प्रियदर्शन की हंस में प्रकाशित #कहानी 'प्रतीक्षा का फल'


फिर उसी अनजान नंबर से संदेश है- 'आपको मेरा नाम कैसे मालूम? आप कवि हैं या ज्योतिषी? कैसे पता चला कि मेरा नाम .... 

प्रियदर्शन की कथाशैली हमेशा से अच्छी रही है, रोचकता बनाये रखना वह भलीभाँति जानते हैं. किसी सच को गल्प में ऐसा कस के बुन देना कि वह सच लगते हुए भी गल्प लगता रहे, मेरे लिए कहानी के बढ़िया होने का एक पैमाना है, और 'प्रतीक्षा का फल' में तो कहानीकार ने यह काम सस्पेंस के साथ मिलाकर किया है...मार्च की हंस में प्रकाशित यह कहानी, आपको कैसी लगेगी यह तो आप ही बताइयेगा...

भरत तिवारी


प्रतीक्षा का फल

प्रियदर्शन

कवि की देह में एक अजब सी सनसनाहट दौड़ पड़ी थी। यह सुकन्या कौन है जिसने इतनी बेबाकी से उनसे प्रणय निवेदन किया है? इसे ही कहते हैं रचना का सार्थक होना। वे रोमांचित थे। 16 साल की उम्र से कविता लिख रहे हैं- 40 साल हो गए लिखते हुए। कविता के लिए उपहास झेला, उपेक्षा झेली, किंचित असफलता भी झेली, जीवन में न जाने कितने कष्ट झेले- शायद इसी क्षण के लिए। उनकी आंखों की कोर भींग सी गई।

उन्होंने फिर अपना मोबाइल निकाला और देखने लगे वह थरथराता हुआ एसएमएस- 'आपकी कविताओं से स्पर्श हुआ, आपके स्पर्श की प्रतीक्षा है।' कौन है यह बाला? इस युग में ऐसी सुसंस्कृत भाषा की अधिकारिणी? एक भी शब्द अशुद्ध नहीं, एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं। उनके भीतर फिर एक पुलक सी जागी। वे बार-बार वह संदेश पढ़े जा रहे थे। शब्द कैसे सजीव हो उठते हैं, यह अनुभव बहुत ही विरल है जो उन्हें अब हो रहा है।

उन्हें स्मरण आया- उत्तर तो देना होगा- ऐसा उत्तर जो अपनी गरिमा के अनुकूल भी हो और उसके आग्रह की रक्षा भी कर ले, ऐसा उत्तर जो उसके आमंत्रण की उपेक्षा भी न करे और अपने अंतर की आतुरता का परिचय भी न दे, ऐसा उत्तर जो संक्षिप्त हो, सारगर्भित हो, लेकिन ऐसा ठंडा नहीं कि वह पांव पीछे खींच ले। उन्हें यह भी याद आया कि कभी ऐसी आतुरता उनके अपमान की भी वजह बन चुकी है। तब स्नातकोत्तर हिंदी की एक शोध छात्रा ने उनकी कविता की प्रशंसा की थी और वे आह्लालित होकर उसी पर कविता लिख बैठे थे। उसके बाद उनका जो उपहास हुआ, वे उसे भूल नहीं पाए। हालांकि वे यह भी अनुभव करते हैं कि उस उपहास ने उनकी काव्य-चेतना को कुछ गहराई ही दी, दुख ने उन्हें इस तरह मांजा जैसे किसी और को मांजा न था। इन पंक्तियों के रचयिता कवि अज्ञेय को भी नहीं।

उफ! एक संदेश ने उन्हें स्मृतियों के किस भावसागर में उतार दिया है। एक वाक्य तक नहीं सोच पा रहे। सच्चा साहित्य शायद यही होता है- जब भावना ही शब्द का अनुसंधान करने लगे। उन्होंने फिर अपना मोबाइल ऑन किया। ये नई मशीनें उन्हें रुचतीं नहीं। वे पृष्ठों पर कलमों से लिखने वाले साधक रहे। टाइपराइटर, कंप्यूटर या मोबाइल में वह उदात्तता नहीं जो अपने अक्षरों से पृष्ठों पर उतर रही भावनाओं में होती है। लेकिन अभी उन्हें अनुभव हुआ, सच्ची भावना हो तो मोबाइल भी जीवित हो उठता है। उन्होंने बहुत चिंतन किया और लिखा- 'प्रतीक्षा रहेगी।'

अगले दो मिनट उनके मोबाइल की स्क्रीन निहारते कटे। यह आशा से अधिक उनकी इच्छा थी, कामना थी कि उत्तर मिले। अचानक स्क्रीन चमकी तो उनका हृदय कुछ और धड़क उठा। फिर उसी अनजान नंबर से संदेश है- 'आपको मेरा नाम कैसे मालूम? आप कवि हैं या ज्योतिषी? कैसे पता चला कि मेरा नाम प्रतीक्षा है?'

प्र..ती..क्षा। उनके भीतर की सनसनाहट जैसे चारगुना बढ़ गई। थरथराती उंगलियों से कोई नया संदेश लिखने से पहले अपने कांपते हृदय में उन्होंने उसके प्रारूप के बारे में सोचा। वे क्या लिखें- क्या लिख दें कि यह जीवन संयोग है सुंदरी जिसने तुम्हारे नाम को प्रत्यक्ष कर दिया। नहीं, सुंदरी शब्द लिखना अभी उचित नही होगा। फिर इस उत्तर में वह काव्यात्मक उदात्तता नहीं है जो इसे एक व्यापक अर्थ दे। उन्हें दूसरा उत्तर सूझा- कवि इसीलिए कवि होता है कि वह ज्योतिषी भी होता है, भविष्यद्रष्टा भी- यह त्रिकालदर्शिता ही उसे संपूर्ण बनाती है।

ऊंह, यह उत्तर तो अतिरिक्त वजनी है। कन्या कहीं इस बौद्धिकता से आक्रांत हो भाग न निकले। लेकिन वे क्या लिखें। जिस कविता ने तुम्हें स्पर्श किया उसी ने मुझे यह शक्ति दी कि प्रतीक्षा को पहचान सकूं। हां, यह सही वाक्य है- कुछ अनिश्चित भी, कुछ आमंत्रित करता हुआ भी। यह छोटा सा संदेश उन्होंने धड़कते दिल से टाइप किया और भेज दिया।

अनायास पत्नी ने उनकी तंद्रा भंग की- 'अरे, का हुआ है आपको? खोए-खोए काहे है? और किस बात पर मुस्काए रहे हैं?'

