उमा शंकर चौधरी की कहानी 'नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां'


नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां

— उमा शंकर चौधरी

कहानीकार को 'नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां' कहानी कह पाने की बधाई से अधिक शुक्रिया देना चाहिए, जिसमें कहानीकार साहित्यकार बन जाता है और साहित्य का धर्म ‘सच बताना और सच बचाना’ निभाता है. हम सब अपनी जड़ को भूल नहीं रहे हैं बल्कि उसे अपने हाथों मट्ठे से सींच रहे हैं. हमारी इस तरह ख़ुद का विनाश किये जाने की गति तब ही कम होना शुरू हो सकती है जब, अव्वल तो, हम मानें कि हम ही कारण हैं. उमा शंकर चौधरी के लेखन को अगर हिंदी साहित्य से जुड़ाव रखने वाला कोई भी अनदेखा करता है तो यह हमारी बड़ी पराजय है क्योंकि जहाँ से हमें समस्या बतायी जा रही हो और समस्या का हल भी इंगित किया जा रहा हो उस तरफ़ न देखना मूर्खता ही होगी, ऐसी मूर्खता जो जय की किसी भी संभावनों को साँस ही नहीं लेने देगी. कोई ढकेलता नहीं, आप ख़ुद ही, खुल कर, पराजय ज़िन्दाबाद की भीड़ में शामिल होते हैं.





कहानियों के साथ यह जो शब्दांकन संपादक की टिप्पणी लिखने की आदत है वह कतई एक संपादक की नहीं बल्कि एक सीरियस पाठक की पाठ के समय और उसके फ़ौरन बाद दिमाग में चलने वाली ख़लबली होती है. इसलिए, अमूमन अंशों उद्दृत नहीं होते...कभी होते भी हैं —

“फुच्चु मा‘साब ने अपने कुर्ते की जेब में हाथा डाला। उस जेब में बिस्कुट के कुछ टुकड़े थे। वे गेट तक गए और लोहे के उस आदमकद गेट को पकड़कर बिस्कुट के उन टुकड़ों को उन गाड़ियों की तरफ फेंक कर ज़ोर से कहा ‘आ आ आ।’”

इसपर “कमाल कमाल कमाल!!!” ही कहूँगा. और यह पढ़ते हुए —

“फुच्चु मा‘साब बेंच पकड़कर उठने लगे तो उस गार्ड ने उन्हें सहारा दिया। फुच्चु मा‘साब जाने लगे तो उस गार्ड ने कहा ‘आप वही हैं ना साहब जो कल गाड़ियों को दाना खिला रहे थे।’”

भीतर से कवि ने कहा –
सारा दुलार
सारा प्यार
सब धुल धरा रह जाता है
गाँव की मिटटी
शहर खा जाता है.

दरअसल, हमारी हर समय जल्दी में रहने की आदत हमें कमतर इंसान बनाती है. कम से कम साहित्य को ठहर कर पढ़ा जाना चाहिए. बरबस निकलता है “असंभव लिख दिया” जब कथाकार ऐसा लिखता है –-
“‘बाबू एक बार गांव जाकर सब समेट आना। मछलियों और चिड़ियों को कहना बस अब नहीं।’” और यह पढ़ते हुए –
“ऐसा लगता था जैसे इस बाल्कनी को किसी ने अचानक बंद कर दिया हो। ऐसे जैसे सबकुछ सामान्य चलते हुए ऐसा कुछ अचानक घटा हो कि उसे जस का तस बंद कर दिया गया हो।“

यही कि सच को इतने आसान शब्दों में बंधा देखना हतप्रभ ही कर सकता है और मैं, पाठक हतप्रभ ही हूँ. अगर जैसा ऊपर कहा आपने मान लिया हो और कुछ ठहरे हों तो अंत में यह अंश –
“लेकिन इस एक घंटे की लम्बी प्रक्रिया में फुच्चु मा‘साब धैर्य रखकर दोनों हाथों की मुट्ठियों को कसकर बन्द कर अपने गांव के सुनहरे दृश्य को याद करते रहते और वह कठिन समय भी कट जाता। उस कानफोड़ू आवाज़ के बीच भी वे खो से जाते। गांव की पगडंडियां, बांध की ठंडी हवा, मंदिर के चबूतरे तब उन्हें बचाते। हमेशा बचाया तो उन्हें उन आवाजों ने भी जो उन्हें ढूंढने आती थीं। फुच्चु मा‘साब आज थोड़ा ब्लॉक चलना है, फुच्चु मा‘साब आज थोड़ा अमीन से नापी करवाने चलना है”

इसपर और पूरी कहानी पर यह कि वह मौक़ा कहानी में मिलना दुर्लभ होता है जब हम, पाठक रोआंसे होने को हों. किसी भी दुर्लभ क्षण को जी ज़रूर लेना चाहिए. ‘कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता/ कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता...’ और ‘देख लो आज हमको जी भर के...’ और ‘लग जा गले के फ़िर ये मुलाक़ात हो न हो...’ यहसब हम, पाठक किसी दुर्लभ क्षण की तलाश में, अनजाने, गुनगुनाते हैं. यहाँ वे क्षण हैं, ठीक सामने, वे जब आंएँ, रुआँसा गुनगुनाने के लिए नहीं रोकियेगा, उसे बहने दीजियेगा,

घुल जाएँगी शहर की कुछ गिट्टियाँ
गाँव की कुछ मिट्टी मिल जाएगी.

आपका
भरत एस तिवारी / संपादक शब्दांकन
प्रभात ख़बर, 22 सितम्बर 2019 https://epaper.prabhatkhabar.com/c/43886875


कहानी

नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां

— उमा शंकर चौधरी


एक
5:20 पर पहंचने वाली गाड़ी 7:35 पर पहुंचने वाली थी।

प्लेटफॉर्म पर बैठने की जगह नहीं थी। अनुराग अपने हाथ में ‘बिजनेस टुडे’ को मोड़कर थामे हुए था। वह जब यहां पहंुचा था तब सात बजकर पांच मिनट हुए थे और उसने मैगजीन कॉर्नर जाकर बिजनेस टुडे के इस नऐ अंक को इस उम्मीद के साथ खरीदा था कि वह इसी के सहारे समय काटेगा। 7:35 हो गए थे परन्तु अभी भी गाड़ी की कोई उद्घोषणा नहीं थी। गाड़ी के पहंुचने का समय नजदीक आ गया था तो अनुराग का अब उस पत्रिका को पलटने का मन नहीं कर रहा था। प्लेटफॉर्म पर बहुत गंदगी थी और वहां एक बच्चे के रोने की आवाज़ भी थी। बच्चा अनवरत रो रहा था और उसकी मां चुप बैठी हुई थी। अनुराग उस रोने की आवाज़ से थोड़ा दूर था और सीढ़ी के सहारे तिरछे खड़े होकर पटरी पर दौड़ने वाले चूहे को देख रहा था। पटरी पर दो मोटे मोटे चूहे थे जो बार-बार बिल के बाहर-भीतर कर रहे थे।

अनुराग की उम्र चालीस के क़रीब होगी और लम्बाई बहुत ज्यादा नहीं थी। चेहरे पर मंूछ नहीं थी। उसकी जेब में चश्मा था परन्तु उसे वह हरदम नहीं पहनता था।

प्लेटफॉर्म पर जितने भी डिस्प्ले थे, सारे खराब थे। उसमें पीले रंग में कुछ लिखा तो जा रहा था लेकिन वह इतना बिखरा हुआ था कि उससे कोई अर्थ बन नहीं पा रहा था। अनुराग मन में सोच रहा था कि पता नहीं ‘बी टू’ किधर पड़ेगा। पहले उसने सोचा कि जब गाड़ी रुकने लगेगी तब वह ‘बी टू’ ढूंढ लेगा। फिर उसे लगा कि पिता यहां प्लेटफॉर्म पर उतरते ही उसे नहीं देखकर घबरा जायेंगे। उसे अचानक याद आया कि जब बचपन में अपने पिता के साथ वह दुर्गा मेला देखने जाता था तब एक मिनट को भी पिता की उंगली नहीं छोड़ता था। अचानक अनुराग के मस्तिष्क में दुर्गा मेला में पिता के साथ घूमने का दृश्य घूम गया, और उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गयी।

लेकिन इस वक्त पिता काफी बीमार हैं और उनकी हालत पता नहीं कैसी है, ऐसा सोचते हुए वह अचानक अजीब सी बेचैनी महसूस करने लगा। उसने इधर-उधर नजर घुमाना शुरू किया। सामने सामान ढोने वाले एक ठेले पर एक कुली बैठा हुआ दिखा। कुली ने ‘बी टू’ के लिए थोड़ा और पीछे जाने के लिए कहा।

अनुराग ने पीछे की तरफ चलना शुरू किया तभी उसका फोन बज गया। उसने जेब से मोबाइल निकाला वहां शेफाली की तस्वीर के नीचे शेफाली नाम भी लिखा था। शेफाली उसकी पत्नी का नाम है ऐसा उसने सोचा नहीं होगा किन्तु बताने के लिए यहां कहानी में यह लिखा जा रहा है कि उसने उस वक्त अपने मन में ऐसा सोचा। उसने हरे वाले बटन की तरफ स्क्रीन को खिसका दिया।

‘क्या हुआ गाड़ी आयी नहीं क्या?’ शेफाली ने पूछा।

‘दो-ढाई घंटे लेट है।’ शेफाली से बात करके अनुराग की वह खीझ थोड़ी कम हुई जो इस प्लेटफॉर्म की व्यवस्था ने उसके भीतर भर दी थी।

‘राजधानी भी?’

‘अरे यार बहुत बुरा हाल है अभी तो कोई अनाउंसमेंट भी नहीं है। तुम घर पहंुच गई ना?’ अनुराग को अचानक याद नहीं आ रहा था कि अभी ठीक ठीक कितने बजे हैं लेकिन उसने प्लेटफॉर्म के बाहर झांक कर देखा और पत्नी से यह सवाल कर दिया। बाहर अंधेरा घिर आया था।

‘साढ़े सात बज रहे हैं अनुराग। बच्चों को पढ़ा रही हूं।’ शेफाली ने कहा लेकिन अनुराग को उसकी आवाज़ में थोड़ी थकावट महसूस हुई।

‘हूं....’ पता नहीं क्यों लेकिन अनुराग के अपने मंुह से निकला।

‘आते वक्त स्टेशनरी से एक थर्मोकोल की शीट और कुछ सितारे ले आओगे? हां थोड़े से गुगली आईज भी ले आना। अवनी को प्रोजेक्ट बनाना है।’

अनुराग चुप रहा।

‘.............छोड़ो मैं ही देखती हूं।’ शेफाली ने कहते हुए एक गहरी सांस छोड़ दी।

शेफाली ने फोन रखा तो अनुराग को याद आया कि वह आज गाड़ी लेकर नहीं आया है। यहां गाड़ी पार्किंग की इतनी परेशानी है कि वह हिम्मत नहीं करता है। उसने मोबाइल में ऊबर निकालकर उस पर उंगली रखी और वहां दो-तीन मिनट के अंतराल में ही ढ़ेरों गाड़ियां दिखने लगीं। उसने सोचा बाहर निकल कर बुक कर लिया जायेगा।

बिना अनाउंसमेंट के गाड़ी प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करने लगी। कुलियों की भागादौड़ी गाड़ी के प्रवेश करने के पहले ही बढ़ गई थी। अनुराग भी चौकन्ना हो गया यह देखने के लिए कि ‘बी टू’ बोगी किधर लगेगी।






दो
फुच्चु मा‘साब नीचे वाली बर्थ पर लेटे थे और उनकी कमर में दर्द था। सांस चढ़ रही थी और पेट काफी फूला हुआ था। लेकिन बाहर अंधेरे के बाद जब अचानक बहुत रोशनी दिखने लगी तब उन्होंने तकिये के सहारे अपने सिर को थोड़ा ऊंचा उठा लिया। खिड़की के बाहर ऊंची-ऊंची इमारतें और ढ़ेर सारी रोशनी उन्हें चकाचौंध कर रही थी। रोशनी के इस सैलाब को देखकर फुच्चु मा‘साब के मन में एक अजीब सी घबराहट हो गयी। उन्होंने अपने पांव के पास बैठे टुनटुन को पूछा ‘अन्नु स्टेशन पहंुच गया होगा ना?’ यह अन्नु अनुराग से बना है। टुनटुन ने हां में सिर हिलाया तब फुच्चु मा‘साब को थोड़ी राहत महसूस हुई। टुनटुन सिर्फ फुच्चु मा‘साब को दिल्ली पहुंचाने आया है।

सामने साइड अपर बर्थ पर एक लड़का बैठा था। वह पूरे रास्ते अपने कान में मोबाइल की लीड ठूंस कर माबाइल में कुछ देखता और मुस्कराता आया था। साइड लोअर के जिस बर्थ के ऊपर वह लड़का अधलेटा था उसी खिड़की से फुच्चु मा‘साब इस चमकीली दुनिया को देख रहे थे। पिछले तीन-चार घंटे से वह बर्थ खाली था उसका पैसेंजर गाड़ी से उतर चुका था। बगल वाली दोनों सीटों पर दो लड़कियां थीं जो लगभग पूरे रास्ते सोती आयीं थीं। वे सिर्फ खाना खाने के लिए जगी थीं और फिर सो गयी थीं। लेकिन अब चूंकि गाड़ी नई दिल्ली पहुंचने वाली थी इसलिए अब दो नों लड़कियां जग गयी थीं और चुप बैठी हुई थीं।

 नीचे की बर्थ पर सोई हुई लड़की जग तो गयी थी परन्तु वह अभी भी सफेद चादर से सिर को छोड़कर पूरे शरीर को ढके हुए थी। जो लड़की ऊपर सो रही थी वह नीचे वाली बर्थ पर नीचे सोई हुई लड़की के पैर के पास बैठ गई फिर उसने अपने मोबाइल का डाटा ऑन किया और लगातार उस पर मैसेजेज आने लगे। ऐसे जैसे सारे मैसेजेज अंदर प्रवेश करने को रुके पड़े थे। टूं टूं, टीं टीं की अनवरत आवाज़ ने थोड़ी देर तक उस लड़की को भी असहज कर दिया। फुच्चु मा‘साब टोपी पहने थे और कम्बल ओढ़े थे तो कम्बल और उस टोपी के बीच से सिर्फ उनकी शक्ल दिख रही थी। टोपी और कम्बल के बीच से फुच्चु मा‘साब छोटे बच्चे की तरह मुंह निकालकर बहुत ही भौचक निगाह से उस लड़की को देख रहे थे। तब उस सोई हुई लड़की ने पैर से बैठी हुई लड़की को इशारे में हल्का सा धक्का दिया और फिर उस बैठी हुई लड़की ने या तो डाटा ऑफ कर दिया या फिर उस मोबाइल की आवाज़ को बन्द कर दिया।

फुच्चु मा‘साब की तबीयत खराब थी इसलिए उनकी खाना खाने की रुचि बिल्कुल खत्म हो गयी थी। मा‘साब इस तरह की गाड़ी में पहली बार बैठे थे जहां खाना भी परोसा जाता है। यह देखकर उन्हें बहुत सुखद आश्चर्य हुआ था परन्तु यह समय गलत था और वे कुछ खा नहीं पाए। हां उन्होंने दोनों बार खाने के साथ दी जाने वाली आइस्क्रीम ज़रूर खाई। फुच्चु मा‘साब ने सोचा था बेटे को मिलेगें तो बतलायेंगे कि आइस्क्रीम अच्छी थी।

 गाड़ी ने स्टेशन मे प्रवेश किया परन्तु फुच्चु मा‘साब अब भी शांत लेटे हुए थे। उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की। उन्हें अन्नु की सख्त हिदायत याद थी कि गाड़ी यहीं खत्म ही हो जायेगी इसलिए कोई जल्दी नहीं है। अनुराग को यह मालूम था कि इस हिदायत से भी उन्हें कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं था परन्तु आज फुच्चु मा‘साब का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। लोग उतरने के लिए बेताब थे परन्तु वह लड़का कान में लीड ठूंसे हुए अभी भी आराम से अपने मोबाइल को देख रहा था। फुच्चु मा‘साब अब तक उठकर बैठ गए थे और उन्हें लगा था शायद वह लड़का या तो समझ नहीं पाया है कि उसका स्टेशन आ गया है और यह गाड़ी यहीं खत्म हो जायेगी या हो सकता है कि उनके पास गलत जानकारी हो, यह गाड़ी शायद आगे भी जाती हो। फुच्चु मा‘साब ने उस लड़के की तरफ इशारा करके पूछा कि ‘उसे उतरना नहीं है क्या?’ लड़के ने उन्हें देखा और कोई जवाब नहीं दिया। हां फिर उसने अपने कान की लीड को समेट कर मोबाइल बन्द किया और अपने एक पिठ्ठू बैग को कंधे पर लटका कर चल दिया।

तीन 
अनुराग जब पिता को लेकर स्टेशन से बाहर चला तब उसे महसूस हुआ कि पिता काफी कमज़ोर हो गए हैं और उन्हें चलने में इस वक्त काफी तकलीफ हो रही है। अनुराग ने पिता को अपने कंधे का सहारा दे रखा था। उसे यह अच्छा लगा कि गाड़ी सोलह नंबर प्लैटफॉर्म पर लगी इसलिए सीढ़ी चढ़ने की समस्या नहीं रही। उसने अभी तक टैक्सी बुक नहीं की थी। उसे यह मालूम था कि ऊबर को आने में महज दो मिनट लगने हैं। पिता अनुराग के कंधे का सहारा लिए हुए थे तो अनुराग को अच्छा लग रहा था। अनुराग ने पिता की तरफ घूमकर धीरे से कहा ‘सब ठीक हो जायेगा।’ फुच्चु मा‘साब ने सुना और वे थोडे़ रुआंसे से हो गए।

स्टेशन पर काफी भीड़भाड़ थी। फुच्चु मा‘साब काफी धीरे-धीरे चल रहे थे और स्टेशन पर बहुत तेज चलने की जगह भी नहीं थी। स्टेशन के दरवाजे से वे लोग अभी निकले ही थे कि ऑटो और टैक्सी वालों का आक्रमण शुरू हो गया। बाहर अंधेरा था लेकिन ऐसा दूर देखने से ही पता चल सकता था क्योंकि वहां तो बड़े बड़े हैलोजन से बहुत तेज रौशनी थी। फुच्चु मा‘साब ने स्टेशन के बाहर इतनी रौशनी की कल्पना नहीं की थी इसलिए उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने ऊपर जहां से रोशनी आ रही थी वहां देखा। हैलोजन बहुत ऊंचाई पर लगा था। उन हैलोजन को देखते हुए उनकी रफ़्तार थोड़ी धीमी हो गयी इसलिए अनुराग ने उनको देखा और धीरे से कहा ‘दिल्ली में रौशनी की कमी नहीं है।’

