संजीव की कहानी 'सौ बार जनम लेंगे' | Sanjiv ki #Kahani '100 Bar Janam Lenge'


संजीव की कहानी 'सौ बार जनम लेंगे' 




एक किरदार जो हमारे आसपास होता है लेकिन हमें उसकी महत्ता नहीं दीखती. उस किसी किरदार की कहानी गढ़ना, एक रेखाचित्र खींच देना, उसे हमेशा के लिए शब्दों में ढाल देना एक कहानीकार का योगदान होता है. यह सवाल उठ सकता है कि कौन कहानीकार अपनी इस जिम्मेदारी को कितनी जिम्मेदारी से समझता और बरतता है. अलग-अलग पाठक अपने अलग-अलग जवाबों के साथ सामने आ सकते हैं. यह तय है कि उन पाठकों में कथाकार संजीव के पाठक, उनका नाम सबसे ऊपर के नामों में रखेंगे. हिंदी के बड़े कथाकार संजीव को आपने अगर नहीं पढ़ा है तो 'सौ बार जनम लेंगे' पढ़ने के बाद उम्मीद है कि आप मेरी कही बात से सहमत हों. क्योंकि कोशिश यही रहती है कि आपतक कुछ बहुत अच्छा पहुँचाया जा सके, जैसा भी हो बताइयेगा ...

आप सबको शिवरात्रि की बधाई.

भरत एस तिवारी
सम्पादक शब्दांकन 



सौ बार जनम लेंगे

— संजीव


खिंचा हुआ गंदुमी चेहरा, एक आँख चढ़ी हुई, एक सामान्य, औसत कद, हाथ-पांव की उभरी हुई शिराएं... उन्हें देखकर लगता है, वे किन्हीं पिछली लड़ाइयों के भटके हुए योद्धा हैं या ऐसे सिपाही जिसने जन्म लेने में देर कर दी, जन्म लेने से आज तक किसी अदृश्य घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में अदृश्य तलवार लिए युद्धभूमि में चले जा रहे हैं किन्हीं अदृश्य शत्रुओं का संहार करने के निमित्त. ... नाम रामफल!




रामफल को इनसानों की किस कैटेगरी में रखूं, इनसानों की या हैवानों की— आज तक समझ नहीं पाया।

इतना ‘हेकड़’ आदमी हमने देखा नहीं। कब क्या कर बैठे, कब किससे ‘रार’ मोल ले बैठे— कारण या अकारण कोई ठीक नहीं। कोई टोंकता तो पलटकर सवाल करते, ‘आखिर इसमें मेरा क्या कसूर?’ हम बच्चे पूछने का दुस्साहस करते तो कहते, ‘अभी बच्चे हो, बड़े होने पर समझोगे।’

हमारे गांव शहजादपुर में बंदरों की खान थी। जहां देखिए, वहीं बंदर कब किस फल या फसल पर टूट पड़ें, कोई ठीक नहीं। बंदरों से तबाह और धर्मप्राण गांव! उन्हें हनुमानजी मानकर कोई खदेड़ता नहीं। रामफल का पहला एनकाउंटर बानरों से हुआ ऐन उनके ब्याह के बखत गलती से खरबूजे बो दिए। बंदरों का ख्याल न रहा। अब दिन-रात उनकी रखवाली में लगे रहते। अमूमन गांवों में ब्याह शाम या रात को होते। बियाह जरूरी है कि खरबूजे? जवाब है खरबूजे। बियाह आगे पीछे होता रहेगा सो बिना लगन के रामफल की जिद पर उनका ब्याह हुआ ऐन दुपहरिया में वह भी रामफल ससुराल नहीं गए क्या तो टैम नहीं है उनकी पत्नी को ही लेकर आए ससुराल वाले। वह बैशाख का महीना था। सीमांत तप रहा था। कहते हैं ऐसी तपती जेठ-वैशाख की दुपहरिया में कोई मुरदा ही जन्म लेता है या ब्याह करता है, रामफल से बड़ा मुरदा भला कौन हो सकता है। लगन की बावत पूछने पर कहते, ‘सीता माई का बियाह तो सबसे उत्तम लगन में हुआ था कौन-सा दुःख नहीं झेला उन्होंने।’

रात को मेहरारू छेदहा डब्बा खोलकर उलट देतीं। दुइ चार सौ आ ही जाते कुछ फटे-कटे नोट भी। इधर बाजार के दो एम.बी.बी.एस, दो बी.एम.एस. और दस रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स, माने झोलाछाप डॉक्टरों का धंधा चौपट हो गया। अब वे सैलाइन भी चढ़ाने लगे, फोड़े फुंसी का ‘आपरेशन’ भी, चोट-चपेट की मरहम पट्टी और बाँस का फट्टा-वट्टा बांधकर इलाज भी।

जिद करके उंचास पर माड़ो (मंडप) गड़वाया था रामफल ने। विवाह में लोग चोर नजरों से दुल्हन को देखते हैं और रामफल देख रहे थे अपने खेत को जिसमें खरबूजे बोए थे उन्होंने। घंटे भर न बीते होंगे कि उन्हें चिलचिलाती दोपहरी में कुछ धब्बे उभरते दिखाई पड़े... नाइन ने भावी पति-पत्नी की गांठ बांधी थी- पत्नी की चादर (ओढ़नी) और रामफल का अंगौछा! रामफल ने देखा कि बंदरों का दल खरबूजे के खेत में आ गया है। फिर तो लोग ‘हां, हां’ कहकर रोकते रह गए और रामफल ‘यह जा, वह जा’ गांठ बंधी थी, सो दुल्हन भी घिसटा गई थोड़ी दूर तक।

एक तरफ रावण की तरह रामफल, दूसरी ओर बानरी सेना। नर-बानर के इस युद्ध में पहले तो रामफल हावी रहे फिर बंदरों ने उन्हें लिया खदेड़। शुकर था, गांव के लोग और बराती आ जुटे थे रामफल की सहायता के लिए। न आए होते तो क्या होता!

‘अरे लगन बीती जा रही है बेटा!’ पंडितजी चिंचियाये।

‘कहां की लगन? कैसी लगन?’ मुरहा के कौन मुंह लगे। पर यहां पंडित गलत थे और रामफल सही। खैर रामफल लौट आए। आते ही उन्होंने नाइन का इंतजार किए बिना खुद ही गांठ जोड़ते हुए दुलहिन से धीरे से पूछा, ‘हमारे चलते घिसटा गई न! ज्यादा चोट तो नहीं लगी?’

पत्नी ने तत्काल क्या कहा, नहीं मालूम लेकिन बाद में जवाब दिया एक बेटा, एक बेटी हो जाने के बाद, ‘मैं तो आज भी घिसटा ही रही हूं।’ रामफल की माई या तो गठिया के दर्द से कराहती रहती या अपनी इस बड़की पतोहू पर बड़बड़ाती रहती। छोटके बेटे सरवन कुमार और छोटकी पतोहू से उनकी एक न पटती। विवाह के अगले साल ही अलगा बिलगी हो गई। रामफल को मिले ढाई बीघे खेत और एक ‘देशी’ भैंस तथा एक बैल। रामफल दूसरे का साझा बैल लेकर खेती करते रहे। बाप पहले ही उनके ‘करतब’ से साधू होकर कहीं चले गए थे, आज तक न लौटे। रामफल माई को खोना नहीं चाहते थे सो उनकी गाली को भी आशीर्वाद मानकर उनकी सेवा करते रहे। शादी के इतने दिन बाद उस बार भी खरबूजा बोया था उन्होंने फिर इधर कुआर में इस बार दूसरे किसानों ने आलू बोई और रामफल ने गोभी। दोनों में घाटा।

लोग-बाग तंज कसते, ‘कहो रामफल खरबूजे और गोभी में तो मालामाल हो गए होंगे?’

रामफल खिंसियाई नजर से देखते।

‘इस साल क्या पलान है?’ कोई पूछता?

‘सोचते हैं इस साल मछरी पालेंगे- गांव के लोगों की इजाजत हो तब?’

‘पहले बानरों से इजाजत ले लो।’

‘ले लिया। बानर मछली नहीं खाते, खासकर यहां के।’

‘और हमलोग?’

‘आपलोगों से कुछ भी नहीं छूटता!’

रामाज्ञा पंडित मंद-मंद मुस्काते हैं, ‘अच्छा रामफल तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कहां तक हुई है बचवा?’

‘खींच-खांच के इंटर।’

‘खींच-खांच के...?’

