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इशारे के आर्ट से रूबरू कराती कविताएँ — डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय


Anirudh Umat Kavita Sangrah Tasveeron


अनिरुद्ध उमट का नया काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ 

— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट के नए काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ में महत्त्व इस बात का नहीं है कि इसमें कितनी कविताएँ हैं बल्कि महत्त्व है कविताओं के मिज़ाज एवं मूड का । आज कविता का कोई आन्दोलन नहीं है । यों देखें तो आन्दोलन तो किसी का भी नहीं है । शायद यह युग के ठंडेपन का प्रभाव है । यह ठंडापन भी शायद नई जन्मी और विषबेली की तरह निरंतर बढ़ती संस्कृति से उपजा है । आज कविताएँ भी प्रायः इसी संस्कृति और उसके ठंडेपन को ही अभिव्यक्त करती हैं याकि कर रही हैं । लेकिन अनिरुद्ध उमट की कविताएँ इस मिज़ाज और मूड से अलग हैं । ये कविताएँ हर स्तर पर अलग बुनावट की कविताएँ दिखती हैं । 





आज जबकि ज्यादातर कविताएँ वर्तमान समय एवं समाज के यथार्थ को, उसकी विषमताओं को तथा जीवन-जगत की विषमताओं एवं विडम्बनाओं से उत्पन्न त्रासदी का बयान करती हैं और उसी के बहाने अपने सामाजिक सरोकारों को प्रमाणित करने की कोशिश करती हैं याकि यथार्थ की विविध स्थितियों को मूर्त कर, उसके अंतर्विरोधों और दबावों को अभिव्यक्त कर अपनी प्रगतिशीलता सुनिश्चित करना चाहती हैं तब अनिरुद्ध उमट की कविताएँ बिना किसी दावे और बिना किसी दबाव के शुद्ध रूप से कविता के कवितापन के साथ सामने आती हैं और कविता के नए संभावना-क्षितिज की ओर अर्थवान संकेत देती हैं, इशारा करती हैं । ये कविताएँ अभिव्यक्त करने की जगह चित्र खींचती हैं –मुकम्मल नहीं बल्कि अधूरी और उसी अधूरेपन के बीच कविता का मर्म छिपा मिलता है । कहने का अर्थ यह है कि अनिरुद्ध उमट बाह्य-जीवन की विषमताओं, विडम्बनाओं, गंदगियों, कुरूपताओं एवं अंतर्विरोधों आदि को ही सत्य मान कर उसी में रमे रहने वाले याकि उन्हीं का चित्रण करने वाले कवि नहीं हैं । वे तो आत्मखोज के कवि हैं, आत्मान्वेषण के कवि हैं । एक आत्मान्वेषण का ही कवि ‘मैं कहीं नहीं था अब’ जैसी कविता की सर्जना कर सकता है जिसमें वे कुछ बिम्बों की उपस्थिति से वार्तालाप करते हैं —

दराज छूते ही
मेज हिलती-सी 
ढहने लगी हाथों में 

पहनने लगा पुरानी कमीज 
तड़-तड़ बटन 
लगे गिरने 

 डरता-सा 
देखने लगा आईना 

नहीं यह तो है दीवार 
 कहा खुद से 
हटा वहाँ से
ढहने न लग जाए कहीं 

अँधेरे कमरे में 
बैठा 
तो वहाँ आँगन 
धँसने लगा 

 मैं कहीं नहीं था अब । 

वस्तुतः अनिरुद्ध दूसरों को पहचानने की बजाय अपने को पहचानने पर ज्यादा जोर देते दिखाई देते हैं । इसी भावभूमि की एक कविता है –‘हरियल आहटों वाले दिन’ । इसमें अपने को टटोलना भी है, अपने अतीत से गुजरना भी है और उन्हीं के बीच राग की, प्रेम की परिणति और उसके महत्त्व की भी बात है । उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ सिर्फ़ इशारे हैं, सूत्र हैं, एहसास है जिन्हें कवि व्यक्त नहीं करता बल्कि वह चाहता है कि उसे आप अपने भीतर व्यक्त करें, आप अपने भीतर उसी एहसास को जगाएँ । पंक्तियाँ हैं —

