अनिरुद्ध उमट का नया काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’
— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय
कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट के नए काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ में महत्त्व इस बात का नहीं है कि इसमें कितनी कविताएँ हैं बल्कि महत्त्व है कविताओं के मिज़ाज एवं मूड का । आज कविता का कोई आन्दोलन नहीं है । यों देखें तो आन्दोलन तो किसी का भी नहीं है । शायद यह युग के ठंडेपन का प्रभाव है । यह ठंडापन भी शायद नई जन्मी और विषबेली की तरह निरंतर बढ़ती संस्कृति से उपजा है । आज कविताएँ भी प्रायः इसी संस्कृति और उसके ठंडेपन को ही अभिव्यक्त करती हैं याकि कर रही हैं । लेकिन अनिरुद्ध उमट की कविताएँ इस मिज़ाज और मूड से अलग हैं । ये कविताएँ हर स्तर पर अलग बुनावट की कविताएँ दिखती हैं ।आज जबकि ज्यादातर कविताएँ वर्तमान समय एवं समाज के यथार्थ को, उसकी विषमताओं को तथा जीवन-जगत की विषमताओं एवं विडम्बनाओं से उत्पन्न त्रासदी का बयान करती हैं और उसी के बहाने अपने सामाजिक सरोकारों को प्रमाणित करने की कोशिश करती हैं याकि यथार्थ की विविध स्थितियों को मूर्त कर, उसके अंतर्विरोधों और दबावों को अभिव्यक्त कर अपनी प्रगतिशीलता सुनिश्चित करना चाहती हैं तब अनिरुद्ध उमट की कविताएँ बिना किसी दावे और बिना किसी दबाव के शुद्ध रूप से कविता के कवितापन के साथ सामने आती हैं और कविता के नए संभावना-क्षितिज की ओर अर्थवान संकेत देती हैं, इशारा करती हैं । ये कविताएँ अभिव्यक्त करने की जगह चित्र खींचती हैं –मुकम्मल नहीं बल्कि अधूरी और उसी अधूरेपन के बीच कविता का मर्म छिपा मिलता है । कहने का अर्थ यह है कि अनिरुद्ध उमट बाह्य-जीवन की विषमताओं, विडम्बनाओं, गंदगियों, कुरूपताओं एवं अंतर्विरोधों आदि को ही सत्य मान कर उसी में रमे रहने वाले याकि उन्हीं का चित्रण करने वाले कवि नहीं हैं । वे तो आत्मखोज के कवि हैं, आत्मान्वेषण के कवि हैं । एक आत्मान्वेषण का ही कवि ‘मैं कहीं नहीं था अब’ जैसी कविता की सर्जना कर सकता है जिसमें वे कुछ बिम्बों की उपस्थिति से वार्तालाप करते हैं —
दराज छूते ही
मेज हिलती-सी
ढहने लगी हाथों में
पहनने लगा पुरानी कमीज
तड़-तड़ बटन
लगे गिरने
डरता-सा
देखने लगा आईना
नहीं यह तो है दीवार
कहा खुद से
हटा वहाँ से
ढहने न लग जाए कहीं
अँधेरे कमरे में
बैठा
तो वहाँ आँगन
धँसने लगा
मैं कहीं नहीं था अब ।
वस्तुतः अनिरुद्ध दूसरों को पहचानने की बजाय अपने को पहचानने पर ज्यादा जोर देते दिखाई देते हैं । इसी भावभूमि की एक कविता है –‘हरियल आहटों वाले दिन’ । इसमें अपने को टटोलना भी है, अपने अतीत से गुजरना भी है और उन्हीं के बीच राग की, प्रेम की परिणति और उसके महत्त्व की भी बात है । उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ सिर्फ़ इशारे हैं, सूत्र हैं, एहसास है जिन्हें कवि व्यक्त नहीं करता बल्कि वह चाहता है कि उसे आप अपने भीतर व्यक्त करें, आप अपने भीतर उसी एहसास को जगाएँ । पंक्तियाँ हैं —
अपनी चेतना के गुट्ठल उजाले
टटोल रहे होंगे जब हम
न जाने कितने
हरियल आहटों वाले दिन
गुजर जायेंगे
पक्षी अपने गान से
भर देंगे पेड़ों का रोम-रोम
शायद तभी
ताम्बई सुबह से उबरने में
प्रेम का विस्मृत होना भी देखेंगे ।
