...और होली ईद आपस में अभिन्न सहेलियाँ हैं। — नीरज की कविताएँ


...और होली ईद आपस में अभिन्न सहेलियाँ हैं।

— नीरज की कविताएँ




पाकिस्तान के नाम 

 —गोपालदास नीरज

जा चुका पतझार, ऋतुपति आ गया दिशि -दिशि मगन है,
एशिया में फूटती फिर से नई कोंपल किरन है,
क्या कली चटकी नुमायश लग गई सारे चमन में
यूँ हँसी है धूल जैसे बिछ गई चाँदी भुवन में ,

लहलहाते खेत, हर बाली सुहागिन बन गई है
और पटियाँ पार कर चौपाल फिर बन - ठन गई है
झूमते हैं कुँज, मेंहदी रच रही हर एक डाली ,
बौर क्या फूला कि सारे बाग़ ने होली मना ली !

महमहाते पात, भौंरों पर नशा सा छा गया है,
वे खिलें है फूल धरती का बदन उजला गया है
कूकती कोयल बजाती बाँसूरी यों जंगलों में
ज्यों कि बचपन बोल उठे उम्र के सूने पलों में ।

गंध बोझिल वायु ऐसे चल रही है डगमगाती
जा रही हो ज्यों कि पनिहारिन गगरिया छलछलाती
इस तरह से धूप से पिटकर अँधेरा नत हुआ है ।
जिस तरह से मिस्त्र में इंग्लैण्ड बेइज्जत हुआ है

और पनघट पर किरन यूँ ज्योति का घट भर रही है,
जिस तरह दिल्ली कि दुनिया में सबेरा कर रही है
यह सुबह है यह समाँ है, यह समय है, यह घड़ी है ,
एक बदली किन्तु फिर भी आँख में मेरी खड़ी है ।

क्या न जाने हो गया है जो नज़र इस तौर नम है
क्यों न जाने मैं दुःखी हूँ क्यों न जाने दर्द कम है ?
कुछ नहीं मालूम केवल बात इतनी ही पता है
मर रहा है प्यार मज़हब से हुई ऐसी ख़ता है !

प्यार जिसको छोड़ दुनिया में कहीं भी दिन नहीं है
वह मरे औ शायरी रोये न, यह मुमकिन नहीं है ।
मैं न लिखता ख़त तुझे लेकिन रहा जाता नहीं है
दर्द ऐसा है सहूँ भी तो सहा जाता नहीं है ।

शोर यह नफ़रत भरा जिसमें कि डूबी है कराँची,
सुन उसे शरमा रहे हैं रे कुतुबमीनार साँची,
उग रही जो सिन्धु तट पर फसल वह बारूद वाली,
देख उसको हो रही है ताज की तस्वीर काली !

बम्ब जिसमें बन्द है सिन्दूर हर क्वाँरी दुल्हन का
हो रहा है ज़र्द उससे हुस्न मरियम की बहन का
नग्न संगीने टँगी जिन पर कि बेपरदा जवानी
क़ब्र अकबर की फटी है याद कर उनकी कहानी ।

गड़गड़ाहट टैंक की जो बादलों की हमसफ़र है
नाद उसका सुन जुमा मस्जिद किये नीची नज़र है
और तोपें धज्जियाँ जिनसे ज़मीनें हो चुकी हैं
गन मशीनें छाँह जिनकी बस्तियाँ तक सो चुकी हैं ।

एटमी हथियार है हीरोशिमा जिनकी गवाही
गोलियाँ परिचित कि जिनसे खूब हर आज़ाद स्याही
किस लिये तू बता इनकी सिफ़ारिश कर रहा है ।
जब कि सारा एशिया खलिहान अपने भर रहा है ।

पट रहीं जब खाइयाँ, जब कट रहीं साँकल किवाड़े
किस लिये तब तू बनाता है हिमालय में दरारें ?
आज तो सीमेन्ट की ही है ज़रूरत बस समय को
रे नहीं नफ़रत , मुहब्बत चाहिये टूटे हृदय को ।

क्या कहा ? बस कुछ हदों के हेतु यह रस्साकशी है
इस लिये ही बस हुई दुश्मन तुझे सबकी ख़ुशी है
गर ज़मीने चाहिये तो तोप के मुँह बन्द कर दे
और हर वीरान गमले में ख़ुशी के फूल भर दे ।