अपनी चेतना के गुट्ठल उजाले
टटोल रहे होंगे जब हम

 न जाने कितने 
हरियल आहटों वाले दिन 
गुजर जायेंगे 

 पक्षी अपने गान से 
भर देंगे पेड़ों का रोम-रोम 

शायद तभी 
 ताम्बई सुबह से उबरने में 
प्रेम का विस्मृत होना भी देखेंगे । 

प्रतीक्षा के सूत में’ शीर्षक कविता में अनिरुद्ध उमट पूरी पृथ्वी की बात करते हैं, पूरे संसार की बात करते हैं, किसी एक रंग की नहीं बल्कि सभी रंगों की बात करते हैं और उन सब के मेल की बात करते हैं । यहाँ कवि की सोच का दायरा विस्तार पाता हुआ दिखाई देता है । इसे हम कवि का अपना पक्ष भी मान सकते हैं । और यह भी एक तथ्य है कि कवि का पक्ष—मनुष्य तथा मनुष्यता से अलग तो नहीं ही हो होता है । वे लिखते हैं —

प्रतीक्षा के सूत में 
मिला लो 
जरा हरा 
जरा पीला 
जरा-जरा नीला भी 
 बूँद भर गाढ़ा सफ़ेद 

कातती जाओ 
कातती ही जाओ 

पड़ी है पूरी पृथ्वी 
 सूत फैलाने को 
को 

कहीं भेज देने 
हवा में 
उड़ा देने को । 

अनिरुद उमट की कविता के पीछे उनका अपना एक खास तरह का काव्य-विवेक काम करता है जो सिर्फ़ उनका है, उनका निजी है । उस विवेक के ही चलते वे सपाटबयानी नहीं करते, जीवन-जगत से स्थूल रूप में या सीधे-सीधे साक्षात्कार नहीं करते और न ही वे किसी के पक्ष-विपक्ष में खड़े हो कर साहित्यिक वकील बन कर किसी के यहाँ अपना नाम लिखवाना चाहते हैं । वे तो अपने भीतर के एहसास को, भीतर की आवाज को, उसके विवेक को वाणी देने की अपेक्षा उकेरने की कोशिश करते हैं । संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए हमें इस बात का स्पष्ट एहसास होता है कि अनिरुद्ध एहसास की कविताओं के कवि हैं । इसीलिए इन कविताओं की अपनी एक अलग स्वायत्त पहचान है । ये नए ‘त्वरा’ की कविताएँ हैं जिनमें जीवन के अन्तःस्पर्शी अनुभव प्रत्यक्ष हुए हैं ----वो भी किसी वक्तव्य के रूप में नहीं, किसी के पक्षधर के रूप में भी नहीं बल्कि अपनी और सिर्फ़ अपनी ताप के साथ प्रत्यक्ष हुए हैं । नन्दकिशोर आचार्य ने इन कविताओं पर बात करते हुए इस तथ्य की ओर संकेत भी किया है । वे कहते हैं – “ऐसी कविता .....किसी निश्चित अर्थ को पाने के लिए नही, एक ऐसे एहसास से गुज़रने के लिए पढ़े जाने की माँग करती हैं जिसकी शाब्दिक निर्मिति की वास्तविक परिणति अपने ग्रहीता की चेतना में घुल जाने की प्रक्रिया में होती है । उसे अपने पाठक में भी उस ‘सहृदय’ की तलाश रहती है ।” कहने का अर्थ यह है कि इन कविताओं के प्रति हमें समझ बनाते समय प्रचलित काव्यशास्त्र से अपने को, अपनी सोच को, अपनी दृष्टि को अलग ले जाना होगा और उसे ‘शब्द’ और ‘कवि’ के बीच का निजी मामला मान कर ही देखना होगा । वो बात दूसरी है कि वे ‘शब्द’ अब सिर्फ़ कवि के नहीं रहे – वे अब सब के हो गए हैं इसीलिए उसका एहसास भी अब अलग-अलग रूपों में हो सकता है और होना भी चाहिए, क्योंकि अज्ञेय के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि सब की ‘इयत्ता’ अलग-अलग रूपों में ही जाग्रत होती है । तात्पर्य यह कि ‘एहसास’ की कविताओं को एहसास के धरातल पर ही चल कर हम सार्थक रूप में देख सकते हैं । ये एहसास भी कई- कई बिम्बों में व्यक्त होते हैं । अनिरुद्ध की खासियत यह है कि वे छोटे-छोटे बिम्बों में गहरी-से-गहरी बात कह जाते हैं । इस संग्रह में एक कविता है – ‘सही तरह से’, इसे पढ़ते समय हम अनेकानेक एहसासों से गुज़रते हैं —

