बैल बाजार भाव, साहित्य, समाज और अनुज की कहानी "खूँटा"
मेरे एक जानकार ने कहा हिंदी की साहित्यिक कहानी मुझसे नहीं पढ़ी जाती... मैं सोच में पड़ गया कि क्यों आख़िर कहानी पढ़ना हर किसी को क्यों नहीं भाता, उसे भी जो हिंदी से दूर नहीं है? इस विषय में सोचा जाना ज़रूरी है. यदि गूगल पर "हिंदी" लिखिए तो वह सुझाव देता है: 'हिंदी व्याकरण', 'हिंदी समाचार', 'हिंदी गाना', 'हिंदी न्यूज़', 'हिंदी शायरी', 'हिंदी शायरी प्यार', 'हिंदी कविता', 'हिंदी भाषा', 'हिंदी छोटे सुविचार' और 'हिंदी तो इंग्लिश ट्रांसलेशन'. "हिंदी क" लिखिए तो 'हिंदी कविता', 'हिंदी कैलंडर', 'हिंदी कुंडली सॉफ्टवेयर', हिंदी कैलंडर 2019', हिंदी कविता संग्रह', 'हिंदी के प्रसिद्ध निबंध', 'हिंदी काउंटिंग १ तो १००' और 'हिंदी कैलंडर तिथि ' सुझाव में आते है. "हिंदी कवी" लिखने पर वह 'हिंदी कवि'...'हिंदी कविता',...'हिंदी कवि और उनकी रचनाएं' आदि सुझाव देता है. लेकिन "हिंदी कहा" लिखने पर गूगल जैसे ज्ञानी को भी यह अंदाज़ा नहीं होता कि कोई 'हिंदी कहानी' सर्च कर रहा हो सकता है; वह कोई सुझाव नहीं देता. आशावादी हों तो आप सिर्फ "कहानी" गूगल कर सकते हैं लेकिन गूगल क्या सुझावेगा यह मैं पहले ही बता देता हूँ: 'कहानी विडियो', कहानी करवाचौथ की', कहानी शेर की', 'कहानी भूतों की', 'कहानी राजा हरीशचंद्र की'...
तो यहाँ मौजूद हिंदी के ख़वातीन-ओ-हज़रात 'जा~आ~गो मोहन प्यारे सुनिए' और नया लिखने के चक्कर में हिंदी के लेखकों का कहानी के नाम पर गुलज़ार साहब से उधार ली गयी हिंदी में मीठे-मीठे शब्दों को घोल कर नीरस कहानियाँ ढकेलने में माहिर होते जाना न देखते रहिये. मुझे तो फिर भी अनुज जैसे कहानीकार दोस्तों के होने का फ़ायदा मिल जाता है और भली कहानियाँ पढ़ने मिल जाती हैं. अनुज की 'खूंटा' वह कहानी है जिस पर प्रिय गुरुवार रवीन्द कालिया जी अपने 'नया ज्ञानोदय' की सम्पादकीय में लिखते हैं:
पशु मेलों पर एक अत्यन्त मार्मिक और प्रमाणिक कहानी
"यथास्थितिवाद के पोषक तथा सेंस ऑव ह्यमर से रहित लोगों को तो किसी प्रकार का बदलाव रास नहीं आता। ऐसे में वे शुद्धतावादी चोला अख्तियार कर लेते हैं और उनकी समझ में नहीं आता कि अनुज तो कथाकार है, वह बैलों की खरीद फरोख्त क्यों करेगा। जबकि अनुज का इससे बेहतर परिचय नहीं हो सकता था। उसने पशु मेलों पर एक अत्यन्त मार्मिक और प्रमाणिक कहानी लिखी है। बैल खरीदने वाले कैसा बैल खरीदते हैं, बैल की कौन-सी विशेषताएँ उसका मूल्य निर्धारण करती हैं, इसे जानना हो तो अनुज की कहानी से बेहतर कहानी पूरे हिन्दी कथा साहित्य में न मिलेगी। अब यदि उसका परिचय यों दिया गया कि जवाहर लाल यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र, दाढ़ी रखने की प्रेरणा वहीं मिली। बैलों की खरीद फरोख्त का अच्छा अनुभव' तो कौन-सा कहर बरपा हो गया! मूर्ख को मूर्ख कहने पर आपत्ति हो सकती है, परन्तु किसी को ‘सुन्दर' कहना उसे गाली देना नहीं है।"
रवीन्द्र कालिया, नया ज्ञानोदय, जुलाई 2007
खूँटा के अन्य पहलू जो मुझे भाये उनमें कहानी में छुपी वह तरंग शामिल है जो हमें खूंटे से बंधा दिखलाती रहती है और यह भी कि समाज के सबसे प्राचीन व्यापार में आज भी महिलाओं को खूँटे में कसा जा रहा है, वह बात और कि कहानी के व्यापारी कहानीकारों को इस घृणित व्यापार में से भी अधिकतर पोर्न मिल जाता है.
भरत एस तिवारी
२८ जून २०१९, नयी दिल्ली
भरत एस तिवारी
२८ जून २०१९, नयी दिल्ली
खूँटा
— अनुज
अवध का पूरा घर आज तड़के उठ गया था। माँ जलखई तैयार करने में लगी थीं। रोटियाँ सेंकती हुर्इं बार-बार जाकर नाद पर बैलों को देख आतीं थीं। कभी किसी पुरानी साड़ी के टुकड़े को सरसों के तेल में डुबोकर सींगों को पोंछ आतीं, तो कभी नथुनों से लेकर मस्तक तक सहलाने लगतीं। जब सींगों के बीच मस्तक पर पीछे की ओर बने गड्ढे से अठइल निकालते हुए गर्दन पर हाथ फेरतीं तो बैल ऊपर की ओर धीरे-धीरे मुँह उठाने लगते और नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुए आसमान की ओर देखने लगते। माँ बार-बार नाद तक जातीं और फिर रसोई में लौट आती थीं। जलखई के हिस्से की पता नहीं कितनी ही रोटियाँ अबतक बैलों को खिला चुकी थीं ! लेकिन जैसे उनका जी नहीं भर रहा था!