‘हां पंडितजी, ऊ तो स्कूल के मास्टरों से पूछें। पहले तो फोर फेल रहे गदहिया गोल तक जानत के नाम से टुकारकर बोलावैं। हमही से छड़ी और साटा बनवा के हमही पर तोडैं। जान-बूझ के नंबर कम दें, चाहे फेल करें। कॉलेज में भी आपके भाई साहब तो प्रिंसिपल रहे पूछिए उनसे, एक दिन क्रोध में आकर लगे पीटने हम उही दिन से कहा, ‘महाराज पालागी’।

‘आपनि पढ़ाई रखो अपने पास।’

रामफल को याद आया, वे मदार और मेउड़ी का पात ढूंढ़ने आए थे, माई के बतास के लिए, खामखा अटक गए बतकही में।




इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस माई को कंधे पर बिठाकर कहां नहीं लिवा गए मगर रोग जस का तस। बस दो-चार दिन का फायदा, फिर दर्द लौट आवे। अब सवाल है, माई को पीठ या कंधे पर लाद कर ही क्यों, तो इसका सीधा-सा जवाब था, डॉक्टरों को दें, कि दवा-इंजेक्शन, की जांच-वांच को, कि रेल-बस का किराया-भाड़ा? बानरों को देखिए कैसे पेट-पीठ से चिपकाए इस डार से उस डार कूदते रहते हैं।’

रामफल बंदरों से रस्क करते मगर चलते ऊंट की तरह।

माई के इलाज के लिए क्या-क्या नहीं किया उन्होंने, झड़ाई, फुंकाई देहाती, आयुर्वेद, होमियोपैथी, एलोपैथी... सब। खंचिया भर-भर की किताबें और प्रेसक्रिप्सन और विज्ञापन बटोरे। पेट साफ करने, हड्डियों, खून और नसों को ठीक रखने से लेकर किड़नी, फेफड़ा, लीवर, जरूरी विटामिंस। नाम बदल-बदल कर वही दवाएं उन्होंने सारी ‘पैथी’ खंगाल डाली। एक बीघा खेत बंधक रखने और हजारों रुपये का कर्ज लादकर जब कंगाल होने की स्थिति आ गई तो कहा- ‘कौनहुं जतन देई नहिं जाना, ग्रसेसि न मोहिं कहा हनुमाना।’

बस सारी दवाओं को घोंटकर उन्होंने खुद डॉक्टरी का धंधा उठा लिया। आश्चर्य! माई ठीक होने लगीं। अपनी ही दवाओं और इलाज से उन्होंने मेहरारू और बच्चों को ठीक किया। अलग-बगल, पास-पड़ोस को ठीक किया। ‘डॉक्टर रामफल’ हो गए। सस्ते में ही इलाज पाने के लिए दरवाजे पर भीड़ जमने लगी।

मछरी का ‘जीरा’ डाल दिया नंबरदार की ‘गड़ही’ ठेके पर लेकर बरखा बीती, जाड़ा आया। इस बीच इलाहाबाद में कुंभ आ लगा और माई ने कुंभ में स्नान करने की इच्छा जाहिर कर दी। पत्नी एकबारगी चिढ़ गई, ‘वैसे, खेत में सुग्गा हड़ाने को कहूंगी तो देह पिरोने लगेगी, का वो गठिया-बनास है और कुंभ नहाने को फट-से तैयार! इतनी भीड़ में दब-दबा गईं तो और आफत। फिर एक ही बेटा तो नहीं पैदा किया आपने, आप छोटके बेटे सरवन कुमार से क्यों नहीं कहतीं? खाली नाम-ए के सरवण हैं?’

उधर श्रवण कुमार एक चुप तो हजार चुप। रामफल ने न सरवण कुमार का इंतजार किया, न किसी गाड़ी-वाड़ी का, चुपचाप माई को उठाकर ‘घोड़ाइयां’ ली और पीठ पर लादे चल पड़े— सत्तू पिसान लोटा-डोरी लेकर ‘कुंभ को’। ठंड भयंकर थी और अस्सी किलोमीटर की यात्रा पीठ पर चिपकाए-चिपकाए माई को नहवा ले आए। रामाज्ञा पंडित ने टिपोरी दागी ‘रामफल को बानर योनि में पैदा होना था, गलती से मानुष योनि में पैदा हो गया। ऐसे में आदमी तनिक सुस्ता लेता है, पर नहीं, घर आए तो माई को चौकी पर बैठाकर पहुंचे सीधे ‘गड़हिया’ पर। बेटा तेजप्रताप गड़ही के किनारे बैठकर किताब पढ़ रहे थे। बाप को हठात् आया देखकर हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए ‘बाबू, लगता है मछरी कोई चुरा ले गया।’ ऐं... रामफल का जी धक-सा रह गया?

‘तो तुम माई-पूत पहरा किस चीज का दे रहे थे?’ रामफल गुस्से से काफूर। पत्नी लौट आई थी, कहा, ‘ये लो, पांच दिन से रात-दिन हम माई-पूत रखवाली करते-करते ‘सती’ हो गए और उसका ये बख्सीस मिला?’

‘तो फिर मछरिया ले कौन गया?’

‘हम का जाने! अभी-अभी ‘सोखा’ के पास से आई रही हूं, पता लगाकर।

‘मुंह न झौंस दिया चोर का तो असल बाप की बिटिया नहीं।’

रामफल अत्यंत दुखी हो गए- पानी भी नहीं पिया: सीधे जा पहुंचे ब्लाक। वहां पता चला कि दो तरह की मछलियां वे ले गए थे, उनमें से एक तरह की मछली दूसरी तरह की मछली को खा गई होगी।’ चकरा गया सिर। अनाड़ी की तरह लगे ताकने, अब तक सुना था, मनई ही मनई को खाता है, अब भला बताओ, मछरी भी मछरी को खाने लगी!’

‘हुंह! बीछी का मंतर न जाने, सांप के मुंह में अंगुरी डारै! कभी मछरी पाले होते तो न जानते मछरी का हाल! तुमसे तो अच्छा है सरवन, खेती-बारी अधिया पर उठाकर बंबई जा रहा है और एक तुम हो, दुनिया के सब काम तुम्हीं अकेले कर डालोगे! अपने साथ-साथ हमें भी जोते रहोगे।’ ‘सकल करम करि थके गोसाई! अब आगे क्या करोगे बाबू?’ बेटे तेजप्रताप ने तंज किया।

‘डॉक्टरी से फुसरत मिले तब न सोचूं।’ झूठ नहीं कहा रामफल ने, वाकई डॉक्टर रामफल को ‘डागडरी’ से इन दिनों फुरसत नहीं मिलती। वे बने ‘डॉगडर’ तो पत्नी बनी डगडराइन और ‘नर्स’ और तेज प्रताप ‘कंपाउंडर’। पैसे एक न लेते। जो श्रद्धा हो उसी डब्बे में डाल दो, एक छेदहा डब्बा रख दिया उन्होंने। सीरियस रोगों को वे कहते, ‘लखनऊ, बनारस लेइ जाओ भैया, हमारे मान का नहीं है।’ लेकिन छोटे-मोटे सर्दी, बुखार, जरी, झरी, फोड़ा-फुंसी वगैरह तो उनका हाथ लगते ही छू मंतर।




रात को मेहरारू छेदहा डब्बा खोलकर उलट देतीं। दुइ चार सौ आ ही जाते कुछ फटे-कटे नोट भी। इधर बाजार के दो एम.बी.बी.एस, दो बी.एम.एस. और दस रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स, माने झोलाछाप डॉक्टरों का धंधा चौपट हो गया। अब वे सैलाइन भी चढ़ाने लगे, फोड़े फुंसी का ‘आपरेशन’ भी, चोट-चपेट की मरहम पट्टी और बाँस का फट्टा-वट्टा बांधकर इलाज भी।

दूसरी तरफ खेती गड़बड़ाने लगी, माई पर यथोचित ध्यान न देने से माई रुष्ट रहने लगीं। उनकी बड़बड़ाहट बढ़ती गई। जरा भी ध्यान हटता कि खटिया पर लिटाए गए सेलाइन के बोतलों वाले मरीजों का इलाज करने को ‘बंदर’ आ जुटते। एक बंदर को रामफल ने डंडे से मार दिया तो वह लंगड़ाने लगा और गांव की पंचायत में उन्हें पांच सौ का दंड भरना पड़ा। भला हनुमानजी को ऐसे मारा जाता है। ‘तो कैसे मारा जाता है?’ रामफल ने पूछा और बंदरों की वह ही उदास हो गए। तीन साल जाते न जाते घर में ‘गृह-कलेश’ इतना बढ़ गया कि रामफल हतबुद्ध हो जाते- ‘आखिर इसमें मेरा कसूर क्या है?’

गांव से उनका संबंध द्वंद्वात्मक था, दुश्मने जां भी वही जाने तमन्ना भी वही। लोग उनसे चिढ़ते भी थे और गांव में जब भी कोई समस्या अटकती तो सबसे अंत में रामफल की ही खोज होती। इधर शादियों में लड़कों द्वारा हीरों होंडा मोटरसाइकिलों की डिमांड बढ़ती जा रही थी। रामफल ने कई लड़कियों के बापों को यह कहकर मुक्ति दिलवाई कि लड़का मोटरसाइकिल चलाकर दिखा दे, तो उसकी डिमांड पर सोचा जाए। इस नुस्खे के निकष पर कइयों को मुक्ति दिलाई थी मगर एक बार खुद ऐसे फंसे कि मत पूछिए लड़के ने मोटरसाइकिल चला कर दिखा दी। अब तो लड़की के पिता के चेहरे पर हवाई उड़ने लगी पर रामफल तो रामफल थे। उन्होंने अपनी नई खरीदी मोटरसाइकिल उसे थमा दी। घर आए तो बंदरों की जगह अपने परिवार ने ही घेर लिया।

‘बेटा तेज प्रताप टुटही साइकिल से ‘कालेज’ जाता है और बाप ऐसा ‘दानवीर’ कि मोटरसाइकिल बांटता चलता है।’ डगडराइन ने ताना मारा।

‘डार से चूका बंदर और बात से चूका मनई।’ रामफल ने पत्नी को समझाना चाहा पर समझा न पाए। झांव-झांव बढ़ती गई तो गोजी उठा ली।

बाप की गोजी को लपककर पकड़ लिया बेटे ने, बोला, ‘बाबू, जैसे तुम्हारी माई तुम्हें पिराती हैं, वैसे मेरी माई भी मुझको पिराती हैं। खबरदार जो माई के ऊपर हाथ उठायेउ।’

रामफल ने बाइफोकल लेंस के पार से देखा, ‘तेजप्रताप बड़ा हो गया है, फिर झुक गया। रख दी गोजी। वह रामफल की पहली हार थी।

इधर रामफल ने लक्षित किया कि उनके दवाखाने पर पहले की तरह भीड़ नहीं जुटती। कई तो कतराने लगे थे। गौर किया तो पाया कि कुछ केस खराब हो गए थे। मगर रामफल का तर्क था, ऐसा किस अस्पताल में नहीं होता। धीरे-धीरे उनके ‘नर्सिंग होम’ की सारी खाटें खाली हो गईं। कैसे टोंटा पड़ गया अचानक मरीजों का? दूसरी तरफ ‘डगडराइन’ ने एक झौली कटी-फटी नोटों को लाकर उलट दिया उनके सामने,

‘इनका क्या करें?’