रुक गया अधर में 
वृक्ष 
गिरता-गिरता 

 थिर हुए बदहवास पक्षी शाखों पर 
उड़ते-उड़ते 

अचानक हुए खोखल में 
लिपटने लगे एक दूजे से 
 जड़ों में बैठे कीट – सर्प 

 आयीं तुम 
पलंग से गिरे तकिये को 
सिरहाने रखती-सी-वृक्ष को 
 रखने लगी 
सही तरह से 

 पक्षी फिर शाखों पर 
कीट-सर्प जड़ों की नमी में 
 आकाश फिर 
नीला – शांत । 

अनिरुद्ध उमट की कविता की खूबसूरती उनके बिम्बों में निहित है । एक चित्र देखिए —

आसमान से 
दिखी पृथ्वी 

कई रंगों में गुत्थमगुत्था 

 मालूम हुआ
खूबसूरत चादर 
किसी ने बड़े जतन से रँगी 

 फिर 
तनिक 
सूखने 
फैला दी । 

अनिरुद्ध व्यक्ति की बात करते हैं, प्रकृति की बात करते हैं, उन दोनों के अन्तःसम्बन्धों की बात करते हैं और उसे लिखते समय कई एक बिम्बों की सर्जना करते हैं । यह बिम्ब-सर्जना अनिरुद्ध उमट की कविताओं की ताक़त भी है और उनकी पहचान भी । ‘सूनी दुपहर की धूप’एक ऐसी कविता है जिसमें कई बिम्ब हैं जो एक दूसरे से जुड़ कर एक बड़े बिम्ब की निर्मिति करते हैं और उस निर्मिति का कोई एक रूप नहीं हो सकता है बल्कि हमारे-आपकी सोच और दृष्टि के आधार पर उसके नए-नए रूप बन सकते हैं । पंक्तियाँ इस प्रकार हैं देखिए —

सड़क पर पैदल चलते 
लड़खड़ाऊँगा 
एक क्षण 

 फिर इधर-उधर देखते 
गले पर हाथ फिराते 
 गुनगुनाऊँगा सूनी दुपहर की 
धूप का ताप 

 उधर बंद पड़े मेरे कमरे में
डाकिया दरवाजे के नीचे से खिसका जाएगा 
 सारी चिट्ठियाँ
अपनी 

 मेरे लौटने की प्रतीक्षा में 
खुली रखी किताब पर 
धूप आकर 
 लौट जाएगी 

जो अभी टिकी है मेरे सर पर । 

वस्तुतः ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ काव्य-संग्रह की कविताएँ स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि अनिरुद्ध बाह्य एवं स्थूल जीवन के क्रिया-व्यापारों की अपेक्षा प्रकृति और जीवन के प्रति निरंतर आत्मान्वेषण का प्रयास करते दिखते हैं । यह आत्मान्वेषण ही उनकी कविता की दृष्टि भी है । ‘पराकाष्ठा’, ‘अपना आप’, ‘हम कहीं न थे’, ‘पीछे मैं था उनकी छाया में घुलता’ शीर्षक कविताएँ उनकी इस भीतरी दृष्टि की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । ‘हम कहीं न थे’ की कुछ पंक्तियाँ हम देख सकते हैं —

क्या उसे पता है रास्तों में रास्ते खोते
अंतिम कलप है प्यास और आस 

 दोपहर के वीराने में कोई आएगा और चुरा ले जाएगा खुद को 

 उसने कहा – “हाँ , मुझे पता है” 

 यह सुनते ही मैं कहीं नहीं था
अब हम वहाँ थे जहाँ हम कहीं न थे 

 हमारे होने का
कोई निशान न था 

अब केवल
टीला था ।

अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं में जिन भावों की प्रधानता है उन भावों तक पहुँचने के लिए, उनके मर्म को जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि में नयापन लाना होगा क्योंकि अपने पुराने काव्यशास्त्र से हम उन भावों की व्यंजना को नहीं समझ सकते हैं । नए की तलाश और नए से जुड़ाव कर ही हम उन भावों की गहराई तक पहुँच सकते हैं । अनिरुद्ध की एक कविता है –‘पराकाष्ठा’ जिसमें वे प्रभु से सवाल करते हैं और उसी के साथ अपने पक्ष को भी प्रस्तुत करते हैं । वे कहते हैं —


पराकाष्ठा के काष्ठ पर 
नाक रगड़ते 
 प्रभु

तुम
थकते
नहीं 

लो हटो 

मैं 
मरता हूँ । 

 वस्तुतः ‘तुम थकते नहीं’ और ‘लो हटो मैं मरता हूँ’ के भीतरी भाव तक पहुँचने के रास्ते सीधे एवं सरल नहीं हैं । उस तक पहुँचने के लिए हमें अपने भीतर की भी यात्रा करनी होगी ।

