'आईना साज़' — अनामिका — उपन्यास अंश
ज़रूरी है कि दुनिया की सारी ज़ुबानों के शब्द मुल्कों और मज़हबों के बीच की सरहदें मिटाते हुए सूफ़ी जत्थों की तरह आपस में दुआ-सलाम करते दिखाई दें। आसमान में सात चाँद एक साथ ही मुस्कुराएँ।
एक क़िस्सा याद आता है: मैं उनके साकेत वाले घर के ड्राइंगरूम में बैठा था. घंटी बजती है, जीजाजी ऑफिस से वापस आते हैं. उनसे छोटी ही मुलाक़ात है सो वो नहीं ही पहचानते थे. दीदी ने उन्हें याद दिलाया...फ़लाने हैं आपसे निज़ामुद्दीन की दरगाह में मिले थे! उनके चेहरे पर अजीब से भाव आते हैं. खैर मैंने दीदी-सब से नमस्ते की और वहाँ से निकल आया. बाद में दीदी ने फ़ोन किया और बोलीं, "तुम्हारे जीजा जी ने समझा कि तुम किसी दरगाह से आये हो..जाने कौन हो और कैसे उनके घर की बैठक में हो और क्या कर रहे हो"... फ़ोन पर ही हम भाई-बहन के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ गए.
अनामिकाजी के नए उपन्यास 'आईना साज़' का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेले में 11 जनवरी 2020 को, प्रकाशक 'राजकमल प्रकाशन' के 'जलसाघर' (हाल 12A) में होना है. आइये 'आईना साज़' का एक अंश पढ़ते हैं और हिंदी कविता की प्रिय कवि की भाषा और किस्सागोई के कमाल की झलक उनके पहले पहले उपन्यास में महसूस करते हैं.
बहुत बहुत बधाई अनामिका जी को और उपन्यास को प्रकाशित करने का राजकमल प्रकाशन को शुक्रिया.
भरत एस तिवारी
आईनासाज़
आज मैंने तुम्हारी आँखों से बग़दाद देखा, पुराना बग़दाद — हमाम, मस्जिदें, बग़ीचे और मीना बाज़ार। जिन दिनों तुम पहली बार 'अमीर ख़ुसरो' पढ़ रही थीं, तुम्हारी आँखों में सूफ़ियों का मध्य एशिया एक नशीला धुआँ बनकर छाया रहता था। तब मैं कहाँ जानता था कि कभी मैं इस स्थिति में भी आ पाऊँगा कि तुम्हें सूफ़ियों की पुरानी दुनिया दिखाने को बुला सकूँ।
पश्चिम केन्द्रित जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, उसके अनुसार तो सभ्यता की प्रगति कुछ ऐसे हुई कि प्राचीन यूनान के गर्भ से रोम जन्मा, रोम के गर्भ से ईसाई यूरोप, ईसाई यूरोप से जन्मा रिनांसां, रिनांसां से एनलाइटेनमेंट या प्रबोधन, एनलाइटेनमेंट से जनतंत्र जनमा और औद्योगिक क्रान्ति जनमी —दोनों परवान चढ़े अमरीका में जो मानवाधिकारों की स्वस्थ-प्रसन्न लीलाभूमि या डिज़्नीलैंड के रूप में दुनिया के आगे नमूदार है।
बचपन तो मेरा ग़रीबी में बीता, घर में किताबें नहीं थीं, पर मेरे बाबा ने चौदहवें जन्मदिन पर मुझे एक एटलस दिया था। दिन-भर मैं उसे घुमाता रहता और सोचता रहता कि कैसी होंगी वे जगहें—इतिहास की सब किताबें दो-एक शब्दों में जिन्हें समेट लेती हैं कि वे जालिम लड़ाइयों और मूर्ख ऐयाशियों के बीच झूलते क़बीलाई लोगों का गढ़ थीं?...कॉलेज के दिनों में और फिर यूपीएसई की तैयारी के वक़्त भी कॉन्सतान्तिनिपोल, अफ़गानिस्तान, क़ज़ाकिस्तान, उजबेगिस्तान, ईरान, इराक़ वग़ैरह तीर्थयात्रियों और योद्धाओं, घुमन्तू जातियों और व्यापारियों द्वारा फैलाए गए अजीबोग़रीब किस्से से छनकर मेरे पास आए।
पर अब जब अपनी आँखों से समरकंद देख रहा हूँ, और उनके भग्नावशेषों में दर्ज़ अनुगूँजें भी अपने कानों सुन रहा हूँ, उनके बुज़ुर्गों की स्मृतियों और उन लोकगाथाओं में बची अर्थच्छायाएँ समझने की कोशिश कर रहा हूँ—एक अलग तरह का इतिहास-बोध मेरे भीतर दमक रहा है। उनकी रणनीतियाँ, उनका विवेक-कोष, उनकी मजबूरियाँ समझे बिना कोई उन पर शासन-प्रशासन कैसे करे, कैसे उन कूटनीतियों का मर्म समझे?
