ये गई रात के किस्‍से हैं — कहानी — योगिता यादव

फ़ोटो: भरत एस तिवारी


कहानी

कृश्न चन्दरजी का कालजयी व्यंग्य 'एक गधे की आत्मकथा' अभी इसलिए याद आ रहा है कि हिंदी को अच्छी-अच्छी कहानियों से समृद बना रही युवा कहानीकार योगिता यादव की कहानी 'ये गई रात के किस्‍से हैं ' पढ़ने के बाद यह अहसास अभी तक बना हुआ है कि कहानी 'एक पत्रकार की आत्मकथा' है. अच्छी कहानी पढ़ना वैसे भी एक पाठक के लिए सुखद होता है और अगर वह अच्छी कहानी साथ ही साथ पाठक को उसके किसी मित्र, पड़ोसी, रिश्तेदार की ज़िन्दगी का वह हिस्सा बगैर जजमेंटल हुए दिखला दे जो उसका वह मित्र, पड़ोसी, रिश्तेदार छुपाये रखने को मजबूर होता है तो वह एक सुघड़ जीवनरेखा वाली बेहतरीन और फुटनोट में संदर्भित की जाने वाली कहानी हो जाती है. 

बधाई योगिता यादव.

भरत एस तिवारी
१८.६.२०१९ 
नई दिल्ली




योगिता यादव (फ़ोटो: भरत एस तिवारी)

ये गई रात के किस्‍से हैं 

— योगिता यादव

बाजार में सामान दुकानों से बाहर निकल आया था। रंग-बिरंगे आकर्षक डिब्बों में पैक किए गए तोहफे, शो पीस, ड्राई फ्रूट, यहां तक कि परदे और फर्नीचर भी दुकानों से निकालकर बाहर बनाए गए पंडालों में सजाए जा रहे थे। जैसे लच्छा आइसक्रीम के लच्छे गिलास से बाहर लटका दिए जाते हैं, ललचाने के लिए। गली से बाहर निकलते ही मुहाने पर सजी दुकान ने एक बार फिर से विमल कुमार को अपनी ओर ललचाया। याद आया घर के परदे पुराने पड़ गए हैं। कुछ आगे बढ़े तो देखा बर्तनों की दूकान दुल्हन की तरह सजी है। दूकान में आमतौर पर जितना सामान होता है, उससे दस गुना ज्यादा सामान तो बाहर ही दिख रहा है। पारदर्शी पैकिंग में से झांकती कांच की क्रॉकरी के तो कहने ही क्या! इस बार देखा स्टील के पारंपरिक बर्तन भी बेहद आकर्षक और नई ढब में दिख रहे हैं। चोकोर गिलास, चोकोर थालियां.... गिलासों पर रंगीन फूल पत्तियों के डिजाइन। ऐसी ही रंगीन बेल बूटों वाली सजावट आटा, चावल रखने के बड़े-बड़े डिब्बों पर भी की गई है...  याद आ गया पत्नी पिछली दो दीवालियों से एक और डिब्बा लाने को कह रहीं हैं। क्योंकि आटे के लिए तो डिब्बा है पर चावल अभी भी प्लास्टिक के पारदर्शी डिब्बे में रखे जाते हैं।

इससे पहले कि और दुकानें विमल कुमार को ललचाती, उन्होंने आंख मूंदकर अपनी राह लेना ही मुनासिब समझा। दुनिया के बाजार से आंखें मूंदकर उन्होंने दफ्तर के लिए बस पकड़ी। पर कहां, अभी आंखें कहां मूंदी जा सकती थी, बस में बैठे ज्यादातर लोगों के हाथों में रंग-बिरंगे चमचमाते तोहफों के पैकेट थे। ये इनका दीवाली का ईनाम होगा, जो इन्हें इनके नियोक्ता की ओर से दिया गया होगा। सुनहरे रंग के बड़े पैकेट से बाहर झांक रहा हेंडिल बता रहा था कि इसके भीतर कंबल ही होगा। इस समय रात में ऐसी मीठी-मीठी सर्दी है कि यही कंबल काम आते हैं। पिछली बार एक मित्र ने ऐसा ही कंबल उन्हें तोहफे में दिया था तो वे अम्मा को दे आए थे। आसपास के सभी परिवारों में नई बहुएं आजकल मायके से ऐसे ही कंबल लेकर आती हैं, सो अम्मा को भी चाव चढ़ा कि अब लाल इमली वाले काले, नीले कंबल नहीं, वे भी ऐसा ही नर्म रंगीन कंबल ओढ़ेंगी। यूं तो पिताजी की पेंशन पर्याप्त है घर की सुख-सुविधाओं के लिए पर उन्होंने तो अम्मा के शौक उम्र रहते ही पूरे नहीं किए, तो अब बुढ़ापे में कहां करेंगे।

 विमल कुमार ने जैसे ही तोहफे में वह नर्म रंगीन कंबल पाया, वैसे ही घर जाने का मन बना लिया। कंबल पाते ही अम्मा भी अभिभूत हो गईं थी अपने लाडले पर। क्या हुआ जो आइएस क्वालीफाई नहीं कर पाए, मां के लिए जिसके मन में सम्मान और प्यार का भाव हो, वही उसका होनहार सुपुत्र होता है।

पिताजी ने कहा भी था कि रेलवे में फार्म भर दो,  कहीं न कहीं से कुछ ले दे कर इंटरव्यू में निकलवा देंगे। यूं विकल्प अध्यापकी का भी था, पर उस समय विमल कुमार को देश बदलने की चढ़ी थी। उन्हें लग रहा था कि देश का लोकतंत्र खतरे में है। सरकार आम आदमी के अधिकारों पर कुंडली मारे बैठी है। भ्रष्‍टाचार की सुरसा मुंह बाए खड़ी है, उस पर जमाखोरों और दलालों ने देश की अर्थव्यवस्था खोखली कर दी है। उन्होंने तय किया कि ऐसी नाकारा, पंगु सरकार की गुलामी करने की बजाए वे पत्रकारिता में पदार्पण करेंगे और सरकार की नाकामियों, उसके अन्याय और क्रूरता पर से पर्दा उठाकर आम आदमी को उसका हक दिलवाएंगे।

अपनी कलम की धार से सत्ता की चूलें हिला देने की ख्वाहिश से उन्होंने पत्रकार बनने की ठानी। पत्रकार तो बन गए विमल कुमार पर देश नहीं बदला। उल्‍टे उनकी अपनी हालत बहुत बदल गई।

 आज भी धनतेरस की शाम कुछ घुटती ख्वाहिशों के साथ वे अखबार के अपने दफ़तर जा रहे थे। पत्रकारिता में अनुभव बढ़ने और पारीवारिक सामाजिक स्थिति के बिल्‍कुल बदल जाने की कथा भी लंबी है।

निकले तो थे वे सत्ता की चूलें हिलाने, लेकिन पत्रकारिता में कोई माई-बाप न होने के कारण महीनों नौकरी की तलाश में भटकते रहे। स्थानीय स्तर के कई अखबार थे, जो नौकरी और सुविधाएं सब देते पर वे अपने स्टैंडर्ड से नीचे नहीं जाना चाहते थे। कहां तो देश का वह युवा जो प्रशासनिक अधिकारी बन कर देश की महत्वपूर्ण योजनाओं के क्रियान्वयन में खास भूमिका अदा करने वाला था और कहां यह दलाल-माफिया टाइप के छुटभैये अखबार। जिनकी स्थापना ही कुछ स्थानीय उद्योगपतियों को धमका कर उगाही करने के उद्देश्य से की जाती है। अपने उसूलों से समझौता कैसे कर सकते थे विमल कुमार। उन्हें उगाही नहीं करनी, देश बदलना है। भले ही नौकरी देर से मिले, कम तनख्वाह की मिले। संकल्पों की आग दिल में लिए वे यूं ही कुछ दिन नौकरी खोजते रहे। नौकरी खोजने के खाली समय में वे राजनीति और इतिहास की मोटी-मोटी किताबें पढ़ते रहे।

