#पत्र_शब्दांकन | जिस सच में फंतासी की जगह न हो, वह जीने लायक नहीं होता — मृदुला गर्ग



#पत्र_शब्दांकन: मृदुला गर्ग 

नया ज्ञानोदय, सितम्बर २०१९ कथा-कहानी विशेषांक आदि पर

कहते हैं फंतासी को चारों पैरों पर खड़ा होना चाहिए वरना न फंतासी रहती है, न सच...

कहानी 'नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां')  मैने 'नया ज्ञानोदय' में ही पढ़ ली थी। बहुत ही शानदार कहानी है। सच और फंतासी का ऐसा ज़बरदस्त तालमेल कम ही पढ़ने को मिलता है। मैं यथार्थ नहीं सच कह रही हूं। फुच्चू मा'साब का गांव का फंतासी मिला सच उनकी ज़िंदगी का आधार है क्योंकि जिस सच में फंतासी की जगह न हो, वह जीने लायक नहीं होता बस यथार्थ होता है। शहर का सच जिससे उनका पाला पड़ता है, उनकी कल्पना और गांव के सच दोनों से बीहड़ है। औरों के सच से फ़र्क़ है क्योंकि उसमें दोनों में से किसी की जगह नहीं है। औरों के लिए शायद उनकी फंतासी और चाहत के सच की जगह हो। उनके लिए नहीं है तो वह सच उनकी जान ले कर रहता है। कहानी इतनी संवेदनशीलता से कही गई है, उसमें कोई खलनायक नहीं है कि कैंसर जैसी बीमारी का होना भी अति नहीं लगता।




कहानी 'तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना', जिसमें नदी घग्गर के किसी जन्म में एक मिथकीय क्लीशे के अंतर्गत राजकुमारी थी जिसे गरीब गायक से प्यार था और उसे राजा की बिना खाये पिये 15 दिन तक गाते रहने की शर्त पूरी न करने पर मौत की सज़ा दी गई थी, एक आरोपित फंतासी है। आपने उसमें प्रकृति की तकलीफ की बात  कही थी, उसके साथ मुझे दिक्कत यह थी कि प्रकृति की तकलीफ उसमें बनाई गई मिथ भर है। नदी की प्रकृति ,प्रकृति में उस की जगह, मनुष्य के जीवन में उसकी अहमीयत  के बारे में कोई संकेत तक नहीं है।  कहानी जब ऐसी चीज़ों का ज़िक्र करती है जैसे पांचवी सीढ़ी, बारहवा सपना आदि तो वे मात्र चमत्कारिक लगती हैं । उनके वह होने से कोई फर्क नही पड़ता। जैसे सीढ़ी कहा गया कि पांचवी थी। छठी या तीसरी या नवी होती तो क्या फ़र्क़ पड़ता, छत तीसरे कमरे की हो या चौथे की, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बस ऊँचाई पर छत होनी चाहिये। सपना बारहवां था या ग्यारहवा या तेरहवां क्या अंतर है? कहानी में जब इतनी शिद्दत से गिनती गिनाई गई हो तो कोई तुक होनी चाहिए उनके पीछे वरना महज़ दिखावे का  एक चालू हस्तेक्षेप लगता है। जहाँ तक फेमिनिज़्म का सवाल, वह तो कोई कही भी देख सकता है वरना अविष्कार कर सकता है। उसका कहानी से नहीं पाठक के मन से ताल्लुक है, बस।

कहते हैं फंतासी को चारों पैरों पर खड़ा होना चाहिए वरना न फंतासी रहती है, न सच । जैसा मैंने कहा सच में फंतासी की भरपूर जगह होती है पर जब फंतासी ही कथा का बोझ न उठा पाए तो सच कैसे जन्मेगा भला? पर्यावरण पर सटीक कहानी पढ़नी हो तो इसी अंक में प्रलय में नाव पढ़िए। इधर उधर भटक कर सबकुछ कहने के मोह के बाबजूद कहानी दमदार है ,ऐसी फंतासी जो दरअसल सच पर आधारित है।

दर असल उस विशेषांक में कई यादगार कहानियाँ हैं। दिव्या विजय की यारेगार  भी रोंगटे खड़ी करने वाली
कहानी है पर इतनी निर्मल भाव से कही हुई कि आतंक के भयावह माहौल के बावजूद खलनायक से भी उनसियत हो जाती है। था तो बच्चा ही न? आतंक के बीच पल रहा बच्चा। उस पर बाकी बाद में जब आप उसे शब्दांकन में छापेंगे।


मृदुला गर्ग
२२ सितम्बर २०१९

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००







एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
थोड़ा-सा सुख - अनामिका अनु की हिंदी कहानी
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل