The Best Hindi Story On Depression उदास नीले दिन - Joyshree Roy


...कभी-कभी होश में रहना कितना कठिन लगता है! जी चाहता है हमेशा के लिए नहीं तो कुछ देर के लिए मर जाय! मोर्ग के ठंडे ड्राअर में कोई रख दे कफन में लपेट कर। भट्टी-से सुलगते माथे को जरा ठंडक मिले, सांस ना लेनी पड़े कुछ दिन... 

डिप्रेशन, इस शब्द से इतना भय है कि इसे बोलना भी नहीं चाहता. यह भय उस मानसिकता को दिखाता है जिसमें यह पता है कि डिप्रेशन से जुड़ी किसी भी बात से किसी भी तरह दूर रहना है. जयश्री रॉय की कहानी 'नीले उदास दिन...' में यह भय शब्दों में ऐसे बयान होता है कि मैं इसे 'द बेस्ट हिंदी स्टोरी ऑन डिप्रेशन...' लिखे बगैर नहीं रह पाता. अवसाद से बड़ी क्या बीमारी होगी और इस कहानी से अधिक अवसाद क्या है का ख़ुलासा और क्या होगा. 

वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल अपनी फेसबुक वाल पर लिखती हैं : 
हंस में प्रकाशित जय श्री राय की कहानी ‘उदास नीले दिन‘ एक बेहतरीन कहानी - अवसाद के चिकने काले तरल अंधेरों की शिनाख्त करती.
अवसाद कैंसर से भी बुरा मर्ज है, लाइलाज, और आधुनिक संस्कृति का बाय प्रोडक्ट।

मन की भीतरी परतों का मार्मिक विश्लेषण।

आपका
भरत एस तिवारी 
The Best Hindi Story On Depression उदास नीले दिन - Joyshree Roy
The Best Hindi Story On Depression उदास नीले दिन - Joyshree Roy 





The Best Hindi Story On Depression उदास नीले दिन - Joyshree Roy 

A Hindi Shorty story on depression उदास, नीले दिन...

जयश्री रॉय

अनुमेहा... मैं तुमसे प्यार करता हूँ... तुमसे, सिर्फ तुमसे... अनुमेहा... शिशिर की आवाज धुयें में डूबे पहाड़ों से टकरा कर हर तरफ ध्वनित-प्रतिध्वनित होती है। धारासार बारिश में भीगता जंगल स्तब्ध खड़ा रहता है, पहाड़ी झरने उफन कर बहते हैं, हवा का उन्माद वादी में चीखता फिरता है- अनुमेहा...!

अनुमेहा की आँखों के सामने व्हात्सएप का चमकता स्क्रीन धीरे-धीरे धुंधला पड़ जाता है। साथ शिशिर का हाथ भी!

प्यार में कुछ बातें कहने के लिए होती है। निभाना अलग बात! उसने उसे कभी नहीं आजमाया। वक्त आने पर वह खुद ही टूट गया। मृणाल को सुन कर ताज्जुब नहीं हुआ था, बकौल उसके, अधिकतर मर्द सामंती मानसिकता के होते हैं। अपनी पत्नी को छोड़ना आसान नहीं होता उनके लिए। आखिर मालिक होते हैं उनका! फिर अनुकूलन, संस्कार... एक तरफ पूरी दुनिया, दूसरी तरफ अकेला प्यार! हारेगा तो प्यार ही न!

शिशिर ने अपने हॉली-डे से हमेशा की तरह विडियो भेजा है, उसे पुकारते हुये! बरसाती पानी से भरे हुये चश्में में उसका हाथ मछली-सा चमकता है, अपनी मुट्ठी खोल कर वह उसे दिखाता है- देखो अबरक! यहाँ की जमीन में खूब है, पानी का तल चमक रहा, इनमें मुझे तुम्हारी आँखें दिखती हैं...

बारिश यहाँ भी हो रही। बरसात का मौसम है। एक गहरी गुनगुनाहट-सी हर तरफ छाई हुई है। वह फोन हाथ में लिए-लिए खिड़की खोलती है। नेपथ्य में गूँजती गुनगुनाहट अनायास एक तेज शोर में बदल जाती है। काँच के पल्लों के पार पसरा दोपहर के बाद का एक गहरा मटमैला आषाढ़ का दिन, सीलन और सड़ती लकड़ी की बू से भरा हुआ। कतार में भीगते बेडौल घरों के काई से भरे पिछवाड़े यहाँ से स्याह दिख रहे। एक कौआ अपने पंखों में सर दुबकाए सामने की मुंडेर पर बैठा है, गीली साड़ी-सी पूरे परिदृश्य से लिपट झिर-झिर बहती हवा से बेखबर। सब कुछ सिला, बोसीदा, पनियाया...।

शिशिर कहता है अक्सर, तुम्हारा नाम बड़ा नाजुक है, जैसे कांच का गहना। एहतियात से होंठों पर लाना पड़ता है। रोजमर्रे के इस्तेमाल के लिए बिल्कुल नहीं। सुन कर वह हँसती है- तो फिर कब इस्तेमाल कर सकते हैं? शिशिर गंभीर बना फलसफे पर उतर आता है- जब लहू के नमक को पूर्णिमा का पूरा चाँद पुकारता है और पागल समंदर दौड़ता है आकाश की तरफ सारी हदों को तोड़ कर, ठीक तब, बहुत धीरे से, इस तरह कि खुद भी ना सुन पायें, पुकारा जाता है- अनुमेहा... यह आवाज बाहर नहीं, भीतर- रूह की तरफ उतरती है, प्राण वायु की तरह!

अपनी शिराओं में फैलते इस पुकार के मद्दिम गुंजार को वह हर पल सुनती है। तभी कहीं भी, किसी क्षण अचानक चलते-चलते रुक जाती है, मुड़ कर देखती है, यह जानते हुये भी कि कहीं कोई नहीं होगा! समय के इस बुरे दौर में उसकी परछाई तक खुद को समेट कर जाने कब चली गई है। मुद्दतों से वह आवाजों के इस भूलभुलैया में भटकी टिटहरी-सी अकेली जी रही है, एक नामालूम-सी उम्मीद में कि कभी तो यह आवाज आकार लेगी, उसे छूयेगी उन सिंकी उँगलियों की तरह जिनसे उसने इस तरह प्यार किया है!

बिस्तर के दूसरी तरफ ड्रेसिंग टेबल के आईने में वह मुड़ कर खुद को देखती है। अपनी नजर से। इस औरत को देखभाल की, प्यार की ज़रूरत है- आज सुबह ही नोट पैड के ‘टु डू’ लिस्ट में जोड़ा था उसने! मॉर्निंग वाक, नींबू पानी, ग्रीन टी, योगा... “साथ इंच भर हंसी, दो चुटकी खुशी, एक जादू की झप्पी...” कहते-कहते मृणाल उससे लिपट जाती। त्वचा पर अनायास फैल आए ऊष्मा के मसृण संजाल से वह भीतर ही भीतर आतंकित हो उठती, बहुत गहरे कुछ झनझनाता है गिरी थाल की तरह मगर निर्विकार भाव से वह अपनी काउंसिलर दोस्त से कहती, तुम तो बस मुझे मेरी नींद की पुड़िया देती रहो, यह मीठी गोलियां अब काम नहीं कर रही!

मृणाल उसकी बचपन की दोस्त है, और अब उसकी काउंसिलर भी। वह कहती है, अनुमेहा अवसाद में है- क्रोनिक डिप्रेशन! अनुमेहा नहीं जानती, मगर उसकी बात मान लेती है। वह जो-जो कहती है, करती जाती है, ठीक एक सर हिलाती गुड़िया की तरह। पिल्स निगलती है, थेरापी सेशन अटेण्ड करती है, योगा क्लास जाती है। अपने आसपास रात-दिन घिरी रहने वाली इस मटमैली, नीली दुनिया से वह अब किसी भी तरह निकल जाना चाहती है, खुश होना चाहती है। इस तरह गीली लकड़ी की तरह रात-दिन धुआँते हुये जीया नहीं जाता। भीतर काई-सी जम गई है। कुछ सड़ रहा नसों में। बहुत गहरे कहीं एक अंधा कुआं डबडबाता रहता है हर समय...