कवि का कलेजा धक्क से रह गया। मोबाइल उनके हाथ से छूटते-छूटते बचा। अभी दस हज़ार का नुक़सान हो जाता। दूसरा समय रहता तो वे क्रुद्ध हो चुके होते। पत्नी को याद दिला दिया होता कि वह किस अनपढ़ खानदान की है और कैसे उनका ध्यान भंग कर एक बड़े चिंतन को प्रभावित करती है। लेकिन यह उनके भीतर उमड़ता प्रेम था जिसने क्रोध को भाप की तरह उड़ा दिया था। प्रेम की शक्ति यह भी है। वह आपको क्षुद्रता से ऊपर उठाता है।

कवि ने फिर अनमनी मुद्रा ओढ़ ली- कहा, नहीं, महादेवी की एक काव्य पंक्ति याद आ गई थी। महादेवी का नाम लेते-लेते हृदय में एक हिलोर सी उठी। विरह और वेदना की कवयित्री ने प्रेम की पुकार को भी कितनी मार्मिक अभिव्यक्ति दी है- कंटकित रसालों से उठता है पागल पिक, मुझको पुकार, लहराती आती मधुर बयार। कविता और प्रेम जीवन को बदल देते हैं- यह अनुभव आज जैसे बार-बार होगा। उनकी दृष्टि फिर अपने मोबाइल फोन पर थी। फोन फिर चमका। 'स्पर्श? सिर्फ कविता का?'

हे ईश्वर। अब उनकी टांगें कांपने लगी थीं। यह लड़की है या माया? या महामाया? उन्हें 'कुरु कुरु स्वाहा' की पहुंचेली याद आई। मनोहर श्याम जोशी के इस चरित्र में उन्हें किंचित कल्पना की उर्वरता दिखती थी- ऐसी लड़कियां होती कहां हैं? लेकिन जोशी जी ने साबित किया, वे बड़े लेखक हैं। महामाया होती है। इस युग में भी होती है- संभवामि युगे-युगे।

मगर अब वे क्या करें? वे कमरे में जाकर चहलक़दमी करने लगे। आईने के सामने ठहर कर ख़ुद को निहारा- बाल बेशक, सफ़ेद हो गए हैं, कुछ झुर्रियां भी हैं, मगर उनके गौरवर्ण की शोभा अब भी खिलती है। सहसा उनकी दृष्टि फिर कुछ औत्सुक्य से उन्हें देखती पत्नी पर पड़ी। वे अचानक सकपका से गए। फिर मुस्कुराने की कोशिश की- बूढ़ा हो गया हूं न? पत्नी बस अचरज से देखती रहीं- 'चाय लेंगे क्या?'

पत्नी के इस असमय मनुहार के बावजूद उनमें जैसे अपार करुणा उमड़ आई। यह खयाल भी आया कि पत्नी चाय बनाने में व्यस्त रहें तो उनकी चिंतन प्रक्रिया अबाध चल पाएगी। उन्होंने किंचित मृदुता के साथ कहा, तनिक पकौड़े भी तल देना। पत्नी के चेहरे पर एक सलोना सुख उभर आया। अक्सर रुक्षता से बात करने वाले पंडित जी ने कितने दिन बाद कुछ पका देने को कहा है। चिंता भी हुई, तबीयत ठीक तो है, लेकिन पूछने की हिम्मत न पड़ी। बस वे रसोई घर की ओर जाकर कड़ाही खंगालने लगीं।

कवि ने फिर मोबाइल देखा- प्रतीक्षा, चुप क्यों हो? कुछ और तो कहो। फिर उन्हें खयाल आया, बातचीत की कड़ी तो उन्होंने तो़ड़ी है। प्रतीक्षा ने तो पूछा है, सिर्फ़ कविता का स्पर्श? क्या उत्तर हो? नहीं, उत्तर उन्हें पता है- वे संपूर्ण स्पर्श को तैयार हैं- दैहिक-आत्मिक मिलन के इस महान अवसर को वे स्थगित होने नहीं दे सकते। यह प्रीति-लता सूख न जाए या किसी और दिशा में मुड़़ न जाए। प्रश्न यह है कि यह उत्तर दिया कैसे जाए। उन्होंने कुछ देर तक सोचा और फिर महामाया के रहस्यवाद की शरण ली- 'तुम महामाया हो, तुम्हारे लिए कुछ भी अस्पृश्य नहीं, मैं भी नहीं। हर सुकोमल स्पर्श की कामना है।' लिखते-लिखते एक युवा देह की कल्पना से उनके होंठ सूखने से लगे। डर भी लगा- ऐसा सीधा संदेश भेजें या नहीं। लेकिन अंततः उन्होंने 'सेंड' वाला संकेत दबा ही दिया।



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कवि के लिए यह नया द्वार खुलने जैसा था। प्रेम की कविता की संकेतात्मकता प्रेम संबंधों के गद्य की स्पष्टता में ढल रही थी। प्रेम और अभिसार के संकेत धीरे-धीरे अभिधा में बदलने लगे थे। स्पर्श की कामना का दैहिक भूगोल धीरे-धीरे खुलने लगा था। कवि सहमते-सहमते अमृत कलशों के पान की कामना तक कर चुके थे और यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि कन्या ने उनके इस बिंब को भी सराहा था।  उन्हें अब भी संदेह होता कि कोई उनके अन्यथा उदास-उद्विग्न जीवन के साथ मज़ाक तो नही कर रहा। एक क्षण को वे उदास हो जाते, लेकिन अपने मोबाइल पर दृष्टिपात करते ही जैसे कोई नई उर्जा उन्हें अपने भीतर संचरित होती लगती। भावनाओं के तीव्र प्रवाह में कई बार उन्हें भाषा अपर्याप्त लगती- पहली बार कवि को कविता का वास्तविक अर्थ ज्ञात हो रहा था।

