Hindi Story "ज़ख़्मेकुहन" — Writer तरुण भटनागर की लम्बी हिंदी कहानी



लेखक तरुण भटनागर की हंस में प्रकाशित हिंदी की लम्बी कहानी "ज़ख़्मेकुहन"
Hindi Story





कथाकार उपन्यासकार तरुण भटनागर अपनी लेखन शैली से पाठक को तक़रीबन खींचकर बाँध लेते हैं। उनके यहाँ दर्द जस का तस दीखता है और जस का तस ही उसके इर्दगिर्द का उससे अनभिज्ञ संसार भी, जिसे लेखक ही यह संज्ञान देता है कि दुनिया एक दूसरे से जुड़ी हुई है। ज़ख़्मेकुहन एक वह लम्बी कहानी है जिसके लिए साहित्य के पाठक से कहूँगा: "पढ़ें ज़रूर!"


भरत एस तिवारी




ज़ख़्मेकुहन

— तरुण भटनागर

सुँदर जिस स्कूल में पढ़ता था, वह एक तहज़ीब पसंद स्कूल था। अंगरेजी पढ़ाते वक्त उसके अंगरेजी के टीचर को पढ़ाने के काम में कोई भी, कैसा भी दखल बरदाश्त न होता था। पढ़ाते वक्त जरा सा भी शोर अंगरेजी की पढ़ाई में खलल पैदा करता था। वह अंगरेजी का टीचर था और अंगरेजी पढ़ाने के लिए उसे एक तरह की मुकम्मल खामोशी की दरकार होती थी। अंगरेजी पढ़ाने के लिए ऐसे माहौल की जरुरत पडती कि आसपास ही क्या दूर-दूर तक से भी कोई आवाज न आये। जरा-जरा सी आवाज़ें भी अंगरेजी पढ़ाने के काम में खासी रुकावट ड़ाल देती थीं। एक रोज बहुत दूर से आते किसी गाने की आवाज ने अंगरेजी पढ़ाने के काम में खलल ड़ाल दिया था। अंगरेजी के टीचर ने स्कूल के नौकर को दौड़ाया था कि वह गाना बजाने वाले को चुप करा आये और गाने वाले को यह भी बता आये कि वह अंगरेजी पढ़ा रहा है दूर से आती उसकी गाने की आवाज अंगरेजी पढ़ाने के काम में खलल पैदा कर रही है। पर होता यूँ कि अक्सर कोई न कोई आवाज अंगरेजी पढ़ाने के काम के दौरान सुनाई पड जाती और अंगरेजी का टीचर पढ़ाते-पढ़ाते एकदम से उचट जाता। उसके चेहरे पर गुस्से और दिल शिकस्तगी के निशान उभर आते।

क्लास में कई खिड़कियाँ थीं। खिड़कियों के पार स्कूल के अहाते में लगा एक पेड़ था। पेड़ पर परिंदों के घोंसले थे और अक्सर इस पेड़ से परिंदों की चहचहाहट सुनाई देती। परिंदों की चहचहाहट से अंगरेजी की पढ़ाई में खलल पडता । अंगरेजी का टीचर इस बात को बरदाश्त न कर सकता था। पर ऐसा अक्सर होता। अंगरेजी का टीचर पढ़ाना छोड़कर खिड़की के पार मण्डराते परिंदों को इस तरह देखता जैसे हाथ में खंजर पकड़े कोई अपने बरसों पुराने दुश्मन को देखता है। फिर एक दिन अंगरेजी के टीचर ने उस पेड़ के सारे घोसलों को तुडवा दिया था। स्कूल के अहाते में कमर पर हाथ रखे खड़ा वह यह देखता रहा कि परिंदों का हर आशियाना, हर घोंसला नोचकर गिरा दिया जाये। परिंदों के इन आशियानों से कुछ अण्डे नीचे गिर गये थे । उसने पैरों से कुचलवाकर उन अण्डों को जमीन पर मसलवा दिया था। उसने पेड़ से तोड़कर गिराये गये हर घोंसले का मुआयना किया। परिंदों के इन आशियानों में जो भी बचे कुचे अण्डे थे उसे भी निकालकर उसने कुचलवा दिया। उसे लगता कि इन्हीं अण्डों में से कभी फिर और परिंदे निकल आयेंगे। खामखाँ उड़ते फिरेंगे। चहचहायेंगे और अंगरेजी जैसे खास अहमियत वाले सब्जेक्ट की पढ़ाई में खलल ड़ालेंगे। उसने सारे घोंसलों को एक जगह इकठ्ठा करवाया और उनमें आग लगवा दी। परिंदों के आशियाने जल उठे। जलते आशियानों के ऊपर परिंदे आसमान में गोल-गोल चक्कर लगा रहे थे। सारा आसमान परिंदों की चीख से गूँज रहा था और उनकी आवाज सुनता सुँदर का अंगरेजी का टीचर खुश था।

पर इसके बाद भी परिंदे आते रहे। परिंदों की अपनी दुनिया थी। वे उड़ते थे और सारे आसमान पर उनका अख्तियार था। वे उड़कर कहीं भी जा सकते थे। वे बंदिशों को न मानते थे। वे उड़कर पराये मुल्कों में भी जा सकते थे। वे सरहदों को न मानते थे। वे रोज के खाने की तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ उड़ते फिरते थे। उनके पंखों में ताकत थी। उनके पंख हवा के हमराज थे। इस तरह वे घोंसलों के जला दिये जाने और अण्डों को कुचलकर खत्म कर दिये जाने के बाद भी उड़-उड़कर आते रहते। उनके आने से बार-बार अंगरेजी की पढ़ाई में खलल पडता। अंगरेजी के टीचर को एक और तरकीब सूझी। उसने एक दिन पेड़ के नीचे अनाज के दाने बिखेर दिये। उसने उन अनाज के दानों में चूहे मारने की दवा मिला दी। परिंदे जहर वाले अनाज के दाने चुगते और मर जाते। एक दिन एक बच्चे ने जहर वाले दाने को चुगने आए एक परिंदे को उड़ा दिया। उसे यह परिंदा बहुत प्यारा सा लगा था। वह चाहता था कि दूसरे परिंदों की तरह यह भी जहर के दाने चुग कर न मरे। सो उसने दाना चुगने आये उस परिंदे को उड़ा दिया। अंगरेजी का टीचर उस बच्चे से खफा हो गया। उसने पहले तो उसको डाँट लगा दी। फिर उसे आइंदा ऐसा न करने को ताकीद भी किया। 

एक रोज जब तीन दिन की छुट्टी के बाद स्कूल खुला तो सबने देखा कि पेड़ के नीचे सैंकडों की तादाद में परिंदे मरे हुए पड़े थे। अंगरेजी का टीचर रोज चूहे की दवा वाला अनाज पेड़ के नीचे बगरा देता और रोज परिंदे उन दानों को चुगते और मर जाते। उनकी लाशों को वह फिंकवाता रहता। रोज ही दर्जनों परिंदों की लाशें वह फिंकवाता। पर फिर भी अक्सर परिंदे आ जाते। कोई कहता कि पास ही लगे मकई के खेतों की वजह वे यहाँ तक आते रहते हैं। तो कोई बताता कि वे सात समंदर पार करके आते हैं और बारिश के मौसम के बाद वापस चले जायेंगे। कोई कहता कि यह जो आसमान तक उठा हुआ इतना बड़ा नीम का दरख़्त है, परिंदे इसकी वजह से यहाँ आते हैं। 

इस तरह तमाम जतन के बाद भी परिंदे आते और उनका चहचहाना गूँजता और इस तरह सुँदर की क्लास में अंगरेजी की पढ़ाई में खलल पडता रहता। अंगरेजी का टीचर पिन्ना जाता। उसने तमाम तरकीबें आजमाईं पर फिर भी परिंदे आ रहे थे। चहचहा रहे थे। शोर कर रहे थे। फिर उसने एक दिन उस भारी भरकम नीम के दरख़्त को ही कटवा दिया जिसके बारे में कहा जाता था कि उस दरख़्त की वजह से ही परिंदे आते हैं। दरख़्त की मोटी-मोटी शाखें आसमान तक फैली थीं। उसकी मोटी-मोटी टहनियाँ और पत्तों से लदी-फदी ड़ालें चारों ओर फैली थीं। स्कूल के अहाते में खड़े होकर नीम के उस दरख़्त को देखने पर अंदाज न लगता था कि यह दरख़्त कितना बड़ा और कितना ऊँचा है। दूर-दूर तक फैली उसकी बेइंतिहा शाखों से उसके इतने अजीम फैलाव का अंदाज न लग पाता था। वह स्कूल के पूरे अहाते में तो फैला था ही, बल्कि उसके बाहर तक उसकी शाखायें फैली थीं। कटने के बाद नीम का वह अजीमोशान दरख़्त एक चिंघाडती-सी आवाज के साथ गिरा था। जमीन से टकराने के साथ उसकी शाखों और टहनियों के टूटने की खौफनाक आवाज आई थी। क्लास के सारे बच्चों ने नीम के उस दरख़्त को जमींदोज होते हुए देखा था। उसके गिरने की धमक से सारी जमीन काँप गई थी। मिट्टी और कीचड का बवंडर सा उड़ा था। जमीन से टकराकर उसकी मोटी-मोटी शाखायें एक झटके में टूट कर दूर-दूर तक बिखर गई थीं। कई दिनों तक जमीन पर पड़े उस दरख्त की शाखाओं में लदे-फदे पत्ते सूखते रहे थे। उसकी बेजान होकर मरती टहनियाँ अकडकर मुडती रहीं। उसका हरा रंग उसके जिस्म से कम होता रहा। उसका तना सूखकर बेजान होता रहा। पता नहीं कब नीम के उस दरख्त की साँस टूटी। किसी को पता नहीं। दरख्त भी साँस लेते हैं। कहते हैं कट जाने के बाद भी कुछ दिनों तक वे साँस लेते रहते हैं। पर उनकी साँस सुनाई नहीं देती। इस तरह उनकी साँस का बंद होना भी पता नहीं चलता।

पर नीम का दरख़्त कट जाने के बाद भी परिंदे आते रहते। यह था कि स्कूल के अहाते में अब नीम का वह दरख्त नहीं था। पर अब भी हवा थी और आसमान था। मकई के खेत थे और सात समंदर पार से आने वाले परिंदो के किस्से थे। अब भी बारिश थी और बारिश में निकलने वाले कीट पतंगे थे। अब भी सूरज था। अब भी रात थी। अब भी दिन था। अब भी जमीन गोल-गोल घूम रही थी। इस तरह परिंदे आते रहते। क्लास की खिड़कियाँ बंद कर देने के बाद भी उनकी चहचहाहट सुनाई देती। खिड़कियों के बंद पल्लों को पार कर उनकी आवाज आती। किसी दरवाजे की संद से पार होकर उनकी चहचहाहट स्कूल की उस क्लास में आ ही जाती। 