बैलों को मुँह अँधेरे ही नहलाया जा चुका था। फिर उनके माथे पर टीका लगाया गया और गले में घंटी बाँध दी गयी थी। माँ बड़े प्यार से सींगों पर सिन्दूर लगातीं लेकिन तेल से चप-चप करते सींगों पर सिन्दूर टिक नहीं पा रहा था। इसीलिए माँ बार-बार सिन्दूर लगा आतीं। आख़्िार में मँगटिका पहनाकर बैलों को अपने सफर के लिए अंतिम तौर पर तैयार कर दिया गया था।
बाबूजी ने एक बोरे में अल्यूमीनियम की एक टगार और कुछ दाने रखकर बोरे को साइकिल के कैरियर से बाँध दिया था। फिर एक बोरी भूसे को साइकिल के दोनों पैडलों के बीच की खाली जगह में फ्रेम के बीच फँसा दिया। माँ ने जलखई वाली पोटली साइकिल की हैंडल से लगी हुई हुक में लटका दी। साइकिल जैसे कार्गो बन गई थी।
गहराया अँधेरा फटने लगा था। सितुआ सुबह-सुबह दरवाजे पर आकर बैठ गया था। वह तैयार होकर ही आया था। चैत्र के महीने में उसकी व्यस्तता कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती थी। उसे बैलों के मेले का माहिर खिलाड़ी समझा जाता था। बिना किसी दलाल के बैलों को बेचने में दिक्कत भी तो होती थी! हालांकि दलालों की रूचि इन काम-काजू बैलों में कम ही होती थी। लेकिन सितुआ को अवध की दोस्ती और बिरादरी का वास्ता दिलाकर मना लिया गया था। सितुआ को मालूम था कि इस सौदे में कमाई की गुंजाइश नहीं थी। मोटी कमाई तो उन शाही दिखने वाले बैलों की ख़रीद-फ़रोख़्त में होती थी जो ऊँचे क़द-काठी वाले और मोटे-ताजे होते थे। ये बैल जमींदारों और गाँवों के रईसों के घरों की शोभा होते थे। इन भव्य दिखने वाले बैलों के खरीदार भी तो भव्य और शानदार होते थे ! दलाल ने जितना रेट तोड़ दिया, बात वही पक्की हो जाती थी। ऐसे भव्य बैल प्रदर्शन के लिए रखे जाते थे। ये काम-धाम तो नहीं करते थे लेकिन गँवई समाज में इन्हें 'स्टेटस-सिम्बल' समझा जाता था। गाँवों में आदमी की हैसियत शहरों की तरह लम्बी-लम्बी गाड़ियों से नहीं बल्कि घोड़े, हाथियों और बैलों से ही तय होती थी। ऐसे शाही बैलों को दरवाजों की शोभा बनाकर गाँव के अमीर लोग अपनी अमीरी पर इतराते रहते थे। लोग-बाग भी दूर-दराज से इन्हें देखने आया करते थे। छोटे-छोटे काश्तकार प्रदर्शन वाले इन बैलों को देखकर रस्क किया करते थे। फिर भी वे इन्हें रखने से परहेज करते थे। इनका रख-रखाव उनके वश में था भी नहीं। कहाँ से करते! शहरों में भी तो मध्यवर्गीय लोग लक्जरी गाड़ियों को देख ललचाया करते थे लेकिन यह सोच कर मन मार लेते थे कि इतने कम माइलेज और इतने महँगे रख-रखाव का बोझ कहाँ उठा पाएँगे ! ये बैल साबुन से नहाते थे। सामा और जनेरे भर से तो काम चलता नहीं था, बरसी और चावल की खिचड़ी खाते थे। अब गाँवों में आदमी के खाने के लिए तो चावल की खिचड़ी बड़ी मुश्किल से जुट पाती थी, बैलों को कहाँ से खिलाते! उस पर तुर्रा कि ये जनाब काम-काज भी नहीं करेंगे। ऐसे बैल गाँव के चौधरियों के लिए ही मुनासिब समझे जाते थे। कभी-कभार चौधरी साहब के टायर-गाड़ी में जोते जाते और चौधराइन को मैके तक छोड़ आते थे। खाने-पीने की सभी व्यवस्था के साथ एक सहमे हुए सह्रदय बहलवान के साथ जाते और चौधरी जी के ससुराल तक के दो कोस का सफर रास्ते में चार बार सुस्ता कर तय करते थे। ये अपने मालिकों की तरह ही पड़ुआ होते थे। जहाँ पड़ जाते, बस पड़ ही जाते थे। इसीलिए मेहनतकश किसान ऐसे बैलों से परहेज करते थे।
रामजतन महतो के बैल कद-क़ाठी से तो छोटे ही थे लेकिन थे बड़े फुर्तीले और काम-काजू। लेकिन बाज़ार में अन्दरूनी गुणों को कौन देखता है! इसीलिए सितुआ का सहारा लिया गया था।
अवध को सुबह उठने की आदत नहीं थी। बाबूजी इस बात को लेकर झिड़कते भी रहते थे, "शहर जाकर आदत बिगाड़ आया है। इतनी देर तक सोते रहने वाले बच्चे क्या खाक पढ़ेंगे?" शहरों के रहन-सहन को बाबूजी क्या जानें! शहर में तो बूढ़े-बुजुर्ग ही सुबह-सुबह बिस्तर छोड़ पाते थे। पार्कों में वे ही दिखते थे फूँ-फाँ करते हुए, युवा-पीढ़ी कहाँ नजर आती थी जॉगर्स के बीच ! हालांकि अबतक अवध भी मन दबा कर तैयार हो चुका था। बाबूजी ने थोड़े से पैसे निकालकर उसके हाथों में रख दिये थे। उधर माँ सितुआ को कुछ खुसर-फुसर समझा रही थीं। बैल इन रणनीतियों से बेख़बर जुगाली करते जा रहे थे।
माँ ने दोनों बैलों को आरती दिखाई और हाथ जोड़कर कुछ बुदबुदाने लगीं मानो बैलों से क्षमा माँग रही हों। बाबूजी ने दोनों हाथों से बैलों के गालों को छूते हुए माथा चूम लिया था। बैल भी सिर हिला-हिलाकर जैसे चल पड़ने की अनुमति माँग रहे थे। बाबूजी भाव-विभोर हो आए थे। माँ की भी आँखें भर आर्इं थीं। अवध ने साइकिल सँभाल ली थी। सितुआ ने पगहा खोल बैलों को हाँक लगाई। 'हॉरअ हॉरअ' की आवाज़ सुन, बैल दौड़ पड़े थे।