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विमल कुमार के संकल्प और मेहनत का ही परिणाम था कि उन्हें देश के एक प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी मिल गई। प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार के दौरान खूब गंभीर मुद्दों पर लेख लिखवाए गए, बहस, विमर्श हुए। और इन सबके बाद उन्हें प्रारंभिक प्रशिक्षण के लिए डेस्क पर नियुक्ति दे दी गई। यहां उन्हें विभिन्न केंद्रों से आई खबरों का संपादन कर, उन्हें पाठकों के पढऩे लायक बनाना था। देश का इतिहास और राजनीति घोट कर पी चुके विमल कुमार को शहर भर की गली, नालियां पक्की करने और पार्कों के उद्घाटन की खबरों का संपादन एकदम उबाऊ लगा। पर संपादक के अनुसार इससे उनकी जमीन मजबूत होगी और खबरों के प्रति उनकी समझ भी बढ़ेगी। एक साल का प्रोबेशन पीरियड विमल कुमार का तीन साल तक जारी रहा। उन्होंने कुछ कहा नहीं और किसी ने उन्हें देखा नहीं। थक हार कर शायद नियति को ही उन पर तरस आ गया कि उन्हें तीन साल बाद परमानेंट कर दिया गया।

परमानेंट होते ही विमल कुमार को लगा कि जमीन जो तैयार होनी थी, हो चुकी है और खबरों के प्रति उनकी समझ जितनी बढऩी थी, बढ़ चुकी है। अब उन्हें फुल फॉर्म में आ जाना चाहिए। अर्थात अब उन्हें डेस्क से रिपोर्टिंग में आकर देश बदलने के अपने असल उद्देश्य पर आ जाना चाहिए। पर इससे पहले कि वे फुल फॉर्म में आते अम्मा और पिताजी ने उनके लिए लड़की देख ली। यह उनके जीवन में बिन मांगी खुशी थी। शादी तय होते ही विमल कुमार ने पूरे दफ्तर में मिठाई बांटी। जिस भी साथी के आगे वे मिठाई का डिब्बा करते, वह कहता, ‘अरे बधाई हो भाई, हमारा छोटा भाई घोड़ी चढ़ रहा है। अब तो हम एक नहीं दो लड्डू खाएंगे।’ सो मिठाई के डिब्बे कई बार घूमें। विमल कुमार खुशी-खुशी आदर मिश्रित आभार में डिब्बे पर डिब्बा खोले जा रहे थे। वे गदगद थे कि ऐसा परिवार जैसा दफ्तरी माहौल भला किसी को कहां मिलता है। वरिष्ठों ने गले लगाकर विमल कुमार को बधाई दी। दोस्तों ने खूब हंसी-ठट्ठे के बीच विमल कुमार से मिठाई के अलावा भी पार्टी का बंदोबस्त रखने को कहा। विमल कुमार भी प्रसन्न थे कि भले ही अम्मा-पिताजी ने विवाह तय करते वक्त उनकी राय नहीं ली, लेकिन लड़की एकदम पढ़ी-लिखी मॉडर्न ढूंढी है। जो न घूंघट करके बैठी रहेगी और जो न उनके दोस्तों से बात करते सकुचाएगी। पढ़ी-लिखी है तो उससे देश और समाज के गंभीर मुद्दों पर चर्चा भी की जा सकेगी। अब शादी की तैयारियों को देखते हुए उन्होंने देश को बदलने की अपनी ख्वाहिश कुछ समय के लिए स्थगित कर दी। अगर रिपोर्टिंग में अभी जाते तो छुट्टियां मिलने में दिक्कत हो जाती। अपनी शादी के लिए एक महीना से कम की छुट्टी में क्या होगा। घर भर की तैयारियां, बहनों, बुआओं का लाना-लिवाना, हल्दी-तेल, खिचड़ी, विदाई तक की सब रस्में... उस पर कहीं आसपास घूमने जाने के लिए हफ्ता दस दिन तो चाहिए ही। सो, सारी कैलकुलेशन कर विमल कुमार ने एक महीने की छुट्टी के लिए आवेदन कर दिया।

विमल कुमार की छुट्टी का आवेदन जब संपादक की कुर्सी तक पहुंचा तो उनके डेस्क पर उनकी गहन आवश्यकता का वास्ता देकर छुट्टी 30 दिन काटकर सीधे 15 दिन कर दी गई। 15 दिन के अवकाश का यह आवेदन भी एचआर (ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट) में जाकर फंस गया। मालूम हुआ कि अभी तो विमल कुमार को परमानेंट हुए एक ही महीना हुआ है। इससे पहले जो तीन साल उन्होंने लगाए, वे तो उनके प्रशिक्षण के थे। और प्रशिक्षण का कहां कोई खाता होता है। जब खाता ही नहीं, तो सुविधा कैसी? अभी तो उन्हें सुविधाएं मिलनी शुरू होनी है। इन सुविधाओं के आधार पर अभी तक पिछले एक महीने के काम के हिसाब से उनकी बस डेढ़ कैजुअल लीव बनी है। बननी तो अभी अठारह है पर वे तभी न बनेंगी जब विमल कुमार काम करेंगे। अब छुट्टी पर जाने से तो लीव बनने से रही। अर्न लीव का तो अभी सवाल ही नहीं उठता। यह तो निर्भर ही आपकी वर्किंग पर हैं। एचआर कर्मी भुवन मोहन सिन्हा ने विमल कुमार को बुलाकर समझाया कि ‘‘देखो बाबू पंद्रह दिन की छुट्टी का मतलब है आधे माह की तनख्वाह गई। विवाह में यूं भी बहुत खर्च होता है। उस पर तनख्वाह भी यदि आधी आएगी तो कैसे सब काम बनेगा। अभी तो विवाह हो रहा है। आगे अभी बहुत से पर्व त्योहार ऐसे आएंगे जिसमें कभी ससुराल पक्ष से तो कभी अपने नातेदारों में आना-जाना लगा ही रहेगा। तब ले लीजिएगा छुट्टी धीरे-धीरे।’’ बड़े उदास मन से केवल सप्ताह भर की छुट्टी लेकर विमल कुमार विवाह के लिए निकल पड़े। घर की जिम्मेदारियों में तो हाथ नहीं ही बंटा पाए, नाते-रिश्तेदारों के यहां जाना भी नहीं हो पाया। इधर समाज सुधार और प्रगतिवाद की झौंक में विमल कुमार ने घोषणा कर दी कि वे बिना दहेज के विवाह करेंगे। एक तो इकलौता पुत्र आईएएस में क्वालीफाई नहीं कर पाया उस पर विवाह में दहेज निषेध की घोषणा कर दी। प्रगतिवाद से मनभेद के बीच सारी जिम्मेदारियां अकेले उठाते पिताजी पूरे विवाह में चिढ़े-चिढ़े से रहे। ऐसी अफरा-तफरी और तनावपूर्ण माहौल में विवाह हुआ। शुक्र बस इतना कि पत्नी गुणी मिलीं।

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विमल कुमार की गुणी पत्नी उर्मिला शुरू -शुरू में तो निभाती रही पर अब पांच साल में दो बच्चे होने के बाद से वह भी पिताजी की तरह चिढ़चिढ़ी हो गईं हैं। जब दहेज ही नहीं मिला तो गृहस्थी कैसे जुड़ती। सास-ससुर का जो साम्राज्य था उस पर भी तो कोई अधिकार नहीं रख सकती थीं। उल्टे पर्व त्योहार पर खर्च आदि में भी सकुचाई रहतीं। नून, तेल, लकड़ी जोड़ते अब तो कभी-कभी खीझ कर कहती है, ‘‘न आपके पास टाइम है, न पैसा। आप से नहीं होता तो हमें छोड़ आइए हमारे मम्मी-पापा के घर। यहां भी तो आधी रात तक आपके दफ्तर से लौटने का इंतजार करते हैं और आधी दोपहर तक आपके जागने का। न कहीं घूमने जाते हैं, न ही कहीं रिश्तेदारी में ही समय लेकर खड़े होते हैं। आप और आपके परिवार ने क्या इसलिए पढ़ी-लिखी बहू खोजी थी कि उसे आपकी असिस्टेंट बना दें। यहां तो कोई नौकरी भी नहीं कर सकते। अपने गोरखपुर में होते तो कहीं अध्यापिका ही हो जाते।’’

