क्या ही विडंबना है आज अंतत: दोनो जगह (भारत और पाकिस्तान) अंग्रेज़ी महारानी का ताज पहन कर सत्ता, रुतबे और महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन राजकाज चलाती है जबकि जनभाषा हिंदी और उर्दू की हैसियत दोयम दर्ज़े की बन चुकी है — मृणाल पाण्डे
हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी... नाम-भेद का झगड़ा — मृणाल पाण्डे
हिंदू मुसलमान विभेद की ही तरह इस उपमहाद्वीप के सबसे पुराने झगड़ों में एक झगड़ा हिंदी बनाम हिंदुस्तानी बनाम उर्दू का भी रहा है ।
जिस तरह कई हिंदीवालों को उर्दू से चिढ़ है, उसी तरह उर्दू के कई हिमायती मानते हैं कि उर्दू ही भारत की असल ज़ुबान है । राष्ट्रभाषा हिंदी का विचार तो चंद हिंदीवालों के दिमाग की उपज है जिसको उन्होने उर्दू का बायकाट कराने को गढ़ा और फिर आज़ादी के बाद लगातार खाद पानी देकर पनपाया है ।
दरअसल बात के मौजूदा ऐतिहासिक प्रमाणों पर निष्पक्ष हो कर विचार किया जाये, तो दोनों ही पक्ष गलत साबित होते हैं ।
सदियों पहले जब न आज की जैसी खड़ी बोली मौजूद थी और न ही आज की वाली उर्दू, ‘हिंदी’ शब्द विदेशियों द्वारा भारत की भाषा और भारत के लोगों की बाबत गढ़ा गया था ― मृणाल पाण्डे
लिहाज़ा हिंदी लफ्ज़ उर्दू के मानक भाषा बनने से पहले, तब का माना जाना चाहिये जिस वक्त हिंदू खुद अपनी ज़ुबान के लिये भाषा (या भाखा) शब्द का ही प्रयोग करते थे (‘भाषा भनति थोर मति मोरी’) ।
यही नहीं, उर्दू हिंदी के सबसे पुराने कोश (अमीर खुसरो रचित) ‘खालिकबारी’ में भी भारत की आम बोलचाल की भाषा को सब जगह ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ ही बताया गया है । खुसरो और उनके समवर्ती मुसलमान विद्वान् भी इसे सिर्फ हिंदुओं से जोड़ कर नहीं देखते थे । खुसरो ने खुद हिंदवी में जनभाषा के मुहावरे और संगीत को समेटते हुए मनोहर कविताई की, जो उनकी फारसी शायरी से कहीं अधिक लोकप्रिय साबित हुई । उनके फारसी तथा हिंदवी के मिलेजुले कवित्त कव्वाल और लोकगायक आज भी गाते हैं ।
खुसरो की ही तरह मशहूर शायर ‘सौदा’ के गुरु शाह हातिम ने भी 1750 में भारत की भाषा के बारे में हिंदवी या हिंदी शब्द ही इस्तेमाल किया है । ‘हिंदुस्तान के तमाम सूबों की ज़बान है हिंदवी, जिसे भाखा कहते हैं...इसे आम लोग बखूबी समझते हैं और बड़े तबके के लोग भी पसंद करते हैं ।’
यही नहीं, मद्रास प्रेसीडेंसी के एलोर निवासी बाकर आगा साहिब ने तो अपने उर्दू दीवान का नाम दीवान-ए-हिंदी रखा था और वे लिखते हैं:
’उर्दू, हिंदी और दखनी एक ही ज़ुबान के मुख्तलिफ नाम थे...इस ज़ुबान की शायरी रेख्ता कहलाती थी ।’
दरअसल जिसे आज उर्दू कहा जाता है वह 18वीं सदी की वह भाषा है जो सर सैयद अहमद खान के अनुसार दिल्ली के लालकिले इलाके के एक खास और संभ्रांत मुहल्ले, उर्दू बाज़ार (तुर्की में उर्दू का मतलब छावनी होता है ), में रहनेवालों की बोली (उर्दू-ए-मुअल्ला) थी । यह फारसी तथा भाषा के मिलने से बनी और हिंदुओं मुसलमानों के बीच आपसी बातचीत, लेन देन, बहस, बतकही और राजकीय फारसी को जनता तक लेजाने का एक मज़बूत पुल बन कर फलती फूलती रही ।
लंबे समय तक खुद उर्दूवालों में भी इसे लेकर बहस रही कि भद्र उर्दू के अधिकृत मानक दिल्ली के ही माने जायें या अवध तथा अन्य इलाकों की उर्दू को भी मानक का दर्ज़ा दिया जा सकता है ।
‘वज़ै इस्तेहालात’ में परिभाषाकार जनाब अब्दुल हक साहब लिखते हैं कि
हिंदी तो उर्दू की आधार भूमि (बमंज़िल-ए-ज़मीन) है । अगर यह ज़मीन निकाल दी जाये तो फिर उर्दू का नामोनिशान भी न रहेगा ।
अब आते हैं हिंदुस्तानी शब्द पर ।
यह लफ्ज़ भी विदेशी पुर्तगालियों की ईजाद है । वे इंडिया की भाषा को ‘इंडोस्तानी’ कहते थे जो कालांतर में घिस कर हिंदोस्तानी या हिंदुस्तानी बना ।
इस शब्द को सरकारी मान्यता तब मिली जब 1803 में आगरे के फोर्टविलियम में ‘भाखा मुंशियों’ की मदद से ईस्ट इंडिया कंपनी के योरोपियन कर्मचारियों को देसी ज़ुबान सिखाने की व्यवस्था की जाने लगी ।
फोर्टविलियम ने जहाँ हिंदी और उर्दू के व्याकरण तथा मानक रूप बनाये वहीं, उनको जाने अनजाने मज़हबी आधारों से जोड़ कर अलग-थलग शक्ल दे दी ।
किसी भी देश की भाषा उसे एकसूत्रता में बाँधती है, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदू बनाम मुस्लिम विभेद के जो बीज ‘बाँटो और राज करो’ की बरतानवी नीति की तहत भाषा के इलाके में बोये गये, वे धर्माधारित बँटवारे तक लगातार ज़हरीले अलगाववाद को पोसते रहे ।
प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वान् गरसां द तासी ने 1854 में अपने भाषण में इस संभावना का ज़िक्र भी किया है: ’हिंदुस्तान की ज़ुबान,...हिंदी और उर्दू, दो बोलियों में तकसीम है, जिसकी नींव मज़हब पर है ।’
Garcin de Tassy
"This division of the Indian language, termed Hindustani to be specific, that is, the language of Hindustan, into the Hindi and Urdu dialects, is blessed by religion, because, generally speaking, Hindi is the language of Hindus and Urdu that of Muslims."
