जो मैंने अमृत राय साहब को पढ़कर फिर से सीखा - ज्ञान चतुर्वेदी

Amrit Rai, the younger son of Munshi Premchand



मानव मन की विसंगतियों, परतों, अंधेरों, उजियारों का जैसा ज्ञान अमृतराय को है वह अमृत राय की रचनाओं में आये चरित्रों को इकहरा नहीं रहने देता, हर चरित्र को उसके सारे आयामों से देखता है

जो मैंने अमृत राय साहब को पढ़कर फिर से सीखा 

—  ज्ञान चतुर्वेदी

जीवन के किसी भी क्षेत्र में, कोई छोटा-मोटा-सा मकाम भी हासिल करते ही हम अक्सर भूल जाते हैं कि कोई मक़ाम अंतिम नहीं होता, मंजिलें और भी हैं, सीखने को बहुत सारा बाकी है; सीखना कभी खत्म नहीं होता बशर्ते आप ही सीखना बंद न कर दें। मैं एक लेखक के अलावा डाक्टर भी हूं। दोनों में निरंतर सीखने और हुनर को मांजने का बड़ा महत्व है। काम तो इसके बिना भी चलता है पर आप फिर अपनी ही धुंधली-सी छाया बनकर अपनी कीर्ति के भुतहे खंडहर में घूमते, डराते रह जाते हैं। डाक्टर के तौर पर कहूं तो हर नया मरीज न केवल मेरे डाक्टरी ज्ञान में कुछ नया जोड़कर जाता है, वह यह भी बता जाता है कि अभी तो बहुत सीखना है यार! इस अहसास ने मुझे एक 'क्वालीफाइड क्वैक' (सनदयाफ्ता झोलाछाप डाक्टर) बनने से बचाया है; हां, मैंने बड़ी बड़ी डिग्रियों वाले बहुत से डाक्टरों को एक झोलाछाप डाक्टर में बदलते हुये देखा है क्योंकि उन्होंने डिग्री मिलने के बाद फिर कुछ नया सीखा ही नहीं। लेखन की दुनिया भी ऐसी ही है, ठीक ऐसी कि जहां निरंतर नया करने और सीखने वाला ही अपने हुनर में मोक्ष पाता है वर्ना तो वह प्रेत बनकर गोष्ठियों, विमोचनों, फतवों, मठों, पुरुस्कारों और जमावटों के वीरान-हल्ले में भटकता ही रह जाता है। मैंने बेहतरीन लेखकों को भी एक अंतराल के बाद 'चुकते' हुये देखा है क्योंकि उनको कुछ बेहतरीन रचने के बाद अचानक यह इहलाम हुआ कि वे पहुंच चुके हैं। वे अचानक ही पहुंचे हुये बन जाते हैं, सिद्ध लेखक। वे भूल जाते हैं कि लेखन कहीं पहुंचने के लिये की गई यात्रा है ही नहीं। सच्चा लेखक कभी किसी शिखर पर नहीं पहुंचता क्योंकि नये शिखर सामने आ जाते हैं। उसे कहीं जाकर धूनी नहीं जमानी। कहीं पहुंचना नहीं। बस, चलना है। चलने का मजा नहीं आया तो पहुंचने का मजा कैसे आयेगा? तभी एक अच्छा लेखक कहीं पहुंचने की चिंता या जुगाड़ किये बिना बस रचता जाता है। वह जीवन से तो निरंतर सीखता ही है, साथ ही वह खुद के बनाये खांचों को तोड़कर और छोड़कर नया करता जाता है। यही सच्चे लेखक का जीवन सार है: नये की निरंतर तलाश, कुछ नया; भाषा, शैली, कहन, बदलते संवरते सौंदर्यशास्त्र पर एक हरदम एक नजर; लेखन खुद को निरंतर पुनर्आविष्कृत करने का ही नाम है। निरंतर सीखे बिना त्रांण नहीं। पर अक्सर कहानी कुछ यूं होती है कि लेखन में थोड़ा-सा, कच्चा-सा स्थापित होते ही हम सीखना छोड़ बैठते हैं; अपनी कुछ किताबों की जरा सी(अक्सर प्रायोजित) चर्चा, (यूं -ही -से कुछ) यूं ही मिले इनाम, छोटे-बड़े कुछ सम्मान, बढ़-चढ़कर की गई झूठी-सच्ची तारीफ का बोझ ही हम पर भारी पड़ जाता है। फिर हम लेखन में एक 'सुरक्षित दोहराव' का जाना पहिचाना सरल रास्ता पकड़ लेते हैं, भूल जाते हैं कि अभी हमारा और अच्छा लिखा जाना शेष रह गया है। हुनर को और बेहतर करने की कोई उम्र और सीमा नहीं होती, हम खुद ही अपनी सीमा बना बैठते हैं; लेखन में 'चुक जाने' का मुहावरा ऐसे ही लेखकों पर लागू होता है जो नया सीखने की अपनी मुमुक्षा को आत्मसंतोष की रेत में गहरे दफ्न कर डालते हैं। 