अनुराग उन ऑटो और टैक्सी वालों को पीछे छोड़ ऊबर बुक करना चाहता था इसलिए उन टैक्सी-ऑटो वालों से पीछा छुड़ाते हुए वह थोड़ी दूर निकल आया और पिता को वहीं ज़मीन पर बनी डिवाइडर पर बैठा कर मोबाइल पर ऊबर बुक करने लगा। जो ऊबर अभी तक दो-तीन मिनट दिखा रही थी अब दस मिनट की वेटिंग दिखाने लगी थी। उसने इस वेटिंग को स्वीकार किया और गाड़ी बुक कर दी।

फुच्चु मा‘साब यह समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें अब घर किस तरह जाना है। उन्होंने अपनी नजर दूर-दूर तक घुमायी, चारों तरफ छोटी-बड़ी गाड़ियां थीं, भीड़भाड़ थी, चिल्लपों थी, रास्ता कहीं नहीं था। उन्हें लग रहा था कि अनुराग अपनी गाड़ी लेकर आया है परन्तु अनुराग वहीं खड़ा था। वह गाड़ी लाने नहीं गया था। इतने ऑटो, टैक्सी को छोड़ देने का तर्क भी उन्हें समझ नहीं आ रहा था। टुनटुन वहीं खड़ा था उन्होंने टुनटुन को इशारा कर पूछा ‘ऐतना तो गाड़ी है तो जाता काहे नहीं है।’ टुनटुन इस सवाल को सुनकर भी अनमना सा खड़ा रहा। फुच्चु मा‘साब ने अब फिर टुनटुन को इशारा कर कहा ‘कहीं जाना नहीं, भुला जाएगा, बहुत भीड़ है।’

अनुराग ने कैब के लोकेशन का पीछा किया और उसे समझ में कुछ नहीं आया। उसने ड्राइवर को फोन किया और ड्राइवर ने कहा कि वह तो अभी कश्मीरी गेट के पास जाम में फंसा है उसे कम से कम पैंतीस मिनट अभी और लगेंगे। साथ ही यह नसीहत भी कि आप इस बुकिंग को कैंसिल कर दो। अनुराग ने झल्लाकर कह तो दिया कि मैं तो नहीं कैंसिल करूंगा लेकिन उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। गाड़ी कैंसिल कर वह ऊबर और ओला दोनों पर जाकर कैब की स्थिति का जायजा लेने लगा और वह आश्चर्यचकित था कि दोनों ही जगहों पर काफी व्यस्तता हो चुकी थी। ओला ने एक बार दस मिनट की वेटिंग दिखलायी और फिर सर्च करने निकला तो हुआ ढाक के तीन पात। कोई टैक्सी उपलब्ध नहीं।

फुच्चु मा‘साब अनुराग को देख रहे थे और टैक्सी ऑटो वाले उनके पास आकर उन्हें परेशान कर रहे थे। ‘कहां जाना है बाबा?’ ’साथ में कौन है बाबा?’ लेकिन फुच्चु मा‘साब चुप थे। जब किसी ड्राइवर ने यह कहा कि ‘अकेले हो क्या बाबा?’ तब उनके पैरों में झुरझुरी हो गयी। उन्होंने अनुराग की तरफ इशारा किया जो वहीं थोड़ी दूर में खड़ा होकर मोबाइल में उलझा हुआ था। ‘हम बेटे के साथ हैं।’ यह जबाव सुनकर वह व्यक्ति तो चला गया परन्तु फुच्चु मा‘साब यह समझ नहीं पा रहे थे कि हो क्या रहा है? जब उलझन ज्यादा ही बढ़ गयी और उन्हें यहां यूं बैठे रहने में तकलीफ होने लगी तब उन्होंने अनुराग को आवाज़ लगायी। इस समय तक अनुराग इन ओला-ऊबर के चक्कर से खीझ चुका था लेकिन वह शांत मन से पिता के पास आया। ‘गाड़ी बुक कर रहे थे।’ फुच्चु मा‘साब समझे नहीं कि इतनी गाड़ियां जब यहां है तो कहां से गाड़ी बुक रहा है।

‘ऑफिस से गाड़ी आएगा क्या?’

शोर बहुत था इसलिए अनुराग ने इशारे में ना के लिए सिर्फ सिर हिलाया।

‘तो ऐतना गाड़ी है तो चल काहे नहीं रहे हो।’ फुच्चु मा‘साब की आवाज़ बहुत थकी हुई सी लग रही थी।

अनुराग कुछ जवाब देता कि तब तक में उसका फोन बज गया।

‘कहां पहुंचे?’ शेफाली ने इस भाव से पूछा था कि अगर नजदीक पहंुच गए हों तो चाय चढ़ा दें।

‘कहां पहुंचे! अभी निकल ही नहीं पाया।’

‘अरे क्यों?

‘कोई कैब ही नहीं है।’

‘और पापा?’

‘यहीं बैठे हैं।’

‘कहां बैठे हैं?’

‘यहीं बैठे हैं।’

‘यहीं कहां बैठे हैं?’

‘यहीं।’

‘उनको तुमने वहां ज़मीन पर बैठा रखा है। अरे तो कैब नहीं मिल रही है तो टैक्सी कर लो। कब तक इंतज़ार करोगे। उनकी तबीयत खराब है अन्नी।’

‘हां हां।’

अनुराग ने मोबाइल को अपनी जेब में डाल लिया और हारे हुए एक खिलाड़ी की तरह उन टैक्सी वालों की तरफ बढ़ गया। उन टैक्सी वालों की जमात ने हारे हुए खिलाड़ी की शक्ल को पहचान लिया था इसलिए उन्होंने अनुराग का स्वागत नहीं किया। कोई टैक्सी, ऑटो जाने को तैयार नहीं था और एक-दो जाने को तैयार हुए तो जो कैब अनुराग ने छोड़ दिये थे उससे दो या ढाई गुना पैसा। अनुराग खीझ गया और वहां से भी लौट आने को हुआ। उसने जेब से मोबाइल निकाला और मन किया कि एक बार फिर से कैब की कोशिश वह कर ले। लेकिन उसने वहीं से पिता को देखा। पिता काफी थके लग रहे थे और अपने दोनों हाथों को पीछे कर अपने शरीर को किसी तरह पीछे खींच रहे थे। टुनटुन सामान की रखवाली करता हुआ वहीं साथ में बैठा हुआ था। अनुराग ने अंततः हार कर उस टैक्सी को फाइनल कर लिया।

फुच्चु मा‘साब इस बात को अभी भी समझ नहीं पाये कि जब गाड़ी यहीं बुक करनी थी तो इतना वक्त बरबाद  क्यों किया। लेकिन अनुराग को बहुत परेशान देखकर उन्होंने उससे कहा कुछ नहीं। फुच्चु मा‘साब ने गाड़ी में बैठने में समय लिया। अनुराग ने उन्हें सहारा दे रखा था और उन्हें बैठाने की धीरे धीरे कोशिश कर रहा था।

‘के हो गया बाबू जी को?’ ड्राइवर ने पूछा तो अनुराग ने कहा ‘बीमार हैं।’

‘नां नां हुआ के है?’ ड्राइवर की आवाज़ थोड़ी कड़क थी।

‘वही तो पता करने यहां आये हैं।’

‘एम्स ले जाओ बाबूजी को ठीक हो जागा भई।’

‘हुं’

फुच्चु मा‘साब सीट पर बैठे और सिर को पीछे सीट पर फेंक दिया। और धीरे से कहा ‘पानी पिला दो अन्नु।’

अनुराग ने अपने लिए अन्नु बहुत दिनों बाद सुना था। उसने पिता से ही पूछा ‘पानी की बोतल नहीं है क्या?’ और फिर अपने सवाल पर पछताने लगा। उन्होंने ड्राइवर से थोड़ी दूर रुकने के लिए विनती की। वैसे उसे उम्मीद थी कि ड्राइवर इस विनती को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा लेकिन अंदेशे के विपरीत ड्राइवर ने इस बात का स्वागत किया और कहा-

‘रुक जा भई यहां इंतज़ार ना कर सकूं। आगे साइड कर लेन दे।’

फुच्चु मा‘साब ने जितना समय टैक्सी में चढ़ने में लिया था उतने में ही पीछे जाम लग गया था। और पीछे से लगातार हॉर्न बजने की आवाज़ आ रही थी। पीं पीं, पों पों। ठीक पीछे जो गाड़ी थी वह अनवरत हॉर्न बजाए जा रही थी। अब वह टैक्सी धीरे धीरे साइड लेने लगी तो हॉर्न की आवाज़ और बढ़ गयी। फुच्चु मा‘साब ने गाड़ी में बैठे-बैठे पीछे की गाड़ी को देखा, उसमें चश्मा लगाए एक लड़की बैठी थी जो हॉर्न पर हाथ रखे हुए थी और बहुत खिझी हुई थी।

अनुराग पानी की बोतल लेकर जब गाड़ी में बैठा तो वह मौसम में हल्की ठंड होने के बावजूद पसीने से भीग चुका था।

फुच्चु मा‘साब ने सोचा था कि गाड़ी में बैठकर गाड़ी में मिली आइक्रीम वाली बात को बेटे को बताएंगे लेकिन उन्होंने बेटे की तरफ देखकर कहा ‘बहुते दुबला गए हो।’

और फिर फुच्चु मा‘साब ने अपनी आंखें बंद कर सीट पर अपने आप को लगभग फेंक दिया। बाहर बहुत रोशनी थी परन्तु मा‘साब ने उस रोशनी के लिए एक बार भी अपनी आंखें नहीं खोलीं।

चार






ठंडी हवा के झोंकों के शरीर से टकराते ही जब बांध पर गश खाकर अचानक फुच्चु मा‘साब गिरे थे तो सबसे पहले उन्हें बतहुआ ने देखा था। बतहुआ तब गाय चरा रहा था और अपने मन में खेसारी लाल के गीत गुनगुना रहा था। दो गायों और एक बछड़े की पूरी जिम्मेदारी बतहुआ की है। बतहुआ के हाथ में एक लाठी थी और गले में गमछा। मजबूत कद काठी का बतहुआ लुंगी और गंजी में बहुत तगड़ा दिखता है। वह गीत गुनगुनाता है और आवाज़ बाहर नहीं आती है। बतहुआ बोल नहीं पाता है लेकिन सुनता है।

बतहुआ का नाम बतहुआ ही है शायद या फिर पता नहीं क्या। सब लोग बतहुआ ही कहते हैं। बचपन से वह कुछ बोला नहीं तो किसी को उसके नाम के बारे में विचार करने की ज़रूरत महसूस ही नहीं हुई। ख़ुद कुछ बोला नहीं तो अपने नाम को कभी सुधरवा भी नहीं सका।

फुच्चु मा‘साब बतहुआ को बहुत प्यार से रखते हैं। उन्हीं के साथ बतहुआ रहता है। मा‘साब की सब देखरेख वही करता है। वही अच्छा बुरा सब ध्यान भी रखता है। और यह कोई एकतरफा भी नहीं है। अगर बतहुआ बहुत ध्यान रखता है फुच्चु मा‘साब का तो फुच्चु मा‘साब भी उसको अपने सिर पर बैठा कर रखते हैं। दोनों में इतनी ट्युनिंग है कि बतहुआ जो अपने मुंह से निकालता है फुच्चु मा‘साब बहुत ही आसानी से उसे समझ जाते हैं। उन दोनों को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि बतहुआ बोल नहीं पाता है और फुच्चु मा‘साब को उसकी बिना बोली हुई बातों को समझने में थोड़ी भी मशक्कत करनी पड़ती है।

फुच्चु मा‘साब गश खाकर जब गिरे तो बतहुआ ने देखा और फिर दौड़ा उनके पास। और अपने मुंह से गूं गूं की हृद्यविदारक आवाज़ निकालकर मन्दिर पर बैठे कुछ लोगों को बुला लिया। मन्दिर के चबूतरे पर बैठे लोगों को बतहुआ की हृद्यविदारक आवाज़ याद है। ऐसी आवाज़ जो कलेजा फाड़ दे। दौड़े दौड़े लोग जब उस बांध पर पहुंचे तब बतहुआ फुच्चु मा‘साब को अपनी गोद में लिए हुए था और ज़ोर ज़ोर से गूं गूं की आवाज़ निकाल रहा था।

दूर दूर तक पसरी इस हरियाली और वहां से आने वाली ठंडी हवा ने फुच्चु मा‘साब की इस उम्र को अपना शिकार बना लिया है, सब लोगों ने सबसे पहले यही सोचा। सुबह की ठंडक से ज्यादा खतरनाक शाम की ठंडक होती है। ऐसा भी लोगों ने कहा।

पांच

फुच्चु मा‘साब की उम्र ठीक ठीक कितनी है इसे पता करना तो अब असंभव है। हां पचहत्तर से अस्सी के बीच में ही इसे कहीं समझिए। सरकारी दस्तावेज से देखेंगे तो यह उम्र 76 के आसपास ठहरती है। क्योंकि उनकी अपनी नौकरी से अवकाश प्राप्त किए हुए लगभग 16 साल हो गए हैं। लेकिन जब उनसे असली उम्र पूछी जाती तो वे अपनी उम्र को किसी भूकम्प, किसी सूखा, किसी बाढ़ से जोड़कर अस्सी के क़रीब पहुंचा देते। उनसे बड़ी एक बहन थी। वे अक्सर कहते उस सूखे के वक्त तक बड़ी बहन का जन्म हो गया था और उससे तो मैं दो ही साल छोटा हूं तो हुआ ना अस्सी साल का। अब उस सूखे के इतिहास को ढूंढ़े कौन। चूंकि उस सूखे का सही सही बरस किसी को पता नहीं है इसलिए मा‘साब की उम्र भी धोखे में ही चल रही है।

फुच्चु मा‘साब लम्बे हैं और दुबले पतले भी। लेकिन अपनी पचहत्तर-अस्सी की इस उम्र में भी तंदुरुस्त हैं। तंदुरुस्त हों भी क्यों नहीं, पैदल इतना जो चलते हैं। सारे बाल एकदम सफेद हो चुके हैं। यहां तक कि भौंहे भी। हाथ पर जो बाल हैं उसमें से भी बहुत सारे सफेद हो गए। दांत साबुत नहीं बचे हैं। बीच बीच में कुछ बचे हैं ज्यादातर टूट गए। जो बचे हैं काफी मजबूत हैं। यही समस्या भी है। जब तक वे उखाड़े नहीं जायेंगे नकली दांत फिट हो नहीं सकते। और उसे उखाड़ना आसान कहां।

यह गांव एक बहुत ही छोटा सा गांव है। अपने जिला से लगभग अड़तीस-चालीस किलोमीटर दूर। मुख्य तो नहीं लेकिन सड़क से जब तीस-बत्तीस किलोमीटर चला जाता तब अरिया एक जगह है जहां बस से उतर कर पैदल या साइकिल से इस गांव में आया जाता है। लगभग आठ कोस। अरिया गांव सड़क के उस पार है। इस पार खेत हैं। इसी खेत के बीच से कच्ची सड़क है जो इस मंझरी गांव को जाती है। अरिया और मंझरी के बीच में कोई और गांव नहीं है। अरिया उतरने के बाद और दस-बीस कदम चलने के बाद बरगद का एक पेड़ है। यह पेड़ कितना पुराना है इसे पता करना बहुत मुश्किल है। जितने लोग आज इस गांव में जीवित हैं और जितने पुराने लोगों से सुनी-सुनाई में इस पेड़ का जिक्र आया है, यही आया है। उन्हें तो जब से होश है इस पेड़ को देख ही रहे हैं। पेड़ घना है और उसकी जड़ बहुत मजबूत है। मंझरी गांव के लोग जब शहर जाते हैं तो अपनी साइकिल को यहीं इसी पेड़ के नीचे लगा जाते हैं। अरिया के इस चौक से उन्हें बस मिल जाती है और उनकी साइकिल इस पेड़ के नीचे आराम कर रही होती है। गांव के लोग कहते हैं यह पेड़ उनके कुल का सबसे बुजुर्ग प्राणी है। जब इस गांव की कनिया अरिया पर बस से दिन में उतर जाती तो पूरा दिन यहीं इसी पेड़ के नीचे गुजारती है। कनिया उतरती और सबसे पहले अपने इस बुजुर्ग को प्रणाम करती। फिर शाम को अपने पति की साइकिल के कैरियर पर बैठकर मुंह ढांके चल देतीं गांव की ओर। अब कुछ लोग सड़क पर से टमटम रिजर्व करके अपनी कनिया को अपने घर ले जाते हैं।

छः

फुच्चु मा‘साब का नाम फुच्चु किसने रखा इसकी भी एक कहानी है।

मंझरी गांव छोटा सा है। लेकिन इस तरफ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगातार कई गांव हैं। उन्हीं दो-तीन गांवों को मिलाकर झुटार में एक प्राथमिक विद्यालय है। फुच्चु मा‘साब उसी में मास्टर थे। उस प्राथमिक विद्यालय की दूरी फुच्चु मा‘साब के घर से लगभग छः किलोमीटर है। वे स्कूल रोज़ पैदल आते-जाते थे। फुच्चु मा‘साब ने जब से नौकरी पकड़ी तब से अवकाश प्राप्ति तक वहीं रहे। उस स्कूल ने फुच्चु मा‘साब को बहुत कुछ दिया। पहचान, प्यार, सम्मान और सबसे अधिक बच्चों को दुलार करने का अवसर।

मा‘साब बचपन से ही बहुत पढ़नुक थे या नहीं यह तो विद्योत्तमा को नहीं पता लेकिन जब शादी करके वे आयीं तो उन्होंने हमेशा उन्हें पढ़ते ही पाया था।

पिता की इकलौती बेटी होने के कारण विद्योत्तमा पिता की पलकों पर ही रहती आयी थी। छोटी सी उम्र में शादी हो गई तो भोलापन और चंचलता भी उसके चेहरे पर साथ ही आयी। फुच्चु मा‘साब ने जब विद्योत्तमा को देखा था तो लगा था जैसे किस्मत ने उनके हिस्से की सारी खुशियां उन्हें एक ही बार में दे दी हो। विद्योत्तमा को देखते ही उनके प्यार में वे डूब गए थे और पूरी जिन्दगी वे उनके प्यार में डूबे ही रहे। विद्योत्तमा की ठुड्ढी पर जो तिल था फुच्चु मा‘साब ने तब उसे छुआ था और कहा था ‘हम त हियां हैं।’ और फिर पूरी जिन्दगी पत्नी विद्योत्तमा की ठुड्ढी का तिल बने ही रहे।

शादी के कुछ महीनों बाद ही फुच्चु मा‘साब को मास्टरी की नौकरी मिली। तब नौकरी का हाल कुछ और था। दसवीं पास नहीं की कि मास्टर में बहाली हो गयी। और वह भी अपने ही गांव में। फुच्चु मा‘साब स्कूल गए, नौकरी ज्वाइन की और लौटे तो अपनी पत्नी के लिए शखुए के पत्ते में पलटवा के यहां से गरम गरम जिलेबी बंधवा के लेते आये। जिलेबी गरम थी और विद्योत्तमा ने दोना खोला तो कहा ‘अरे एतना गरम जिलेबी कैसे ले आये, दौड़ते आए क्या?’ फुच्चु मा‘साब झेंप गए लेकिन सच तो यही था। उन्होंने जिलेबी खाती हुई विद्योत्तमा को देखा, विद्योत्तमा के ठुड्ढी पर का तिल मुस्करा रहा था।