यद्यपि सीधे बयान के रूप में भी कविता अर्थपूर्ण होती है – इसके लिए हम नागार्जुन और धूमिल जैसे कवियों की कविताओं को अक्सर सामने रखते हैं लेकिन सीधे बयान के बिना भी कविता कितनी अर्थपूर्ण और जीवन से जुड़ी हो सकती है इसे हम अनिरुद्ध उमट की कविताओं में देख सकते हैं । ये कविताएँ इसलिए भी अर्थपूर्ण हैं क्योंकि इन कविताओं की संवेदना का संसार सिर्फ़ कवि के बाह्य से नहीं बल्कि कवि के अंतरंग से जुड़ा है । इसका अर्थ यह नहीं कि अनिरुद्ध के यहाँ सिर्फ़ ‘इकाई’ है याकि सिर्फ़ ‘कवि’है याकि सिर्फ़ ‘स्व’ है । वह संवेदना ही क्या जो सिर्फ़ ‘स्व’ तक सीमित हो ।अनिरुद्ध के यहाँ संवेदना का विस्तार सूक्ष्म रूप में होता दिखाई देता है । एक उदाहरण रखना चाहूँगा, कविता का शीर्षक है- ‘उसने भी देखा होगा’ जिसमें वे कहते हैं —

शफ्फाफ़ नीले आकाश में
धँसा दिया 
चेहरा 

उधर भी था चेहरा एक
अंतहीन प्रतीक्षा में 
 उसने भी 
देखा होगा 
ऐसा ही आकाश 

अब दोनों चेहरे 
 डूबते
धँसते
फफकने लगे । 

मैं समझता हूँ इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह कविता अज्ञेय की अचानक ‘बज उठी वीणा’ की तरह आप सबमें अलग-अलग रूपों में बजी होगी और आप सब इसमें अपने-अपने तईं अर्थ खोज रहे होंगे । हाँ ! इसमें कोई दो राय नहीं कि अर्थ-गौरव और भाव- सघनता की दृष्टि से अनिरुद्ध उमट की कविताएँ आज के समय की कविता के बीच एक अलग पहचान के साथ सामने आती हैं और अपनी भाषिक सर्जनात्मकता के चलते सबसे अलग खड़ी दिखती हैं । एक बात यह भी कहना चाहूँगा अज्ञेय की तरह अनिरुद्ध की कविताओं में भी ‘विसर्जन’ का स्वर मिलता है । इस सन्दर्भ में संग्रह की ‘वुजु’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं —

लो हो गया 
आज

मेरा ‘वुजु’ 

लिए अपना वजूद 
 अब मैं
कायनात में

कहाँ समाऊँ

गुम हुई सरगम 
 जहाँ


पुराने हारमोनियम से 

वहीं जा 
पसरूँ 

 या दूँ छाया

डूबते 

सूर्य को ।

समकालीन कवि और कविता पर विचार करते हुए डॉ.परमानन्द श्रीवास्तव ने एक जगह लिखा है कि “ कबीर ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, निराला ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, मुक्तिबोध ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की जरूरत प्रमाणित की, ( यहाँ तक कि ) धूमिल ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की अनिवार्यता सिद्ध की । ”ऐसी अनिवार्यता प्रायः उस कवि और उसकी कविता के साथ होता है जो प्रचलित धारा से अलग की सोच के साथ सामने आता है । क्या अज्ञेय की कविताओं को पुराने काव्यशास्त्र के धरातल पर कस कर हम उसके साथ न्याय कर सकते हैं ? जवाब होगा नहीं, हमें उसे समझने- समझाने के लिए अपनी जड़ीभूत काव्यरुचि में अनिवार्यतः परिवर्तन लाना ही होगा ।

अनिरुद्ध उमट की कविताएँ भी परंपरागत काव्यशास्त्र को चुनौती देती हैं और उन्हें जानने, समझने एवं परखने के लिए एक नए तरह के काव्यशास्त्र एवं काव्य-संवेदना की ज़रूरत प्रतिपादित करती हैं क्योंकि उनकी कविताओं का अपना यथार्थ है और उस यथार्थ को हम अपनी शर्तों पर पहचानने की कोशिश करेंगे तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आएगा लेकिन उन कविताओं की शर्तों पर यदि हम उन्हें देखने की कोशिश करते हैं तो निश्चित ही हम कविता के नए विवेक से अपना नाता जोड़ पाने में सफल होंगे । सच तो यह है की उर्दू के जाने-माने शायर शीन काफ़ निज़ाम कविता के लिए जिस ‘इशारे के आर्ट’ की बात करते हैं उस इशारे के आर्ट को हम अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं से गुज़रते हुए बखूबी देख सकते हैं । ऐसे इशारे के आर्ट के कवि अनिरुद्ध उमट को इस नए काव्य-संग्रह- ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ के लिए ढेर सारी बधाइयाँ इस आशा के साथ कि अभी तो उन्होंने ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरों’ पर उँगली रखी है आगे वे तस्वीरों में अंकित होने वाले चेहरों को भी जरूर आँकेंगे ।