सिल्क-रूट पर जो रेशमी और नक़्काशीदार संस्कृतियाँ पनपीं, उनके पीछे संघर्ष का घना इतिहास भी है, पर पण्यों के साथ विचारों, रवायतों, किताबों और मजहबों की गुफ़तगू-सी जो सम्भव हुई, उसी में राज़ छिपा है इनके उत्कर्ष का। पर हर उत्कर्ष का एक अपकर्ष भी होता है! जुड़वाँ ही जनमते हैं धु्रवान्त। अमीर ख़ुसरो के थोड़े ही दिन बाद क्रिस्टोफ़र कोलम्बस और फिर वॉस्कोडिगामा के साहसिक अभियानों ने एक अलग तरह के लेन-देन का सिलसिला शुरू किया जिसमें सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गंध नहीं थी—एक मद-सा था संस्कृति पर हावी हो जाने का। सूफ़ियों ने सांस्कृतिक संवाद का जो सिलसिला क़ायम किया था, इस्लाम और ईसाइयत के बीच वर्षों तक चलने वाले उस धर्मयुद्ध ने उसकी चूलें हिलाकर रख दीं। जो दूसरी तरह का है, दुश्मन है, यह धारणा यूरोप एक लम्बे समय तक फैलाता रहा। अतीत भविष्य के और लोकशास्त्र के गले मिले, यह ज़रूरी है। ज़रूरी है कि दुनिया की सारी ज़ुबानों के शब्द मुल्कों और मज़हबों के बीच की सरहदें मिटाते हुए सूफ़ी जत्थों की तरह आपस में दुआ-सलाम करते दिखाई दें। आसमान में सात चाँद एक साथ ही मुस्कुराएँ।
यह ईमेल पढ़कर अभी ख़त्म ही किया था कि दरवाज़े पर हाथ बाँधकर खड़े नफ़ीस दिखाई दिए :
'किताबें पढ़ती हुई तुम मुझे छोड़कर कहाँ चली जाती हो? किताबें तुम्हें अपने आगोश में लिये-दिये जाने कहाँ निकाल ले जाती हैं...चार बार लौटा हूँ दरवाज़े से, ऐसी मगन थीं कि हिम्मत न हुई तुम्हारा ध्यान तोड़ने की...।' मुस्कुराकर कहा और वर्तमान की गीली मिट्टी से फिर मेरे पाँव उखड़ने लगे। इनकी इस मुस्कान में भी चंद्रहास की रहस्यमयता है—लीन कर लेने वाली रहस्यमयता।
एक बार जी में आया कि कह दूँ : उपन्यास तो घंटे-भर पहले ही ख़त्म किया था। घंटे-भर से सिद्धू के मेल और वॉट्सऐप—सन्देशों में उलझी हूँ, पर कुछ सोचकर चुप रह गई। नफ़ीस ने कुछ देर मेरा प्लास्टर जाँचा, फिर मेरे लिए चाय बनाई—मेरी पसन्दीदा नीबू चाय और घड़ी देखते हुए क्लिनिक की ओर रवाना हो गए। मैंने फिर से अमीर ख़ुसरो वाला आख्यान हाथ में उठाया और इधर-उधर से पलटने लगी। पिछले पन्नों में कहीं दबी ललिता दी की वह चिट्ठी भी दुबारा-तिबारा पढ़ी जो आज से चार बरस पहले इस आख्यान के साथ उन्होंने भेजी थी।
पिछले कई हफ़्तों से बिस्तर पर हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सिर्फ़ छत ताका करना, छत ताकते-ताकते एक अनजान परिवेश में इतने महीने गुज़ार देना आसान नहीं था, इसलिए मैंने ऐसी खिड़की चुनी जिसके पास लेटकर बाहर के ख़ुशनुमा बग़ीचे का कुछ तो आभास मिलता : आती-जाती तितलियाँ, बदलते मौसम, घटता-बढ़ता चाँद, सूर्योदय-सूर्यास्त के पचपन कलेवर, तरह-तरह के पक्षी और गिलहरियाँ! जगह कोई भी हो, ये चिर-परिचित ही दिखाई देते हैं—वही चेहरा, वही तेवर। आदमी के चेहरे और आदमी के तेवर—किसी जगह में अजनबियत घोलने के लिए प्रकृति इनका ही उपयोग करती है।