यहां से तात्पर्य था घर से, अपने शहर से दूर। शहर से इतनी दूर चले आना भी किसी दुर्घटना से कम नहीं था। विमल कुमार परिवार और दोस्तों में यह कहते नहीं अघाते थे कि उन्होंने बिना दहेज के विवाह किया है। ऐसे समय में जब डॉक्टर, इंजीनियर और सिविल सर्विसेज वाले दूल्हों की बोली लग रही होती थी, एक पत्रकार ने साबित कर दिया था कि ऐसे भी विवाह हो सकता है। ससुराल पक्ष में उनकी प्रगतिशीलता की खूब प्रशंसा हुई। पत्नी पर अपनी प्रगतिशीलता का प्रभाव दिखाने की नई-नई झौंक में विमल कुमार ने रिपोर्टिंग में जाने की अपील कर दी। अंदर खाते कहीं यह बात भी विमल कुमार को समझ आ गई थी कि डेस्क की ड्यूटी में तो आधी रात बीतने के बाद ही घर लौटना हो पाएगा। ऐसे में नई ब्याहता को क्या सुख दे पाएंगे। जब तक  भोजन पानी कर नव वधू से बातचीत करने और उनके आराम करने का समय आता कि मंदिरों से घंटियों की आवाजें आने लगतीं। यानी लोगों के जागने का समय हो जाता। जब तक विमल कुमार अकेले थे, अंदर बाहर किसी भी कमरे में पड़े रहते। पर अब वैसा तो नहीं चल सकता था। उस पर अब जरूरत केवल नींद भर की नहीं थी, वे अपनी मॉडर्न गुणी पत्नी के साथ कुछ गुणवत्ता पूर्ण समय बिताना चाहते थे। जब देखा यहां यह सब संभव नहीं हो पा रहा है, तो एक नए संस्थान में आवेदन कर दिया।

इस बार नौकरी ढूंढने में उतनी मुश्किल नहीं आई, जितनी पहली बार आई थी। अब लोग उन्हें जानने लगे थे और वे लोगों को। पिछले संस्थान से पांच हजार ज्यादा पर देश के एक और प्रतिष्ठित समाचार पत्र में उन्हें नई नौकरी मिल गई। स्टैंडर्ड के साथ विमल कुमार ने यहां भी कोई समझौता नहीं किया। पर चाहते तो वे राजनीतिक बीट पर काम करना थे, क्योंकि उन्होंने देश बदलने का जो सपना देखा था, उसका प्रारंभ बिंदु तो पॉलीटिकल रिपोर्टिंग ही है। पर वह बीट उन्हें मिली नहीं। भले ही नाई की दुकान से लेकर रेलवे प्लेटफार्म तक हर जगह राजनीति की ही ऐसी-तेसी होती हो पर संस्थान के हिसाब से यह एक गंभीर बीट है और इस पर केवल अनुभवी लोग ही काम कर सकते हैं। विमल कुमार क्योंकि अभी नए हैं, लेकिन प्रतिभावान हैं तो उन्हें कर विभाग, बैंक, बाजार आदि की बीट थमा दी गई।

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नए-नए अनुभवों से गुजरते हुए विमल जी ‘नामी’ पत्रकार होने की ओर अग्रसर थे। इधर रिपोर्टिंग और उधर गृहस्थी दोनों जमने लगी थी धीरे-धीरे। विमल कुमार का दायरा भी धीरे-धीरे बढ़ रहा था। अब लोग उन्हें फील्ड में जानने लगे थे। अपने स्कूटर पर जिस राह से गुजरते, कोई न कोई जानने वाला मिल जाता। जानने, पहचानने और सलाम लेने का नशा ही कुछ और होता है। इसे आप पल्ले से पैसा खर्चके भी नहीं जुटा सकते, जब तक कि आपके व्यक्तित्व की भव्यता दूर-दूर तक न पहुंच जाए। तो फिलहाल विमल कुमार मन भर कर इस नशे का पान कर रहे थे। पर हर नशे की तरह यह नशा भी एक हेंगओवर पर जाकर टूटा। विमल कुमार ने एक बैंक में हो रही गड़बडिय़ों के खिलाफ सनसनीखेज स्टोरी चलाई। संपादक ने खूब शाबाशी दी, साथियों में भी खूब वाह वाही हुई। वह खबर राज्य भर में पढ़ी गई। उकसावे में आकर विमल कुमार ने फॉलोअप करते हुए एक के बाद एक लगातार कई खबरें उस बैंक से निकाली और बाई लाइन (रिपोर्टर के नाम) के साथ राज्य पेज में टॉप पर जगह बनाई। राज्य पेज पर लगाई गई इन लगातार खबरों की सूचना जब हेड ऑफिस तक पहुंची तो मालूम हुआ कि यह तो वही बैंक है जो हर साल सभी संस्करणों के लिए लाखों रुपये के विज्ञापन अखबार को देता है। खबरों की इस श्रृंखला के बाद से बैंक ने अखबार को कोई भी विज्ञापन न देने की धमकी दी है। खबरें क्योंकि विमल कुमार के नाम से छपी थीं तो संपादक का तो तबादला हुआ ही, विमल कुमार से भी विधि माता रूठ गईं। उन्हें अपने घर से 1400 किलोमीटर दूर तबादले के साथ ही वापस डेस्क पर फेंक दिया गया, ‘कि जिसे अपने संस्थान की ही खबर नहीं रहती, वह राज्य या देश की खबरें क्या खाक निकालेगा।’

नई जम रही गृहस्थी और पिता बनने की संभावना के बीच विमल कुमार अपना बैग उठाए यहां चले आए और बस तब से यहीं हैं। शुरूआत में दो दिन संस्थान के गेस्ट हाउस में गुजारे और तीसरे दिन से उन्हें अपने लिए मकान खोज लेने को कह दिया गया। साथियों ने कुछ उदारता दिखाई तो पहले दो महीने एक अन्य सहकर्मी के साथ शेयरिंग में कट गए। फिर धीरे-धीरे बर्तन, बिस्तर बनाया और अपने लिए अलग से चूल्हा जलाना शुरू कर दिया। विमल कुमार ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि विवाह के बाद भी उन्हें बैचलर लाइफ गुजारनी पड़ेगी।

‘यह भले ही छोटा शहर है, मुख्यधारा की पत्रकारिता से दूर है पर है यहां सुकून।’ बर्तन मांझते, चूल्हा चौका करते और बसों में लटक कर दफ्तर पहुंचते, खबरें संपादित करते यह बात विमल कुमार को कुछ ही महीने में समझ आ गई थी। उस पर पत्रकारों की मेहनत पर पानी फेरने के उद्योगपतियों के समझौतों ने भी उन्हें भीतर से बहुत चोट पहुंचाई थी। सो उन्होंने भी अब देश बदलने या सत्ता की चूलें हिलाने का इरादा त्यागकर चुपचाप नौकरी करने और पत्नी बच्चों की सुख-सुविधा के लिए हर संभव प्रयास करने को ही अपना ध्येय बना लिया। कम बजट में कम खर्च का नियम अपनाते हुए उन्होंने स्कूटर गोरखपुर में ही छोड़ दिया और स्वयं बस से आने-जाने लगे।