प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, विनायक शिखर, पॉलिटेक्निक कॉलेज के पास, बीकानेर -334003
मूल्य - 140/- रुपए

डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

‘कवितायन’ 36 राजीव नगर 
कुड़ी हाउसिंग बोर्ड रोड 
जोधपुर ( राजस्थान ) 342005 
मोबाइल नं. : 09414131188 
ई. मेल : kaushalnathupadhyay@gmail.com 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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लौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ — अनिरुद्ध उमट


कविता संग्रह- ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’ लेखक- पारुल पुखराज प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर वर्ष- २०१५ मूल्य – १५० रुपये

लौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ

— अनिरुद्ध उमट

"कोई कवि यशः प्रार्थी कवि है या नहीं, इसे जाँचने की मेरे पास एक ही कसौटी है। यदि वह मुझ से कहता है कि मेरे पास कुछ महत्व की बातें है जिन्हें कहने के लिए मैं कविता करता हूँ, तो मुझे उसके कवित्व पर सन्देह हो जाता है। किन्तु यदि वह कहता है कि मैं तो शब्द का पीछा करता हूँ-- शब्द पर कान लगाकर उसकी बात सुनने की कोशिश करता हूँ, तो मुझे यकीन हो जाता है कि हाँ, यह आदमी जरूर कवि बन सकता है। "

-ऑडेन

अनिरुद्ध उमट

माजी सा की बाड़ी,
राजकीय मुद्रणालय के समीप,
बीकानेर ३३४००१
anirudhumat1964@gmail.com


       किसी भी कला में आग्रह का अतिरेक अक्सर उस की सहज प्रकृति को भंग कर देता है. यह प्रकृति उस कला माध्यम के साथ के हमारे रिश्ते हमारी संलग्नता को प्रकट करती है. सृजन के क्षणों में अपनी बात को व्यक्त करने की तीव्रता के दबाव के चलते यह भी संयम आवश्यक होता है कि हम खुद उस माध्यम की ग्रहणशीलता और स्वायत्तता के प्रति भी विवेकवान रहें, उसके प्रति आवश्यक रूप से हम में सहज उदारता रहनी चाहिए. यह संतुलन ही कला और कलाकार के आपसी सम्बन्ध को वांछित रूप ग्रहण कर पाने में सबसे आवश्यक होता है. किसी कलाकार के सृजन में यह संतुलन कितना सध पाता है यह उसकी कृति से रूबरू होने पर प्रकट हो जाता है. अपने माध्यम के प्रति यह निष्ठा, धैर्य ही उस कलाकार को वयस्कता प्रदान करता है. ऐसी कला किसी भी समय में हमेशा अपनी अर्जित भूमि पर फलती रहती है. उसे किसी भी समय के बाहरी दबाव तब अपनी तात्कालिकता से प्रभावित नहीं कर सकते.

       कोई भी कलाकार कला के इस आंतरिक, सहजावस्था के प्रस्फुटन के क्षणों में अपनी अनुभूति को कितना स्थगित रख पाता है, कितना किसी अव्यक्त को व्यक्त हो पाने का अवकाश अपनी कला में उपलब्ध करा पाता है, उसका यह बोध ही उसकी रचना में समग्रता से भिन्न-भिन्न रूपों में छवि पाता है. जितनी ही यह छवि नैसर्गिक होती है उतनी ही आत्मीय उसकी अनुभूति भी. जो ह्मारे संवेदन को उसकी गहराई में अपनी प्राकृतिक अवस्था में अंगीकार करती है.

       पारुल पुखराज के पहले कविता संग्रह ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’ को पढ़ते हुए उस अव्यक्त को भाषा में रूपायित होते हुए देखा जा सकता है. इसे पढ़ते हुए हमारे मन में मौन की लय और लय का मौन व्यापने लगता है. शब्द यहाँ वाहक भी है वहन भी. वे कभी खुद कुछ कहते हैं कभी कहने को सुनने में लीन हो जाते हैं.  

       भाषा को पारुल की कविताओं में अपनी तरह से व्यापने का अवकाश मिलता है जो इस मंशा का अपनी नैसर्गिकता में स्वीकार है कि कहने से अधिक कहने को सुनना है. दिखाने से अधिक दृश्य को खुद दृश्य होते रहने की आकांक्षा में घटित होने देना है.

       अपनी सृजनात्मकता में ये कविताएँ चीजों को उनकी स्थिति से उनके मूल से विछिन्न नहीं करती बल्कि जैसी वे हैं उसी में कुछ और हो जाने की संभावना की प्रतीक्षा करती है. वे इसमें अपनी ओर से जाहिर होता-सा कोई हस्तक्षेप नहीं करती बल्कि अपने हर तरह के जतन को वे संकोच में अप्रकट होते देने में अधिक सहज रहती है.

