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प्रेम गली अति सांकरी — दिव्या श्री की कहानी | Hindi Short Story by Divya Shri | #LoveStory

युवा रचनाकार दिव्या श्री का परिपक्व होता लेखन उनकी कहानी 'प्रेम गली अति सांकरी' के माध्यम से हिन्दी साहित्य के पाठकों को एक अच्छे लेखक के आगमन की सूचना दे रहा है। ~ सं० 

प्रेम गली अति सांकरी — दिव्या श्री की कहानी

Hindi Short Story by Divya Shri 


दिव्या श्री, कला संकाय में स्नातक कर रही हैं । अंग्रेजी साहित्य इनका विषय है तो अनुवाद में भी रुचि रखती हैं। बेगूसराय बिहार में रहती हैं। 


बाहर तेज बारिश हो रही थी। खिड़की के कांच पर बारिश की बूँदें यूँ टिकी थीं, जैसे माँ की बिन्दी। बौराई हवा खिड़कियों के शीशों पर सर पटक रही थी। उसे एक ख्याल छू कर गुजर गया। आसमान अब हल्का महसूस कर रहा होगा, आखिर रो कर दिल तो हल्का हो ही जाता है न।

कमरे में उदास बैठी वह इसी सोच में सराबोर थी कि किसी ने दस्तक दी। ‘मे आई कम इन, मैम?’ उसने कुर्सी घुमाते हुए कहा-- ‘यस, प्लीज़!’ 

सामने की कुर्सी पर बैठते हुए सिद्धार्थ एकबारगी चारों तरफ देखते हुए बोला-- कितना सुन्दर है न आपका कमरा। वह मुस्कुरा दी। उसकी मुस्कान में एक ख़ालीपन था जिसे वह लाख चाहते हुए भी न भर सकी थी। कहते हैं किताबें सिर्फ कमरे की जगह भर नहीं छेंकती, मन को भी भरती हैं। लेकिन सभी की जगह किताबें नहीं लेती इसलिए कि मनुष्य किताबों की तादाद ताउम्र बढ़ाता रहे और ढूँढता रहे उसमें अपने मन की बात।

सिद्धार्थ उसे निर्निमेष देखे जा रहा था और वे खुली आँखों से स्वप्नों में व्यस्त थी। माँ कहती थीं जिनके स्वप्न टूट जाते हैं या तो वे देखना छोड़ देते हैं या फिर हमेशा स्वप्नों में ही क़ैद हो जाते हैं। 

आद्या ने पलकें झपकाई और अपनी तंद्रा से बाहर आ गई।

वो मुस्कुराई, "बोलो, सिड, क्या बात है।"

सिद्धार्थ एक पल सकुचाया, फिर बोला, "दर असल मुझे कुछ किताबें चाहिए थीं, पढ़ने के लिये। पढ़कर लौटा दूँगा।" आद्या की हँसी छूट गई, "सच में लौटा दोगे?" हम तो डर गये। खैर, जोक्स अ'पार्ट, रैक में रखी किताबों में से जो चाहिए, वो ले लो।

सिद्धार्थ जब किताबें लेकर जाने लगा, "आद्या मुस्कुराते हुए दरवाजे तक छोड़कर बोल पड़ी", लौटाना मत सिड। मेरी ओर से तोहफ़ा समझकर रख लेना इसे। 