जीवन में अगर प्रथम बार नहीं तो वर्षों बाद कवि ने अपने कपड़ों, बालों और चप्पलों तक पर ध्यान दिया। पहली बार उन्हें यह खयाल आया कि यह खिचड़ी दाढी उनकी उम्र को कुछ और बढ़ा देती है। क्या वे अपने बाल रंगना शुरू करें? एक उदास संकोच ने उन्हें घेर लिया। अब बाल रंगना शुरू करें तो लोगों से क्या कहेंगे। उहूं, यह उचित नहीं होगा। फिर उन्हें उनके यथार्थबोध ने भी घेर लिया- मैं जैसा भी हूं, उसी रूप में उस कन्या को मुझे स्वीकार करना होगा। आखिर पहला आमंत्रण तो उसी की ओर से आया था। उसने मेरी छवि देखी तो होगी।

किंतु, प्रतीक्षा थी जो अब तक पूरी नहीं हो रही थी। मोबाइल संदेश तृप्त कम अतृप्त अधिक कर रहे थे। जीवन में कहीं भी मन नहीं लगता। कक्षा में आलम को पढ़ाते-पढ़़ाते प्रतीक्षा की अनदेखी छवि घूमती रहती। वे अपने को आलम और प्रतीक्षा को शेख रंगरेजिन मान बैठते। कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते एकाध बार विह्वल भी हो गए। बच्चों ने भी कदाचित यह परिवर्तन लक्ष्य कर लिया था।  वे सावधान रहते- आंखों की कोरों में आए गीलेपन को छुपाने का यत्न करते और सबकुछ सहज-सामान्य बनाए रखते।

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प्रतीक्षा और प्रेम ने कवि जी के भीतर वैज्ञानिकता और प्रयोगशीलता का संचार किया। उन्हें अचानक खयाल आया कि जो फोन उनके पास है, वह फोन नहीं, स्मार्टफोन है। इस फोन में वाट्सऐप होता है, फेसबुक होता है, इंटरनेट होता है और सबका फोटो देखा जा सकता है। संकट बस यह था कि पूरी आधुनिक सभ्यता को शंका से देखने वाले पंडित जी ने यह सुविधा नहीं ले रखी थी। फोन पर एक जगह वाट्सऐप मिला भी, मगर इसका प्रयोग उनके लिए दूभर साबित हुआ। उन्हें समझ में आया कि किसी की सहायता लेनी होगी। लेकिन अपने जिस आवारा बेटे को वे दिन भर फेसबुक पर आंख गड़ाए रहने के लिए वे दुत्कारते रहते थे, उससे वह यह नहीं कह सकते थे कि वह उनके फोन पर यह सब नए ज़माने का तामझाम खोल दे। इसका ख़तरा भी था। बेटे ने अगर देख लिया कि पिता किसी प्रतीक्षा के चक्कर में हैं और मां को बता दिया तो कोहराम मच जाएगा- इसी धरती पर वे नरक के भागी होंगे।

एक पल के लिए वे शर्मिंदा हुए। इस उम्र में ऐसी हरकत क्या उन्हें शोभा देती है? लेकिन प्रेम उनके इस संकोच से अधिक प्रबल निकला। पहले कुछ कातरता से और अंत में पूरे विश्वास से कवि ने सोचा कि कविता ने उन्हें जो दिया है, वह इस जीवन से अधिक मूल्यवान है। उन्हें यह भी याद आया कि जीवन तो अंततः उन्हें उपेक्षित का ही जीना पड़ा है। पत्नी उनके पूरे कृतित्व को हिकारत और संदेह से देखती रही हैं और उससे ज्यादा खुद उनको। बेटा उनकी परवाह नहीं करता और दिन भर मटरगश्ती करता रहता है। जीवन की इस सूख रही लता को अगर किसी ने सींचा है तो वह प्रतीक्षा है। उन्होंने तय किया कि सबकुछ छोड़ देंगे, प्रतीक्षा को नहीं छोड़ेंगे।

लेकिन प्रतीक्षा मिले तब तो? अभी तक तो वह दिखी भी नहीं है। फिर उन्हें वाट्सऐप का खयाल आया। किसी ने उन्हें बताया था कि उसमें संदेश भेजने वाले का फोटो होता है। तो पहले वाट्सऐप सीखना होगा। सीखेंगे। उन्होंने निश्चय किया। इस बहुप्रतीक्षित प्रेम के लिए इतना त्याग और श्रम तुच्छ है।

मगर किससे सीखें? पत्नी पर फिर क्रोध आने लगा। उसको अगर चाय-रोटी-साग से समय मिले तब तो तकनीक के बारे में जाने। बस टीवी देखने का एक शौक पाल रखा है। अपने आसपास के लोगों का स्मरण करते सहसा उन्हें पूजा की याद आई। पड़ोस की बच्ची। वह आठवीं में पढ़ती है। सब जानती होगी। तेरह वर्ष पहले पूजा का नामकरण उन्होंने ही किया था। यह और बात थी कि पूजा के जन्म में उनकी भी एक विफलता छुपी थी। पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी से उन्होंने अपने ज्योतिषीय ज्ञान के आधार पर कहा था कि उन्हें पुत्र रत्न होगा। और शर्मा जी ने इस ज्ञान पर विश्वास करते हुए दूसरी बार अपनी पत्नी का गर्भपात नहीं करवाया था। जब पुत्री हुई तो शर्मा जी बिल्कुल रुष्ट से उनके पास आए। पंडित जी हतप्रभ थे। लेकिन उन्होंने ढाढस बंधाया था। अगली बार पुत्र ही होगा। मगर अगली बार की बारी नहीं आई। शर्मा जी भले दुखी हों, उनकी पत्नी सुखी थीं कि चलो बेटी तो हुई। यह बेटी बड़ी मुश्किल से हुई है। अब इससे आगे कोशिश नहीं करेंगे।