दुख उन्हें तब होता है जब वे तमाम गुणा-भाग के बाद भी परिवार का खर्च पूरा नहीं कर पाते। पहली बिटिया जब तीन महीने की हो गई तब पत्नी का साथ नसीब हुआ। बैचलर लाइफ का विसर्जन करते हुए विमल कुमार ने दो कमरों का एक सेट किराए पर ले लिया। जहां आंगन खुला हो, ताकि बच्चा भी खूब मजे से खेले-कूदे और बढ़े। अपनी खुद की साफ सीरत, कुछ टूटे हुए सपनों की किरचें और कुछ अपने जैसे थके हुए से लोगों के संग साथ ने विमल कुमार को पहले की तुलना में ज्यादा शांत, समझौतावादी और संवेदनशील बना दिया था। जब हालत सब की एक सी हो तो सभी एक-दूसरे का दुख-दर्द भी ज्यादा बेहतर तरीके से समझते हैं। इन तीन बरसों में आस पड़ोस की महिलाओं में भी उर्मिला के व्यवहार और ऊनी स्वेटरों की अच्छी धाक जम गई थी। उर्मिला इतनी गुणी थीं कि पड़ोस की महिलाएं भी उनसे हिल मिल गईं थीं। न कोई दिखावा, न लंबी चौड़ी बातें। पर रिश्ते-नाते, पर्व-त्योहार, सिलाई-बुनाई से लेकर नई तकनीक तक की खूब समझ थी। कोई त्योहार होता तो सब महिलाएं इकट्ठी होकर अनुष्ठान करतीं। कभी बाजार जाना होता तो इकट्ठी जातीं। एक-दूसरे के स्वेटरों के डिजाइन अपनी ऊन-सलाइयों में उतारती। इस परदेस में यही बहनें थीं, यही दोस्त और ननद, भावजें थी। बड़े अफसरों की पत्नी और अपने से उम्र में बड़ी महिलाओं को उन्होंने कभी नाम या उपनाम से नहीं पुकारा। हमेशा उनकी जुबान पर ‘दीदी’ ही चढ़ा रहता। उर्मिला के व्यवहार से विमल कुमार का सम्मान भी और बढ़ गया था, तिस पर उर्मिला एमए थीं। पर एकदम वैसी जैसी छोटे शहरों या कस्बों की लड़कियां होती हैं। हुनर, काबिलियत का कोई गुमान नहीं, पूरी तरह कर्तव्यनिष्ठ। न बड़ी-बड़ी बातें, न बड़ी-बड़ी ख्वाहिशें। कोई बात कहनी हो, तो उसके लिए भी विशेष भूमिका बनाती थीं। पैतृक घर से दूर, थोड़ी सी तनख्वाह के साथ जो भी काम चल रहा था, वह व्यवहार के बल पर ही चल रहा था। दूसरा बच्चा जब होने को था, तो साथियों ने सुझाव दिया कि अबकी बार पत्नी-बच्चों को वहां भेजकर इंतजार में दिन गिनने से बेहतर है कि अम्मा को ही यहां बुला लो। ख्वामखाह बच्चों के बिना फिर से घर सूना हो जाएगा। उर्मिला भी असल में पति के ही साथ रहने की इच्छुक थीं। भले ही अपने घर जैसी सुविधाएं न हों, पर पति का साथ तो है न। पर पिताजी की रोटी पानी का वास्ता देकर अम्मा ने आने से इनकार कर दिया। अब दुख कहिए या सुख, इस घड़ी में सहकर्मी और पड़ोसी ही भाई-बहनों की तरह काम आए।

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बस के सफर में अब तक के जीवन का एक-एक पल याद करते हुए विमल कुमार दफ्तर पहुंच गए थे। पर मन अब भी उन्हीं दूकानों पर अटका हुआ था। हर सुख-दुख में साथ निभाने वाली इतनी व्यवहार कुशल पत्नी पिछली दो धनतेरस से सिर्फ  चावल का डिब्बा लाने को कह रहीं हैं। अब यह छोटी सी ख्वाहिश भी पूरी न हो पाए तो विमल कुमार खुद पर ही लानत भेजते हैं। बस में लोगों को मिले तोहफों के रंग-बिरंगे पैकेट देखते हुए भी विमल कुमार के दिमाग में वही चावल का रंगीन बेल बूटों से सजा स्टील का डिब्बा छाया रहा। उसी डिब्बे को याद करते हुए वे संपादकीय विभाग में दाखिल हुए। पर उनके आते ही पूरे विभाग में शोर मच गया, ‘‘

‘‘अरे वाह, विमल जी आ गए।’’

‘‘विमल जी आ गए। ‘‘

‘‘क्या बात है, स्मार्ट लग रहे हैं।’’

‘‘शर्ट नई खरीदी है क्या?’’

‘‘अरे पार्टी दीजिए भाई।’’

विमल कुमार हक्के-बक्के से रह गए। तारीफों की मुस्कुराहट चेहरे पर खिल आई। रास्ते भर का तनाव उड़ गया और स्टील का डिब्बा ख्यालों से ओझल हो गया।

‘‘अरे भई हुआ क्या है, हमें भी तो पता चले’’ संकोच और शालीनता के कौतुहल भरे शब्दों में बोले विमल कुमार।

‘‘लो जनाब को पता ही नहीं है।’’ , एक साथी ने कहा ।

‘‘जनाब आपके चर्चें हैं आज मालिकान के बीच’’, दूसरे ने कहा।

‘‘अरे हुआ क्या आखिर?’’, विमल कुमार फिर सकुचाए ।

‘‘जनाब आपने जो पेज बनाया था, वह आज सभी यूनिटों में सर्वश्रेष्ठ पेज रहा है। संपादक जी ने भी आपके नाम का प्रशंसा पत्र जारी किया है।’’ वरिष्ठ साथी ने बताया।

विमल कुमार ने कंप्यूटर खोला तो एक फूलों और फुलझडिय़ों से सजी ईमेल झमकते हुए उनकी कंप्यूटर स्क्रीन पर उतर आई। इसमें लिखा था ‘अति उत्तम विमल कुमार। संस्थान को आप पर गर्व है। आपने बहुत अच्छा पेज बनाया। इसी तरह पूरी निष्ठा से अखबार की बेहतरी में लगे रहें। भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं।’

ईमेल की सब फुलझडिय़ां, फूलों के सब रंग उनके चेहरे पर खिल आए। खूब खुश हुए विमल कुमार, हौसला भी बढ़ा। पर अचानक अचकचा गए वे, ‘इस कागजी हौसले का क्या करना? इससे तो उल्टा नुकसान ही हुआ। अब सभी साथियों को चाय पिलानी पड़ेगी वह भी समोसे के साथ। कम से कम चार-पांच सौ रुपये का बिल तो बन ही जाएगा।’ मन ही मन बुदबुदाए विमल कुमार।

‘छी यह भी क्या बात हुई, अब मित्रों के चाय-पानी का खर्च उठाने की कुव्वत भी नहीं रही अपने में?’, विमल कुमार को खुद की कृपणता से घृणा हुई।

‘गर्व तो तब न होता अपनी उपलब्धियों पर, यदि यह शाबाशी तनख्वाह में तब्दील हो सकती।’

विमल कुमार खुद ही सवाल कर रहे थे और खुद ही जवाब भी दे रहे थे।

‘यह तो रीत है, चाय तो पिलानी ही पड़ेगी। सब लोग पिलाते हैं। और हमने भी तो औरों की उपलब्धियों पर चाय-समोसा गटका है, तो अब अपनी बारी में बजट गिनना।’

इससे पहले कि विमल कुमार हां या न की ओर झुक पाते, चपरासी ने हाथ बढ़ा दिया था पांच सौ के नोट के लिए। वह ऐसी पार्टियों का अभ्यस्त था, सो उसे बजट भी पता था और मेन्यू भी। न उससे ज्यादा वह मांगता था और न उससे कम वह स्वीकार करता था। विमल कुमार ने बड़ी जेहमत से पर्स निकाला और अपनी पत्नी की फोटो के नीचे दबा पड़ा इमरजेंसी का पांच सौ का नोट निकाल कर बड़े भारी मन से चपरासी को चाय-नाश्ता लाने रवाना कर दिया।

500 का अंतिम नोट जा चुका था खर्च होने के लिए बाजार। उस नोट के जाते ही एक बार फिर से परिवार की अधूरी ख्वाहिशें और बाजार का चमचमाता सामान फिर से विमल कुमार के ख्यालों में आ धमके। वे एक-एक खबर पढ़ते जाते और सोचते जाते, चाय-पानी का बजट तो कोई इतना ज्यादा नहीं है पर दीवाली ने सारा मामला खराब कर दिया। इस बार दिवाली जो तीस तारीख की है। महीने का सारा बजट गड़बड़ा गया है। यही दिवाली अगर पंद्रह तारीख को होती तो हम ज्यादा नहीं तो पत्नी-बच्चों की थोड़ी बहुत ख्वाहिशें तो पूरी कर ही देते।