मेरी ये बातें सुनकर आपको ऐसा लग रहा होगा कि ये शहर मेरे लिए नया है और किसी लम्बी बीमारी की शिकार होकर मैं यहाँ बिस्तर पर पड़ी हूँ। नहीं, ऐसा नहीं है। पाँव में फ्रैक्चर हुआ है जब से, मैं यहाँ बैठे-बैठे ही लिखने-पढ़ने का कुछ काम देख लेती हूँ और जहाँ मैं हूँ—वह मेरे शौहर, डॉ. नफ़ीस हैदर की पुश्तैनी हवेली है जिसके निचले हिस्से में इनकी क्लिनिक है और इनके अब्बू का खोला हुआ ऐसे बच्चों का आवासीय विद्यालय, जो परितप्त समूहों से आए हैं। हमारी आर्थिक स्थिति अब इतनी भी अच्छी नहीं कि हम एक बार में ग्यारह से ज़्यादा बच्चे हॉस्टल में रख पाएँ। दो बड़े हॉल हैं, उनमें लड़के रह लेते हैं और लड़कियों के रहने का इन्तज़ाम उस 'मातृसदन' में है जहाँ कुछ ऐसी औरतें रहती हैं जिनका जीवन किसी कारण पटरी से उतर गया और जो स्वयं को दुबारा गढ़ रही हैं। उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने में जो मदद चाहिए होती है, वे कुछ संस्थाएँ कर देती हैं। इसका इन्तज़ाम हमने दौड़-धूप करके कर दिया है। जब तक वे यहाँ रहती हैं, ख़ुशी-ख़ुशी वे इन बच्चों की देखभाल कर लेती हैं। कुछ अवकाशप्राप्त लोग हैं—उनमें से ज़्यादातर नफ़ीस के मरीज़ भी रहे हैं—वे भी बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर उन्हें एक परिवार में होने का सुख दे देते हैं।
मेरे ससुर इप्टा के उतरते दौर के बड़े नाट्य-निर्देशक थे जिन्होंने कुछ फ़िल्में बनाने की कोशिश में बहुतेरे साल मुम्बई को दिये, फिर कुछ ऐसा घटा कि सब छोड़-छाड़कर उन्होंने फ़कीरों का जीवन जिया इधर-उधर। बाप ने उन्हें तो बेदख़ल कर रखा था पर पोते में उनके प्राण बसते थे। नफीस का स्कूल पूरा होते ही वे उन्हें मुम्बई से दिल्ली उठा लाए और उनकी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई यहीं हुई।
मेरी बोली-बानी से आपको यह तो समझ में आ ही गया होगा कि मैं दिल्ली की नहीं हूँ और उर्दू मेरी मादरी ज़बान नहीं है। मैं एक जैन परिवार में जन्मी और पली-बढ़ी। मेरे पिता पटना से निकलने वाले एक हिन्दी अख़बार में पत्रकार थे। मैं आठ बरस की थी—रिपोर्टिंग के सिलसिले में इनका कश्मीर जाना हुआ, वहीं एक बम-बिस्फोट में इनकी जान गई और हमारा परिवार तितर-बितर हो गया।
बहुत कुछ सहा, कई तरह के हादसे देखे, बहुत मुश्किलों से माँ ने पाला। पटना से दिल्ली पढ़ने आई। यहीं मेरी मुलाक़ात नफ़ीस से हुई, उसके परिवार के अन्य सदस्यों और पूरे मुस्लिम परिदृश्य से जिससे यह पूर्वग्रह टूटा कि मुसलमान कट्टर ही होते हैं—एक ख़ास तरह की श्रेष्ठता-ग्रंथि से पीड़ित।