खुद को 'नाहक ही महान ' समझ बैठने के दौरे कभी कभी मुझ पर भी आते रहे हैं पर ऐन मौके पर किसी नये, पुराने लेखक की कोई बेहद अच्छी किताब आकर मुझे खुद पर इतराने की इस दुर्घटना से बचा लेती है। ऐसी हर किताब मुझे चुनौती और सीख ही लगती है कि मित्र, अभी तो बहुत-सा सीखना है तुमको। …. मैं इसी अनुभव से अभी हाल ही में तब गुजरा जब अमृतराय की बहुत सी किताबें एक साथ पढ़ने का साथ सुखद संयोग बना। उनके सारे लेखन पर बात करने का अवसर तो नहीं है यह, मैं यहां उनकी एक छोटी सी किताब जो कुल एक सौ बारह पेज की है, जिसे हंस प्रकाशन ने 1992 में छापा था ('घायल की गति घायल जाने'), उसकी बात करुंगा। एक छोटे कलेवर की बड़ी किताब, कुल जमा चौदह गद्य रचनाएं परंतु पढ़ने और सीखने का ऐसा बारीक और अद्भुत अनुभव! मैंने गद्य लेखन की बहुत सी बारीकियां को इस किताब से मानो दोबारा सीखा, छोटे छोटे स्पर्शों द्वारा अपने कहन को कैसे प्रभावी बनाया जाता है -- इस सारी कारीगरी को एक बार पुनः समझा। 'घायल की गति घायल जाने ' के बहाने मैंने गद्य लेखन का मानो एक 'कोर्स' ही रिवाइज' कर डाला। यहां उसी को साझा करने का मन है। इसकी कुछ रचनाओं के उदाहरण के सहारे मैं केवल उन्हीं पाठों की चर्चा करुंगा जो मुझे हर कथाकार, व्यंग्यकार और निबंध लेखक के लिये जरूरी लगते हैं वरना तो मुझे यह भी स्पष्ट तौर पर नहीं पता कि इन रचनाओं को क्या नाम दूं -- कहानियां, व्यंग्य रचनायें, निबंध, या फिर इन सबके मेल से बनी गद्य की कोई नितांत नई विधा जिसका अभी नाम तय ही न हुआ हो, बहरहाल। 

पाठ नंबर एक: रचना की शुरूआत कैसे हो?

