लप्रेक – है क्या यह? पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन लघु प्रेम कहानियाँ



लप्रेक – है क्या यह? 

पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन घु प्रेहानियाँ

उम्मीद शायद सतरंगी या लाल फ्रॉक के साथ, वैसे रंग के ही फीते से गुंथी लड़की की मुस्कुराहटों को देख कर मर मिटना या इंद्रधनुषी खुशियों की थी, जो स्मृतियों में एकदम से कुलबुलाई।

लप्रेक – है क्या यह? पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन लघु प्रेम कहानियाँ

मॉनसून


मेघों को भी अब मुझ से दोस्ती सी हो गई है, शायद इसी वजह से उनके आसमान को ढक लेने की ख़्वाहिश कम हो चली थी। खुला-खुला सुबह का आसमान, जो कभी मेरे हसरतों की पहली चाहत थी, मेरे सामने ही पसरा पड़ा था। मगर क्या ये आसमान सच में मेरा था? लड़का निहार रहा था गौर से दूर तलक.........!

उम्मीद शायद सतरंगी या लाल फ्रॉक के साथ, वैसे रंग के ही फीते से गुंथी लड़की की मुस्कुराहटों को देख कर मर मिटना या इंद्रधनुषी खुशियों की थी, जो स्मृतियों में एकदम से कुलबुलाई।

कोल्ड ड्रिंक की एक लम्बी सिप लो, और फिर एक सांस, जो होती है बेहद ठंडी! ऐसा ही क्यों कुछ मीठी सी ठंडक है आज इन हवाओं में, शायद कुछ खास दोस्तो की यादों का कमरा खुला रह गया था या उस बोतल का ढक्कन 'ओपन अप' के साथ फटाक से खुला! या उस नटखट बाला ने जो स्मृतियों में वीमेन क्रिकेट खेलती है, ने अपने अंदर की तपिश को ठंडा करने के लिए पैडस्टल फैन को पांच पर चला रखा था।

कुछ तो हुआ जो लड़के के पलकों के कोर से छलकी बूंद, और फिर वाष्पित होने के बाद पत्ते पर नजर आया नमक।

एक आह सी निकाल आई और फिर दिल के खाली जगह मे धुएँ सी भर गई, धुंआ जो सफ़ेद था, धुंआ जिसमें फिर से वो छमक रही थी, जैसे रेड एंड वाइट की पूरी डब्बी, सीने में दफन हो गयी हो!

बेसबब आँखों से आंसू नहीं आया करते दोस्त, यक़ीनन रिश्ते की डोर पुकार रही थी।

प्रेम दर्द है, जो यादों में मुस्कुराती है।

सुनो, आज भी फ्रॉक में चमको न तुम !

सपनों के हसीन होने का कारण अगर तुम हो तो ऐसा होना भी अच्छा लगता है न !




गिव एन टेक 

ठसाठस भरे ग्रीन लाइन बस में पीछे से लड़की आयी, महिला सीट पर एक लड़का बैठा था, थोडा ठसक से बोली - भैया जी, उठिए, महिला सीट है !!

बेचारा बिना कुछ कहे, चुपचाप खड़ा हो गया !!

लड़की ने फिर दस का नोट निकाला और उसी को देते हुए कहा, जरा बढ़ा देना भैया, आनंदविहार एक !!

......... झल्लाते हुए लड़के ने नोट तो पकड़ लिया पर बोला - पहले तो भैया बोलना बंद करिए और तमीज सीखिए! महिला बेशक नहीं हूँ, पर इंसान ही हूँ, कुत्ता नहीं जो आपने आते ही हड़का दिया !!

तब तक टिकट पीछे से आ गयी, लड़की ने गलती समझते हुए धीरे से चुप्पी साधे टिकट पकड़ ली!

अगले स्टैंड पर लड़की के साथ वाली सीट खाली हो गयी, लड़की ने सीट लड़के के लिए रोक कर प्रयाश्चित किया .........दोनों का सफ़र आगे बढ चला ! साथ-साथ !!

आनंदविहार मेट्रो पर अब लड़की क्यू में लगी थी टिकट लेने को, लड़के ने शरमाते हुए 20 का नोट पकडाते हुए कहा - एक राजीव चौक प्लीज !!