यह पूर्वग्रह तोड़ने में इस छोटी-सी उपन्यासिका का हाथ भी है जिसे एम.ए. में हिन्दी माध्यम के छात्रों को ग़ुलाम वंश और उसके बाद का इतिहास पढ़ाने वाली मेरी शिक्षक, ललिता चतुर्वेदी ने यह कहकर हमें पढ़वाया था कि इससे उस समय का जनजीवन और बाद का सूफ़ी मानस समझने में हमको मदद मिलेगी। कश्मीर के आतंकी विस्फोट में मैंने अपना पत्रकार पिता खोया है, यह बात उन्हें पता थी। शायद इस कारण इस बात पर उनका ज़ोर ज़रा ज़्यादा था कि मेरा मुस्लिम-पूर्वग्रह धुले और मैं एम.फिल. का डिसर्टेशन भी अमीर ख़ुसरो पर ही जमा करूँ जिसे लिखने में पूरी मदद करेगी मुजफ़्फरपुर के खड्गविलास प्रेस से 1970 में छपी, उनके ही पिता की लिखी यह उपन्यासिका जो उन्होंने एम.ए. की परीक्षा के तुरत बाद और शिमला शोध संस्थान की अपनी फ़ेलोशिप पर जाने के ठीक पहले इस चिट्ठी के साथ डाक से भेजी थी -
आज मैंने तुम्हारी आँखों से बग़दाद देखा, पुराना बग़दाद — हमाम, मस्जिदें, बग़ीचे और मीना बाज़ार। जिन दिनों तुम पहली बार 'अमीर ख़ुसरो' पढ़ रही थीं, तुम्हारी आँखों में सूफ़ियों का मध्य एशिया एक नशीला धुआँ बनकर छाया रहता था। तब मैं कहाँ जानता था कि कभी मैं इस स्थिति में भी आ पाऊँगा कि तुम्हें सूफ़ियों की पुरानी दुनिया दिखाने को बुला सकूँ।
पश्चिम केन्द्रित जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, उसके अनुसार तो सभ्यता की प्रगति कुछ ऐसे हुई कि प्राचीन यूनान के गर्भ से रोम जन्मा, रोम के गर्भ से ईसाई यूरोप, ईसाई यूरोप से जन्मा रिनांसां, रिनांसां से एनलाइटेनमेंट या प्रबोधन, एनलाइटेनमेंट से जनतंत्र जनमा और औद्योगिक क्रान्ति जनमी —दोनों परवान चढ़े अमरीका में जो मानवाधिकारों की स्वस्थ-प्रसन्न लीलाभूमि या डिज़्नीलैंड के रूप में दुनिया के आगे नमूदार है।
बचपन तो मेरा ग़रीबी में बीता, घर में किताबें नहीं थीं, पर मेरे बाबा ने चौदहवें जन्मदिन पर मुझे एक एटलस दिया था। दिन-भर मैं उसे घुमाता रहता और सोचता रहता कि कैसी होंगी वे जगहें—इतिहास की सब किताबें दो-एक शब्दों में जिन्हें समेट लेती हैं कि वे जालिम लड़ाइयों और मूर्ख ऐयाशियों के बीच झूलते क़बीलाई लोगों का गढ़ थीं?...कॉलेज के दिनों में और फिर यूपीएसई की तैयारी के वक़्त भी कॉन्सतान्तिनिपोल, अफ़गानिस्तान, क़ज़ाकिस्तान, उजबेगिस्तान, ईरान, इराक़ वग़ैरह तीर्थयात्रियों और योद्धाओं, घुमन्तू जातियों और व्यापारियों द्वारा फैलाए गए अजीबोग़रीब किस्से से छनकर मेरे पास आए।
पर अब जब अपनी आँखों से समरकंद देख रहा हूँ, और उनके भग्नावशेषों में दर्ज़ अनुगूँजें भी अपने कानों सुन रहा हूँ, उनके बुज़ुर्गों की स्मृतियों और उन लोकगाथाओं में बची अर्थच्छायाएँ समझने की कोशिश कर रहा हूँ—एक अलग तरह का इतिहास-बोध मेरे भीतर दमक रहा है। उनकी रणनीतियाँ, उनका विवेक-कोष, उनकी मजबूरियाँ समझे बिना कोई उन पर शासन-प्रशासन कैसे करे, कैसे उन कूटनीतियों का मर्म समझे?