वह फिर से कुर्सी घुमाकर खिड़की की ओर मुड़ गईं और पलटने लगी अपनी डायरी के पन्ने। जहाँ प्रेम युक्त शब्दों का कोष था लेकिन जीवन उससे बिल्कुल उलट। उसे याद आये वे दिन जब वे बारहवीं में थी। जब पहला-पहला प्रेम हुआ था उम्र में अपने से पंद्रह बरस बड़े लड़के से। अब तो बारह वर्ष बीतने को है उस प्रेम को। लेकिन उसे नजर तो सात बरस पहले ही लग गई थी। उसके प्रेम की उम्र मात्र पाँच बरस ही रही, लेकिन खूबसूरत थी। गणित में मेधावी होने की वजह से हिसाब तो उसकी अंगुलियों की पोर में रहता था। कहते हैं प्रेम और गणित की पृष्ठभूमि बेहद अलग है। गणित का प्रमेय और प्रेम का व्याकरण उतना ही कठिन है जितना उसका जीवन। उसके लिए प्रेम सुनामी था जो कुछ पलों में ही जिंदगी तहस-नहस कर जा चुका था। उसे समेटते हुए सात बरस बीत चुका था लेकिन बिगड़ी हुई चीजें संभलती कहाँ हैं? किताबों को सहेजना तो बड़ी आसानी से सीख लिया था उसने लेकिन मन संभाले नहीं संभलता! ये मन भी बड़ी अजीब शै है कहते हुए अक्सर होंठों का एक सिरा अपने ही दांतों तले दबा लेती वह।

प्रिय
लिखते हुए हाथ काँप रहा है। अब तक तय नहीं कर पाईं किस संबोधन से पुकारूँ तुम्हें। तुम्हारे नाम से या कि अपने प्रेम के नाम से। पिछले पांच सालों में हमनें नहीं रखे एक-दूसरे नाम। कितना कुछ बदला सिर्फ मेरे लिए। हम चाहते थे जीवन भर दोस्त रहें, लेकिन प्रेम का बादल हमारे सिर मडराता रहा और एक दिन बारिश ने हमें भींगो दी। 

प्रेम में लेकिन, किंतु और परंतु का कोई महत्व नहीं है फिर भी ये शब्द हमारे बीच बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराये जा रहा है। इससे भली-भांति परिचित होगे ही कि जिस रिश्ते का कोई नाम नहीं होता, उसे अनेक नामों से नवाजा जाता है। वैसे भी पहले जैसा अब कुछ भी नहीं रहा, कुछ भी तो नहीं।

तुम कहते हो मेरा दिल पत्थर है, हो भी क्यों न! जिस वक्त  मुझे खुद के लिए लड़ना था, मैं एक अंधेरी कोठरी में बंद हो गई थी। जिस दिन जिंदगी का नया अध्याय शुरू किया था उसी दिन काली घटाएँ मेरा रास्ता रोक ली। यूँ तो उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं लेकिन.....। खैर! जिसकी आँखों के सामने तुम जैसे खूबसूरत चाँद हो तो उसे बादलों की क्या फिक्र।
     
जिंदगी ने इतने इम्तिहान लिये कि भूल ही गई, हम प्रेम में थे। हो सकता है तुम नहीं भी करते हो। अपने मन को खुश करने के बहाने ही सही खुद से बार-बार कहती हूँ हमें प्रेम है। जाने-अनजाने बहुत कुछ कहा तुमसे जो नहीं कहना चाहिए था। हर गुस्सा तुम पर उतार देती थी। तुमसे बात करते हुए मैं सबकुछ भूल जाती थी। सिर्फ इतना याद रहता कि मैं उस वक़्त बहुत खुश रहतीं। लेकिन तुम्हें भी इतना वक़्त कहाँ? तुम रोज़ मुझसे बात करो।

तुम जानते हो एक अंतर हम दोनों में था। प्रेम हममें था जरूर, लेकिन एक-दूसरे को कभी समझ नहीं पाये। हमारे- तुम्हारे प्रेम के मध्य बहुत अंतर रहा। मेरा प्रेम तुम्हारे लिए उपहास का विषय हो सकता है लेकिन ये भी सच है कि सच स्वीकार न करना, प्रेम की इमारत को दिनों दिन खोखला अवश्य बना देता है। झूठ की बुनियाद पर सच का महल खड़ा करना बेहद नामुमकिन है। रही बात मेरे प्रेम की तो मेरे प्रेम के डोर से धीरे-धीरे सारे मोती झड़ गये। बचा रह गया तो बस एक धागा चाहत की, जिसने हमें जोड़े रखा। मैं नहीं कर पाऊँगी कभी नफ़रत, मेरे पास प्रेम करने के बहाने जो हैं। 
     