वैसे भी फुच्चु मा‘साब अपने घर में दुलरवा ही थे लेकिन पत्नी अच्छी मिल गयी और शादी के तुरंत बाद नौकरी भी मिल गयी तो और इतराने लगे। पत्नी दुलार करती और फुच्चु मा‘साब दुलार बनते। लेकिन इसी दुलराने ने ब्रह्मदत्त नारारण सिंह को फुच्चु मा‘साब मे बदल दिया। और पत्नी विद्योत्तमा खुश हो गयी। उन्हें अपने पति को पुकारने के लिए एक प्यारा सा नाम मिल गया।

गर्मी का मौसम था और रविवार का दिन था। शाम में ज़ोर का अंधड़ उठा और घनघोर बारिश होने लगी। फुच्चु मा‘साब ने घर में दिन भर पड़े-पड़े सोचा था कि शाम को जरा चौक तक घूम आयेंगे और विद्योत्तमा के लिए आधा किलो मुरब्बा ले आयेंगे। लेकिन इ बारिश ने सब बिगाड़ दिया। घनघोर बारिश हुई तो आंगन में फफोले पड़े और उन फफोलों को देखकर फुच्चु मा‘साब का मन मचलने लगा। विद्योत्तमा से चुहल करते हुए कहा कि बारिश में साथ में नहायेंगे। लेकिन अम्मा के सामने विद्योत्तमा उस आंगन में कैसे नहा सकती थी। ऐसा नहीं है कि फुच्चु मा‘साब इस बात को समझते नहीं थे। लेकिन विद्योत्तमा से जानबूझकर मुंह फुला बैठे। विद्योत्तमा ई भोले बाबा को मनाने पकौड़े बनाने चली गयी। उसने फुच्चु बाबू को कहा कि वे नहा लें और तब तक वह उनके लिए बथुआ, प्याज और गोभी के पकौड़े तल देती है परन्तु फुच्चु बाबू फुच्च बने रहे। मुंह फुलाए मिट्टी का माधो। न बारिश में नहाये और न ही पकौड़े खाये। पकौड़े लेकर विद्योत्तमा आई तो मुंह फुला कर कुप्पा।

विद्योत्तमा ने पकौड़े की प्लेट को उनके सामने रखा और कमरे से बाहर निकल गई। बाहर बरामदे में। बरामदे के पार आंगन में बहुत तेज बारिश थी और उस बारिश में फफोले भी थे।

विद्योत्तमा अंदर आई तो फुच्चु बाबू दीवार से सटकर अपने बिस्तर पर अभी भी बैठे थे। वे लेटे नहीं, बैठे थे। तब विद्योत्तमा को हंसी आ गई और तब पहली बार उसने फुच्च सम्बोधन का इस्तेमाल करते हुए कहा था ‘एतना फुच्च बनने की कोई ज़रूरत नहीं है, हम आपही की सेवा में हैं, इ थरिया स्वीकार करिये। इतना सारा जो व्यंजन है उ हम आपही के लिए बना के लाये हैं।’ और तब महादेव को भी हंसी आ गयी थी। लेकिन इतनी आसानी से मानें तो मानें कैसे। तो महादेव ने शर्त रखी कि अपने हाथ से खिलाना होगा और इस शर्त पर विद्योत्तमा तैयार हो गई। उसकी यह शर्त थी कि उसे शरम आती है इसलिए महादेव अपनी आंखें बंद कर लें। महादेव ने अपनी आंखें बंद कर लीं। और फिर गोभी, प्याज और बथुआ के पकौड़े विद्योत्तमा ने अपने हाथ से उन्हें खिलाये।

और उस दिन से फुच्चु बाबू का यह नया नाम फुच्चु पत्नी विद्योत्तमा से तय हुआ। विद्योत्तमा शुरू में तो चिढ़ाने के लिए फुच्चु बोलने लगी। लेकिन अपने बंद कमरे में। धीरे धीरे विद्योत्तमा ने देखा यही नाम उनके लिए प्रचलित हो गया। इतने वर्ष हो गए, अब तो विद्योत्तमा जिंदा भी नहीं है। जब जिंदा थी तब भी उसके लिए यह सवाल ही रह गया था कि आख़िर जो नाम सिर्फ वह अपने बंद कमरे में लेती थी वह नाम धीरे धीरे उस कमरे से निकल कर इतना लोकप्रिय आख़िर हुआ कैसे कि आज फुच्चु मा‘साब का असली नाम सिर्फ सरकारी रजिस्टर में ही है। यह रहस्य विद्योत्तमा को आख़िर तक मथता रहा था।

फुच्चु मा‘साब के स्कूल में सातवीं तक के बच्चे पढ़ते थे। स्कूल में तीन कमरे थे, एक प्रांगण था, एक चापाकल था और कुछ पेड़ थे। स्कूल में खल्ली भी थी। तीन कमरों में से दो में ब्लैकबोर्ड भी थे। दो कमरों में सिर्फ छठी और सातवीं तक की कक्षाएं चलती थीं। नीचे की पांच कक्षाएं बरामदे में चलती थी। या फिर ठंड के मौसम में उस प्रांगण में। फुच्चु मा‘साब ने पूरी जिन्दगी यहां नौकरी की और ये तीन कमरे, तीन कमरे ही रह गए। अंत के पांच वर्षों तक वे यहां प्रधानाध्यापक भी रहे परन्तु तमाम कोशिशों के बावजूद ये तीन कमरे, तीन कमरे ही रहे। हां बच्चियों के लिए शौचालय बनवाने में अवश्य सफलता हासिल की। गांव वाले इस शौचालय को फुच्चु मा‘साब का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं।

‘उ पेशाब घरे कौनो सरकार बनवाया है जो कहते हैं बनवाये। अरे उ मा’साब तो खुदे अपने पैसे से बनवाये हैं। सरकार कुछे करे लगा तब तो इ देशे चमक जायेगा।’






सात
लिफ्ट से बाहर निकल कर दायीं तरफ बढ़ने पर तीन फ्लैट एक साथ थे, दो आजू-बाजू और एक बीच में। बायीं तरफ के फ्लैट की तरफ अनुराग मुड़ा तो फुच्चु मा‘साब ने उस फ्लैट को गौर से देखा। बेल बजाकर जितनी देर इंतज़ार होता रहा फुच्चु मा‘साब उस दीवार के सहारे टिके रहे। दरवाजे पर एक नेमप्लेट लगी थी। फुच्चु मा‘साब ने उस नेमप्लेट की तरफ देखा। उस पर क्रम से अनुराग, शेफाली, अद्वैत, अविका लिखा था। उन्होंने अपनी उंगलियों से उन नामों को छुआ। पता नहीं क्यों लेकिन इस नेमप्लेट को देखकर अचानक उन्होंने अपने मन में अपने नाम को याद किया और उस समय अचानक उन्हें ऐसा लगा जैसे वे अपना नाम भूल गए हैं। उन्होंने अपने दिमाग पर ज़ोर डाला लेकिन उन्हें अपना नाम याद नहीं आया। तभी दरवाजा खुल गया।

दरवाजा खुला तो अनुराग कंधे का सहारा देकर पिता को अंदर ले गया। अनुराग उन्हें सीधे भीतर वाले कमरे में ले आया और बिस्तर पर लिटा दिया। लेटते हुए एक ज़ोर की आह निकली तो दोनों बच्चे सिहर गए। शेफाली ने सहारा देना चाहा लेकिन तब तक टुनटुन सामान कमरे में रखकर सहारा देने आ गया था। उनके लेटने के बाद शेफाली, अद्वैत, अविका ने पैर छुए। लेकिन फुच्चु मा‘साब आंख बंद किए हुए थे इसलिए उन्हें कुछ पता नहीं चला। जब शेफाली चाय लेकर आयी फुच्चु मा‘साब आंख मुंदे लेटे ही रहे। दोनों बच्चे वहीं सामने कुर्सी पर बैठे थे और शांत थे। अनुराग ने पिता को जगाया। फुच्चु मा‘साब जग गए। अनुराग ने उन्हें पीठ के सहारे से उठाया और पीछे एक मोटा तकिया लगा दिया। सामने ट्रे में चाय और बिस्कुट और कुछ नमकीन रखी थी। परन्तु फुच्चु मा‘साब ने चाय के अतिरिक्त किसी भी चीज़ में कोई रुचि नहीं दिखलाई। बहुत ही मुश्किल से हाथ से चाय का कप उठाया और बहुत ही मुश्किल से उसे होंठ तक ले गए।

अनुराग को पिता के वे दिन याद आ गए जब वह गांव जाता है और पिता वहां अभी भी हवा की तरह यहां से वहां साइकिल से दौड़ते रहते हैं। उसे गांव में घूम-घूम कर सबकी समस्याओं का निवारण करने वाले पिता याद आ गए। मंदिर पर बैठे पिता, सुबह शाम दरवाजे पर बैठ होम्योपैथ की दवाओं के बीच दिमाग खपाते पिता, अपने तालाब में दूर दूर से आने वाली पक्षियों से बतियाते हुए पिता और अपनी गायों के आवाज़ लगाने पर दौड़ कर उससे गले लग जाने वाले पिता। लेकिन आज पिता एकदम से निःसहाय यहां लेटे हैं।

चाय की दो घूंट अंदर गयी तो फुच्चु मा‘साब को थोड़ा सा होश आया।

शेफाली ने बिस्कुट वाली प्लेट ऊपर उठाकर उनकी तरफ बढायी और जिद की तब उन्होंने उसमें से एक बिस्कुट उठा लिया।

‘खाना तो पड़ेगा ही ना।’ शेफाली ने कहा

‘नहीं................’ उन्होंने ‘नहीं’ को थोड़ा लम्बा खींचा जिसमें बेहद दर्द था।

फिर उन्होंने बच्चों की तरफ इशारा किया कि उनके बैग को उनकी तरफ खींच कर ला दे। टुनटुन जो वहीं स्टूल पर बैठा था उसने झट से उठकर बैग को उठाकर उनके बिस्तर पर रख दिया। फुच्चु मा‘साब ने बैग से पॉलीथीन में बंधी हुई कच्ची हल्दी निकाली जो उनके बगीचे की थी और पंद्रह-बीस नींबू।

‘हड़बड़ी में कुछ ला नहीं पाए।’ उनके चेहरे पर दुख था।

‘जगनमा की बेटी को देखने लड़के वाले आने वाले थे। रहना जरूरी था। अब इ तबियते खराब हो गया। जल्दी ही जाना है।’

शेफाली एकबारगी जगन को पहचान नहीं पायी परन्तु उसने पूछा भी नहीं।

‘केला का खानी ला नहीं पाए। पकने पर तो आ गया था। थोड़े दिनों बाद आते पका ही ले आते।’ अनुराग चुप बैठा था।

‘अरे तो कोई बीमारी समय देखकर आती है।’ शेफाली ने कहा।

‘अभी कब तक तबियत ठीक होगी पता भी है?’ इस बार अनुराग ने सवाल की तरह कहा।

‘ढ़ेर टाभ भी आया है। अब उ भी पिरया गया था।’ फुच्चू मा‘साब ने अनुराग की बात को अनसुना कर दिया।

‘होम्योपैथ से दवा तो चला ही रहे थे थोडे़ दिनों में कंट्रोल हो ही जाता। जबरदस्ती इ बड़ा शहर का जिद है।’ इस जवाब से यह तो लग गया कि फुच्चु मा‘साब ने अनुराग के सवाल को सुना था और यह उसी का जबाव था।

‘दादू बेर तो ले आते।’ अविका ने दादू के पास जाकर कहा।

‘अभी पका नहीं होगा बाबू।’ शेफाली ने कहा

‘कुछ भी पका ही नहीं था क्या?’

‘जल्दी में कुछ नहीं ला पाए।’ फुच्चु मा‘साब को बहुत दुख हुआ।

‘तुम्हारे पापा तो आम के समय में ही लायेंगे तुम लोगों को। अबकी तो उस समय भी नहीं आए।’ फुच्चु मा‘साब ने ऐसा कहा तो सही लेकिन उनके मन में यह अफसोस रह गया कि बच्चों के लिए कुछ तो ले आते। लेकिन इतना होश कहां था।

अनुराग के घर जाने का यही दो समय था - एक जून में गर्मियों की छुट्टी में और दूसरा दिसम्बर में। लेकिन पिछले साल एक बार भी जा नहीं पाया। दिसम्बर में अनुराग को छुट्टी नहीं मिली। और दिसम्बर में अद्वैत के स्कूल ने स्वीमिंग क्लास रख दी। और वह भी इस हिदायत के साथ कि अगर वह स्वीमिंग की एक्स्ट्रा क्लास नहीं करेगा तो फिर पीछे ही रह जायेगा। अद्वैत इससे पहले जिस स्कूल में था वहां स्वीमिंग नहीं थी इसलिए वह सीख नहीं पाया। यहां आया तो वह तीसरी क्लास में था और तब तक सारे बच्चे स्वीमिंग सीख चुके थे। इसलिए एक्स्ट्रा क्लास की ज़रूरत पड़ गयी।

आठ
यह सोसायटी ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों से घिरी हुई है। मेन गेट से घुसते ही अर्धचन्द्राकार रूप में मकानों की पूरी पंक्ति है। बीच में एक छोटा सा पार्क है जिसमें कुछ अशोक के और कुछ खजूर के पेड़ लगे हैं। बहुत ही गद्देदार घास बिछी हुई है। कुछ बेंचें वहां किनारे से रखी हैं। पार्क में दो डस्टबिन रखे हैं जो बहुत ही सलीके से रखे हैं। इसी मेन गेट से घुसते ही दायें जाने पर एक बड़ा सा कमरा है जो जिम है। इस अर्धचन्द्राकार घर के पीछे ठीक इसी तरह अर्धचन्द्राकार आकार की मकानों की एक और पंक्ति है। इस अर्धचन्द्राकार मकानों के बीच वाले दोनों टॉवरों के बीच में एक स्वीमिंग पूल है। इस स्वीमिंग पूल के किनारे किनारे भी इधर-उधर खजूर के पेड़ लगे हुए हैं।

बिल्डिंग के नीचे गाड़ियों को पार्क करने की जगह है। लेकिन पूरी सोसायटी में चारों तरफ गाड़ियां लगी रहती हैं। या तो गाड़ियां उस पार्किंग से अधिक हैं या फिर लोग नीचे तहखाने में जाकर गाड़ियों को पार्क करने की जहमत कम ही उठाते हैं।

मेन गेट के ठीक दूसरी तरफ एक मार्केटिंग कॉम्प्लैक्स है जिसमें सामने शीशे की चमकदार दीवार है। इस सोसाइटी और उस मार्केटिंग कॉम्प्लैक्स के बीच बहुत ही व्यस्त सड़क है। इस कॉम्प्लैक्स में सिनेमा घर है। बाहर पानी के फव्वारे हैं। सिनेमा घर में गद्देदार कुर्सियां हैं और पॉपकॉर्न हैं। सोसायटी में जो पार्क है वहां से ये फव्वारे दिखते हैं। इस सड़क की व्यस्तता भी दिखती है।

इस घर को खरीदे हुए अनुराग को अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। लगभग डेढ़ साल। फुच्चु मा‘साब यह तीसरी बार दिल्ली आए हैं। अनुराग को इस शहर में रहते हुए लगभग दस वर्ष हो गए। पहले अनुराग कई शहरों में पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में घूमता रहा था। अब पिछले दस वर्षों से यहीं है। जब अनुराग यहां स्थिर होने लगा था तब उसकी जिद पर ही फुच्चु मा‘साब कुछ ही अंतराल में दो बार आए परन्तु उन्होंने यहां आने से साफ मना कर दिया। वे अक्सर कहते थे कि यह शहर डराता है।

अनुराग अपने गांव जाता है। जब भी जाता है सपरिवार जाता है। और जब भी जाता अनुराग और शेफाली दोनों उन्हें यहां आने के लिए दबाव डालते रहते लेकिन फुच्चु मा‘साब बिल्कुल रुचि नहीं दिखलाते थे। यह नया घर लिया तब अनुराग और शेफाली दोनों ने कहा एक बार कम से कम घर तो देख आइये। लेकिन फुच्चु मा‘साब कहते ‘अरे तुम लोगों और बच्चों के चेहरे पर हंसी देख लेते हैं वही तो असली घर और द्वार है।’

लेकिन अब आए तो इस हालत में।

नौ
फुच्चु मा‘साब जब तक नौकरी में रहे उनकी पत्नी विद्योत्तमा उनकी फुरसत का इंतज़ार ही करती रही। फुच्चु मा‘साब की नौकरी के अतिरिक्त भी कई व्यस्तताएं थीं।

नौकरी में कभी नागा उन्होंने किया नहीं। हमेशा समय पर जाना और बच्चों को बहुत ही मन से पढ़ाना उनकी आदत में शुमार था। उनकी सुबह होम्योपैथ दवा के साथ गुजरती। लकड़ी का एक छोटा सा बक्सा और उसमें छोटे छोटे कई खाने। उन खानों में कई छोटी छोटी शीशियां। कलकत्ता से वे दवाइयां मंगवाते। दो मोटी-मोटी किताबें हमेशा उनकी टेबल पर होतीं। वे उन किताबों को पढ़ते और गांव के लोगों का मुफ्त इलाज करते। गांव के लोग दांत में दर्द, सिर दर्द, बुखार, जुकाम-खांसी से लेकर ना जानें कितनी समस्याओं को लेकर आते। फुच्चु मा‘साब स्कूल के लिए निकलने से पहले तक इलाज करते रहते।

 यह गांव फुच्चु मा‘साब को बहुत प्यार करता है। बहुत इज्जत है उनके मन में इनके लिए। इसलिए फुच्चु मा‘साब के बिना गांव वाले कोई ठोस निर्णय कहां ले पाते हैं। शाम को जब वे स्कूल से लौटते तो हर दिन सोचकर लौटते कि आज की शाम वे घर में रहेंगे परन्तु होता ऐसा कभी नहीं। रोज़ किसी न किसी का झगड़ा सुलझाने तो किसी के घर समझौता करवाने, कहीं लड़के वालों के स्वागत करने तो कहीं पूजा-पाठ, कीर्तन आदि में उन्हें जाना ही पड़ता। फुच्चु मा‘साब रोज़ रात को घर लौटते तो पत्नी के डर से सहमे रहते। विद्योत्तमा रोज़ नकली डांट लगाती ‘आप नहीं होंगे त इ गांव थोड़े ही न चलेगा।’ लेकिन विद्योत्तमा जानती थी कि इस आदमी को लोगों से प्यार करने से रोका नहीं जा सकता है। फुच्चु मा‘साब अपने मन में ता-उम्र अपने आप को समझाते रहे कि एक बार नौकरी से अवकाश प्राप्त कर लें तो बहुत सारा समय पत्नी विद्योत्तमा के लिए अवश्य है।

