कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में “सबका सबके प्रति विश्वास” — सच्चिदानंद जोशी



इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी का 'यथावत' में प्रकाशित यह लेख कोरोना आपदा को, उसके ख़िलाफ़ लड़ाई को हिन्दू मुस्लिम की लड़ाई में तब्दील किये जाने की पड़ताल करता है इसे भी पढ़ा जाना चाहिए ... भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक



कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में 

“सबका सबके प्रति विश्वास”

— सच्चिदानंद जोशी


हमारे पास सिवाय आंकड़ो के और जांच आयोगों की रिपोर्ट के कुछ नही है। न हमने इनसे कोई सबक लिया न कोई स्थायी समाधान निकाला।

भारत की कोरोना के विरुद्ध लड़ाई जारी है। भारत अपने सीमित संसाधनों से पूरे जीवट के साथ इससे लोहा ले रहा है। सब कुछ ठीक हो जाता और उम्मीद भी थी कि पहले लॉक डाउन के समाप्त होते होते सारी बाते काबू में भी आ जाती, लेकिन तभी तब्लीगी जमात का सारा प्रकरण सामने आ गया और भारत फिर से इस महामारी से जूझने की गंभीर चुनौती का सामना करता नजर आ रहा है। 

दुख की बात ये है कि अब हम कोरोना के विरुद्ध लड़ने की बजाय आपस मे लड़ने में जुट गए है और लड़ाई के अपने प्रिय विषय हिन्दू मुसलमान पर आकर टिक गए है। ऐसा अक्सर होता है हमारे देश के साथ कि बात कही की भी हो, मुद्दा किसी से भी जुड़ा हो यदि उसे असफल करना है, या पटरी से उतारना है तो उसमें ये दृष्टिकोण डाल दो मामला अपने आप दूसरी दिशा पकड़ लेगा और मूल बात या मूल उद्देश्य कही दूर छूट जाएगा। 

ये किस्सा आज का नही है। वर्षो से भारत यही झेल रहा है। आज़ादी के पहले से ये संघर्ष चिर स्थाई है। भारत विभाजन उसकी पराकाष्ठा थी। लगा था कि अब मामला शांत हो जाएगा लेकिन ऐसा नही हुआ और पहले राजनीतिक कारणों से और बाद अन्य सामाजिक कारणों से इस संघर्ष को हवा देने का काम बदस्तूर जारी रहा और देश समय समय पर साम्प्रदायिकता की आग में झुलसता रहा। हमारा पैमाना बस इसी बात तक सीमित रह गया कि या दंगा पिछले दंगे से कम खतरनाक था या ज्यादा। किसमे हिन्दू ज्यादा मरे और किसमे मुसलमान। कभी कट्टरता तो कभी सहिष्णुता के नाम पर हम एक दूसरे की संपत्ति को आग लगाते रहे, एक दूसरे का खून बहाते रहे। नौअखली, रांची, मेरठ, गोधरा, बाबरी मस्जिद से लेकर दिल्ली के ताजा दंगो तक फेहरिस्त लंबी है। शाहीन बाग़ इसमे नया जुड़ा, जो दंगा नही पर अलग तरह का धरना था। इन सबमें हमारे पास सिवाय आंकड़ो के और जांच आयोगों की रिपोर्ट के कुछ नही है। न हमने इनसे कोई सबक लिया न कोई स्थायी समाधान निकाला। 

ऐसा नही कि ये सब हाल हाल में ज्यादा हो रहा है। आज़ादी के पहले भी हिन्दू मुसलमान के बीच संघर्ष और लड़ाई कम नही रही। इस संदर्भ में आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी की कुछ पंक्तिया उनके लेख "हिन्दू मुस्लिम एकता" से उदृत करना समीचीन होगा। उलेखनीय है कि ये उनके द्वारा 28 नवंबर 1930 को भारत पाक्षिक के अग्रलेख के रूप में लिखी गयी थी जो नंददुलारे वाजपेयी रचनावली के खंड 7 में उपलब्ध है औए इसको वागर्थ पत्रिका ने नवंबर 2010 के अंक में छापा था। वैसे तो पूरा अग्रलेख ही अत्यंत मार्मिक है लेकिन संदर्भ के लिए नीचे कुछ पंक्तिया जो आज की परिस्थिति में समीचीन और सामयिक है दी जा रही है:

"हम देखते है, जहाँ क्रियाशीलता है, गति है, उद्वेग है वहाँ मानव हृदय एकता की ओर बढ़ता है, परंतु जहाँ स्थिरता, तर्क आदि हैं वहाँ झगड़े खड़े होते है विभेद खड़ा होता है। जान पड़ता है, मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति साम्य की ओर है, वैषम्य अस्वाभाविक है। चाहे औरंगजेब के जमाने को देखे अथवा मस्ज़िद के सामने बाजो वाले इस जमाने को, प्रकट यही होता है कि मनुष्य जब कुछ नही करता तब झगड़ा करता है। महात्मा गांधी ने अद्भुत तत्वज्ञ के रूप में इसके प्रतिकार का शायद एक उपाय बतलाया था। एक बड़े किले के भीतर झगड़ालू हिन्दू मुसलमान छोड़ दिये जायें औए फाटक बंद कर लिया जाए। बस निर्णय हो जाएगा। हम इसका मतलब लगाते है कि जब और कुछ नही किया जा सकता, तब लड़कर भी लड़ाई मिटाई जा सकती है। 