इन सब बातों से मेरा तुम्हें तकलीफ पहुँचाने का कोई इरादा नहीं है। प्रेम एक हद तक ठीक है लेकिन किसी के अस्तित्व को छीन लेना प्रेम नहीं है। मैं अब तक नहीं समझ पाईं, क्या एक ही वक़्त में एक इंसान दो स्त्री से प्रेम कर सकता है? न ही मैं पूछ पाईं कभी। तुम जिसे भी ठगने की कोशिश कर रहे हो, वह तुम्हारा भ्रम है। अब तक तुम खुद को ठगते आए हो। दो स्त्री के बीच रहकर भी किसी एक का न हो पाना, सोचना क्या पाया तुमने प्रेम में। कुछ न पाते हुए भी तुमने गंवाया बहुत कुछ है। सबसे पहला विश्वास। इसे किसी गंदी नाली में सड़ी हुई चीज़ की तरह बहाया है तुमने, जो फिर दुबारा कभी नहीं मिलेगा। 

एक बार मेरे मन को पढ़कर देखते तो सही सबकुछ जान लेते। निश्छल प्रेम देना जानता है तुम माँगकर तो देखते। दुःख यह नहीं है कि केवल मैं छली गई, इससे भी अधिक  दुःख की बात है कि मेरे साथ वो भी छली गई है। ख़ैर! अब जाने का समय हो गया है, चलती हूँ इति।

एक बात और कहना चाहती हूँ तुमसे। जानते हो दुनियाभर के शब्दकोश में जितने सारे शब्द दर्ज हैं, उन सबों में मुझे 'इति' बहुत प्यारा लगता है। ये नाम मेरे जेहन में ऐसे दर्ज  हो गया है, जैसे पत्थर पे कोई निशान। 
    •••आद्या

प्रेम पौधा है गुलाब का, जिसमें फूलों से अधिक काँटे होते हैं। उसकी आँखें नम थी। जिस फूल को हम पसंद करते हैं, उसे कोई और तोड़ ले तो पूरा बाग ही सूना- सूना लगता है। उसके जाने के बाद आज पहली बार फिर से वह खत पढ़ रही थी यानि सात साल बाद। पन्ने हल्के पीले हो चुके थे, स्मृतियाँ धुंधली हो चुकी थी लेकिन प्रेम यूँ ही बरकरार था। एकतरफा प्रेम। जहाँ न उम्मीद थी न हर्ष। वह एक ऐसी फूल बन गई थी जिसमें कोई रंग नहीं था। एकदम सफेद! 
     
हम हमेशा कहते हैं जो स्मृतियाँ हमें पीड़ा दे, उसे भूला देना  बेहतर है। लेकिन प्रेम इससे उलट है चाहे लाख बेचैनी हो, हम भूलने से अधिक याद करते हैं। पतझड़ में वसंत तलाशना शायद इसी को कहते हैं।

बारिश के मौसम में प्रेम की स्मृतियाँ गीली तो हो ही जाती हैं। लेकिन क्या वह कभी अंकुरित हो पाती हैं? शायद कभी नहीं। पहले प्रेम में विलग हुई प्रेमिका नहीं करती दूसरी बार प्रेम, वह खोजती है उसे दो शब्दों के बीच छूटी हुई जगहों  में तो कभी फूलों के बीच और बारिश की बूंदों में। वह करती है चित्रकारी, भरती है रंग। लेकिन उसके जीवन का रंग सदा बेरंग रहता है। प्रेम एक रंग है जो लाल टूह-टूह होता है और विरह बादल है जो कभी नहीं  बरसता। 

