दी और दा हिंदी में एक ऐसा ‘लिटररी स्फीयर’ बनाते हैं कि उसकी फॉर्म कुछ होती है, और कंटेंट कुछ और होता है 😂
— सुधीश पचौरी
दी और दा वे कूट पद हैं, जिनको हिंदी में जमकर कूटा गया है। ये इसलिए बने हैं कि लोग इनकी फुल फॉर्म से डरते हैं। फुल फॉर्म बोलते ही अर्थ का अनर्थ हो उठता है। इसीलिए इनकी फुल फॉर्म हिंदी में वर्जित मानी गई है।
दीदी को दी बनाने का और दादा को दा बनाने का आइडिया शरतचंद्र से ही आया हो सकता है। हो सकता है कि उनको उनके साहित्यिक पुरखों ने दिया हो कि फुल फॉर्म में बोलते ये शब्द घरेलू मोहल्ला टाइप और पारिवारिक हो जाते हैं। दी और दा बोलने से साहित्यिक हो जाते हैं, फैमिली टाइप नहीं रहते।
दी और दा के बीच जो न्यूट्रल जोन बनता है, उसमें सब कुछ ‘पोस्ट ट्रुथ तरह आता है। दी और दा के बीच नेति-नेति का भाव रहता है। वह जितना अनकहा रहता है, उतना ही कहा हुआ भी माना जाता है।
हमारा इर्ष्यालू समाज है ही ऐसा कि किसी भी दी को किसी भी दा के साथ बैठे देखकर तुरंत उत्तेजित हो जाता है। हर दी और हर दा को फिल्मी ‘प्राण’ व ‘ललिता पवार’ के नजरिये से देखा जाने लगता है।
दी और दा हिंदी में एक ऐसा ‘लिटररी स्फीयर’ बनाते हैं कि उसकी फॉर्म कुछ होती है, और कंटेंट कुछ और होता है।
कोई दी दादा को दा बोलती, तो आधुनिका हो जाती। दादा दीदी को दी बोलता, तो लगता अब नई कविता सुनाने जा रहा है।
दी और दा ऐसे साहित्यिक शब्द रहे, जो मुख-सुख के कारण पैदा नहीं हुए, बल्कि भद्र जनोचित दबाव के कारण पैदा हुए। दी कहते ही सान्निध्य-सुख की गांरटी हो जाती है।
पुलिस वाले भी इन शब्दों के गूढ़ार्थ जानकर डंडे को साइकिल में बांधकर पलट जाते हैं, सब कुछ ‘लॉ ऑर्डर’ में मानकर सीन से हट लेते हैं। कोई उत्पाती उत्पात नहीं करता। दी का वो जादू है कि अगर कोई दी किसी मुस्टंडे को दा कह दे, तो वह उसका ‘बॉडीगार्ड’ बनकर खड़ा हो जाता है।
ठीक यहीं पर बिहारी का दोहा सामने खुलता नजर आता है- ‘कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात/ भरी पार्क में करत हैं नैनन ही सों बात।’
इसके कई संस्करण बनाए जा सकते हैं। हिंदी में घुसने के लिए दी और दा को बड़ा संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि गेट पर रामविलास जी अपना सोंटा लिए खड़े रहते थे। शरद की नकल पर यशपाल जी ने जब अपने एक उपन्यास में दी और दा का डायलॉग कराने की कोशिश की, तो हिंदी के रामविलास जी ने वो सोंटे उड़ाए कि दी और दा डायलॉग करना ही भूल गए 😂 । ‘एंटी रोमियो स्क्वॉयड’ हिंदी साहित्य में पहले बनी थी, यूपी में तो अब बनी है।
धीरे-धीरे, जिसे ‘युग’ कहा जाता है, वह बदला और इन दिनों तो इतना बदल गया है और जिस वक्त यह लेखक लिख रहा है, उसी वक्त बदले जा रहा है कि अब जो कोई दी और दा लगाता है, पांचवें दशक का माल माना जाता है।
जब से मोबाइल क्रांति हुई है, तब से सारे दी और सारे दा ‘भरी क्लास में करत हैं मैसेजन ही सों बात’। इन दिनों दा तो ब्रो हो गया है, लेकिन दी का क्या बना? ‘सिस’ बना कि ‘मिस’ बना? इसकी खबर हिंदी साहित्य नहीं दे पा रहा। अगर आपको खबर लगे, तो बताना।
— सुधीश पचौरी