दूर से ही ढ़ोल और नगाड़ों की आवाज़ सुनाई देने लगी थी। गाँव की सरहद समाप्त हो चुकी थी। लोग चइता गा रहे थे। मेला-स्थल क़रीब आ गया था। गाँव से ज़्यादा दूर नहीं था। जब से बाँध बना है दूरी और भी कम हो गयी थी। बाँध ही सड़क का काम करता था। मिट्टी से बना यह बाँध फाल्गुन आते-आते सूख कर झुर्रट बन जाता था। धूल-धूल भर जाती थी। फाल्गुन और चैत्र के महीने तो यों भी उचाट से लगते हैं। बाँध से लगती हुई बागमती नदी बहती थी। उफनती बागमती से गाँव को बचाने के लिए ही तो इस बाँध को बनवाया गया था। एम.पी. साहब भी हर चुनाव में यह बताते नहीं थकते थे कि यह बाँध उन्होंने अपने एम.पी.लैंड. फंड से बनवाया है। बाहर से ठेकेदार बुलवाए गये थे। स्थानीय ठेकेदारों से कमीशन लेना एक राजनैतिक भूल साबित हो सकती थी, इसीलिए बाहर के ठेकेदारों पर भरोसा किया गया था। बागमती नदी फाल्गुन-चैत्र के महीने में लगभग सूखी ही रहती थी। नदी के तल की इसी सूखी ज़मीन पर हर वर्ष बैलों का यह मेला लगता था।
हज़ारों की संख्या में बैल और उनसे भी कई गुनी संख्या ख़रीदारों और विक्रेताओं की। अब चूँकि मेला ही था तो संख्या का अनुमान लगाना अर्थहीन ही था। अपने देश में बेरोजगारों की कौन सी कमी थी कि मेला सिर्फ खरीदने-बेचने वालों से ही पटा होता! निठल्लों की भी भारी भीड़ उमड़ी रहती थी। बैलों के खुरों से उठती धूल आसमान तक जा रही थी। समूचा वातावरण धूल-धूल हो रहा था। जैसे बैल-धूलि की बेला हो।
दिन चढ़ने लगा था लेकिन बैल अभी भी लाए जा रहे थे। बाँध के ढलान तक बैल अपनी मस्ती में झूमते हुए आते और ढलान पर आकर दौड़ने लगते थे। अपने-अपने बैलों को लिए बहलवान पैना लिए "हॉरअ-हॉरअ" करते हुए पीछे-पीछे दौड़ते रहते और बैल अपनी मस्ती में झूमते हुए आगे-आगे चलते रहते। बाँध से उतरता बैलों का हर झुंड पूरे वातावरण को धूल से भर देता था। बैल ढलान से उतरकर फिर अपनी पूर्व गति में आ जाते और मेले में समा जाते थे। बैलों को देखकर ऐसा लगता था मानो यह उनकी दिनचर्या हो। कोई हरकत नहीं, न ही कोई विरोध। मेले में आकर खूँटे से बँध जाना, कतार में खड़े रहना और पूँछ पटक-पटक कर मक्खियों से लड़ते रहना। यही थी उनकी नियति। बैलों की लम्बी कतार होती थी। जोड़ियों में झूमते हुए बैल 'टुन-टुन-रुन-झुन' की मधुर धुन बिखेरते रहते और वातावरण को मोहक बनाते रहते थे।
बैलों के खुरों से उठती धूल से चेहरे पुते जा रहे थे। चेहरे, कपड़े और जूते, सब धूल-धूल।
"जूता पहिन के कौन कहा था आने को?" सितुआ ने अवध को झिड़कते हुए पूछा।
"सितो भाई, बिना जूता के चलने की आदत छूट गयी है।"
सितुआ व्यंग्य से हँस पड़ा।
"अरे सितो भाई, आपके बालों और चेहरे पर तो धूल का नामोनिशान नहीं है" अवध ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"हम अंगौछा से मुँह झांप लिये थे", सितुआ ने अपने चातुर्य का बखान करते हुए अपने कंधे पर रखे तौलिये से अवध के ऊपर पड़ी धूल को साफ करने लगा।
अवध के लिए बैल के मेले में आने का यह पहला अवसर था। पढ़ाई-लिखाई से समय कहाँ बच पाता था कि गाँव और घर-गृहस्थी! महतो ने बेटे को ख़बर भिजवाई थी कि इस बार बैल बेचना ज़रूरी है। घर में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो बैलों को लेकर मेले में जा पाता। जो बड़े थे वे बूढ़े हो चुके थे, इतने झिरकुट कि मेले में जा नहीं पाते। घर-गृहस्थी वाले दूसरे जवान लोग तो पहले से ही गाँव छोड़-छोड़ शहरों में बस गए थे। इसीलिए अवध को शहर से बुलवाया गया था। अवध एक अर्धशहरी युवक था। शहर में रहकर बाप का नाम रौशन करने के बचपन में ही तय कर दिये गए अपने एजेंडे पर काम कर रहा था। खेत-खलिहान, माल-जाल कहाँ यह सब! किताबों से ही फुर्सत नहीं मिलती थी। अगले वर्ष इंजीनियरिंग का टेस्ट था। कॉलेज, किताब, कोचिंग और बाबूजी, यही थी अवध की दुनिया। दिन में कभी पड़ोस की खिड़की से सुमन का चेहरा दिख जाता, तो एकाध घंटा कट जाता था। नहीं तो इन घर-गृहस्थी की बातों के लिए समय ही कहाँ होता था उसके पास !
मेले की तैयारी में सरकारी महकमे को ज़्यादा परेशान नहीं होना पड़ता था। प्रशासनिक व्यवस्था के नाम पर बस दो-चार सिपाही डंडा लिए घूमते रहते और उगाही करते रहते थे। मेले के लिए टेंडर होता था। कोई एक बड़ा ठेकेदार पूरे मेले का ठेका ले लेता था और बहुतेरे छोटे-छोटे ठेकेदारों को 'सब-कॉन्ट्रैक्ट' दे दिया करता था। ऐसी व्यवस्था भी ठीक ही होती थी। कुछ दिनों के लिए छुटभौये अपराधी भी अपना-अपना धंधा बंद कर मेले की सब-कॉन्ट्रैक्टरी में लग जाते थे। यहाँ भी अच्छी कमाई हो जाती थी और इस काम में अपराध की दुनिया वाला स्वाभाविक ख़तरा भी नहीं रहता था।
ठेकेदार भी मेले को व्यवस्थित रखने में खासी दिलचस्पी लिया करते थे। शायद इसी लिए मेले की व्यवस्था सरकारी व्यवस्था जैसी लचर नहीं होती थी। इसतरह मेले की बुनावट अच्छी बन पड़ती थी। हालांकि पुलिस प्रशासन के लिए हर ज़गह की तरह यहाँ भी चाँदी ही होती थी।
मेले में खूँटा बिकता था। प्रत्येक खूँटे की अपनी क़ीमत होती थी। वास्तव में, खूँटों को खरीदने का अर्थ होता था, खूँटे को किराये पर लेना। बिकाऊ बैल जिस खूँटे से बाँधे जाते थे, उस खूँटे के लिए कौड़ी देनी पड़ती थी। कौड़ी के अलावे पगड़ी भी देनी पड़ती थी और चढ़ावा अलग। हालांकि जबतक बैल नहीं बिक जाते थे, कौड़ी नहीं देनी पड़ती थी क्योंकि कौड़ी की रसीद काटी जाती थी। रसीद कट जाने के बाद बिक्री निरस्त नहीं की जा सकती थी। कुछेक बैल तो मेले में आते और तत्काल बिक जाते थे लेकिन किसी-किसी बैल को बिकने में कई-कई दिनों का समय लग जाता था। कुछ अभागे बैल तो बिक ही नहीं पाते थे। बिचौलियों का भी तो जाल बिछा होता था। इसी लिए खूँटे की पगड़ी देते समय कई बातों का ख़्याल रखना पड़ता था। अच्छी लोकेशन वाले खूँटों के लिए अलग से चढ़ावा देना पड़ता था।