बहरहाल, यह कहानी पुरानी है। पंडित जी प्रतीक्षा करने लगे कि अब पूजा कब उनके घर आती है। ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। दो ही दिन बाद पंडित जी को पूजा अपनी मां के साथ आती दिखी। अपने स्वर को यथासंभव मुलायम, आत्मीय और गरिमामय बनाते हुए पंडित जी ने कहा, पूजा बेटी, तुझसे कुछ काम है। उनका यह अतिरिक्त मीठा स्वर बालिके और उसकी माता दोनों को अचंभे में डाल गया है- यह समझते हुए उन्होंने झेंपते हुए कहा- असल में मोबाइल सीखना है। यानी वाट्सऐप कैसे चलाते हैं। इतना महंगा ख़रीद लिया है, सारे कामकाज सीखने चाहिए न।

पूजा, उसकी माता और पंडितजी की पत्नी- तीनों ने कुछ संभ्रम में सिर हिलाया- कि बात तो सही बोल रहे हैं, लेकिन क्यों बोल रहे हैं- यह समझ नहीं पाई हों।

बहरहाल, पंडितजी की मोबाइल-कक्षा शुरू हो गई। पूजा बहुत मनोयोग से उनको बताने लगी- वाट्सऐप कैसे खुलता है, फेसबुक क्या काम करता है। हालांकि इससे पहले उसने बताया कि आपको इंटरनेट रिचार्ज कराना होगा। पूजा की सलाह पर उन्होंने 300 रुपये का एक ‘प्लान’ ले ही लिया। उन्हें अनुभव हुआ कि पूजा ने उनकी भविष्यवाणी गलत नहीं होने दी। यह लडकी नहीं, साक्षात लड़का है। कोई लड़की कैसे मोबाइल और इंटरनेट के बारे में इतना जान सकती है। निस्संदेह पूजा के मुंह से अपने लिए दादाजी का संबोधन सुन कर वे किंचित मुरझा से गए। नहीं, पूजा से उनकी कोई अपेक्षा नहीं थी, बस पूजा ने याद दिला दिया था कि वे दादाजी जैसे हो चुके हैं।

लेकिन इस अनजाने अन्याय के अलावा पूजा ने उन्हें सबकुछ सिखा दिया। अब पंडित जी प्रमुदित थे। उनके आगे एक नवीन विश्व खुल सा गया था। उन्होंने वाट्सऐप के अलावा फेसबुक पर भी खाता खोल लिया था और आते-जाते मैत्री-अनुरोध देखकर अभिभूत थे। यहां तो प्रतीक्षाएं ही प्रतीक्षाएं हैं। उन्होंने एक-एक कर कई युवा लड़कियों को मित्र बना लिया।

मगर अपना पहला प्रेम नहीं भूले पंडित जी। प्रतीक्षा का नाम वाट्सऐप पर खोजा और चिंहुक गए- इतनी सुंदर, इतनी खुली! इतनी कमनीय पीठ वाली लड़की! अपने भाग्य पर उन्हें ईर्ष्या हुई। लेकिन सहसा उन्हें ध्यान आया- यह चितवन तिरछी कर देखती लड़की तो जानी-पहचानी है। ओहो, यह तो वह है- कौन सी फ़िल्म थी- ‘हम आपके हैं कौन’- उसकी माधुरी दीक्षित। उन्हें मायूसी और कोफ़्त दोनों ने घेर लिया। पूजा ने सबकुछ सिखाया था, यह नहीं सिखाया था कि वाट्सऐप पर लोग कई बार अपनी असली तस्वीर नहीं लगाते। कोई बात नहीं. कवि ने ठंडी सांस ली- फिर प्रतीक्षा को संदेश भेजा- ‘यह किसकी तस्वीर लगा रखी है अपनी जगह?’ व्यग्र होकर देखते रहे। पहले एक धारी दो धारियों में बदली और फिर दोनों धारियां नीली हो गईं। यह भी एक जादू था उनके लिए- यह जान जाना कि संदेश पढ़ लिया गया है। यही नहीं, वे देख पा रहे थे कि उधर से कुछ लिखा जा रहा है। इतने भर से उनकी धड़कनें तेज होने लगी थीं। ‘वाऊ’, आप को बिल्कुल टेक्नो सेवी निकले। माधुरी दीक्षित पसंद नहीं है? आप जिसकी कहें. उसकी लगा दूं। कहिए तो कोई हॉट हीरोइन डाल दूं?’

इतने भर से पसीना-पसीना हो गए पंडित जी। उफ, यह लड़की कितनी शैतान है। सोच ही रहे थे कि क्या जवाब दें, तब तक तस्वीर बदल गई। उस पर जाकर क्लिक किया तो सहम कर फोन जेब में डाल लिया। ऐसी तस्वीर कोई और देख न ले। जल्दी से मुड़कर अपने कमरे की ओर बढ़े। पत्नी को कुछ उलझी और संदिग्ध निगाहों से अपनी ओर देखता पाकर कुछ सकपका भी गए। पहले का समय रहता तो क्रोध में कम से कम दो बातें तो सुना ही होतीं। लेकिन जब से प्रेम हुआ है, तब से पंडित जी को क्रोध आना बंद हो गया है।

कमरे में जाकर फिर से फोन जेब से निकाला। तस्वीर भी थी और संदेश भी चमक रहा था- बिपाशा बसु भी पसंद नहीं आई?  कितनी सेक्सी है, नहीं?’ पंडित जी ने अब ध्यान से और इत्मीनान से तस्वीर देखी। वाकई यह तस्वीर देखकर वे भीतर से लाल हो गए थे। इतनी कमनीय!- कई क्रीड़ाओं का ख़याल उन्हें आया। उन्होंने धीरे-धीरे ख़ुद को नियंत्रित किया। गुरुदेव टैगोर याद आए- प्रेम में ‘मैं’ को विसर्जित करना पड़ता है।  इस बार उन्होंने मंजे हुए खिलाड़ी की तरह लिखा, ‘माधुरी और विपाशा नहीं, प्रतीक्षा चाहिए- बिल्कुल संपूर्ण। इतना साहस है?’