उसे रात से डर लगता है! अपना कमरा एक डेथ चेम्बर! उसमें एकांत की भीड़ होती है, सन्नाटे का शोर!- चाकू की फाल की तरह धारदार! चिंथता हुआ! सब उसे घेर कर प्रेतात्माओं की तरह नाचते हैं! कमरा बेडौल छायाओं से भर जाता है।

पहले उन रातों का साथी शिशिर हुआ करता था। सोने नहीं देता था किसी तरह उसे। कितनी बातें हुआ करती थी उसके पास। बात-बात पर भाग आता था उसके पास। वरना चैट पर लगा रहता था। अब हर दूसरे शब्द के बाद सन्नाटा खिंच जाता है। पूछता रहता है, और? उनके बीच की बातें बहुत दिन हुए खत्म हो गई हैं। शिशिर की तरफ से। उसकी तरफ से बचे रह गए हैं सवाल, ढेर-से या यूं कहें, बकौल शिशिर- शिकायतें! शिकायतों का जवाब सिर्फ अपमान होता है, खींज और गुस्सा...

इंसान तभी तक सच बोलता है जब तक उसके पास झूठ बोलने के लिए कुछ होता नहीं है। उसे खुद पर हैरानी होती है, वह इतनी बेशर्म कब से हो गई! प्रेम इंसान को इस हद तक गिरा देता है कि उसमें आत्म सम्मान तक नहीं बचता!

जब तक हो सकता है, वह अपने कमरे से दूर रहती है। मगर आखिर उसे जाना ही पड़ता है। देर रात गए वह अपने कमरे में इस तरह दाखिल होती है जैसे कभी लोग गैस चेम्बर में दाखिल होते होंगे। घिसटते पैरों से। आँख बंद करते ही अंधेरा घिर आता है और उसे प्रतीत होता है वह किसी अतल कुएं में धँसती जा रही है। कनकनाता काजल काला जल हरहरा कर चढ़ता है और वह उसमें डूबती जाती है- कमर तक, सीने तक, चिबुक तक... उसके फेफड़ों में ठंडा पानी भरने लगता है और वह घबरा कर आँख खोल देती है।

इसके बाद उसकी हिम्मत नहीं होती आँख बंद करने की। टकटकी लगाए छत को घूरती रहती है सुबह तक। काँच की खिड़कियों पर जमा अंधकार जब भोर होते-होते फीका पड़ता है और उसकी आँखें खुद झँप जाती है, तब कहीं जा कर वह सो पाती है। फिर सोती रहती है देर तक। नींद पूरी होने का एहसास उसे कभी नहीं होता। उसका वश चले तो वह कभी उठे ही ना। सुबह का उजाला देख उसमें अवसाद भर आता है- ओह! एक और दिन!

... कुछ इसी तरह अपनी फीलिंग्स समझाने की कोशिश की थी उसने मृणाल को, जब बहुत मुश्किल से बात करने के लिए तैयार हो पाई थी पहली बार। यह सब आसान नहीं था उसके लिए- खुद को उघाड़ना, अपने ककुन से बाहर आना! एक नवजात बच्चे की तरह, जो कोख की गरम, सुरक्षित दुनिया से बाहर निकलते ही बेइंतिहा वलनरेवल हो उठता है और फेफड़ों में हवा भर कर पूरी ताकत से रोता है। कुछ-कुछ वैसा ही लगा था उसे।

निकलने की कोशिश में पहली बार जाना था, बीते कुछ सालों में अपने ही अंजाने कैसे-कैसे जाले बुन लिए हैं उसने खुद के आसपास, कितनी मोटी, मजबूत दीवारें खड़ी कर ली है! यह अपनी कैद थी। खुद को तोड़ कर निकलना आसान नहीं होता।

“अपनी राख़ से पुनर्जीवित हो निकलना है तुम्हें, ठीक फिनिक्स पंछी की तरह!” उसकी आँखों में झाँकते हुये उस दिन मृणाल उस पर झुक आई थी। वह चुपचाप देखती रही थी उसे। एक अजीब-से एहसास से गुजर रही थी वह उस क्षण जिसे शब्दों में कहना कठिन था। भीतर की इस अपनी दुनिया के प्रति अब तक बहुत प्रोटेक्टिव रही है वह। यह उसका घोंसला है, उसका घर! कहाँ-कहाँ से दुख जोड़े, आसूं सहेजे... मोह क्या सिर्फ सुख का होता है! दुख से भी मोह हो जाता है। रोने की, उदास रहने की आदत! रातों को जागने की आदत, अपने खंडहरों में अभिशप्त आत्माओं की तरह भटकने की आदत... इन्हें हीरे-मोती की तरह अब तक वह सबकी नजरों से छिपाती रही है। जो है, जैसा है, अपनी कमाई है!



मृणाल कहती रही थी, तुम डिनायल में जी रही हो अनु! सबसे पहले यह स्वीकार करो कि प्रोब्लेम है तभी समाधान निकलने की सूरत बनेगी। डोंट रन! कंफ्रंट! होल्ड द बुल बाइ इट्स होर्न्स! उस दिन वह भागते-भागते अचानक रुक गई थी- सच! और भागा नहीं जाता, खुद से भागा नहीं जाता... जन्म भर की क्लांति लिये वह ढह पड़ी थी- मुझे बचा लो मृणाल! मैं जीना चाहती हूँ! मृणाल ने उसका हाथ दबाया था- मैं या कोई और नहीं, तुम्हें बस तुम खुद बचा सकती हो! अपने आप पर यकीन लाओ। जानती हो, सेल्फ रिजेक्शन हर ज़ेहनी बीमारी की जड़ में होता है? तो पहले खुद को स्वीकारो, खुद से प्यार करना सीखो।

“कैसे?” पूछते हुये वह अस्त-व्यस्त हो उठी थी। एक बार फिर प्यार करना होगा! वह भी खुद से... यह सजा उसे बार-बार क्यों मिलती है! प्यार तो बस दुख देता रहा अब तक। मृणाल उसकी सोच उसके चेहरे पर पढ़ती रही थी शायद, तभी कहा था- रोज खुद से कहो, आईने के सामने खड़ी हो कर- आई लव मायसेल्फ!

दूसरे दिन सुबह वह आईने के सामने खड़ी रही थी देर तक, मगर कुछ कह नहीं पाई थी। जो काँच पर प्रतिबिम्बित है उसे वह क्या, किसी ने भी प्यार नहीं किया आज तक, उसकी अपनी माँ तक ने नहीं! उसने तो उसे जन्म दिया था...! एक आवाजों का शोर भीतर गडमड होता रहता है, साथ शिशिर की साँप की तरह हिशहिशाती आवाज- यू स्टुपिड वुमन...! जिसे जिंदगी की तरह प्यार किया है, उस आवाज का दंश सहता नहीं। उसे सोच कर हैरत होती है, यह कभी मखमल-सी मुलायम हुआ करती थी उसके लिए! अब सब कुछ किसी और जनम की बात लगती है।

अपनी तरफ उठी उन सख्त आँखों में कब उसकी खुद की आँखें शामिल हो गईं, उसे पता भी नहीं चला- जिससे उसके अपने भी प्यार नहीं करते उससे वह कैसे प्यार करे! वह अच्छी नहीं, सचमुच अच्छी नहीं... उसने खुद को ठुकरा दिया, हमेशा के लिये!

तब से एक बहुत मुश्किल सफर में है वह। ऐसा सफर जिसमें ना पाँव है ना हौसला। अगर कुछ है तो बस अनिश्चय और संशय। जीवन के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक अब तक चलते हुये साथ अगर कुछ रहा तो बस यही दीमक-सा परत दर परत कुरेदता अकेलापन और विशाल बरगद की तरह अग-जग फैली नीली उदासी की पसलियों में गहरे तक धँसी जड़ें...

वह हर भीड़ में नितांत अकेली बनी रही, अपनों के बीच अजनबी। तब कहाँ जानती थी, यह भी किसी मन के रोग के सूक्ष्म संकेत हैं! मृणाल ने ही कहा था एक दिन, निरंतर अकेलेपन का एहसास, अजनबीयत एक मानसिक अवस्था भी होती है! तुम नाखून चबाना, पैर हिलाना बंद करो अनु, यह नर्वस मैनेरिज़्म है!