बच्चों को जिंदगी में तरक्की करने के लिए अंगरेजी की पढ़ाई करनी थी। बिना अंगरेजी के जिंदगी बेकार है ऐसा माना जाता था। अंगरेजी का इल्म सबसे आले दर्जे का इल्म माना जाता था। अंगरेजी की पढ़ाई सबसे खास थी। इस तरह अंगरेजी का टीचर बच्चों को अंगरेजी पढ़ाकर अंगरेजी पढ़ाने का सबसे नेक काम कर रहा था। पर परिंदों को इन सब बातों से कोई मतलब न था। वे क्लास के बाहर उड़ते फिरते और चहचहाते रहते। परिंदों को अंगरेजी पढ़ने-पढ़ाने की बात समझ न आती थी। आती भी कैसे ? ‘वे कोई इंसान थोड़े हैं। वे तो बस बेमतलब आसमान में उड़ते रहते हैं। उनमें अकल नहीं होती। मेरा बस चले तो इन सबके पंख कटवा दूँ। न रहेंगे पंख और न वे इस तरह अंगरेजी की पढ़ाई के बीच उड़कर चले आयेंगे। और न ही चहचहाते हुई शोर करेंगे और न ही अंगरेजी पढ़ाने के काम को ड़िस्टर्ब करेंगे। ’— अंगरेजी के टीचर ने कहा था, एक बार। अंगरेजी के टीचर का यकीन था कि अगर इन परिंदों के पंख काट दिये जायें तो देर सबेर ये सब मर जायेंगे। ये जिंदा ही इसलिए हैं क्योंकी ये उड़ पाते हैं। मारने का सबसे आसान तरीका है कि पंख काट दो। पर पंख काटने का यह इतना आसान नहीं है। कहाँ तक और कितनों के पंख काटोगे। फिर क्या यही एक काम रह गया है। दुनिया को ठीक करने का ठेका क्या सिर्फ अंगरेजी के टीचर ने ले रखा है कि पंख काट देने का नेक काम भी बस वही करे। 

सुँदर को बारिश बहुत अच्छी लगती थी। जब साल की पहली बारिश होती वह कपड़े उतारकर बरसती बूँदों के बीच चला जाता। आसमान की ओर हाथ उठाकर गोल-गोल घूमता। बारिश की बूँदों के बीच नाचता। पानी के चहबच्चे पर उछलता और पानी के छपाके उड़ाता। आसमान की ओर मुँह करके अपना मुँह खोल लेता। जीभ बाहर निकालकर उस पर बूँदों के गिरने को महसूस करता। पलकों पर गिरती बूँदों से आँखें मिचमिचाता। हथेली पर बारिश की बूँदों को नचाता। उसकी माँ उसे ऐसा करता देख खुश होती। वह इतना दीवाना था कि बादलों का इंतजार करता था। जब चींटियाँ मुँह में अण्डे उठाकर कतार से चलतीं दीखतीं तो वह सारा दिन बार-बार नजरें उठाकर आसमान को देखता रहता। शायद बादल का कोई टुकड़ा दीख जाये आसमान की सरजमीन पर सरकता, फिसलता। अगर फिर भी बादल न आते तो रात को माँ से बार-बार पूछता कि बादल कब आयेंगे, क्या रात को आ जायेंगे या फिर सुबह या उसके बाद। एक रात जब वह सो रहा था बारिश शुरु हो गई थी। माँ ने उसे देर रात को जगा दिया था। वो और उसकी माँ देर रात को बारिश की आवाज सुनते रहे थे। सारी दुनिया सो रही थी और माँ और बेटा बारिश की आवाज सुन रहे थे। घर के आँगन में कोई बर्तन छूट गया था और बारिश की एक धार रह-रह कर उस बर्तन पर गिरती थी। एक तय वक्त के फासले के बाद बारिश की वह धार उस बर्तन पर गिरती और फिर जरा सी देर को उस धार का गिरना थम जाता। थम जाने के थोड़ी देर बाद वह धार फिर गिरती और फिर थम जाती। इस तरह एक तय सिलसिले से वह धार बर्तन पर गिरती थी। बर्तन पर इस तरह गिरती पानी की धार जब बर्तन से टकराती तो बर्तन टनटनाता हुआ बज उठता। पानी की धार की चोट से बर्तन के टनटनाने की आवाज आती रहती। एक ही सिलसिले से। मुसलसल। बार-बार। लापरवाही से आँगन में छूट गये बर्तन पर बारिश की धार इस तरह गिरती मानो बर्तन पर अपनी धार की चोट से आवाज का कोई सिलसिला उठाना चाह रही हो। मानो यह आँगन में छूट गये बर्तन पर बारिश की धार का गिरना न हो बल्कि कोई धुन हो, कोई नगमा, बर्तन की टिनकती आवाज की कोई लय। बूँदों की धार से बर्तन के धातु पर कोई थाप हो। रात की बारिश को सुँदर बड़ी मोहब्बत से सुनता। बारिश में घर के आँगन में आवारा छूटे बर्तन की टिनटिनाती आवाज से उसका मन खिल उठता। इस तरह उसका मन बारिश में था। जिस चीज में सुँदर का जी सबसे ज्यादा लगता था वह बारिश थी। 

क्लास में अंगरेजी की पढ़ाई में सिर्फ परिंदों की चहचहाहट के कारण ही खलल नहीं पडता था। तमाम और चीजें भी थीं जो अंगरेजी की पढ़ाई में रुकावट ड़ालती थीं। इस इलाके में हवा खूब बहती है। यूँ तो वह सारे साल बहती है, पर बारिश में उसके बह निकले का कोई अंदाज, कोई सुराग लग नहीं पाता। हवा कभी भी कहीं भी बहनी शुरु हो जाती है। एक बार बहना शुरु होने के बाद फिर वह अपनी ही रौ में बहती है। वह क्लास की खिड़कियों को थपथपाती रहती है। खिड़की के पल्ले बंद होने पर भी बहती हवा की थपक से हिलते-डुलते हैं। उनकी बंद कुण्डी अपने खांचे में डोलती है। खिड़की पर हवा की थपक बेतरतीब तरीके से देर तक होती रहती है। कभी रुक-रुक कर तो कभी अचानक एक के बाद एक थोड़ी देर तक। इस इलाके की हवा को कोई शऊर नहीं। वह बहुत बेअदब है। इतनी बेअदब कि वह स्कूल की खिड़कियों को इस तरह थपकती है मानो वे स्कूल की खिड़कियाँ न हों बल्कि हवा के अपने घर का दरवाजा हों। मानो वे स्कूल की खिड़की के पल्ले न हों बल्कि हवा के अपने घर के दरवाजे के पल्ले हों और बेवक्त घर आने के कारण घरवाले घर का दरवाजा न खोल रहे हों और इस तरह वह हवा अपनी झुँझलाहट में दरवाजे का पल्ला पीट रही हो। खिड़की के पल्ले को अपने ही घर का दरवाजा समझकर बहुत यकीन से और झल्लाहट से उसे खड़खड़ा रही हो। कभी यूँ भी लगता मानो हवा कोई दिल्लगी कर रही है। हवा की थपक पर क्लास की खिड़कियों के शीशे थरथरा जाते। खिड़की के अपने फ्रेम में फंसे वे शीशे तेज बहती हवा में कंपकपा उठते। लापरवाही में एकाद बार खुले रह गये खिड़की के पल्लों को हवा ने इस कदर थपथपाया था कि उन पल्लों के फ्रेम में जड़े शीशे चटक गये थे। आज भी वे चटके हुए शीशे उन खिड़कियों के पल्लों में फंसे हैं। हवा की दस्तक पर दरवाजे की कुण्डी न जाने किस बेख़याली में डुलती है, न जाने किस नगमे की धुन पर टिनकती है। स्कूल के आसपास हवा कुछ इस तरह बहती है कि सीटी की सी एक सी आवाज सुनाई देती है। कभी यूँ भी होता है कि हवा के साथ सूखे पत्ते भी चले आते हैं। वे नाचती हवा के साथ नाचते रहते हैं। कभी हवाओं का शोर इतना हो जाता है कि अंगरेजी के टीचर को बीच में ही पढ़ाना बंद करना पडता है। ऐसे में सुँदर का मन क्लास से बाहर जाने का होता है। पर क्या करें यह अंगरेजी की क्लास है और बाहर जाने का सवाल ही नहीं। 