वे कामना कर रहे थे कि यह चुनौती वह लड़की स्वीकार करे और फिर अपनी तस्वीर भेज दे। लेकिन चुनौती दूसरी तरफ से भी आ गई- प्रतीक्षा चाहिए तो मिलना होगा। बिल्कुल अकेले। इतना साहस है?’

कवि जी भीतर से थरथरा रहे थे। यह आमंत्रण है। बहुत स्पष्ट। अब तो प्रतीक्षा ने उनकी तस्वीर भी देख ली है। उन्हें ख़याल आया कि एक बार प्रतीक्षा को देखने की कोशिश वे फेसबुक पर भी कर लें। लेकिन फेसबुक पर कई प्रतीक्षाएं थीं। उन्होंने सबकी प्रोफाइल बहुत ध्यान से देखी। फिर एक कन्या पर रुक गए। इसने तो अशोक वाजपेयी की प्रेम कविता लगा रखी है। वाह शमशेर से भी परिचित है। यही है उनकी प्रतीक्षा। हालांकि यहां भी उसने अपनी तस्वीर की जगह फूल-पत्ती लगा रखी थी। लेकिन वे आश्वस्त थे। सोशल मीडिया की इस सतही दुनिया में शमशेर को पढ़ने वाला और कौन हो सकता है? एक पल को उन्होंने सोचा और फिर उसे संदेश भेज दिया- ‘वह तुम्हीं हो न? मेरी प्रतीक्षा? माधुरी और विपाशा से बढ़कर?’

धड़कते दिल से पंडित जी उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे। फिर एक व्याकुलता ने घेर लिया। यह व्यग्रता दिखाकर उन्होंने ठीक नहीं किया। लेकिन तब तक उनकी स्क्रीन पर जवाब चमका। जवाब देखकर उनके हाथ-पांव ठंडे पड़ गए, हलक सूख गया। यह तो कोई और प्रतीक्षा निकली। मगर इस मुक्तिबोधीय भूल-गलती से ज़्यादा डर उन्हें उस संदेश से लगा। ‘पंडित जी, इस उम्र में शर्म नहीं आती? कॉलेज में पढ़ाते हैं, बहुत शरीफ़ बनते हैं और यहां अपनी बेटी की उम्र की लड़की को इनबॉक्स में ऐसा मेसेज भेजते हैं? लगा दूं स्क्रीन शॉट?’



पूजा ने सब सिखाया था, लेकिन स्क्रीन शॉट नाम की बला क्या होती है, यह नहीं सिखाया था। लेकिन पंडित जी समझ गए थे कि अनर्थ हो चुका है, अघटित घट चुका है। उनका अब बस सार्वजनिक अपमान होना शेष है। उनकी घिग्घी बंध गई। कांपते हाथों से तत्काल दूसरा संदेश लिखा- बेटी, क्षमा करना। मेरे शैतान बेटे की कारस्तानी है। मैं कमरे से बाहर गया ही था कि उसने शरारत कर दी। बेटी, इस वृद्ध का सम्मान रख लेना।‘

लगभग जूड़ी के बुखार की तरह उनके भीतर कंपन हो रहा था। जवाब आया तो जान आई- हालांकि जवाब से साफ़ था कि प्रतीक्षा ने उनकी बात पर भरोसा नहीं किया है, बस उन्हें छोड़ दिया है। उसने लिखा था- ‘बाप हो या बेटे, दुबारा ऐसी हरकत की तो छोडूंगी नहीं, साइबर सेल में भी कंप्लेन करूंगी। दुबारा दिखना मत।‘

पंडित जी बिल्कुल ग्लानि में डूबे हुए थे। इस उत्तर की वजह से भी और अपने बेटे के नाम अपने हिस्से का दोषारोपण करने के चलते भी। जीवन में प्रथम बार अपने उस पुत्र के प्रति उनका ममत्व जागा था जिसे वे हमेशा कोसते रहे थे। उस बेचारे को पता भी नहीं है कि बाप की सज़ा वह गालियां खाकर भुगत रहा है। ईश्वर, उसका अनिष्ट न होने देना। पंडित जी ने तय किया, अब फेसबुक पर वे नहीं जाएंगे।

लेकिन बड़े बेआबरू होकर एक प्रतीक्षा के कूचे से लौटे पंडित जी के मन में दूसरी प्रतीक्षा अब भी शेष थी। वाट्सऐप पर उस प्रतीक्षा का संदेश अब भी चुनौती उछाल रहा था। हालांकि उनका मन उचट चुका था, लेकिन कामना इस उचाटपन से बड़ी साबित हुई। उन्होंने फिर संदेश टाइप किया, ‘प्रतीक्षा बताए- प्रतीक्षा कब और कहां ख़त्म और पूरी होगी?’

उन्हें अपनी वाक्य रचना पर रोमांच हो आया। इतना अर्थपूर्ण तो वे पहले कभी नहीं लिखते रहे। यमक और श्लेष कक्षा में पढ़ाते रहे- कभी प्रसाद का उदाहरण देते रहे, खग कुल कुलकुल सा बोल रहा, कभी कनक और कनक का अंतर समझाते रहे। लेकिन यह रूपक उनके अन्यथा रसविहीन, काव्यविहीन जीवन में इस तरह साकार होगा, क्या उन्होंने कभी इसकी कल्पना की थी? यह सारा दैव का रचा हुआ है- उसी का मनोरथ है।

इस तर्क से उन्हें कुछ और बल मिला। जब दैव ने रचा है तो भला-बुरा, शुभ-अशुभ सोच कर ही रचा होगा। तो वे प्रतीक्षा और प्रतीक्षा की कल्पना दोनों करने लगे।

प्रतीक्षा कुछ और पास आती दिखी। हतभाग, नहीं वह किंचित दूर साबित हुई। इस बार उसका साफ़-सीधा प्रश्न था- ‘जयपुर आएंगे?’