कोई भी बड़ी रचना उठा लीजिए, हर बड़ी रचना शुरुआत के साथ ही अपने पाठक पर कब्जा-सा कर लेती है। शुरुआती आठ दस पंक्तियां पढ़कर ही पाठक तय कर लेता है कि इसे आगे पढ़ना या फिर पन्ना पलटकर आगे बढ़ जाना। रचना की शुरुआत का तरीका हर बड़े गद्यकार का एकदम अलग हो सकता है और हर रचना में अलग हो सकता है पर कुछ बुनियादी बातें सही में साझा होती हैं: शुरुआत उत्सुकता जगाये कि लेखक आगे क्या कहने वाला है? रचना की शुरूआत की हर पंक्ति अगली पंक्ति तक पहुंचने का पुल भी बने और आत्मीय आमंत्रण भी कि आओ, मुझसे गुजरो। शुरुआत द्वारा पाठक को विषय की कुछ झलक-सी तो दिखे पर वह इतनी साफ न हो कि सब स्पष्ट हो जाये कि पूरा मामला क्या है? शुरुआत कुछ ऐसा और इतना झलकाये कि आगे और देखने की बेचैनी पाठक में पैदा हो। अब, यह सब कहना तो बेहद आसान है पर इसे कर पाना बेहद ही जटिल काम है। प्रेम-पत्र को कैसे शुरु करें कि माशूक के दिल में उतर जायें, सीधे! बहुत से बड़े कहानीकारों और उपन्यासकारों ने यत्र तत्र बताया है कि अपनी शुरुआती पंक्तियों को बाज वख्त वे दसों बार काटते-पीटते, बार बार लिखते हैं पर मुश्किल से ही संतुष्ट हो पाते हैं कि पाठक के मन को मेरी रचना शुरुआत से ही पाठक के मन को बांधेगी और बींधेगी (कि नहीं?) पाठक कई बार नहीं समझ सकता कि एकदम सरल-सी प्रतीत होने वाली शुरुआत वास्तव में रचना का सबसे कठिन हिस्सा होता है। शूरू से ही पाठक को पकड़ लेने के लिये बड़ी सोच, परिश्रम और कला की दरकार होती है। और लेखक कोई एक फार्मूला तय नहीं कर सकता। हर नई रचना एक अलग ही तरह की शुरुआत मांगती है। विषय बदलते ही सब बदल जाता है। मेरे कथाकार मित्र स्वदेश दीपक कहानी कहने की कला की तुलना बंद मुट्ठी को धीरे धीरे खोलने से किया करते थे। कहानी की शुरूआत में मुठ्ठी बंद तो हो पर उंगलियां कुछ इस कौशल से थोड़ी सी खुली भी हों कि मुट्ठी में झांकने की इतनी जगह बन जाये जिससे पाठक को मुट्ठी में बंद किसी चमकदार रचना की बस चमकार भर दिखे, कुछ किरणों की झलक, बस। पाठक का कौतूहल बढ़ा दें, बस, कुछ ऐसी शुरुआत; उसकी आशा और उत्कंठा इतनी जाग जाये कि इस रचना को आगे पढ़ना ही होगा। तो क्या ऐसा होता है एक बड़ी रचना की शुरुआत में जहां साधारण रचनायें चूक जाती हैं? विषय का अनोखापन, भाषा और गद्य शैली का कौशल, किस्सागोई की कला पर पकड़, बतकही पर रचनाकार की पकड़ - शुरुआत में सब कुछ शामिल होता है। अमृतराय साहब की कुछ रचनाओं की शुरुआत के उदाहरण प्रस्तुत हैं। इनको देखिये और उपरोक्त कसौटी पर कसिये: 
'आओ प्यारे, तुम्हें बनारस घुमायें। ...गाइड तुम्हें ऐसा चाहिये जिसमें बनारस रहता हो, जिसकी रगों में बनारस रहता हो। बनारस यानी …..इतना तेज नहीं यार, जरा धीरे धीरे। तुम तो पहिली ही चीज में गड़बड़ा गये। कैसे गावदी आदमी हो, तुम्हें यही नहीं मालूम कि बनारस में आकर गति मर जाती है। ...बनारस में सब कुछ धीरे -धीरे चलता है। गंगाजी धीरे चलती हैं, आदमी धीरे चलते हैं ...बनारस में लोग किसी निश्चित समय पर कहीं पहुंचने के लिये घर से नहीं निकलते, वह घर से निकलते हैं घर से निकलने के लिये …. कहीं ऐसा तो नहीं कि ….ये सारे मकान खाली पड़े हों और उनके रहने वाले चिरकाल से यों ही सड़कों पर मेल्हते-इठलाते, पान चबाते, बोलियां-ठोलियां करते घूम रहे हों! …..'
('इति तम्बू द्वीपे भारत खन्डे ')

यह शुरुआत देखिये। कि रचना बनारस पर है, शुरुआत से यह पता चल गया। यह बनारस से ज्यादा बनारसियों पर है यह भी तय हो गया। यह उस शहर के अनोखे कल्चर पर है, यह भी तय हो गया। छोटे छोटे संदर्भ जो बनारस को 



एक अलग ही निगाह से देखने का आमंत्रण दे रहे हैं पाठक को जो शुरुआत से ही जान जाता है कि यह रचना कुछ अलग देने वाली है। दसों बार बनारस जा चुका आदमी हो या स्वयं खालिस बनारसी ही क्यों न हो वह अपने व्यक्तिगत अनुभवों के नोट्स रचना के विवरण से मिलाने को उत्सुक हो जायेगा। यही रचना की इस शुरुआत की सफलता है और अमृतराय जी का रचना कौशल। 