क्लास में उसके जैसा एक और लड़का है, उसे भी ऐसा ही लगता है। जब हवा बहने लगती है तो उसे भी लगता है कि चलो बाहर चलें। पर ज्यादातर लड़के-लड़कियाँ उनकी इस बात पर रजामंद नहीं हैं कि जब हवा चल रही हो तो उस हवा में उछल कूद करने क्लास के बाहर चले जाना चाहिए। हवा में ऐसा क्या है कि बाहर चला जाये, वह भी अंगरेजी जैसे सबजेक्ट की क्लास छोड़कर। ये दोनों लड़के न पागल हैं, एकदम पागल — वे सब कहते हैं। एक दिन अंगरेजी का टीचर वर्डसवर्थ की एक कविता पढ़ा रहा था - ‘चाइल्ड इज द फादर आॅफ मैन एण्ड आई विश माई ड़ेज़ टू बी बाउण्ड ईच टू ईच बाय नेचुरल पाईटी।’ क्लास के सिलेबस में वर्डसवर्थ की तीन कवितायें हैं और टीचर बड़े विस्तार से उन्हें समझाता रहता है — बच्चे कुदरत को बेहतर जानते हैं क्योंकी वे जंगलों, नदियों, झुरमुटों, घास और तमाम पशु पंछियों के बीच खेलते रहते हैं और इसी वजह से बच्चों में कुदरत का इल्म कहीं ज्यादा होता है और इसीलिए कवि कहता है कि बच्चे इंसानों के पिता के समान हैं, जंगलों, नदियों और तमाम कायनात के रंगों को बेहतर समझने वाला शख्स याने बच्चे इंसान के पिता समान अगर न हांे तो कौन हो भला — अंगरेजी का टीचर अपनी रौ में समझाता जा रहा था। पर तभी तेज हवायें बहने लगीं। अंगरेजी की कविता की पढ़ाई को बीच में ही बंद करना पड गया। हवा दरवाजों के पल्लों को भडभड़ा रही थी और अंगरेजी के टीचर के जेहन में दो बातें चल रही थीं, पहली वर्डसवर्थ की लाइन - एण्ड आई विश माई डेज़ टू बी बाउण्ड ईच टू ईच बाय नेचुरल पाईटी और दूसरी ‘भो’ के रुपक वाली एक गाली जो न जाने वह किसे तो देना चाह रहा था। तभी जोर की बिजली कडकने की आवाज आई। स्कूल की इमारत के एक तरफ से दूसरी तरफ तक बिजली के कडकड़ाने की आवाज गुजरती गई। स्कूल की पीतल की घण्टी झिझकती सी टिनक उठी और प्रिंसिपल के कमरे की खिड़की पर लटके वर्टिकल ब्लाइण्डज हल्के-हल्के काँपने लगे। छत से गिरते परनाले की आवाज पल भर को थम गई और फिर अगले ही पल धीरे-धीरे फिर से सुनाई देने लगी। क्लास में बच्चों के हाथ में पेन रुक गये और अंगरेजी के टीचर ने बिजली की जोर की कडकड़ाहट पर अपनी आँखें बंद कर लीं। एक लड़की ने पास बैठी लड़की का हाथ बिजली की धमाकेदार आवाज के साथ ही एकदम से थाम लिया। कुछ बच्चों को ऐसा लगा मानो उनके पैरों के नीचे से कोई धडधड़ाती रेल गुजरी हो अकस्मात। ..... अगले ही पली अंगरेजी के टीचर ने धीरे से आँखें खोलीं और टेबिल पर रुल और अंगरेजी की किताब पटकी और क्लास से बाहर आ गया। क्लास के बाहर दालान से गुजरते उसके चेहरे पर गुस्से और रंज की लकीरें थीं। वह बुदबुदाता, गाली देता, टीचर रुम की तरफ चला जा रहा था। क्लास में सनाका खिंचा था।

क्लास में कभी सुँदर के ड़ेस्क से लगी खिड़की खुली होती। कभी वह झिझकता सा उस खिड़की को खोल देता। खिड़की खोलते वक्त वह कनखियों से अपने सहपाठियों को देखता। सहपाठी अचरज से उसे खिड़की खोलता देखते। वह सहपाठियों से नजरें चुराता खिड़की खोल देता। क्लास में एक अजीब सी चुप्पी होती। एक कातर सी खामोशी। एक अटकी हुई सी तन्हाई। खिड़की खोलते वक्त कभी वह किसी की ओर न देख रहा होता तो कभी सिर झुका कर धीरे से बड़ी नफासत से खिड़की खोल देता मानो खिड़की खोलना भी कोई गुनाह हो, कोई बेशऊर किस्म का काम हो।

उस दिन बारिश धीरे-धीरे शुरु हुई थी। अंगरेजी का टीचर अंगरेजी पढ़ा रहा था। वही वर्डसवर्थ की एक कविता।

खिड़की के पार जमींदोज होकर सूख चुके पेड़ के टुकड़े पड़े थे। पेड़ के उन टुकडों में कहीं-कहीं कुकुरमुत्ते उग आये थे। स्कूल के अहाते में हवा में लहराती ऊँची-ऊँची घास के बीच पीले लिलि के फूल उगे थे। फूलों की पंखुड़ियाँ बहती हवा में कंपकंपा रही थीं। हवा में डोलती घास के साथ-साथ लिली के फूल भी अपने नाजुक तने के साथ डोल रहे थे। हवा के साथ घास इस तरह डोलती मानो घास के दरिया में लहरें उठ रही हों। एक के बाद एक हवा के झोंके के साथ-साथ। एक जगह से दूसरी जगह तक, एक के पीछे एक लहरिया लकीरों में आगे बढ़ती लहर। लिली के फूल भी अपने नाजुक तने के साथ घास के दरिया में चलती उन लहरों में लहर के साथ-साथ हरकत करते ताल से ताल मिलाते से डोलते। घास के भीतर और आसपास अनाज के कुछ दाने बिखरे थे। दानों में चूहे मारने की दवा लिपटी थी। दानों पर लिपटी चूहे मारने की दवा बारिश में घुल कर जमीन में समा रही थी। जो बारिश हो रही थी वह बारिश न होकर फुहार थी। इस फुहार में भी एक चिड़िया न जाने कहाँ से आ गई थी। कभी फुहार और डोलती हवा के बीच वह चिड़िया दूर तक गोल-गोल चक्कर लगाती। तो अगले ही पल खिड़की के विण्डो पैन पर बैठकर अपने पंख फटकारती, परों को झटकती पानी की बूँदों को अपने पंखों से अलग करती। चिड़िया को इस बात से मतलब न था कि जमीन में बिखरे अनाज के दानों पर लिपटा चूहे मारने वाला जहर इस फुहार के पानी में घुलता जा रहा है। उसने विण्डो पैन पर बैठकर इत्मिनान से अपने पंख फटकारे और फिर अपनी गईन उचकाते हुए, अपनी चोंच आसमान की ओर करते हुए कुहु- उहू की आवाज में कुछ गाने की कोशिश की। 

सुँदर की क्लास में उसके डेस्क के साथ लगी खिड़की के बहुत पार दूर तक बिखरे काले बादल धीरे-धीरे सरक रहे थे। मानो बेहद फुरसत में हों। गिरती फुहार की हवा के साथ जुगलबंदी थी। उस फुहार को हवा के साथ क्लास की खिड़की से क्लास के भीतर तक आ जाने में कोई गुरेज न था। वह दो बार लहराती हुई सुँदर के डेस्क से लगी खिड़की से भीतर तक आ चुकी थी। उसने एक बार सुँदर के गालों, आँखों, होठों और पेशानी को छुआ था। एक हल्के से लहराते झोंके के साथ वह सुँदर के चेहरे पर पल भर को अठखेलियाँ करके लौट चुकी थी। हवा में फुहार की उस लहर ने सुँदर के चेहरे को भिगोया न था बस हल्का सा गीला कर दिया था। हवा के साथ लहाराती फुहार जब दुबारा आई तो वह पहले से ज्यादा इठला रही थी और इस बार सुँदर के बाल भीग गये थे। 

अंगरेजी का टीचर पढ़ा रहा था और सुँदर खिड़की के पार देख रहा था। टीचर वर्डसवर्थ की कविता पढ़ा रहा था और सुँदर ने आहिस्ते से अपना हाथ खिड़की से बाहर कर दिया था। उसका हाथ गिरती फुहारों के बीच था। टीचर कह रहा था — आई वाण्डर्रड लोनली एज ए क्लाउड़, दैट फ्लोट्स आॅन हाई ओवर वेल्स एण्ड हिल्स ( मैं एक ऐसे तन्हा बादल की तरह से भटका जो उड़ता फिरता है, ऊँचाइयों पर घाटियों और पहाडों के ऊपर ) और सुँदर की उंगलियों पर बारिश की फुहार की नाजुक बूँदें पड रही थीं। वे गिरतीं और उसकी उंगली पर ठहर जातीं। अंगरेजी के टीचर ने कहा था कि सब बच्चे खिड़कियाँ बंद कर दें, पर सुँदर उसकी बात सुन न पाया था। अंगरेजी के टीचर ने कहा था कि सब बच्चे इस कविता को सुनें पर सुँदर बारिश के मंजर में डूबा था। वह बारिश में मगन था। उसकी भौंहों और पलकों पर फुहार की बहुत महीन बूँदें आ जमी थीं। उसकी आँखों में एक किस्म की चमक उतर आई थी। चेहरे पर राहत भरी खुशी की न जाने कैसी-कैसी तो लकीरें। उसे यह तो पता था कि जो खिड़की के पार कटा सूख चुका नीम का दरख्त है वह अंगरेजी के टीचर ने ही कटवाया है। जिसने चिड़ियों के अण्डो को फोड-फोडकर खत्म कर दिया और उनके घोंसले जलवा दिये वह अंगरेजी का ही टीचर है। जो चिड़ियों के दानों में जहर मिलवाता है वह भी वही है। पर वह बच्चा था और उसे इन सब बातों का ठीक-ठीक मतलब तब पता न था। 

वह इतना बेखबर था कि उसे पता भी न चला कि अंगरेजी का टीचर कब उसके पास आकर खड़ा हो गया है। कि सारी क्लास उसे देख रही है। उसकी तरफ हर कोई देख रहा है। उसे पता न था। अंगरेजी के टीचर ने खिड़की के बाहर चहकती चहचहाती उड़ती फिरती चिड़िया को देखा, उसने पल भर को घास में पड़े और बारिश में भीगकर अपना जहर खोते बीजों को देखा, उसने अचानक गरजकर खामोश हो जाने वाले बादलों के काले हहराते झुण्ड को देखा......फिर उसकी नजर सुँदर के हाथ पर पड़ी। बारिश में भीगती उसकी उंगलियों को उसने पल भर को देखा। हथेली के उथले गर्त में भरे पानी और उस पानी पर टपटपा कर छपाका करती गिरती बूँदों को देखा। टीचर गुस्से से भर उठा। धीरे-धीरे वह अपने आपे से बाहर हो गया। उसने बारिश की फुहारों में पसरी सुँदर की हथेली पर जोर से बेंत मारी, अपनी पूरी ताकत से — बदत्तमीज — टीचर के जेहन से उछलकर तमाम गालियाँ उसकी जबान तक आ गई थीं। पर वह बार-बार ‘बदत्तमीज’ कहता रहा। उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था। सुँदर के हाथ पर उसने पूरी ताकत से बेंत मारी थी। बेंत उसकी हथेली पर इतनी जोर से लगी थी कि हथेली की खाल एक झटके में उधड गई थी। सुँदर को पल भर को लगा मानो किसी ने उसकी हथेली पर जलते अंगारे रख दिये हों। उन अंगारों की आग में एक झटके में उसकी खाल जल गई हो। बेइंतहा तकलीफ और दर्द से वह बिलबिला उठा। उसने अपना हाथ झटके से खींचकर अपने पेट पर चिपका लिया। वह दर्द के मारे जोर से चीख पड़ा। उसके चीखने की आवाज पल भर को सारे स्कूल में गूँज उठी। उसकी चीख पर क्लास के दूसरे बच्चे ठहाका लगाकर खिलखिला दिये। उसकी चीख का पीछा करती उसके क्लास के दूसरे बच्चों के खिलखिलाने की आवाज थोड़ी देर तक सुनाई देती रही।