दोनों एक साथ एकदम से खिलखिला उठे, कहीं तो रूमानी शाम का लाल सूरज अस्त होता हुआ दिखा.



अमरुद का पेड़

ए लड़की !

भूल गई वो धूल धूसरित गाँव की पगडंडियों सा घुमावदार रास्ता जो खेतों के मेड़ से गुजरता था, गाँव का वो खपरैल वाला मिडिल स्कूल, जिसकी पिछली खिड़की टूटी थी, स्कूल के पास वाला शिवाला, शिवाले में बजता घंटा, पंडित जी और फिर शिवाले के पीछे का बगीचा...यही गर्मी की छुट्टी से पहले के दिन थे, खूब गरम हवाएं बहती थी, और उन हवाओं में सुकून व ठंडक के क्षण के लिए बस्ते को स्कूल में बैंच पर छोड़ कर बगीचा और तुम जैसी बेवकूफ का साथ जरुरी होता था.आखिर पढ़ाई उन दिनों कहाँ अहमियत रखा करती थी.

तभी तो उस खास दिन भी, बगीचे से आम नहीं अमरूद तोड़ने चढ़ा था डरते कांपते हुए। तुम्हारी बकलोली, बेवकूफी या मुझे परेशान करने की आदत, या फिर बात बात में मेरी दिलेरी की परीक्षा जो लेनी होती थी तुम्हे. जबकि बातें आम थी कि मैं एक परले दर्जे का कमजोर दिल वाला व सिंगल कलेजे वाला शख्स हुआ करता था.

तुम्हे वो दूर जो सबसे ऊपर फुनगी पर हरा वाला कच्चा अमरूद है, वही चाहिए थे, तुमने कहा था पके अमरुद में बेकार स्वाद होता है, थोडा कच्चा वाला लाकर दो चुपचाप ... उफ़्फ़ वो बचपन भी अजीब था, पेंट ढीले होते थे या कभी कभी उसके बकल टूटे हुए, जैसे तैसे बंधे हुए, उस ढीले हाफपेंट से पेड़ पर ऊपर चढ़ना, हिमालय पर जाने जैसा था. पेड़ को पकड़ूँ या पेंट, इसी उधेड़बुन में कब ऊपर तक पहुंचा ये तक पता नहीं.

आखिर "उम्मीद" - वर्षों से दहलीज पर खड़ी वो मुस्कान है जो मेरे कानों में वक्त-बेवक्त धीरे से फुसफुसाती है - 'सब अच्छा ही होगा'. पर जरुरी थोड़ी है, सब अच्छा ही हो, हर मेरी बेवकूफियों पर भी.

इसलिए तो, जैसे तैसे अमरूद तोड़ा तो ऐसे लगा जैसे एवेरेस्ट के ऊपर से तेनजिंग नोर्के बता रहा हो, मैंने फतह कर ली है, तभी टूटे अमरुद के साथ ही मैं भी टूटे फल की तरह गिरा धड़ाम !!! उफ़ उफ़ उफ़ !!

आखिर अमरुद की बेचारी मरियल टहनी मेरा भार कब तक सहती ...

पर तुम तो हेरोइन व्यस्त थी, अमरूद कुतरने में और मैं घुटने के छिलने के दर्द को सहमते हुए सहने की कोशिश ही कर रहा था, कि तभी नजर पड़ी, ओये मेरी तो हाफ पेंट भी फट गई थी, हाथो से बना कर एक ओट और फिर दहाड़ें मारने लगा और तुम, तुम्हे क्या बस खिलखिला कर हँस दी !! .

बचपन का प्यार ...हवा हो चुका था...

तीन दिन तक हमने बातें नहीं की फिर एक मोर्टन टॉफ़ी पर मान भी गए, बस इतना ही याद आ रहा ...

स्मृतियों के झरोखे से कुछ प्यारी कतरनें


मुकेश कुमार सिन्हा
मोबाइल: +91-9971379996
mukeshsaheb@gmail.com


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8 टिप्पणियाँ

  1. तीनो सुंदर है मुझे 2 वाली बहुत अच्छी है गिव अन take

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  2. सुंदर लघु प्रेम कथाएँ, तीनों अति पठनीय और सुंदर

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन हिन्दी के पहले समाचार-पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' की स्मृति में ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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