यदि हज़ारो वर्षो से एक देश मे एक साथ एक भावधारा और विचारधारा के संगम में निवास कर हमने एक दूसरे को नही पहचाना, तो हमारे मनुष्य होने में संदेह है। हम जिस ज्ञान की संपत्ति का गर्व करते है, जिस विश्वेक्य के आदर्श के लिए हमारी ख्याति है, वह हमारे किस मतलब की रही ? यदि हम सैकड़ो सहस्रों वर्षो से एक साथ रहकर क्षुद्र स्वार्थजन्य विभेद को नही मिटा सकते तो हम व्यर्थ ही मनुष्य कहलाये। किसी देश के सभ्यता और संस्कारों का क्या मतलब है यदि उस देश के निवासियों के जीवन मे उनकी आभा न दीख पड़े। हम मनुष्य है, हमारा अतीत महान है, हमारे आदर्श उच्च। हमे एक साथ मिलकर रहना है -सौ वर्ष नही, हज़ार वर्ष नही, अनंत वर्ष। हम झगड़ा करने के लिए नही पैदा हुए है। हमारे जीवन का लक्ष्य इतना नीच नही हो सकता। फिर क्यो न हम एक बार अपनी चिरसंचित शक्ति लेकर खड़े हो जाएं और एक स्वर से कह दें कि भारतीय अपनी जीवनधारा को शुद्ध और अबाध बनाने की आकांक्षा रखते हैं, वे क्षणिक परिस्थितियों के चक्कर मे पड़कर अपनी भविष्य गति में रोड़े नही अटका सकते। "

सन 1930 में लिखी यह बात आज भी कितनी सत्य और अकाट्य है। आज हम किस बात को लेकर बहस कर रहे है और किन्हें कटघरे में खड़ा कर रहे हैं ये सोचने और देखने की बात है। पिछले कुछ दिनों में तब्लीगी जमात, इसके प्रादुर्भाव, उद्देश्य और विस्तार पर अच्छी खासी सामग्री प्रचारतंत्र के कारण उपलब्ध हो गयी है। मरकज़ के उनके उद्देश्य और जमात के इतनी बड़ी संख्या में इकट्ठा होना ये सभी चर्चाओ में है। लेकिन जिस चर्चा को जमात और उनके नेताओ तक सीमित होना चाहिए था वो चर्चा कैसे हिन्दू मुसलमान पर केंद्रित हो गयी। जो लोग गलत हैं वो गलत है फिर चाहे वो किसी भी पंथ या धर्म के गुरु को मानने वाले हो। उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही नही की जानी चाहिए ताकि समाज मे सही संदेश जाए। लेकिन उसका खामियाजा पूरे मुस्लिम समाज को भुगतना पड़े ये कहाँ तक उचित है इस बारे में विचार करना होगा। 

जमात के उद्भव और विस्तार को देखते हुए एक बात और नमूद करना आवश्यक हो जाता है कि यदि आप समर्थ होते हुए भी किसी गलत बात का प्रतिकार नही करते, मूक दर्शक बन कर उसे देखते है, या मौन समर्थन करते है तो आप भी उसके काम में भागीदार होते है। यदि जमात का मकसद लोगो को धर्म की तरफ मोड़ना और धार्मिक क्रियाकलापो में उनकी अभिरुचि जगाना भर था तो वह गलत नही कहा जा सकता। लेकिन लोगो को धार्मिक रूप से कट्टर बनाना, धर्मान्ध बनाना और उन्हें राष्ट्र सत्ता का अनुशासन मानने से हतोत्साहित करना तो सही नही कहा जा सकता। ये कट्टरता और अनुशासन हीनता जब बढ़ रही थी तो हममे से अधिकांश इससे मुँह मोडे बैठे थे। जब कई लोगो ने 'खुदा हाफिज' के स्थान पर ' अल्लाह हाफिज' बोलना शुरू किया तो हमने उस परिवर्तन पर गौर नही किया न इसके बारे में जिज्ञासा व्यक्त की कि ऐसा क्यों हो रहा है। जब आश्चर्यजनक रूप से बड़ी संख्या में, छोटी छोटी लड़कियां भी हिज़ाब या किशोरियां बुर्क़ा पहन कर घूमने लगी तो भी हमने उस परिवर्तन को नज़रअंदाज़ लिया। ये सब अचानक नही हुआ, हमारे सामने हुआ। हमारे देश मे, देश पहले है बाद में हमारा धर्म या विश्वास। लेकिन धर्म को देश से ऊपर मानने की प्रवृत्ति और सहायता के लिए अपने देशवासियों की ओर देखने की बजाय दूसरे मुल्क के समधर्मावलंबियो की ओर देखने की मानसिकता जैसे उन स्वार्थी तत्वों द्वारा जो वर्षो से भारतीय समाज को हिन्दू मुसलमान में बांट कर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रहे है और अपना वजूद पुख्ता कर रहे है। 

अब भी वक़्त है, हमे सम्हालना होगा क्योकि आगे और भी गंभीर चुनौतियाँ है और उनका मुकाबला एकजुट होकर ही किया जा सकता है। कोरोना तो जाने के लिए ही आया है, चला ही जायेगा। लेकिन एक बार ये खाई गहरी हो गयी तो शायद इसे पाटना बहुत मुश्किल होगा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी दूसरी पारी में सबका साथ सबका विकास के साथ 'सबका विश्वास' भी जोड़ा किया था। आज जरूरत उसी की सबसे ज्यादा है 'सबका सबके प्रति विश्वास'। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।
'यथावत' से साभार)
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