सिल्क-रूट पर जो रेशमी और नक़्काशीदार संस्कृतियाँ पनपीं, उनके पीछे संघर्ष का घना इतिहास भी है, पर पण्यों के साथ विचारों, रवायतों, किताबों और मजहबों की गुफ़तगू-सी जो सम्भव हुई, उसी में राज़ छिपा है इनके उत्कर्ष का। पर हर उत्कर्ष का एक अपकर्ष भी होता है! जुड़वाँ ही जनमते हैं धु्रवान्त। अमीर ख़ुसरो के थोड़े ही दिन बाद क्रिस्टोफ़र कोलम्बस और फिर वॉस्कोडिगामा के साहसिक अभियानों ने एक अलग तरह के लेन-देन का सिलसिला शुरू किया जिसमें सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गंध नहीं थी—एक मद-सा था संस्कृति पर हावी हो जाने का। सूफ़ियों ने सांस्कृतिक संवाद का जो सिलसिला क़ायम किया था, इस्लाम और ईसाइयत के बीच वर्षों तक चलने वाले उस धर्मयुद्ध ने उसकी चूलें हिलाकर रख दीं। जो दूसरी तरह का है, दुश्मन है, यह धारणा यूरोप एक लम्बे समय तक फैलाता रहा। अतीत भविष्य के और लोकशास्त्र के गले मिले, यह ज़रूरी है। ज़रूरी है कि दुनिया की सारी ज़ुबानों के शब्द मुल्कों और मज़हबों के बीच की सरहदें मिटाते हुए सूफ़ी जत्थों की तरह आपस में दुआ-सलाम करते दिखाई दें। आसमान में सात चाँद एक साथ ही मुस्कुराएँ।
यह ईमेल पढ़कर अभी ख़त्म ही किया था कि दरवाज़े पर हाथ बाँधकर खड़े नफ़ीस दिखाई दिए :
'किताबें पढ़ती हुई तुम मुझे छोड़कर कहाँ चली जाती हो? किताबें तुम्हें अपने आगोश में लिये-दिये जाने कहाँ निकाल ले जाती हैं...चार बार लौटा हूँ दरवाज़े से, ऐसी मगन थीं कि हिम्मत न हुई तुम्हारा ध्यान तोड़ने की...।' मुस्कुराकर कहा और वर्तमान की गीली मिट्टी से फिर मेरे पाँव उखड़ने लगे। इनकी इस मुस्कान में भी चंद्रहास की रहस्यमयता है—लीन कर लेने वाली रहस्यमयता।
एक बार जी में आया कि कह दूँ : उपन्यास तो घंटे-भर पहले ही ख़त्म किया था। घंटे-भर से सिद्धू के मेल और वॉट्सऐप—सन्देशों में उलझी हूँ, पर कुछ सोचकर चुप रह गई। नफ़ीस ने कुछ देर मेरा प्लास्टर जाँचा, फिर मेरे लिए चाय बनाई—मेरी पसन्दीदा नीबू चाय और घड़ी देखते हुए क्लिनिक की ओर रवाना हो गए। मैंने फिर से अमीर ख़ुसरो वाला आख्यान हाथ में उठाया और इधर-उधर से पलटने लगी। पिछले पन्नों में कहीं दबी ललिता दी की वह चिट्ठी भी दुबारा-तिबारा पढ़ी जो आज से चार बरस पहले इस आख्यान के साथ उन्होंने भेजी थी।
पिछले कई हफ़्तों से बिस्तर पर हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सिर्फ़ छत ताका करना, छत ताकते-ताकते एक अनजान परिवेश में इतने महीने गुज़ार देना आसान नहीं था, इसलिए मैंने ऐसी खिड़की चुनी जिसके पास लेटकर बाहर के ख़ुशनुमा बग़ीचे का कुछ तो आभास मिलता : आती-जाती तितलियाँ, बदलते मौसम, घटता-बढ़ता चाँद, सूर्योदय-सूर्यास्त के पचपन कलेवर, तरह-तरह के पक्षी और गिलहरियाँ! जगह कोई भी हो, ये चिर-परिचित ही दिखाई देते हैं—वही चेहरा, वही तेवर। आदमी के चेहरे और आदमी के तेवर—किसी जगह में अजनबियत घोलने के लिए प्रकृति इनका ही उपयोग करती है।