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GARCIN DE TASSY : THE AUTHORS OF HINDUSTANI AND THEIR WORKS]
राजा शिवप्रसाद ‘सितारा-ए-हिंद’ |
‘नादान पंडितों मौलवियों की यह बड़ी भूल है...अति कठोर संस्कृत के शब्दों को, जो हज़ारों बरस तक होठ और जीभ से टकराते हुए गोलमटोल पहाड़ी नदी की बटिया बन गये हैं, पंडित जी फिर…नुकीले पत्थर के ढोंके बनाना चाहते हैं…और मौलवी साहिब अपने ऐन काफ काम में यूं लाना चाहते हैं कि लड़के बेचारे बलबलाते ऊंट ही बन जाते हैं ।’
हिंदी और उसकी जुड़वां बहन सरीखी जिन दो पाटदार जनभाषासरिताओं ने बरसों तक तमाम देशी विदेशी भाषाओं और बोलियों की अनगिनत छोटी नदियों, नालों को खुद में समाहित कर अपने निराले जनप्रिय आकार, ताज़गी और प्रवाह बनाये, अफसोस कि पिछले सात दशकों में भारत और सरहद के पार कट्टरपंथिता के हिमायतियों ने संकीर्ण राजनीति साधने को जबरन चुन-चुन कर उर्दू और हिंदी से एक दूसरी के लफ्ज़ तथा ब्रज, मगही, अवधी सरीखी क्षेत्रीय बोलियों के सदियों से इस्तेमाल हो रहे लफ्ज़ों को बाहर कर दिया ।
भारत में हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ और पंडिताऊ बना दिया गया और पाकिस्तान में उर्दू में बोलियों तथा हिंदी मुहावरों की जगह दुरूह अरबी और फारसी ठूँस कर उसकी शक्ल बदल दी गई । पर भाषा का राजनैतिक इस्तेमाल अंत में जाकर एक दुधारी तलवार बन गया ।
पाकिस्तान में विपक्ष ने उर्दू को मुस्लिम अस्मिता का इकलौता प्रतीक और राष्ट्रभाषा बनाना शेष देश पर थोपने का काम कहा । और विरोध में पंजाबी सिंधी और पश्तोभाषी सूबों ने उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने की रोड़े अटका दिये । और भारत में अहिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी नामपट्टों पर तारकोल मल कर सड़कों पर धरने प्रदर्शन कर रोष जताया जाने लगा ।
क्या ही विडंबना है आज अंतत: दोनो जगह अंग्रेज़ी महारानी का ताज पहन कर सत्ता, रुतबे और महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन राजकाज चलाती है जबकि जनभाषा हिंदी और उर्दू की हैसियत दोयम दर्ज़े की बन चुकी है ।
दोनो देशों में जनभाषा और राजकीय सत्ता, कोर्ट कचहरी और तकनीकी शिक्षा की भाषा के बीच निपट संवादहीनता है और भाषाई परिष्कार के नाम पर बस आत्मीयता से शून्य सरकारी कवायद होती रहती है ।
भारत में आज धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करते हुए हिंदी उर्दू के इस भाषाई मिलाप-तनाव, खिंचाव-दुराव और राजनैतिक अलगाववाद से भरे इतिहास को याद करना भी ज़रूरी है । इससे सबक लिये बिना हम हिंदी उर्दू का असल मिजाज़ ही नहीं, राजनीति तथा रोज़गार, गाँव और शहर हिंदू और मुसलमान के रिश्तों की शक्ल सही तरह नहीं समझ सकेंगे ।
इस सारी जिरह में दोनों भाषाओं के लेखकों का योगदान सबसे बड़ा होना चाहिये क्योंकि वे जिस समाज में जीते हैं, उसका सत्तारूढ़ दलों द्वारा लगातार धर्म की लाठी से हांक कर किया जाने वाला शुद्धीकरण उसे रक्तहीन और जड़ बनाकर सहज लोकतांत्रिक और मानवीय संवाद की संभावना को ही खत्म कर सकता है ।
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