‘अरे बैंक भिजवा देती।’

‘बंक वाले ने कहा, इनको दाल में डाल कर ‘साग पड़वा’ बनाकर खा जाओ या बार कर ताप लो। नहीं चलेंगे।’

रामफल सोच में पड़ गए तो डगडराइन ने दूसरी समस्या रखी- ‘अम्मा का क्या करोगे?’ ‘क्या हुआ अम्मा को?’

‘तुम्हारी दवाई से फायदा नहीं हो रहा।’

‘आला-वाला लगा कर देखा, डायरी छान मारी। मेटासिन दे दें, कि ऐन्टी बायटिक चला दें कि पहले जांच करा लें 104.5 टेम्परेचर है।

ताबड़तोड़ पानी की पट्टी चढ़ाने लगे। बुखार उतरा और थोड़ी देर बाद फिर लौट आया।

रामफल ने माई को लखनऊ ले जाकर दिखाना तय किया। रास्ते भर सोचते रहे माई की सेहत के प्रति यह चूक कैसे हुई। पिछले दिनों शहजादपुर के एक अनावश्यक विवाद में जोश में आकर कूद पड़े थे। विवाद सनातनी था— आरक्षण का। सवर्ण एक तरफ थे असवर्ण दूसरी तरफ। अपनी आदत से बाज न आने वाले रामफल दोनों पक्षों से एक ही बात कहते— ‘आरक्षण जरूरी है, जो पिछड़ा है, उसे आरक्षण मिलना ही चाहिए। मगर, वहां एक ‘मगर’ बैठा है वो क्या कि वर्ण, वर्ग और लिंग- तीनों को ध्यान में रखकर आरक्षण हो।’ आप लिंग मिटा नहीं सकते, भगवान की बनाई चीज है, उसके बिन सृष्टि असंभव है, पर वर्ण और वर्ग दोनों को मिटा सकते हैं। ये भगवान की बनाई चीजें नहीं हैं। मैं एक लड़का लाता हूं, क्या आप बता पायेंगे यह किस जाति का है और इसकी मूल संपत्ति कितनी होगी? नहीं न। हां बाकी चीजें...। रामफल के बाल खिचड़ी हो गए, मूंछें पक गईं। एक अजीब किस्म का गांभीर्य छा गया था उन पर। रामफल की बातें किसी की समझ में नहीं आतीं। पीठ पीछे लोग बोलते, ‘साला पागल है।’

गांव भर से तीते हो गए रामफल। पवस्त भर से तीते हो गए रामफल।... और दूसरी ओर माई की तरफ पर्याप्त ध्यान न गया। दूसरे मरीजों की और भी पर्याप्त ध्यान न गया।

उजड़ गया नर्सिंग होम! मर गईं माई। खाट के पैताने बड़ी देर तक बैठकर रोते रहे रामफल।

इक्के-दुक्के लोग जुटने लगे। औरतें थी। डगडराइन विलाप करने लगीं। सांत्वना देने वाले सांत्वना दे रहे थे। रामफल ने हथेलियों से आँसू पोंछ डाले—

मुझको बरबादी का कोई गम नहीं,
गम है बरबादी का क्यों चर्चा हुआ...?

माई को नीचे उतारा गया। रामफल ने कथरी उलट दी—

‘अरे! दवाइयां ही दवाइयां बिछी थीं खाट पर कथरी के नीचे। उनके इस ज्ञान और सेवा का क्या मतलब...?’

रामफल ने माई को कंधे पर उठाया। लोग आशंकित। पता नहीं क्या करने वाला था वह सिरफिरा रामफल! चलते-चलते फावड़ा उठा लिया पीछे-पीछे गांव के स्त्री-पुरुष बच्चे-बच्चियों का हुजूम दौड़ता आ रहा था ‘हां-हां? यह क्या कर रहे हो? रोकती-टोंकती ढेरों आवाजें? माई को रख कर खेत में फावड़े से एक गड़हा बनाया और माई को उसमें लिटा दिया। मिट्टी से ‘माटी’ को तोपने के बाद सिर उठाया तो देखा गांव के स्त्री -पुरुष बच्चे उन्हें डर कर ताक रहे हैं। गांव के लोग गोजी लेकर घेरकर खड़े हो गए।

पंडितजी ने कहा, ‘बहुत अनीति सही हमने तुम्हारी रामफल बहुत लेकिन अब बर्दाश्त नहीं होता। तुमने हिंदू होकर मुसुरमानों की तरह कबर दे दी अपनी माई को?’

रामफल ने माटी की तरह झाड़ दिया आरोपों को। लगा, एक बार फिर घिर गए हैं बानरों से।

कोई दांत निकाल रहा है, कोई धमका रहा है, खड़े हो गए, ‘क्या गलत किया पंचों? क्या गलत किया? तुममें चाहे कोई हिंदू हो, चाहे मुसलमान, किसी ने फूंका, किसी ने गाड़ा, दिखती हैं किसी की माई कहीं?’

‘और तुम्हारी माई दिख रही हैं?’ रामाज्ञा पंडित ने तंज कसा।

‘दिखेंगी, दिखेंगी पंडित महराज। फूंक देते तो मर जातीं सदा-सदा के लिए। मैंने अपनी माई को जिंदा रखा है। क्या गलत किया? वह तब भी मेरे साथ थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी।’ इस झाल से उन्हें जल्दी निकलना था। अपनी वर्ग, वर्ण और लिंग वाली थ्योरी की मीटिंग रखी थी। थोड़े ही दिनों में यह थ्योरी जड़ पकड़ने लगी थी। ऊंची जाति के नौजवान भी यदा-कदा आने लगे थे उनके बीच अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए वे महंथ जैसे दिखते। उम्र की तरह विचार भी परिपक्व ही रहे थे। बड़े-बड़ों की बोलती बंद हो जाती।




रामफल के दुश्मनों की संख्या बढ़ती गई। रामाज्ञा पंडित तो सरेआम कहते—

‘नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाय भये सन्यासी।
ते बिप्रन सन पांव पुजावहिं, उभयलोक निज हाथ नसावहिं।’

माई के मरने के साल बीतते न बीतते इस युद्ध में वे शहीद हो गए। किसने मारा, कुछ पता नहीं। पत्नी और बेटे ने उनकी इच्छा के अनुरूप ही उन्हें भी उनकी माई के कदमों की ओर उसी खेत में गड़हा खोदकर सुला दिया। कोई ब्रह्मभोज और शुद्धि न रामलखन ने किया था, न उनका किया गया।

साल भर बाद सरवनकुमार अपने बाल-बच्चों के साथ गांव आए। उनके साथ झुकी कमर और पकी दाढ़ी मूंछों वाला एक अस्सी-पचासी साल का बूढ़ा भी था— उनका बाप। भादों का झापस लगा था। गौधुरिया का समय। निर्जन हो रहा था शहजादपुर। सरवन ने आते ही अपनी भौजाई से पूछा, ‘माई, भैया नहीं दिखलाई पड़ रहे?’

भौजाई के बेटे तेजस्वी से कहा, ‘इन्हें उनके पास ले जाओ। भेंट करा दो।’

गोधुरिया रक्ताभ हो रही थी, तेजस्वी उन्हें कहां लिवाये जा रहा था?

दादी और बाप की जगह जाकर खड़ा हो गया तेजस्वी।

‘कहां है माई और भैया?

‘ये रहे।’

‘वहां तरोई के पीले-पीले फूल के सिवा कहां कुछ था?

गजब की फसल होती है वहां, गजब की। रामफल जैसे लोग मरते नहीं। हजार-हजार आँखों से ताक रहे होते हैं मां-बेटे- कभी फूल बनकर, कभी पत्ते बनकर, कभी फल बनकर...।
सौ बार जनम लेंगे 
संजीव

खिंचा हुआ गंदुमी चेहरा, एक आँख चढ़ी हुई, एक सामान्य, औसत कद, हाथ-पांव की उभरी हुई शिराएं... उन्हें देखकर लगता है, वे किन्हीं पिछली लड़ाइयों के भटके हुए योद्धा हैं या ऐसे सिपाही जिसने जन्म लेने में देर कर दी, जन्म लेने से आज तक किसी अदृश्य घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में अदृश्य तलवार लिए युद्धभूमि में चले जा रहे हैं किन्हीं अदृश्य शत्रुओं का संहार करने के निमित्त. ... नाम रामफल!