जयपुर? तो प्रतीक्षा जयपुर में रहती है। वे कुछ मायूस हुए। दिल्ली का मामला होता तो प्रतीक्षा प्रति दिन मिलन में बदल सकती थी। लेकिन जयपुर? जयपुर जाने का बहाना खोजना होगा। उन्होंने लंबी सांस ली। हालांकि सांस लेते-लेते उन्होंने पाया कि यह दूरी भी शुभ है- सिर्फ इसलिए नहीं कि इससे विरह की तीव्रता और वेदना और अंततः प्रेम में वृद्धि होती है, इसलिए भी कि जयपुर जाकर किसी प्रवाद से बचे रहेंगे। उन्हें खयाल आया कि दिल्ली में कोई दो बार उन दोनों को देख लेता तो कहानी बना देता। पंडित जी पर मिथ्या आरोप लग जाता कि अपनी नई शिष्या को वे पीएचडी करा रहे हैं। ऐसा आरोप उन पर पहले भी लग चुका है। लेकिन वे विचलित नहीं हुए। यह सत्य है कि प्रतीक्षा भी अगर चाहेगी और सुयोग्य साबित होगी- आख़िर क्यों नहीं होगी, इतनी अच्छी भाषा लिखती है- तो उसे भी वे पीएचडी कराएंगे।

तो दिल्ली से जयपुर वे जाएंगे। लेकिन अभी तो स्थान ही तय हुआ है, समय भी तय हो जाए। इस बार उन्होंने फिर लिखा- ‘प्रतीक्षा कहां पूरी होगी, यह तो बता दिया, यह भी बता दो कि कब पूरी होगी। और पूरे जयपुर में प्रतीक्षा की खोज में कहां-कहां भटकूंगा।‘

उत्तर बिल्कुल शताब्दी एक्सप्रेस की गति से आया। ओह, इसी ट्रेन से जाने की योजना बनाते-बनाते पंडित जी ने इसे रूपक में बदल डाला था। वे फिर अपनी क्षमता पर- और प्रेम के रसायन का अपने ऊपर पड़ रहा प्रभाव देखकर- मुग्ध हुए।

और उत्तर पढ़कर पंडित जी कुछ और चकित हुए। यह प्रतीक्षा कितनी  विलक्षण है। उनके लिए होटल तक बुक कर दिया है। ‘अगले रविवार, दोपहर तीन बजे होटल सिटी इन के कमरा नंबर 306 में। तीसरे माले पर है। पूछने की जरूरत नहीं। मैप अलग से भेजती हूं।‘

ओह, आज मंगलवार है। बस चार दिन बचे हैं। लेकिन अचानक अगले रविवार जयपुर चले जाने का बहाना वे क्या बनाएंगे? उहूं। यह कोई भारी बात नहीं है। कॉलेज में कह देंगे- घरेलू काम से जयपुर जाना है, और घर पर कह देंगे- एक कविता पाठ है। पत्नी बस यही पूछेंगी कि कुछ पईसा-वईसा मिली- कह देंगे, मिलेगा-मिलेगा।

तो रविवार के सफर की तैयारी शुरू हो गई। एक शिष्य से उन्होंने जयपुर थताब्दी का टिकट बुक कराने को कह दिया। शिष्य ने पूछा, गुरुजी, कहां जा रहे हैं, साथ चलूं? उन्हें अफ़सोस हुआ, कुछ घरेलू काम करा लेने की एवज में उन्होंने कुछ अयोग्य-खल शिष्यों को कितना मुंहलगा होने की स्वतंत्रता दे दी है। जयपुर से आकर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाएंगे। लेकिन ऊपर-ऊपर उन्होंने बस उदासीनता का परिचय दिया- ‘अरे, एक लड़की देखने जाना है।‘ फिर अपने अर्धसत्य पर हंसे। लेकिन शिष्य इतने पर नहीं रुका, उसने पूछ लिया- ‘परितोष भैया के लिए? परितोष भैया, यानी उनका पुत्र। अब वे झुंझलाने लगे। कहा, अरे नहीं, एक पुराने मित्र के लिए- वे उदयपुर से पहुंच रहे हैं और ज़ोर दे रहे हैं कि मैं भी जयपुर पहुंच जाऊं।‘

‘अरे, तो टिकट का पईसा तो उन्हीं को देना चाहिए न?’ शिष्य लगभग गुस्ताखी पर उतारू था। इस बार पंडित जी क्रुद्ध हो गए- ‘इसी वजह से तुम्हारी पीएचडी तीन साल से अटकी हुई है। काम कम करोगे, प्रश्न ज़्यादा पूछोगे।‘ शिष्य हीही करता हुआ चला गया।

तो टिकट आ गया, घर में पंडित जी ने सूचना भी दे दी, एक नया कुर्ता-पाजामा भी खरीद लिया और एक नफ़ीस शॉल खोजने लगे। शॉलों की उनके पास बिल्कुल भरमार थी। मगर वे सब कार्यक्रमों के दौरान मिले सफेद शॉल थे। घर में चल जाते, लेकिन बाहर गरिमा के अनुकूल न होते। तो उस शाम वे अपनी जानी-पहचानी दुकान पर पहुंचे। मगर यहां भी कोई शॉल रुचिकर साबित न हुआ। अचानक दुकान में उनका शिष्य भी आ धमका। ‘गुरुजी, घर गए थे, पता चला, शॉल ख़रीदने आप यहां आए हैं। बढ़िया खर्चा करा रहा है दोस्त आपका तो।‘ पंडित जी का क्रोध सातवें आसमान पर था, मगर यह घड़ी धीरज को उससे भी ऊपर अवस्थित करने की थी। उन्हें शॉल के लिए किसी मॉल में जाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी। वे आश्वस्त न थे- वहां भी शॉल मिलेगा या नहीं। उन्होंने शिष्य से किंचित विचारमग्न अवस्था में पूछा- ‘अच्छा शॉल कहां मिलेगा जी?’