बैलों की ख़रीद-फ़रोख्त बहुत कुछ खूँटे के लोकेशन पर भी निर्भर करती थी। अच्छी लोकेशन वाले खूँटे से बँधे बैल ऊँची क़ीमत पर बिकते थे। इसीलिए अच्छी लोकेशन वाले खूँटे की क़ीमत भी अच्छी होती थी। मेले के मुख्य द्वार के पास के खूँटे सबसे ऊँची कीमत पर बिकते थे। इसी प्रकार अन्दर के चौराहों पर के खूँटों की क़ीमत भी अधिक होती थी क्योंकि चौराहों पर ख़रीदारों की आवा-जाही सतत बनी रहती थी। कई बार खूँटा अच्छा होने पर लोरलाभ बैल भी अच्छी कीमत पर बिक जाते थे, जबकि सजीले छरहरे बदन के दो दाँत वाले बैल भी अच्छी लोकेशन के अभाव में कौड़ियों के मोल ही बिक पाते थे। बैलों को गाँव वापस लेकर लौटने का अर्थ होता था उन्हें हमेशा ही ढोते रहना। मेले से लौट कर आए बैलों को कौन ख़रीदता? अब तो कोल्हू के लिए बैल ख़रीदने वाले तेली भी मेले से ही ख़रीदारी करने लगे थे।
आधुनिक खेती के चलन से गँवई समाज भी बहुत कुछ बदलने लगा था। अब बैलों के ख़रीदार भी चूजी होते जा रहे थे। खेती के लिए बैलों को अब उतना कारगर नहीं समझा जाता था। बड़े किसानों ने ट्रैक्टरों की ओर रुख कर लिया था। भाई-भाई के बीच होने वाले बँटवारों ने खेतों के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिये थे। संयुक्त परिवारों के टूटने-बिखरने के कारण अब एक परिवार के पास खेत का कोई बड़ा भाग रह भी नहीं गया था। प्रत्येक किसान के पास अपना कहने को एक-आध बीघा ही रह गया था। सब के पास अपना ट्रैक्टर नहीं होता था। लेकिन ट्रैक्टर भाड़े पर भी मिल जाते थे। एक-दो चास के लिए भाड़े पर मिलने वाले मिनी ट्रैक्टर ही सस्ते पड़ते थे। फिर बैल कौन खरीदे! यदि बैल खरीद भी लें तो बैलों को लेकर साल भर कौन ढोता रहे! चारा भी तो महँगा हो गया था। पुआल, भूसा, खली सब महँगे हो गए थे और पानी-सानी का झंझट अलग। आदमी-जन तो मिलने से रहे। मिलते भी तो इतने महँगे कि रखना मुश्किल। इस नए ज़माने के पढ़ने-लिखने वाले बच्चे पानी-सानी को अपनी शान में बट्टा समझते थे और बूढ़े-बुजुर्ग अब यह सब कर नहीं पाते थे। शरीर भी तो थक चुका था। पहले तो गोबर भी काम आ जाता था और अच्छी क़ीमत पर बिक जाता था। गोहरे-गोइठों की भी ख़ूब माँग हुआ करती थी। खाद के लिए तो गोबर सोने सरीखा समझा जाता था। लेकिन अब तो स्थितियाँ ही उलट हो गई थीं। मल्टीनैशनल्स ने इतने केमिकल बाज़ार में उतार दिये थे कि अब गोबर की बात कौन करता! इन सब बातों का सीधा असर बैलों के इस मेले पर साफ़ दिख रहा था। शायद इसीलिए अब बैलों के मेले की अवधि भी कम हो गयी थी। नहीं तो कुछ साल पहले तक बैलों का यह मेला महीने-महीनों तक चलता रहता था।
महतो के पास ले देकर यही एक जोड़ी बैल बच गए थे। लेकिन बेटी का ब्याह टाला नहीं जा सकता था। पहले तो दहेज के नाम पर बैल भी चल जाते थे, लेकिन अब ट्रैक्टर से नीचे कहाँ बात बनने वाली थी! अब बेटी का ब्याह तो करना ही था! घर में बैठा के तो रख नहीं सकते थे! गाँव, समाज और बिरादरी को जवाब भी तो देना होता है! इसीलिए इस वर्ष बची हुई इस एक जोड़ी को भी बेच देने का निर्णय ले लिया गया था।
"अवध, गाँव में एक कहावत है। किसी से दुश्मनी हो जाए तो उसे बैल बेचने भेज देना चाहिए। जब स्साले को बैल लेकर दो-चार कोस बैल के पीछे-पीछे दउड़ना पड़ेगा और दिन भर धूरा फांकना पड़ेगा, तब बुझाएगा....." बोलते हुए सितुआ हो-हो कर हँसने लगा था।
अब तक अवध और सितुआ बैलों को लेकर मेले में धँस चुके थे। सितुआ की चतुराई काम नहीं आई थी। अपनी लाख़ तिकड़मी बुद्धि के बावजूद वह अच्छी लोकेशन वाला खूँटा नहीं ले पाया था। रसूख भी काम नहीं आया था।
"कहाँ बाँधना है", अवध ने पूछा।
"खुँटवा तो अंदरे में मिला है", सितुआ ने कहा।
"क्या फर्क पड़ता है, अन्दर हो कि बाहर हो!" अवध ने निश्चिंतता दिखाई।
"नहीं, फर्क कइसे नहीं पड़ता है", दबी ज़ुबान में बोलते हुए सितुआ ने मानो गूढ़ रहस्य को छुपा लिया था।
चौराहों पर कुछ खोमचे वाले भी दुकान सजाए बैठे होते थे। लाई-मूढ़ी, कचरी-प्याजी, लट्ठ-हवा मिठाई जैसी बच्चों को भुलावे में रखने वाली कई और भी चीज़ें बिकती रहती थीं। इन दुकानों पर बच्चे और मक्खियाँ टूट पड़ते थे। मेले के अन्दर की सड़कों के किनारे-किनारे कुछ कपड़ों की छोटी-छोटी दुकानें भी होती थीं। यह उम्मीद रहती थी कि बैलों की बिक्री के बाद प्राप्त धनराशि से उत्साहित किसान कुछ कपड़े ही ख़रीद लें। लेकिन बैलों की तरह ये दुकानदार भी मक्खियाँ ही उड़ाते रहते थे।
बैलों के खरीदारों और विक्रेताओं के चेहरे दिन चढ़ने के साथ-साथ अँगौछों से ढँकते जाते थे। पूरा दिन निकल आता तो अँगौछे खुलकर चेहरे और सिर पर आ जाते। धूप से ज़्यादा धूल का भय होता था। मेले में दिन-भर चिल्ल-पों मचता रहता था।