रामफल को इनसानों की किस कैटेगरी में रखूं, इनसानों की या हैवानों की— आज तक समझ नहीं पाया।

इतना ‘हेकड़’ आदमी हमने देखा नहीं। कब क्या कर बैठे, कब किससे ‘रार’ मोल ले बैठे— कारण या अकारण कोई ठीक नहीं। कोई टोंकता तो पलटकर सवाल करते, ‘आखिर इसमें मेरा क्या कसूर?’ हम बच्चे पूछने का दुस्साहस करते तो कहते, ‘अभी बच्चे हो, बड़े होने पर समझोगे।’ 

हमारे गांव शहजादपुर में बंदरों की खान थी। जहां देखिए, वहीं बंदर कब किस फल या फसल पर टूट पड़ें, कोई ठीक नहीं। बंदरों से तबाह और धर्मप्राण गांव! उन्हें हनुमानजी मानकर कोई खदेड़ता नहीं। रामफल का पहला एनकाउंटर बानरों से हुआ ऐन उनके ब्याह के बखत गलती से खरबूजे बो दिए। बंदरों का ख्याल न रहा। अब दिन-रात उनकी रखवाली में लगे रहते। अमूमन गांवों में ब्याह शाम या रात को होते। बियाह जरूरी है कि खरबूजे? जवाब है खरबूजे। बियाह आगे पीछे होता रहेगा सो बिना लगन के रामफल की जिद पर उनका ब्याह हुआ ऐन दुपहरिया में वह भी रामफल ससुराल नहीं गए क्या तो टैम नहीं है उनकी पत्नी को ही लेकर आए ससुराल वाले। वह बैशाख का महीना था। सीमांत तप रहा था। कहते हैं ऐसी तपती जेठ-वैशाख की दुपहरिया में कोई मुरदा ही जन्म लेता है या ब्याह करता है, रामफल से बड़ा मुरदा भला कौन हो सकता है। लगन की बावत पूछने पर कहते, ‘सीता माई का बियाह तो सबसे उत्तम लगन में हुआ था कौन-सा दुःख नहीं झेला उन्होंने।’

जिद करके उंचास पर माड़ो (मंडप) गड़वाया था रामफल ने। विवाह में लोग चोर नजरों से दुल्हन को देखते हैं और रामफल देख रहे थे अपने खेत को जिसमें खरबूजे बोए थे उन्होंने। घंटे भर न बीते होंगे कि उन्हें चिलचिलाती दोपहरी में कुछ धब्बे उभरते दिखाई पड़े... नाइन ने भावी पति-पत्नी की गांठ बांधी थी- पत्नी की चादर (ओढ़नी) और रामफल का अंगौछा! रामफल ने देखा कि बंदरों का दल खरबूजे के खेत में आ गया है। फिर तो लोग ‘हां, हां’ कहकर रोकते रह गए और रामफल ‘यह जा, वह जा’ गांठ बंधी थी, सो दुल्हन भी घिसटा गई थोड़ी दूर तक।

एक तरफ रावण की तरह रामफल, दूसरी ओर बानरी सेना। नर-बानर के इस युद्ध में पहले तो रामफल हावी रहे फिर बंदरों ने उन्हें लिया खदेड़। शुकर था, गांव के लोग और बराती आ जुटे थे रामफल की सहायता के लिए। न आए होते तो क्या होता!

‘अरे लगन बीती जा रही है बेटा!’ पंडितजी चिंचियाये।

‘कहां की लगन? कैसी लगन?’ मुरहा के कौन मुंह लगे। पर यहां पंडित गलत थे और रामफल सही। खैर रामफल लौट आए। आते ही उन्होंने नाइन का इंतजार किए बिना खुद ही गांठ जोड़ते हुए दुलहिन से धीरे से पूछा, ‘हमारे चलते घिसटा गई न! ज्यादा चोट तो नहीं लगी?’

पत्नी ने तत्काल क्या कहा, नहीं मालूम लेकिन बाद में जवाब दिया एक बेटा, एक बेटी हो जाने के बाद, ‘मैं तो आज भी घिसटा ही रही हूं।’ रामफल की माई या तो गठिया के दर्द से कराहती रहती या अपनी इस बड़की पतोहू पर बड़बड़ाती रहती। छोटके बेटे सरवन कुमार और छोटकी पतोहू से उनकी एक न पटती। विवाह के अगले साल ही अलगा बिलगी हो गई। रामफल को मिले ढाई बीघे खेत और एक ‘देशी’ भैंस तथा एक बैल। रामफल दूसरे का साझा बैल लेकर खेती करते रहे। बाप पहले ही उनके ‘करतब’ से साधू होकर कहीं चले गए थे, आज तक न लौटे। रामफल माई को खोना नहीं चाहते थे सो उनकी गाली को भी आशीर्वाद मानकर उनकी सेवा करते रहे। शादी के इतने दिन बाद उस बार भी खरबूजा बोया था उन्होंने फिर इधर कुआर में इस बार दूसरे किसानों ने आलू बोई और रामफल ने गोभी। दोनों में घाटा।

लोग-बाग तंज कसते, ‘कहो रामफल खरबूजे और गोभी में तो मालामाल हो गए होंगे?’

रामफल खिंसियाई नजर से देखते।

‘इस साल क्या पलान है?’ कोई पूछता?

‘सोचते हैं इस साल मछरी पालेंगे- गांव के लोगों की इजाजत हो तब?’

‘पहले बानरों से इजाजत ले लो।’

‘ले लिया। बानर मछली नहीं खाते, खासकर यहां के।’

‘और हमलोग?’

‘आपलोगों से कुछ भी नहीं छूटता!’

रामाज्ञा पंडित मंद-मंद मुस्काते हैं, ‘अच्छा रामफल तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कहां तक हुई है बचवा?’

‘खींच-खांच के इंटर।’

‘खींच-खांच के...?’

‘हां पंडितजी, ऊ तो स्कूल के मास्टरों से पूछें। पहले तो फोर फेल रहे गदहिया गोल तक जानत के नाम से टुकारकर बोलावैं। हमही से छड़ी और साटा बनवा के हमही पर तोडैं। जान-बूझ के नंबर कम दें, चाहे फेल करें। कॉलेज में भी आपके भाई साहब तो प्रिंसिपल रहे पूछिए उनसे, एक दिन क्रोध में आकर लगे पीटने हम उही दिन से कहा, ‘महाराज पालागी’।

‘आपनि पढ़ाई रखो अपने पास।’

रामफल को याद आया, वे मदार और मेउड़ी का पात ढूंढ़ने आए थे, माई के बतास के लिए, खामखा अटक गए बतकही में।

इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस माई को कंधे पर बिठाकर कहां नहीं लिवा गए मगर रोग जस का तस। बस दो-चार दिन का फायदा, फिर दर्द लौट आवे। अब सवाल है, माई को पीठ या कंधे पर लाद कर ही क्यों, तो इसका सीधा-सा जवाब था, डॉक्टरों को दें, कि दवा-इंजेक्शन, की जांच-वांच को, कि रेल-बस का किराया-भाड़ा? बानरों को देखिए कैसे पेट-पीठ से चिपकाए इस डार से उस डार कूदते रहते हैं।’

रामफल बंदरों से रस्क करते मगर चलते ऊंट की तरह।

माई के इलाज के लिए क्या-क्या नहीं किया उन्होंने, झड़ाई, फुंकाई देहाती, आयुर्वेद, होमियोपैथी, एलोपैथी... सब। खंचिया भर-भर की किताबें और प्रेसक्रिप्सन और विज्ञापन बटोरे। पेट साफ करने, हड्डियों, खून और नसों को ठीक रखने से लेकर किड़नी, फेफड़ा, लीवर, जरूरी विटामिंस। नाम बदल-बदल कर वही दवाएं उन्होंने सारी ‘पैथी’ खंगाल डाली। एक बीघा खेत बंधक रखने और हजारों रुपये का कर्ज लादकर जब कंगाल होने की स्थिति आ गई तो कहा- ‘कौनहुं जतन देई नहिं जाना, ग्रसेसि न मोहिं कहा हनुमाना।’

बस सारी दवाओं को घोंटकर उन्होंने खुद डॉक्टरी का धंधा उठा लिया। आश्चर्य! माई ठीक होने लगीं। अपनी ही दवाओं और इलाज से उन्होंने मेहरारू और बच्चों को ठीक किया। अलग-बगल, पास-पड़ोस को ठीक किया। ‘डॉक्टर रामफल’ हो गए। सस्ते में ही इलाज पाने के लिए दरवाजे पर भीड़ जमने लगी।

मछरी का ‘जीरा’ डाल दिया नंबरदार की ‘गड़ही’ ठेके पर लेकर बरखा बीती, जाड़ा आया। इस बीच इलाहाबाद में कुंभ आ लगा और माई ने कुंभ में स्नान करने की इच्छा जाहिर कर दी। पत्नी एकबारगी चिढ़ गई, ‘वैसे, खेत में सुग्गा हड़ाने को कहूंगी तो देह पिरोने लगेगी, का वो गठिया-बनास है और कुंभ नहाने को फट-से तैयार! इतनी भीड़ में दब-दबा गईं तो और आफत। फिर एक ही बेटा तो नहीं पैदा किया आपने, आप छोटके बेटे सरवन कुमार से क्यों नहीं कहतीं? खाली नाम-ए के सरवण हैं?’

उधर श्रवण कुमार एक चुप तो हजार चुप। रामफल ने न सरवण कुमार का इंतजार किया, न किसी गाड़ी-वाड़ी का, चुपचाप माई को उठाकर ‘घोड़ाइयां’ ली और पीठ पर लादे चल पड़े— सत्तू पिसान लोटा-डोरी लेकर ‘कुंभ को’। ठंड भयंकर थी और अस्सी किलोमीटर की यात्रा पीठ पर चिपकाए-चिपकाए माई को नहवा ले आए। रामाज्ञा पंडित ने टिपोरी दागी ‘रामफल को बानर योनि में पैदा होना था, गलती से मानुष योनि में पैदा हो गया। ऐसे में आदमी तनिक सुस्ता लेता है, पर नहीं, घर आए तो माई को चौकी पर बैठाकर पहुंचे सीधे ‘गड़हिया’ पर। बेटा तेजप्रताप गड़ही के किनारे बैठकर किताब पढ़ रहे थे। बाप को हठात् आया देखकर हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए ‘बाबू, लगता है मछरी कोई चुरा ले गया।’ ऐं... रामफल का जी धक-सा रह गया?

‘तो तुम माई-पूत पहरा किस चीज का दे रहे थे?’ रामफल गुस्से से काफूर। पत्नी लौट आई थी, कहा, ‘ये लो, पांच दिन से रात-दिन हम माई-पूत रखवाली करते-करते ‘सती’ हो गए और उसका ये बख्सीस मिला?’

‘तो फिर मछरिया ले कौन गया?’