      यह उनकी काव्य प्रतिभा का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि उनके यहाँ बाहर को भीतर पर और भीतर को बाहर के अतिरेक में हावी नहीं होने दिया गया है. उनका स्वर अपनी रचना में पृथक से नहीं बल्कि उसके होने में ही खुद को घुला देता है. ऐसा करने के लिए निश्चय ही कवि में अपनी अनुभूति, संवेदना और माध्यम के प्रति गहरी निष्ठा का भाव आवश्यक होता है जो पारुल के काव्य कर्म में बेहद संजीदगी से निभाया जाता है.

       ‘प्रतीक्षा’ एक शब्द है जो इन कविताओं में अदृश्य रहते हुए कई-कई रंगों, रूपों, ध्वनियों में प्रकट होता है. हर क्षण की स्वायत्तता में वह अपनी हर बार पृथक ही छटा में, नियति, विडंबना, कामना, स्वप्न, मौन में प्रवेश करता है. उस क्षण के उस बसाव में वह नितांत अछूता, प्रथम प्रस्फुटन में खुद को होने देता है. जीवन के इस नितांत भीतरी अनुभव को उसके अपने ही अँधेरे में सीढ़ी दर सीढ़ी उतरने का आश्वासन इस कवि के यहाँ मिलता है. इसलिए वह अपनी आदिम नैसर्गिकता में उन्मुक्त हो शब्दों में व शब्दों के आसपास के मौन और राग में घुलने लगता है. जहाँ वह नहीं भी दिखता प्रतीत होता है वहां भी वह सांस थामे, अपलक मंद धडकनों के आवागमन में बैठा होता है. यह इस संग्रह की काया का मुख्य गान है, स्वर है- जो गहराती शाम में उठते धुंए सा आकाश में विलीन होने लगता है. कोई है जो अज्ञात है मगर उसका होना इस  भाषा के अदीखे किसी  स्थल में इस गान के विलम्बन में  किसी कनात सा तनता जाता है. इस गान के उठते-बहते प्रवाह में अजाने से स्थल पलके खोलने लगते हैं.

किसके हाथ उठाते हैं कौर  

कौन जीमता है 
थाल से 
अदृश्य 
रसोई में 


उमगती कंठ में 
हिचकी 
काँपता जल पात्र 
   
      वह अज्ञात है, अदृश्य है मगर वह है- प्रतीक्षा की देह लिए भिन्न-भिन्न रूपों, आवाजों में. प्रतीक्षा और अज्ञात एक जगह किसी एक क्षण में एक-दूजे में घुल जाते हैं और पृथक न रह एक देह में सांस लेने लगते हैं. यह देह में इस तरह एकल हो जीवन में उसका विचरना, रूप लेना, स्पर्श करना, सुनना, स्पन्दित होना, स्वप्न हो जाना, हिचकी में घुट जाना, बेसुध हो हर कुछ का अतिक्रमण कर जाना कला के ताल पर किसी बिसरे वृक्ष की छाया सा अपने सूने में भीगता-काँपता हमारे भीतर हमें पुकारता है. इस पुकार को खुद में महसूस करते हम देखते हैं कि उस एक क्षण में ही हम अपने स्व से कुछ संवाद कर पाए हैं. ऐसे संवाद को जो अक्सर पूरे जीवन में हमें अपने स्मरण में ही नहीं आता, न अपनी उपस्थिति में, न अपनी अनुपस्थिति में.


जाना है 
जहाँ
हो रही मेरी प्रतीक्षा 

लौटना है 
फिलवक्त जहाँ हूँ 


मुक्त होना
मुक्त करना है 



उस अज्ञात की सुध में 
वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं 

       ‘अवकाश’ और ‘मौन’ वे दो और शब्द हैं जो पारुल की कविताओं में बसने पर हमें अपने जगत में उतरने का अवसर देते हैं. एक-दूजे में अपनी सम्पूर्ण सत्ता में स्थिर रहते ये दो शब्द एक-दूजे में प्रविष्ट होते हैं और काव्य में उनका वह प्रकट रूप नितांत प्रथम घटित के अनुभव में हमारे भीतर उतरने लगता है. भीतर के उस समस्त जाने-पहचाने भूगोल पर उसकी छाया पसरने लगती है और इसी दरमियान उसकी आवाज वह नहीं रह जाती जो ऐन इस क्षण से पूर्व थी.