‘ पढ़ो....।’

अंगरेजी के टीचर ने चीखते हुए उससे कहा। फैलकर चौड़ी हो गई उसकी आँखें गुस्से से भरी हुई थीं। टीचर की चीख सुनकर खिलखिलाती क्लास एकदम से चुप हो गई। दर्द से कराहता सुँदर धीरे-धीरे खड़ा हो गया। हथेली की उधड़ी चमड़ी से खून रिसने लगा था। बंद मुठ्ठी में बंद ज़ख्म से रिसते खून से मुठ्ठी भीग गई थी। दर्द की एक नाकाबिले बरदाश्त तकलीफ से रह रहकर उसकी चीख निकल पडती थी। उसकी चीख के जवाब में टीचर की गुस्से से भरी गुर्राती और धमकी भरी आवाज आती, उस आवाज में इंतकाम के ना मालूम से लफ्जों की आवाज शुमार होती — पढ़ो....पढ़ो। सुँदर ने सामने बोर्ड पर लिखे को देखना चाहा पर आँसुओं से भरी आँखों के सामने सारा नजारा धुँधला हो जाता था। उसने अपनी शर्ट की बाँह से अपने आँसू पोंछे और सामने बोर्ड की तरफ देखने लगा। पर कुछ भी दीखने से पहले आँसू निकल आते थे और बोर्ड पर लिखा हर लफ्ज बेशक्ल होकर धुँधला जाता था। टीचर जोर-जोर से चीख रहा था - पढ़ो...पढ़ते क्यों नहीं...पढ़ो...। खौफजदा सुँदर घबराया और रोता पढ़ने के लिए बार-बार आँसू पोंछता। दर्द से कराहता उसका मन जोर-जोर से रोना चाहता था। पर चाहने से क्या होता है ? अगर आप दर्द के कारण जोर-जोर से रोना चाहें तो भी उससे क्या हो सकता है। वह बच्चा था। उसे बोर्ड पर लिखे को पढ़ना था और इस तरह उसे खुद को जप्त करना था। सुँदर को उसके सिर के ऊपर से गुर्राती आवाज आती थी — पढ़ो....पढ़ो...पढ़ो.....।

‘ फॉर ऑफ्ट....ऑफ्ट.... व्हैन ऑन माई कोच.....आई लाई,

इन...इन....’

कोई हिचकी उठती है। टपकता है आँसू चुपचाप।

‘ इन वेकेण्ट....वेकण्ट ऑर इन पैंसिव मूड...।’

(अक्सर जब मैं अपने बिस्तर पर पड़ा होता हूँ, तन्हा, जब कहीं कोई कहीं नहीं होता और जब घिर-घिर आती हैं तकलीफें।)

जेहन में कोई चित्कार था। चित्कार के मुँह को अंगरेजी के टीचर की हथेली ने दबा रखा था। मन को काटकर टुकड़े-टुकड़े करता कोई खंजर था। जो चल रहा था बेतहाशा। मन का हर टुकड़ा चुपचाप गिरता था। मन के गिरते टुकडों की कोई आवाज न आती थी। वे बेआवाज गिरते जाते थे। पूरी क्लास चुपचाप थी। हर तरफ सन्नाटा था। 




स्कूल के अहाते में काट कर जमींदोज किये गये नीम के दरख़्त के सूखे टुकड़े मुँह बाये पड़े थे। मर चुके पेड़ की सूखी लकड़ी पर भूरे-सफेद मशरुमों की कई कतारें उग आई थीं। घास में खोये हवा में कंपकंपाते पीले लिलि के फूल चुपचाप बारिश में भीगते थे, आसमान की ओर टकटकाते। एक लड़की चुपचाप आँसुओं से भरी सुँदर की आँखें देखती थी। एक लड़का बार-बार आँसू पोंछते सुँदर को कनखियों से झांक कर देखता था। एक लड़की के पैर और होंठ काँपते थे। एक लड़का चुपचाप सुँदर की कंपकाती आवाज में अंगरेजी की कविता की इबारत को गौर से सुनता था। सुँदर खुद को जप्त करता था। बार-बार जप्त करता था। उसकी छाती हिचकियों से भर उठती थी। गले में आवाज अटक जाती थी। 

‘ दे फ्लैश अपॉन दैट....दैट इनवार्ड आईज व्हिच इज द ब्लिस आफ .....ब्लिस आफ सालीट्यूड.......।’

(वे तमाम डैफोडिल के फूल जो कांपते हैं हवा में, टिमकते हैं सितारों की तरह, उस कामिल, उस मुत्लक़ तन्हाई में वे दीखते हैं मेरे मन की आँखों के सामने....और इस तरह मेरे मन की उजाड जगहें खुशियों से भर उठती हैं।)

‘ पढ़...पढ़...।’

चीखता है अंगरेजी का टीचर। सुँदर के कपडों से टकराती है अनजान देशों से आई फुहार। उसके बालों में रमती जाती है गीली हवा की ठण्डक। उसका दर्द ना काबिले बरदाश्त होता जाता है। आँसुओं से भरी आँखों के धुँधलके में दफन होते जाते हैं अनजान मुल्क की अनजान जबान के कवि के अल्फाज़। हथेली खून से भीगती जाती है। काँपते हैं पैर और लड़खड़ाती है जबान। थरथराते हैं होंठ।

‘ एण्ड दैन माई...माई हार्ट ....माई हार्ट ...विद प्लैजर फिल्स....एण्ड ड़ान्सेज विद द डैफोडिल्स....।’

(फिर मेरा यह मन खुशियों से भर उठता है और नाच उठता है डैफोडिल्स के उन फूलों के साथ...)

इस तरह खत्म होती जाती है कविता। गुस्से और नफरत से घूरता है अंगरेजी का टीचर। जमीन की ओर सिर किये, रोता बिलखता सुँदर हाथ जोडकर उससे दरख्वास्त करता है — अब आगे से ऐसा न करुँगा। माफ कर दो न सर।

उस रोज जब वह घर लौटा, तब भी वह रो रहा था। उसकी हथेली में निकल आया खून जम गया था। उसके पिता ने उसे रोता देख कहा था — रोता है। इतनी सी बात पर रोता है। चल चुप हो जा। सुँदर की हथेली पर बना घाव कुछ दिनों में पक गया था। सरकारी अस्पताल में उसके घाव में डॉक्टर ने चीरा लगाया था। अबकी बार सुँदर ने खुद को बेहतर तरीके से जप्त किया था। चीरा लगते वक्त वह एक बार भी नहीं चीखा। बस उसके होंठो से रह रहकर सिसकियाँ उठती थीं। एक दो बार आँखों में पानी भी भर आया। घाव की मरहम पट्टी के बाद डॉक्टर को देखते हुए वह मुस्कुराया था। बहादुर लड़का - डॉक्टर ने कहा था। डॉक्टर ने जानबूझकर उसकी हौसलाफजाई की थी। डॉक्टर ने उसके हाथ को उलट-पलट कर देखा था। हथेली पर बेंत की चोट के निशान के अलावा कोई और चोट न थी। डॉक्टर को बेंत की चोट के निशान का मतलब पता था। उसे हथेली पर पड़ी बेंत के चोट के निशान का मतलब खूब पता था। उसे पता था कि आजकल मुल्क में अंगरेजी का जोर है। वह डॉक्टर था और वह यह जानता ही था। 

सुँदर के एक हाथ में पट्टी थी और बाहर बारिश थी और उसने इत्मिनान से बारिश की गिरती बूँदों में अपना दूसरा हाथ दे रखा था। वह घर में था। यह खिड़की घर की खिड़की थी। यह स्कूल की खिड़की न थी। इस तरह वह इत्मिनान से बाहर गिरते पानी में अपना हाथ ड़ाल सकता था। उसके जेहन में पिता की बात थी — रोता है। इतनी सी बात पर रोता है — और डॉक्टर की बात भी — बहादुर लड़का — वह खुद ही खुद में मुस्कुराया था। वह जब-जब कागजों पर लिखी अंगरेजी की कविताओं को देखता उसे बारिश में नाचती उंगलियाँ और बेंत की मार से चोट खाये हाथ से निकलता खून दोनों दीखता। जब वह उन्हें पढ़ता उसे अपनी हथेलियों से उतरकर जेहन को चीरता कोई बेहद खैफनाक दर्द महसूस होती। वर्डसवर्थ और कीट्स की कविता के पार एक चीखते टीचर का चेहरा दीखता। अंगरेजी के कुछ सबसे खूबसूरत और बार-बार काट-काट कर फिर फिर रखे गये कुछ बहुत जानदार अल्फाजों के पार उसे उस लड़की का चेहरा दीखता जो आँसुओं से भरी उसकी आँखों को एकटक देखे जा रही थी। अंगरेजी में लिखी कीट्स की किसी इबारत के पार उसे क्लास में गूँजती सिसकियों की आवाज और एकदम खामोश बैठे उसके सहपाठी एक साथ दीखते। उसे सपनों में कविता पढ़ाने वाला टीचर दीखता और वह एक अजीब से खौफ से चौंककर जाग जाता। कविता पढ़ते उसके जिस्म काँप उठता, कविता की तमाम इबारतों को छूते उसका मन चीख पडता। 

पर बारिश को देखकर उसका मन अब भी मचल उठता। मन है मन का क्या कीजै ? भले हथेली पर घाव बन आये, पर फिर भी मन अगर किसी बच्चे का मन हो तो क्या हो ? इस तरह वह टीचर की बात न मान सकता था। ऐसी भयानक मार के बाद भी। टीचर को यह कभी भी पता न चलना था कि उसने एक ऐसे लड़के को बारिश के लिए सजा दी थी जो कि बारिश का दीवाना था। वह बचपन में था और बारिश की दीवानगी में था। इस तरह वह आगे न पढ़ सका। पिता की आमदनी कोई खास न थी। उसके दो भाई और एक बहन थी। गाँव में जमीन का एक टुकड़ा था। जब वह थोड़ा बड़ा हुआ उसके पिता ने उसे गाँव भेज दिया।

