किसके मन की बात ? — भरत तिवारी


किसके मन की बात ? — भरत तिवारी

देश का दुख कौन हरेगा?

- भरत तिवारी

जो जेहन को मथ रहा था उसे लिख दिया है, देखिये... 



मोदीजी पिछले 3 साल से, जिस तरह कभी न खत्म होने वाले, एक के बाद एक, विदेशी दौरों पर हैं, मुझे अपने इलाहाबाद वाले मौसाजी याद आ गए, जब हम छोटे थे और गर्मियों की छुट्टी में वहां जाते थे तो अक्सर मौसाजी नहीं मिलते थे, वो ऑडिटर थे और ज्यादातर दौरे पर रहते थे। ऑडिटर का तो यही काम होगा...मगर हमारे प्रधानमंत्री कौन सी ऑडिट पर निकले रहते हैं, समझना अब ‘सच में’ बहुत मुश्किल हो गया है।

अमरीका का उनका यह दौरा, इसके फायदे जिसको समझ आए होंगे, उम्मीद है, वह लिखेगा...तो हम भी पढ़ेंगे। मगर अभी तक जितना भी देखने में आया है, एक कॉमेडी मूवी की तरह ही है। ऐसा सिर्फ मुझे लग रहा होता तो मैं अपनी-समझ दुरुस्त कर सकता हूँ; लेकिन सोशल मीडिया को देखा जाए तो चुटकुलों की भरमार है। गंभीर बात है भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमंत्री अमेरिका जाए और हाथ आए सिर्फ चुटकुले? दुखद है।

ट्रम्प और मोदी की प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय जो झप्पी डाली गयी उसमें कितना जादू था यह तो वक्त बताएगा, लेकिन ब्रिटिश अखबार टेलीग्राफ ने अपनी वेबसाइट पर 52 सेकेंड का जो — ट्रम्प एंड मोदी : अ टेंगो — शीर्षक वाल वीडियो डाला है उसमें — एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मीडिया में — अपने प्रधानमंत्री को इस तरह से देखना, किसी भी भारतीय के लिए, वह चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद करता हो या नहीं, बड़े दुख की बात होगी।


जब भारत की नीतियां, विदेश नीति, ट्रम्प के आने के बाद की अमेरिका की नीतियों से कतई मेल नहीं खाती, जब ट्रम्प की नीतियों का विरोध अमेरिका में ही हो रहा हो, प्रवासियों को लेकर उनकी जो सोच है उससे सारा विश्व चिंतित है, भारत खासकर चिंतित है, पेरिस में उन्होंने जो किया और जो हिंदुस्तान ने किया, वह भी कहीं मेल नहीं खाता...ऐसे में यह गले मिलना, हाथ पकड़कर खींचना आदि आदि क्यों? प्रधानमंत्री के  अमेरिकी दौरे के ठीक पहले अमेरिकी पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने अपने कवर पर मोदीजी की, हाथ से बनी, जो तस्वीर लगाई है —  उसे देखकर हमें कोई अंदेशा नहीं रहना चाहिए कि इस समय में, पश्चिमी देशों में भारत व प्रधानमंत्री मोदी की कैसी छवि है। चित्र में दीवार पर एक चित्र की कतरन चिपकी दिखती है —  कतरन, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री को एक शेर पर बैठा दिखाया गया है — और वह कतरन —  कागज़ का शेर — जगह-जगह से फट और उधड रही है। अब इसके बाद, यहाँ, मेरा कुछ और कहना उचित न होगा।

The economy under Modi
India’s prime minister is not as much of a reformer as he seems
   But he is more of a nationalist firebrand
© The Economist Group Limited, London 1969


यह सब... तब और दुखद हो जाता है, जब हमें यह याद आता है कि मोदीजी, ईद के मौके पर जुनैद की हत्या पर, चुप रहे हैं। जुनैद के पिता ने किसी रिपोर्टर से कहा कि वह ‘मन की बात’ सुन रहा था, उसे उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री उनके किशोर बेटे की हत्या पर कुछ ना कुछ कहेंगे... जब खुद का देश अपने प्रधानमंत्री से अपने दुख पर कोई प्रतिक्रिया नहीं पाता, जब वह अपने देश की मीडिया को पूरी तरह नाकाबिल और मिलने लायक — साथ ले जाना तो दूर की बात है —  नहीं समझते, जब वे अपना घर, त्यौहार के अवसर पर छोड़कर विदेश जा सकते हैं, अपने घर में हुई हत्याओं को अनदेखा कर सकते हैं, तब देश का दुख कौन हरेगा? अमरीका? ट्रम्प? या हंसी-ठट्ठा?

घर के मुखिया का क्या कर्तव्य होता है और उसका घर के सदस्यों के आपसी प्रेम को बढ़ाने में क्या योगदान होता है, हम जानते हैं, मगर प्रधानमंत्री मोदी क्यों लगातार इस बात को समझाए जाने पर भी नहीं समझ रहे? यह समझ से परे है।

मोदीजी ट्रम्पजी उनकी पत्नीजी और बाकी सारे बाल-बच्चों को भारत आने का न्योता तो दे आए हैं, हम सब कामना भी करेंगे कि वह इस न्योते को स्वीकारें और भारत आयें। लेकिन इसका क्या कि जब वो विदेश दौरे पर थे और भारत के राष्ट्रपति, देश के सांसदों-आदि को भोज का न्योता देते हैं (मुझे नहीं पता कि किस-किस को निमंत्रण जाता है) और उस भोज में, उनकी ही  पार्टी  ‘भारतीय जनता पार्टी’ यानी ‘भारत की जनता की पार्टी’  के सांसद-आदि पहुंचना उचित नहीं समझते। आगामी राष्ट्रपति को क्या सन्देश गया होगा, क्या पता। जब हम अपने ही देश के राष्ट्रपति के निमंत्रण को नकार रहे हैं; जब हम अपने ही देशवासियों को गले नहीं लगा रहे हैं; जब विदेशी मीडिया प्रधानमंत्री को कागजी-शेर दिखा रहा है; तब शायद घर के मुखिया को घर के सदस्यों से मिलना उसके सुख-दुख को बांटना और उसके मन की बात सुननी चाहिए।

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