‘चलिए न गुरुजी, दिलवाता हूं।‘ शिष्य ने बिल्कुल मोटरसाइकिल सेवा ऑफर की। पंडितजी को किंचित संतोष हुआ- रिक्शा भाड़ा तो बचा। चमचमाते मॉल की एक दुकान से उन्होंने शॉल देखना शुरू किया। क़ीमत जानकर ही उनके होश उड़ गए। ऐसा नहीं कि उनके पास पैसों की कमी थी। लेकिन इतना महंगा शॉल वे कभी खरीदेंगे, उन्होंने सोचा भी नहीं था। बीते ही महीने पुत्र को इस बात के लिए भरपूर डांट पिलाई थी कि उसने तीन हज़ार रुपये के जूते ख़रीद लिए थे। अब चार हज़ार का शॉल ख़ुद कैसे ख़रीद लें।

मगर शिष्य ने रास्ता दिखाया। कहा- गुरुजी, इतने साल से आप नौकरी कर रहे हैं। कभी अपने ऊपर एक धेला भी खर्च किया आपने? भैया महीना में दू शर्ट दू-दू हज़ार का ले लेते हैं, आप शॉल तो कई साल चलाएंगे। और जयपुर जाएंगे तो आपकी शान बढ़ेगी।

हालांकि इस तर्क से ज्यादा फिर प्रेम की ताकत थी जिसने जीवन और क्रय-विक्रय को लेकर पंडितजी के विचार सर्वथा बदल डाले। पहली बार उन्होंने अपने होने को पहचाना था, उसे मान दिया था। उन्होंने माना कि कभी अपने ऊपर कुछ ख़र्च कर सकने का अधिकार उनको है। इस बीच शिष्य कहीं से इत्र की एक शीशी भी ले आया- ‘गुरु जी, इसको भी ले लीजिए।‘ गुरुजी ने मौन भाव से उसका भी मूल्य चुकाया।

तो सारी तैयारी पूरी हो गई। मंगलवार के बाद बुधवार आया, मंथर गति से गुरुवार भी आया, हांफता-हांफता शुक्रवार भी आया। इतना लंबा सप्ताह तो उन्होंने जीवन में कभी जिया ही नहीं था। एक-एक पल युग-युग की तरह लग रहा था। कृष्ण के प्रेम और विछोह में तपती गोपियों का वास्तविक दर्द अब वे महसूस कर रहे थे। प्रतीक्षा की स्थिति का भी उन्हें अंदाज़ा था। इस बीच उसके कई संदेश आ चुके थे। सावधानी बरतने के भी। पहली बार उनके सामने राज़ खुला कि प्रतीक्षा तो किसी की परिणीता है। एक पल की मायूसी के बाद उन्होंने इसे भी शुभ माना। यह ऐसा प्रेम है जिसका बोझ किसी के कंधों पर नहीं पड़ेगा- शुद्ध-सात्विक प्रेम जो दो वयस्क लोगों के बीच होता है। उन्हें लगा कि प्रतीक्षा अगर अविवाहित होती और उनके साथ विवाह के लिए मचल जाती तो वे कैसे स्थिति संभालते। तो अच्छा है, मामला प्रेम का ही है, विवाह की हद तक नहीं जाने वाला है।

फिर शनिवार आया, शनिवार की रात आई, मगर नींद नहीं आई। भोजन करके नौ बजे सो जाने वाले और प्रातः पांच बजे उठ जाने वाले पंडित जी ने पाया कि रात के 11 बज रहे हैं और नींद ओझल है। वे डर गए कि सुबहृ-सबेरे नींद न टूटी तो ट्रेन न छूट जाए।

मगर नींद भी आई और उनके जाने बगैर सुबह भी आ गई। वे अपनी आंखों के भारीपन के बावजूद उठ चुके थे और भीतर से बहुत उत्फुल्ल महसूस कर रहे थे। फिर उनका शिष्य भी ऑटो लेकर आ गया जो उन्हें स्टेशन छोडने वाला था। वे स्टेशन पहुंचे, ट्रेन भी आई और ट्रेन में थकी हुई सी नींद भी आई।

फिर जयपुर भी आ गया। स्टेशन से बाहर निकल कर उन्होंने रिक्शा लिया और इसके बाद होटल भी चला आया। उनके पांवों में फिर कंपन लौट आई, हृदय की धड़कन बिल्कुल नगाड़ा हो गई। होटल में प्रवेश करने से पहले उन्होंने शिष्य का दिया इत्र अपने कपड़ों पर छिड़का। ध्यान से देखा- कहीं सिलवटें तो नहीं हैं। शॉल को गरिमापूर्ण ढंग से कंधे पर डाला। फिर रिसेप्शन की ओर देखे बिना सीधे लिफ्ट की ओर बढ़ लिए। अंदेशा था कि रिसेप्शन पर कुछ प्रश्न-उत्तर हो गए, इस जयपुर में भी कोई जान-पहचान वाला निकल गया तो वे क्या करेंगे। तो वे अब लिफ्ट में थे, उनकी उंगली तीन नंबर का बटन दबा चुकी थी, लिफ्ट ऊपर जा रही थी, तीसरा फ्लोर आ गया था। पंडित जी की टांगें बिल्कुल कांपने लगी थीं। लिफ्ट से बाहर आकर उन्होंने देखना शुरू किया। 306 नंबर के कमरे के आगे रुके। हल्के से दस्तक दी। दरवाज़ा खुल गया।

पंडित जी कुछ घबरा भी गए। माथे पर पसीना आ गया। भीतर झांक कर देखा। कमरा ख़ाली था। उन्होंने प्रवेश किया। लेकिन किसी की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिले।

तब तक एक लड़का वहां चला आया- ‘आप यहां क्या कर रहे हैं?’ पंडित जी और परेशान हो गए। कहा, ‘मैं इस कमरे में ठहरे हुए लोगों से मिलने आया हूं।‘