‘प्रतीक्षा के सूत में’ शीर्षक कविता में अनिरुद्ध उमट पूरी पृथ्वी की बात करते हैं, पूरे संसार की बात करते हैं, किसी एक रंग की नहीं बल्कि सभी रंगों की बात करते हैं और उन सब के मेल की बात करते हैं । यहाँ कवि की सोच का दायरा विस्तार पाता हुआ दिखाई देता है । इसे हम कवि का अपना पक्ष भी मान सकते हैं । और यह भी एक तथ्य है कि कवि का पक्ष—मनुष्य तथा मनुष्यता से अलग तो नहीं ही हो होता है । वे लिखते हैं —
प्रतीक्षा के सूत में
मिला लो
जरा हरा
जरा पीला
जरा-जरा नीला भी
बूँद भर गाढ़ा सफ़ेद
कातती जाओ
कातती ही जाओ
पड़ी है पूरी पृथ्वी
सूत फैलाने को
को
कहीं भेज देने
हवा में
उड़ा देने को ।
अनिरुद उमट की कविता के पीछे उनका अपना एक खास तरह का काव्य-विवेक काम करता है जो सिर्फ़ उनका है, उनका निजी है । उस विवेक के ही चलते वे सपाटबयानी नहीं करते, जीवन-जगत से स्थूल रूप में या सीधे-सीधे साक्षात्कार नहीं करते और न ही वे किसी के पक्ष-विपक्ष में खड़े हो कर साहित्यिक वकील बन कर किसी के यहाँ अपना नाम लिखवाना चाहते हैं । वे तो अपने भीतर के एहसास को, भीतर की आवाज को, उसके विवेक को वाणी देने की अपेक्षा उकेरने की कोशिश करते हैं । संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए हमें इस बात का स्पष्ट एहसास होता है कि अनिरुद्ध एहसास की कविताओं के कवि हैं । इसीलिए इन कविताओं की अपनी एक अलग स्वायत्त पहचान है । ये नए ‘त्वरा’ की कविताएँ हैं जिनमें जीवन के अन्तःस्पर्शी अनुभव प्रत्यक्ष हुए हैं ----वो भी किसी वक्तव्य के रूप में नहीं, किसी के पक्षधर के रूप में भी नहीं बल्कि अपनी और सिर्फ़ अपनी ताप के साथ प्रत्यक्ष हुए हैं । नन्दकिशोर आचार्य ने इन कविताओं पर बात करते हुए इस तथ्य की ओर संकेत भी किया है । वे कहते हैं – “ऐसी कविता .....किसी निश्चित अर्थ को पाने के लिए नही, एक ऐसे एहसास से गुज़रने के लिए पढ़े जाने की माँग करती हैं जिसकी शाब्दिक निर्मिति की वास्तविक परिणति अपने ग्रहीता की चेतना में घुल जाने की प्रक्रिया में होती है । उसे अपने पाठक में भी उस ‘सहृदय’ की तलाश रहती है ।” कहने का अर्थ यह है कि इन कविताओं के प्रति हमें समझ बनाते समय प्रचलित काव्यशास्त्र से अपने को, अपनी सोच को, अपनी दृष्टि को अलग ले जाना होगा और उसे ‘शब्द’ और ‘कवि’ के बीच का निजी मामला मान कर ही देखना होगा । वो बात दूसरी है कि वे ‘शब्द’ अब सिर्फ़ कवि के नहीं रहे – वे अब सब के हो गए हैं इसीलिए उसका एहसास भी अब अलग-अलग रूपों में हो सकता है और होना भी चाहिए, क्योंकि अज्ञेय के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि सब की ‘इयत्ता’ अलग-अलग रूपों में ही जाग्रत होती है । तात्पर्य यह कि ‘एहसास’ की कविताओं को एहसास के धरातल पर ही चल कर हम सार्थक रूप में देख सकते हैं । ये एहसास भी कई- कई बिम्बों में व्यक्त होते हैं । अनिरुद्ध की खासियत यह है कि वे छोटे-छोटे बिम्बों में गहरी-से-गहरी बात कह जाते हैं । इस संग्रह में एक कविता है – ‘सही तरह से’, इसे पढ़ते समय हम अनेकानेक एहसासों से गुज़रते हैं —
रुक गया अधर में
वृक्ष
गिरता-गिरता
थिर हुए बदहवास पक्षी शाखों पर
उड़ते-उड़ते
अचानक हुए खोखल में
लिपटने लगे एक दूजे से
जड़ों में बैठे कीट – सर्प
आयीं तुम
पलंग से गिरे तकिये को
सिरहाने रखती-सी-वृक्ष को
रखने लगी
सही तरह से
पक्षी फिर शाखों पर
कीट-सर्प जड़ों की नमी में
आकाश फिर
नीला – शांत ।
अनिरुद्ध उमट की कविता की खूबसूरती उनके बिम्बों में निहित है । एक चित्र देखिए —
आसमान से
दिखी पृथ्वी
कई रंगों में गुत्थमगुत्था
मालूम हुआ
खूबसूरत चादर
किसी ने बड़े जतन से रँगी
फिर
तनिक
सूखने
फैला दी ।
