजना पर अमल करते हुए विवादित पोस्ट लिखे जाते हैं । उसके बाद होता है कि उन लेखकों से जुड़े छोटे-मोटे लेखक या लेखक बनने के लिए संघर्ष कर रहे कुछ लोग अति उत्साह में आकर इस या उस पक्ष पर हमलावर हो जाते हैं । साहित्य के इस खेल में बहुधा भाषिक मर्यादा की लक्ष्मणरेखा लांघी जाती है, जिससे बचा जाना चाहिए । फेसबुक पर साहित्य से जुड़े कई लोग आपको ऐसे मिल जाएंगे जो अपने मठाधीश के हर पोस्ट पर किसी ना किसी तरह की टिप्पणी अवश्य करते हैं । वाह से लेकर आह टाइप की । फेसबुक पर कोई एक मठाधीश नहीं है यहां तो बड़े, मंझोले और छोटे मठाधीश आपको मिल जाएंगे । कई मठाधीश तो इतने असहिष्णु हैं कि वो अपना मर्यादित विरोध नहीं झेल पाते हैं और विरोध के तर्क देनवाले को ब्लॉक कर अपना परचम लहराते रहते हैं ।

अनंत विजय
साहित्यकारों का फेसबुक-हमाम और अनंत विजय का लेख

अब अगर हम विचार करें तो फेसबुक ने साहित्यिक माहौल में अवश्य ही अनेक आयाम जोड़ दिए हैं लेकिन इन आयामों से साहित्य को क्या हासिल हो रहा है । हासिल हो रहा है भगवानदास मोरवाल सरीखे वरिष्ठ लेखकों का जो फेसबुक के मंच को अपनी किताब के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करते हैं । अपनी किताब के प्रमोशन का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं बल्कि मौके पैदा कर लेते हैं । फेसबुक का ये इस्तेमाल तो कोलकाता की साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका अलका सरावगी ने भी अपनी किताब जानकीदास तेजपाल मैनशन के प्रकाशन के वक्त किया था । उन्होंने भी जमकर अपनी किताब का प्रचार किया था । तब उसको लेकर भी विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई थी । लेकिन देश में इंटरनेट के बढ़ते घनत्व के मद्देनजर फेसबुक जैसा माध्यम लेखकों को पाठकों तक पहुंचने का माध्यम बन सकता है । हलांकि इस माध्यम को चलाने वाले इसमें कारोबार की असीम संभावनाओं के मद्देनजर पोस्ट की पहुंच को सीमित कर दे रहे हैं बावजूद इसके लेखकों को इसका इस्तेमाल करना चाहिए । लेखकनुमा विवादप्रिय लोग तो कर ही रहे हैं, जेनुइन लेखकों को भी करना चाहिए ।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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