‘हम का जाने! अभी-अभी ‘सोखा’ के पास से आई रही हूं, पता लगाकर।

‘मुंह न झौंस दिया चोर का तो असल बाप की बिटिया नहीं।’

रामफल अत्यंत दुखी हो गए- पानी भी नहीं पिया: सीधे जा पहुंचे ब्लाक। वहां पता चला कि दो तरह की मछलियां वे ले गए थे, उनमें से एक तरह की मछली दूसरी तरह की मछली को खा गई होगी।’ चकरा गया सिर। अनाड़ी की तरह लगे ताकने, अब तक सुना था, मनई ही मनई को खाता है, अब भला बताओ, मछरी भी मछरी को खाने लगी!’

‘हुंह! बीछी का मंतर न जाने, सांप के मुंह में अंगुरी डारै! कभी मछरी पाले होते तो न जानते मछरी का हाल! तुमसे तो अच्छा है सरवन, खेती-बारी अधिया पर उठाकर बंबई जा रहा है और एक तुम हो, दुनिया के सब काम तुम्हीं अकेले कर डालोगे! अपने साथ-साथ हमें भी जोते रहोगे।’ ‘सकल करम करि थके गोसाई! अब आगे क्या करोगे बाबू?’ बेटे तेजप्रताप ने तंज किया।

‘डॉक्टरी से फुसरत मिले तब न सोचूं।’ झूठ नहीं कहा रामफल ने, वाकई डॉक्टर रामफल को ‘डागडरी’ से इन दिनों फुरसत नहीं मिलती। वे बने ‘डॉगडर’ तो पत्नी बनी डगडराइन और ‘नर्स’ और तेज प्रताप ‘कंपाउंडर’। पैसे एक न लेते। जो श्रद्धा हो उसी डब्बे में डाल दो, एक छेदहा डब्बा रख दिया उन्होंने। सीरियस रोगों को वे कहते, ‘लखनऊ, बनारस लेइ जाओ भैया, हमारे मान का नहीं है।’ लेकिन छोटे-मोटे सर्दी, बुखार, जरी, झरी, फोड़ा-फुंसी वगैरह तो उनका हाथ लगते ही छू मंतर।

रात को मेहरारू छेदहा डब्बा खोलकर उलट देतीं। दुइ चार सौ आ ही जाते कुछ फटे-कटे नोट भी। इधर बाजार के दो एम.बी.बी.एस, दो बी.एम.एस. और दस रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स, माने झोलाछाप डॉक्टरों का धंधा चौपट हो गया। अब वे सैलाइन भी चढ़ाने लगे, फोड़े फुंसी का ‘आपरेशन’ भी, चोट-चपेट की मरहम पट्टी और बाँस का फट्टा-वट्टा बांधकर इलाज भी।

दूसरी तरफ खेती गड़बड़ाने लगी, माई पर यथोचित ध्यान न देने से माई रुष्ट रहने लगीं। उनकी बड़बड़ाहट बढ़ती गई। जरा भी ध्यान हटता कि खटिया पर लिटाए गए सेलाइन के बोतलों वाले मरीजों का इलाज करने को ‘बंदर’ आ जुटते। एक बंदर को रामफल ने डंडे से मार दिया तो वह लंगड़ाने लगा और गांव की पंचायत में उन्हें पांच सौ का दंड भरना पड़ा। भला हनुमानजी को ऐसे मारा जाता है। ‘तो कैसे मारा जाता है?’ रामफल ने पूछा और बंदरों की वह ही उदास हो गए। तीन साल जाते न जाते घर में ‘गृह-कलेश’ इतना बढ़ गया कि रामफल हतबुद्ध हो जाते- ‘आखिर इसमें मेरा कसूर क्या है?’

गांव से उनका संबंध द्वंद्वात्मक था, दुश्मने जां भी वही जाने तमन्ना भी वही। लोग उनसे चिढ़ते भी थे और गांव में जब भी कोई समस्या अटकती तो सबसे अंत में रामफल की ही खोज होती। इधर शादियों में लड़कों द्वारा हीरों होंडा मोटरसाइकिलों की डिमांड बढ़ती जा रही थी। रामफल ने कई लड़कियों के बापों को यह कहकर मुक्ति दिलवाई कि लड़का मोटरसाइकिल चलाकर दिखा दे, तो उसकी डिमांड पर सोचा जाए। इस नुस्खे के निकष पर कइयों को मुक्ति दिलाई थी मगर एक बार खुद ऐसे फंसे कि मत पूछिए लड़के ने मोटरसाइकिल चला कर दिखा दी। अब तो लड़की के पिता के चेहरे पर हवाई उड़ने लगी पर रामफल तो रामफल थे। उन्होंने अपनी नई खरीदी मोटरसाइकिल उसे थमा दी। घर आए तो बंदरों की जगह अपने परिवार ने ही घेर लिया।

‘बेटा तेज प्रताप टुटही साइकिल से ‘कालेज’ जाता है और बाप ऐसा ‘दानवीर’ कि मोटरसाइकिल बांटता चलता है।’ डगडराइन ने ताना मारा।



‘डार से चूका बंदर और बात से चूका मनई।’ रामफल ने पत्नी को समझाना चाहा पर समझा न पाए। झांव-झांव बढ़ती गई तो गोजी उठा ली।

बाप की गोजी को लपककर पकड़ लिया बेटे ने, बोला, ‘बाबू, जैसे तुम्हारी माई तुम्हें पिराती हैं, वैसे मेरी माई भी मुझको पिराती हैं। खबरदार जो माई के ऊपर हाथ उठायेउ।’

रामफल ने बाइफोकल लेंस के पार से देखा, ‘तेजप्रताप बड़ा हो गया है, फिर झुक गया। रख दी गोजी। वह रामफल की पहली हार थी।

इधर रामफल ने लक्षित किया कि उनके दवाखाने पर पहले की तरह भीड़ नहीं जुटती। कई तो कतराने लगे थे। गौर किया तो पाया कि कुछ केस खराब हो गए थे। मगर रामफल का तर्क था, ऐसा किस अस्पताल में नहीं होता। धीरे-धीरे उनके ‘नर्सिंग होम’ की सारी खाटें खाली हो गईं। कैसे टोंटा पड़ गया अचानक मरीजों का? दूसरी तरफ ‘डगडराइन’ ने एक झौली कटी-फटी नोटों को लाकर उलट दिया उनके सामने,

‘इनका क्या करें?’

‘अरे बैंक भिजवा देती।’

‘बंक वाले ने कहा, इनको दाल में डाल कर ‘साग पड़वा’ बनाकर खा जाओ या बार कर ताप लो। नहीं चलेंगे।’

रामफल सोच में पड़ गए तो डगडराइन ने दूसरी समस्या रखी- ‘अम्मा का क्या करोगे?’ ‘क्या हुआ अम्मा को?’

‘तुम्हारी दवाई से फायदा नहीं हो रहा।’

‘आला-वाला लगा कर देखा, डायरी छान मारी। मेटासिन दे दें, कि ऐन्टी बायटिक चला दें कि पहले जांच करा लें 104.5 टेम्परेचर है।

ताबड़तोड़ पानी की पट्टी चढ़ाने लगे। बुखार उतरा और थोड़ी देर बाद फिर लौट आया।

रामफल ने माई को लखनऊ ले जाकर दिखाना तय किया। रास्ते भर सोचते रहे माई की सेहत के प्रति यह चूक कैसे हुई। पिछले दिनों शहजादपुर के एक अनावश्यक विवाद में जोश में आकर कूद पड़े थे। विवाद सनातनी था— आरक्षण का। सवर्ण एक तरफ थे असवर्ण दूसरी तरफ। अपनी आदत से बाज न आने वाले रामफल दोनों पक्षों से एक ही बात कहते— ‘आरक्षण जरूरी है, जो पिछड़ा है, उसे आरक्षण मिलना ही चाहिए। मगर, वहां एक ‘मगर’ बैठा है वो क्या कि वर्ण, वर्ग और लिंग- तीनों को ध्यान में रखकर आरक्षण हो।’ आप लिंग मिटा नहीं सकते, भगवान की बनाई चीज है, उसके बिन सृष्टि असंभव है, पर वर्ण और वर्ग दोनों को मिटा सकते हैं। ये भगवान की बनाई चीजें नहीं हैं। मैं एक लड़का लाता हूं, क्या आप बता पायेंगे यह किस जाति का है और इसकी मूल संपत्ति कितनी होगी? नहीं न। हां बाकी चीजें...। रामफल के बाल खिचड़ी हो गए, मूंछें पक गईं। एक अजीब किस्म का गांभीर्य छा गया था उन पर। रामफल की बातें किसी की समझ में नहीं आतीं। पीठ पीछे लोग बोलते, ‘साला पागल है।’

गांव भर से तीते हो गए रामफल। पवस्त भर से तीते हो गए रामफल।... और दूसरी ओर माई की तरफ पर्याप्त ध्यान न गया। दूसरे मरीजों की और भी पर्याप्त ध्यान न गया।

उजड़ गया नर्सिंग होम! मर गईं माई। खाट के पैताने बड़ी देर तक बैठकर रोते रहे रामफल।

इक्के-दुक्के लोग जुटने लगे। औरतें थी। डगडराइन विलाप करने लगीं। सांत्वना देने वाले सांत्वना दे रहे थे। रामफल ने हथेलियों से आँसू पोंछ डाले—

मुझको बरबादी का कोई गम नहीं,
गम है बरबादी का क्यों चर्चा हुआ...?

माई को नीचे उतारा गया। रामफल ने कथरी उलट दी—

‘अरे! दवाइयां ही दवाइयां बिछी थीं खाट पर कथरी के नीचे। उनके इस ज्ञान और सेवा का क्या मतलब...?’