अनिरुद्ध व्यक्ति की बात करते हैं, प्रकृति की बात करते हैं, उन दोनों के अन्तःसम्बन्धों की बात करते हैं और उसे लिखते समय कई एक बिम्बों की सर्जना करते हैं । यह बिम्ब-सर्जना अनिरुद्ध उमट की कविताओं की ताक़त भी है और उनकी पहचान भी । ‘सूनी दुपहर की धूप’एक ऐसी कविता है जिसमें कई बिम्ब हैं जो एक दूसरे से जुड़ कर एक बड़े बिम्ब की निर्मिति करते हैं और उस निर्मिति का कोई एक रूप नहीं हो सकता है बल्कि हमारे-आपकी सोच और दृष्टि के आधार पर उसके नए-नए रूप बन सकते हैं । पंक्तियाँ इस प्रकार हैं देखिए —
सड़क पर पैदल चलते
लड़खड़ाऊँगा
एक क्षण
फिर इधर-उधर देखते
गले पर हाथ फिराते
गुनगुनाऊँगा सूनी दुपहर की
धूप का ताप
उधर बंद पड़े मेरे कमरे में
डाकिया दरवाजे के नीचे से खिसका जाएगा
सारी चिट्ठियाँ
अपनी
मेरे लौटने की प्रतीक्षा में
खुली रखी किताब पर
धूप आकर
लौट जाएगी
जो अभी टिकी है मेरे सर पर ।
वस्तुतः ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ काव्य-संग्रह की कविताएँ स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि अनिरुद्ध बाह्य एवं स्थूल जीवन के क्रिया-व्यापारों की अपेक्षा प्रकृति और जीवन के प्रति निरंतर आत्मान्वेषण का प्रयास करते दिखते हैं । यह आत्मान्वेषण ही उनकी कविता की दृष्टि भी है । ‘पराकाष्ठा’, ‘अपना आप’, ‘हम कहीं न थे’, ‘पीछे मैं था उनकी छाया में घुलता’ शीर्षक कविताएँ उनकी इस भीतरी दृष्टि की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । ‘हम कहीं न थे’ की कुछ पंक्तियाँ हम देख सकते हैं —
क्या उसे पता है रास्तों में रास्ते खोते
अंतिम कलप है प्यास और आस
दोपहर के वीराने में कोई आएगा और चुरा ले जाएगा खुद को
उसने कहा – “हाँ , मुझे पता है”
यह सुनते ही मैं कहीं नहीं था
अब हम वहाँ थे जहाँ हम कहीं न थे
हमारे होने का
कोई निशान न था
अब केवल
टीला था ।
अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं में जिन भावों की प्रधानता है उन भावों तक पहुँचने के लिए, उनके मर्म को जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि में नयापन लाना होगा क्योंकि अपने पुराने काव्यशास्त्र से हम उन भावों की व्यंजना को नहीं समझ सकते हैं । नए की तलाश और नए से जुड़ाव कर ही हम उन भावों की गहराई तक पहुँच सकते हैं । अनिरुद्ध की एक कविता है –‘पराकाष्ठा’ जिसमें वे प्रभु से सवाल करते हैं और उसी के साथ अपने पक्ष को भी प्रस्तुत करते हैं । वे कहते हैं —
पराकाष्ठा के काष्ठ पर
नाक रगड़ते
प्रभु
तुम
थकते
नहीं
लो हटो
मैं
मरता हूँ ।
वस्तुतः ‘तुम थकते नहीं’ और ‘लो हटो मैं मरता हूँ’ के भीतरी भाव तक पहुँचने के रास्ते सीधे एवं सरल नहीं हैं । उस तक पहुँचने के लिए हमें अपने भीतर की भी यात्रा करनी होगी ।
यद्यपि सीधे बयान के रूप में भी कविता अर्थपूर्ण होती है – इसके लिए हम नागार्जुन और धूमिल जैसे कवियों की कविताओं को अक्सर सामने रखते हैं लेकिन सीधे बयान के बिना भी कविता कितनी अर्थपूर्ण और जीवन से जुड़ी हो सकती है इसे हम अनिरुद्ध उमट की कविताओं में देख सकते हैं । ये कविताएँ इसलिए भी अर्थपूर्ण हैं क्योंकि इन कविताओं की संवेदना का संसार सिर्फ़ कवि के बाह्य से नहीं बल्कि कवि के अंतरंग से जुड़ा है । इसका अर्थ यह नहीं कि अनिरुद्ध के यहाँ सिर्फ़ ‘इकाई’ है याकि सिर्फ़ ‘कवि’है याकि सिर्फ़ ‘स्व’ है । वह संवेदना ही क्या जो सिर्फ़ ‘स्व’ तक सीमित हो ।अनिरुद्ध के यहाँ संवेदना का विस्तार सूक्ष्म रूप में होता दिखाई देता है । एक उदाहरण रखना चाहूँगा, कविता का शीर्षक है- ‘उसने भी देखा होगा’ जिसमें वे कहते हैं —