आदमी ही ज्यादा शोर-शराबा करते थे। बैलों को तो बोलने की भी अनुमति नहीं होती थी। मुँह में जाब लगे होते थे। बैल एक कतार में खड़े होते थे। ठेकेदार खूँटों की संख्या से अंदाजा लगाते थे कि मेले में कितने बैल लाए गए होंगे। बैलों के मालिक अपने अंगौछों से बैलों पर उड़ती मक्खियों को भगाने में बैलों की मदद किया करते थे। गोबर ही मक्खियों का कारण होते थे इसीलिए जैसे ही बैल गोबर करते, गोबर को काछ कर हटा दिये जाने की पूरी कोशिश की जाती थी। लेकिन जमीन पूरी तरह साफ नहीं हो पाती और मक्खियाँ फिर से भिनभिनाने लगती थीं। बैलों को कुकुरमाछी और डस परेशान करते रहते और बैल अपने पैरों को पटक-पटक कर इनसे लड़ते रहते थे। कुकुरमाछियों-डसों और बैलों का यह संघर्ष सतत जारी रहता और बैल अपनी पूँछ घुमा-घुमाकर मक्खियाँ उड़ाते रहते थे। पूँछ और पीठों की इस जंग से उठती पट-पट की आवाज़ बैलों के गले में बँधी घंटियों के टुन-टुन-रुन-झुन की आवाज़ में घुलमिल कर एक नयी धुन बना रही होती थी।
अपने-अपने खूँटों से बँधे बैल इस बात से बेख़बर रहते थे कि आने-जाने वाले लोग उन्हें क्यों छू रहे हैं। कोई पीठ पर हाथ फेरता तो कोई सींग पकड़ कर हिला देता। कोई पुट्ठों पर ठोंक लगा जाता तो कोई पूँछ पकड़ कर खींचता। कोई जबड़ों के अन्दर जबरदस्ती झांकने की कोशिश करता तो कोई नीचे बैठकर पता नहीं टांगों के बीच क्या निहार जाता। लोग आते, टटोलते और चले जाते। फिर अंगौछे अंगौछों में क्या बातें होती, मालूम न चलता। आधी टांग तक धोती बाँधे, कंधों पर अंगौछा डाले, उम्र से पहले ही बूढ़े हो चुके इन कंकालनुमा ख़रीदारों से बे-ख़बर ये बैल मुँह उठाये अपनी मासूमियत का बयां करते रहते थे। तरतीब क्यारियों में खड़े ये बैल अपनी-अपनी बारी का इन्तज़ार करते रहते और खरीदारों की बेतरतीब भीड़ इनका मोल-तोल कर रही होती। बैल जोड़ियों में बिकते थे इसीलिए बैलों की जोड़ी लगायी जाती थी। यह जोड़ी इंसानों की जोड़ी की तरह नर और मादा की नहीं होती थी बल्कि यह जोड़ी होती थी दो मजबूत कंधों की।
बैल इंसानों की तरह अपनी जाति या धर्म से नहीं बल्कि अपने दाँत से पहचाने जाते थे। बैलों की कीमत दाँत देखकर ही आँकी जाती थी। दो दाँतों वाले बैलों की बड़ी कीमत होती थी। कदवा-हरवाई में तो ये ट्रैक्टर से भी ज़्यादा कारगर समझे जाते थे। मूल्य की दृष्टि से इनके समकक्ष सिर्फ चार दाँत वाले बैल ही खड़े हो पाते थे, नहीं तो सतधर आदि को पूछता ही कौन था। अदन्त और तउल की क़ीमत सबसे कम होती थी। अदन्त को दो दाँत का होने तक पालने का झंझट था और तउल तो बूढ़े और नकारे ही समझे जाते थे। आठ दाँत वाले इस अनोखे पशु के दाँतों का बड़ा महत्व होता था। इसीलिए इस बात का खासा ख़्याल रखा जाता था कि इन्हें कसौया जैसे दाँतों का कोई रोग न हो। बैलों की गुणवत्ता के आकलन के लिए तो ऐसे कई मापक थे लेकिन मेले में आए ख़रीदारों की आंतों की गहराई का अंदाज़ा लगाने की कोई तरक़ीब नहीं दिख पाती थी।
बैलों की छटा देखते बनती थी। ऊँचे-ऊँचे बैल, छोटे-छोटे बैल, फुर्तीले बैल, पड़ुआ-लोरलाभ बैल, सींग वाले और बिना सींग वाले बैल, तरह-तरह के बैल, लेकिन सभी बिकाऊ। ख़रीदार जब पुट्ठों पर हाथ रखते तो बैल सिहर उठते थे। फिर कंधों को हिलाकर अपने कौमार्य का परिचय दे देते थे। सिर हिला-हिलाकर घंटियाँ टुनटुनाते हुए पता नहीं क्या संदेश देते रहते थे।
"का भइया, महतो का बैल यही है?" किसी ने जोर से पूछा।
"हाँ-हाँ, यही है। आइये देखिये", अवध ने हुलस कर कहा।
लेकिन सितुआ ने निर्विकार भाव से बस 'हाँ' में सिर हिला दिया था। उसकी अनुभवी आँखें शायद यह भाँप गयी थीं कि यह ख़रीदार नहीं है।
"अरे भाई, सोरहट वाले पंडी जी तो कह रहे थे कि चार दाँत का है, ई तो सतधर बुझाता है?"
"सतधर है? अँखियाँ में बट्टम घुसा हुआ है? अइसा बैल देखें भी हैं का कभी? सतधर है..हूं..बात करता है.." सितुआ ताव में आ गया था।
"अरे भाई हम तो मजाक कर रहे थे। महतो का बैल तो हम तब से देख रहे हैं जब अदन्त था।" वह बोलकर हँसने लगा और आगे बढ़ गया था।
सितुआ ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे अब इस बात में कोई सुबहा नहीं रह गया कि यह ख़रीदार नहीं बिचौलिया था।
"का देवता, दू कि चार?" एक और ख़रीदार मुख़ातिब था।
"कोई चोरी-छुपे थोड़े है, अपने से देख लीजिए?" सितुआ ने कहा।
"फिर भी", उसने धीरे से पूछा।
"है त चार दाँत, लेकिन जोत के देखिए। बाकी सब फेल है।" सितुआ ने आग्रह किया।
खरीदार ने पहले तो नीचे बैठकर बैलों को निहारा फिर बैलों की आँखों के सामने हाथों को लहराने लगा।
"क्या देख रहे हैं? अंधा थोड़े है।"
"कितना?" उसने पूछा।
"देख लीजिए, लग जाएगा। इतना सस्ता पूरे मेले में और नहीं मिलेगा। किलौर देख रहे हैं? पालो चप्प से बैठता है। एक बार जुआ डाल दीजिए तो क्या मजाल कि हिल जाए", सितुआ बैलों की विशेषता का बखान करने लगा था।
"दमवा त बोलिए?"
सितुआ ने क़ीमत बतायी तो उसकी आँखें चौड़ी हो आर्इं। वह बोल पड़ा,
"ई तो बहुत जादा है।"
"आप ही बोल दीजिए", सितुआ ने दबाव देते हुए कहा।
इसी बीच साथ खड़े एक अन्य ख़रीदार ने पूछ लिया, "ई दाग कइसा है भइया? जला हुआ तो नहीं है?"