गाँव का घर दो कमरे का कच्चा घर था। जमीन का टुकड़ा घर से थोड़ा दूर था। जमीन के पास एक नदी थी जो अक्सर सूखी रहती। जब दस पंद्रह दिन बारिश होती वह कुछ समय के लिए बह निकलती और फिर धीरे-धीरे सूखने लगती। पर हमेशा ऐसा न था। पहले के दिनों में नदी साल भर बहती थी। जिन दिनों नदी सारे सााल बहती थी उन दिनों पिता की इस जमीन का गाँव में बड़ा मोल था। पर धीरे-धीरे पहले नदी की धार टूटी और फिर नदी का बहना बंद होता गया। इस तरह वह सिर्फ बारिश में बहती और वक्त सूखी पड़ी रहती। गाँव के किसान बारिश के मौसम में बाजरे की फसल लगाते हैं। बारिश के पानी में यह फसल धीरे-धीरे बढ़ती है। सुँदर ने देखा कि गाँव में बारिश, शहर में बारिश से बहुत अलग है। शहर में बारिश किसी मुसीबत की तरह से आती है। गंदे नाले भर उठते हैं और जगह-जगह पानी भर जाता है। जरा तेज पानी गिरे तो सडकें पानी में डूब जाती हैं। कभी-कभी तो गली में बढ़ता पानी घर की देहरी पार कर घर के भीतर तक चला आता है। यह एक वजह है कि शहर के लोग बारिश का लुत्फ ठीक से उठा नहीं पाते। वे खुश तो होते हैं पर उन्हें यह भी ख़याल रहता है कि यह बारिश मुसीबत भी लायेगी ही। शहर के लोगों को यह ख़याल ही नहीं आता कि अगर नाली चौड़ी हो और पानी की निकास ठीक ठाक हो तो भला पानी घरों में क्यों घुसे। नाले क्यों बजबजा जायें। वे बस बारिश को ही इसके लिए जिम्मेदार मानते रहते हैं। 

पर गाँव में बारिश ? गाँव में बारिश एक बिल्कुल अलग चीज है। गाँव की चौपाल में लोग अक्सर बारिश के बारे में बातें करते हैं। गाँव में बारिश की बातें बारिश आने के पहले से ही शुरु हो जाती हैं। वे लोग इस साल आने वाले बादलों के बारे में बातें करते हैं। क्या वे पिछले सालों की तरह ही घने और काले होंगे और खूब बरसेंगे ? वे बारिश के बारे में तरह-तरह की बातें करते हैं जैसे क्या इस बार बारिश जल्दी आयेगी, क्या अच्छी बारिश होगी, ये जो बादल हैं आसमान में टिके इनका क्या मतलब है....वगैरा-वगैरा। गाँव में लोग बारिश के बारे में चहकते हुए बातें करते हैं। गाँव में पहली बारिश किसी जश्न की तरह आती। शाम के खाने पर अपने-अपने हिस्से की रोटियाँ तोड़ते कुनबे के चेहरे पर बारिश के आ जाने की खुशी इतनी पाक-साफ होती कि यह बहुत आसानी से तस्दीक की जा सकती। यह उनकी आँखों में मुस्कुराती-सी चमक की तरह दीखती। उनकी बेचौनियों में यह डगमगाती। उनके होंठों पर न जाने किस दुनिया का किस्सा बयान करती। बारिश के लिए अपने परवरदिगार का शुक्रिया अदा करती औरतों की आँखों में न जाने किस जहान की चमक उतर आती। आदमियों के चेहरे पर एक किस्म का यकीन। सबको खुश होता देख खुश होते बच्चों की भाग-दौड में न जाने कौन सी दुनिया का चैन, कौन सी दुनिया की खुशनसीबी उतर आती। खेती के काम की अपनी तकलीफें हैं। अनाज का सही मोल मिलता नहीं। अक्सर बे-मौसम की बारिश, ओला या पाला पकती फसल को मार जाता है। कुछ किसानों ने जमीन बेच दी और शहर चले गये। पर कुछ नहीं गये। कुछ कभी न जायेंगे। वे ही क्यों चले जायें, वे ही क्यों ? ठीक है कि यह जिद है, गरीब और बहुत कम जाने जाने वाले गाँव के लोगों की जिद। पर यह जिद ही सही। हर तकलीफ के बाद भी वे उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते। वे इसके लिए तैय्यार नहीं। बारिश हर साल आती है। कोई नई बात नहीं। पर वे हर साल इंतजार करते हैं। हर साल खुश होते हैं। बारिश सबसे बड़ा त्यौहार है। यह ठीक है कि यह किसी त्यौहार की तरह नहीं मनाया जाता। पर यही है। फसल के लिए तैय्यार होते खेत पर, गाँव की बारिश इस तरह गिरती मानो अपने पानी में मोहब्बत का कोई रंग घोल लाई हो। बीजों को खुद में छिपाये सूखी जमीन पर जब वह फुहार होकर गिरती तो लगता मानो सारी कायनात में मुस्कुराहटों का कोई त्यौहार चल रहा है। सुँदर को यह गाँव अपने लोगों की दुनिया की तरह से दीखता है। वह बारिश का मान रखने वाले लोगों को बहुत तवज्जो देता है। जिस दुनिया में बारिश जश्न की तरह हो वही उसकी दुनिया है, उसे लगता है। उसे लगता है क्या ही अच्छा हो जो वह सारी जिंदगी के लिए इसी गाँव में रह जाये।

एक रोज शहर जाते वक्त सरकारी बस की खिड़की के पास बैठे सुँदर के जेहन में न जाने कहाँ-कहाँ के क्या-क्या ख़याल आ रहे हैं। बाहर होती बारिश की बूँदों में उसने हमेशा की तरह से अपना हाथ दे रखा है। उंगलियों पर गिरती बूँदें उंगलियों पर कुछ इस तरह गिरती हैं कि उसे अपनी पहली माशुका का चुंबन याद आता है। उसने बेहद हौले से उसकी हथेली को अपने हाथों में लेकर उसकी उंगलियों पर अपने गीले होंठ टिका दिये थे। उसे हथेली पर अंगारे की तरह बरसती अंगरेजी के टीचर की बेंत याद आती है, पर फिर भी उसका मन जरा भी नहीं हिचकता। वह बारिश में अपनी उंगलियाँ नचाता है। बारिश की बूँदें उसकी उंगलियों पर छपाका होती हैं। उसकी उंगली से टकरा-टकरा कर महीन बूँदों में टूट कर बिखर जाती हैं। उसे लगता है मानो वह अब भी बच्चा है और उसकी जिद पर उसकी बहन उसकी हथेली पर मेंहदी रचा दे रही है। जिस तरह मेंहदी का ठण्डा घोल एक लकीर में हथेली पर टिकता है उसी तरह एक लकीर में हथेली की खाल पर फिसलती जाती है बारिश की कोई आवारा बूँद। खाल पर पानी की लकीर छोड़ती। उसे हथेली के ज़ख्म पर चीरा लगाने वाले डॉक्टर की बात याद आती है — बहादुर लड़का — और वह याद करता है अपनी वह मुस्कान जो बेहद तकलीफ के बाद भी उसने अपने होंठों पर उतार ली थी। उसकी हथेली में जमा पानी का पतला परनाला बस की तेज रफ्तार के कारण हाथ से टकराती, हवा में टूटती, बूँद-बूँद होती लकीर में हवा में उड़ता चला जाता है। उंगलियों पर बारिश के अपने किस्से हैं, हथेली पर टप टप गिरती बूँदों के अनगिनत अफसाने। बस की खिड़की के बाहर अपनी उंगलियों पर गिरती बूँदों से न जाने उसे क्या-क्या तो याद आता है। अबकी वह अपने पिता से कह ही देगा कि वह अब से गाँव में ही रहेगा। गाँव की बारिश सच्ची बारिश है, वहाँ पानी का मोल है और मिट्टी की कीमत। गाँव की बारिश गंदी नाली का बजबजाता उफान नहीं और न ही सरे-राह अट जाने वाला पानी का कोई चहबच्चा। गाँव की बारिश ख़्वाब की तामीर की तरह है, खेत की मिट्टी के ख़्वाब की तामीर। अबकी बार वह पिता से कह ही देगा। कह ही देगा कि वह अब से गाँव में ही रहेगा । वह ख़यालों में है और इधर पीछे से तेज रफ्तार से आती एक प्राइवेट बस उस सरकारी बस को एक दम पास से बड़ी तेज गति से ओवरटेक करती है। वह बस एक झटके में सरकारी बस के बाहर गिरते पानी में फैले सुँदर के हाथ को काट देती है। सुँदर का हाथ उसकी कलाई से उखड जाता है। कलाई से उखडकर सुँदर का हाथ प्राइवेट बस की खिड़की में फंस जाता है। प्राइवेट बस सरकारी बस को ओवरटेक करके आगे चली जाती है। प्राइवेट बस की खिड़की में फंसा सुँदर का कटा हाथ भी उस बस के साथ चला जाता है। 

सरकारी बस में हंगामा मच जाता है। खून से लथपथ अपने हाथ को थामे सुँदर जोर-जोर से चीखता है। बहते खून को देखकर वह बस की सीट पर निढ़ाल हो जाता है। उसकी शर्ट और पैण्ट खून में सन जाती है। सरकारी बस में बैठे तमाम लोग उसकी तरफ दौड पडते हैं। बस रुक जाती है। 




प्राइवेट बस एक लग्जरी बस है। एक एयर कण्डीशन्ड बस। सरकारी बस को ओवरटेक करते वक्त इस बस के ड्रायवर ने देख लिया है कि सरकारी बस के एक मुसाफिर का हाथ टूट कर उसकी बस की खिड़की में फंस गया है। पर वह बस नहीं रोकता है। उसकी बस वैसे भी दस मिनट लेट हो गई है। वह और लेट नहीं होना चाहता है। इस तरह सुँदर का कटा हाथ उस प्राइवेट बस की खिड़की में फंसा रहता है। इस तरह वह बस अपनी तेज रफ्तार में चलती चली जाती है। उसके पास अभी वक्त नहीं। 