       विरह जो है वह विरह ही नहीं. कुछ और भी है. क्या है वह, इसे कविता किसी सरलीकृत सुविधा में नहीं देखती, न ही सुझाती है बल्कि उसकी समस्त भीतरी संश्लिष्टता में खुद गुंथती, उलझती है. कंटीली झाड़ी में किसी परछाई सी. पारुल के काव्य में जो है वह वह नहीं है वह कुछ और होने की संभावना में, असमंजस में, ठिठकता-झिझकता, संशय में लिथड़ा अपने से बाहर कभी-कभी झाँकने का उपक्रम करता है. और कभी इस उपक्रम के विपरीत अतल में यूँ धंसने लगता है कि जो नहीं है वह नहीं ही नही कुछ और भी हो सकता है, संभावनाओ की चट्टानों को दरकाता खुद को विस्फोट होने देता सा.

निषिद्ध 
हैं कुछ शब्द 
जीवन में 
जैसे कुछ 
जगहें 

अंधी कोई 
बावड़ी

जैसे 
सिसकी अधूरी 
सूना आकाश 

व्यक्त हो जिनमें तुम 

जहाँ होना लिखा है तुम्हारा 

       कवि आलोचक रमेशचन्द्र शाह के शब्दों में, ‘जीने का आस्वाद ही नहीं जीने का सबब ढूँढने की बेकली से प्रेरित पारुल की कविताओं के बारे में कहना कठिन है, कि यहाँ राग की खींच ज्यादा प्रबल है, या कि विराग की? राग और विराग दोनों के मेल-अनमेल से ही अपना रूपाकार रचती और पाती हैं ये कविताएँ.’ अपने उपलब्ध अति आग्रही यथार्थ और समय के मध्य स्थित कवि के भीतर कोई गहरी सांस्कृतिक समृद्धि की ठोस भूमि है जो उसे तुमुल कोलाहल या अतिरेक से बचाए मन की बात में अवस्थित रहने देती है. अपनी भाषा के वैविध्यपूर्ण अतीत और उसके गहरे संस्कार उसे विचलित होने से बचाए रखते हैं. किसी भी तरह की चकाचौंध से अविचलित यह काव्य अपनी जड़ों की गहराई और वहाँ से ग्रहण किए जाते जीवन रस से विकसित होता है. उसके यहाँ जीवन अपनी सघनता और सतत नैरन्तर्य में सूक्ष्मता से अनुभव की प्रगाढ़ता को ग्रहण करता है. उसके संशय, उसके आश्चर्य, उसकी स्तब्धता उसके काव्य की प्राण शक्ति है. यह हर दृश्य से तादात्म्य हो जाने की बजाय दृष्टा भाव में प्रतिष्ठित  होते जाना किसी योगी की चरम सिद्धि से पृथक नहीं.


प्रीत करेगा 

छुएगा नहीं
उदासी 

निःशब्द 
गुजर जाएगा 
एकांत से 

बिना फेंके 
अपनी आवाज का 
कंकर 

मौन में 
तुम्हारे 


खिलाता है परिचय 
अपने ही अपरिचित मन से 

मौन 

कहीं जोग है 
कहीं तप 

कहीं 
रास साधक का 

रचा कुछ भी जा सकता है 

आत्माओं के मौन में 

       अनुभव को उसकी शाब्दिक देह से बाहर ले आ उसे उसकी निरावरण दैहिकता में कुछ क्षणों के लिए अवाक होने देना और खुद ही की देह को स्पर्श कर पाने का निसंकोच धरातल दे पाना किसी भी रचनाकर्म की दीर्घ यात्रा के बाद का ही पड़ाव या विराम स्थल होता है. एक ऐसी यात्रा जिसमें आप यात्री नहीं खुद यात्रा होने में घटित होने लगें. वहाँ सब कुछ होता है, किन्तु सब कुछ न होने की भी नियति में खुद को विलीन होते स्वीकारता वह अपनी मंथरता में प्रगाढ़ प्रवाह की देह लिए किसी चरम बिंदु में अंततः समाहित हो जाता है.

       जीवन के हाहाकार में आवाज के बियाबान में पारुल की कविता में कोई दाना दाना पाप चुगता है.जहाँ ‘पुकार’ अपने होने बल खाती देखती है कि-

खोजना 
याद करना है 

याद करने पर 
याद करने की आवाज 
नही होती 

       एक ऐसी बंजर नींद इन कविताओं अपनी जाग में विकल है जिसमें कोई एक भी ऐसा स्वप्न नहीं जिस पर जीवन का दाँव खेला जा सके, जहाँ ‘दुःख/क्षण भर भी/ हरा रहता नहीं’. पारुल की कविताओं में शब्द आते हैं पर ऐन किसी क्षण अपने आने को स्थगित करते लगभग विस्मृत हो चुके स्थल की चुप्पी को अपने स्वर में उभरने का अवसर देते हैं. इन कविताओं में ‘कोरी रह गई दूब’ का अहसास अपने घने एकांत में हरा होने लगता है. उनकी कविता बुदबुदाती है कि, ‘ढांप पलकें / सदियों की जाग पर / हरा एकांत / मेरा / और हरे.’ जिसमें ‘खुलते संकोच के धागों में / आहिस्ता-आहिस्ता / आवाज की गिरह भी ढीली पड़ती है’. उनकी कविता के व्योम में ये पंक्तियाँ गूंजने लगती है-