फेंक दे बन्दूक हाथों में उठा वह बीन तारा
जो अगर छिड़ जाय , दीपक गा उठे संसार सारा
मोड़ दे रूख इन जहाज़ों का उधर आयेजिधर से ,
चाल ऐसी चल कि ख़ुद मंज़िल करे शादी सफ़र से ।

जोत ऐसे खेत अँखुआने लगे हर एक घाटी
वह सिंचाई कर कि सोने की फ़सल बन जाय माटी
वे जला दीवे कि रातें रोशनी का खेल खेलें
यूँ दुआ कर बाग़ को आकर बहारें गोद ले लें ।

वह कहानी बन कि तेरी याद हर इतिहास रक्खे
आदमीयत हो न फिर बदहाल ऐसे ढाल सिक्के
और दिल का आईना यूँ प्यार से उजला बना ले
मुस्कराहट का हमारी तू वहाँ बैठा मज़ा ले ।

बात तो तब है कि जब अपने हृदय ऐसे मिले हों
घर हमारा जग उठे जब दीप घर तेरे जले हों
और तेरे दर्द को मेरी ख़ुशी यूँ दे सहारा
आँख तेरी हो मगर उससे बहे आँसू हमारा ।

दो हुए तो क्या मगर हम एक ही घर के सेहन हैं
एक ही लौ के दिये हैं , एक ही दिन की किरन हैं
श्लोक के सँग आयतें पढ़ती हमारी तख़्तियाँ हैं
और होली ईद आपस में अभिन्न सहेलियाँ हैं ।

मीर की ग़जलें उसी अन्दाज़ से हम चूमते हैं
जिस तरह से सूर के पद गुनगुनाकर झूमते हैं
मस्जिदों से प्यार उतना ही हृदय को है हमारे
हैं हमें जितने कि प्यारे मन्दिरो- मठ , गुरुद्वारे ।

फ़र्क हम पाते नहीं हैं कुछ अज़ानों कीर्तन में
क्योंकि जो कहती नमाज़े है वही हरि के भजन में
ज्यों जलाकर दीप धोते हम समाधी का घिरा तम
है चढ़ाते फूल वैसे ही मज़ारों पर यहाँ हम ।

हम नहीं हिन्दू-मुसलमाँ, हम नहीं शेख़ो-बिरहमन
हम नहीं काज़ी -पुरोहित, हम नहीं रामू- रहीमन
भेद से आगे खड़े हम , फ़र्क से अनजान हैं हम
प्यार है मज़हब हमारा और बस इन्सान हैं हम !

राह काबे की , कि काशी की , कि हो मक्का- मदीना
हम सभी की धूल-कंकड़ को समझते हैं नगीना
ताजमहली नूर जिसको देख सुन्दरता थकी है
शायरी उस पर हमारी रोज़ जा जाकर बिकी है ।

सीकरी जिसमें कि अब खण्डहर बसेरा ले रहा है ,
आज तक उस पर हमारा प्यार पहरा दे रहा है
याद आता है अभी भी वह अठारह सौ सतावन
जब जफ़र के साथ निकले थे बुलाने हम गये दिन

और घायल हो गये थे जब जवाँ सपने हमारे
तुम कफ़न लेकर बढ़े थे और हम लेकर अंगारे ।
कौन है त्योहार जो हमने मनाया हो न मिलकर
साथ ही सोकर जगे हम , साथ ही हम को मिले पर ।

हमनज़र हम, हमउमर हम, हमसफ़र, हमराह - राही
क्यों बनी है बीच फिर दीवार लन्दन की सियाही ?
दोस्त मेरे देख यह स्याही वही है खून वाली
चाट ली थी सब की ज़ीनत महल की जिसने उजाली ।

है घृणा अंधी, न सहती रोशनी उसकी नज़र है
वह न यह भी जानती मस्जिद किधर- मन्दिर किधर है ?
वह बढ़ी यदि तो दुबारा कारवां वीरान होगा
हम भले हों, किन्तु धरती पर नहीं इन्सान होगा ।


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3 टिप्पणियाँ

  1. Strange "water hack" burns 2lbs overnight

    Well over 160000 women and men are using a simple and secret "water hack" to burn 1-2lbs every night in their sleep.

    It is effective and works on anybody.

    This is how you can do it yourself:

    1) Grab a drinking glass and fill it with water half the way

    2) Now follow this proven HACK

    you'll become 1-2lbs lighter as soon as tomorrow!

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 01 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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