जिस खिड़की पर सुँदर का कटा हाथ फंसा है उसके किनारे दो लोग बैठे हैं। एक सलीकेदार अधेड उम्र औरत जो अंगरेजी का कोई उपन्यास पढ़ रही है और एक जवान आदमी जो कि एक बिजनैसमैन है और कान में इयरफोन लगाये है और गाना सुन रहा है। औरत पल भर को खिड़की के काँच पर छपाके की तरह से फैल गये खून को देखती है। फिर पल भर को उस फैलते खून को देखती रह जाती है। वह इत्मिनान से अपने उपन्यास को बंद करती है और काँच की ओर इशारा कर जवान बिजनैस मैन से इशारे ही इशारे में पूछती है कि यह क्या है। जवान बिजनैसमैन खिड़की के काँच पर फैले खून को पल भर को देखता है और इशारों ही इशारों में उसे बताता है — कुछ नहीं। औरत को उसकी बात पर यकीन नहीं होता। खिड़की पर अचानक लाल रंग का फैल जाना उसे अजीब लगता है। जैसे गहरे लाल रंग का कोई रंग एकदम से काँच पर डाल दिया जाये और वह छपाके से उस पर फैलता चला जाये। तेज भागती बस में हवा और बारिश के कारण वह घुलता हुआ काँच पर बेतरतीब तरीके से पीछे की ओर हवा के जानिब फैल रहा है। जवान बिजनैसमैन की बात पर औरत के चेहरे पर गैर यकीनी का जो इजहार उतरा वह फिर बना रहा। औरत के चेहरे पर ताज्जुब अंग्रेजी उतर आती है और काँच पर फैलते खून को देखकर वह हैरान हो जाती है। औरत काँच पर अपना सर टिका कर बाहर देखती है। उसे खिड़की के जंगले में फंसा सुँदर का कटा हुआ हाथ दीखता है। कटे हाथ को देखकर वह चीख पडती है। उसकी चीख सुन सारी बस अचानक से उसकी ओर देखने लगती है। कहीं कोई आवाज नहीं आती, खामोश बैठे लोग, खामोशी से, एकदम से उस औरत की ओर देखने लगते हैं, जो अभी-अभी चीख पड़ी थी। 

पास-पास बैठे दो बुजुर्ग औरत की चीख पर पहले तो एकदम से औरत के जानिब देखते हैं और फिर एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते हैं। औरत की चीख पर एक दूसरी औरत की गोद में पसरा बच्चा कुनमुनाता है। वह औरत कुनमुनाते बच्चे के सिर को सहलाती है और चीखनेवाली औरत को एक पल को हिकारत भरी नजर से देखकर अपनी नजरें दूसरी तरफ को घुमा लेती है। अपने मोबाइल में घुसा एक जवान लड़का अपनी सीट से अपनी गर्दन उचकाकर औरत की चीख पर उसकी सीट के जानिब देखता है और फिर बस में इधर-उधर उड़ती सी नजर ड़ालता है। सीट से ऊपर उठी उसकी गर्दन आहिस्ते-आहिस्ते फिर सीट से नीचे हो जाती है। औरत की चीख पर जवान बिजनैसमैन अपना इयरफोन उतार देता है और खिड़की के काँच के पार देखता है। उसे काँच के पार जंगले में फंसा सुँदर का कटा हुआ हाथ दीखता है। वह औरत को इशारों में कहता है कोई बात नहीं, वह है और सब ठीक हो जायेगा। वह आहिस्ते से खिड़की का काँच खोलता है। पानी और खून की बूँदे उड़कर औरत के कपडों और चेहरे पर आ गिरती हैं। वह दुबारा चीख पडती है। ड्रायवर को उसकी चीख सुनाई देती है। ड्रायवर ने सुँदर के हाथ को कट कर खिड़की के जंगले में फंसते हुए देखा था। उसे पता है कि औरत क्यों चीख रही है। वह अपनी ही रौ में बस चलाता जाता है। लेट हो गये वक्त में से उसने पाँच मिनट कव्हर कर लिये हैं। उसे अभी पाँच मिनट और कव्हर करने हैं। उसके पास वक्त नहीं है।

जवान बिजनैसमैस पास रखे छाते की नोक से खिड़की के जंगले में फंसे सुँदर के कटे हाथ को टोंचता है। सुँदर का कटा हाथ खिड़की की लोहे की सरिया और जंगले के बीच फंसा रहता है। जवान बिजनैसमैन छाते की नोक से उसे टोंचता है। सुँदर का कटा हाथ लोहे के सरिये के नीचे फिसल जाता है। सरिये से फिसलकर वह जंगले में अटक जाता है। औरत हौले से ‘ओह’ कहती है। जवान बिजनैसमैन उसे देखता ‘साॅरी’ कहता है। खून की चंद बूँदें औरत के माथे से आ टकराती हैं। जवान बिजनैसमैन फिर से छाते की नोक से सुँदर के कटे हाथ को टोंचता है। औरत अपना सिर आगे कर छाते की नोक से टोंचे जाते सुँदर के कटे हाथ को देखती है। बस हरे-भरे रास्ते से गुजरती जाती है। बस के शाॅक आॅब्जर्वर इतने मजबूत हैं कि बस खराब रास्ते पर भी मक्खन सी चलती है। गड्ढों पर वह उचकती नहीं और न ही उसमें उसकी तेज स्पीड का पता चलता है। औरत बस के बाहर गुजरते जंगल के नजारे को देखती रह जाती है। इधर सुँदर का कटा हाथ बस की खिड़की से अलग होकर रोड पर धप्प से आ गिरता है। जवान बिजनैसमैन इस तरह मुस्कुराता है मानो उसने उस औरत की कितनी बड़ी मदद कर दी। औरत के चेहरे पर तसल्ली उतर आती है। शुक्रगुजार होने की एक अदा उसके मासूम से चेहरे पर किसी रंग सी बिखरती है। तभी उसे ख़याल आता है कि खून की कुछ बूँदें उस पर आ गिरी हैं। फिर भी वह एक बार जवान बिजनैसमैन की आँखों में देखती है। थोड़ी तसल्ली के बाद दुबारा देखती है अबकी बार मुस्कुराते हुए, आँखों में किसी अनजानी सी दुनिया की चमक को बटोरे हुए। जवान बिजनैसमैन खून की बूँदों से भरे उसके चेहरे को बड़ी मोहब्बत से देखता है। दोनों के पास सीट पर बैठा एक बुजुर्ग मुस्कुराता हुआ उस जवान बिजनैसमैन को अपना अंगूठा दिखाता है याने — वैल डन। जवान बिजनैसमैन उसकी बात पर धीरे से इशारों में सिर झुकाकर उसका शुक्रिया अदा करता है — थैंक्स। सुँदर के कटे हाथ के गिरने के वक्त हवा में बहकर चली आई खून की और दो चार बूँदें औरत पर गिर गई थीं। इस बार उसे खून की उन बूँदों का गिरना महसूस न हुआ। बुजुर्ग की बात में अपनी बात शुमार करते हुए वह जवान बिजनैसमैन की ओर देखकर मुस्कुराती है — थैंक यू — उसकी आँखों में देखती कहती है। जवान बिजनैसमैन खूबसूरत है। औरत चौथी बार उसके चेहरे को देखती है, अबकी बार उसकी आँखों के पार तक — तुम एक शानदार शख़्स हो — वह कहती है। जवान बिजनैसमैन उसे कुछ टिशु पेपर देता है। औरत टिशु पेपर में पानी की कुछ बूँदें टपकाकर चेहरे और हाथ में गिरी खून की बूँदों को साफ करती है। उसके माथे पर अब भी खून की एक बूँद है। जवान बिजनैसमैन इशारों में उसे बताता है कि उसके माथे पर अब भी खून की एक बूँद रह गई है। औरत उसे देखकर मुस्कुराती है। फिर माथे से खून की उस बूँद को टिशु पेपर से साफ कर लेती है। जवान बिजनैसमैन का मन खुशी से भर उठता है। उसने एक परेशान औरत की मदद की। वह निश्चय ही एक नेक बंदा है — वह सोचता है। फिर वह फिर से इयरफोन लगाकर गाना सुनने लगता है। जब औरत चीखी थी तो प्राइवेट बस के कुछ लोगों ने उसकी तरफ यूँ देखा था मानो वह कितनी जाहिल और बेशऊर औरत है। फिर अगले ही पल वे सब खुद में मगन हो गये थे। कोई मोबाइल में घुस गया, तो कोई अपनी आँखों पर फिर से पैड लगाकर पुश बैक सीट में धंस गया, तो कोई फिर से खिड़की के बाहर देखने लगा, तो कोई अपने साथ बैठे मुसाफिर से फिर से फुसफुसाता सा बात करने लगा, तो कोई फिर से आधे खाये चीज सैंडविच को फिर से खाने लगा.....। इस तरह प्राइवेट बस चलती रही। बिना रुके। एक सी स्पीड में।

रोड पर गिरे सुँदर के कटे हाथ के पास से एक साइकिल सवार गुजरा था। उसे थोड़ा दूर से ही रोड पर पड़ा सुँदर का कटा हाथ दीख गया था। कटे हाथ को वह किसी अजूबे की तरह से देख रहा था। कीचड और खून में सना रोड पर लावारिस पड़ा कटा हाथ अजीब सा दीखता था। साईकिल वाले ने एक हाथ में छाता पकड रखा था और दूसरे में साईकिल का हैण्डल। जमीन पर गिरे कटे हाथ के पास, कटे हाथ से बहुत दूर से ही साईकिल को चलाता वह गुजर गया था। रोड पर दूर जाता वह बार-बार पलट-पलट कर रोड पर लावारिस पड़े सुँदर के कटे हाथ को देख रहा था। वह चुपचाप चलता चला गया था। दो लड़के उस रास्ते से दौडते हुए गुजरे थे। इस इलाके में फौज में भर्ती होने वाली है सो वे दौड की प्रेक्टिस कर रहे हैं। सुँदर के कटे हाथ के पास वे दोनों पल भर को रुके थे। एक ने अपने मोबाइल में उस कटे हाथ की फोटो खींचनी चाही। उसने सोचा था कि फोटो खींचकर वह उस फोटो को फेसबुक पर अपलोड कर देगा। जरुर इस फोटो पर उसे बहुत से लाइक्स और मैसेज मिलेंगे। कितने अचरज की बात है कि रोड पर एक कटा हाथ पड़ा हुआ है। यह बात उसे रोमाँच से भर देती थी। रोड पर लावारिस पड़े सुँदर के कटे हाथ को देखकर वह कुछ ऐसा कर रहा था मानो उसने कितनी अजूबी चीज देख ली हो। फोटो खींचने उसने अपना मोबाईल निकाला ही था कि उसके दोस्त ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। पता नहीं क्या मामला है ? कहीं कोई पुलिस-वुलिस का मामला हो गया तो खासा लफड़ा हो जायेगा। तीन रोज बाद फौज की भर्ती का इम्तेहान देना है। पुलिस के चक्कर में कौन पड़े। ऐसे में फौज की नौकरी की सारी तैय्यारी भी धरी की धरी रह जायेगी। वे दोनों चुपचाप वहाँ से चले गये। उस रास्ते से एक साधू महाराज की सवारी भी निकली थी। आगे-आगे पालकी में साधू और पीछे-पीछे तमाम उनके भक्तगण। भक्तगण भजन गा रहे थे। वे सब नहा धोकर निकले थे। बारिश में साधू जी नदी पार नहीं करते हैं। वे यहीं रहेंगे। पास के गाँव में। उसकी सारी तैय्यारियों में वे सब लगे थे। रोड पर पड़ा सुँदर का कटा हाथ देखकर उनमें से दो चार जवान लड़कों ने पूरे मजमे को रोड के एक तरफ से ही रोड को पार करने की हिदायत दी। कटे हाथ से थोड़ा दूर वे एक लाइन बनाकर खड़े हो गये। ताकि नहाये धोये धर्म के काम में लगे इन सब लोगों में से कोई भी इस कटे हाथ की तरफ न आ जाये। साधू और उनके भक्तों का मजमा धीरे-धीरे गुजरता गया। 