उसकी आँखें नम जरूर हुई लेकिन उसने अपने आँसुओं की बरसात कभी नहीं होने दी। जैसे उन बूंदों में उसे उसकी छवि दिखती हो। सच कहा गया है जिससे एक बार प्रेम हो जाए, उससे कभी नफ़रत नहीं कर पाते हैं हम। यही मनोविज्ञान है। उसने विदा तो कर दी थी उसे किसी और की ख़ातिर लेकिन नहीं देख पाईं कभी उसे भी जिसने अपनी जिंदगी तबाह कर ली उसी की ख़ातिर। ख़ैर! उसने विदा ही कब किया था उसे, यह तो एक वहम मात्र था। वे तो उस स्त्री को उसका प्रेम सौंप दी, जिसकी वो हक़दार थी। मैंने जीवन भर चाहा उसे लेकिन इमरोज़ भी न बन सका, वो अमृता बन साहिर के प्रेम में डूबी रही और अधूरे जले सिगरेट  से अपने स्वप्नों का आशियाना सजाती रही। यही तो जीवन था उसका। आगे कभी देखा नहीं, पिछली यादें कभी बिसरा  नहीं पाईं। 12 फरवरी 2015 यही तो तारीख थी जब उसका मेल आया था पहली और आखिरी बार भी। रात के ग्यारह बजे के लगभग।

हेलो ईशान
तुम्हारे मेल को उपेक्षित करते हुए गिल्ट फील कर रही हूँ। अगर कम शब्दों में कहूँ तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर सकती और न ही कभी किया। मेरे पीछे यूँ भटकने से बेहतर है तुम अपना नया जीवन शुरू करो। मैं अब विदा ले रही हूँ तुम सबसे। 
अलविदा! 

विदा कहने वाले कभी मिल भी जाते हैं लेकिन उसने अलविदा कहा था। 15 फरवरी 2015 के अलसुबह अखबार में उसकी एक तस्वीर छपी थी। एकबारगी लगा फिर से उसे कोई पुरस्कार मिला है लेकिन जब ऊपर काले शब्दों की ओर नज़र गई तो मैं उसी में धँसा रह गया। गणित की स्काॅलर आद्या ने की खुदकुशी। यहाँ प्रेम एक त्रिकोण था जिसका एक कोण अब नहीं रहा। मैं बार-बार उसका मेल चेक करता रहा। मेरी नजरें हर बार प्रेम ढूँढती रहती और अलविदा पर जाकर ठहर जाती। मैं तब से शापित हूँ, जिंदगी को घूँट-घूँट भर कर जीने के लिए। 

याद है पहली बार उससे शहर के सबसे नामचीन रेस्त्रां में मिला था। चौड़ा माथा, कत्थई आँखें, तीखी नाक और गुलाबी होंठ। किसी कला की तरह। ब्लैक काॅफी का सिप लेते हुए। पहली बार की मुलाक़ात बस इतनी ही थी। उसके बाद भी हम कई बार मिले लेकिन एकतरफा। आखिरी बार की मुलाक़ात भी कुछ यूँ थी, वह अपनी दोस्त के साथ कला प्रदर्शनी में आयी थी। मैं भी वहीं था, उसी की तस्वीर के साथ। वो कई मर्तबा उसे ग़ौर से निहारती और मुझसे कुछ पूछने की कोशिश करती। मैं भी चाहता था वो मुझसे कुछ पूछे और मैं अपने दिल की बात कह दूँ। लेकिन इन सबके बावजूद  उसने मुझे नजरें उठाकर नहीं देखी। वह किसी और के प्रेम में थी, उसकी झुकी हुई नजरें मुझे बार-बार इशारे में कह रही थी। मैं हर बार खुद को तसल्ली देता रहता कि एक दिन तुम्हें बताऊंगा "हाऊ इम्पोर्टेन्ट यू आर टू मी"। 

अब जब वह देखने के लिए नहीं थी। मैं हरपल मेल बाॅक्स में जाकर टाईप करता, "आई लव यू सो मच" लेकिन भेज नहीं पाता था। जिसे जीते जी मैं नहीं कर सका था उसे महीनों बाद किया। हिम्मत करके वो टाईप किया हुआ मैसेज उसे मेल कर ही दिया। जिसके कुछ सेकेंड्स बाद ही एक मैसेज मिला, "आई लव इति"। यह देखकर एकपल के लिए मैं हैरान रह गया और दूसरे ही पल मैंने फिर से कुछ और लिखकर भेज दिया। जिसके जवाब में फिर वही मिला। ऐसा मैंने तकरीबन दस बार किया लेकिन जवाब वही। अब मैं सबकुछ समझ चुका था। 