अब तक पार्टी शुरू हो चुकी थी। कप की चाय सुड़कते, समोसे की चटनी इधर-उधर टपकाते विमल कुमार जैसे ही मनोभाव और बहुतों के चेहरे पर उतरने लगे थे।

‘‘एक ही महीने में सारे त्योहार नहीं आने चाहिए भई। अभी दशहरा गया, अब दिवाली आ गई।’’, समोसे के साथ चाय की चुस्की लेते हुए मिश्रा जी ने कहा।

‘‘कह तो सही रहे हैं मिश्रा जी, पर क्या किया जाए। त्योहार कौन सा पूछ कर आते हैं, ये तो बस आ जाते हैं।’’ समोसे पर चटनी उड़ेलते आशुतोष जी ने जवाब दिया।

‘‘त्योहार तो आएंगे ही न भई। असल में मुश्किल अपने यहां है। और संस्थानों में तो बोनस भी मिलता है, हमारे यहां तो उसकी भी व्यवस्था नहीं है। कर्मचारियों का सबसे अधिक कहीं शोषण होता है तो हमारे यहां।’’ संस्थान की भीतरी खबरों पर विशेष पकड़ रखने वाले केशव झा बोले।

‘‘सोच रहे हैं कुछ एडवांस निकलवा लें’’, मोहित सिंह कह ही रहे थे कि ऑपरेटर भानुप्रताप ने टोक दिया ... ‘‘अरे बाबू अभी निकालिएगा तो फिर अगले महीने बजट कैसे चलेगा। यहां से काटो या वहां से, जेब तो अपनी ही कटेगी।’’

‘‘हां बात तो सही है, विमल कुमार को भी समझ आ गई। इससे तो बेहतर है जितना जेब में पड़ा है उसी में गुजारा किया जाए।’’ 

‘‘.... अरे गज्जब...’’ नित्यानंद शंकर को काली कमीज पहने अंदर आते देखा तो सौरभ शुक्ला ने जैसे आह भरी... ‘‘क्या बात है काली शर्ट...’’

सभी की गर्दन नित्यानंद शंकर की ओर ....

सबकी नजरें उनकी चाल के साथ उनकी सीट तक आ रहीं हैं

नित्यानंद भी कुछ शरमाए से अपना टिफिन उठाए अपनी सीट पर आकर बैठ गए हैं। पर थोड़ी निराशा इस बात की भी हुई कि आज की पार्टी में वे लेट हो गए।

‘‘जानते हैं विमल जी, ऐसी ही ब्लैक शर्ट जब देवानंद पहना करते थे, तो हसीनाएं मर मर जाया करती थीं।’’

घर गृहस्थी की चिंता से इतर सौरभ शुक्ला की बात पर विमल धीमे से मुस्कुराए... उन्हें इस लफ्फाजी में कुछ रस आने लगा।

इधर नित्यानंद समझ नहीं पा रहे थे कि यह जो बीते फैशन की पॉलिएस्टर की शर्ट वे पहन आए हैं, उसकी सचमुच तारीफ हो रही है या उनका मजाक बनाया जा रहा है।

सौरभ शुक्ला का चेहरा ही ऐसा था कि उस पर न खुशी दिखती, न गम। वे जो कहते, लगभग सच ही लगता। लगभग इसलिए कि कई बार उनके सच पर भी ऐसा ही अंदेशा होता कि कहीं यह झूठ तो नहीं?

अपने इसी समभाव के चेहरे का फायदा उठा कर वे कई बार लंबे समय तक मजाक करते रहते और किसी को पता भी नहीं चलता था। तब तक जब तक वे खुद न बता दें।

‘‘जबरदस्त, शंकर बाबू, कहां से खरीदी शर्ट, कहीं देवानंद वाली ही तो नहीं है?’’

‘‘आज मैंने देखा फ्लाई ओवर पर जाम लगा हुआ था, कारण अब समझ में आया, अरे यह तो वही रास्ता था जहां से हमारे नित्यानंद शंकर बाबू यह शर्ट पहन कर आ रहे होंगे...’’ अब धीरे-धीरे नित्यानंद शंकर को समझ आने लगा था कि उनकी टांग खिंचाई चल रही है। पर यह टांग खिंचाई इतनी मनोरंजक थी कि वे स्वयं भी इसका लुत्फ लेने लगे।

इस हल्के-फुल्के मजाक में सभी हल्के हो रहे थे,

इधर प्रोडक्शन से मालूम हुआ कि त्योहारी सीजन में विज्ञापन बहुत है, डमी अठारह प्लस चार की है। हो सकता है रात होते होते पेज और बढ़ जाएं।

अब इस मजाक के बीच भी सभी के चेहरे तनाव ग्रस्त हो गए।

फिक्र पेज बढऩे की नहीं थीं, लोगों के घटते जाने की थी। दीपावली के लिए दूर शहरों के लोग छुट्टी चले गए थे।

‘‘आज तो धनतेरस है, लगता है एक आद और छुट्टी चला गया होगा। सारे आएं तो पता चले कि सभा का कोरम आज कितना है’’, केशव झा ने आशंका व्यक्त की।

‘‘छुट्टी तो हमको भी जाना था पर इतने लोग छुट्टी पर जा रहे हैं कि हमने सोचा सभी चले जाएंगे तो अखबार कैसे निकलेगा।’’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए केशव झा ने अपना बलिदान गिनाया।

इधर संपादक बहुत देर से न अपने केबिन से बाहर निकले थे और न ही किसी को अंदर बुलाया था।

18 प्लस 4 की डमी अब 24 पन्ने पार कर गई थी। संभावना अभी और बढऩे की थी। विज्ञापन विभाग के लिए, खजांचियों के लिए, अखबार मालिक के लिए यह खुशी के बढ़ते जाने का सबब था, लेकिन इधर संपादकीय में विज्ञापन बढऩे के साथ तनाव और बढ़ता जा रहा था। सात आदमी मिलकर चौबीस पेज कैसे निकालेंगे। चलिए निकाल भी लें, पर पहले यह तो पता चले कि आखिर निकालने कितने हैं। इधर खबरें मांगे जाने पर ब्यूरो से बस यही सुनने को मिल रहा था, ‘‘सब शांति है।’’

सब शांति है माने खबरों का टोटा है। अखबार के दफ्तर में खबर का न होना तनाव की सबसे बड़ी वजह होती है।

उप समाचार संपादक भी बार-बार उचक कर देख रहे थे कि साहब आएं तो बताएं कि इतने कम लोगों में आज का अखबार कैसे निकलेगा। वह भी तब जब डमी अभी तक फाइनल नहीं हुई है। किस को किस डेस्क पर बिठाएं, कुछ समझ हीं नहीं आ रहा।

‘‘अरे अब उनकी तरफ झांकना छोडि़ए और खुद ही कोई व्यवस्था कीजिए सर’’, विमल कुमार ने स्थिति स्पष्टï करने की गरज से कहा।

‘‘वो एक बार कहें तो सही। बाद में गुस्सा गए तो...’’ उप समाचार संपादक झुंझलाए।

‘‘इस एक बात पर सभी सहमत हुए और माहौल में फिर से तनाव पसर गया।’’

अखबार के दफ्तर में सबसे अजीब प्राणी होता है संपादक। कोई भी कभी भी उसके चरित्र का ठीक ठीक अंदाजा नहीं लगा सकता। कभी वह दाढ़ी बढ़ाए, लंबा कुर्ता पहन कर कर्मचारी बन जाता है, तो कभी सूट-बूट और टाई लगाकर अधिकारी बन जाता है। कभी जमीन से जुड़ा अपने जैसे सुख-दुख भोगने वाला आम आदमी लगता है तो कभी महाधूर्त, छल-बल की तमाम कलाओं में निपुण मालिकों का एजेंट। इस बार संपादक जी अपनी सत्रहवीं कला का प्रदर्शन कर रहे थे। वे असमंजस, ओवरलोड और मेन पावर की कमी का संकट भांप गए थे। तभी और मसरूफ हो गए थे। वे परम विपदा के उस समय का इंतजार कर रहे थे जब भारतीय जनमानस अतिवीर होकर हर खतरा उठा लेने को तैयार हो जाता है। वे अपने केबिन में अपने कंप्यूटर की स्क्रीन पर आंख गढ़ाए थे। पर ये नहीं पता कि उनकी आंख कहां गढ़ी है। बाहर बैठे सब लोग वहां से किसी आदेश के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सबसे ज्यादा संकट में थे उप समाचार संपादक नितिन तिवारी।