परन्तु किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इधर फुच्चु मा‘साब रिटायर हुए और उधर विद्योत्तमा बीमार रहने लगी और फिर ज्यादा दिन बीमार भी कहां रह पायी।

विद्योत्तमा के गुजर जाने के बाद फुच्चु मा‘साब अकेले पड़ गए। और फिर जो समय अवकाश के बाद उन्होंने अपनी पत्नी के लिए बचाए रखा था उसे भी उन्होंने इस गांव-समाज और प्रकृति के नाम कर दिया।

 अवकाश के बाद, जो होम्योपैथ से इलाज करने का काम वे सिर्फ सुबह को किया करते थे उन्होंने अब इसके लिए शाम के भी दो घंटे नियत कर दिए। बांध के इस तरफ अपनी ज़मीन पर गांव वालों से चंदा इकट्ठा कर एक मंदिर बनवाया। इस मंदिर का अहाता बहुत बड़ा था जिसमें आम, लीची और कटहल के पेड़ लगे हुए थे। बांध के उस तरफ की ज़मीन पर उन्होंने अपने आप को व्यस्त रखने के लिए प्रकृति की गोद में एक छोटा सा घर बनवाया।

 नदी अब बांध से बहुत दूर जा चुकी थी इसलिए अब ज़मीन निकल आयी थी। इन जमीनों पर लोग खेती करते थे। और खेतों में झोपड़ी डाल कर रहते थे। परन्तु फुच्चु मा‘साब ने बांध के उस तरफ इस घर को तैयार किया था। यह घर कोई घर नहीं, प्रकृति की गोद में अपने आप को दुलराने की जगह थी। इसमें खपरैल का एक कमरा और एक बरामदा था। इस बरामदे में दो चौकी रखी हुई थी। इस आशियाने में इस कमरे और बरामदे के बाद एक बहुत बड़ी ज़मीन थी जो चारों तरफ से बांस के घेरे से घिरी हुई थी। इसी अहाते में एक बड़ा सा पोखर बनाया गया था। पोखर के अलावा इसमें एक बहुत बड़ा बगीचा था। बगीचे में आम, कटहल, अमरूद, केले, बेर, टाभ और नींबू के पेड़ थे। बगीचे में छोटी सी खेती भी थी जिसमें ककड़ी और खीरा लगा हुआ था। यहां गायें भी थीं।

लेकिन इस जगह की जो सबसे खूबसूरत चीज़ थी वह थी यह पोखर। जिसमें यूं तो मछलियां थीं लेकिन इसकी खूबसूरती वे चिड़िया थीं जो झुंड बना कर यहां आया करती थीं। फुच्चु मा‘साब इस पोखर के चारों तरफ गोलाई में अन्न के दाने रखते थे चिडियों को खाने के लिए। चिड़ियां आती थीं और इस अन्न को खाती थीं और इस पोखर में पानी पीती थीं। यहां आने वाली चिड़ियों के लिए यह घर जैसा था। वे दिन भर यहां वहां आसमान में दौड़ती रहती थीं और जब मन होता यहां आ जातीं। दाना खाने, पानी पीने या फिर सुस्ताने। इन चिडियों की यहां की हर चीज़ से दोस्ती थी। कभी वे पेड़ पर बैठतीं, कभी गाय की पीठ पर। वे उस पोखर से पानी पीतीं तो कभी उसी पोखर में डुबकी भी लगातीं। कभी वह फुच्चु मा‘साब से बाते करतीं। तो कभी वह मछलियों से बतियातीं। मछलियों से उनकी दोस्ती थी। वे पोखर में मछलियों के साथ अठखेलियां करतीं।

जब इस घर को फुच्चु मा‘साब ने बनाया था तब सोचा था कि विद्योत्तमा रही नहीं, और सारे बच्चे बाहर हैं। बेटियां शादी करके चली गयीं और अपना घर संभाल रही हैं और बेटा महानगर में रह रहा है। तो उन्होंने सोचा था कि प्रकृति के बीच समय अच्छा कट जायेगा। पहले उन्होंने सोचा था कि वे यहां सिर्फ बगीचा और तालाब रखेंगे और सुबह-शाम सिर्फ देखने आया करेंगे। शुरू में हुआ भी ऐसा ही परन्तु धीरे धीरे यहां इतना दिल लग गया कि वे रात भी यहीं रुकने लगे। अब यहीं से होम्योपैथ की डॉक्टरी भी करते। लोगों को भी फुच्चु मा‘साब को ढूंढना होता तो वे भी यहीं आते।

फुच्चु मा‘साब सुबह सूरज की कच्ची धूप को अपने शरीर पर लेते। सूर्य नमस्कार से दिन की शुरुआत होती। गाय से बतियाते, उन्हें खाना खिलाते। अपने पेड़-पौधों को देखते, उन्हें पानी देते। मछलियों को खाना देते। पोखर की सफाई करते। मछलियों से बतियाते। चिड़ियों से घंटों बतियाते। लोग दवाई लेने आते तो बहुत ध्यान से उनके रोग को समझने की कोशिश करते। दिन में जो कभी भी अपने काम के लिए उन्हें ढूंढने आ जाते वे उनके लिए हर वक्त तैयार रहते। शाम को रोज़ मंदिर जाते। वहां की सुविधाओं का ध्यान रखते। और इन सभी कामों में बतहुआ साये की तरह उनके साथ रहता।

रात में जब सारी चिड़ियां चली जातीं और बतहुआ सो रहा होता तब फुच्चु मा‘साब उस तालाब के किनारे लेट कर अपने हाथ को उस पोखर में डाल कर मछलियों को कहानियां सुनाते और फिर धीरे धीरे जब सारी मछलियां सो जातीं तब वे भी अपने बिस्तर पर जाकर सो जाते।






दस
अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए फुच्चु मा‘साब छत में लगी लाइट को देख रहे थे। कमरे की छत के चारों कोनों में छत से चिपकी हुई लाइट लगी हुई थी जिसमे से बहुत ही ठंडी रोशनी आ रही थी। उसी छत में ठंडी हवा निकलने की भी जगह थी।

यह डॉक्टर का कमरा था। कमरे में एक ख़ास तरह की खुशबू थी। कमरे का साइज बहुत छोटा नहीं थी। डॉक्टर की कुर्सी जहां थी ठीक उसके पीछे की दीवार में पूरा शीशा लगा हुआ था जिस पर करीने से पर्दा टंगा हुआ था। पर्दे की फांक में से बाहर का नजारा दिख रहा था। शीशे के बाहर बगीचा था जिसमें ढ़ेर सारे फूल थे। शीशे के इस तरफ कमरे में भी कुछ गमले रखे हुए थे जिसके पत्ते एकदम हरे थे। जिस कुर्सी पर डॉक्टर बासु बैठे थे वह बहुत ऊंची नहीं थी। अनुराग कुर्सी पर सामने बैठा था और फुच्चु मा‘साब को अपने बिस्तर पर से यह सब कुछ दिख रहा था। फुच्चु मा‘साब इस कमरे तक व्हील चेयर पर लाये गए थे और डॉक्टर बासु ने उन्हें इस बिस्तर पर लेटने के लिए कहा था।

फुच्चु मा‘साब जब बिस्तर पर लेटने गए थे तब अनुराग और अस्पताल के एक कर्मचारी ने उनकी मदद की थी। उस बिस्तर पर कागज की चादर बिछी हुई थी जिसे पहले उस कर्मचारी ने रोल में से खींचकर नया कर दिया था। फुच्चु मा‘साब ने महसूस किया कि बिस्तर नर्म है। डॉ बासु ने सबसे पहले उठकर उनके पेट के निचले हिस्से को टटोला। फिर पेट के अन्य हिस्सों को।

‘होम्योपैथ से ठीक नहीं होगा क्या?’ फुच्चु मा‘साब ने धीरे से डॉ बासु से कहा ताकि अनुराग ना सुन ले।

डॉ बासु ने फुच्चु मा‘साब की तरफ देखा और मुस्करा भर दिया। और फिर वहीं दीवार पर लगे सेनेटाइजर से हाथ को साफ किया। फुच्चु मा‘साब ने दीवार से चिपकी हुई सेनेटाइजर की बोतल को देखा पर वे उसे समझ नहीं पाये। डॉ बासु फिर अपनी सीट पर बैठ गए और अपने कम्प्यूटर पर कुछ पढ़ने लगे।

डॉक्टर मकरन्द बासु के इस कमरे तक आने से पहले मा‘साब का बीपी, हर्ट बीट, वजन सब चेक किया गया था। फिर एक जुनियर डॉक्टर के पास ले जाया गया था। जुनियर डॉक्टर ने उनसे ढ़ेर सारे सवाल किये थे और फिर उसे अपने कम्प्यूटर में वह भरता चला गया था। ढ़ेर सारे सवाल, युरीन में कब से प्रॉब्लम है, पेट फूला हुआ कब से लग रहा है आदि आदि।

फुच्चु मा‘साब इतना तो नहीं समझ पाए कि डॉ0 कहना क्या चाहता है क्योंकि जब अनुराग साथ में है तो वे निश्चिंत हैं। हां डॉक्टर बासु के कमरे में घुसने से पहले उन्होंने ज़रूर पढ़ा था डॉक्टर मकरंद बासु यूरो ऑन्को। परन्तु वे समझे नहीं। समझते तो शायद डर जाते।

डॉ0 बासु ने उस कम्प्यूटर पर जुनियर डॉ0 द्वारा भरी गई सारी जानकारियों को पढ़ा और फिर अनुराग के सामने मुखातिब हुए। अनुराग अपने पिता की तबियत को देखकर इतना तो समझ रहा था कि कोई आसान सी स्थिति नहीं है, परन्तु डॉ बासु के चेहरे ने थोड़ा और डराया।

‘सोत्तर-पोचहत्तर के बाद का जीवन बहुत खराब हो जाता है।’ डॉ बासु के बंगाली एक्सेंट के साथ कहा गया यह वाक्य बहुत डरावना था।

‘अभी तो आराम आ जाएगा पर प्रोबलम के रूट में जाना पऽड़ेगा। अभी कितना डैमेज हुआ है उसे समझना पड़ेगा।’

‘दीज टेस्ट्स आर नेसेसरी, ऑल रिपोटर्स मस्ट बी ऑन माय टेबल बाय टुमारो।’

फुच्चु मा‘साब चलने को हुए तो उन्होंने अनुराग को अपने पास बुलाकर सेनेटायजर को दिखा कर धीरे से पूछा कि क्या यह साबुन है? अनुराग यह कहते हुए कि आइये बताते हैं, उन्हें बाहर ले आया।

यह अस्पताल और टेस्ट का पहला दिन था लेकिन यह एक अंधेरी गुफा की तरह साबित हुआ। एक बार घुसना क्या हुआ इसमें घुसते ही चले जाना पड़ा। और ज्यों ज्यों इसके अंदर घुसना हुआ अनुराग के चेहरे का तनाव बढ़ता ही चला गया।

यूरिन रुक गया तो किडनी प्रभावित हुई। कम नहीं, ठीक ठाक। किडनी प्रभावित हुई तो नेफरोलॉजी डिपार्टमेंट। वहां भर्ती होकर डायलिसिस पर रहना पड़ा।

‘नेगलिजेंस की भी हद है। तुम लोगों ने हेल्थ को मज़ाक बना रखा है।’ ये नेफरोलॉजी में डॉ0 गुलेरिया थे।

‘डायलिसिस क्या झेल पायेंगे इस उम्र में?’ अनुराग को डायलिसिस बहुत डरावना शब्द लग रहा था।

‘डायलिसिस पर नहीं जायेंगे तो क्या बच जायेंगे?’ डॉ गुलेरिया ने डांटते हुए भी आश्वस्त करने की कोशिश की थी।

लेकिन तब भी जब डायलिसिस पर पिता ले जाए गए तो अनुराग के हाथ-पांव फूलने लगे। फुच्चु मा‘साब स्ट्रेचर पर लेटे थे और शांत थे। हॉस्पिटल के कपड़ों में अनुराग को पिता अजीब लग रहे थे।

‘घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं यहीं हूं।’ अनुराग ने ऐसा कह कर शायद अपनी घबराहट को छिपाया।

‘काहे के लिए इतना परेशान हो रहे हो। सब होम्योपैथ से ठीक हो जाता।’ फुच्चु मा‘साब ने अनुराग की घबराहट को भांप लिया था। साथ में आज शेफाली भी थी।

‘कोई बात नहीं, यहां से निकल कर होम्योपैथ में दिखा लेंगे।’ शेफाली ने कहा।

‘यहीं बाहर ही रहना, कहीं जाना नहीं। निकालकर फिर पता नहीं कहां ले जायेंगे। कहां ढूंढेंगे तुम लोगों को। अस्पताल तो बहुते बड़ा है ना।’ फुच्चु मा‘साब की असली चिंता तब भी शायद यह थी।

अनुराग अचानक से बीमारी की घबराहट से बाहर निकला। तब तक डायलिसिस रूम में पिता लगभग ले जाए जा चुके थे। उसने ज़ोर से कहा, ‘हम यहीं गेट पर खड़े हैं।’

यह इस बीमारी का पहला पड़ाव था जहां से डायलिसिस के बाद फुच्चु मा‘साब दुरुस्त होकर लौटे। जितने दिन वे वार्ड में रहे बेचैन रहे।

वार्ड के इस कमरे में चिकत्सीय सारी सुविधाओं से लैस वह बेड था जिसपर फुच्चु मा‘साब लेटे थे। इस कमरे में एक और छोटा सा बिस्तर था जिसपर अनुराग रोज़ रात को सोता था। इस बेड के ठीक पीछे पूरी दीवार में शीशा था। उस शीशे पर पर्दा था। जब थोड़ा बहुत चलन-फिरने लायक फुच्चु मा‘साब हुए तब उन्होंने इस पर्दे को हटा कर देखा तो उन्हें अच्छा महसूस हुआ। उन्होंने आसमान को देखा तो उन्हें बहुत सुकून मिला। दो मिनट आसमान देखने के बाद जब उन्होंने अपनी निगाह नीचे की तो वे एकदम से घबरा गए।

 अस्पताल की यह चौथी या पांचवी मंजिल अवश्य थी। उस शीशे के पार नीचे गाड़ियों का अम्बार था। पार्किंग में रुकी हुई ढ़ेर सारी गाड़ियां और उसके बाद रोड पर दौड़ती हुई ढ़ेर सारी गाड़ियां। शीशा लगा हुआ था इसलिए उस सड़क पर चल रही गाड़ियों का शोर यहां तक तो नहीं आ रहा था परन्तु पर्दे के उस पार गाड़ियों के जाल को देखकर अचानक फुच्चु मा‘साब घबरा गए। उन्होंने दो मिनट तक तो उन गाड़ियों को देखा परन्तु फिर उन्हें एकबारगी लगा कि गाड़ियों का सारा शोर इस शीशे को चीरकर उनके कान में घुस रहा है। उन्होंने अचानक से अपने दोनों हाथों से दोनों कानों को बंद कर लिया और जल्दबाजी में पर्दा खींच दिया। फिर वे डरकर बिस्तर पर सिकुड़कर लेट गए। दोनों पैरों को अपने पेट में घुसा कर।

उनके मुंह से अनायास ही निकला ‘सारी गाड़ियां क्या समुंदर में डूबने जा रही हैं।’

अनुराग कहीं बाहर था। जब आया तब उसने पर्दे को हटाना चाहा लेकिन फुच्चु मा‘साब ने इशारे से उसे ऐसा करने से मना कर दिया।

ग्यारह
अस्पताल से छुट्टी पाकर जब फुच्चु मा‘साब घर लौटे तो शेफाली ने ख़ास उनके लिए सेवई की खीर बना रखी थी। सेवई की खीर उन्हें बहुत पसंद थी। फुच्चु मा‘साब को घर पहुंचते ही बहुत सुकून मिला। दोनों बच्चों को गले लगाया तब गजब की संतुष्टि उनके चेहरे पर तारी हो गयी।

फुच्चु मा‘साब जिस कमरे में हैं उस कमरे में एक सिंगल बेड है, एक अल्मीरा है। अल्मीरा में किताबें रखी हुई हैं। ज्यादातर किताबंे मार्केटिंग और बिजनेस वर्ल्ड की हैं। एक-दो किताबें कहानियों की हैं जो कभी शेफाली ने खरीदी थीं। बच्चों की किताबों का भी एक रैक है। एक आराम कुर्सी है। अर्धचन्द्राकार इस अपार्टमेंट के बीच का यह फ्लैट है इसलिए इसके ठीक पीछे भी इसी तरह के अर्धचन्द्राकार फ्लैट्स हैं। दोनों रो के बीच में स्वीमिंग पूल है जो बाल्कनी से दिखता है। इस कमरे से जुड़ी हुई एक बाल्कनी है जिसके लिए कमरे से निकलकर दाएं मुड़ना पड़ता है। कमरे में एक बड़ी सी खिड़की है जिसमें शीशा लगा हुआ है। यह खिड़की कमरे की आधी दीवार से भी बड़ी है। इसी दीवार से सटा हुआ फुच्चु मा‘साब का बिस्तर लगा हुआ है। रौशनी से बचने के लिए शीशे की इस खिड़की को पर्दे से ढंका गया है। खिड़की पर काफी मोटा पर्दा है जिसे खींचते ही पूरे कमरे में अंधेरा फैल जाता है। परन्तु फुच्चु मा‘साब को अंधेरा पसंद नहीं है इसलिए वे पर्दे को हमेशा हटा कर ही रखते हैं।

फुच्चु मा‘साब जब बिस्तर पर लेटते हैं तब उन्हें वहीं से लेटे लेटे पीछे वाले घर की एक बाल्कनी दिखती है। जब वे बाल्कनी में आते हैं तब नीचे देखने पर उन्हें बहुत डर लगता है। नीचे स्वीमिंग पूल में नहाते हुए लोग बहुत छोटे छोटे दिखते हैं। और यहां से सामने वाले खजूर के पेड़ की फुनगियां दिखती हैं।

डायलिसिस के बाद फुच्चु मा‘साब जब घर लौटे तब उन्हें लगा जैसे समस्या टल गई। लेकिन वास्तव में यह पहला पड़ाव था। यहां से टेस्ट करवाने की अनवरत प्रकिया शुरू हुई। शुरुआत के पंद्रह दिन तो थके हुए शरीर को डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी। फिर टेस्ट की प्रक्रिया। शुरू में फुच्चु मा‘साब को लगा कि अब सब मामला लगभग ठीक है तब उन्होंने दो-तीन दिनों में ही अनुराग को कहना शुरू किया कि अब जाने दो। अनुराग मुस्कराया और अपने पिता को देखकर कहा ‘अभी तो वक्त लगेगा।’

पंद्रह दिनों के बाद टेस्ट की प्रक्रिया शुरू हुई। हर एक-दो दिन पर टेस्ट के लिए जाना पड़ता, रिपोर्ट लेने जाना पड़ता, डॉक्टर के यहां जाना पड़ता और फिर नए टेस्ट की तरफ।