सारे जहान में सिर्फ दो लोग ऐसे थे जिन्हें रोड पर लावारिस पड़े सुँदर के कटे हाथों में दिलचस्पी थी। जो लगातार रोड पर पड़े सुँदर के कटे हाथ को देख रहे थे। बड़े ही मन से, बड़ी ही तमन्नाओं से भरी नजरों के साथ। न तो साईकिल वाले को, न फौज की नौकरी के लिए दौड-भाग में लगे उन जवान लड़कों को और न ही साधू और उसके भक्तों के मजमे को पता था कि जब वे सब इधर से गुजर रहे थे तो ये दोनों लोग रोड पर लावारिस पड़े सुँदर के कटे हाथ को टकटकी लगाकर देख रहे थे। इनमें से पहला था एक विशाल उकाब जो आसमान में गोल-गोल चक्कर लगा रहा था। उकाब के बड़े-बड़े पंख थे और कैंची से भी तेज चलने वाली धारदार चोंच। उसने रोड पर पड़े सुँदर के कटे हाथ को दूर से ही देख लिया था। दूसरा था एक कुत्ता जो रोड के पास एक खेत में खड़ा था। रोड पर पड़े सुँदर के कटे हाथ को देखकर उसकी लार टपक रही थी। पर इसी बीच सरकारी बस वहाँ आ रही थी। वही सरकारी बस जिसमें अपने टूटे हाथ को पकड़े दर्द से कराहता सुँदर बैठा था। उकाब और कुत्ते दोनों ने बस को पास आकर रुकते देखा था। पर बाजी उकाब के हाथ न लगी। इससे पहले कि कोई बस से उतरता कुत्ता तेजी से दौडता रोड पर आया और सुँदर के उस कटे हाथ को अपने जबड़े में दबाकर भाग खड़ा हुआ। कहते हैं उकाब और कुत्ता बहुत देर से इस जगह को ताक रहे थे। उस वक्त से जब वह प्राइवेट लक्जरी बस यहाँ से गुजरी थी। प्राइवेट लक्जरी बस के गुजरने के बाद अक्सर उन्हें रोड पर कुछ न कुछ मिल जाता था। कभी प्राइवेट लक्ज़री बस से कुचले गये किसी जानवर की लाश तो कभी बस की भयावह टक्कर से दूर छिटककर अधमरा हो गया कोई जीव। कभी उस बस के गुजरने के बाद ऐसा भी हुआ कि रोड पर लिथड़ी किसी की खून में सनी आँतें रोड पर पड़ी मिल गईं। कभी जमीन पर बिखरे कटे-फटे अंग मिले। कभी बस के टायरों में लिपटकर दूर तक रोड पर सना हुआ भेजा मिल जाता तो कभी कोई माँस का लोथड़ा। यह इलाका इन दोनों का इलाका था। उकाब का भी और कुत्ते का भी और वे उस लक्जरी प्राईवेट बस के गुजरने का इंतजार करते थे, ललचाई नजरों से।

जो कुत्ता सुँदर के कटे हाथ को अपने जबड़े में दबाकर भाग खड़ा हुआ था वह कुत्ता गली का कुत्ता न था। उस कुत्ते का अपना एक इलाका था। हग-मूतकर उसने अपने इलाके की चौहद्दी बनाई थी। दूसरे कुत्ते उसके हगे मूते की बदबू पाकर दूर से ही जान जाते थे कि यह उस कुत्ते का इलाका है। कि सामने की तरफ उसके इलाके की चौहद्दी है। उसके पार बस उसका ही इलाका है। उसके हगे मूते की बदबू दूर-दूर तक फैलती थी। वह और उसकी गैंग के कुछ दूसरे कुत्ते उसके इलाके की चौहद्दी की हिफाज़त करते थे। उस चौहद्दी की तरफ आने वाले हर दूसरे कुत्ते को वे फाड ड़ालने को बेताब थे। हर शख़्स पर जो उस कुत्ते के इलाके की चौहद्दी की तरफ आता था वे न सिर्फ भौंकते थे, बल्कि अपनी पीठ के बाल खड़े कर और अपने खूँखार जबड़े दिखाकर उसे डराते थे। कुत्ते के कैनाइन दाँत लंबे और पैने थे। उसके जबडों में गजब की ताकत थी। उसके खून में तमाम बीमारियों के जरासीम थे। उसकी आँखों में लाल-लाल खून की बेहिसाब लकीरें दीखती थीं। उसके कान खड़े रहते थे। उसके मुँह से लार गिरती रहती थी। उसकी लार जहरीली थी। उसमें रैबीज के जरासीम थे। उसके पंजे बड़े थे। उन पंज्जों में लंबे नाखून थे। दूसरे तमाम लोग उससे बेतरह खौफ खाते थे। वे उस कुत्ते को ‘गुण्डा कुत्ता’ कहते थे।

सुँदर जब बस से उतरा तब तक वह गुण्डा कुत्ता उसका कटा हाथ अपने जबड़े में दबाये वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। सुँदर ने अपने कटे हाथ को बाँहों से थाम रखा था। कलाई के आगे से हाथ गायब था। खाल का टुकड़ा लटक रहा था। लाल-लाल माँस दीख रहा था। सरकारी बस के किसी हमसफर ने उसके कटे हाथ पर गमछा बाँध दिया था। एक औरत ने अपनी चुन्नी से उसके गमछा लिपटे कटे हाथ को लपेटकर उसके कंधे और गर्दन से बांध दिया था। एक आदमी ने उसकी कलाई के ठीक ऊपर जहाँ से उसका हाथ कटा था एक लंबा रुमाल कसकर बाँधा था ताकि उसमें से और खून न निकले। सुँदर ने पल भर को कटे हाथ को अपने जबड़े में दबाकर ले जाते उस गुण्डे कुत्ते को देखा। उसे हथेली पर बेंत के घाव पर पट्टी करने वाला वह डॉक्टर याद आया — बहादुर लड़के — उसकी बात उसके जेहन में दो तीन बार और गूँजी — बहादुर लड़के। उसे पल भर को गुस्से से बजबजाता उसका अंगरेजी का टीचर दीखा। सुँदर एक तरफ को थूक दिया और चीखता-चिल्लाता उस कुत्ते के पीछे भाग खड़ा हुआ। उसे भागता देख सरकारी बस के कुछ दूसरे मुसाफिर भी उसके साथ उसके पीछे-पीछे भागने लगे। एक आदमी ने अपने हाथों में लाठी थाम ली। उसे देख उनमें से कुछ ने अपने हाथों में पत्थर उठा लिये। कुछ और लोगों के पास एक दो लाठिया थीं वे उसे थामे दौड पड़े थे। वे सब उस ओर भागने लगे जिस ओर गुण्डा कुत्ता भागते हुए गया था। 

इतनी तकलीफ में भी सुँदर चिल्लाता-गुर्राता हुआ उस गुण्डे कुत्ते के पीछे भाग खड़ा हुआ था। उसके पीछे बस के दूसरे लोग भी हाथों में लाठी और पत्थर उठाये चिल्लाते हुए दौड पड़े थे। गुण्डा कुत्ता अपने जबड़े में सुँदर का कटा हाथ दबाये दौड़ा चला जा रहा था। उसके पीछे चीखता चिल्लाता सुँदर और उसके पीछे सरकारी बस के और तमाम लोग। बारिश तेज हो गई थी। हर तरफ पानी के चहबच्चे और कीचड दीखती थी। लोगों का चिल्लाता हुजूम उस घनघोर बारिश में गुण्डे कुत्ते के पीछे दौडता जाता था। पर तभी दर्द के मारे सुँदर वहीं बैठ गया। गीली जमीन पर बारिश में भीगता। जमीन पर उकडू बैठा वह दर्द के मारे जोर-जोर से चीख रहा था। सरकारी बस वाले आदमियों में से एक उसके पास आकर खड़ा हो गया। बाकी सब उस गुण्डे कुत्ते के पीछे-पीछे दौडते रहे। दौडते-दौडते गुण्डा कुत्ता हाँफने लगा। सुँदर के कटे हाथ को मुँह के जबड़े में दबाये-दबाये दौडना अब उसके लिए मुश्किल हो रहा था। उसने फिर एक दूसरी चाल चली। वह अपने इलाके का गुण्डा कुत्ता था। हर कोई उससे ख़ौफ खाता था। उसे लोगों को डराने की कई-कई तरकीबें आती थीं। 