‘‘इस छोटे से राज्य में जहां खबरें इतनी कम होती हैं, वहां पांच संस्करण निकालने की क्या जरूरत है?’’ उप समाचार संपादक नितिन तिवारी ने झुंझलाते हुए कहा।

सभी एक-दूसरे की तरफ असहाय से देखने लगे, कि जैसे सभी जानते हैं इस सवाल का जवाब। पर इस वक्त यह सवाल भी गैरजरूरी है और इसका जवाब भी। अभी जरूरत है तो बस किसी तरह व्यवस्था कायम करने की। जो झुंझलाते हुए तिवारी जी करने की कोशिश कर रहे हैं। यूं ही झुंझलाते हुए उन्होंने विमल कुमार को आवाज दी, ‘आप कहां पर है आज विमल जी?’

‘सर, जहां आप कहें। ‘

‘यार हो कहां पर?’

‘सर कल तक तो स्टेट डेस्क पर थे, आज भी कुछ खबरें पढ़ कर संपादित कर दी हैं। अब जहां आप कहें।’

‘नहीं वहां भी रहिए। ऐसा कीजिए, जितनी जल्दी हो सके स्टेट की खबरें पढ़कर सिटी की खबरें भी पढ़ लीजिएगा।’

‘सर ये कैसे हो पाएगा?’ कहना तो विमल कुमार यही चाहते थे पर जैसे आमने-सामने की गुत्थमगुत्था में सैनिक अपनी और अपने साथी दोनों की जान बचाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाता, वैसे ही विमल कुमार भी कुछ नहीं कह पाए। उन्हें अपनी जान भी बचानी थी, अपने साथी को भी सकुशल इस युद्ध भूमि से निकाल ले जाना था। अर्थात उन्हें स्टेट डेस्क भी संभालना था और शहर भर की खबरें भी पढ़ कर संपादित करनी थीं।

‘ठीक है सर।’

जैसे जैसे रात गहरा रही थी, माहौल के हल्के फुल्के मजाक एकदम हल्के स्वर में हो गए थे। अब जो ध्वनि सबसे ज्यादा सुनी जा रही थी वह थी कंप्यूटर के की बोर्ड की खटाखट की आवाज।

‘सर आपको एक खबर दी है’

कभी कभी बीच में यह स्वर किसी साथी की ओर से सुनाई दे जाता। व्यवस्तता में यह समझना मुश्किल हो जाता कि कौन किसको क्या दे रहा है। वो तो शुक्र है तकनीक का कि वह बिना बोले भी बता देती कि खबर आपको मिल गई है।

और फिर वही कंप्यूटर कीबोर्ड की खटाखट।

खटाखट के बीच जब भी इंटरकॉम की घंटी बजती तो इस आस में कि भीतर से कोई आदेश है, लोग उचक कर तिवारी जी की ओर देख लेते। पर वहां से न कोई आदेश आना था, न आया।

बढ़ते-बढ़ते डमी 52 पेज की हो गई। अब खबरों से इतर विशेष खबरों की खोज की गई। खेती किसानी से लेकर, फैशन, संस्कृति तक की खबरें खोज निकाली गईं।

‘कोई किताब विताब है क्या, कुछ समीक्षा ही लगाइए...’

‘हैं...’

अनिता सिंह चौंकी। घड़ी का कांटा 12 क्रॉस कर गया था। वे अपनी कैब का इंतजार कर रहीं थीं। वे बार-बार साहित्यिक कृतियों के लिए जगह मांग मांग कर थक गईं थीं, पर उन्हें हर बार यह कहकर चुप करवा दिया जाता कि ये जो साहित्यकार लोग होते हैं न, ये अखबार के लिए एकदम नालायक किस्म के लोग होते हैं। पहले इनकी कविता छापो, फिर इन्हें अखबार भिजवाओ। अखबार के लिए ये ढाई रुपये भी खर्चने को तैयार नहीं होते। कहानी-कविताओं केे अलावा इन्हें सारा अखबार बेकार लगता है।

अनिता सिंह ने कुछ सामाजिक कुछ नैतिक दायित्व गिनवाते हुए जब साहित्य की जरूरत बताई तो उन्हें एक महत्वपूर्ण काम सौंप दिया गया। कि वे सूची बनाएं कि इन्हें छापकर अखबार को क्या-क्या लाभ हो सकता है और इन्हें न छापकर अखबार को क्या-क्या नुकसान? तो पिछले कुछ दिनों से कहानी-कविताएं पढऩे की बजाए वे इसी सूची पर काम कर रहीं थी। अब अचानक समीक्षा मांगे जाने पर वह हैरान और परेशान हो गईं।

‘‘सर जब हम देते हैं, तब तो आप छापते नहीं हैं।’’

‘‘अरे हम कौन होते हैं मना करने वाले अनिता जी। ये तो ऊपर बैठे लोग हैं जो मालिकान के कान भरते रहते हैं। दीजिए जो भी पड़ा हो दीजिए।’’

‘‘सर कहानी तो नहीं दे पाएंगे, अभी समीक्षा भी नहीं है। लेकिन आत्मकथाओं पर की गई एक चर्चा है। आप कहें तो दे दें।’’

‘‘हां-हां दीजिए दीजिए।’’ तिवारी जी जैसे ललचा गए। ‘‘कितने कॉलम की होगी?’’

‘‘सर चार कॉलम है। पांच लेखकों से बात किए हैं। आप कहें तो सबके फोटो भी निकाल दें।’’

‘‘हां, ये सही रहेगा। एक पेज तो बन ही जाएगा इसमें।’’ संकट के समय में तिवारी जी की बांछें खिल गईं और अनिता सिंह की भी। कि बहुत दिनों से रुकी हुई एक स्टोरी को मोक्ष प्राप्त हुआ। और जब बड़े-बड़े फोटो लगेंगे तो वे पांचों लेखक भी मुग्ध हो जाएंगे।

विमल कुमार अपनी खबरों में डूबे हुए थे कि इंटरकॉम पर संपादक  का संदेश आया, ‘‘एक मेल की है, देख लें।’’

‘‘जी सर’’ खबरों में डूबे हुए ही विमल कुमार ने जवाब दिया।

आजकल संपादक जी पर लेखक बनने का शौक चढ़ा था। तो हर बार कहानी या लेख लिखने के बाद वे पहले विमल कुमार को दिखाते। उसके गुण-दोषों पर चर्चा करते और फिर आगे प्रेषित करते। कभी-कभी विमल कुमार पर उसे सुधारने का दायित्व भी डाल दिया जाता। संपादक की मेल में एक वर्ड फाइल की अटैचमेंट थी। विमल कुमार को लगा कि यह वैसा ही कुछ काम है, जिसे वे फुर्सत में करेंगे पर अभी तो उन पर खबरों का भारी बोझ था। इस समय उनकी प्राथमिकता अखबार निकालना है, संपादक का लेख पढऩा नहीं। स्टेट की खबरें पढ़कर, पन्ने लगने के लिए देकर उन्होंने सिटी की खबरें पढऩा शुरू कर दिया। अपने दायीं ओर उन्होंने ऑपरेटर को बैठा रखा था जो पेज बना रहा था। वे इधर सिटी की खबरें पढ़ते जाते और उधर दायीं आंख से स्टेट के पेज पर भी नजर डालते जाते।

खटाखट खटाखट की आवाज की बीच एक बार फिर इंटरकॉम पर संपादक महोदय का फोन आया।

‘‘विमल जी आपने मेल चैक की?’’