रामफल ने माई को कंधे पर उठाया। लोग आशंकित। पता नहीं क्या करने वाला था वह सिरफिरा रामफल! चलते-चलते फावड़ा उठा लिया पीछे-पीछे गांव के स्त्री-पुरुष बच्चे-बच्चियों का हुजूम दौड़ता आ रहा था ‘हां-हां? यह क्या कर रहे हो? रोकती-टोंकती ढेरों आवाजें? माई को रख कर खेत में फावड़े से एक गड़हा बनाया और माई को उसमें लिटा दिया। मिट्टी से ‘माटी’ को तोपने के बाद सिर उठाया तो देखा गांव के स्त्री -पुरुष बच्चे उन्हें डर कर ताक रहे हैं। गांव के लोग गोजी लेकर घेरकर खड़े हो गए।

पंडितजी ने कहा, ‘बहुत अनीति सही हमने तुम्हारी रामफल बहुत लेकिन अब बर्दाश्त नहीं होता। तुमने हिंदू होकर मुसुरमानों की तरह कबर दे दी अपनी माई को?’

रामफल ने माटी की तरह झाड़ दिया आरोपों को। लगा, एक बार फिर घिर गए हैं बानरों से।

कोई दांत निकाल रहा है, कोई धमका रहा है, खड़े हो गए, ‘क्या गलत किया पंचों? क्या गलत किया? तुममें चाहे कोई हिंदू हो, चाहे मुसलमान, किसी ने फूंका, किसी ने गाड़ा, दिखती हैं किसी की माई कहीं?’

‘और तुम्हारी माई दिख रही हैं?’ रामाज्ञा पंडित ने तंज कसा।

‘दिखेंगी, दिखेंगी पंडित महराज। फूंक देते तो मर जातीं सदा-सदा के लिए। मैंने अपनी माई को जिंदा रखा है। क्या गलत किया? वह तब भी मेरे साथ थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी।’ इस झाल से उन्हें जल्दी निकलना था। अपनी वर्ग, वर्ण और लिंग वाली थ्योरी की मीटिंग रखी थी। थोड़े ही दिनों में यह थ्योरी जड़ पकड़ने लगी थी। ऊंची जाति के नौजवान भी यदा-कदा आने लगे थे उनके बीच अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए वे महंथ जैसे दिखते। उम्र की तरह विचार भी परिपक्व ही रहे थे। बड़े-बड़ों की बोलती बंद हो जाती।

रामफल के दुश्मनों की संख्या बढ़ती गई। रामाज्ञा पंडित तो सरेआम कहते—

‘नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाय भये सन्यासी।
ते बिप्रन सन पांव पुजावहिं, उभयलोक निज हाथ नसावहिं।’

माई के मरने के साल बीतते न बीतते इस युद्ध में वे शहीद हो गए। किसने मारा, कुछ पता नहीं। पत्नी और बेटे ने उनकी इच्छा के अनुरूप ही उन्हें भी उनकी माई के कदमों की ओर उसी खेत में गड़हा खोदकर सुला दिया। कोई ब्रह्मभोज और शुद्धि न रामलखन ने किया था, न उनका किया गया।

साल भर बाद सरवनकुमार अपने बाल-बच्चों के साथ गांव आए। उनके साथ झुकी कमर और पकी दाढ़ी मूंछों वाला एक अस्सी-पचासी साल का बूढ़ा भी था— उनका बाप। भादों का झापस लगा था। गौधुरिया का समय। निर्जन हो रहा था शहजादपुर। सरवन ने आते ही अपनी भौजाई से पूछा, ‘माई, भैया नहीं दिखलाई पड़ रहे?’

भौजाई के बेटे तेजस्वी से कहा, ‘इन्हें उनके पास ले जाओ। भेंट करा दो।’

गोधुरिया रक्ताभ हो रही थी, तेजस्वी उन्हें कहां लिवाये जा रहा था?

दादी और बाप की जगह जाकर खड़ा हो गया तेजस्वी।

‘कहां है माई और भैया?

‘ये रहे।’

‘वहां तरोई के पीले-पीले फूल के सिवा कहां कुछ था?

गजब की फसल होती है वहां, गजब की। रामफल जैसे लोग मरते नहीं। हजार-हजार आँखों से ताक रहे होते हैं मां-बेटे- कभी फूल बनकर, कभी पत्ते बनकर, कभी फल बनकर...।
सौ बार जनम लेंगे 
संजीव

खिंचा हुआ गंदुमी चेहरा, एक आँख चढ़ी हुई, एक सामान्य, औसत कद, हाथ-पांव की उभरी हुई शिराएं... उन्हें देखकर लगता है, वे किन्हीं पिछली लड़ाइयों के भटके हुए योद्धा हैं या ऐसे सिपाही जिसने जन्म लेने में देर कर दी, जन्म लेने से आज तक किसी अदृश्य घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में अदृश्य तलवार लिए युद्धभूमि में चले जा रहे हैं किन्हीं अदृश्य शत्रुओं का संहार करने के निमित्त. ... नाम रामफल!

रामफल को इनसानों की किस कैटेगरी में रखूं, इनसानों की या हैवानों की— आज तक समझ नहीं पाया।

इतना ‘हेकड़’ आदमी हमने देखा नहीं। कब क्या कर बैठे, कब किससे ‘रार’ मोल ले बैठे— कारण या अकारण कोई ठीक नहीं। कोई टोंकता तो पलटकर सवाल करते, ‘आखिर इसमें मेरा क्या कसूर?’ हम बच्चे पूछने का दुस्साहस करते तो कहते, ‘अभी बच्चे हो, बड़े होने पर समझोगे।’ 

हमारे गांव शहजादपुर में बंदरों की खान थी। जहां देखिए, वहीं बंदर कब किस फल या फसल पर टूट पड़ें, कोई ठीक नहीं। बंदरों से तबाह और धर्मप्राण गांव! उन्हें हनुमानजी मानकर कोई खदेड़ता नहीं। रामफल का पहला एनकाउंटर बानरों से हुआ ऐन उनके ब्याह के बखत गलती से खरबूजे बो दिए। बंदरों का ख्याल न रहा। अब दिन-रात उनकी रखवाली में लगे रहते। अमूमन गांवों में ब्याह शाम या रात को होते। बियाह जरूरी है कि खरबूजे? जवाब है खरबूजे। बियाह आगे पीछे होता रहेगा सो बिना लगन के रामफल की जिद पर उनका ब्याह हुआ ऐन दुपहरिया में वह भी रामफल ससुराल नहीं गए क्या तो टैम नहीं है उनकी पत्नी को ही लेकर आए ससुराल वाले। वह बैशाख का महीना था। सीमांत तप रहा था। कहते हैं ऐसी तपती जेठ-वैशाख की दुपहरिया में कोई मुरदा ही जन्म लेता है या ब्याह करता है, रामफल से बड़ा मुरदा भला कौन हो सकता है। लगन की बावत पूछने पर कहते, ‘सीता माई का बियाह तो सबसे उत्तम लगन में हुआ था कौन-सा दुःख नहीं झेला उन्होंने।’

जिद करके उंचास पर माड़ो (मंडप) गड़वाया था रामफल ने। विवाह में लोग चोर नजरों से दुल्हन को देखते हैं और रामफल देख रहे थे अपने खेत को जिसमें खरबूजे बोए थे उन्होंने। घंटे भर न बीते होंगे कि उन्हें चिलचिलाती दोपहरी में कुछ धब्बे उभरते दिखाई पड़े... नाइन ने भावी पति-पत्नी की गांठ बांधी थी- पत्नी की चादर (ओढ़नी) और रामफल का अंगौछा! रामफल ने देखा कि बंदरों का दल खरबूजे के खेत में आ गया है। फिर तो लोग ‘हां, हां’ कहकर रोकते रह गए और रामफल ‘यह जा, वह जा’ गांठ बंधी थी, सो दुल्हन भी घिसटा गई थोड़ी दूर तक।

एक तरफ रावण की तरह रामफल, दूसरी ओर बानरी सेना। नर-बानर के इस युद्ध में पहले तो रामफल हावी रहे फिर बंदरों ने उन्हें लिया खदेड़। शुकर था, गांव के लोग और बराती आ जुटे थे रामफल की सहायता के लिए। न आए होते तो क्या होता!

‘अरे लगन बीती जा रही है बेटा!’ पंडितजी चिंचियाये।

‘कहां की लगन? कैसी लगन?’ मुरहा के कौन मुंह लगे। पर यहां पंडित गलत थे और रामफल सही। खैर रामफल लौट आए। आते ही उन्होंने नाइन का इंतजार किए बिना खुद ही गांठ जोड़ते हुए दुलहिन से धीरे से पूछा, ‘हमारे चलते घिसटा गई न! ज्यादा चोट तो नहीं लगी?’

पत्नी ने तत्काल क्या कहा, नहीं मालूम लेकिन बाद में जवाब दिया एक बेटा, एक बेटी हो जाने के बाद, ‘मैं तो आज भी घिसटा ही रही हूं।’ रामफल की माई या तो गठिया के दर्द से कराहती रहती या अपनी इस बड़की पतोहू पर बड़बड़ाती रहती। छोटके बेटे सरवन कुमार और छोटकी पतोहू से उनकी एक न पटती। विवाह के अगले साल ही अलगा बिलगी हो गई। रामफल को मिले ढाई बीघे खेत और एक ‘देशी’ भैंस तथा एक बैल। रामफल दूसरे का साझा बैल लेकर खेती करते रहे। बाप पहले ही उनके ‘करतब’ से साधू होकर कहीं चले गए थे, आज तक न लौटे। रामफल माई को खोना नहीं चाहते थे सो उनकी गाली को भी आशीर्वाद मानकर उनकी सेवा करते रहे। शादी के इतने दिन बाद उस बार भी खरबूजा बोया था उन्होंने फिर इधर कुआर में इस बार दूसरे किसानों ने आलू बोई और रामफल ने गोभी। दोनों में घाटा।

लोग-बाग तंज कसते, ‘कहो रामफल खरबूजे और गोभी में तो मालामाल हो गए होंगे?’

रामफल खिंसियाई नजर से देखते।

‘इस साल क्या पलान है?’ कोई पूछता?