उस एक दिन के बाद वह मृणाल से बचती रही थी। उसे ठीक नहीं होना। बीमार है तो बीमार सही! उसे अपनी इस दुनिया की आदत है। पिंजरे में वर्षों से बंद किसी पंछी की तरह वह बार-बार दरवाजा खुलने की संभावना से आतंकित अपने भीतर लौटती रही। एक तरह का प्रच्छन्न सुरक्षा बोध है इसमें- परिचय का, नितांत अपने होने का...।

मृणाल ने कई सवाल रखे थे उसके सामने- अकेला लगता है? सब कुछ अर्थहीन, होपलेस? कभी मर जाने का ख्याल आया? वह खिड़की से बाहर देखती हुई ना में सर हिलाती रही थी। ऐसा करते हुये उसके भीतर एक सन्नाटा खिंच गया था। एक ठंडी निर्लिप्तता, जिद्द, गुस्सा- वह किसी के हाथ नहीं आएगी, कभी नहीं! उसे पकड़ कर दिखाये कोई! मृणाल के चेहरे पर गहराती झुंझलाहट उसे भीतर ही भीतर एक अनाम हिंसक खुशी से भर देती है- मृणाल का मनोविज्ञान, काउंसिलिंग- सबको छ्का देगी वह, उसकी दुनिया में किसीको आने की अनुमति नहीं!

बिना कुछ किए उसे गहरी थकान होती है, स्लिप डिस्क और सियाटिका का दर्द उसे चलने-फिरने नहीं देता, नींद और थकान के बावजूद रात भर सो नहीं पाती, भूख में शुगर गिर हाथ-पैर काँपते हैं मगर मुंह में कौर डालते हुये उबकाई आती है... उसने यह सारी बातें मृणाल को नहीं बताई थी। वह इन्हें भी उसके डिप्रेशन के खाते में डाल देती। जैसे अब तक उसके किसी भी काम में मन ना लगने, तेजी से वजन गिरने और सोफे पर पड़े-पड़े घंटों टीवी देखने की आदत को डिप्रेशन के लक्षण बता चुकी थी।

पीने की बात सुनती तो उस पर ठप्पा ही लगा देती। वह नहीं समझेगी, कभी-कभी होश में रहना कितना कठिन लगता है! जी चाहता है हमेशा के लिए नहीं तो कुछ देर के लिए मर जाय! मोर्ग के ठंडे ड्राअर में कोई रख दे कफन में लपेट कर। भट्टी-से सुलगते माथे को जरा ठंडक मिले, सांस ना लेनी पड़े कुछ दिन...

ऐसे ख्याल अक्सर सुबह आते हैं। बारिश की बैजनी रंग में नहाई सुबह, भीगी पारिजात की पनियाई महक, मुँडेरों पर बैठ कर चुपचाप भीगते पंछी उसे अंदर तक बोझिल कर देते हैं। उसे लगता है, वह किसी गहरे ताल के काले जल में डूब-उतरा रही है। उसके फेफड़ों में सेवार ठूंस कर भरे हैं और सांस के लिए गलफड़े खोल कर तरफराती किसी मछली की तरह वह धीरे-धीरे मर रही है। वह यह बात आज तक किसी को बता नहीं पाई है। लोग पूछते क्यों? वह क्या जवाब देती! कुछ सवाल हमेशा सवाल ही रहते हैं, उनके जवाब नहीं होते।

मृणाल ने कहा था, पॉज़िटिव सोचो, अपने अच्छे दिनों को याद करो। जो भी अच्छा, सुंदर घटा हो जीवन में।

“और दुख, तकलीफ, हादसे?”

उसके सवालों ने अधैर्य कर दिया था मृणाल को- “अगर रिसाइकल नहीं कर सकती, उन्हें झाड़ू से बुहार कर कचड़े में फेंक आओ! हल्का करो खुद को, जाने क्या-क्या इकट्ठा कर पूरा कबाड़ घर बनी बैठी हो!”

इतना सहज है क्या यह सब! वह सोचती है मगर मृणाल से बहस नहीं करती। कैसी विडम्बना है कि सुख की स्मृतियाँ भी अंततः दुख देती हैं। याद दिलाती है कि जो कुछ भी जीवन में खूबसूरत था, अब कभी नहीं लौटेगा...

उसने कोशिश की- घर रंगवाया, पर्दे बदले, रोशनी का अरेंजमेंट दुरुस्त किया- दूधिया और गरम पीली रोशनी का सम्मिश्रण! यह सोचते हुये कि काश! खुद के साथ भी यह सब किया जा सकता! मृणाल ने कहा था- नीला, ऑफ व्हाइट नहीं! चटक, वाइव्रेंट रंग- पीला! ओसन ग्रीन, क्रीम! बैनगाग, पिकासो की पेंटिंग्स बिलकुल नहीं, यह तुड़े-मुड़े नक्श, फटी आँखें, धूसर आकाश, अनगढ़, बेडौल आकार... पंछियों, बच्चों, फूलों की तस्वीरें लगाओ- दमकता हुआ सूरजमुखी, चमकीली, सुनहरी लिली...

गुलदान में लिली सजा कर वह अपने भीतर की ऊसर जमीन पर फूलों की आहट लेती बैठी रही। मौसम कितना भी बुरा हो, कभी तो बदलता है!... कहते हैं सब!

बेहतर महसूस करने के लिए उसने अपना हेयर स्टाइल बदला, वार्डरोब में नए कपड़े जोड़े। मृणाल ‘टु डु’ लिस्ट में रोज एक नई बात जोड़ती जाती- किसी के लिए उपहार खरीदो, परिचितों को फोन करो, फुर्सत में बैठ कर अपने गहने देखो, गीत सुनो. सैड सॉन्ग नहीं, रोमांटिक! इन्सट्रूमेंटल, क्लासिकल! आरोमा थेरेपी भी बहुत अच्छा काम करता है। उसने ऑन लाइन ऑर्डर करके एसेंशियल ऑइल मंगवाया था, घर पर एक लड़की सप्ताह में तीन दिन मसाज देने आने लगी थी।

इन सब के बाद वह अपनी खुशी के इंतजार में बैठी रहती मगर जेहन में छाया नीला धुंध नहीं छंटता! मृणाल ने कहा था, यह प्रेम नाम की जो बीमारी पाल रखी हो, इससे पहले पीछा छुड़ाओ, इसने तुम्हारी सारी खुशियों में कैंसर की तरह अपनी जड़े फैला रखी हैं!

पहली बार उसे तस्वीर में एकदम अलग साज-सज्जा में देख शिशिर चौका था- अरे! यह क्या हाल बना रखा है! प्लाजों, क्रॉप टॉप, मेजेंडा लिपस्टिक... नहीं... तुम पर फब रहा, बस जरा लिपस्टिक... वह झेंपते हुई बाथरूम जा कर लिपस्टिक पोंछ आई थी। रंग देह पर पोत लेने भर से मन पर नहीं चढ़ता!

उस रात वह कमरे के आईने के सामने खड़ी खुद को तेज रोशनी में देखती रही थी- कनपटियों से पकते बाल, आँखों के नीचे स्याह घेरे, गले पर सिकुड़ती त्वचा... अड़तालीस की है वह! यही है उसकी सच्चाई! अब वह भूलना नहीं चाहती।

मगर इन सब के बीच शिशिर के शब्द कौंधते हैं- तुम्हें ले कर मेरे मन में एक जबरदस्त ललक है! उस ललक का रंग इतनी जल्दी धूसर कैसे पड़ गया! अब उसकी ओर जो उठती हैं उन आंखों की नजर मुर्दा है, एकदम तापहीन...

मृणाल कहती है, पॉज़िटिव सोचो। क्या है पॉज़िटिव सोच? सच्चाई से पीठ फेर कर, कबूतर की तरह आँख मूँद कर यकीन करना कि सब ठीक है? वह सब कुछ नहीं घट रहा या जीवन में नहीं है जो है? इससे बेहतर क्या यथार्थ को स्वीकार कर उसका सामना करना नहीं है? वह बीमार है, एक तरह से अपाहिज है, अधेढ़ हो चली है! उससे अब कोई दीवानावार मुहब्बत नहीं कर सकता, उसके लिए दुनिया-जहान नहीं छोड़ सकता...

गहराती धुन्ध में शिशिर के शब्द रह-रह के चमकते है- तुम, सिर्फ तुम अनु! कोई भी, कुछ भी तुमसे बढ़ कर नहीं! तुम्हारे हर निर्णय में तुम्हारे साथ हूँ! तुम्हारे लिए दुनिया छोड़ दूंगा, कभी भी, बस एक बार कह कर देखना...