एक उदाहरण और: 
'उत्पला मुखर्जी को कौन नहीं जानता? और भला कौन ऐसा बज्र नीरस आदमी होगा जिसने चाहे दूर से ही हो एक बार भी उसकी रुप-सुधा का पान नहीं किया हो? ... सुंदर, कमनीय नारी मूर्ति ...साक्षात उर्वशी ... मखमल-जैसी त्वचा ..कमलिनी-जैसा गुलाबी गौरवर्ण, हरे-हरे नये बांस जैसा लंबा, सीधा, छरहरा-शरीर; पतले-पतले रस-भरे होंठ; हिरनौठे-जैसी चंचल आंखें -जो उस विद्युल्लता को देखता, अवाक रह जाता ...रुपाली साम्राज्ञी, सौन्दर्य की अधिष्ठात्री ...पंद्रह बरस होने को आये, आज भी वैसा ही राजत्व कायम है। इधर दशाब्दियों से किसी सुंदरी का इतना लंबा राज्य-काल नहीं आया। ...उत्पला के लिये समय जैसे ठहर गया है। ..यह फूल शायद हमेशा-हमेशा रहने और लोगों की सौंदर्य-वासना की आप्यायित करने के लिये बनाया गया है। 

तब के छात्र आज ...अनेक संतानों के पिता हैं लेकिन उत्पला के रुप का जादू ...उसकी मींड़ आज भी हृदय के भीतर गूंज रही है (और तभी जैसे किसी के हाथ से मजीरे छूटकर गिर पड़े और झन्न की आवाज हुई) ...उत्पला का ब्याह हो रहा है। ..किससे? कब! कैसे? '
('गणित अपना-अपना') 



रचना की शुरुआत कई तरह की उत्सुकताओं को जन्म देती है। यह शुरूआती विवरण अंततः अपने शीर्षक से कहां मेल खायेगा, यह उत्सुकता, फिर तरह तरह की उपमाओं और विशेषणों से अलंकृत भाषा में उत्पला के सौंदर्य का अद्भुत विवरण कि पाठक की नजरों में एक मानिनी, अपने ही रुप से गर्वित सुंदरी साकार हो जाये जो सालों से अपने रसिक साथियों और आस-पास के अनजान रसिकों के हृदय पर समान रूप से राज कर रही है, जिसने कभी किसी को ठीक से घास नहीं डाली उसका यूं अचानक ही विवाह कर लेने का निर्णय, वह क्यों, यह उत्सुकता। कथा के सारे रसिक पात्र तो हैरान हैं ही, पाठक भी उत्सुक हो जाता है कि माजरा क्या है? बस यही उत्कंठा किसी रचना की शुरुआत की जान होती है बशर्ते रचनाकार उसे आगे निभा भी सके। जो इस रचना में अमृतरायजी बखूबी न केवल निभाते हैं बल्कि आगे कुछ ऐसा होता जाता है कि नायिका का शुरुआती वर्णन अतिशयोक्ति नहीं रह जाता वरन आगे की कथा को जस्टीफाई करने के लिये जरूरी लगने लगता है। 

यहां मैंने दो ही उदाहरण दिये। शब्द सीमा न हो तो सभी चौदह के चौदह रचनाओं की शुरूआत पर बात की जा सकती है। 