‘‘नहीं सर, बस अभी देख ले रहे हैं। ‘‘

‘‘उसे देखिए जल्दी।’’

दायीं और बाई आंख को साधते हुए उन्होंने कानों से जो सुना वह उनके दिमाग तक नहीं पहुंच पाया। और यंत्रवत रिसीवर रखकर वे फिर से खबरों में डूब गए।

लगभग एक घंटे बाद तमतमाए हुए संपादक अपने कैबिन से बाहर आए। ‘‘विमल जी आपने वह मेल चैक की?’’

विमल कुमार खबरों में इतना डूबे हुए थे कि वे संपादक के इस तमतमाए रूप के दर्शन नहीं कर पाए और सपाट जवाब दिया, ‘‘नहीं”

“नहीं?”

“कहा न नहीं, नहीं, नहीं’

अब संपादक का गुस्सा चौथे पांचवे, छठे न जाने किस आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने अपना कोटा उतारकर विमल कुमार की टेबल पर फेंक दिया।

“ये तमीज है आपकी एक संपादक से बात करने की।“

संपादक के कोट का अपनी टेबल पर गिरना वज्रपात सा महसूस किया विमल कुमार ने और उनकी तंद्रा भंग हुई

“सर वो खबरें...”

“क्या खबरें?”

“सर एडिशन का टाइम हो रहा है!”

“मैं संपादक हूं । अखबार निकालना मेरी जवाबदेही है और तुम मुझी को समझा रहे हो।“

“सर... वो... लेट हो रहा था , आज आदमी भी कम है...”

“तुम क्या समझते हो, यह अखबार तुम्हारे कंधों पर चल रहा है, आओ अंदर।“

“सर एडिशन छूटने का समय हो रहा....”

“मैंने कहा न आइए अंदर।“



संपादक का रौद्र रूप और विमल कुमार का गिड़गिड़ाना सारा स्टाफ देख रहा था। जैसे कंगाली में आटा गीला होता है, जैसे कोढ़ में खाज होता है, जैसे विपदा में और विपदा आती है, वैसे ही यह नया बवाल हो गया।

संपादक अदृश्य डोर से खींचते हुए विमल कुमार को अपने केबिन में ले गए....

तिवारी जी, झा साहब, शुक्ला जी और तमाम साथी इस परमविपदा काल पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे पा रहे थे।

‘‘क्या किया यार, क्‍या जरूरत थी उलझने की?”

सब शायद यही कहना चाहते थे। पर नहीं कह पाए। कोई भी सुगबुगाहट इस बवाल को और बढ़ा सकती थी।

‘‘शुक्ला जी देखिए जरा,  कौन सी मेल है?’’

शुक्ला जी अपनी कुर्सी छोड़कर विमल कुमार की कुर्सी पर आ गए और कंप्यूटर पर संपादक की ईमेल खोजने लगे। ईमेल में संपादकीय पेज के दो आलेख थे जो केंद्र से जारी हुए थे और आज के अंक में लगाने अनिवार्य थे। शुक्र है कि अभी संपादकीय पेज बनना शुरू नहीं हुआ था वरना बड़ा ब्लंडर हो जाता। अभी तक लोग संपादक से घृणा कर रहे थे पर अब उन्हें विमल कुमारी की मूर्खता और उसकी व्‍यवस्‍तता पर तरस आया।

‘‘पागल है यार ये,  इतनी इम्पोरटेंट मेल नहीं देखी।“ तिवारी जी ने कुछ अजीब से भाव प्रकट किए। काम और दुगुनी रफ्तार से आगे बढऩे लगा। यही वह समय था जब बड़े से बड़ा पहाड़ भी संपादकीय की रफ़तार नहीं रोक सकता। डेस्‍क वेस्‍क, केंद्र, सिटी सब एक दूसरे में घुल मिलकर सिर्फ अखबार रह गए थे। अब सभी का एक ही उद़देश्‍य था समय पर अखबार निकालना। वे भूल गए अपनी भूख प्‍यास, उन्‍हें बस यही याद रहा कि पाठक तक अखबार समय पर पहुंचना चाहिए। संपादकीय साथियों के छुट़टी जाने में, तनख्‍वाह कम होने में, विमल कुमार की लापरवाही में और संपादक के बेवजह के आक्रोष में पाठक का कोई दोष नहीं है।



इधर संपादक के केबिन में खूब घमासान हुआ। मां-बहन की गालियों से लेकर संपादकीय साथियों की मक्कारियों तक सारे ताने-उलाहने, मलामतें विमल कुमार पर उड़ेल दी गई। महीने भर की फाइल पलटायी गई। संपादक कभी उन्हें अखबार की फाइल उठा लेने को कहते, कभी ईमेल पढऩे को। खोज खोज कर उनकी ही नहीं, तमाम साथियों की गलतियां विमल कुमार को दिखाई गईं। उन्‍हें बताया गया कि कैसे लोग मां- पत्‍नी की बीमारी का बहाना कर छुट़टी जाते हैं। उन्‍हें बताया गया कि कैसे मालिकान को गाली देने वाले लोग मौका मिलते ही उनके पैर पकड़कर अपनी तनख्‍वा‍ह बढ़वा लेना चाहते हैं। और उन्‍हें यह भी बताया गया कि एक-दूसरे को खबबरों में पछ़ाड़ने का आह़वान करने वाले कैसे प्रतिद्वंद्वी मालिकान जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे से हाथ मिलाते हैं।

बीच में विमल कुमार एक बार फिर से गिड़गिड़ाए, ‘‘सर अखबार लेट हो जाएगा।’’

‘‘बैठिए विमल जी, अखबार को छोडिए, अपनी भूमिका पर आइए। आज आप न वहां जाएंगे, न मैं। और देखिएगा अखबार फिर भी निकलेगा।’’

आप क्‍या समझते हैं, मैं यहां बस बैठा रहता हूं , कि मुझे कुछ पता नहीं चलता अंदर क्‍या हो रहा है

देखिए मेरी दाईं तरफ के शीशे में देखिए यहां से डीएनई की कुर्सी साफ नजर आती है। और ध्‍या से देखिए मैं एक एक खबर बता सकता हूं कि उसने कौन सी पढ़ी है और कौन सी वह सिर्फ खोलकर बैठा है।

अब इस तरफ बाई तरफ के शीशे में देखिए, आईए आइए , इधर आइए क्‍या दिख रहा है

विमल कुमार भौचक्‍के रह गए , इसमें तो स्‍टेट डेस्‍क यानी उनकी कुर्सी साफ दिखाई दे रही है। शुक्‍ला जी उनका कंप्‍यूटर खोलकर उनकी खबरें पढ़ रहे हैं।

“और थोड़ा दाई तरफ मुड़ कर देखिए ”, संपादक जी ि‍फर बोले। यहां से सिटी डेस्‍क के सामने की कांच दिखती है और उस पर अन्‍य केंद्रों के तीनों डेस्‍क

विमल कुमार का दिमाग चक्‍करधिन्‍नी सा घूम गया। उन्‍हें एक पल के लिए अहसास हुआ की जैसे सामने संपादक नहीं चंद्रकांता का कोई अय़यार बैठा है और किसी ने बड़े जतन से यह “संपादक के केबिन” नाम का तिलिस्‍म बांधा है।

गालियां,  मलामतें सुनते-सुनते रात के ढाई बज गए। अब तक जो छटपटाहट, तो तनाव था वह चरम सीमा को पार कर उतरान पर आ गया था। अब अखबार की फिक्र की बजाए उन्हें अपने घर जाने की चिंता होने लगी थी। संपादकीय के साथी काम के बीच ही उचक-उचक कर केबिन की ओर देखते पर संपादक की फायरिंग जैसे अभी समाप्त नहीं हुई थी।

पौने तीन बजे। उप समाचार संपादक का फोन आया ‘शुभ रात्रि सर, सारे संस्करण चले गए हैं।’

‘‘ठीक है आप भी निकलिए।’’