इन शब्दों पर उसने कभी विश्वास नहीं किया था। प्यार में कुछ बातें कहने के लिए होती है। निभाना अलग बात! उसने उसे कभी नहीं आजमाया। वक्त आने पर वह खुद ही टूट गया। मृणाल को सुन कर ताज्जुब नहीं हुआ था, बकौल उसके, अधिकतर मर्द सामंती मानसिकता के होते हैं। अपनी पत्नी को छोड़ना आसान नहीं होता उनके लिए। आखिर मालिक होते हैं उनका! फिर अनुकूलन, संस्कार... एक तरफ पूरी दुनिया, दूसरी तरफ अकेला प्यार! हारेगा तो प्यार ही न!

शिशिर को झूठ बोलते देख उसे अब भी दुख होता है मगर यह सोच कर तसल्ली कर लेती है कि कम से कम झूठ तो बोल रहा, कहीं कुछ लिहाज है! यह भी क्या कम है! उसकी बात सुन मृणाल बेतरह हँसी थी- वाकई पॉज़िटिव थिंकिंग! उस बिना पेंदी के लोटे की हरामजदगी में इंसानियत ढूंढ निकाला है!

देर से मिले थे दोनों- वह और शिशिर। उस पर अपनी माँ और छोटे भाई की ज़िम्मेदारी थी। भाई के पढ़-लिख कर नौकरी में लगते-लगते वह चालीस की हो चुकी थी। सालों ज़िम्मेदारी के बोझ से झुकी एक दिन अनायास वह हर तरह से आजाद हो गई। आजाद और खाली! भाई ने नौकरी लगते ही अपनी प्रेमिका से शादी कर अलग घर बसा लिया। माँ इसके कुछ दिन बाद ही चल बसी।

जिस दिन भाई अपनी पत्नी के साथ चला गया, वह पागलों की तरह रात भर जाग कर सारे घर में घूमती रही। अचानक कितना बड़ा हो गया था यह घर! भायं-भायं करते खाली बरामदे, कमरे, रसोई... पहले हर बात के लिए जगह कम पड़ती थी।

उस दिन डायनिंग टेबल के एक सिरे पर बैठ कर वह देर तक एक-एक कौर निगलने की कोशिश करती रही थी और अंत में थाली सरका कर उठ आई थी।

अकेले घर में हर आवाज शोर बन जाती है। उस रात सारे घर की बत्तियाँ जला कर सोई थी वह। अचानक अवचेतन में छिपे बैठे बचपन में सुनी कथा-कहानियों के भूत जिंदा हो कर बाहर निकल आए थे। उसे घेर कर रात भर नाचते रहे थे। सर से चादर ओढ़ कर वह काठ बनी पड़ी रही थी सुबह तक। एकदम पसीना-पसीना। बचपन में डर लगने पर माँ कहती थी राम का नाम ले। माँ का दिया वह भोला विश्वास भी तो ना रहा! कई बार उसने बिस्तर के खाली हिस्से को आदतन टटोला था। वहाँ पहले माँ होती थी। आश्वस्ति का वह आश्रय भी गया!

उस दिन की सुबह कितनी जर्द, कितनी नीली थी! बादल की महीन, मटमैली परतों के पीछे कहीं सूरज छिपा था। दिन के चढ़ने के साथ-साथ क्षितिज में एक सफेद धब्बा काँपते हुये धीरे-धीरे फैलता रहा था। रोशनी जैसे सारी की सारी कोई स्याहीसोख सोख ले गया था। बारिश से पहले की उमस, एकदम थमकी-सी हवा और भरी हुई चुप्पी...

उसे लगा था इस सारी दुनिया में वह एकदम अकेली है। उसके सिवा कहीं कोई जिंदा इंसान नहीं। चलते-चलते वह दुनिया के आखिरी छोर पर पहुँच गई है और आगे बस आकाश से पाताल तक हरहराता हुआ एक गहरा नीला शून्य है... रीढ़ पर साँप की तरह फिसलते एक तेज डर के एहसास ने उसे यकायक किसी स्याह गिलाफ की मानिंद सारा का सारा निगल लिया था। वह बच्चों की तरह माँ को पुकारते हुये रोती रही थी। उस दिन उसे चुप कराने कोई नहीं आया था। हर बोझ, ज़िम्मेदारी से छूट जाने की यह एक बहुत बड़ी कीमत थी...!

शिशिर उन्हीं दिनों मिला था उसे। वह तो हमेशा की तरह बगल से बच कर निकल जाती मगर शिशिर रास्ता रोक कर खड़ा हो गया था सामने। उसे रुकना पड़ा था या कि रोक ली गई थी। शिशिर की बातों में जादू था। उसने क्या-क्या कहा था अब तो याद नहीं मगर उसकी तासीर अब तक बनी हुई थी। उसने कहा था, बहुत देर से मिले हम, मगर अब जो मिल गए हैं, एक पल नहीं गंवाना है! शिशिर पैतीस साल का था और उस जैसे योग्य लड़के का अब तक अविवाहित रहना अनुमेहा को कुछ अजीब लगा था। शिशिर ने बस इतना ही कहा था- मुझे तुम्हारा इंतजार था अनु!

दूसरी मुलाक़ात में शिशिर उसके घर आया था और रात ठहर गया था। वह कुछ कर नहीं पाई थी। शिशिर की जिद्द ने उसे एक तरह से विवश कर दिया था। उसने उसके हाथ अपने हाथ में ले कर कहा था, जाने कब से बेघर हूँ, अपने आश्रय में रहने दो अनु...

दूसरा दिन रविवार था और अलस्सुबह शिशिर के जाने के बाद भी वह चादर में सिमटी-सिकुड़ी सारा दिन पड़ी रही थी। नहाई तक नहीं थी कि देह से आती शिशिर की महक खत्म ना हो जाय। शाम होते-होते शिशिर फिर आया था और उसकी बासी पड़ती देह गंध में अपनी ताजगी एक बार फिर उड़ेल दी थी।



वे दिन जादू भरे थे। शिशिर ने उसे अपने प्यार से जैसे नहला दिया था। वह फूल मांगती तो वह चाँद-तारे तोड़ लाता, जिधर पाँव रखती, अपनी हथेलियाँ बिछा देता। रात-दिन, सुबह-शाम- अपने हर तरफ वह शिशिर को पाती, उसके लिए प्यार में छलकते हुये, इंतजार में, बेचैन...

हर दूसरे मिनट नोटिफिकेशन कि घंटी बज उठती, फोन बजता रहता- क्या कर रही हो? खाया? और सुबह का नाश्ता? देखो, ठीक से खाया-पीया करो। आजकल तुम बहुत लापरवाह होती जा रही हो! और कुछ नहीं तो दस बार ‘मिसिंग’! ऑफिस में सब उसकी तरफ देखने लगे थे। वह अब फोन म्यूट ही रखती। कितने मैसेज- कविता, कोट्स, वॉइस क्लिप्स, तस्वीरें...

इतना प्यार, तवज्जोह उसे जीवन में इससे पहले कभी नहीं मिला था। इसलिए सब कुछ अच्छा-अच्छा लग रहा था। लगता था, वह कोई राजकुमारी है, उसके सर पर ताज धरा है। सुबह घंटी बजा कर कोई कूरियर वाला फूलों का गुलदस्ता, चॉकलेट थमा जाता तो शिशिर खुद रोज कोई ना कोई उपहार ले कर हाजिर हो जाता। कुछ ही दिनों में उसकी अलमारी उपहारों से भर गयी थी। बिस्तर पर भी शिशिर उसे कुछ ऐसा ही महसूस कराता था। उसका स्पर्श उसकी त्वचा पर फूलों की तरह कोमल और चाहना भरा होता था।

शिशिर ने उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठा ली थी। उसका एक-एक काम खुद करने की जिद्द करता। वह पूछती फिर वह क्या करेगी तो कहता, तुम्हारा एक ही काम है, मुझसे प्यार करना और इसी तरह खूबसूरत बनी रहना। गीत सुनो, पार्लर जाओ और शाम को तैयार हो कर मेरा इंतज़ार करो।

शुरू-शुरू में यह सब बहुत अच्छा लगता रहा था उसे। मगर धीरे-धीरे एक असहज करने वाली अनुभूति उसे घेरने लगी थी। क्या, वह ठीक ठीक समझ नहीं पा रही थी। बचपन से वह स्वावलंबी रही है। अपना हर काम खुद करने की आदत है उसे। यह विवशता से ज्यादा स्वभाव है उसका।

मगर अब प्यार और केयर के नाम पर जैसे उसकी सारी ज़िंदगी पर कब्जा किया जा रहा था। एक-एक कर उसकी सारी चीजों पर शिशिर का अधिकार हो गया था। किसी भी मामले में मुंह खोलने से पहले ही शिशिर उसे चुप करा देता- तुम क्यों परेशान होती हो, मैं हूँ ना! मुझ पर छोड़ दो। बहुत प्यार मगर सख्ती से कही गई इन बातों का वह चाह कर भी विरोध नहीं कर पाती।

वह कनफ्यूज्ड-सी बैठी रही थी जब मृणाल ने कहा था, जिसे तुम केयर समझ रही हो वह दरअसल किसी को डोमिनेट करने, उस पर वर्चस्व बनाये रखने के तरीके हैं। स्वावलंबी औरतें मर्दों को भाती नहीं। इस बात को समझो, हर तरह से निर्भर इंसान ही हर तरह से काबू में रहता है!