विषय का विशद ज्ञान 

अमृतराय की हर रचना में मानव मन और भारतीय समाज की उनकी अपनी गहरी समझ झलकती है। हर रचना में वे मानो शुरु से जानते हैं कि वे इसे क्यों रच रहे हैं? वे यों ही लिखने नहीं बैठ जाते। वे अभ्यासवश लिखने बैठ जाने वाले लिख्खाड़ों में से नहीं हैं। हर रचना को वे गहरे होमवर्क के बाद लिख रहे प्रतीत होते हैं। इस संग्रह में उनकी कई रचनाओं में तो यह होमवर्क और ज्ञान पाठक को हैरान कर डालता है। पर यह कोई शुष्क ज्ञान नहीं। विद्वता का कोई बोझ वे रचना और पाठकों पर नहीं डालते। वैचारिकता और ज्ञान को रसपूर्ण बना देना ही अमृतरायजी की कला है। इसी के तहत वे रचना को हर पंक्ति और पैराग्राफ में एक तय दिशा में इस तरह सहज गति से आगे ले जाते हैं कि पाठक को न केवल इसके सफर का पूरा आनंद मिले बल्कि कहन के सौंदर्य शास्त्र से मिले स्वाद द्वारा रचना की मंजिल और रास्ता दोनों ही उसकी स्मृति का अमिट हिस्सा बन जायें। अपनी हर रचना में वे वैचारिक स्तर पर वे एकदम स्पष्ट हैं कि वे पाठक से क्या और कितना कहना चाहते हैं। सुस्पष्ट विचार के वगैर कभी कोई अच्छी रचना नहीं बन सकती यह भी बताते हैं अमृतराज। इस किताब की हर रचना यह महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है कि लेखक की सोच में कोई वैचारिक कुहासा न हो तभी उसकी रचना शानदार बन सकती है। 

मैं इसी संदर्भ में एक बार फिर से 'इति जम्बू दीपे भारत खंडे ' का जिक्र करुंगा। इसमें बनारस को उन्होंने मानो जी भर कर जिया है। इतनी गहराई में शहर को जान समझकर लिखना कि बनारस फिर एक शहर से ज्यादा एक चरित्र में बदल जाये, आसान नहीं है। वे अपने पाठकों को उस बनारस से परिचित कराते हैं जो खालिस बनारसी-चरित्रों को गूंथकर बना है। यह आलेख बनारस की आत्मा की बेहद खूबसूरत स्टडी है जो यह पाठ पढ़ाती है कि हर शहर और गांव केवल मकान, बाजार, दर्शनीय स्थल आदि से ही नहीं बनता बल्कि उसके रहने वाले ही उसे उसका रूप, व्यक्तित्व रंग और पहिचान दिया करते हैं; हर भौगोलिक पता वास्तव में उसके इस जीवंत चरित्र को पहिचाने बिना कभी सही तौर पर जाना ही नहीं जा सकता। किसी लेखक में जब तक शहर को इस तरह समझने और पढ़ पाने की दृष्टि न हो वह 'इति तम्बू दीपे …' जैसी रचना नहीं रच सकता। यह एक शहर से परिचित कराने वाली रचना नहीं, एक सांस्कृतिक सामाजिक परंपरा का अध्ययन है और बताती है कि किसी भी शहर को समझने के लिये जीवन की गहरी समझ चाहिये, फिर बनारस को समझना तो जटिल मानव मन की गहन समझ मांगता है। 

मानव मन की विसंगतियों, परतों, अंधेरों, उजियारों का जैसा ज्ञान अमृतराय को है वह उनकी रचनाओं में आये चरित्रों को इकहरा नहीं रहने देता, हर चरित्र को उसके सारे आयामों से देखता है; पाठक के समक्ष हर चरित्र एक कैरीकेचर की तरह न आकर हाड़-मांस के जीवंत चरित्र की तरह (अपनी समस्त दुर्बलताओं और ताकत के साथ) यूं आता है कि पाठक अपने आसपास के कई चरित्रों को उसमें देख सकता है। ऐसे चरित्र और स्थितियां गढ़ना एक कठिन लेखन कला है जो लेखन और जीवन, दोनों में पारदर्शी ईमानदारी मांगती है। । लेखक में यदि मानव-व्यव्हार और मन की गहराइयों में उतरने की ताब और कला न हो तो 'तराजू' के कृष्ण वल्लभ सहायजी जैसे चरित्र को रचना लगभग असंभव था; दिन-रात पैसे बनाने में व्यस्त एक ऐसा आदमी जो 'मेल-शावनिस्टिक पिग' के तौर पर पुरुषवादी सोच का तानाशाह भी है, और उसकी ये दोनों ही प्रवृतियां फिर कैसे एक दूजे की पूरक बन जाती हैं इसको गहरे में जाने समझे बिना कोई कृष्णवल्लभ बाबू जैसा चरित्र नहीं रच सकता। 'तराजू' को पढ़कर जाना जा सकता है कि कैसे छोटे छोटे विवरणों से रचना में एक बड़ा चरित्र खड़ा होता है। तराजू के दो छोटे अंश देखिये, आप मेरी बात समझ सकेंगे: 
'लक्ष्मीजी कितना मान मनौव्वल मांगती हैं यह देखना हो तो एक दिन ...या एक दिन बहुत नाकाफी हो तो एक हफ्ता कृष्णवल्लभ बाबू के साथ रहकर देखो। तब पता चलता है कि पैसे डाल में नहीं फलते। एक एक मिनट उन्हीं के एकाग्र चिंतन में लगाना पड़ता है तब कहीं लक्ष्मीजी अपने उपासक पर प्रसन्न होती हैं। ...सबेरे से जो चक्कर शुरू होता है तो रात के बारह -एक बजे तक बराबर चलता है। '
('तराजू')