‘सोचते हैं इस साल मछरी पालेंगे- गांव के लोगों की इजाजत हो तब?’

‘पहले बानरों से इजाजत ले लो।’

‘ले लिया। बानर मछली नहीं खाते, खासकर यहां के।’

‘और हमलोग?’

‘आपलोगों से कुछ भी नहीं छूटता!’

रामाज्ञा पंडित मंद-मंद मुस्काते हैं, ‘अच्छा रामफल तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कहां तक हुई है बचवा?’

‘खींच-खांच के इंटर।’

‘खींच-खांच के...?’

‘हां पंडितजी, ऊ तो स्कूल के मास्टरों से पूछें। पहले तो फोर फेल रहे गदहिया गोल तक जानत के नाम से टुकारकर बोलावैं। हमही से छड़ी और साटा बनवा के हमही पर तोडैं। जान-बूझ के नंबर कम दें, चाहे फेल करें। कॉलेज में भी आपके भाई साहब तो प्रिंसिपल रहे पूछिए उनसे, एक दिन क्रोध में आकर लगे पीटने हम उही दिन से कहा, ‘महाराज पालागी’।

‘आपनि पढ़ाई रखो अपने पास।’

रामफल को याद आया, वे मदार और मेउड़ी का पात ढूंढ़ने आए थे, माई के बतास के लिए, खामखा अटक गए बतकही में।

इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस माई को कंधे पर बिठाकर कहां नहीं लिवा गए मगर रोग जस का तस। बस दो-चार दिन का फायदा, फिर दर्द लौट आवे। अब सवाल है, माई को पीठ या कंधे पर लाद कर ही क्यों, तो इसका सीधा-सा जवाब था, डॉक्टरों को दें, कि दवा-इंजेक्शन, की जांच-वांच को, कि रेल-बस का किराया-भाड़ा? बानरों को देखिए कैसे पेट-पीठ से चिपकाए इस डार से उस डार कूदते रहते हैं।’

रामफल बंदरों से रस्क करते मगर चलते ऊंट की तरह।

माई के इलाज के लिए क्या-क्या नहीं किया उन्होंने, झड़ाई, फुंकाई देहाती, आयुर्वेद, होमियोपैथी, एलोपैथी... सब। खंचिया भर-भर की किताबें और प्रेसक्रिप्सन और विज्ञापन बटोरे। पेट साफ करने, हड्डियों, खून और नसों को ठीक रखने से लेकर किड़नी, फेफड़ा, लीवर, जरूरी विटामिंस। नाम बदल-बदल कर वही दवाएं उन्होंने सारी ‘पैथी’ खंगाल डाली। एक बीघा खेत बंधक रखने और हजारों रुपये का कर्ज लादकर जब कंगाल होने की स्थिति आ गई तो कहा- ‘कौनहुं जतन देई नहिं जाना, ग्रसेसि न मोहिं कहा हनुमाना।’

बस सारी दवाओं को घोंटकर उन्होंने खुद डॉक्टरी का धंधा उठा लिया। आश्चर्य! माई ठीक होने लगीं। अपनी ही दवाओं और इलाज से उन्होंने मेहरारू और बच्चों को ठीक किया। अलग-बगल, पास-पड़ोस को ठीक किया। ‘डॉक्टर रामफल’ हो गए। सस्ते में ही इलाज पाने के लिए दरवाजे पर भीड़ जमने लगी।

मछरी का ‘जीरा’ डाल दिया नंबरदार की ‘गड़ही’ ठेके पर लेकर बरखा बीती, जाड़ा आया। इस बीच इलाहाबाद में कुंभ आ लगा और माई ने कुंभ में स्नान करने की इच्छा जाहिर कर दी। पत्नी एकबारगी चिढ़ गई, ‘वैसे, खेत में सुग्गा हड़ाने को कहूंगी तो देह पिरोने लगेगी, का वो गठिया-बनास है और कुंभ नहाने को फट-से तैयार! इतनी भीड़ में दब-दबा गईं तो और आफत। फिर एक ही बेटा तो नहीं पैदा किया आपने, आप छोटके बेटे सरवन कुमार से क्यों नहीं कहतीं? खाली नाम-ए के सरवण हैं?’

उधर श्रवण कुमार एक चुप तो हजार चुप। रामफल ने न सरवण कुमार का इंतजार किया, न किसी गाड़ी-वाड़ी का, चुपचाप माई को उठाकर ‘घोड़ाइयां’ ली और पीठ पर लादे चल पड़े— सत्तू पिसान लोटा-डोरी लेकर ‘कुंभ को’। ठंड भयंकर थी और अस्सी किलोमीटर की यात्रा पीठ पर चिपकाए-चिपकाए माई को नहवा ले आए। रामाज्ञा पंडित ने टिपोरी दागी ‘रामफल को बानर योनि में पैदा होना था, गलती से मानुष योनि में पैदा हो गया। ऐसे में आदमी तनिक सुस्ता लेता है, पर नहीं, घर आए तो माई को चौकी पर बैठाकर पहुंचे सीधे ‘गड़हिया’ पर। बेटा तेजप्रताप गड़ही के किनारे बैठकर किताब पढ़ रहे थे। बाप को हठात् आया देखकर हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए ‘बाबू, लगता है मछरी कोई चुरा ले गया।’ ऐं... रामफल का जी धक-सा रह गया?

‘तो तुम माई-पूत पहरा किस चीज का दे रहे थे?’ रामफल गुस्से से काफूर। पत्नी लौट आई थी, कहा, ‘ये लो, पांच दिन से रात-दिन हम माई-पूत रखवाली करते-करते ‘सती’ हो गए और उसका ये बख्सीस मिला?’

‘तो फिर मछरिया ले कौन गया?’

‘हम का जाने! अभी-अभी ‘सोखा’ के पास से आई रही हूं, पता लगाकर।

‘मुंह न झौंस दिया चोर का तो असल बाप की बिटिया नहीं।’

रामफल अत्यंत दुखी हो गए- पानी भी नहीं पिया: सीधे जा पहुंचे ब्लाक। वहां पता चला कि दो तरह की मछलियां वे ले गए थे, उनमें से एक तरह की मछली दूसरी तरह की मछली को खा गई होगी।’ चकरा गया सिर। अनाड़ी की तरह लगे ताकने, अब तक सुना था, मनई ही मनई को खाता है, अब भला बताओ, मछरी भी मछरी को खाने लगी!’

‘हुंह! बीछी का मंतर न जाने, सांप के मुंह में अंगुरी डारै! कभी मछरी पाले होते तो न जानते मछरी का हाल! तुमसे तो अच्छा है सरवन, खेती-बारी अधिया पर उठाकर बंबई जा रहा है और एक तुम हो, दुनिया के सब काम तुम्हीं अकेले कर डालोगे! अपने साथ-साथ हमें भी जोते रहोगे।’ ‘सकल करम करि थके गोसाई! अब आगे क्या करोगे बाबू?’ बेटे तेजप्रताप ने तंज किया।

‘डॉक्टरी से फुसरत मिले तब न सोचूं।’ झूठ नहीं कहा रामफल ने, वाकई डॉक्टर रामफल को ‘डागडरी’ से इन दिनों फुरसत नहीं मिलती। वे बने ‘डॉगडर’ तो पत्नी बनी डगडराइन और ‘नर्स’ और तेज प्रताप ‘कंपाउंडर’। पैसे एक न लेते। जो श्रद्धा हो उसी डब्बे में डाल दो, एक छेदहा डब्बा रख दिया उन्होंने। सीरियस रोगों को वे कहते, ‘लखनऊ, बनारस लेइ जाओ भैया, हमारे मान का नहीं है।’ लेकिन छोटे-मोटे सर्दी, बुखार, जरी, झरी, फोड़ा-फुंसी वगैरह तो उनका हाथ लगते ही छू मंतर।

रात को मेहरारू छेदहा डब्बा खोलकर उलट देतीं। दुइ चार सौ आ ही जाते कुछ फटे-कटे नोट भी। इधर बाजार के दो एम.बी.बी.एस, दो बी.एम.एस. और दस रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स, माने झोलाछाप डॉक्टरों का धंधा चौपट हो गया। अब वे सैलाइन भी चढ़ाने लगे, फोड़े फुंसी का ‘आपरेशन’ भी, चोट-चपेट की मरहम पट्टी और बाँस का फट्टा-वट्टा बांधकर इलाज भी।

दूसरी तरफ खेती गड़बड़ाने लगी, माई पर यथोचित ध्यान न देने से माई रुष्ट रहने लगीं। उनकी बड़बड़ाहट बढ़ती गई। जरा भी ध्यान हटता कि खटिया पर लिटाए गए सेलाइन के बोतलों वाले मरीजों का इलाज करने को ‘बंदर’ आ जुटते। एक बंदर को रामफल ने डंडे से मार दिया तो वह लंगड़ाने लगा और गांव की पंचायत में उन्हें पांच सौ का दंड भरना पड़ा। भला हनुमानजी को ऐसे मारा जाता है। ‘तो कैसे मारा जाता है?’ रामफल ने पूछा और बंदरों की वह ही उदास हो गए। तीन साल जाते न जाते घर में ‘गृह-कलेश’ इतना बढ़ गया कि रामफल हतबुद्ध हो जाते- ‘आखिर इसमें मेरा कसूर क्या है?’