मेरी ये बातें सुनकर आपको ऐसा लग रहा होगा कि ये शहर मेरे लिए नया है और किसी लम्बी बीमारी की शिकार होकर मैं यहाँ बिस्तर पर पड़ी हूँ। नहीं, ऐसा नहीं है। पाँव में फ्रैक्चर हुआ है जब से, मैं यहाँ बैठे-बैठे ही लिखने-पढ़ने का कुछ काम देख लेती हूँ और जहाँ मैं हूँ—वह मेरे शौहर, डॉ. नफ़ीस हैदर की पुश्तैनी हवेली है जिसके निचले हिस्से में इनकी क्लिनिक है और इनके अब्बू का खोला हुआ ऐसे बच्चों का आवासीय विद्यालय, जो परितप्त समूहों से आए हैं। हमारी आर्थिक स्थिति अब इतनी भी अच्छी नहीं कि हम एक बार में ग्यारह से ज़्यादा बच्चे हॉस्टल में रख पाएँ। दो बड़े हॉल हैं, उनमें लड़के रह लेते हैं और लड़कियों के रहने का इन्तज़ाम उस 'मातृसदन' में है जहाँ कुछ ऐसी औरतें रहती हैं जिनका जीवन किसी कारण पटरी से उतर गया और जो स्वयं को दुबारा गढ़ रही हैं। उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने में जो मदद चाहिए होती है, वे कुछ संस्थाएँ कर देती हैं। इसका इन्तज़ाम हमने दौड़-धूप करके कर दिया है। जब तक वे यहाँ रहती हैं, ख़ुशी-ख़ुशी वे इन बच्चों की देखभाल कर लेती हैं। कुछ अवकाशप्राप्त लोग हैं—उनमें से ज़्यादातर नफ़ीस के मरीज़ भी रहे हैं—वे भी बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर उन्हें एक परिवार में होने का सुख दे देते हैं।
मेरे ससुर इप्टा के उतरते दौर के बड़े नाट्य-निर्देशक थे जिन्होंने कुछ फ़िल्में बनाने की कोशिश में बहुतेरे साल मुम्बई को दिये, फिर कुछ ऐसा घटा कि सब छोड़-छाड़कर उन्होंने फ़कीरों का जीवन जिया इधर-उधर। बाप ने उन्हें तो बेदख़ल कर रखा था पर पोते में उनके प्राण बसते थे। नफीस का स्कूल पूरा होते ही वे उन्हें मुम्बई से दिल्ली उठा लाए और उनकी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई यहीं हुई।
मेरी बोली-बानी से आपको यह तो समझ में आ ही गया होगा कि मैं दिल्ली की नहीं हूँ और उर्दू मेरी मादरी ज़बान नहीं है। मैं एक जैन परिवार में जन्मी और पली-बढ़ी। मेरे पिता पटना से निकलने वाले एक हिन्दी अख़बार में पत्रकार थे। मैं आठ बरस की थी—रिपोर्टिंग के सिलसिले में इनका कश्मीर जाना हुआ, वहीं एक बम-बिस्फोट में इनकी जान गई और हमारा परिवार तितर-बितर हो गया।
बहुत कुछ सहा, कई तरह के हादसे देखे, बहुत मुश्किलों से माँ ने पाला। पटना से दिल्ली पढ़ने आई। यहीं मेरी मुलाक़ात नफ़ीस से हुई, उसके परिवार के अन्य सदस्यों और पूरे मुस्लिम परिदृश्य से जिससे यह पूर्वग्रह टूटा कि मुसलमान कट्टर ही होते हैं—एक ख़ास तरह की श्रेष्ठता-ग्रंथि से पीड़ित।
यह पूर्वग्रह तोड़ने में इस छोटी-सी उपन्यासिका का हाथ भी है जिसे एम.ए. में हिन्दी माध्यम के छात्रों को ग़ुलाम वंश और उसके बाद का इतिहास पढ़ाने वाली मेरी शिक्षक, ललिता चतुर्वेदी ने यह कहकर हमें पढ़वाया था कि इससे उस समय का जनजीवन और बाद का सूफ़ी मानस समझने में हमको मदद मिलेगी। कश्मीर के आतंकी विस्फोट में मैंने अपना पत्रकार पिता खोया है, यह बात उन्हें पता थी। शायद इस कारण इस बात पर उनका ज़ोर ज़रा ज़्यादा था कि मेरा मुस्लिम-पूर्वग्रह धुले और मैं एम.फिल. का डिसर्टेशन भी अमीर ख़ुसरो पर ही जमा करूँ जिसे लिखने में पूरी मदद करेगी मुजफ़्फरपुर के खड्गविलास प्रेस से 1970 में छपी, उनके ही पिता की लिखी यह उपन्यासिका जो उन्होंने एम.ए. की परीक्षा के तुरत बाद और शिमला शोध संस्थान की अपनी फ़ेलोशिप पर जाने के ठीक पहले इस चिट्ठी के साथ डाक से भेजी थी -
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