‘लेकिन वे तो सुबह नौ बजे ही निकल गए।‘ कमरे का बिस्तर झाड़ते हुए उस लड़के ने कहा। ‘आप मैनेजर से बात कर लीजिए।“

‘जी, जी’, करते हुए पंडित जी नीचे उतर आए। मैनेजर से बात नहीं की। तीर की तरह होटल से बाहर आ गए। बाहर की चमकती धूप में उनको कुछ राहत मिली। लेकिन वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। उन्होंने सहसा मोबाइल निकाला, प्रतीक्षा ने कोई नया संदेश भेजा हो। लेकिन कुछ नहीं था। इन्होंने जल्दी से टाइप किया, ‘प्रतीक्षा, कहां हो? मैं जयपुर में हूं। तुम्हारे बताए होटल के ठीक सामने।‘

कोई जवाब नहीं आया। दो-चार मिनट उसी संभ्रम में कटे। इच्छा हुई, सीधे फोन कर लें। लेकिन प्रतीक्षा ने स्पष्ट हिदायत दे रखी थी- किसी भी सूरत में फोन नहीं। आवाज़ और अंदाज़ से एक साथ परिचय होगा- यह उसका शरारती सा संदेश काफी पहले से उनके पास था- वाट्सऐप से पहले एसएमएस के ही ज़माने का।

तभी अचानक घंटी बजने लगी। देखा, प्रतीक्षा का फोन है। पंडित जी को जैसे संजीवनी मिल गई। ‘हलो, प्रतीक्षा-प्रतीक्षा!’

लेकिन इसके बाद अचानक वे चुप हो गए। मस्तिष्क बिल्कुल सुन्न हो गया। क्योंकि उस तरफ से आ रही आवाज़ किसी पुरुष की थी- ‘प्रतीक्षा कहीं नहीं है श्रीमान। बस एक माया है जो लोगों को दिल्ली से जयपुर तक घुमाती है। लौट जाएं।‘

पंडित जी का सिर घूमने लगा। वे वहीं सड़क किनारे एक दुकान के बाहर लगी बेंच पर बैठ गए। खरीद कर पानी पिया। अपने मोबाइल को देखा, जो उन्हें किसी वाद्य यंत्र सा लगता था, अभी नागनाथ लग रहा था। जैसे वह मोबाइल उनकी खिल्ली उड़ा रहा हो। उन्हें महाप्राण निराला याद आए- ‘धिक जीवन जो पाता ही आया है विरोध धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।‘ वे बिल्कुल टूट से गए। जिस थकान को चार दिन अनुभव करने का अवकाश न था, वह उन पर अब आक्रमण कर बैठी थी। क्या महाप्राण की यही पीड़ा थी जो राम की ओट में व्यक्त हो रही थी?- ‘वह एक और मन रहा राम का, जो न थका।‘

क्लांति के बाद क्रोध आया। किसने? किसने किया होगा यह सब? पंडित जी के मस्तिष्क में जैसे झंझावात उठ रहे थे। क्या उनके किसी प्रतिस्पर्द्धी शिक्षक ने? क्या उनके किसी चेले ने?

लेकिन अचानक फिर बजा मोबाइल। उनके उसी शिष्य का फोन था जिसने उन्हें स्टेशन छोड़ा था- ‘गुरुजी, कहां हैं आप? मैं जयपुर में हूं।‘

अचानक पंडित जी को लगा- हो न हो, इसी नीच, अधम ने यह हरकत की है। प्रण किया कि उसकी पीएचडी पूरी नहीं होने देंगे। लेकिन उन्हें मालूम था कि वे एक दुष्चक्र में हैं। इसलिए बस डूबे गले से इतना पूछ पाए कि वह कहां है और कैसे पहुंचा।

लेकिन शिष्य इस मामले में भी गुरु साबित हुआ। उसने विस्तार से जो जानकारी दी, उसके अनुसार घर और कॉलेज में दी गई अलग-अलग सूचनाएं परस्पर मिल गईं तो पत्नी चिंतित हुईं।

घर में उन्होंने कविता गोष्ठी में जाने की बात कही थी। कॉलेज में कहा था- किसी लड़की को देखने जा रहे हैं- अपने किसी दोस्त के लिए।

‘इसलिए चाची ने कहा, तुमको अपने गुरु जी की कसम, अभी जाओ, देखो, कहां हैं ऊ। उनको तुरंत लाओ।‘
गुरुजी को समझ में आने लगा था कि यह प्रपंच किसने शुरू किया और कैसे बढ़ाया। लेकिन नया संकट उनके सामने यह था कि अपनी पंडिताइन को कैसे समझाएंगे। कोई दूसरा मामला होता तो डांट-डपट देते। लेकिन एक शहर से दूसरे शहर बहाने से चले आए।

यहां भी शिष्य ने उबारा, “जाने दीजिए न गुरुजी, चाची को बोल देंगे कि हमहीं को गफलत हुई थी। वो तो किसी और दोस्त की बात कर रहे थे। हम जब पहुंचे तो होटल में बहुत बढ़िया से कविता पाठ कर रहे थे। लीजिए न, अभिए फोन कर देते हैं।‘ और वह आश्वस्त भाव से फोन मिलाने लगा।

गुरुजी ने बस यह प्रण किया- आइंदा किसी कन्या से प्रणय की बात सोचेंगे भी नहीं। मोबाइल, एसएमएस और वाट्सऐप पर तो कतई नहीं। और सोचते-सोचते उनकी आंख भर आई- “प्रतीक्षा, कुछ न देकर भी तुमने कुछ दिन के लिए मुझे जीवन तो दे ही दिया।’

किंतु दिल्ली पहुंच कर और पत्नी की कुछ लानत-मलामत और मित्रों-शिष्यों की कुछ हीही-खीखी झेल कर पंडित जी ने फिर फेसबुक का रुख़ किया- बस इस प्रण के साथ कि किसी कन्या से तभी मैत्री या प्रेम करेंगे, जब उसकी सूरत देख लेंगे, जब यह पक्का कर लेंगे कि वह वास्तव में कोई कन्या ही है।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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