उपसमाचार संपादक भी निकल गए पर संपादक की फायरिंग अब भी विमल कुमार पर जारी थी। उनके ख्यालों में इंतजार करती पत्नी को चेहरा घूम रहा था। विमल कुमार का मोबाइल उनके टेबल पर ही रह गया था। संभवत: पत्नी फोन करेगी पर वे उठा नहीं पाएंगे। उठाएंगे नहीं तो पत्नी और चिंतित होगी। इतनी रात को किससे हालचाल जानेंगी वह उनका।

समय बीत रहा था पर विमल कुमार की मुक्ति की कोई आस नहीं दीख रही थी। वह उस मुर्गी की तरह हो गए थे, जिसकी गर्दन भी कसाई के हाथ में थी और उसका दाना पानी भी। भूख जैसे गायब हो गई थी लेकिन पेशाब का प्रेशर बन रहा था। पर संपादक अभी कहां छोड़ने वाले थे। घर, नौकरी , व्‍यवसाय के सोपान पार करते हुए वे अध्‍यात्‍म की ओर बढ़ रहे थे। जहां यह सारी दौड़ भाग निरर्थक हो जाती है। थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पर पांचों एडिशन छपकर संपादक की टेबल पर पहुंच गए। विमल कुमार को जैसे यकीन हो गया कि वह वाकई निरर्थक है इस संस्‍थान में। पर तसल्ली भी हुई कि जो पेज वे अधूरा छोड़ आए थे वह भी बन गया और सिटी की खबरें जो वे नहीं पढ़ पाए थे वह भी सिटी संस्करण में छप चुकी थीं। यह सब कैसे हुआ होगा, किसने उनका अधूरा छोड़ा काम संभाला होगा वह बस अंदाजा ही लगा सकते थे। अखबार दिखाते हुए संपादक ने पूछा, ‘‘निकला गया न एडिशन?’’

‘‘जी सर’’  सकुचाए से स्वर में बोले विमल कुमार। पर भीतर यह गुस्सा भी था कि इसमें आपका क्या योगदान है। जो इतनी भाषणबाजी कर रहे हैं। यह तो अन्य साथियों की मेहनत का ही नतीजा है न। आपने तो काम बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

अब तक संपादक उन्हें अपने हुनर के साथ-साथ अपनी कमजोरियों और मजबूरियों के किस्से भी सुना चुके थे। पर अब भी उनका बोलना जारी था। वे अब भी अखबार की गलतियां दिखा सकते थे। वे बता सकते थे कि संपादकीय कर्मियों ने काम में कितनी कोताही बरती है। अधिकार की उसी अदृश्य डोर से खींचते हुए वे उन्हें वहां ले आएं जहां अखबारों के बंडल बांधे जा रहे थे। सब मुस्तैदी से अपने-अपने काम में लगे हुए थे। विमल कुमार ने धीमे स्‍वर में संपादक से अपना मोबाइल और खाने का डिब्‍बा उठा लेने की अनुमति मांगी। शुक्र है कि यह अनुमति उन्‍हें मिल गई। साथ ही वे डरते-डरते संपादक का वह कोट भी उठा लाए, जो संपादक गुस्‍से में विमल कुमार की टेबल पर फेंक आए थे। काली रात बीतने को थी। अब चार बजने लगे थे। अभी भोर होने में समय था। टैक्सियों के स्टार्ट होने की आवाजें आने लगीं। उनकी हेड लाइट्स बता रहीं थीं कि वे अपने-अपने मुकाम तक पहुंचने को तैयार हैँ। इस पूरे सफर में आज विमल कुमार का कोई योगदान नहीं था। अलग-अलग केंद्रों के बंडल अलग-अलग गाडिय़ों में लादे जा रहे थे। काली रात के बीतने के साथ ही संपादक के चेहरे का आक्रोष अब नर्मी में बदलने लगा था।

अपने काम में लगे हुए ही सब संपादक को सलाम ठोक रहे थे। संपादक विमल कुमार को अखबारों के बंडल से जाती हुई गाडिय़ां दिखाते हुए कह रहे थे, ‘‘देखो विमल। आज न संपादकीय में तुम थे, न मैं और देखो अखबार फिर भी निकल गया। पर आज के अखबार में हम दोनों का कोई योगदान नहीं है। यह काम ऐसा ही है। या कहो कि यह पूरी दुनिया ही ऐसी है। हम अपनी काबिलियत पर चाहें जितना गर्व करें, अपनी व्यवस्तता का चाहें जितना रोना रोयें, यह दुनिया हमारे बिना भी उसी रफतार से चलती रहती है। हमें लगता है कि हम कुछ करके किसी पर कोई बहुत भारी अहसान कर रहे हैं, पर असल में उन क्षणों में हम अपनी सार्थकता सिद़ध कर रहे होते हैं। और निरर्थक होना जिंदगी का सबसे बड़ा दुख होता है। “ कहते हुए संपादक की आंखों में एक अद़भुत शांति थी।

विमल कुमार को अहसास हुआ कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बेचैनी, कौतुहल, तनाव, विपदा सब अपनी-अपनी सीमा पार कर बहुत आगे बढ़ चुके हैं। इतना आगे कि अब शांति के अलावा और कुछ बाकी नहीं रह गया है। भीतर की यह शांति अब उनके चेहरे पर भी उतर आई थी। मां-पिताजी ने भी अब उनका त्‍योहार पर न आ पाना बर्दाश्‍त कर लिया था। स्‍टील के डिब्‍बे नहीं खरीद पाए थे तो पत्‍नी ने प्‍लास्टिक के डिब्‍बे मंगवा लिए थे टेली शॉपिंग से। रसाई ि‍फर भी चल रही है, जीवन ि‍फर भी चल रहा है। इस जीवन में हमारी सार्थकता रहे, यही तो है सबसे जरूरी ख्‍वाहिश। 

 अब इंतजार करती पत्नी का चेहरा भी उन्हें पहले की तरह परेशान नहीं कर रहा था।

‘‘गाडिय़ां तो सब जा चुकी हैं। आओ तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूं।’’ संपादक ने कहा तो विमल कुमार का ध्‍यान टूटा। वे अभी संकोच में ही थे कि संपादक ने उन्‍हें आगे अपने साथ बैठने का इशारा किया।

गाड़ी में सितार का मद्धिम संगीत चल रहा था। भोर की शांति, ताजी हवा की ठंडक और चिडिय़ों की चहचहाहट के बीच सफर भी जल्दी ही कट गया।

‘‘सर बस यहीं रोकिए। यहीं इधर इस गली में अंदर जाकर है हमारा घर।’’

गाड़ी रुकवाते हुए विमल कुमार ने कहा। संपादक ने स्नेह भरी दृष्टिï से विमल कुमार की ओर देखा। और पीछे मुड़कर पिछली सीट पर पड़ा एक डिब्बा उठा लिया।

‘‘ये लो विमल कुमार। इलैक्ट्रिक केतली है। किसी ने तोहफे में दी है। मैं तो चाय पीता नहीं, तुम ही मेरी तरफ से इसे दिवाली का तोहफा समझ कर रख लो।’’

‘‘अरे नहीं सर, इसकी क्या जरूरत है?’’ विमल कुमार भाव विभोर हो गए। जैसे गले में बहुत कुछ जम गया हो।

‘‘बड़ा भाई समझकर रख लो।‘‘ कहते हुए संपादक ने विमल कुमार को गले से लगा लिया।

गले में वह जो कुछ जमा हुआ था अब तरल हो गया और आंखों से बहने लगा।

दीपावली पर मिले पहले तोहफे के रूप में इलैक्ट्रिक कैतली का वह डिब्‍बा पकडे हुए विमल कुमार सोच रहे थे कि ‘साला प्रिंट का आदमी किसी से ठीक से नफरत भी नहीं कर सकता।’

गला खंखार कर रात भर के किस्‍सों में इकट़ठा हुआ तमाम तनाव, गुस्‍सा, अवसाद और व्‍यर्थताबोध ‘आक़ थू …’ की ध्‍वनि के साथ बाहर फेंक दिया।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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2 टिप्पणियाँ

  1. सुंदर कहानी और लेखिका खुद एक अखवार से जुड़ी रहीं है ,अखवार के दफ्तर मे कार्यरत इन्सानी मनोभावों का बहुत ही सटीक चित्रण बधाई योगिताजी

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