अनुराग और शेफाली सुबह साढ़े पांच में जगते। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करते, उनके लिए नाश्ता बनता। उन्हें स्कूल बस में चढ़ा कर आते और ख़ुद तैयार होना शुरू कर देते। खाना बनाने वाली सहायिका आती और नाश्ता और खाना बनता रहता। आठ बजे तक अनुराग और शेफाली दोनों अपने-अपने ऑफिस के लिए निकल पड़ते। उनके जाने के बाद खाना बनाने वाली सहायिका भी चली जाती और फिर फुच्चु मा‘साब के हिस्से आती एक लम्बी ख़ामोशी। बच्चे स्कूल से सीधे क्रेच जाते। शाम को पांच बजे शेफाली बच्चों को क्रेच से लेकर घर आती। कभी अनुराग भी शाम को बच्चों को क्रेच से लेकर घर पहुंचता। लेकिन ज्यादातर शेफाली ही ऑफिस से जल्दी घर आती।

अनुराग और शेफाली दोनों को यह महसूस होता कि दिन भर फुच्चु मा‘साब अकेले रहते हैं। इसलिए दोनों कोशिश करते कि जितना समय मिल पाये उसे वे उनके साथ अवश्य गुजारें। लेकिन यह दोनों की ही मजबूरी थी कि उनके पास समय काफी कम था। दोनों अपनी-अपनी नौकरी में व्यस्त थे। फिर दोनों बच्चों को देखना, उनका होमवर्क, उनकी एक्टीविटी आदि आदि। शेफाली घर आती और सबसे पहले फुच्चु मा‘साब के पास बैठती। उसे अहसास होता कि दिन भर का अकेलापन कितना अजीब है। शेफाली कई बार कोशिश करती कि आने के बाद उन्हें कम से कम नीचे पार्क में अवश्य ले चले। लेकिन उसके लिए भी उसके पास बहुत वक्त नहीं होता। शाम को कभी अविका की कथक क्लास तो कभी अद्वैत की पियानो क्लास। और फिर किसी तरह समय निकालकर उनका होमवर्क। दोनों बच्चे टीवी देखने की जिद करते। मुश्किल से आधा-एक घंटा टॉम एंड जैरी, छोटा भीम, सुपर भीम चलता। जब कभी अनुराग थोड़ा पहले आ जाता तब फुच्चु मा‘साब को नीचे पार्क में अवश्य ले जाता।

अनुराग और शेफाली दोनों यह शिद्दत से चाहते थे कि फुच्चु मा‘साब का अकेलापन कुछ कम हो। अनुराग ने कई बार कोशिश की कि पिता को वह टीवी चलाना सिखा दे। एक-दो बार टीवी के उलझाव को समझाने की कोशिश भी की लेकिन फुच्चु मा‘साब ने हारकर रिमोट रख दिया। पहले तो अनुराग ने इस अतिआधुनिक टेलीविजन के कई फीचर समझाने की कोशिश की लेकिन बाद मे उसे लगा कि सामान्य रूप से टीवी चला लें इतना ही बहुत है। फिर कुछ टीवी चैनल्स को उसने रिमोट के फेवरेट वाले बटन में सेट कर दिया ताकि बस एक दो बटन से ही काम चल जाए।

यह घर अतिआधुनिक साज-सज्जा वाला घर था जिसकी चमक, जिसकी रौशनी, सब बहुत ही उन्नत किस्म की थी। शेफाली को घर सजाने का बहुत शौक था। कलात्मक चीजों से उसने अपने घर को करीने से सजा रखा था। इस बड़े से शहर में कलात्मक चीजें कहां-कहां मिलती हैं शेफाली को सब पता था। और उसे जब भी छुट्टी होती वह इन जगहों पर जाने की जिद करती। अनुराग को घर साफ रखना पसंद था लेकिन इतना नहीं कि वह अपनी छुट्टियों को इन पर कुर्बान कर दे। पूरा परिवार कहीं घूमने जाते और कहीं कोई कलात्मक चीज़ दिख जाए तो अनुराग तो अनुराग, बच्चे तक अपनी मम्मी से मजे लेते, ‘अब मम्मी को घूमने का मज़ा आया।’

फुच्चु मा‘साब घर आए तो घर इन कलात्मक चीजों से सजा हुआ था। जब यह लग गया कि अब लम्बे समय तक उन्हें यहां रुकना पड़ेगा तब शेफाली ने धीरे-धीरे इन कलात्मक चीजों को कम करना शुरू किया। शेफाली चाहती थी कि किसी तरह उन्हें यह घर बहुत आरामदेह लग सके। वह जानती थी कि यह सारी कलात्मकता इस घर को एक ख़ास तरह की उत्कृष्टता दे रही थी जिसके बीच फुच्चु मा‘साब का सहज होना आसान नहीं था। लेकिन इस शहर की आबोहवा में ही सचमुच में ऐसा कुछ था कि फुच्चु मा‘साब के लिए सहज होना आसान नहीं था।

डायलिसिस के बाद फुच्चु मा‘साब जब लौटे थे तब उन्होंने सोचा था कि बस अब दो-चार दिन में छुट्टी मिल जायेगी लेकिन जब उन्हें यह लग गया कि यह लम्बी चलने वाली प्रक्रिया है तब वे मन मसोस कर बैठ गए। शुरू के कुछ दिनों तक गांव से अनुराग के फोन पर कई फोन आए कि उनका स्वास्थ्य कैसा है, कब तक लौट आयेंगे आदि आदि। शुरू में फुच्चु मा‘साब ने भी कई बार अनुराग से फोन लगवाकर पता करवाया कि रमायण की बेटी को जो लड़का देखने आया था उसका क्या हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि तिलक की तारीख तक वे लौट आयेंगे। रामाश्रय के ज़मीन का विवाद वे सुलझा कर आये थे। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि तिलक ने फिर से कोई बखेड़ा खड़ा तो नहीं किया। उन्होंने मंदिर का हाल जानना चाहा। मंदिर के पुजारी ने कहा कि चापाकल का वाशर खराब हो गया है। मंदिर के आंगन में घास बहुत बडी़ हो गई है, उसे कटवाना जरूरी है। फुच्चु मा‘साब ने अभी सबकुछ पुजारी को देखने के लिए कहा। साथ में यह भी कि मैं जल्द ही लौट आउंगा। दुबारा बात हुई तब भी कहा कि जल्दी ही लौट आउंगा लेकिन साथ में इस बार यह भी कहा कि ज्यादा लेट हुआ तो रामनिवास बाबू को कहना देख लेने के लिए।

फुच्चु बाबू ने कई बार बतहुआ को अनुराग से फोन करवाया। बतहुआ से अपने बगीचे के बारे में पूछा। गायों के बारे में पूछा। चिड़ियों के बारे में पूछा। मछलियों के बारे में पूछा। बतहुआ ने सबका जवाब दिया और फुच्चु बाबू फोन के इस पार सारे जवाबों को समझते रहे। उन्होंने बतहुआ को कहा कि चिड़ियों को खाना कम नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन वे यह सोचकर ही अजीब सी घबराहट में भर जाते थे कि सारी चिड़िया उन्हें ढूंढती होंगी। रात में मछलियों को उनकी याद आती होगी।

वे रात में सोते और बिस्तर पर पट लेट कर अपने बायें हाथ को ज़मीन पर लटका लेते और ज़मीन पर वे उस हाथ को ऐसे घुमाते जैसे वे मछलियों के साथ खेल रहे हों। मछलियां उनके हाथ को सहलातीं और फुच्चु मा‘साब धीरे धीरे नींद के आगोश में चले जाते।

सुबह आठ-साढ़े आठ बजे तक जब सब घर से चले जाते तब शाम के पांच-छः बजे तक फुच्चु मा‘साब उस फ्लैट में अकेले रहते थे। जिस फ्लैट में ढ़ेर सारी रौशनी थी, अत्याधुनिक तकनीक के सारे सामान थे - टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, एसी, माइक्रोवेव आदि आदि।

इस फ्लैट से बाहर भागने का सिर्फ एक रास्ता था- लिफ्ट। लिफ्ट के बगल में सीढ़ी थी लेकिन नवें मंजिल ऊंचे इस फ्लैट से नीचे उतरना उस सीढ़ी के सहारे फुच्चु मा‘साब के लिए आसान नहीं था। उस लिफ्ट में अकेले डर लगता था फुच्चु मा‘साब को। अनुराग कई बार अपने साथ ले जाकर समझाता रहा कि बहुत ही आसान है। कुछ करना ही नहीं है। अंदर जाकर दरवाजा ख़ुद ही बंद हो जाता है। और फिर नीचे का बटन दबा दें। लेकिन दरवाजा बंद होते ही अजीब सी घबराहट फुच्चु मा‘साब के शरीर में दौड़ जाती। उन्हें बार बार लगता कि अगर यह दरवाजा खुला ही नहीं तो किसे आवाज़ लगायेंगे। ऐसा सोचते ही उनके पैर में झुरझुरी दौड़ जाती थी।

‘इन दरवाजों के बीच में पिसकर मर जाएंगे।’ फुच्चु मा‘साब ने अनुराग के सामने अपना डर जाहिर किया। ‘हमरा दम घुट जाएगा।’

फुच्चु मा‘साब अकेले रहते हुए एक-दो बार ऐसी कोशिश कर चुके हैं। वे लिफ्ट के बाहर खड़े होकर हिम्मत करते रहे। कई बार उनके सामने लिफ्ट आकर रुकी लेकिन उन्हें हिम्मत नहीं हुई। दो बार ऐसा हुआ कि उसी फ्लोर से कोई जाने वाला मिला तब फुच्चु मा‘साब ने हिम्मत की। उधर से लौटने के लिए भी उन्होंने किसी और के आने का इंतज़ार किया।






बारह
जब वे नीचे गए तो उन्हें वह पार्क बहुत अच्छा लगा। उस पार्क में बिछी हुई घास बहुत नरम और गद्देदार थी। नीचे उतर कर पहले वे मेन गेट की तरफ बढ़े, मेन गेट के बाहर गाड़ियों का अंबार था। गाड़ियों में अजीब सी फुर्ती थी। उन्होंने उस मेन गेट के पास आकर बाहर झांककर देखा। और घबराहट में अपने कदम को पीछे हटा लिया। उन्हें लगा अगर उन्होंने इस मेन गेट से एक कदम भी बाहर निकाला तो गाड़ियों का यह तूफान उन्हें उड़ा कर ले जायेगा। मेन गेट के पीछे खड़ होकर उन्हें एक बार को लगा जैसे ये गाड़ियां चिड़ियों का झुंड हैं। सारी चिड़ियां जब एक बार उड़ती है तब जैसी फर्र-फर्र की आवाज़ आती है फुच्चु मा‘साब को यह आवाज़ ऐसी ही लगी। लगा जैसे गाड़ियां फर्र-फर्र कर उड़ रही हैं। फुच्चु मा‘साब ने अपने कुर्ते की जेब में हाथा डाला। उस जेब में बिस्कुट के कुछ टुकड़े थे। वे गेट तक गए और लोहे के उस आदमकद गेट को पकड़कर बिस्कुट के उन टुकड़ों को उन गाड़ियों की तरफ फेंक कर ज़ोर से कहा ‘आ आ आ।’

वहां गेट पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें ऐसा करते देखा और वे हंसे। वहां तीन सिक्योरिटी गार्ड थे। उन्होंने आपस में हंस कर कहा ‘कोई बात नहीं, यहां आकर सब ऐसे हो ही जाते हैं।’

सिक्योरिटी गार्ड की इस आवाज़ ने फुच्चु मा‘साब को इस मदहोशी से बाहर निकाला। उस मदहोशी से बाहर निकलते ही उनके कान में गाड़ियों की यह आवाज़ गयी और वे अचानक से वहां से भागकर उस पार्क की बंेच पर दुबक कर बैठ गए।

अगले दिन जब वे इसी तरह नीचे उतरे तब उन्होंने सोच लिया था कि वे मेन गेट की तरफ देखेंगे ही नहीं। वे सीधे पार्क में गए और बेंच पर बैठ गए। वहां फूल थे, पत्तियां थीं। नरम घास थी। धूप खिली हुई थी। अभी दिन में इतनी ठंड नहीं थी कि धूप बहुत अच्छी लगे। लेकिन धूप इतनी तेज भी नहीं थी कि वह बुरी लगे।

पार्क में लगभग सन्नाटा पसरा हुआ था। सिर्फ दो लड़के साथ में बैठे थे और मोबाइल में कुछ देख रहे थे। दोनों के कान में एक-एक लीड ठूंसी हुई थी। फुच्चु मा‘साब ने बेंच पर बैठकर नरम घास को देखा। फिर अपने जूते को उतार कर नरम घास को नंगे पांव से महसूस किया। उनके शरीर में अजीब सी सिहरन आ गयी। उन्होंने पीछे मुड़कर उन अपार्टमेंट की तरफ देखा और मन घबरा सा गया। उन्होंने मन में सोचा कि अब इस बिल्डिंग की ऊंचाई की तरफ वे नहीं देखेंगे। वे उठ कर खड़े हुए और उस नरम घास पर चलने लगे। थोड़ी देर उस पर चलते रहना उन्हें बहुत अच्छा लगा, लेकिन थोड़ी देर में वे थक गए। वे वापस उसी बेंच के पास आए और बेंच के पास वहीं घास पर लेट गए।

फुच्चु मा‘साब को उस नरम घास पर लेटकर बहुत सुकून मिला। उन्हें ठीक ऐसा लगा जैसे वे अपने तालाब के किनारे सो रहे हों और अपनी मछलियों को कहानियां सुना रहे हों। उस घास पर लेटते ही वे गहरी नींद में चले गए। उस नींद में मछलियां आयीं और चिड़िया भी।

सारी मछलियां पानी से निकलकर उनके शरीर पर चढ़ आयी हैं और नाराज हैं।

‘इतने दिनों तक हमारी याद नहीं आयी?’ मछलियों को शिकायत है।

‘तुम लोगों के बिना मेरा जीवन कैसा कट रहा था मैं ही जानता हूं।’ फुच्चु मा‘साब ने मछलियों को बांहों में भर लेना चाहा, लेकिन मछलियां नाराज हैं।

‘वहां ऊंची ऊंची बिल्डिंगें हैं, चमकदार सड़कें, इतनी रौशनी है तो हमारी याद भला क्यों आयेगी।’ इस बार चिड़ियों के झुंड ने अपनी नाराज़गी जाहिर की जिन्होंने चारों तरफ से फुच्चु मा‘साब को घेर रखा था।

‘अब फिर कभी गए तब हम इसी तालाब के तले में जाकर धंस जाएंगे।’ मछलियों ने कहा।

‘और हम आसमान में ऊंचा उड़कर गुम हो जायेंगे।’ चिड़ियों ने कहा।

वहां के सारे पेड़-पौधों, पत्तों और फूलों ने भी उनकी बातों का समर्थन किया।

‘ना रे अब कभी नहीं। और कभी जाना भी पड़ा तो तुम सबको साथ ले जाऊंगा।’ ऐसा कहकर फुच्चु मा‘साब उस स्वीमिंग पूल के बारे में सोचने लगे, जिसमें इतनी सफाई रहती है कि उसका तला एकदम नीला-नीला दिखता है। उन्होंने मन में सोचा इन मछलियों को उस पानी में कैसे छुपा कर रख पाउंगा। और इन चिड़ियों को वहां दाना कौन देगा।

‘झूठ’ मछलियों ने कहा।

‘झूठ’ चिड़ियों ने कहा।

‘झूठ’ पेड़ों ने कहा।

फुच्चु मा‘साब ने समझाना चाहा लेकिन अचानक सब ग़ाएब। सारी मछलियां पानी में कूद गयीं और तालाब के तले में जाकर धंस गयीं। सारी चिड़ियां आसमान में बहुत ऊंचा उड़ गयीं और ग़ाएब हो गयीं। सारे पेड़, फूल, पत्ती अपनी अपनी जगह पर ज़मीन में धंस गये।

चारों तरफ एकदम सन्नाटा। फुच्चु मा‘साब एकदम से बेचैन हो गए।

‘आ जाओ मेरे बच्चो। लौट आओ। मुझे समझो, मेरी मजबूरियों को समझो।’ फुच्चु मा‘साब ने बहुत रूआंसा होकर ऐसा कहा और उनकी दोनों आंखों के कोरों से आंसू की धार बहने लगी।

फुच्चु मा‘साब के आंसुओं ने सबको लौटने पर मजबूर कर दिया। सारी मछलियां तालाब से निकल आयीं। सारी चिड़ियां आसमान से ज़मीन पर लौट आयीं। सारे पेड़ पौधे, फूल पत्तियां ज़मीन से बाहर आ गये। फुच्चु मा‘साब ने लपककर उन्हें गले लगा लिया।

तभी लगा जैसे उन्हें कोई इस हसीन सपने से बाहर खींच रहा है।

‘ऐ साहब’

‘ऐ साहब’

‘काहे हमरा नौकरी लेने पर तुले हैं।’

फुच्चु मा‘साब ने आंख खोलीं तो एक सिक्योरिटी गार्ड उन्हें हिला कर जगा रहा था।

फुच्चु मा‘साब अपनी नींद और अपने सपने से बाहर आए। उन्होंने आंखों को मलते हुए चारों तरफ देखा। वहां तालाब नहीं था, मछलियां नहीं थीं, चिड़िया नहीं थीं, पेड़-पौधे नहीं थे।

‘घर में जाकर सोइये ना साहब। हमारी नौकरी क्यों ले रहे हैं।’ इस बार सिक्योरिटी गार्ड को ध्यान से देखा उन्होंने। यह गार्ड वही नहीं था जो कल गेट पर मिला था।

‘घास बहुत नरम है।’ फुच्चु मा‘साब ने घास को बहुत कोमलता से छूते हुए कहा।

‘घर में गद्दा भी तो नरम है साहब। हमारी नौकरी काहे ले रहे हैं।’ फिर एक मिनट तक वह फुच्चु मा‘साब की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता रहा। लेकिन वहां से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर उसने फिर कहा-

‘यहां सोना अलॉउड नहीं है साहब। सोसायटी का यह नियम है।’

‘मतलब। यहां घास पर ही तो सोये हैं।’

‘यही तो अलॉउड नहीं है साहब। सब इस घास पर सोने लगेगें तो इ सोसायटी कितना गंदा हो जाएगा।’

‘गंदा हो जाएगा मतलब?’