शिशिर बला का संवेदनशील था। जरा-जरा-सी बात पर बुरा मान जाना, दिनों तक मुंह बनाए रखना और रोना कुछ ऐसी बातें थीं जो अनुमेहा को असमंजस में डाल देती थी। वह समझ नहीं पाती थी इन्हें कैसे हैंडल करे। एक बार किसी बात पर उत्तेजित हो कर उसने टेबल पर हाथ मार-मार कर खुद को जख्मी कर लिया था।

उस दिन वह सचमुच डर गई थी। यह एक नया ही रूप था उसका। एग्रेसिव, वायलेंट! मगर उस दिन तो हद ही हो गई थी जिस दिन किसी छोटी-सी बात पर शिशिर ने उसे पीट दिया था। जोरदार थप्पड़ से उसका निचला होंठ फट गया था और रीडिंग ग्लास गिर कर टूट गया था।

दर्द से ज्यादा वह सदमे में थी। वह सोच ही नहीं सकती थी की शिशिर कभी उस पर हाथ उठाएगा। मगर दूसरे ही क्षण शिशिर के चेहरे का रंग बदल गया था और उसने उसके पैर पकड़ लिए थे। इसके बाद घंटों वह उसे मनाता रहा था, आँखों में आँसू भर कर उससे माफी मांगी थी, फिर कभी ऐसी गलती ना दुहराने की कसम खाई थी और आखिर उसे बिस्तर में ले जा कर रात भर प्यार करता रहा था।

आखिर तक अनुमेहा का मन साफ हो गया था। गलती किसी से भी हो ही सकती है। मगर तब उसे कहाँ पता था, ऐसी गलतियाँ कभी आखिरी बार नहीं होती। एक बार शुरूआत हो गई तो बार बार होती है। यह स्वभाव और मानसिकता की बात है।

इसके बाद जब भी शिशिर ने उस पर हाथ उठाया था, उसी तरह माफी मांगी थी, बार-बार फिर कभी ऐसी जुर्रत ना करने की कसम खाई थी और बिस्तर पर उसे प्यार से नहलाते हुये बताया था, वह उससे प्यार करता है, तभी हाथ उठ जाता है। आखिर मर्द उसी पर हाथ उठाता है जिसे अपनी समझता है।

एक बड़ी चील की परछाई-सा अंधेरा धीरे-धीरे उतरा था उसके जीवन में। इसका अहसास तब हुआ था जब रोशनी का आखिरी कतरा तक जर्द पड़ गया था। हर संबंध का शायद एक हनीमून पीरियड होता है। उनका भी था जो धीरे-धीरे गुजरने लगा था। इस तरह कि अनुमेहा देख कर भी समझ नहीं पाई। जिन शब्दों के फूलों भरे गलीचे पर वह चल रही थी, उसके नीचे बारूदी सुरंग बिछा है, वह सोच नहीं पाई थी।

हर तरह से अकेले मन पर शिशिर का ऑब्सेशन हर पल छाया रहता था। हर काम के बीच उसे उसके शब्द याद आते- हमारे बीच ‘हमारा-तुम्हारा’ जैसा कुछ नहीं। वह एक हैं। अब जो वह आ गया है, अनुमेहा की सारी ज़िम्मेदारी उसकी।

उसने उसका नेट बैंकिंग, ईमेल, फेसबुक- सबका पासवर्ड ले लिया था। अनुमेहा को यह सब सहज नहीं लग रहा था। उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जिसे छिपाने की जरूरत पड़े मगर यह उसकी निजता का प्रश्न था। मगर शिशिर इस अधिकार और प्यार से मांगता कि उसके ना कहने की गुंजाइश नहीं बचती। शिशिर की हरकतें अब उसे डराने लगी थीं। उसकी अनुपस्थिति में जल्दी-जल्दी वह उसका फोन चेक करता और फिर हर बात को अपने ढंग से ले कर उससे घंटों झगड़ा करता।

शिशिर बेहद स्वस्थ और ऊर्जा से भरा हुआ था। सारी रात जाग कर भी दिन भर तरोताजा रहता मगर अनुमेहा के लिए उसके साथ चैट में रात-रात भर जग कर सुबह ऑफिस जाना कठिन हो गया था। वह अपने टेबल में बैठी-बैठी कई बार ऊंघ जाती।

उसकी लापरवाही और हर समय फोन पर लगे रहने व अपने टेबल से अनुपस्थित रहने की कहानी अब हर तरफ फैल चुकी थी। प्रमोशन का समय आ रहा था और वह समझ गई थी, उसे इस बार प्रमोशन नहीं मिलने वाला। बॉस हर दूसरे दिन अपने केबिन में बुला कर उसे डांटने लगा था।

शिशिर हर क्षण जैसे हर जगह उपस्थित होता था। व्हात्सप्प, मैसेंजर, फेस बुक- वह जब भी जहां जाती उसे ऑन लाइन पाती। उसके पहुँचते ही वह भी हाजिर हो जाता और मैसेज भेजने लगता- वह इस समय ऑन लाइन क्यों है, किससे बात कर रही है, उसके अमुक मैसेज का जवाब दस मिनट देर से क्यों दिया...

वह जानती थी उस वक्त शिशिर उसका भी अकाउंट खोले बैठा होगा इसलिए वह बहुत सावधानी से एक-एक सवाल का जवाब देती। कहीं कोई गलती होने पर शिशिर लड़-लड़ कर उसे पागल कर देता। अनुमेहा ने अनुभव किया, वह जैसे हर वक्त किसी इंटेरोगेशन चेम्बर में बैठी सफाई दे रही है।

इन बातों पर शिशिर की अंतहीन लड़ाई से वह इतनी आतंकित हो चुकी थी कि हाथ में फोन ले कर कुछ भी करने से पहले दस बार सोचती कि इस पर शिशिर की क्या प्रतिक्रिया होगी। अपना प्रोफाइल पिक्चर बदलने से पहले, पोस्ट डालने से पहले, किसी का फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार करने से पहले शिशिर की अनुमति लेनी जरूरी था।

उसके आग्रह अजीब-अजीब-से होते। जैसे कि उसके पोस्ट पर पहला लाइक वह करेगा। इसलिए पोस्ट डालने से ठीक पहले उसे बताना पड़ता ताकि वह पोस्ट होते ही उसे लाइक कर सके। । इस बीच अगर कोई और लाइक, कमेन्ट कर देता वह गुस्से से आग बबूला हो उठता और उससे पोस्ट डिलीट करने के लिए कहता और तब तक फिर-फिर पोस्ट करवाता रहता जब तक कि वह पहला लाइक, कमेन्ट नहीं कर देता। इसके बाद वह उसके पोस्ट के एक-एक कमेन्ट पर नजर रखता और कुछ भी नागवार लगने से अपने फेक अकाउंट से जा कर कमेन्ट करने वाले से झगड़ने लगता फिर उससे उस व्यक्ति को ब्लॉक या अंफ्रेंड करवा कर ही दम लेता।

ऐसा ना करने पर वह आ धमकता और फिर सारा आसमान सर पर उठा लेता। पहले झगड़ता, उसे पीटता या अपना सर दीवार से टकराता, चीजें तोड़ता-फोड़ता और फिर फूट-फूट कर रोता और अंत में ‘तुम मेरी हो अनु! सिर्फ मेरी’ कह कर रात-रात भर उसे पागलों की तरह प्यार करता, कई बार इस तरह और इतनी बार की उसे सीधी हो कर चलने में भी तकलीफ होती।