"ना देवता, जला हुआ देंगे। ई पाप हमी करेंगे!" सितुआ ने सफाई दी।
"झनक त नहीं है?" उसने फिर से छेड़ा।
"का बात करते हैं भाई, रोगी बैल देंगे? हमारा ईमान मर गया है क्या? अरे हाथ कंगन को आरसी क्या, बैल सामने है, चला कर देख लीजिए। झनक होगा त आपको पता चल ही जाएगा", सितुआ का स्वर नर्म ही रहा।
लेकिन थोड़ी देर इधर-उधर करने के बाद खरीदार आगे बढ़ गए थे। इसी बीच मोटे फेंटे वाले दो खरीदार अवध से पूछताछ करने लगे थे। इन नए ख़रीदारों ने शानदार और करीने की पोशाक पहन रखी थी। धूप-चश्मा चढ़ाकर बैलों का मोल-तोल करने वाले इन ख़रीदारों को देख अवध चकित था।
"देख लीजिए, आपके ही लायक हैं।" सितुआ ने आग्रह किया
"सतधर है कि तउल?" बैलों पर उड़ती नज़र डालते हुए इस नए ख़रीदार ने पूछा था। इतना सुनते ही सितुआ के कान खड़े हो गये।
"हम लोग हिन्दू हैं, कोई मुसलमान नहीं कि तउल का सौदा करेंगे। जोत का है, आगे बढि़ए।" सितुआ ने चेहरा कठोर करते हुए कहा था।
"पूरा दाम ले लीजिए।" उन्होंने कहा।
"बोले ना, नहीं बेचना है। आगे बढि़ए।" सितुआ अब चिढ़ गया था।
अवध ने गौर किया कि इन नए ख़रीदारों ने न तो बैलों के जबड़े खोले थे और न ही यह देखा था कि पेट सपाट है कि लटका हुआ। न तो कंधों पर जुआ रख कर देखने की पेशकश की थी और न ही यह जानना चाहा था कि जब बैल चलते हैं तो उनके पैर आपस में टकराते तो नहीं। सीधे-सीधे बैलों की कीमत देने को तैयार हो गए थे। अवध को खरीदार अच्छे लगे थे। लेकिन उसे इसबात पर घोर आश्चर्य हुआ कि सितुआ ने उन्हें डाँट कर क्यों भगा दिया था।
अवध ने पूछा, "सितो भाई, दाम तो दे ही रहा था, क्यों भगा दिया?"
सितुआ ने उसकी बातों को अनुसुनी करते हुए कहा, "पैसा ही सबकुछ नहीं होता। बैल बेचने आए हो, हड़बड़ाने से थोड़ी होगा।"
दिन पूरा चढ़कर अब उतरने लगा था। जलखई की रोटियों को चट कर दोनों ने लोटा भर कर पानी पीया। जलखई के बाद सितुआ खैनी ठोंखने लगा था। खैनी को होंठों में दबाने के बाद सितुआ ने अवध को कहा,
"अच्छा सुनो, तुम यही ठहरो, हम अभी आते हैं।"
"कहाँ जा रहे हैं?" अवध ने बेचैन होते हुए पूछा।
सितुआ ने कनखी मारते हुए कहा, "वहीं। कल बताये नहीं थे? आ रहे हैं अभी। बैठो ना परेशान काहे होता है! तू तो जाएगा नहीं। तू तो अभी तक बच्चा ही है.....तुम बैठकर मेला का मजा लो, हम अभी आते हैं।"
फिर हँसते हुए बोला, "बैल छोड़कर कहीं जाना नहीं। और हड़बड़ाने का भी कोई ज़रूरत नहीं है। आज नहीं बिकेगा तो कल बिकेगा और कल न तो परसो सही। हमारे रहते कोई दिक्कत नहीं होगा। अब मेले में आ ही गए हैं तो आराम से बेचकर ही जाएँगे। ठीक ना? हम अभी आते हैं, तुम यही रहो..." बोलते हुए सितुआ गोबर के टाल की ओर बढ़ गया था।
बाँध के किनारे नीचे की ओर गोबर का एक टाल होता था जिसे माँद कहते थे। गोबर को यही एकत्र किया जाता था। यहाँ से रात-बिरात गोबर की चोरी भी होती थी। गोबर बीनने वाली महिलायें और बच्चे इसी ताक में तो रहते थे कि कब मौका मिले और वे एक-आध छींटा लेकर भागें।
इसी गोबर के टाल के पीछे टाट के कुछ झोपड़े बने होते थे। इन झोपड़ों में भी एक मेला लगा होता था। बैलों के मेले में इन अस्थाई झोपड़ियों के होने का शायद वही अर्थ होता था जो हाथी के मेले में ऊँटों के होने का होता था। फूस और सरकंडों के साथ बाँस की खरपच्ची को जोड़-जाड़ कर बनायी गई इन झोपड़ियों में कोई सुचारु व्यवस्था नहीं दिखती थी। पन्द्रह-बीस की संख्या में दो कतारों वाली झोंपड़ियाँ अति सघन होती थीं। प्रत्येक झोपड़ी से ओसारे लगे होते थे। ओसारों के बाद दरवाज़े होते थे जहाँ पर्दे लगे होते थे। पर्दों के पीछे कतार से खाटें लगी होती थीं। ठेकेदार यहाँ भी होते थे। टेंडर यहाँ भी होता था लेकिन अवैध। यहाँ भी खाटों का किराया खूँटों की तरह ही लोकेशन के अनुसार तय होता था। लेकिन यहाँ का समीकरण बैलों के मेले से विपरीत होता था। इस मेले में मुहाने की खाट की क़ीमत कम होती थी जबकि अन्दर कोने की खाट महँगी बिकती थी। मुहाने की खाट का अच्छा माल भी सस्ता बिकता था जबकि अन्दर कोने की रोशनी विहीन खाट का घटिया माल भी ऊँची कीमत पर बिक जाता था। कोने की चोर-खाट के लिए वस्तु की गुणवत्ता से भी समझौता कर लिया जाता था।
बैल तो अपने बालपन से ही जि़दगी की मस्ती के इस रहस्य से महरुम कर दिये गए होते थे। फिर भी ये बैल इन झोपड़ियों की ओर मुँह उठाये क्या देखते रहते थे, मालूम नहीं। बैलों के मेले में शोर-शराबा बहुत होता था। हऱ तरफ लोग घूम रहे होते और सीना फुलाए बैलों का मोल-भाव कर रहे होते थे। मोल-भाव तो इन झोपड़ियों में भी होता था, लेकिन दबी ज़ुबान में। सामने चलते हुए, अपने बराबर में खड़ी लड़की से उसका भाव पूछ लिया जाता। कोई शोर-शराबा नहीं। सब कुछ चुप-चुप सा होता था। निगाहें झुकाए सहमे-सहमे से ख़रीदार। यहाँ सीना फुलाए वही ख़रीदार घूम रहे होते जो वास्तविक ख़रीदार नहीं होते थे। यहाँ समय काटने वाले निठल्ले मनचले भी तो आते थे।