‘मतलब हमको क्या पता साहब। लेकिन सोसायटी का यह नियम है कि यहां कोई लेट नहीं सकता है। आप चाहें तो यहां घंटों बैठ सकते हैं।’

फुच्चु मा‘साब बेंच पकड़कर उठने लगे तो उस गार्ड ने उन्हें सहारा दिया। फुच्चु मा‘साब जाने लगे तो उस गार्ड ने कहा ‘आप वही हैं ना साहब जो कल गाड़ियों को दाना खिला रहे थे।’ ऐसा कहकर मुंह छुपा कर वह हंसने लगा। फुच्चु मा‘साब ने उसकी तरफ देखा तो गार्ड ‘ओह सॉरी सर’ कहकर पीछे हट गया।

वह आखिरी दिन था। तब से फुच्चु मा‘साब फिर अकेले उस बिल्डिंग से नीचे नहीं उतरे।

तेरह
बायोप्सी का मतलब नहीं जानते थे फुच्चु मा‘साब लेकिन जब उसकी रिपोर्ट आयी और उस रिपोर्ट में कैंसर की पुष्टि हो गयी तब घर में मातम छा गया।

‘मम्मा, दादू अब मर जायेंगे ना।’ अद्वैत ने पूछा तब शेफाली ने कहा ‘नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते। सब अच्छा हो जायेगा।’

‘दादू बहुत बीमार हैं लेकिन पापा ठीक करवा लायेंगे। हमारे पापा तो जादूगर हैं ना। है ना मम्मा?’ अविका ने बहुत ही मासूमियत से अद्वैत को समझाते हुए मम्मी की तरफ देखा। शेफाली ने कहा कुछ नहीं बस सहमति में सिर हिलाया।

फुच्चु मा‘साब के रोग का यह दूसरा पड़ाव था। कैंसर सुनकर सिर्फ घर में ही नहीं मातम छा गया बल्कि जिसने गांव में भी सुना सबने अनुराग को फोन किया। और सारे फोन ने अनुराग को आश्वस्ति कम दी, उसे डराया ज्यादा।

डरा हुआ अनुराग जब डॉ बासु के सामने पहुंचा तब सीधे-सीधे सवाल पूछा ‘कितने दिन का जीवन और बचा है।’ डॉ बासु ने अनुराग को प्यार से ही सही लेकिन झिड़क दिया। ‘देखो एतना इमोशनल बातें मेरे सामने मत करो। यह मैथेमेटिक्स का कोई फोरमूला नहीं है कि कितने दिन हैं, बता दूं। आइ एम नॉट ए प्रीडिक्टर।’ लेकिन अनुराग को बहुत दुखी देखा तो कहा ‘कैंसर सुनकर तुमलोग सीधे डेथ पर कैसे पहोंच जाते हो। अभी शोमोझना पड़ेगा कितना फैला हुआ है और यह भी कि हाव मच इट हैज़ डैमेज द होल बॉडी। कैंसर का मोतलब डेथ नहीं होता है। यह एक डिजीज है इसके साथ चोलना होगा। इससे फाइट कोरना होगा। इससे हारना नहीं है। कैंसर हमको हारना नहीं फाइट कोरना सिखलाता है। यहां से तुम्हें ओंधेरा दिख रहा होगा लेकिन यहीं से हमलोग धीरे धीरे आगे बोढेंगे और रास्ता दिखता जाएगा। बहुत सारे टेस्ट होंगे और फिर सिचुएशन के अनुसार हम आगे बोढ़ते जाएंगे।’

डॉ बासु ने अनुराग को बहुत आश्वस्त किया। अनुराग जिसने इस रोग को सुनते ही जीवन की उम्मीद छोड़ दी थी उस उम्मीद को डॉ बासु ने वापस ला दिया था। वह जब डॉ बासु के पास बैठा तब वह बहुत हताश था लेकिन जब वह वहां से उठा तो उसके पास उम्मीद की एक किरण थी।

फुच्चु मा‘साब ने अपने रोग के बारे में सुना तो एकदम सकते में आ गए। उन्होंने अपनी हथेली की तरफ बहुत आश्चर्य से ऐसे देखा जैसे कभी उन्होंने किसी भविष्य बताने वाले को अपना हाथ दिखलाया हो और उसके अनुसार तो अभी जिन्दगी होनी चाहिए। हाथ कभी दिखलाया हो या ना दिखलाया हो लेकिन इस वक्त अचानक ना जाने क्यूं फुच्चु मा‘साब की निगाह हथेली में जीवन रेखा खोजने अवश्य लगी थी।

फुच्चु मा‘साब अपने बिस्तर पर मौन लेट गए। फिर अनुराग को अपने पास बुलाकर कहा ‘बाबू एक बार गांव जाकर सब समेट आना। मछलियों और चिड़ियों को कहना बस अब नहीं।’ ऐसा कहते हुए फुच्चु मा‘साब का गला रुंध गया। फिर थोड़ी देर रुककर, थोड़ा संभलकर बोले ‘मन्दिर के पैसों को भी एक बार समझ लो।’

‘ऐसा मत कहिए, ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा। क्या पता रोग अभी फैला ही ना हो। आप साथ दीजिए। सब ठीक हो जायेगा। बस इलाज लम्बा चलेगा। यहां आराम से रहिए।’ अनुराग ने ढांढ़स बंधाना चाहा।

‘इलाज लम्बा चलेगा..............।’ फुच्चु मा‘साब ने इस वाक्य को लम्बा खींचा और एक आह भरते हुए बिस्तर पर करवट बदल ली।

चौदह
अब चूंकि फुच्चु मा‘साब नीचे नहीं उतरते इसलिए वे उस फ्लैट में दिन भर बंद रहते। वे बंद कमरे में यहां से वहां तक टहलते। कभी फ्रिज के ऊपर पत्थर की बनी उस कलाकृति को, जिसमें एक कलाकार अपनी ढोलक पर थाप दे रहा था, को ध्यान से देखते। फिर उस बड़े से टीवी के पास आते और बंद टीवी को गौर से देखते। कभी छत को देखते तो कभी दीवार को। बाल्कनी में जाने की उनकी हिम्मत नहीं होती। वे माइक्रोवेव के पास जाते और फिर लौट आते। वे ड्राइंग हॉल में सोफे पर बैठते और फिर खड़े होकर चलने लगते। डायनिंग और ड्राइंग हॉल के बीच में जो जगह थी वहां छत से एक चेम्स लटका हुआ था। फुच्चु मा‘साब हाथ को बढ़ाते और उसे छूते। उसे छूते ही उससे एक मधुर सी आवाज़ निकलती। लेकिन वह आवाज़ इस शांति को भंग करती थी। फुच्चु मा‘साब फिर उस चेम्स को पकड़कर उसकी आवाज़ को दबा देते।

इस बाल्कनी, इस घर, इस माइक्रावेव, फ्रिज, टीवी और चैम्स से खीझकर फुच्चु मा‘साब दरवाजा खोलकर बाहर निकलते। बाहर इस घर के दरवाजे के अलावा दो फ्लैट और थे इसलिए दो दरवाजे भी और थे। लिफ्ट का दरवाजा था। लिफ्ट के दरवाजे के ठीक सामने सीढ़ी थी। दोनों फ्लैट के दरवाजे सामान्यतया बंद रहते थे। सीढ़ी से कोई उतरता-चढ़ता नहीं था। इन घरों से सामान्यतः कोई बाहर नहीं निकलता था। कभी कोई निकलता भी तो बस लिफ्ट तक आने के लिए। या फिर लिफ्ट से बाहर निकलकर अपने फ्लैट में जाने के लिए। उन फ्लैट्स के दरवाजे सिर्फ अंदर से बाहर निकलने और बाहर से अंदर जाने के लिए ही खुलते थे और फिर वे इस तरह बंद हो जाते जैसे वे वर्षों से बंद पड़े हों। फुच्चु मा‘साब को अपना दरवाजा याद आता। कैसे वहां कभी भी, कोई भी आ सकता था और कैसे वे कभी भी, कहीं भी जा सकते थे। उन्हें अपने मंदिर का चबूतरा याद आता जहां बैठकर लोग दुनिया जहां की बातंे किया करते।

फुच्चु मा‘साब को इस लिफ्ट को देखना अच्छा लगता था। वे लिफ्ट के सामने खड़े होकर उसकी स्क्रीन पर चलने वाले नंबर को देखते रहते। उस पर नंबर को गिनना काफी रोमांचकारी था। यह उनके लिए एक खेल की तरह था कि अब लिफ्ट किस नंबर के फ्लोर पर गयी। और गयी तो रुकी या नहीं। वे इस बीच फ्लैट्स के उन दरवाजों को भी देखते जो बंद रहते थे। और उनके भीतर से भी कोई शोर नहीं निकलता था। वे बहुत तटस्थ होकर उन दरवाजों को और लिफ्ट के ऊपर-नीचे होने को देखने में डूब जाते थे।

उनकी यह मदहोशी तब टूटती जब इस लिफ्ट का दरवाजा अचानक कभी इस फ्लोर पर खुल जाता। या फिर इन दोनों फ्लैट के दरवाजे कभी अचानक खुल जाते। तब फुच्चु मा‘साब सकपका जाते। लिफ्ट से बच्चे स्कूल बैग लिए हुए निकलते और सामने फुच्चु मा‘साब को देखकर ‘हाय अंकल’ कहते और चले जाते। कभी बच्चे ट्यूशन जाने के लिए घर से बाहर निकलते। वे लिफ्ट के बाहर इंतज़ार करते। फुच्चु मा‘साब का मन करता कि वे उनसे बतिया लें लेकिन वे हिचक जाते। एकाध बार उन्होंने ऐसी कोशिश भी की परन्तु बच्चों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखलायी।

अंत में वे अपने कमरे में अपने बिस्तर पर आते और लेट जाते। अपने बिस्तर पर से उन्हें सामने के अपार्टमेंट के घर की एक बाल्कनी दिखती।

उनके अपने बिस्तर पर से लेटे लेटे जो बाल्कनी दिखती थी वह एक ख़ामोश बाल्कनी थी। ऐसा लगता था जैसे इस बाल्कनी को किसी ने अचानक बंद कर दिया हो। ऐसे जैसे सबकुछ सामान्य चलते हुए ऐसा कुछ अचानक घटा हो कि उसे जस का तस बंद कर दिया गया हो।

वह बाल्कनी एक ऐसी बाल्कनी थी जिसे बहुत नजाकत से रखा गया था। बाल्कनी से बाहर की तरफ लोहे का जाल बनाकर पंक्ति में गमले रखे हुए थे। बाल्कनी के दोनों तरफ के गमलों में ऐसे पौधे लगे थे जिसमें लता थी और जो दोनों तरफ से ऊपर की तरफ बढ़ी हुई थी। उसी जाल को बीच में दो जगह आगे की तरफ निकाला गया था जिसमें दो बर्तन रखे हुए थे। फुच्चु मा‘साब ने समझ लिया था कि वे बर्तन पक्षियों के पानी पीने के लिए रखे गये थे। उस बाल्कनी में रस्सी बंधी हुई थी और रस्सी पर कपड़े टंगे हुए थे। उन कपड़ों में कुछ महिलाओं के कपड़े थे और कुछ बच्चों के। बच्चों के कपड़ों में स्कूल के कुछ यूनिफॉर्म भी थे। वहां एक झूला था जो ख़ामोश पड़ा हुआ था। दीवार में चिपकी हुई एक लाइट थी जो अनवरत जल रही थी।

फुच्चु मा‘साब ने जब उस बाल्कनी को देखा तब तक उन्हें ऐसा लगा था जैसे उस बाल्कनी को बंद हुए अभी पांच-सात दिन ही हुए हैं। वहां गमलों के पौधे अभी जीवित थे। उस झूले के पास बेंत का एक मूढ़ा पड़ा हुआ था और झूले के पास दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए एक थाली गिरी हुई थी। उस थाली में आधा खाया हुआ खाना रखा था। ऐसे जैसे उस मूढ़े पर बैठकर मां झूले पर बैठे अपने बच्चे को खाना खिला रही हों और अचानक कुछ ऐसा हुआ हो कि मां उस थाली को फेंककर दौड़कर भागी हो। और यह बात ज़रूर रात की रही होगी तभी यह लाइट जली रह गयी।

अपनी दिनचर्या में अपने बिस्तर पर से इस बाल्कनी को देखना फुच्चु मा‘साब के लिए अभी सबसे महत्वपूर्ण काम था। नीचे वे उतर नहीं सकते थे, बाल्कनी में जाकर नीचे देखने में उन्हें डर लगता था। टीवी देखना उन्हें पसंद नहीं था। वे अपने बिस्तर पर लेटते और इस ठहरी हुई बाल्कनी को देखते। वे उसे देखते और अपने मन में इस ठहरी हुई बाल्कनी को समझने की कोशिश करते कि आख़िर हुआ क्या होगा, क्यों यह बाल्कनी यूं अचानक बंद कर दी गई होगी।






पंद्रह
यह रुटीन जैसा हो गया था कि हर दो चार दिन में अनुराग फुच्चु मा‘साब को टेस्ट करवाने ले जाता। लिटाकर फुच्चु मा‘साब को बड़ी बड़ी मशीनों के भीतर डाल दिया जाता। उनके हाथ में एक बटन पकड़ा दिया जाता। मशीन के पास जो असिस्ट करने वाला लड़का होता वह समझाता कोई भी दिक्कत हो तो इस बटन को दबा देंगे आप। फुच्चु मा‘साब अनुराग की तरफ बहुत दयनीय भाव से देखते परन्तु अनुराग को भी इस कमरे से निकाल दिया जाता। फुच्चु मा‘साब जब लेट करके उस मशीन के भीतर घुसते तो देखते चारों तरफ से दीवार ने उन्हें जकड़ लिया है। सांस लेने तक की जगह नहीं है लेकिन वे धैर्य रखते। लेकिन फिर शुरू होता कानों को फाड़ देने वाला कर्कश शोर। पींऽऽऽ, पींऽऽऽ, पींऽऽऽ, पोंऽऽऽ, पोंऽऽऽ, पोंऽऽऽ।

उस दिन फुच्चु मा‘साब ने लड़के से पहले ही पूछ लिया था कि घबराहट में चिल्ला तो सकते हैं। लड़के ने कहा आपकी चिल्लाहट कोई नहीं सुनेगा। आपको यह बटन दबाना ही होगा। फुच्चु मा‘साब ने बटन को कसकर पकड़ लिया था। लेकिन वे सोचते, इस घबराहट में अगर हाथ ने काम करना बंद कर दिया तो। अगर उंगलियों ने अपना काम सही ढंग से नहीं किया तो। अगर यह घंटी बजी ही नहीं तो। फुच्चु मा‘साब ने सोचा तब इन्हीं दीवारों के बीच दम घुट कर मरना होगा।

लेकिन इस एक घंटे की लम्बी प्रक्रिया में फुच्चु मा‘साब धैर्य रखकर दोनों हाथों की मुट्ठियों को कसकर बन्द कर अपने गांव के सुनहरे दृश्य को याद करते रहते और वह कठिन समय भी कट जाता। उस कानफोड़ू आवाज़ के बीच भी वे खो से जाते। गांव की पगडंडियां, बांध की ठंडी हवा, मंदिर के चबूतरे तब उन्हें बचाते। हमेशा बचाया तो उन्हें उन आवाजों ने भी जो उन्हें ढूंढने आती थीं। फुच्चु मा‘साब आज थोड़ा ब्लॉक चलना है, फुच्चु मा‘साब आज थोड़ा अमीन से नापी करवाने चलना है आपको। फुच्चु मा‘साब! फुच्चु मा‘साब! की आवाज़ तब इस कर्कश आवाज़ को भी दबा देते।

अनुराग के साथ जब फुच्चु मा‘साब डॉ बासु के सामने पहुंचते तो डॉ बासु लगातार गम्भीर ही दिखते। फुच्चु मा‘साब उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते। वे समझ नहीं पाते कि डॉ बासु हमेशा ऐसे ही गम्भीर रहते हैं या फिर वे इस रिपोर्ट को देखकर गम्भीर हो जाते हैं। वे इस इंतज़ार में रहते कि कभी डॉ बासु की गम्भीरता थोड़ी कम हो तो वे अपना सवाल पूछें। शुरू में एक-दो बार तो इसी इंतज़ार में फुच्चु मा‘साब चुप रहे लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने सीधे डॉ बासु से पूछा ‘अब गांव लौट जायेंगे ना?’ डॉ बासु उन्हें देखते और मुस्कुरा देते। लेकिन फुच्चु मा‘साब हर बार यही पूछते। डॉ बासु जवाब नहीं देते लेकिन खीझते कभी भी नहीं थे। वे अक्सर चुप रहते और कभी कह भी देते ‘अभी तो कुछ पता नहीं। क्या पता भविष्य में कुछ ज्यादा अच्छा ज़रूर हो।’ और फिर फुच्चु मा‘साब का मुंह लटक जाता।

सोलह
फुच्चु मा‘साब अपने रोग के साथ-साथ बढ़ रहे थे। जब रोग के बारे में उन्हेें पता चला था तब वे बहुत घबराये हुए थे फिर जब उन्हें यह लगा कि वे इस रोग से दुरुस्त होकर घर भी जा सकते हैं तब वे थोड़े सुकून में आ गए थे लेकिन वे इस रोग को बस एक सामान्य रोग की तरह समझ रहे थे। ऐसे जैसे डॉक्टर अभी दवा देंगे और वे दुरुस्त हो जायेंगे। लेकिन धीरे धीरे जब यह इंतज़ार लम्बा खिंचता चला जा रहा था तब फुच्चु मा‘साब मुरझाते चले जा रहे थे। वही ऊंची बिल्डिंग, वही गाड़ियों की कतार, वही बंद कमरा और बंद कमरे से बाहर वह ख़ामोश बाल्कनी।

फुच्चु मा‘साब के पास उस बाल्कनी को लेकर अलग-अलग कहानियां थीं। लेकिन सारी कहानियों में आशंकाएं अवश्य थीं। उस आशंका में वह आधा खाना खायी हुई थाली थी और दिन रात जलती दीवार से चिपकी हुई वह लाइट थी। कभी वे सोचते कि झूला झूलते हुए बच्चे को मां खाना खिला रही होगी और अचानक बच्चे की तबीयत बिगड़ गयी होगी और वह उसे लेकर हॉस्पिटल दौड़ी होगी और अब पता नहीं वह कैसा होगा?