उसने सुँदर के कटे हाथ को जमीन पर रख दिया और उसके ऊपर अपनी टाँगें फैलाकर खड़ा हो गया। उसने अपनी पीठ के बाल खड़े कर लिये और अपनी पूँछ सीधी ऊपर को तान ली। अपने जबड़े को उसने पूरा खोल लिया। इस तरह कि उसके सारे कैनाइन दाँत बाहर को दीखने लगें। आँखें फैलाकर वह पहले तो गुर्राने लगा और फिर जमीन को अपने नाखूनों से उधेडता जोर-जोर से भौंकने लगा। घनघोर बारिश में वह और भी खौफनाक दीखता था। सरकारी बस से भागते आते लोगों में से एक ने उसकी ओर जोर का पत्थर फेंका था। पत्थर गुण्डे कुत्ते के पास कीचड में आकर धपाक से गिरा था। पत्थर के गिरने के साथ ही अपने जबड़े को पूरा खोलकर और जमीन को अपने नाखूनों से उधेडता वह गुण्डा कुत्ता बेहद खौफनाक तरीके से भौंकने लगा। पत्थर फैंकने वाला वह शख़्स मटमैली धोती और उस पर बरसों की रगड खाई बदरंग बण्डी पहने अजीब सा दीखता था। उसके काले चेहरे पर गुस्से की लकीरें थीं और वह दूर से ही गाली देता गुण्डे कुत्ते पर चिल्ला रहा था। दोनों हाथों में पत्थर पकड़े अपने हाथों को आसमान की ओर उठाये वह जोर-जोर से चिल्लाता था। चिल्लाते वक्त उसके पीले मटमैले दाँत एकदम से दीखते थे। उसकी आवाज उस घनघोर बारिश में भी आसमान तक गूँजती थी। उसने इतनी जोर से पत्थर फेंका था कि अगर वह गुण्डे कुत्ते को लग जाता तो उसकी हड्डी टूट जाती। उसके पीछे पत्थर उठाये सरकारी बस से दौडते चले आ रहे चीखते-चिल्लाते लोगों का हुजूम था। एक कम उम्र का जवान लड़का था। उसने अपने दोनों हाथों में पत्थर उठा रखा था। एक हाथ में ईंट का आधा टुकड़ा और दूसरे में एक साबुत पत्थर। वह बार-बार चिल्ला रहा था — मारो...मारो इस पागल कुत्ते को.....मारो - उसकी आवाज बारिश के उस घनघनाते शोर में भी साफ सुनाई देती थी। हाथ में लाठी पकड़े लाठी वाला आदमी ठीक गुण्डे कुत्ते के सामने आकर खड़ा हो गया था। उसने अपने हाथ में मजबूती से लाठी पकड रखी थी। उसने जमीन पर उस लाठी को ठोंक कर उसे मजबूती से हाथों में पकडकर खड़ा हो गया। गुण्डे कुत्ते की आँखों में नफरत थी और उस आदमी की आँखों में गुस्सा। गुण्डा कुत्ता भौंकता था और वह, वह एक पल को सिर्फ इसलिए रुका था कि गुण्डे कुत्ते के जबड़े पर वह किस ऐंगल से वार करे जिससे उसका जबड़ा टूट जाये। गुण्डे कुत्ते ने देखा कि वे तमाम और लोग भी सरकारी बस से उतरकर उसके पीछे-पीछे भागते हुए आ गये हैं। उन सबके हाथों में पत्थर है। बारिश तेज हो गई थी। गुण्डा कुत्ता यह जानता है कि किनसे वह जीत सकता है और किनसे नहीं। उसका अनुमान एकदम सही है। उसे लौटकर जाना ही होगा। वह दो कदम पीछे हटता है और दौडकर भाग खड़ा होता है। बहुत से पत्थर उसकी ओर लपकते हैं। एक पत्थर उसके पैर पर पडता है, वह कें....कें करता लंगडता सा भागता जाता है। दो रोज बाद अपने इलाके के दूसरे कुत्तों को उसने कहा — पत्थरबाजों के मुँह क्या लगना ? क्या मुँह लगना पत्थरबाजों के — फिर वह गुर्राता सा बोला था — बताओ भला सरकारी बस से उतरकर आये थे ये सब पत्थरबाज — गुण्डा कुत्ता कहता है बाकी सब कुत्ते उसकी बात पर अपनी पूँछ हिलाते हैं। 

जमीन पर पड़ा सुँदर का कटा हाथ बारिश में भीग रहा है। उस पर लिपटी मिट्टी पानी की बौछार में बह गई है। जमा हुआ खून धीरे-धीरे बारिश के पानी में घुलकर बह रहा है। सुँदर उस कटे हाथ के पास उकडू बैठा है। उसके आसपास सरकारी बस से आये दो चार लोग खड़े हैं। कटे हाथ पर लिपटी मिट्टी और धूल धुलती जाती है और उस कटे हाथ की हथेली पर टीचर की बेंत की चोट का निशान दीखने लगता है। बारिश में धुलने के बाद वह निशान कटे हाथ की मर चुकी खाल पर एकदम साफ दीखता है। सुँदर को स्कूल के अहाते में काटकर गिरा दिये गये पेड़ की सूखती ड़ालियाँ याद आती हैं। वह अपने कटे हाथ की बेजान उंगलियों पर गिरती बारिश की बूँदों को टकटकाता सा देखता है। उसे स्कूल के अहाते में बिखेरे गये जहरीले दानों को चुगते परिंदे दीखते रहते हैं। जहर के असर से वे लड़खड़ाते हैं। उनके पंख फडफड़ाते हैं। मुँह खुलता है, बंद होता है। गिरते वक्त उनकी आँखें खुली रहती हैं। आसमान को ताकती। वह पल भर को जमीन पर पड़े अपने कटे हाथ की बेजान उंगलियों पर फिसलती पानी की बूँदे देखता है। 

किसी साफ-सुथरे से दिन में स्कूल के अहाते में जलाई जाती हैं परिंदों की लाशें। वे उन्हें एक ढेर की शक्ल में इकठ्ठा करते हैं। फिर किसी कोने में उन सबको जलाते हैं। आसमान साफ होता है। रौशनी से भरा। उसी आसमान में उड़ता फिरता है उनकी जलती लाशों से उठता धुँआ। उनकी हड्डियों और पंखों से उठती राख। साफ आसमान में काले भूरे बादल बनकर उड़ती है उनकी जलती लाशों से उठा धुँआ और राख। तमाम जगहों पर गिरती रहती है आसमान से उड़ती आती राख। आसमान से गिरती जली लाशों की राख बेआवाज गिरती है। राख के गिरने की भी कहीं आवाज होती है, भला ? क्या फर्क अगर वह जली लाशों की राख ही हो तो ? इस तरह सबकुछ चुपचाप चलता है। किसी को पता नहीं चलता। पता चलने के लिए आवाज का आना जो जरुरी है। बेआवाज पर क्या पता चले भला। वह राख गिरती रहती है खेतों में, घरों की ढलुआँ छतों पर, चिमनियों पर, चौराहों पर, ट्रेन की पटरियों पर, दरख़्तों के पत्तों पर, खेल के मैदानों पर और फुटपाथों पर। रोजमर्रा के काम में लगा कोई शख़्स पल भर को नजर उठाकर देखता है, आसमान से गिरती राख को और फिर अपने काम में लग जाता है। उसके पास कोई उपाय नहीं कि वह जान पाये कि यह राख लाशों के जलने से उठी राख है। इस तरह दुनिया चलती रहती है। सुँदर के कटे हाथ में दीखते हैं गुण्डे कुत्ते के दाँतों के निशान। हथेली की मर चुकी खाल पर गुण्डे कुत्ते के कैनाइन दाँतों के निशान जगह-जगह बने हैं। उन निशानों की उधड़ी खाल में से झाँकता है हमेशा के लिए खामोश हो चुके हाथ का गुलाबी माँस। गुण्डे कुत्ते के कैनाइन दाँतों से जगह-जगह से फटकर उधड चुकी खाल के लटकते कतरे। 

उसे परिंदों के जलाये जाते आशियाने याद आते हैं। उससे उठती लपटें उसे दीखती हैं और वह जमीन पर पड़े अपने कटे हाथ में दीख रहे बेंत की चोट के निशान को छूकर देखना चाहता है। वह पल भर को हथेली पर बने बेंत की चोट के निशान देखता है और अपने बायें हाथ की हथेली से अपने मुँह को छिपा लेता है। तेज बारिश में उसके सुबुकने की आवाज सुनाई नहीं देती। घोंसलों से निकालकर फेंके जाते परिंदों के अण्डे और जूतों के नीचे कुचले जाते अण्डों का एक बहुत पुराना नजारा उसकी आँखों के सामने से गुजरता जाता है। कट कर मर चुके हाथ में लक्ज़री प्राइवेट बस का कोई निशान नहीं है। जवान बिजनैसमैन ने बहुत सावधानी से उसे बस की खिड़की के काँच पर से हटाया था। उसने छाते की नोक से उसे इस तरह अलग किया था कि सुँदर के कटे हाथ पर उसका कोई निशान न बने। वह सबूत बनाने और न बनाने के भेद को समझता है। यह उसके बिजनैस का बुनियादी उसूल है। 

भरी हुई आँखों से धुँधला जाते मंज़र में सुँदर को लगता है मानो सात समंदर पार के वर्डसवर्थ नाम के किसी कवि के वे अल्फाज दीख रहे हैं, अब भी, कहीं दूर और अपनी शर्ट की बाँह से आँखें पोंछ वह उसे अटकता सा पढ़ता जाता है — ब्लिस....ब्लिस आॅफ सालीट्यूड ....उन अल्फाजों के साथ उसे वे कुकरमुत्ते दीखते हैं जो स्कूल के अहाते में सूख चुके पेड़ की बेजान लकड़ी पर उग आये थे और आसमान की ओर मुँह बाये भीगते थे बारिश में....। 

सरकारी बस से उसके साथ आया मैली धोती और बण्डी वाला शख्स उसे उठाता है। उसके कंधे पर अपना हाथ रखता है। वे सब फिर उस बस की तरफ चल पडते हैं।

घर में सुँदर के पिता उसके सिर पर हाथ फेरते हैं — तेरा बाप अभी जिंदा है, क्यों मन छोटा करता है रे। यहाँ शहर में भी कोई नौकरी मिल ही जायेगी — सुँदर के पिता सुँदर के कटे हाथ से अपनी नजरें चुराते हैं जो उसकी शर्ट की आस्तीन से बाहर निकला हुआ है, दरवाजे के पीछे से सुँदर की माँ के सुबुकने की आवाज आती है, जो चाय बनाने का कहकर गई और दरवाजे के पीछे जाकर खड़ी हो गई थी चुपचाप — न पिताजी गाँव तो मैं जाऊँगा ही......अब वहीं रहुँगा — कुछ इस तरह कहता है सुँदर मानो नाराज हो, जान चुका हो अपनी नाराजगी की ठीक-ठीक वजह, मानो अब खुद को जप्त न करना चाहता हो ....। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. परिंदों की अपनी दुनिया थी। वे उड़ते थे और सारे आसमान पर उनका अख्तियार था। वे उड़कर कहीं भी जा सकते थे। वे बंदिशों को न मानते थे। वे उड़कर पराये मुल्कों में भी जा सकते थे। वे सरहदों को न मानते थे। वे रोज के खाने की तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ उड़ते फिरते थे। उनके पंखों में ताकत थी। उनके पंख हवा के हमराज थे। ❤️ बेहतरीन कहानी। बांधे रखी। बधाई भटनागर जी को।

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