बहुत बाद में उसे समझ आया था, उसके कई फोन नंबरों की तरह कई फेक अकाउंट्स भी थे। एक साथ चार-चार अकाउंट्स से वह उससे बातें करता था। बहुत बाद में वह समझ पाई थी, शिशिर उसकी जासूसी करता है। उसकी सुरक्षा की बात कह कर उसके लाख मना करने पर भी उसने उसके घर के दरवाजे और बैडरूम में सीसी टीवी कैमरा लगा दिया था। एक बार तो उसे बाथरूम की झिरी से झांकते देख स्तब्ध रह गई थी। यही नहीं, वह उसके इस्तेमाल किये हुए अंतर्वस्त्र भी चुराता रहता था।

बार-बार उसमें यकीन करने की बात करते हुये उसकी कही हर बात को सौ तरह से चेक करना उसकी आदत था। इसके अलावा जो भी उसके करीब आने की कोशिश करता, शिशिर उससे चिढ़ जाता और जब तक उससे वह दूरी ना बना लेती, उसे चैन नहीं मिलता।

शिशिर ने अपने बैंक, फेसबुक के पास वर्ड्स भी जबरन उसे थमाए थे। यह कह कर कि मेरे जीवन की हर बात मैं तुमसे शेयर करना चाहता हूँ। उसके बहुत आग्रह करने पर एक बार उसका फेसबुक खोल कर वह हैरान रह गई थी। शिशिर ने अपनी खास महिला मित्रों के सारे चैट मिटा दिये थे।

इसके बाद वह अपने फेसबुक पर कभी नहीं आया था। उसकी बातों से समझ आया था, अब वह उनसे व्हात्सप्प पर चैट करने लगा था। इन बातों के बाबत पूछने पर हमेशा की तरह उसने इतनी बातें बनाई थी कि उसका दिमाग घूमने लगा था। उसे देख कर हैरत होती थी कि किस तरह शिशिर अपनी बातों के मकड़जाल में उलझा कर दिन को रात और रात को दिन बनाने में समर्थ था।

मृणाल ने सब सुन कर कहा था, इसे एनर्जी नहीं, क्रिमिनल एनर्जी कहते हैं। ही इज ए ब्लडी साइको!

इन बातों से उसके भीतर अशांति पसर गई थी। वह हर समय उलझन और तनाव में रहने लगी थी। शिशिर ने आखिरकार उसकी नौकरी भी छुड़वा ली थी। कहा था मैं इतना कमा लेता हूँ कि तुम्हारी देख-भाल अच्छे से कर सकूँ। हम जल्दी शादी कर लेंगे। बस माँ को मना लूँ फिर तुम्हें किसी दिन अपने घर ले चलेंगे उनसे मिलवाने। वे पुराने विचारों की हैं, तुम समझ सकती हो।

इसके बाद एक दिन अचानक उसे पता चला था, शिशिर शादी-शुदा है और उसका एक बेटा भी है। उस दिन पहली बार उसने शिशिर को कई थप्पड़ मारे थे और घर से निकाल दिया था।

शिशिर बारिश में भीगते हुये रात भर उसके घर के बाहर बैठा रहा था और बार-बार मिन्नत करता रहा था कि एक बार वह उसकी बात सुन ले।

बाद में उसने बताया था, यह सारा झूठ उसने सिर्फ उसका प्यार पाने के लिए बोला था। उसके पास इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। पहले पता होता तो वह किसी तरह उसे अपने पास आने नहीं देती। उसकी माँ ने पैसों के लिए उसकी शादी अपनी अमीर सहेली की बदसूरत बेटी से करवा दी थी। माँ को उन दिनों हार्ट अटैक आया हुआ था और वह माँ के आग्रह को ठुकरा नहीं सका था।

शिशिर ने उसे भरोसा दिलाया था, वह जल्द अपनी पत्नी को छोड़ देगा। जरूरत हुई तो अपने बेटे को भी और उससे शादी कर लेगा।

अनुमेहा बुरी तरह कनफ्यूज्ड हो गई थी। उसे सूझ नहीं रहा था क्या करे। यह स्थिति उसके लिए असह्य थी मगर शिशिर से उसने सच्चा प्यार किया था, यकीन किया था। उसकी कई आदतें उसे परेशान करती थीं मगर सच यही था, वह शिशिर पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहने लगी थी। फिलहाल शिशिर के सिवा उसका ऐसा कोई नहीं था जिसे अपना कहा जा सके। इतनी बातें, प्रतिश्रुतियाँ, केयर झूठ नहीं हो सकता। शिशिर इस तरह रोते हुये, अपने बेटे की कसम खाते हुये गाढ़ी आवाज में बोलता था कि वह यकीन करने पर विवश हो जाती थी।

इसके बाद के कुछ साल दुःस्वप्न की तरह बीते थे। शिशिर की बातों के भूलभुलैया में वह भटक-भटक कर मानसिक संतुलन खोने की कगार पर पहुँच गई थी। वह उसे आश्वासन देता रहता, वादा करता मगर हकीकत में कुछ भी नहीं करता। कुछ भी ना करने के पीछे उसके पास बहानों और मजबूरियों की एक लंबी फेहरिस्त हरदम हुआ करती थी- कभी बूढ़ी माँ के लिए, कभी समाज के लिए तो कभी बेटे के लिए....

धीरे-धीरे उसने समझा था, शिशिर एक तरह के डिनायल में जी रहा है। जो करता या करना होता उससे ही आखिरी पल तक इंकार करता रहता। इस बात के जिक्र करने तक से वह बेतरह नाराज हो उठता। शायद यह उसके भीतर का गिल्ट था। कहता यह सब अनुमेहा के दिमाग का फितूर है, वह शक्की है, जो है नहीं उसकी कल्पना करती है। उसे खुद को किसी मनोचिकत्सक से दिखाने की जरूरत है। एक दिन वह अपना हर वादा पूरा करेगा और उसे गलत साबित कर देगा।

मगर जब एक-एक कर वादा टूटता जाता और वह उससे सवाल करती, बड़े सहज भाव से वह कहता, फिलहाल इस बात का कोई जवाब नहीं है उसके पास। उसने ऐसा कुछ भी सोच कर नहीं किया, बस हो गया।

इसी सहज भाव से एक दिन उसने कहा था, यही प्रॉब्लम है कुंवारी लड़कियों से अफेयर करने का। शादी के लिए गले पड़ जाती हैं। इससे बेहतर है शादीशुदा औरतें, सेफ-सेक्स के लिए भी। शादी-वादी का झंझट भी नहीं! छोड़ दो तो अपने खूंटे से बंधी मुंह दबा कर रो कर रह जाती है, कुछ कर नहीं पाती!

बार-बार के इंकार के बाद एक दिन उसने स्वीकार किया था, उसका अभी तक अपनी पत्नी के साथ जिस्मानी संबंध थे। हमेशा की तरह फूट-फूट कर रोते हुये बताया था, वह अपनी पत्नी को मन से कब का त्याग चुका है मगर इसके लिए मजबूर है। वह दफ्तर में फोन करके उसे जब-तब बुला लेती है। मना करने पर दफ्तर में शिकायत कर उसकी नौकरी खत्म करने की धमकी देती है। घर में बेटा है, माँ है इसलिए उसे चुपचाप उसकी बात माननी पड़ती है। वरना वह चिल्ला-चिल्ला कर पूरा घर सर पर उठा लेती है, अपने रसूखदार रिश्तेदारों को बुला लेती है...

फिर उसके पैरों पर गिर कर कहा था, वह प्लीज समझे, यह बस एक फिजिकल बात है, उसके मन में तो वही बसी हुई है। बाय गॉड! जब वह अपनी पत्नी के साथ होता है, मन ही मन उसे ही प्यार करता होता है।

एक दिन उसने अपनी पीठ पर के निशान दिखाये थे और कहा था, उसकी पत्नी बेहद वायलंट स्वभाव की है और जब नाराज होती है, उसे बुरी तरह पीटती है। सुन कर अनुमेहा हैरान रह गई थी। ऐसा भी होता है! “तुम नहीं जानती मेरी तकलीफ...” शिशिर फिर फफक-फफक कर रोता रहा था- मेरा बचपन आतंक के साये में बीता। मुहल्ले के कई आवारा लड़कों ने मिल कर मेरा रेप किया था! फिर मास्टरजी, दूर के रिश्ते के एक ताऊजी... लगातार...