और उसी रचना का पुरुषवादी सोच स्थापित करता यह अंश: 

'कृष्ण वल्लभ बाबू का यह कायदा नहीं है। उनका दृढ़ विश्वास है कि स्त्री से, बच्चों से, ज्यादा मेल-जोल बढ़ाना ठीक नहीं होता। शासन करना है तो कम से कम बोलो। और घर में शासन करना ही ठीक है, नहीं तो सब अपने अपने मन की करने लग जायें। यही सब बातें सोचकर कृष्ण वल्लभ बाबू घर के भीतर दाखिल होते ही बिल्कुल दूसरे आदमी हो जाते हैं। हंसना बोलना सब बाहर वालों के लिये हैं क्योंकि उससे बिजनेस में लाभ होता है। ...घर में आदमी अच्छा बोले या त्योरी चढ़ाये, क्या फर्क पड़ता है। …स्त्री रामायण बंद करके उठने वाली ही थी कि कृष्णवल्लभ बाबू ने शेर की तरह गुर्राते हुये पूछा -और कोई आया था? '
("तराजू ')

सहज संवाद की कला

पाठ तो बहुतेरे हैं जो इस किताब ने मुझे सिखाये हैं पर लेख बड़ा हो जाने का भय है और शब्द सीमा का तो मैं कब का अतिक्रमण कर चुका हूं। सो अब, बस एक ही और बात लिखकर इस लेख की इति करेंगे। …. सहज, सरल, जीवंत, और कथा को अपेक्षित दिशा में लेकर जाने वाले संवाद इस पुस्तक की रचनाओं के प्राण हैं। इन सारी रचनाओं में यूं तो अमृतराय जी अपने पाठकों से सीधे संवाद करने की शैली में ही बात करते हैं परंतु उनके चरित्रों के आपसी संवादों में लोकभाषा और लोक मुहावरों का ऐसा रंगीन प्रयोग है कि हर रचना बेहद रोचक बन पड़ी है। हर संवाद उस चरित्र के अनुसार है, उसके व्यक्तित्व में इतना घुला मिला हैं कि वह लेखक का संवाद न रहकर उस चरित्र का ही संवाद बन गया है। अमृतरायजी अपनी हर रचना पाठकों से एक सहज संवाद सा करते हुये ही लिखते हैं। वे लिखते नहीं, अपने पाठकों से यूं बातचीत सी करते जाते हैं मानो उसके ठीक सामने बिराज कर बतकही कर रहे हों। बोलचाल की शैली में लिखी ये रचनायें पहली पंक्ति से ही पाठक को पकड़ लेती हैं। एक और बात। इन सारी रचनाओं का अंत अलग ही तरह से अध्ययन मांगता है। रचना में कितना कहना, कितना अनकहा छोड़ देना -यह पाठ भी ये रचनायें पढ़ाती हैं। वे खुला सा अंत रचते हैं। बहुत सा अनकहा वे अपने पाठक पर छोड़ देते हैं कि अब इस कहानी को तुम आगे बढ़ाओ। । 'काली मोटर' एक ऐसी ही रचना है। रचना में एक अनजान काली मोटर के रोज किसी घर के आसपास खड़ी हो जाने से उत्पन्न आशंकाओं का बड़ा बारीक विवरण है जो मानव-मन के अनजान और जाने-पहचाने भय का रोचक परिचय है। अंत में यह काली कार क्या निकलेगी, पाठक को यह उत्सुकता पूरी रचना में बनी रहती है पर लेखक अंत में जिस तरह से बहुत हि अनकहा उस कार को लेकर छोड़ देता है वह भी अंत की कलात्मक बढ़त का उदाहरण है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
(लमही पत्रिका के अमृत राय विशेषांक से साभार)
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