शफ्फाफ़ नीले आकाश में
धँसा दिया
चेहरा
उधर भी था चेहरा एक
अंतहीन प्रतीक्षा में
उसने भी
देखा होगा
ऐसा ही आकाश
अब दोनों चेहरे
डूबते
धँसते
फफकने लगे ।
मैं समझता हूँ इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह कविता अज्ञेय की अचानक ‘बज उठी वीणा’ की तरह आप सबमें अलग-अलग रूपों में बजी होगी और आप सब इसमें अपने-अपने तईं अर्थ खोज रहे होंगे । हाँ ! इसमें कोई दो राय नहीं कि अर्थ-गौरव और भाव- सघनता की दृष्टि से अनिरुद्ध उमट की कविताएँ आज के समय की कविता के बीच एक अलग पहचान के साथ सामने आती हैं और अपनी भाषिक सर्जनात्मकता के चलते सबसे अलग खड़ी दिखती हैं । एक बात यह भी कहना चाहूँगा अज्ञेय की तरह अनिरुद्ध की कविताओं में भी ‘विसर्जन’ का स्वर मिलता है । इस सन्दर्भ में संग्रह की ‘वुजु’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं —
लो हो गया
आज
मेरा ‘वुजु’
लिए अपना वजूद
अब मैं
कायनात में
कहाँ समाऊँ
गुम हुई सरगम
जहाँ
पुराने हारमोनियम से
वहीं जा
पसरूँ
या दूँ छाया
डूबते
सूर्य को ।
समकालीन कवि और कविता पर विचार करते हुए डॉ.परमानन्द श्रीवास्तव ने एक जगह लिखा है कि “ कबीर ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, निराला ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, मुक्तिबोध ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की जरूरत प्रमाणित की, ( यहाँ तक कि ) धूमिल ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की अनिवार्यता सिद्ध की । ”ऐसी अनिवार्यता प्रायः उस कवि और उसकी कविता के साथ होता है जो प्रचलित धारा से अलग की सोच के साथ सामने आता है । क्या अज्ञेय की कविताओं को पुराने काव्यशास्त्र के धरातल पर कस कर हम उसके साथ न्याय कर सकते हैं ? जवाब होगा नहीं, हमें उसे समझने- समझाने के लिए अपनी जड़ीभूत काव्यरुचि में अनिवार्यतः परिवर्तन लाना ही होगा ।
अनिरुद्ध उमट की कविताएँ भी परंपरागत काव्यशास्त्र को चुनौती देती हैं और उन्हें जानने, समझने एवं परखने के लिए एक नए तरह के काव्यशास्त्र एवं काव्य-संवेदना की ज़रूरत प्रतिपादित करती हैं क्योंकि उनकी कविताओं का अपना यथार्थ है और उस यथार्थ को हम अपनी शर्तों पर पहचानने की कोशिश करेंगे तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आएगा लेकिन उन कविताओं की शर्तों पर यदि हम उन्हें देखने की कोशिश करते हैं तो निश्चित ही हम कविता के नए विवेक से अपना नाता जोड़ पाने में सफल होंगे । सच तो यह है की उर्दू के जाने-माने शायर शीन काफ़ निज़ाम कविता के लिए जिस ‘इशारे के आर्ट’ की बात करते हैं उस इशारे के आर्ट को हम अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं से गुज़रते हुए बखूबी देख सकते हैं । ऐसे इशारे के आर्ट के कवि अनिरुद्ध उमट को इस नए काव्य-संग्रह- ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ के लिए ढेर सारी बधाइयाँ इस आशा के साथ कि अभी तो उन्होंने ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरों’ पर उँगली रखी है आगे वे तस्वीरों में अंकित होने वाले चेहरों को भी जरूर आँकेंगे ।
प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, विनायक शिखर, पॉलिटेक्निक कॉलेज के पास, बीकानेर -334003
मूल्य - 140/- रुपए
डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय
‘कवितायन’ 36 राजीव नगर
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