सुनते हुये अनुमेहा वितृष्णा और आतंक से भर गई थी- मना करने पर केन से मार... मुझे डर लगता है, बहुत डर लगता है! जब रेखा हाथ में छड़ी ले कर चिल्लाती है, उसकी आँखें ठीक मास्टरजी की आँखों जैसी लगती हैं- लाल, सुलगते कोयले की तरह! मगर फिर वे मुझे उत्तेजित भी करती हैं! इसी तरह पीटने के बाद मास्टरजी अक्सर मेरे साथ...

मृणाल ने एक सेशन के दौरान उसकी बातें सुनते हुये कहा था- पहले मार, फिर सेक्स, इससे उसके कच्चे मन का अनुकूलन हो गया। पीड़ा की अनुभूति के साथ कहीं ना कहीं सेक्स का प्लेज़र जुड़ गया अवचेतन मन में! अब जब भी पीड़ा मिलती है, उसके साथ कभी मिली प्लेज़र की स्मृति उसके भीतर जिंदा हो जाती है और वह उत्तेजित महसूस करने लगता है। अब जो उस पर हावी हो जाता है वह उससे डर कर चलता है और कहीं से वह उस व्यक्ति के लिए उत्तेजित भी महसूस करता है। सैड! वेरी सैड!

सुन कर उसे याद आया था, पहली बार जब उसने मुड़ कर शिशिर को थप्पड़ मारा था, शिशिर का चेहरा एकदम से बदल गया था और वह भरभरा कर रो पड़ा था। उसके बाद बिस्तर पर आने के लिए उसके अनुनय-विनय!

ऐन झगड़े के बीच सेक्स के लिए उसकी यह अजीब-सी इच्छा उसे अक्सर कनफ्यूज्ड कर देती थी। अब कुछ-कुछ धुंध छटने लगी थी।

अनुमेहा बीमार हो गई थी। उसे सूझ नहीं रहा था वह क्या करे। विश्वास, उम्मीद- सब कुछ खत्म हो चुका था मगर प्यार कोई निर्णय नहीं होता कि जब चाहे उससे छुट जाय। सात सालों से वह रात-दिन, सुबह-शाम उसके साथ थी, संपर्क में थी।

सच है कि उसके साथ अब वह हर पल दुख में है, मानसिक संत्रास में है मगर उससे अलग हो जाने की कल्पना भी उसे आतंकित कर देती। शिशिर के सिवा उसका कोई नहीं था। भाई कई साल पहले अपनी पत्नी के साथ विदेश जा चुका था और शिशिर के पाजीसिव आदत की वजह से उसके गिने-चुने दोस्त भी उससे दूर जा चुके थे।

इन्हीं दिनों मृणाल उसे मिली थी। एकदम अचानक से! कई सालों के बाद वह विदेश से लौटी थी और शहर में अपना क्लीनिक खोला था। बहुत दिनों बाद किसी से इस तरह बात कर उसे अच्छा लगा था। शिशिर का इन दिनों फोन, मैसेज, आना अपेक्षाकृत कम हो गया था। बहाना व्यस्तता का था। तो मृणाल के साथ समय बिताने का उसे अवसर मिल गया था।

धीरे-धीरे वह उससे खुली थी। मृणाल ने बिन बताए उसकी मनःस्थिति भाँप ली थी शायद तभी उससे सवाल करने शुरू कर दिये थे। अनुमेहा के हैरत जताने पर मुस्करा कर कहा था, जैसा कि आम धारणा है, हम मनोवैज्ञानिक दिमाग नहीं पढ़ते, बस व्यवहार ऑब्सर्व करते हैं अनु! वैसे तुम्हें देख कर तो कोई बच्चा भी कह देगा कि तुम अवसाद में हो!

मृणाल ने कहा था, बरसात का मटमैला, धूसर मौसम उसके अवसाद को उभार रहा है। ठंडे देशों में बर्फ, कुहरे के मौसम में ऐसा अवसाद आम बात है। पूरब वाले ऐसे अवसाद से अक्सर परिचित नहीं होते। धूप भरे उजले दिन बाहर ही नहीं, भीतर भी पॉजिटिव एनर्जी जगाते हैं।

फिलहाल इस ‘सैड’ (सीजनल अफेक्टीव डिसऑर्डर) के लिए एंटीडिप्रेशन दवाई और काउंसिलिंग कारगर होगा। उसके हिदायत के अनुसार अनुमेहा रोज एक खास किस्म की उजली रोशनी के बॉक्स के सामने कई मिनट बैठी रहती। इस यकीन के साथ कि अब कोई रोशनी की किरण उससे हो कर गुजर नहीं सकती, उसके अंधकार को काट नहीं सकती।



पिछले कुछ समय से उसके मूड रह-रह कर बदलते रहते। कभी वह अचानक बेहद खुश हो जाती, लगता सब ठीक हो गया है मगर फिर गहरे अवसाद में डूब जाती। ऐसे पलों में लगता, अब कभी कुछ सही नहीं होगा उसके जीवन में। एक घने कुहरे में मन डूबता-उतराता रहता। इसके लिए उसने रोलर कोस्टर जैसे अनुभव का जिक्र किया था मृणाल से। मृणाल ने मैनिक डिप्रेशन के लक्षण बता कर उसके लिए ‘लिथियम’ प्रेस्क्राइव किया था। कहा था यह तुम्हारे मूड सुइंग को स्थिर करेगा।

दवाई निगलते, अजीबोगरीब थेरेपी से गुजरते उसे लगता वह कोई गिनिपिग हो गई है जिस पर तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। इन सब के बीच शिशिर का ख्याल ऑबसेशन बन कर उसके भीतर चौबीसो घंटे छाया रहता। उसकी चीखती आवाज, ताने, व्यंग्य, बात-बात पर हाथ उठाना... साथ शुरू के दिनों में उसकी गाढ़ी, सघन आवाज में कही गई प्यार भरी बातें, केयर, कंसर्न, शेयरिंग...

कभी वह बीमार अनुभूतियों से घिर जाती। बैठे-बैठे कब रोने लगती उसे पता भी ना चलता। वही अंधा कुआं भीतर डबडबाता रहता। उसका भायं-भायं करता सन्नाटा, काला गहरा जल, उसमें डूबती जाती वह... अनायास हाथ-पैर ठंडे हो आते, कनपटियों पर पसीना तैर आता, सीने में जकड़न महसूस होती।

एक प्रतीति धीरे-धीरे पिघले शीशे की तरह उतर कर फैली थी उसमें- सब झूठ था! कुछ बातें सिर्फ बातें ही होती हैं, उनका हकीकत की दुनिया में कोई वजूद नहीं होता। चारा शब्दों का भी होता है। सपेरे की धुन की तरह यह बजता है, आंखों का सम्मोहन रचता है। ख़ालिस वहम! इन पर यकीन कर उसने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया- नौकरी, सुरक्षा, सम्मान... दोष किसका था! यकीन और इस तरह...

जिधर से गुजरती है, कानाफूसियां तेज हो जाती हैं। उम्र भी घट नहीं रही। जिस्म ग्रीष्म में उतरती नदी की तरह क्षीण हो रही। साथ ही वह बीमार, बहुत बीमार है! अकेली भी। जिधर देखो, घुप अंधेरा, स्तब्ध सन्नाटा!

वह या तो घंटों चुपचाप बैठी रहती या सोई रहती। रोज के साधारण काम भी उसे पहाड़-से लगते। थकान ऐसी कि महसूस होता बैठी-बैठी मर जाएगी। खाना देखते ही उबकाई आती।

सर तक रजाई ओढ़ वह रात भर अपने भीतर मंडराती रहती है। किसी परित्यक्त घर की आत्मा की तरह... अभिशप्त है वह! अपनी ही नजर में बहुत बौनी, बहुत छोटी हो गई है। कद घटते हुए जमीन से आ लगी है। उसके आसपास की दुनिया उससे परे, पहुंच से दूर हो गई है। सबके साथ वह भी खुद को एक ऊंचाई से रेंगते हुए देखती है। कितनी घिनौनी, दयनीय है वह! किसी काबिल नहीं! प्यार की तो हरगिज नहीं! तभी तो शिशिर ने भी... वह भी किसके लिए?