😂 दीदी को दी बनाने का और दादा को दा...बोलने से साहित्यिक हो जाते हैं, फैमिली टाइप नहीं रहते।दी की फुल फॉर्म है दीदी और दा की दादा। आप बोलकर देख लीजिए। आपको राखी बंधवाने की नौबत न आ जाए और आप राखी बंधवा ले मेरे बीर बंधवा ले रे भैया की कैटेगरी में न धर लिए जाएं, तो कहिएगा।
दीदी को दी बनाने का और दादा को दा बनाने का आइडिया शरतचंद्र से ही आया हो सकता है। हो सकता है कि उनको उनके साहित्यिक पुरखों ने दिया हो कि फुल फॉर्म में बोलते ये शब्द घरेलू मोहल्ला टाइप और पारिवारिक हो जाते हैं। दी और दा बोलने से साहित्यिक हो जाते हैं, फैमिली टाइप नहीं रहते।
😂 दी का वो जादू है कि अगर कोई दी किसी मुस्टंडे को दा कह दे, तो वह उसका ‘बॉडीगार्ड’ बनकर खड़ा हो जाता है।
दी और दा के बीच जो न्यूट्रल जोन बनता है, उसमें सब कुछ ‘पोस्ट ट्रुथ तरह आता है। दी और दा के बीच नेति-नेति का भाव रहता है। वह जितना अनकहा रहता है, उतना ही कहा हुआ भी माना जाता है।
हमारा इर्ष्यालू समाज है ही ऐसा कि किसी भी दी को किसी भी दा के साथ बैठे देखकर तुरंत उत्तेजित हो जाता है। हर दी और हर दा को फिल्मी ‘प्राण’ व ‘ललिता पवार’ के नजरिये से देखा जाने लगता है।
दी और दा हिंदी में एक ऐसा ‘लिटररी स्फीयर’ बनाते हैं कि उसकी फॉर्म कुछ होती है, और कंटेंट कुछ और होता है।
😂 ‘एंटी रोमियो स्क्वॉयड’ हिंदी साहित्य में पहले बनी थी, यूपी में तो अब बनी है।
कोई दी दादा को दा बोलती, तो आधुनिका हो जाती। दादा दीदी को दी बोलता, तो लगता अब नई कविता सुनाने जा रहा है।
दी और दा ऐसे साहित्यिक शब्द रहे, जो मुख-सुख के कारण पैदा नहीं हुए, बल्कि भद्र जनोचित दबाव के कारण पैदा हुए। दी कहते ही सान्निध्य-सुख की गांरटी हो जाती है।
पुलिस वाले भी इन शब्दों के गूढ़ार्थ जानकर डंडे को साइकिल में बांधकर पलट जाते हैं, सब कुछ ‘लॉ ऑर्डर’ में मानकर सीन से हट लेते हैं। कोई उत्पाती उत्पात नहीं करता। दी का वो जादू है कि अगर कोई दी किसी मुस्टंडे को दा कह दे, तो वह उसका ‘बॉडीगार्ड’ बनकर खड़ा हो जाता है।
ठीक यहीं पर बिहारी का दोहा सामने खुलता नजर आता है- ‘कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात/ भरी पार्क में करत हैं नैनन ही सों बात।’
इसके कई संस्करण बनाए जा सकते हैं। हिंदी में घुसने के लिए दी और दा को बड़ा संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि गेट पर रामविलास जी अपना सोंटा लिए खड़े रहते थे। शरद की नकल पर यशपाल जी ने जब अपने एक उपन्यास में दी और दा का डायलॉग कराने की कोशिश की, तो हिंदी के रामविलास जी ने वो सोंटे उड़ाए कि दी और दा डायलॉग करना ही भूल गए 😂 । ‘एंटी रोमियो स्क्वॉयड’ हिंदी साहित्य में पहले बनी थी, यूपी में तो अब बनी है।
धीरे-धीरे, जिसे ‘युग’ कहा जाता है, वह बदला और इन दिनों तो इतना बदल गया है और जिस वक्त यह लेखक लिख रहा है, उसी वक्त बदले जा रहा है कि अब जो कोई दी और दा लगाता है, पांचवें दशक का माल माना जाता है।
जब से मोबाइल क्रांति हुई है, तब से सारे दी और सारे दा ‘भरी क्लास में करत हैं मैसेजन ही सों बात’। इन दिनों दा तो ब्रो हो गया है, लेकिन दी का क्या बना? ‘सिस’ बना कि ‘मिस’ बना? इसकी खबर हिंदी साहित्य नहीं दे पा रहा। अगर आपको खबर लगे, तो बताना।
— सुधीश पचौरी
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