कभी सोचते कोई बुरी ख़बर बाहर से आयी होगी और वह बच्चे को लेकर दौड़ गयी होगी। बुरी ख़बर कुछ भी हो सकती है - किसी के मर जाने की या किसी के ग़ाएब हो जाने की। वह मरने या ग़ाएब होने वाला उस बच्चे का पिता भी हो सकता है।

कभी वे सोचते कि हो ना हो मां-बेटे घर में अकेले हों और कोई अनजान घर में घुस आया हो और उस मां-बेटे को खींचकर कमरे के भीतर लाकर उन्हें मार दिया हो और कमरे में उनकी लाश अभी भी पड़ी हो। और फिर वह बाहर से ताला लगाकर चला गया हो।

फुच्चु मा‘साब उस कमरे की खिड़की पर चिपककर खड़े हो जाते और घण्टों उस बाल्कनी को देखते रहते। उस बाल्कनी को देखते और उनके मन में अजीब-अजीब तरह की बातें आतीं। और वे घोर निराशा के गर्त में चलते चले जाते। वे जब भी यह सोचना चाहते कि क्या पता कुछ अच्छा भी हुआ हो लेकिन ऐसा सोचने से उन्हें वह दिन रात जलती लाइट और वह अधखायी हुई थाली रोक देती।

एक दिन फुच्चु मा‘साब ने अपने को काफी रोकते हुए भी अनुराग से पूछ ही दिया कि उस घर के लोगों के साथ क्या हुआ है जिनकी बाल्कनी बंद है। अनुराग ने एकदम से चौंककर पूछा ‘क्या कोई बाल्कनी बंद भी है? मुझे क्या पता कौन-कौन सी बाल्कनी बंद है या फिर उसके पीछे क्या कहानी है।’ अनुराग ने ऐसा कहते हुए यह दिखाया कि यहां किसी और के बारे में जानकारी रखना कोई अच्छी बात नहीं है। उसने पिता से कहा ‘यह गांव नहीं है यहां कोई किसी के बारे में जानकारी नहीं रखता। इतनी फुरसत किसके पास है। आप तो उस टावर के घर के बारे में पूछ रहे हैं हमसे मेरे फ्लोर के घरों के बारे में पूछिये, कहां पता है?’ फुच्चु मा‘साब यह सोचकर चुप हो गए कि हां इतनी फुरसत है भी कहां।

फुच्चु मा‘साब के देखते देखते उस बाल्कनी के सारे गमलों के फूल मुरझा गए थे। उन लताओं में अभी कुछ जान बाकी थी। लेकिन उनकी पत्तियां भी बहुत ही मरी हुई ही दिख रही थीं। उन लताओं में गिलहरियां थीं। वे गिलहरियां ऊपर नीचे करती थीं और फुच्चु मा‘साब यहां खड़े-खड़े उन्हें दौड़ते-भागते देखते थे। और सिर्फ देखते ही नहीं थे बल्कि यहीं से उनसे बतियाते भी थे। वे घंटों उस गिलहरी का इंतज़ार करते। और जब गिलहरियां आ जातीं तब वे कहते, ‘आ गए बाबूसाहब।’

लेकिन फुच्चु मा‘साब सबसे ज्यादा दुखी होते उन चिड़ियों के प्यासे वापस लौटने से जो यहां पानी की उम्मीद में आती तो थीं लेकिन पानी यहां मिलता नहीं था। उस बाल्कनी में जो दो बर्तन इन चिड़ियों के पानी पीने के लिए रखे गए थे वे अब पूरी तरह से सूख चुके थे। चिड़ियों की लम्बे समय से यहां आने की आदत बनी हुई थी, चिड़ियां यहां अपनी आदत के अनुसार आती थीं और उदास लौट जाती थीं। वे उन चिड़ियों को देखते और उन्हें अपना तालाब याद आता, तालाब की मछलियां याद आतीं, वहां किनारे उड़ कर आने वाली चिड़ियां याद आतीं। लेकिन उनका दुख तब और बढ़ जाता जब वे इस खिड़की पर खड़े होकर उस बाल्कनी को देख रहे होते जहां चिड़ियां बिना पानी के उदास लौट रही थीं और दूसरी तरफ वहीं ठीक नीचे स्वीमिंग पूल में पानी की नीले रंग के चादर बिछी हुई थी।

सत्रह
समय बीतता रहा और फुच्चु मा‘साब का स्वास्थ्य इसी तरह ऊपर नीचे होता रहा और अकेलेपन से परेशान फुच्चु मा‘साब पागलपन की तरफ बढ़ते रहे। वे घण्टों उस खिड़की से चमगादड़ की तरह चिपके रहते।

समय बीतता रहा। अनुराग-शेफाली की व्यस्तता यूं ही बनी रही। अस्पताल, टेस्ट सेंटर, डॉक्टर, रिपोर्ट सब यूं ही चलता रहा। फुच्चु मा‘साब यूं ही अकेलेपन से निराशा के गर्त में जाते रहे। फुच्चु मा‘साब को अपने गांव, वहां की पगडंडियों की याद भी वैसी ही बनी रही। उनकी यादों में मछलियां, चिड़ियां और पेड़-पौधे भी वैसे ही बने रहे।

सर्दियां आकर चली गयीं। अब फिर धूप थोड़ी कम अच्छी लगने लगी थी। इन सर्दियों में भी फुच्चु मा‘साब मोटे कपड़ों और कम्बलों में लिपटकर सिकुड़कर वहीं बैठे रहे। अनुराग ने बहुत कहा कि नीचे पार्क में जाकर बैठ जाया कीजिए। लेकिन फुच्चु मा‘साब वहां नहीं गए। जब कभी अनुराग घर होता तब वह अपने साथ पार्क में पिता को अवश्य ले जाता। लेकिन वहां जाकर भी फुच्चु मा‘साब को बहुत सुकून नहीं मिलता। वे वहां जाते और गुमसुम बैठे रहते। वे इधर-उधर नहीं देखते। बस नीचे ज़मीन को देखते रहते और चुप रहते।

पूरी सर्दी में वे अपने कमरे से निकलकर बाल्कनी की तरफ जाते और शीशे वाले दरवाजे को सरकाकर वहीं ज़मीन पर बैठ जाते। धूप में अपने हाथ को निकाल कर धूप को सेंकने की कोशिश करते। बाल्कनी में बहुत अच्छी धूप होती लेकिन वे बहुत आगे नहीं जाते। आगे धूप अच्छी होती लेकिन नीचे देखने पर उन्हें घबराहट हो जाती।

इन महीनों में अनुराग और शेफाली ने बहुत कोशिश की कि उनका यहां मन लग जाए। वे उन्हें घुमाने ले जाते। एक दिन वे उन्हें मॉल ले गए। लेकिन वहां भी फुच्चु मा‘साब सकुचाए सकुचाए ही घूमते रहे। वे धोती-कुर्ता पहनकर मॉल में गए और उन्हें लगा जैसे सारे लोग उनको ही देख रहे हैं। न चाहते हुए भी अनुराग और शेफाली को भी यह अजीब ही लगा। एक-दो बार के प्रयास के बाद फुच्चु मा‘साब फिर से उसी घर में आकर बन्द हो गए। जहां ख़ामोशी थी, अकेलापन था और जहां सामने ख़ामोश पड़ी हुई बाल्कनी थी।

उस बाल्कनी में अब जाले लग चुके थे। सारे पौधे सूख चुके थे। निराश होकर सारी चिड़ियों ने वहां आना छोड़ दिया था। गिलहरी भी अब वहां नहीं आती थी। लाइट को शायद अब कहीं मेन स्विच से बंद कर दिया गया था इसलिए अब वह नहीं जल रही थी।

फुच्चु मा‘साब अब एकदम शांत हो गए थे। उनकी बीमारी अच्छे-बुरे के बीच में यूं ही अब भी फंसी हुई थी। हां बस अब उन्होंने डॉ बासु से यह पूछना छोड़ दिया था कि ‘वे अपने गांव कब लौट पायेंगे।’ वह बस दिन भर अपने बिस्तर पर या तो लेटे-लेटे उस सामने वाली बाल्कनी को देखते रहते या फिर अपने कमरे की खिड़की पर चिपकर उस बाल्कनी को और नीचे स्वीमिंग पूल में छपाक छपाक लोगों को नहाते हुए देखते रहते। अब दिन में धूप तेज होने लगी थी इसलिए लोग स्वीमिंग पूल का आनन्द लेने लगे थे।

अठारह
यह उस दिन की बात है जब अनुराग का अपॉइंटमेंट डॉ बासु से 12:50 का था। अनुराग ऑफिस से आज जल्दी निकलकर हॉस्पीटल पहुंचा और पहले टेस्ट की रिपोर्ट ली। धूप बहुत तेज थी लेकिन वह आज घर जल्दी जाकर थोड़ी देर अपने पिता के साथ समय बिताना चाह रहा था। डॉ बासु के केबिन के बाहर लॉबी में लम्बी पंक्ति थी लेकिन अनुराग को अपने अपॉइंटमेंट के समय से मात्र 15 मिनट बाद ही अंदर जाने का मौका मिल गया। डॉ बासु ओटी के कपड़े में थे। हरे रंग की ड्रेस और सर पर हरे रंग की कैप। डॉ बासु अब अनुराग को पहचान गए थे। अनुराग के बैठते ही पूछा ‘हाउ इज़ योर फादर यंग मैंन?’ फिर इसका जबाव उन्होंने ख़ुद ही दिया ‘हाव वुड यू नो।’ लेकिन उनके जबाव को अनसुना करते हुए अनुराग ने कहा ‘ही सीम्स फाइन बट आई गेस यू नो बेटर।’ अनुराग ने रिपोर्ट वाली फाइल को उनके सामने रख दिया। डॉ बासु ने पहले रिमोट उठाकर एसी के टेम्प्रेचर को थोड़ा संतुलित किया। तब शायद अनुराग ने भी महसूस किया कि कमरा काफी ठंडा हो चुका था। फिर वे उठकर कमरे में अटैच बाथरूम की तरफ ‘वन मिनट प्लीज’ कहते हुए चले गए। बाथरूम से जब डॉ बासु लौटे तो काफी फ्रेश लग रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लगा जैसे वे पूरी तरह तैयार होकर इस रिपोर्ट को देखना चाह रहे थे।

अब कमरे का टेम्प्रेचर थोड़ा सामान्य हो गया था। अनुराग डॉ बासु के सामने शांत बैठा हुआ था। डॉ बासु काफी देर तक उन रिपोर्ट्स को देखते रहे फिर उन्होंने अनुराग की तरफ देखा। डॉ बासु के चेहरे पर अभी भी सख्ती बनी हुई थी। या शायद यह सख्ती उनके चेहरे का स्थायी भाव था ।

डॉ बासु ने सबसे पहले कहा ‘आज तुम अपने फादर को लेकर नहीं आए।’ अनुराग को लगा यह सवाल डॉ बासु ने थोड़ी देर से पूछा है। अनुराग चुप रहा। लेकिन फिर डॉ बासु कुछ कहते उससे पहले ही अनुराग ने पूछ लिया ‘क्या अब वे कभी अपने गांव लौट पायेंगे?’ डॉ बासु ने फिर कहा ‘आई नो द अफैक्शन ऑफ नेटिव पैलेस, लेंग्वेज, हवा, पानी सोबकुछ। आई हैव प्रोमिस्ड हिम आलसो कि जब भी थोड़ी स्टेबिलिटी मिलेगी मैं गांव जाने का परमिशन उनको दूंगा। मैं जानता हूं वे अपने गांव जाने के लिए बहुत ही ज्यादा डेस्पेरेट हैं।’ फिर थोड़ा गैप देकर उन्होंने एक लम्बी सी आह भरकर कहा ‘अपना देश कौन लौटना नहीं चाहता। अपना बोली, अपना परिवेश, अपना हवा हमको भी बहुत याद आता है।’ फिर कहा ‘जाने में क्या है जाने को तो आज चले जाओ लेकिन हम उन्हें बचाना चाहते हैं। और अभी हम रिस्क फैक्टर से बाहर नहीं आ पाए हैं। बिलीव मी ज्यों ही हम एक स्टेबल स्थिति में होंगे ज़रूर उन्हें भेजेंगे। बट दिस इज़ नॉट द राइट टाइम।’

अनुराग जब वहां से उठा तब बहुत बुझे मन से उठा। उठते हुए अचानक उसकी आंखों के सामने फुच्चु मा‘साब का उदास चेहरा छलक आया। उसे याद आया कि कैसे अनुराग के यह बताने पर कि कल वह डॉ बासु से मिलने जायेगा फुच्चु मा‘साब कैसे चहक गए थे और पूछ लिया था ‘अब तो हम ठीक हो गए होंगे ना?’ अनुराग इस बात को समझ रहा था कि यह कोई सवाल नहीं था बल्कि अपने मन को दी जाने वाली तसल्ली थी। फिर धीरे से कहा ‘अब तो सारी मछलियों ने हमको भुला भी दिया होगा।’ फिर ख़ुद ही कहा ‘नहीं नहीं वो तो मुझे भुला ही नहीं सकतीं।’

उन्नीस
फुच्चु मा‘साब के मन में लगभग यह बैठ गया था कि अब वे यहां से लौट नहीं पायेंगे। पिछले कई महीनों से उन्हें ऐसा कोई नहीं मिला था जिनसे वे खुलकर अपनी भाषा में बात कर पायें। वे रोग से ज्यादा अपने अकेलेपन से अंदर ही अंदर घुलते जा रहे थे। वे दिन दिन भर अपने कमरे में अकेले बैठे रहते और घंटों उस सामने वाली बाल्कनी को देखते रहते। या फिर कई घंटों तक लिफ्ट के सामने बैठकर चुपचाप उस लाल रंग में बदलते अंकों को देखते रहते।

रात में भी उन्हें नहीं के बराबर ही नींद आती। अगर कभी नींद आ भी जाती तो उनके सपने में वे मछलियां, चिड़ियां, पेड-पौधे और बतहुआ आ जाते। उनके सपने में बतहुआ अक्सर कहीं न कहीं फंसा हुआ रहता और बहुत ही निरीह की तरह उनकी तरफ बचा लेने के लिए मनुहार कर रहा होता। सपने में कभी वह कीचड़ में धंसता चला जा रहा होता तो कभी एक बड़ा सा सांप उसे निगल रहा होता, तो कभी वह तूफान में उड़ा चला जा रहा होता। हर बार उसे बचाने की कोशिश में फुच्चु मा‘साब असफल होते और हर बार वे नींद से चौंककर जग जाते। उनका शरीर पसीना-पसीना हो जाता और धड़कन बहुत तेज हो जाती।

पिछले कुछ दिनों से जब से अनुराग और शेफाली उन्हें अपने साथ मॉल घुमाने ले गए थे वे और ज्यादा गुमसुम हो गए थे। रास्ते में गाड़ियों का काफिला, भयंकर जाम और मॉल में चुंधिया देने वाली रोशनी ने फुच्चु मा‘साब को बहुत शांत कर दिया था। वे ऊपर से बहुत शांत थे लेकिन उनके भीतर एक गजब की हलचल थी।

बीस
फुच्चु मा‘साब के लिए यह दिन कुछ ख़ास था। अनुराग की मुलाक़ात आज डॉ बासु से थी और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उन्हें अब अपने गांव लौट जाने की अनुमति मिल जायेगी। फुच्चु मा‘साब बहुत बेसब्री से शाम का इंतज़ार कर रहे थे।

उस दिन जब सब अपने अपने काम पर चले गए, घर में अकेले बचे फुच्चु मा‘साब बिस्तर पर लेटे लेटे बहुत देर तक पंखे को देखते रहे। लेटे लेटे फिर वे बाल्कनी की तरफ देखने लगे। बाल्कनी पूरी तरह उजाड़ हो चुकी थी। उसमें हरियाली नाम की कोई चीज़ नहीं बची थी। गमलों में सिर्फ सूखी टहनियां बची हुई थीं। दोनों तरफ की लताएं पूरी तरह सूख चूकी थीं झूले की रस्सी में जाले पड़ गए थे। फुच्चु मा‘साब और दिन की तरह आज भी घंटों एकटक उस बाल्कनी को देखते रहे थे। अब उस बाल्कनी में चिड़ियों ने आना छोड़ दिया था। चिड़ियों के पानी पीने के लिए रखे गए बर्तन अब भी वहीं थे, एकदम सूखे हुए।

आज बहुत दिनों बाद फुच्चु मा‘साब अपने कमरे से निकल कर दायें घूमकर बाल्कनी में गए। उन्होंने बाल्कनी की रेलिंग को पकड़कर नीचे देखा। नीचे बायीं और दायीं तरफ दोनों टावरों के बीच ढ़ेर सारी गाड़ियां खड़ी थीं। इस नवीं मंजिल से वे गाड़ियां बहुत छोटी लग रही थीं और एक दूसरे पर चढ़ी हुई लग रही थीं। फुच्चु मा‘साब के पैर में झुरझुरी हुई, उन्होंने कसकर लोहे की रेलिंग को पकड़ लिया। वे कुछ देर तक ऐसे ही खड़े होकर नीचे देखते रहे। बाहर मौसम बहुत गर्म था और लोहे की रेलिंग तप रही थी। लेकिन तब भी उन्होंने उसे पकड़ रखा था। नीचे स्वीमिंग पूल में कुछ लोग नहा रहे थे। फुच्चु मा‘साब ने आज पहली बार हिम्मत करके उस बाल्कनी से सिर ऊपर उठाकर ऊपर की ओर देखा। सामने वाले टावरों का आखिरी सिरा देखने की कोशिश उन्होंने की। वे टावर बहुत ऊंचे थे और वहां से देखने पर ऐसा लगा जैसे वे तिरछे होकर उनके ऊपर गिरे जा रहे हैं। फुच्चु मा‘साब डर गए और अंदर की तरफ भाग आए।

वे बिस्तर पर लेटे और फिर वहां से उठकर दरवाजे के पीछे खूंटी पर टंगे अपने कुर्ते की ऊपरी जेब में से एक छोटी डायरी निकाल लाए और उसमें होम्योपैथ की उन दवाइयों के नाम लिखने लगे जो उन्हें घर पहुंचते ही कलकत्ते से मंगवानी थी। फिर उन्होंने पिछले सात-आठ महीने का मोटा-मोटी अंदाज से मंदिर का हिसाब लिखा। और फिर डायरी बगल में रखकर लेट गए। उन्होंने अपने मन में अपने मंदिर, गांव और अपनी ज़मीन को याद किया। बांध पर खड़े रहकर आने वाली ठंडी हवा को याद किया। और उनके चेहरे पर मुस्कान तैर गयी। उन्होंने लेट कर छत को देखा और उस छत में उनका वह पोखर, वे पेड़-पौधे सब उग आए। वे उस छत पर ड्रॉइिंग की तरह अपनी पूरी ज़मीन को उकेरना चाह रहे थे। उस पर वे सबकुछ बनाने लगे। कहां पर कौन सा पेड़ है, कहां पर चिड़िया है, कहां पर गायें बंधी हैं और कहां वह अल्मीरा है जिसमें चिड़ियों के खाने के दाने रखे हैं। सब कुछ बनाया उन्होंने। कहीं कुछ छूट न जाए। फिर उन्हें झपकी लग गयी।

झपकी लगी और उस झपकी में उन्होंने एक परती पड़ी हुई ज़मीन देखी। एकदम उजाड़ । ऐसे जैसे बहुत दिनों से किसी ने उसकी देखभाल नहीं की हो। एक गड्ढा जिसमें पानी का नामोनिशान नहीं। उस गड्ढे के किनारे पानी के लिए तड़प रहे पक्षी। ढ़ेर सारे बड़े-बड़े, घने-घने पेड़। उन पेड़ों की शाखाओं में लटके हुए कई झूले। लेकिन वे झूले क्षत-विक्षत। किसी की एक रस्सी टूटी हुई तो किसी में बैठने की कोई जगह नहीं। वहां दूर जीर्ण-शीर्ण हालत में एक मंदिर। मंदिर में बाहर लटका हुआ एक बड़ा सा घंटा। उस घंटे में बंधी हुई एक रस्सी। एक आदमी जिसके बाल बढ़े हुए हैं, वह सिर झुकाए ज़ोर-ज़ोर से उस रस्सी को खींच कर घंटा बजा रहा है। वह घंटा बजा रहा है और बाहर निकलकर आसमान की ओर देख रहा है ऐसे जैसे आसमान में कोई हलचल होने वाली है। बढ़े हुए बालों के कारण उस घंटा बजाने वाले आदमी को पहचानना मुश्किल हो रहा है लेकिन फुच्चु मा‘साब उसे पहचान लेते हैं। वह और कोई नहीं अपना बतहुआ है। बतहुआ घंटा बजाए जा रहा है, ज़ोर ज़ोर से बजाए जा रहा है। बहुत ज़ोरों की आवाज़ चारों ओर फैल रही है। फुच्चु मा‘साब उसे रोकने जाएं तभी उस सपने में अचानक डॉ बासु आ जाते हैं एकदम गुस्से में और वे उस घंटे को उखाड़ कर फेंक देते हैं और अंग्रेज़ी में कुछ बड़बड़ाने लगते हैं। और फुच्चु मा‘साब झटके से झपकी से बाहर आ जाते हैं।

