क्यों मुस्लिम पहचान को राष्ट्रीय पहचान से अलग करके देखा जाता है — लैला तैयबजी


क्यों मुस्लिम पहचान को राष्ट्रीय पहचान से अलग करके देखा जाता है — लैला तैयबजी

क्यों मुस्लिम पहचान को राष्ट्रीय पहचान से अलग करके देखा जाता है

— लैला तैयबजी

मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दों को केवल मुस्लिम महिलायें ही नहीं बल्कि समाज के सभी वर्गो की महिलाओं द्वारा उठाना जाना चाहिए  — सीमा मुस्तफा
फरहा नकवी | फोटो: भरत तिवारी

मुस्लिम विमेंस फोरम ने बीती 26 मई को यू. एन. वीमेन के सहयोग से ‘पाथब्रेकेर्स : बीसवीं सदी की भारतीय मुस्लिम महिलाएं’ शीर्षक से एक प्रदर्शनी तथा वार्ता बैठक का आयोजन इंडिया हैबिटैट सेण्टर में किया। इस आयोजन का उद्देश्य उन मुस्लिम महिलाओं को याद करना था जिन्होंने तमाम मुश्किलों को पार करके राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदारी की है और समाज में अपना एक स्थान हासिल किया। आयोजन भारत की आज़ादी में भारतीय मुस्लिम महिलाओं के योगदान को रेखांकित करने तथा उन्हें याद करने के लिए किया गया। नई पीढ़ी को उनके योगदान से अवगत कराना भी इस आयोजन का उद्देश्य था। इंडिया हैबिटैट सेंटर में वार्ता बैठक का आयोजन 28 मई को मैग्नोलिआ हॉल और प्रदर्शनी का आयोजन फ़ोयर कन्वेंशन सेंटर में किया गया।


स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तथा उसके पश्चात अनेकों मुस्लिम महिलाओं ने पर्दा प्रथा का त्याग कर राष्ट्र निर्माण की परियोजना में हिस्सा लिया। वे शिक्षिका, लेखिका, कलाकार, वैज्ञानिक, अधिवक्ता, शिक्षाविद, राजनीतिक कार्यकर्ता तथा मज़दूर संघ की कार्यकर्ता बनी। इन महिलाओं में से कुछ संसद, विधानसभा की सदस्य बनीं तथा कुछ ने अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवा प्रदान की। यह दुखद है कि इन महिलाओं में से अधिकांश को भुला दिया गया है। राष्ट्रीय आंदोलन तथा नारीवादी आंदोलनों में मुस्लिम महिलाओं ने अग्रणी भूमिका निभाई है। उनके कार्यों की कालावधि मुख्य रूप से 1947 से लेकर उनके जीवन के अंतिम समय तक का है. समाज के लिए किये गए इनके कार्यों से यह दीख पड़ता है कि वह स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास रखती थीं। गाँधी, नेहरू, आज़ाद के विचारों से प्रेरित इन महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उस कठिन समय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इन महिलाओं के साथ हम किसी एक प्रदर्शनी, एक बैठक, एक तस्वीर और दो-चार शब्दों से न्याय नहीं कर सकते। उम्मीद करते है कि ऐसे आयोजन आगे और भी होंगे।
समन हबीब | फोटो: भरत तिवारी

इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान दे रहीं, 21 महिलाओं को सम्मानित भी किया गया :
अनीस किदवई, अतिया फ़ैज़ी, अतिया हुसैन, अज़ीज़ा इमाम, फातिमा इस्माइल, हमीदा हबीबुल्लाह, हजीरा बेगम, मोफिदा अहमद, मासूमा बेगम, मुमताज़ जहाँ हैदर, कुदसिया एज़ाज़ रसूल, कुदसिया ज़ैदी, रज़िया सज़्ज़ाद ज़हीर, सालेहा आबिद हुसैन, शरीफा हामिद अली, सईदा खुर्शीद, सफिया जानिसार अख्तर, सिद्दीका किदवई, सुरैया तैय्यबजी, ज़ेहरा अली यावर जंग और तएबा खेदिव जंग।

डा सईदा हमीद | फोटो: भरत तिवारी

बैठक के दौरान मुस्लिम वीमेंस फोरम की अध्यक्ष, योजना आयोग की पूर्व-सदस्य, प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं जानी मानी लेखिका डा सईदा हमीद ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं के बारे में अनेक तरह की रूढ़िवादी धारणाएं प्रचलित है. जिसके ज़िम्मेदार बहुत से कारण है, लेकिन सच्चाई इसके ठीक उलट है। भारत की अन्य सामाजिक सांस्कृतिक महिलाओं की तरह ही मुस्लिम महिलाओं की  भी अलग-अलग व्यक्तिगत पहचान होती है, जिन्हें प्रायः एकरूपता दे दी जाती है। उन्होंने आगे कहा कि मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे तीन तलाक़, हलाला, बहुविवाह और पर्दा प्रथा के अलावा भी हैं। डा हमीद ने आशा व्यक्त की कि ये परियोजना मुस्लिम महिलाओं के प्रति समाज में बनी रूढ़िवादी धारणाओं को तोड़ने  भ्रांतियों को दूर करने में मददगार साबित होगी। 


लैला तैयबजी ने अपनी माँ और परिवार के बारे में चर्चा की तथा पूछा कि क्यों मुस्लिम पहचान को राष्ट्रीय पहचान से अलग करके देखा जाता है?

समीना मिश्रा | फोटो: भरत तिवारी


सीमा मुस्तफा ने मुख्य वक्ता के तौर पर कहा कि प्रदर्शनी में शामिल महिलाओं ने आज से लगभग सौ साल पहले रूढ़िवादी धारणाओं तथा पुरुषवादी सत्ता के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की थी। उन्होंने कहा कि हमें असली आज़ादी उस वक़्त तक हासिल नहीं होगी जब तक हम मानसिक तौर पर आज़ाद न हों। अब हम पहले से ज़्यादा पूर्वाग्रही तथा पहले से कम स्वतंत्र सोच के हो गए है। आज़ादी के समय जो उन लोगों के विचार थे वो आज से कहीं ज़्यादा स्वतंत्र था निष्पक्ष थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि अब लड़ाई पहले से ज़्यादा कठिन हो गई है। और हम लोग इसमें साल दर साल पिछड़ते चले जा रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दों को केवल मुस्लिम महिलायें ही नहीं बल्कि समाज के सभी वर्गो की महिलाओं द्वारा उठाना जाना चाहिए। 


 — अमीना रज्ज़ाक 

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