चूँकि झोपड़े अस्थायी होते थे और एक छोटी सी अवधि को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते थे, इसीलिए यहाँ भी अपने देश की काम-चलाऊ व्यवस्था जैसी व्यवस्था ही दिखती थी। झोपड़ों से निकासी की कोई समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण पानी निकलकर गली में गिरता और वहाँ की कच्ची मिट्टी को गीली करता रहता था। झोपड़ों के साथ लगा गोबर का टाल भी बास मारता रहता था।
इन झोपड़ों में ओसारे से होकर खुलने वाले मुख्य-द्वार के अन्दर खाटों का सिलसिला शुरु होता था। खाटों को कतार में रखा जाता था। ये मूज की रस्सियों से बुनी हुई होती थीं। दो खाटों के बीच में गोपनीयता बरक़रार रहे इसके लिए कपड़ों की दीवारें खड़ी कर दी जाती थीं। प्राय: ये दीवारें फटी-पुरानी झीनी-झीनी साड़ियों या पुरानी चादरों से ही बनायी जाती थीं। पुरानी साड़ियों से अलगाई गई खाटें, जेल की बैरकों सरीखी दिखतीं थीं। गारे-सीमेंट से बनी लोहे की सलाखों वाली जेलों की मोटी-मोटी दीवारों में तो सेंधमारी हो जाया करती थी लेकिन झीनी-झीनी साड़ियों से बनी इन दीवारों को तोड़ पाने की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती थी। कभी-कभी खाटों के बीच की चादर गिर जाती, और पर्दे के पीछे की स्याह आकृतियाँ अपने मूर्त रूप में सामने आ जाती थीं। हालांकि यहाँ पड़े यांत्रिक बुतों को कोई अन्तर नहीं पड़ता था। यहाँ शर्म और हया जैसे शब्द बेमानी समझे जाते थे। यहाँ एक केयर-टेकर भी होती थी, जिसे आमतौर पर मौसी कहने का प्रचलन था। बेपर्दा होने की ऐसी स्थिति में यंत्र तो अपना काम करते रहते, लेकिन मौसी इसबात का ध्यान रखतीं और आकर दीवार जोड़ जाया करती थीं।
खाटों के बीच की दीवारों से एक खाट से दूसरी खाट पर हो रही हरकतें साफ-साफ देखी जा सकती थीं। लेकिन हाँफती-हँफाती आकृतियाँ अपनी साधना में इतनी लीन होतीं कि दूसरी खाट की ओर देखने की फुर्सत ही किसे होती थी! एक अज्ञेय ब्लौक-होल में समा जाने को आतुर आकृतियाँ एक-दूसरे पर अपनी-अपनी गर्म और बदबूदार सांस छोड़ती रहतीं।
पतली-सँकरी गलियों में फैले कीचड़ से बचते-बचाते प्रेतों के काफिले ओसारों पर चढ़ते-उतरते रहते और अपनी मंजि़ल की तलाश में लगे रहते थे। झोपड़ियों के ओसारों की चौखटों से टँगी गंगाएँ, इन गलियों में भटकती प्रेतात्माओं को मोक्ष पाने को ललचाया करती थीं। चलते-फिरते ये प्रेत अपनी-अपनी धोती या पायजामा ऊपर उठा, ओसारों का सहारा लेकर आगे बढ़ते रहते थे। परिचित चेहरों से अपने को बचने-बचाने की भी ख़ूब असफल कोशिश की जाती थी। झोंपड़ों के दरवाजों पर आमंत्रण देते रंग-बिरंगे पुतलों में तब्दील कंकालों से दबी जुबान में मोल-भाव किया जाता और भाव तय होते ही प्रेत झटके से पर्दे के अन्दर विलीन हो जाता था। पर्दा गिरा दिया जाता और शुरु हो जाती एक प्रेत-लीला। प्रेतात्माएँ कंकालों में समा जातीं। पाँच-सात मिनटों का खेल होता और फिर तृप्त प्रेतात्माएँ पर्दे की ओट से बाहर निकल आतीं। हरेक को पाँच-सात मिनटों का समय मिलता अपना पौरुष आजमाने को। इन्हीं पाँच-सात मिनटों में अपने-अपने पौरुष का इम्तेहान देकर प्रेत बाहर निकल आते और अगले दो-चार मिनटों में, फिर से किसी और प्रेत का पौरुष आजमाने को कंकाल पुन: खड़े हो जाते थे। पुतलों को कंकालों में और कंकालों को पुतलों में बदलते रहने की यह प्रक्रिया दोपहर से शाम और शाम से रात तक चलती रहती और कंकालों में शरीर तलाशते ये प्रेत देर रात तक इन्हीं गलियों में भटकते रहते थे।
एक महिला ने एक छोटी सी लड़की की गर्दनी पकड़ रखी थी। यही कोई बारह-चौदह साल की रही होगी.
महिला ने सितुआ को झंकझोड़ते हुए दहाड़ा, "खाली आँख सेंकने आया है कि बैठेगा भी? इसे ले जा। माल ताजा है।"
"कितना?" सितुआ ने मोल किया। सितुआ को शायद लड़की का भोलापन भा गया था।
"पाँच सौ", महिला ने हाथ से इशारा करते हुए कहा।
"पाँच सौ !" सितुआ ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लड़की को निहारा।
"अइसा खिच्चा माल पूरे मार्किट में नहीं है। पहिला बार आई है। एकदम ताजा है", महिला ने आग्रह किया।
सितुआ ने लड़की पर फिर से एक उड़ती नज़़र डाली और बोला, "कब की उतरी है?"
महिला ने भौं टेढ़ी की, "ले जा कुछ कम दे देना।"
"कितना?" सितुआ ने फिर मोल किया.
"चल पचास रूपया कम दे देना", महिला ने दाम तोड़ा।
"पाँच मिनट में त काम निपट जाता है। पाँचे मिनट का एतना?" सितुआ ने विस्मय से मोल किया ताकि भाव कम हो सके।
"तीन घंटा रख के अचार डालेगा?...चला है बात बतियाने।" महिला भुनभुनाने लगी थी। महिला ने पूछा, "तुम्हीं बोल दो कितना देना है..."