उनकी सांसें तेज हो जाती हैं। वे रसोई में जाकर पानी पीते हैं और बाहर निकल आते हैं। बाहर लिफ्ट सातवें माले पर रुकी हुई है। कोई हलचल वहां नहीं है। फुच्चु मा‘साब लिफ्ट के साइड में लगी स्क्रीन में लाल रंग में सात लिखा देखते हैं और बहुत देर तक देखते रहते हैं। वे बहुत देर तक उसे देखते रहे फिर उन्होंने उस लिफ्ट बुलाने वाले बटन को प्रेस कर दिया। तुरंत लिफ्ट उनके मुंह के सामने आकर खुल गई। दरवाजा खुला, फुच्चु मा‘साब ने उसके अंदर झांका और फिर लिफ्ट का दरवाजा बंद हो गया। अब उस स्क्रीन पर नौ लिखा हुआ था। फुच्चु मा‘साब को मालूम था कि लिफ्ट उनके सामने ही रुकी हुई है। बहुत देर तक वे उस स्क्रीन को देखते रहे। उनके अंदर एक अजीब सी खीझ भर गयी। वे चाहते थे कि कोई उस लिफ्ट को ऊपर या नीचे बुला ले। वे यहां से ऐसा कर नहीं सकते थे। उन्हें अफसोस हो रहा था कि उन्होंने इसे क्यों अपने फ्लोर पर बुला लिया।

बाहर बहुत गर्मी थी और चारों तरफ अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। स्कूल की छुट्टी अभी नहीं हुई थी। फुच्चु मा‘साब अभी तक में बहुत खीझ चुके थे। उन्होंने एक-दो बार गुस्से में फिर से बटन को प्रेस कर दिया और हर बार लिफ्ट का दरवाजा उनके मुंह पर खुलकर बंद हो गया। वे खीझ कर रुक गए तभी उस लिफ्ट की बुलाहट नीचे ग्राउण्ड फ्लोर पर हुई और उनके भीतर एक अजीब तरह का सुकून भर गया।

लिफ्ट नीचे गयी और फिर ऊपर आने लगी। एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात, आठ और नौ। नौ पर लिफ्ट का दरवाजा खुला और अनुराग निकला।

इक्कीस
पूरे रास्ते अनुराग यह सोचते आ रहा था कि पिता बहुत ही बेसब्री से इस सवाल के उत्तर का इंतज़ार कर रहे होंगे कि डॉ बासु ने उनके घर जाने के सवाल का जवाब क्या दिया। वह यह सोच रहा था कि वह पिता के सवाल का जवाब यह कैसे देगा कि डॉ बासु ने अभी यह नहीं माना कि स्थिति कंट्रोल में है।

अनुराग जबाव क्या देगा यह उलझाव भले ही उसके मन में था लेकिन वह घर जल्दी पहुंचना चाहता था। बाहर चिलचिलाती हुई गर्मी थी और दोपहर के दो बजे भी सड़क पर बहुत ट्रैफिक थी। वह घर पहुंचते-पहुंचते बहुत थक चुका था।

फुच्चु मा‘साब को यह तो मालूम था कि आज डॉ बासु से अनुराग की मुलाक़ात है परन्तु यह मुलाक़ात कितने बजे की है यह नहीं मालूम था। रोज़ अनुराग छः-सात बजे से पहले नहीं आता था इसलिए उन्होंने सोचा ही नहीं था कि ढाई-तीन बजे के क़रीब भी वह आ सकता है।

इसलिए जब लिफ्ट का दरवाजा खुला तो दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर घबरा गए। फुच्चु मा‘साब को अचानक लगा कि अनुराग ने उसकी इस चोरी को पकड़ लिया कि उन्हें लिफ्ट की इस जादूगरी को देखने में मज़ा आता है। वहीं अनुराग अचानक पिता को सामने पाकर यह समझ ही नहीं पाया कि वह तुरंत जवाब क्या दे। लिफ्ट से बाहर आकर संभलने में दो मिनट का समय लिया अनुराग ने। तब तक में फुच्चु मा‘साब ने अनुराग के चेहरे को पढ़ लिया और उनका दिल धक्क से बैठ गया।

‘कहीं जा रहे हैं।’ शुरुआत अनुराग ने की।

‘क्या बोले डॉ साहब?’ फुच्चु मा‘साब सीधे मुद्दे पर आ गए।

‘सुधार है।’ अनुराग ने कहा फिर उसमें धीमे आवाज़ में जोड़ा, ‘पर धीमी रफ़्तार से।’

‘वह तुमसे पैसा ठग रहा है बाबू। होम्योपैथिक में सब इलाज हो जाता।’

अनुराग ने कुछ नहीं कहा। वह अपने घर की ओर जाने लगा।

‘देखो मैं स्वस्थ नहीं हूं! देखो कितना बढ़िया से चल-फिर तो पा रहा हूं।’

और ऐसा कहकर फुच्चु मा‘साब ने वहीं पर चलकर अनुराग को दिखलाना शुरू कर दिया।

‘अंदर आ जाइये।’ अनुराग ने वहां से जाते जाते कहा।

बाहर बहुत गर्मी थी। अनुराग पसीने से भीगा हुआ था। वह सीधे घर के अंदर चला आया। वह बाथरूम जाकर थोड़ा नहा लेना चाहता था। इसी बहाने उसे पिता से आंख मिलाने के लिए ख़ुद को तैयार भी करना था।

लेकिन फुच्चु मा‘साब वहीं खड़े रहे। उन्हें अचानक लगा जैसे वे लिफ्ट के भीतर हैं और लिफ्ट का दरवाजा बंद हो गया है। उसके सारे बटन बेकार हो गए हैं। उन्होंने लिफ्ट की तरफ देखा। अब लिफ्ट के उपयोग में फुर्ती आ गयी थी। दो, चार, आठ, गयारह, बारह, चौदह फिर जीरो फिर चार, सात, आठ, दस। अब आठ पर रुक गयी। रुकी हुई है लिफ्ट। फिर जीरो, फिर छः, सात, आठ, बारह, चौदह।

फुच्चु मा‘साब उस लाल रंग में लगातार बदलते जा रहे अक्षरों को देखकर बुरी तरह खीझ गए। उनके दिमाग में जैसे ये लाल रंग में अंक चलने लगे। ढ़ेर सारे अंक। सब एक दूसरे पर चढ़ते हुए, एक दूसरे को काटते हुए। एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होते हुए। सब गडमड। दो,चार आठ, बारह, जीरो फिर चार, छः आठ, दस फिर जीरो। फुच्चु मा‘साब को लगा जैसे उनका दिमाग फट जाएगा। वे वहां से लगभग दौड़ते हुए अपने कमरे की तरफ भागे।






बाइस
लिफ्ट के पास से लगभग भागते हुए आकर फुच्चु मा‘साब अपने बिस्तर पर लेट गए। उन्होंने अपने मन को शांत करना चाहा। लेकिन शांति मिल नहीं रही थी। बार-बार अभी थोड़ी देर पहले का देखा सपना सामने आ जाता था। सूखी परती ज़मीन। मरती हुई चिड़िया। घण्टा बजाता हुआ बतहुआ। और अंत में घण्टे को तोड़ देते हुए डॉ बासु। अंग्रेज़ी में बुदबुदाते हुए डॉ बासु।

उन्हें फिर से लग रहा था कि वे लिफ्ट में बंद हैं या फिर किसी ज़ंजीर से उन्हें कस दिया गया है। उन्होंने मन को शांत करने के लिए सामने की बाल्कनी पर अपनी निगाहें जमा दीं।

बाहर अभी भी धूप तेज थी। फुच्चु मा‘साब ने उस बाल्कनी को देखा और उस बाल्कनी को देखते हुए वह ऊंची बिल्डिंग दिखी। उन्हें याद आया कैसे वे पूरी बिल्डिंग उनके ऊपर तिरछी होकर गिरती जा रही थी। उन्होंने उस बाल्कनी को देखा। वह बाल्कनी अब पूरी तरह सूखी हुई बाल्कनी थी। वहां कोई चिड़िया अब कभी आती नहीं थी लेकिन पता नहीं आज अचानक दो चिड़िया वहां कैसे आ गयीं। फुच्चु मा‘साब एकटक जब उस बाल्कनी को देख रहे थे तब इन दोनों चिड़ियों ने अचानक से उनके दृश्य में खलल डाल दिया। दोनों चिड़िया उस बर्तन के पास बैठकर बहुत हताश सी उस बर्तन को देख रही थीं। ऐसा देखकर फुच्चु मा‘साब अपने बिस्तर पर से अचानक से कूद कर उस खिड़की से चिपक गए। उन्हें लगा जैसे इन चिड़ियों को या तो पता नहीं है कि उस बर्तन में पानी नहीं है या फिर उन्हें यह उम्मीद थी कि बर्तन है तो पानी अवश्य रखा जाएगा।

फुच्चु मा‘साब खिड़की पर खड़े होकर ज़ोर से चिल्लाकर उन्हें यह बतलाना चाह रहे थे कि उसमें पानी नहीं है और पानी रखा भी नहीं जायेगा। उन्होंने चिल्लाकर कहा ‘फुर्र फुर्र, आ आ, भाग भाग।’ फिर ज़ोर से ‘भाग जा मेरी बच्ची कोई तुम्हारी प्यास को समझने वाला नहीं है यहां, किसी के पास फुरसत नहीं है। तुम भाग जाओ।’ और फिर से बहुत देर तक ऐसा कहते रहे ‘भाग भाग।’

उनकी आवाज़ को वहां तक नहीं पहुंचना था सो नहीं पहुंची। फुच्चु मा‘साब बहुत देर तक चिल्लाते रहे पर दोनों चिड़ियां वहीं बैठी रहीं। हां ऐसा करते हुए उनकी निगाह उस स्वीमिंग पूल पर गयी। नीले तले वाला पानी बहुत आकर्षक लग रहा था। धूप बहुत तेज थी इसलिए उसमें नहाने वाले लोग अभी कम थे। उनकी निगाह जब उस पूल पर पड़ी तब एक परिवार उसमें नहा रहा था। दो बच्चों के साथ पति-पत्नी। उस पानी को देखकर अचानक फुच्चु मा‘साब का दिमाग भन्ना सा गया। उन्होंने एक बार अपने सिर को ऊपर उठाकर पंखे की तरफ देखा। फिर अपने सिर को बहुत ज़ोर से दबाया। फिर उन्हांने खिड़की की छड़ को बहुत कसकर पकड़ा और दांतों को भींच लिया। और फिर उन्होंने चिड़िया को देखा। चिड़िया वहीं बैठी थीं। अचानक फुच्चु मा‘साब वहां से चल दिये। वे लिफ्ट के पास पहुंचे और बिना झिझक लिफ्ट से नीचे उतर गए।

फुच्चु मा‘साब लिफ्ट के पास पहुंचने और लिफ्ट लेकर नीचे उतरने तक तेज आवाज़ में चिल्लाते रहे। लिफ्ट ग्यारहवें माले से उन तक आयी और वह खाली थी।

‘इतना सारा पानी यहां बर्बाद हो रहा है और उ वहां प्यासी मर रही हैं। कुछ तो शर्म करो।’

‘सब क्या यहां अपने अपने दिल को मार चुके हो?’

‘इंसान और हैवान में अब फर्क ही क्या रह गया है?’

‘तुम सब इंसान हो नहीं और हम यहां इन हैवानों के बीच फंस गए हैं।’

वे लिफ्ट से निकलकर स्वीमिंग पूल के किनारे पहुंचे और झुककर अपने दोनों हाथों को जोड़कर उसमे पानी भर कर उस बाल्कनी की तरफ फेंकने लगे जहां वे चिड़िया बैठी थीं। उनके मुंह से घूं घूं की अजीब सी आवाज़ निकल रही थी। वे दो तीन बार ऐसा करते रहे फिर उस परिवार की तरफ देखा जो अब स्तब्ध सा इनको ही देख रहा था। अपनी तरफ देखते हुए इस परिवार को देखकर फुच्चु मा‘साब ने ज़ोर से हुड़का ‘हप्प भाग यहां से।’ वह परिवार पानी से बाहर निकलकर कपड़े पहनने लगा। फुच्चु मा‘साब लगातार उस स्वीमिंग पूल से अपने हाथ के घेरे में पानी लेकर उस बाल्कनी की तरफ फेंकते जा रहे थे। पानी फेंकते और फिर पानी लेने के लिए पूल की तरफ दौड़ते।

वे बार बार फेंकते हुए चिल्ला रहे थे ‘यहां चारों तरफ मौत है लेकिन मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा मेरी बच्ची। तुम बचोगी। तुम बचोगी तभी तो हम बचेंगे।’ यह अलग बात है कि नीचे से फुच्चु मा‘साब को न तो वह बाल्कनी ही दिख रही थी और न ही वहां बैठी हुई चिड़िया।

धूप बहुत तेज थी इसलिए ऐसा करते हुए वे पसीने से बिल्कुल तरबतर हो गए थे। लेकिन वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उनके मुंह से आवाज़ भी आ रही थी। वे चिल्ला चिल्लाकर बोल भी रहे थे और दौड़ दौड़कर पानी भी ला रहे थे।

तेइस
फ्रेश होकर अनुराग बाहर आया और सीधे पिता के कमरे में पिता को ढूंढता हुआ पहंुचा। लेकिन फुच्चु मा‘साब वहां नहीं थे। सबसे पहले तो उसने यही सोचा कि अरे अभी तक लिफ्ट के पास से लौटे क्यों नहीं। लेकिन यह विश्वास वह कर नहीं पा रहा था कि इतनी देर तक पिता वहां से लौटे नहीं होंगे। अनुराग ने उनके कमरे को गौर से देखा सबकुछ सामान्य था। फुच्चु मा‘साब वहां नहीं थे लेकिन उनकी चप्पल उनके बिस्तर के पास पड़ी हुई थी। फुच्चु मा‘साब ने जल्दबाजी में भागते हुए चप्पल नहीं पहनी थी। अनुराग को यह थोड़ा अजीब लगा। वह घर में यहां वहां उन्हें ढूंढता या बाहर निकलकर उन्हें देखता उससे पहले पता नहीं क्यों उसका मन किया कि वह उस खिड़की के पास आकर उस बाल्कनी की तरफ देख ले। उस खिड़की की तरफ आते ही नीचे स्वीमिंग पूल के पास पूरी भीड़ दिखी और फुच्चु मा‘साब भी। अनुराग को आज के जवाब के बाद कुछ आशंका तो थी लेकिन उसने ऐसा उल्टा कुछ सोचा नहीं था। उसके शरीर में अजीब तरह की सिहरन दौड़ गयी।

अनुराग ने वहां से चलते-चलते उस बाल्कनी को सरसरी निगाह से फिर देखा। वह एक उजाड़ पड़ी हुई बाल्कनी थी और वहां कोई चिड़िया भी नहीं बैठी हुई थी।

अनुराग नीचे पहुंचा तब भीड़ ने चारों तरफ से फुच्चु मा‘साब को घेर रखा था। और भीड़ के बीच यह फुसफसाहट थी ‘कौन है यह बुड्ढा?’ ‘क्या हुआ है इनको?’ ‘क्या यह कोई पागल है?’ ‘इसके परिवार के और लोग कहां हैं?’ ‘कोई पुलिस को फोन क्यों नहीं करता?’ अनुराग ने जब देखा तब तक फुच्चु मा‘साब लस्त पस्त हो चुके थे। उनका चेहरा गुस्सा और गर्मी से तमतमा रहा था। पसीना उनके शरीर से चू रहा था। उस भीड़ ने उन्हें घेर रखा था लेकिन उस भीड़ में से कोई न तो उन्हें रोकने की ही कोशिश कर रहा था और न ही कोई उनके पास जा रहा था। पूरी भीड़ बस तमाशा देख रही थी। पूरी भीड़ उनको ऐसा करते हुए देख रही थी लेकिन चूंकि फुच्चु मा‘साब के द्वारा फेंके गए पानी की ऊंचाई नहीं थी इसलिए लोग इस घटना को उस बंद पड़ी बाल्कनी से जोड़कर देख नहीं पा रहे थे।

फिर भीड़ से किसी ने ज़ोर से कहा ‘अरे सिक्योरिटी गार्ड कहां है भाई? व्हाट द हैल इज़ दिस?’

अनुराग आया उसने अपने पिता को बेचैन होकर स्वीमिंग पूल से अपने हाथों में पानी भरकर उस बाल्कनी की तरफ फेंकते हुए देखा लेकिन अभी वह कुछ समझ पाता कि यह क्या हो रहा है, लस्त पस्त फुच्चु मा‘साब उस धूप से चकराकर वहीं धम्म से गिर गए। अनुराग ने दौड़कर उनको पकड़ा। सांसें अभी चल रही थीं। भीड़ ने अब क़रीब आकर उन्हें घेर लिया था ऐसे जैसे कोई पागल हाथी अब गिर कर काबू में आ गया हो। किसी ने कहा, पानी लाओ पानी लाओ। पानी मारो मुंह पर। तब तक कुछ सिक्योरिटी गार्ड आ चुके थे। उनमें से एक पानी लेने के लिए दौड़ा।

भीड़ से किसी ने कहा ‘क्या हुआ है इनको?’ अचानक अनुराग के मुंह से निकला, ‘कैंसर है।’

तब तक सिक्योरिटी गार्ड पानी लेकर आ चुका था उसने कहा ‘लेकिन बाबूजी इ तो कैंसर से भी ज्यादा बड़ी बीमारी से ग्रस्त हैं। कैंसर से तो बच भी जाएं इससे कहां बचेंगे।’

अनुराग ने फुच्चु मा‘साब के मुंह पर पानी मारा और उन्होंने आंखें खोल दीं। भीड़ बिखरने लगी। उसमें से किसी लड़के ने कहा ‘चलो तमाशा खतम हो गया।’

फुच्चु मा‘साब ने कहा, ‘सारी मछलियां मर गयीं।’

और गोद में लेटे फुच्चु मा‘साब का हाथ धम्म से ज़मीन पर निढाल हो गया।

उमाशंकर चौधरी
मो.-9810229111



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