गांव से उनका संबंध द्वंद्वात्मक था, दुश्मने जां भी वही जाने तमन्ना भी वही। लोग उनसे चिढ़ते भी थे और गांव में जब भी कोई समस्या अटकती तो सबसे अंत में रामफल की ही खोज होती। इधर शादियों में लड़कों द्वारा हीरों होंडा मोटरसाइकिलों की डिमांड बढ़ती जा रही थी। रामफल ने कई लड़कियों के बापों को यह कहकर मुक्ति दिलवाई कि लड़का मोटरसाइकिल चलाकर दिखा दे, तो उसकी डिमांड पर सोचा जाए। इस नुस्खे के निकष पर कइयों को मुक्ति दिलाई थी मगर एक बार खुद ऐसे फंसे कि मत पूछिए लड़के ने मोटरसाइकिल चला कर दिखा दी। अब तो लड़की के पिता के चेहरे पर हवाई उड़ने लगी पर रामफल तो रामफल थे। उन्होंने अपनी नई खरीदी मोटरसाइकिल उसे थमा दी। घर आए तो बंदरों की जगह अपने परिवार ने ही घेर लिया।

‘बेटा तेज प्रताप टुटही साइकिल से ‘कालेज’ जाता है और बाप ऐसा ‘दानवीर’ कि मोटरसाइकिल बांटता चलता है।’ डगडराइन ने ताना मारा।

‘डार से चूका बंदर और बात से चूका मनई।’ रामफल ने पत्नी को समझाना चाहा पर समझा न पाए। झांव-झांव बढ़ती गई तो गोजी उठा ली।

बाप की गोजी को लपककर पकड़ लिया बेटे ने, बोला, ‘बाबू, जैसे तुम्हारी माई तुम्हें पिराती हैं, वैसे मेरी माई भी मुझको पिराती हैं। खबरदार जो माई के ऊपर हाथ उठायेउ।’

रामफल ने बाइफोकल लेंस के पार से देखा, ‘तेजप्रताप बड़ा हो गया है, फिर झुक गया। रख दी गोजी। वह रामफल की पहली हार थी।

इधर रामफल ने लक्षित किया कि उनके दवाखाने पर पहले की तरह भीड़ नहीं जुटती। कई तो कतराने लगे थे। गौर किया तो पाया कि कुछ केस खराब हो गए थे। मगर रामफल का तर्क था, ऐसा किस अस्पताल में नहीं होता। धीरे-धीरे उनके ‘नर्सिंग होम’ की सारी खाटें खाली हो गईं। कैसे टोंटा पड़ गया अचानक मरीजों का? दूसरी तरफ ‘डगडराइन’ ने एक झौली कटी-फटी नोटों को लाकर उलट दिया उनके सामने,

‘इनका क्या करें?’

‘अरे बैंक भिजवा देती।’

‘बंक वाले ने कहा, इनको दाल में डाल कर ‘साग पड़वा’ बनाकर खा जाओ या बार कर ताप लो। नहीं चलेंगे।’

रामफल सोच में पड़ गए तो डगडराइन ने दूसरी समस्या रखी- ‘अम्मा का क्या करोगे?’ ‘क्या हुआ अम्मा को?’

‘तुम्हारी दवाई से फायदा नहीं हो रहा।’

‘आला-वाला लगा कर देखा, डायरी छान मारी। मेटासिन दे दें, कि ऐन्टी बायटिक चला दें कि पहले जांच करा लें 104.5 टेम्परेचर है।

ताबड़तोड़ पानी की पट्टी चढ़ाने लगे। बुखार उतरा और थोड़ी देर बाद फिर लौट आया।

रामफल ने माई को लखनऊ ले जाकर दिखाना तय किया। रास्ते भर सोचते रहे माई की सेहत के प्रति यह चूक कैसे हुई। पिछले दिनों शहजादपुर के एक अनावश्यक विवाद में जोश में आकर कूद पड़े थे। विवाद सनातनी था— आरक्षण का। सवर्ण एक तरफ थे असवर्ण दूसरी तरफ। अपनी आदत से बाज न आने वाले रामफल दोनों पक्षों से एक ही बात कहते— ‘आरक्षण जरूरी है, जो पिछड़ा है, उसे आरक्षण मिलना ही चाहिए। मगर, वहां एक ‘मगर’ बैठा है वो क्या कि वर्ण, वर्ग और लिंग- तीनों को ध्यान में रखकर आरक्षण हो।’ आप लिंग मिटा नहीं सकते, भगवान की बनाई चीज है, उसके बिन सृष्टि असंभव है, पर वर्ण और वर्ग दोनों को मिटा सकते हैं। ये भगवान की बनाई चीजें नहीं हैं। मैं एक लड़का लाता हूं, क्या आप बता पायेंगे यह किस जाति का है और इसकी मूल संपत्ति कितनी होगी? नहीं न। हां बाकी चीजें...। रामफल के बाल खिचड़ी हो गए, मूंछें पक गईं। एक अजीब किस्म का गांभीर्य छा गया था उन पर। रामफल की बातें किसी की समझ में नहीं आतीं। पीठ पीछे लोग बोलते, ‘साला पागल है।’

गांव भर से तीते हो गए रामफल। पवस्त भर से तीते हो गए रामफल।... और दूसरी ओर माई की तरफ पर्याप्त ध्यान न गया। दूसरे मरीजों की और भी पर्याप्त ध्यान न गया।

उजड़ गया नर्सिंग होम! मर गईं माई। खाट के पैताने बड़ी देर तक बैठकर रोते रहे रामफल।

इक्के-दुक्के लोग जुटने लगे। औरतें थी। डगडराइन विलाप करने लगीं। सांत्वना देने वाले सांत्वना दे रहे थे। रामफल ने हथेलियों से आँसू पोंछ डाले—

मुझको बरबादी का कोई गम नहीं,
गम है बरबादी का क्यों चर्चा हुआ...?

माई को नीचे उतारा गया। रामफल ने कथरी उलट दी—

‘अरे! दवाइयां ही दवाइयां बिछी थीं खाट पर कथरी के नीचे। उनके इस ज्ञान और सेवा का क्या मतलब...?’

रामफल ने माई को कंधे पर उठाया। लोग आशंकित। पता नहीं क्या करने वाला था वह सिरफिरा रामफल! चलते-चलते फावड़ा उठा लिया पीछे-पीछे गांव के स्त्री-पुरुष बच्चे-बच्चियों का हुजूम दौड़ता आ रहा था ‘हां-हां? यह क्या कर रहे हो? रोकती-टोंकती ढेरों आवाजें? माई को रख कर खेत में फावड़े से एक गड़हा बनाया और माई को उसमें लिटा दिया। मिट्टी से ‘माटी’ को तोपने के बाद सिर उठाया तो देखा गांव के स्त्री -पुरुष बच्चे उन्हें डर कर ताक रहे हैं। गांव के लोग गोजी लेकर घेरकर खड़े हो गए।

पंडितजी ने कहा, ‘बहुत अनीति सही हमने तुम्हारी रामफल बहुत लेकिन अब बर्दाश्त नहीं होता। तुमने हिंदू होकर मुसुरमानों की तरह कबर दे दी अपनी माई को?’

रामफल ने माटी की तरह झाड़ दिया आरोपों को। लगा, एक बार फिर घिर गए हैं बानरों से।

कोई दांत निकाल रहा है, कोई धमका रहा है, खड़े हो गए, ‘क्या गलत किया पंचों? क्या गलत किया? तुममें चाहे कोई हिंदू हो, चाहे मुसलमान, किसी ने फूंका, किसी ने गाड़ा, दिखती हैं किसी की माई कहीं?’

‘और तुम्हारी माई दिख रही हैं?’ रामाज्ञा पंडित ने तंज कसा।

‘दिखेंगी, दिखेंगी पंडित महराज। फूंक देते तो मर जातीं सदा-सदा के लिए। मैंने अपनी माई को जिंदा रखा है। क्या गलत किया? वह तब भी मेरे साथ थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी।’ इस झाल से उन्हें जल्दी निकलना था। अपनी वर्ग, वर्ण और लिंग वाली थ्योरी की मीटिंग रखी थी। थोड़े ही दिनों में यह थ्योरी जड़ पकड़ने लगी थी। ऊंची जाति के नौजवान भी यदा-कदा आने लगे थे उनके बीच अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए वे महंथ जैसे दिखते। उम्र की तरह विचार भी परिपक्व ही रहे थे। बड़े-बड़ों की बोलती बंद हो जाती।

रामफल के दुश्मनों की संख्या बढ़ती गई। रामाज्ञा पंडित तो सरेआम कहते—

‘नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाय भये सन्यासी।
ते बिप्रन सन पांव पुजावहिं, उभयलोक निज हाथ नसावहिं।’

माई के मरने के साल बीतते न बीतते इस युद्ध में वे शहीद हो गए। किसने मारा, कुछ पता नहीं। पत्नी और बेटे ने उनकी इच्छा के अनुरूप ही उन्हें भी उनकी माई के कदमों की ओर उसी खेत में गड़हा खोदकर सुला दिया। कोई ब्रह्मभोज और शुद्धि न रामलखन ने किया था, न उनका किया गया।

साल भर बाद सरवनकुमार अपने बाल-बच्चों के साथ गांव आए। उनके साथ झुकी कमर और पकी दाढ़ी मूंछों वाला एक अस्सी-पचासी साल का बूढ़ा भी था— उनका बाप। भादों का झापस लगा था। गौधुरिया का समय। निर्जन हो रहा था शहजादपुर। सरवन ने आते ही अपनी भौजाई से पूछा, ‘माई, भैया नहीं दिखलाई पड़ रहे?’

भौजाई के बेटे तेजस्वी से कहा, ‘इन्हें उनके पास ले जाओ। भेंट करा दो।’

गोधुरिया रक्ताभ हो रही थी, तेजस्वी उन्हें कहां लिवाये जा रहा था?

दादी और बाप की जगह जाकर खड़ा हो गया तेजस्वी।

‘कहां है माई और भैया?

‘ये रहे।’

‘वहां तरोई के पीले-पीले फूल के सिवा कहां कुछ था?

गजब की फसल होती है वहां, गजब की। रामफल जैसे लोग मरते नहीं। हजार-हजार आँखों से ताक रहे होते हैं मां-बेटे- कभी फूल बनकर, कभी पत्ते बनकर, कभी फल बनकर...।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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