"सौ रुपया में भेजेगी तो बोल," सितुआ ने अंतिम मोल किया।
"सौ रूपया में तो बुढि़या नहीं मिलती है इस मार्किट में, फिर यह तो कच्ची है.... महँगाई केतना बढ़ गया है...हमलोग का पेट नहीं है का?" महिला ने लड़की के सिर पर हाथ फेरते हुए लड़की को पुचकारते हुए कहा।
"नहीं, नहीं, सौ ठीक है...." सितुआ ने ज़ोर देकर कहा और आगे बढ़ गया।
"चार सौ देगा? फाइनल बोल?" ग्राहक सीरियस दिखा था। कहीं दूसरे झोंपड़े की ओर मुँह ना कर ले, इसी आशंका से महिला ने दबाव डाला था।
"नहीं, सौ से एक पइसा जादा नहीं", सितुआ ने अपनी अंतिम राय दे दी थी।
"चल भाग इहाँ से हरामी....बोहनी बट्टा के टाइम ही कहाँ से स्साले आ जाते हैं... सौ रुपया में जाके अपनी......." महिला उग्र हो चली थी।
सितुआ ठिंठियाते हुए आगे बढ़ गया था। सितुआ की तलाश जारी थी।
"कइसे किलो?" सितुआ ने लापरवाही से पूछ लिया था।
"तीन सौ", सफेद पाउडर में लिपटे हुए चेहरे के बीच लिपिस्टिक पुते हुए लाल टह-टह होठ हिले थे।
"पचास में देगी?" सितुआ ने आगे बढ़ते हुए पीछे मुड़कर ठिठोली से पूछ लिया था।
इस बार केवल होठ नहीं हिले, समूचा मुँह खुला। पान से सँड़ चुके काले-काले दाँत दिखे और कर्कश आवाज़ गूँजी, "पच्चास में तोरी.............."
सितुआ खीं-खीं करके हँस पड़ा।
उसने दूसरा दरवाज़ा टटोला, "माल है?"
"इधर आ इधर। बैठना हो तो मोल कर, फकैती नहीं" एक मोटी महिला ने बीच में पड़ते हुए सवाल किया।
"फकैती किस चीज़ का? माल दिखाओ, और फीस बताओ", सितुआ ने जोर देकर कहा।
महिला ने पास वाले दरवाजे से टिकी गुमशुम खड़ी लड़की की ओर इशारा किया।
सितुआ को लड़की भा गई। लड़की की ओर एक टक देखते हुए महिला से मोल किया, "कितना"?
"बोहनी का टाइम है, जो समझ में आए, दे देना", महिला ने निरीह भाव से कहा था।
"दो सौ रूपया देंगे, मंजूर हो तो बोल", सितुआ ने अंतिम फैसला सुनाया।
"जा ले जा, पैसा इधर जमा करा", महिला ने सौदे पर अंतिम मुहर लगा दी।
सितुआ की तलाश ख़त्म हो चुकी थी। उधर दोनों महिलाओं में भिड़न्त हो चुकी थी। मोटी महिला पर ग्राहक छीन लेने का आरोप था। लेकिन इस बाज़ार के भी अपने नियम होते थे। इन झगड़ों से ग्राहकों को अलग रखा जाता था और ग्राहक भी इन झगड़ों से कोई लेना-देना नहीं रखते थे। सितुआ खाट की ओर बढ़ गया। मौसी ने पर्दा गिरा दिया था।
इधर अवध बैठा-बैठा ऊब रहा था। ऊब से नींद भी आने लगी थी। धूप और धूल का मिश्रण शहरी शरीर को थकाने के लिए काफी था। अकेला था। बैलों को छोड़कर कहीं जाए भी तो जाए कैसे! सितुआ ने कहीं जाने से मना कर रखा था। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी थी।
भुनभुनाने लगा, "ये सितुआ भी कहाँ रह गया!"
वह अभी सोच ही रहा था कि किसी ने आवाज़ दी, "क्या भाई, बेचना नहीं है?"
अवध ने देखा यह वही धूप-चश्मा वाला ख़रीदार था।
अवध ने कहा, "क्यों नहीं बेचना है, आइये देखिए।"
"हम तो उसी समय देख लिए थे। बेचना हो तो रसीद कटवा देते हैं, बोलिए।" उसने बिना विचार किये जोर देकर बोला।
अवध की खुशी का ठिकाना न रहा। लेन-देन के बाद आख़िररकार कौड़ी की रसीद कट गयी। ख़रीदारों ने बैलों को खूँटे से खोल लिया और आगे बढ़ गए थे।
सितुआ वापस लौटा तो उसके चेहरे से तृप्ति-भाव टपक रहा था। अवध ने बैलों का सौदा हो जाने की खुशख़बरी सुनाई तो सितुआ हैरान रह गया। अवध ने बैलों का सौदा कर लिया यह उसके लिए आश्चर्य का विषय था। इसीलिए विस्मय के साथ हर्षित भी हुआ। फिर उसने अवध से सवाल किया, "ख़रीदार कौन गाँव का था? क्या नाम था?"
"यह तो पूछे नहीं", अवध ने भोलेपन से कहा।
"बिना कुछ जाने-सुने बेच दिए? हूँ, लेल्ह ही हो। रसीद में देखो, नाम-पता लिखा होगा।" सितुआ ने झिड़कते हुए कहा था।
"अरे, उ चश्मा वाला नहीं था, उसी को तो बेचे हैं" अवध ने बताया।
यह सुनना था कि सितुआ ने सिर धुन लिया।
सितुआ आहत मन से बोल पड़ा "क्या? ई क्या किया तुम ! अरे तुम देखे नहीं थे कि बिना कुछ देखे-सुने कइसे अंधा जईसा बतिया रहा था। समझ में नहीं आता है तुमको कुछ भी? इतना बड़ा शहर में पढ़ रहे हो और दिमाग ढेला भर का नहीं है।"
"काहे क्या हो गया? हमको बताइये। क्या बात है सितो भाई?" अवध का मन अब बेचैन हो गया था।
"अरे यार, उ कसाई था।" सितुआ ने चीख़ते हुए कहा।
फिर थोड़ा थमकर बोला, "पाप हो गया रे अवध। चाची बहुत गुस्साएंगी।"
सितुआ आसमान की ओर देखकर कुछ बुदबुदाने लगा था मानो अपने पीर-पुरखों से क्षमा-याचना कर रहा हो।
अवध ने सहमे हुए स्वर में कहा, "सितो भाई, माँ को मत बताइयेगा।"
सितुआ उसे देखकर मुस्कुराया और धीरे से बोला, "चलो जो हुआ सो हुआ। ठीक है, हम चाची को कुछ नहीं बताएँगे। लेकिन तुम भी हमारे घर में भनक मत लगने देना कि हम तुमको छोड़कर कहीं और भी गए थे।"
मौन समझौते पर सहमति बनते ही दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
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आमतौर पर पुलिस की छवि लोगों की नजरों में नकारात्मक होती है, लेकिन जनपद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की एक पहल ने न सिर्फ इसे बदलने का काम किया है, बल्कि जनपद में इसकी बेहद सराहना भी हो रही है. एसएसपी ने एक गरीब दिव्यांग मजदूर के बच्चे का पुलिस मॉर्डन स्कूल में दाखिला करवाकर पीड़ित परिवार और मासूम के चेहरे की मुस्कान वापस लौटाई है. https://hs.news/police-captain-taken-responsibility-for-giving-education-to-the-son-of-labourer/
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