योजना आयोग की पूर्व सदस्या सईदा हामिद की
दो नज़्में
आसिफा
भेड़ें चराते -चराते कहाँ खो गईकिस जंगल में जा बस गई मेरी बेटी
तुमपे मन्नत का दम पढ़ के फूँका
और बांधा
कलाई पे डोरा सर पे रुमाल
फिर दिया तुमको उसकी अमान में
जो है सबका हाफ़िज़ मुहाफ़िज़
और तुम
छलावे की मानिंद पेड़ों में गुम हो गई
जंगली चरिन्दे परिंदे तुम्हारे हमजोली
वह भेंड़ों से भिड़ना और चौकड़ी भरना
सब तुम्हारे रखवाले सब तुम्हारे निगहबाँ
मगर
वो कौन थे
जो शहरों से आये जो कोसों से आये
नाचते रक़्स अफरीतियत का
हवस के पुजारी लड़कियों के व्यापारी
वो बदहाल—ओ—तिश्ना
वो जिस्मों के भूखे
लगे नोचने
तेरे लिथड़े सरापे को
काटते बांटते ठूंसते।
छोड़ी मंदिर की दहलीज़ पर
अपनी ग़िलाज़त
और कर गए सब्त
देव स्थल के दीवारो दर पर
मोहर क़त्ल और हवस की
ख़ौफ़ के मौसम में लिखी गई
इंसानों से डर लगता है
जंगल के खूनख़ार दरिन्दे
एक वार में जिस्म बेजान कर देते हैं
सिर्फ़ जब
कोई उनके बच्चों पर शिकारी नज़र डाले
मगर इंसान
मेरे माबूद मेरे परमेश्वर की बनाई मख़्लूक़
अशरफुल मख़लूक़ात
घिनौनी हवस के पुतले
मेरी अधमरी मासूम बेटी से
अपनी हवस की आग बुझाते हैं
आसिफा
तेरी शरबत से भरपूर आँखें बन गईं
पहले आँसू फिर पत्थर
नोचे हुए तेरे रेश्मी बाल
राक्षस जबड़ों से चबे हुए तेरे शबनम होंठ
पत्थर से चूर तेरी सुराही गर्दन। .........
मुल्क के मुहाफ़िज़ मंदिरों के पुजारी सरकारी कारिंदे
पै दर पै
चीरते फाड़ते निगलते रहे तेरी मासूमियत को
जंगल के ख़ूनख़ार दरिंदे
क़तार दर क़तार
ख़ामोश सर झुकाए रहे
और काले कोट पहने इंसान
इक़्तेदार की कठपुतलियाँ
इंसानियत को सर -ए -बाज़ार नंगा करते रहे
Syeda Saiyidain Hameed is an Indian social and women's rights activist, educationist, writer and a former member of the Planning Commission of India.
0 टिप्पणियाँ