मृणाल ने बताया था, उनलोगों ने मिल कर हाल ही में आत्महत्या की तरफ बढ़ने वाले मरीजों के लिए हेल्प लाइन सेवा शुरू की है। विदेशों में तो ऐसी सेवाएँ उपलब्ध होती हैं, यहाँ सिर्फ गिने-चुने महानगरों में।

"आत्महत्या अक्सर क्षणिक पागलपन में घटित होती है। उन कुछ क्रूशियल पलों को अगर टाल दिया जाय, बहुत सारी जिंदगियां बच सकती हैं..." अपनी बात कह कर मृणाल ने उससे पूछा था, क्या तुम इसके लिए वालेंटियर बनने की इच्छुक हो? कहो तो तुम्हारा नाम दे दूँ। तुम्हें अँग्रेजी, हिन्दी आती है, बहुत अच्छा बोल लेती हो… उसने बिना कुछ कहे मृणाल से वह फोन नंबर ले लिया था।

एकदिन अचानक शिशिर का फोन आया था। उसे बताया था प्रोमोशन के साथ उसका तबादला हो गया है। कल ही वह सपरिवार अपनी नई पोस्टिंग पर जा रहा। कुछ दिनों से बेटे के एडमिशन के लिए व्यस्त था इसलिए उससे संपर्क नहीं कर पाया।

सुन कर उसने बेवकूफों की तरह पूछा था, और मैं? कुछ देर की चुप्पी के बाद शिशिर की वही गाढ़ी, खूबसूरत आवाज गूंजी थी, एकदम सहज- तुम! तुम तो मेरे दिल में रहोगी, हमेशा की तरह... वह कुछ बोल नहीं पाई थी, निर्वाक हो सुनती रही थी, शिशिर रुका नहीं था- मैं जहां भी रहूँ, सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा रहूँगा, यकीन रखना! यह भौगोलिक दूरी कभी हमें एक-दूसरे से अलग नहीं कर पाएगी अनु! वैसे एक सुझाव है, तुम अपने भाई के पास विदेश क्यों नहीं चली जाती?

इसके बाद जाने कितने दिन बीते थे। समय के साथ अनुमेहा ने भागना छोड़ दिया था। सारी तकलीफ उम्मीद के होने से थी। अब जो कोई उम्मीद नहीं बची, सब कुछ आसान हो गया है उसके लिए। ना कोई इंतजार, ना वह रोज-रोज की मायूसी... भीतर कुछ रह गया है तो बस एक असीम शून्य और वह- जिधर देखें, जहां देखें... अपनी परछाइयां तक समेट कर वह खुद में बंद हो गई है। यहां रोशनी नहीं, हवा नहीं, धूप नहीं... याद नहीं कब से वह नियमित दवाई नहीं लेती, मृणाल से नहीं मिलती, घर से नहीं निकलती!

हाँ, खुद में रहने के लिए उसने एक तरकीब ढूंढ निकाली है- पहले शिशिर की छोड़ी हुई व्हिस्की की बोतलें उसने खाली की थी, फिर बाजार से ले आई थी। यह अच्छा है- नशा! उसे अपने में रहने नहीं देता। सारी तकलीफ तो यही है- खुद में होना! किसी भी तरह छुटना है खुद से। यह पूरा अज़ाब है।

जाने कितने दिन बाद उसने उस दिन फेसबुक देखा था। शिशिर को सब बधाई दे रहे थे बेटी होने की। शिशिर ने अस्पताल में अपनी पत्नी, बेटे और नई मेहमान को बाँहों में समेट कर मुस्कराते हुये तस्वीर लगाई थी। लिखा था, नाउ आई फील कंप्लीट!

तस्वीर देख कर अनुमेहा के भीतर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हुई थी। बर्फ की चादर में लिपटे उलंग-निर्वसन जंगल की तरह भीतर सब कुछ स्तब्ध था। स्तब्ध और निर्वाक! इसमें चलती सांस भी शोर बन कर डरा रही थी।

जाने कितनी देर अनमन बैठ वह धीरे-धीरे गुनगुनाती रही थी, वह गीत जो अर्से से भूल गई थी। फिर फोन करके एक होम डेलीवरी करने वाले रेस्तरा से कबाब मंगाए थे, उसके बाद देर तक नहा कर ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो कर खूब अच्छी तरह तैयार हुई थी, दिनों बाद- सिल्क की नाईटी, काले नेट के अंतर्वस्त्र, माइश्चराइजर... शिशिर के प्रिय परफ्यूम की लगभग पूरी शीशी भी खुद पर उढेल लिया था- इस स्याह रात को खुशबू से तर कर देना है, इससे आजकल जंग लगे लोहे की गंध आती है...

व्हिस्की के साथ कबाब खाते हुये उसने भाई को कनाडा में फोन लगाया था और देर तक बात की थी। उसे बताया था अपने लाइफ इंश्योरेंस, फिक्स डिपोसिट्स- सबका नॉमिनी उसने उसके बेटे को बनाया हुआ है। कहा था कि वह अपने बेटे की तस्वीर याद से अभी व्हात्सप्प कर दे। कितने दिन देखा नहीं गुन्नू को!

फोन रख उसने डब्बा खोल कर अपनी रात की दवाइयाँ खाई थी। नींद की दवाई के नाम पर यह मृणाल उसे शक्कर की गोली खिलाती है! जितना भी खा लो, कोई असर नहीं!

इसके बाद जाने कितनी देर तक छत के दरवाजे खोल वह बारिश में डूबे अंधकार को देखती रही थी- कैसा लगता होगा इस निविड़ रात की तरह एकदम से अंधकार, मौन, शून्य में बदल जाना... तेज बिजली की चमक के साथ सारा परिदृश्य शव की तरह सफेद पड़ गया था!

खड़ी-खड़ी वह एक क्षण के लिए बेतरह काँपी थी फिर कमरे में आ कर उसने ड्राअर में उस हेल्प लाइन का नंबर ढूंढा था जो कुछ दिन पहले मृणाल ने उसे दिया था। वह कहीं नहीं मिला। जाने उसने कहाँ रख दिया था।

उस समय तक वह व्हिस्की की आधी बोतल खत्म कर चुकी थी और ठीक से खड़ी भी नहीं रह पा रही थी। कुछ देर इधर-उधर देख कर उसने मृणाल को फोन लगाया था। देर तक घंटी बजने के बाद मृणाल ने फोन उठाया था।

उसकी उनींदी आवाज में चिंता थी- अनु! इस वक्त! सब ठीक तो है? मृणाल का प्रश्न सुन अनुमेहा ने सामने की दीवार घड़ी की तरफ देखा था, रात के ढाई बज रहे थे! मगर उसने लापरवाह ढंग से लड़खड़ाती आवाज में कहा था- जरा वह हेल्प लाइन नंबर देना यार! जाने कहाँ रख दिया! मिल नहीं रहा...

सुन कर दूसरी तरफ थोड़ी देर के लिए सन्नाटा खींच गया था फिर मृणाल ने शांत आवाज में कहा था- अनु! मैं आ रही, इसी वक्त! बस पाँच मिनट! मेरा इंतजार करना...

अनुमेहा ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया था। बस सर हिलाया था। मगर लाइन के कटते ही वह हाथ में फोन लिए-लिए फर्श पर ढह पड़ी थी। उसकी उम्मीद के विपरीत, आज नींद की गोलियां काम कर गई थीं...

वह अचानक अपने उदास, नीले दिन की कैद से बाहर निकल इस बरसती निविड़ रात की तरह अंधकार, मौन और शून्य में बदल गई थी...!


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3 टिप्पणियाँ

  1. उदास है परन्तु आज के परिदृश्य के अनुसार है। प्रेम और अवसाद का जीवित चित्रण है। कहानी पाठक को बाँध कर रखती है। इसी तरह लिखते रहिये।शुभकामनाएँ और बधाई।

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  2. इस पर दोलत्‍ती डॉट कॉम पर लिखा है मैंने
    अवसाद कैंसर से भी बुरा मर्ज है। लाइलाज और आधुनिक संस्कृति का बायप्रोडक्ट

    : अवसाद से बड़ी क्या बीमारी होगी और इस कहानी से अधिक अवसाद क्या है का ख़ुलासा और क्या होगा :https://bit.ly/2G36DA7

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  3. बहुत बधाई , बहुत अच्‍छी कहानी , पर उदास कर गई।

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