हेलो! आइ एम सिद्धार्थ फ्राॅम पटना। आर यू ईशान? डू यू नो आद्या? स्क्रीन पर ये शब्द जैसे उड़ रहे थे।  हेलो! हाँ, मैं आद्या को जानता हूँ। लेकिन तुम ये क्यों पूछ रहे हो? उधर से पलभर में ही एक स्कैन की हुई फोटो मिली। दरअसल वो किसी की तस्वीर नहीं थी, एक खत था, जिसका शीर्षक था 'एक खत तुम्हारे नाम भी'। मैं उसे पढ़ पाता इससे पहले ही उससे पूछ बैठा, ये कहाँ मिला तुझे? उनकी दी हुई किताबों में कहते हुए, वह अपनी राह जा चुका था, यानि मुझे ब्लॉक करके। ये देखकर मेरी आँखें भर आई, मेरा गला सूख गया। मैं होश में तो था लेकिन अपराधबोध-सा लग रहा था, उसने मुझे ये भेजा ही क्यों और अगर भेजा तो फिर मुझे ब्लॉक क्यों किया? ये ऐसे प्रश्न थे जिनके उत्तर कहीं भी दर्ज नहीं थे। 

खत कुछ यूँ था.......

हेलो ईशान! मैं क्या कहूँ तुमसे, कैसे कहूँ? समझ नहीं आ रहा है। तुम मेरे जीवन में एक अच्छे दोस्त की तरह आ सकते थे, रह सकते थे, लेकिन तुम्हें प्रेम चाहिए था, जो संभव नहीं था। मैंने तुम्हारी आँखों में अपने लिए प्रेम देखा लेकिन मेरी आँखों में किसी और का नमक तैर रहा है, तुम्हें महसूस तो हुआ ही होगा। है न! प्रेम मतलब दुःख और दुःख माने नमक। तुम तो कला के साधक हो, और प्रेम कला का ही दूसरा नाम है। इससे पहले कि तुम मेरे प्रेम में डूब जाओ, कला में तैरना सीखो, जीना सीखो। अगर मैं तुमसे प्रेम करूँ भी तो वो स्थान नहीं दे पाऊँगी, जो एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से चाहता है। मेरे साथ जीने के स्वप्नों से बेहतर है, कला के साथ जीने का स्वप्न देखो। वो हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी परछाई बनकर, मैं एक अंधेरी रात की टिमटिमाती हुई बत्ती हूँ जिसके तेल कभी भी खत्म हो सकते हैं, रोशनी बुझ सकती है। उम्मीद है तुम समझोगे मेरी बातों को। 
••• आद्या

मेरी आँखों में आँसू नहीं, अब नमक थे जिसकी खरखराहट मुझे महसूस हो रही थी। मेरे जीवन में कई लोग आए लेकिन ठहरा कोई भी नहीं। कला शापित है एकांत को और कलाकार अकेलेपन को। मेरी आँखों के सामने उसकी तस्वीर थी, लग रहा था जैसे कह रही हो, मैं कहीं नहीं गई हूँ।  बस गई तुम्हारी रंगों में, तुम्हारी कला में और तुम्हारी दुनिया में। 

नजरें जब घड़ी की तरफ दौड़ाई तो देखा रात के दो बज रहे थे। नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी। मैं खिड़की से दूर आसमान में तन्हा चाँद  देखने लगा और उसके इर्द-गिर्द ढूंढने लगा एक जाना पहचाना तारा। जो तारे सबसे अधिक चमक रहे थे, वही मेरी प्रिय थी। यह भ्रम था लेकिन कई भ्रम खूबसूरत भी होते हैं। मैं कला का साधक, अब प्रेम का पुजारी बन चुका था। कला सब कुछ के साथ प्रेम करने की तहज़ीब भी तो देती है। अब मेरे जीवन में कला और आद्या, दो ऐसे स्तंभ थे, जिनपर मैं टिका था।

दिव्या श्री 

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