सुरों की ईश्वरीय-माया का दर्शन
....डॉ एल. सुब्रह्मण्यम के वायलिन वादन को सुनना
इस रविवार के 'प्रभात ख़बर' के अपने कॉलम को यहाँ शब्दांकन पर आपसब के लिए प्रकाशित कर रहा हूँ. — भरत तिवारी
वायलिन को, कारनाटिक संगीत का हिस्सा, उसकी 'त्रिमूर्ति' के एक अंग मुथुस्वामी दीक्षितार (1775-1835) ने, ईस्ट इन्डिया कंपनी की छावनियों (कैंटोनमेंट) से सुनायी पड़ने वाले पश्चिमी संगीत से आकर्षित हो कर बनाया। उन्होंने अपने भाई बालुस्वामी को वायलिन सिखने के लिए न सिर्फ कैंटोनमेंट में भेजा बल्कि साथ में पश्चिमी क्लासिकल रागों पर आधारित कारनाटिक गीतों की रचना — ‘नोट्टूस्वरा’ यानी नोट्स पर आधारित स्वर — भी की और बालुस्वामी के साथ भेजीं, जिन्होंने बाद में उन्हें भारत के, उस समय के, यूरोपीय ऑर्केस्ट्रा में बजाया भी। संगीत के साथ जैसा होता है, वायलिन का भी भारतीयकरण हुआ, और उसने ख़रामा ख़रामा, गायन सुरों को निकाल सकने की काबिलियत और रखने-उठाने की आसानी के चलते, कारनाटिक संगीत में वीणा की जगह लेना शुरू कर दिया। इस बीच वायलिन ने यहाँ अपने यूरोप में अकेले बजाये जाने की कला को खो दिया और वह कारनाटिक संगीत का एक सह वाद्य बन गया। प्रो० वी. लक्ष्मीनारायण अय्यर इस ‘खोने’ का नुकसान समझने वाले पहले संगीतशास्त्री थे, दूसरे शब्दों में, उन्हें यह नहीं पसंद था: जब आपको संगत के लिए बुलाया जाये और यदि आपके संगीत को, जिसने बुलाया उसके संगीत से, अधिक पसंद किया जाए, तो ऐसे में यह तय होना कि अगली दफ़ा वह आपको ‘नहीं’ बुलाये। और इस तरह वह अपनी ज़बरदस्त लगन से वायलिन की कारनाटिक-सहवाद्य से दूसरी धारा निकालते हैं, जहाँ उसकी पश्चिमी शैली का कारनाटिक रागों के साथ संगम होता है। श्रीलंका के जाफना में बसे जिस अय्यर सांगीतिक परिवार में यह सारी मशक्कत चल रही है, उसका छोटा पुत्र, लक्ष्मीनारायण सुब्रह्मण्यम अपने पिता को अपने बड़े भाइयों और अन्य शिष्यों को शिक्षा देते देख-सुन रहा है, और जल्द ही उसका सीखना शुरू होता है...छः वर्ष का होते-होते उसका पहला कार्यक्रम भी हो जाता है। उसकी माँ सीतालक्ष्मी घर पर रोज़ शाम को गायन, जिसमें वह पारंगत हैं, करती हैं और साथ वायलिन पर पिता होते हैं, जो नियम से लक्ष्मीनारायण को उसके दोपहर का खाना खाने के बाद रियाज़ करा रहे होते हैं। 1958 में हुए दंगों से बच कर अय्यर परिवार चेन्नई आ बसता है, और संगीतकार बेटा अपनी पारंगतता के बावजूद, माँ की इच्छा के मुताबिक़ मेडिकल की डिग्री हासिल करता है और डॉ एल. सुब्रह्मण्यम बनता है।
डॉ एल. सुब्रह्मण्यम ने बीते दिनों स्पिक मैके ‘विरासत श्रृंखला 2018’ कार्यक्रम के तहत आईआईटी, दिल्ली में वायलिन वादन किया। दरअसल, उनके वायलिन वादन को सुनना, संगीत प्रेमियों के लिए, एक अलौकिक अनुभव है। यह अनुभव अद्वितीय भी होता है, क्योंकि वायलिन की पश्चिमी शैली को, जिसमें वादक उसके तारों पर, घोड़े के बालों की प्रत्यंचा चढ़ी धनु से, अलौकिक स्वर — बिथोवन की सिम्फनी याद कीजिये — पैदा करता है, हिन्दुस्तानी संगीत के कारनाटिक सुर मिल रहे होते हैं। डॉ एल. सुब्रह्मण्यम वायलिन को जिन गतियों और तरीकों बजा रहे होते हैं, श्रोता को सुरों की ईश्वरीय-माया का दर्शन तो मिल ही रहा होता है, साथ-ही यह भी महसूस हो रहा होता है कि वायलिन वादन पर उनका हद से बेहद नियंत्रण है, कुछ उस तरीके का जिसमें श्रोता को ही डर लगने लगे कि कहीं गलती न हो जाए, जैसे कोई नटनी हवा में रस्सी पर दौड़ रही हो और हम साँस थामे देख रहे हों और आँखें डर से मुंदी जाएँ।
उस शाम कारनाटिक संगीत की उस प्रथा, जिसमें कार्यक्रम के बीच, मुख्य संगीतकार के बजाये सह-वादक, एक-एक कर अपने सुरों को — जो कई दफ़ा मुख्य संगीतकार की रागों से अलग होते है — छेड़ते हैं, ने दुःखी किया, क्योंकि वहाँ उस हाल में श्रोता डॉ एल. सुब्रह्मण्यम को सुनने आये हैं और, कम से कम मुझे तो, उस शाम के हर-पल में उन्हीं का संगीत चाहिए है, और अगर उसके एक बड़े हिस्से में उनके संगीत के बजाय संगतियों का संगीत है, तो दुःख होना लाजमी है, इसका एक बड़ा कारण हिन्दुस्तानी संगीत में इस प्रथा का नहीं पाया जाना होना भी है...कल्पना कीजिये अगर आपके प्रिय संगीतकार, मसलन पंडित जसराज, अपने गायन को बीच में रोक दें और तक़रीबन आधे घंटे, एक-एक करके, संगत का हर वाद्य, आपको सुनना पड़े, कैसा लगेगा...
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