नदी की धार पर विशाल बजरा 
तन उसका 
मध्य रात्रि
जिसके पाल खुल कर हवा में सरगोशी कर रहे थे 

उस 
बेला 

.......
.......
उस अज्ञात की सुध में 
वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं 

       अपने होने की विकलता और उसका अवगुंठन कला में किसी आजीवन प्रतीक्षित क्षण में अपना स्वर, रूप ग्रहण करने की तरलता महसूस करने लगता है. ‘उस बेला वह कुछ भी हो सकती थी’ सरीखी पंक्ति लिखने में, न लिखने में अपना आप खुद लिखती है. इन कविताओं में जहाँ, जिसका, ‘होना’ लिखा है की नियति को अपने निर्जन और अतल में विकसने का अवकाश उपलब्ध है. वे प्रार्थना करती हैं कि, ‘हे प्रभु / विचरने दो इच्छा के देवालय में / निर्भय उसे.’ कामना, स्वप्न, राग, स्मृति के छोर यहाँ एक बिंदु पर उस देह का भेद मिटाते एक दूजे में घुल जाते हैं.

पीठ पर लिए कब से चल रहा कोई 
अथक
किसी का स्वप्न

समापन बिंदु किए अदेखा निरंतर


गतिमान 

पृथ्वी के अंतिम छोर तक 
सुर साधे 
शिथिल पाँव 
निश्चित है उसकी अनूठी यात्रा 

पीठ पर जिसकी किसी अन्य के स्वप्न का भार 

       यह ‘पीठ’ किसी और की नही खुद कला ही वह रूप है. जो कलाकार के सुर साधने पर वांछित रूप में रूपायित हो जाती है. हिंदी कविता में ऐसा बहुत कम देखने में आता है जहाँ खुद कवि के पास कहने, जताने के अपने आग्रह के आधिक्य में यह स्मरण कहीं पीछे छूट जाता है कि खुद भाषा के समीप मौन बैठना भी स्वयं में एक पूर्ण अनुभव होता है. ऐसे ही अनुभव के क्षण हेतु कवि-आलोचक नन्दकिशोर आचार्य का कथन याद आता है कि. ‘कविता मूलतः संवेदनात्मक या अनुभूत्यात्मक अन्वेषण होती है...कविता की सार्थकता किसी विचार में घटा दिए जाने में नहीं, बल्कि अपने ग्रहीता को चेतना की उस भूमि पर लाने में है, जिसमें कोई भी अनुभूति स्वयं ही अपना अर्थ होती है.’

कविता संग्रह- ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’
लेखक- पारुल पुखराज
प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर
वर्ष- २०१५
मूल्य – १५० रुपये

       पारुल पुखराज का यह संग्रह अत्यंत वाचाल, राजनीतिक आग्रहों के घटाटोप में रचनात्मकता के प्रति स्वयं के होने को समर्पित होने में सार्थकता तलाशता एक संकोची कदम है. जोसेफ ब्रोड्स्की ने कभी कहा था कि ‘स्मृति विस्मृति की संगिनी है’. ये कविताएँ उस संगीनी के संग छाया-सी चलती हैं और किसी मध्य के सेतु को तलाशती है जिस पर से गुजरते उसे सदियों से जब्त रूदन का बे-आवाज फूटना दिखता है. अक्सर कला में कहने का आग्रह अपने निराग्रही रूप से अपरिचित रह जाता है. इन कविताओं का ‘कहना’ अगर कुछ ‘कहता-सा दिखता है’ तो पाठ के समय व उसके पश्चात के दीर्घ स्मरण में वह दिखना भी रचनाकार की विवशता जान पड़ता है, शब्दों और कवि के साथ ये अजीब नियति-यातना होती है कि वे कहने के लिए बने होते हैं पर अक्सर वे अपने इस होने का भार त्यागना चाहते हैं. पारुल की कविताओं में यह महसूस होता है कि जैसे कहना भी कोई विवशता है, यदि कवि के राग में ऐसा कोई ईश्वरीय क्षण संभव होता हो जहाँ इसे भी न कहा जा सके तो वे उतना भी न प्रकट करें.
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