विश्व पुस्तक मेले से लौट कर ...
— राजिन्दर अरोड़ा
'द हॉल ऑफ नेशंस' और 'द हॉल ऑफ इंडस्ट्रीज' (जो हलाक कर दिए गए हैं) में सब बड़े प्रकाशक होते थे बाकि सब हॉल नंबर 5 से 9 तक में रहते थे। तब मेले में आने को टिकट नहीं लगता था न ही सुबह के समय आने में कोई पाबंदी थी।
कल देर शाम जब खरीदी गई किताबों को ढोना मुश्किल हो रहा था, टाँगें थक के पत्थर सी हो रही थीं और कहीं अच्छी चाय का कोई सिलसिला नहीं बन रहा था तो तेजी ने याद दिलाया कि पुराने वक़्तों में हम लोग कैसे अटैची केस मेले में साथ लाया करते थे। ये यूनिवर्सिटी में बीत रहे सन 76-77 के बाद की बात है। उस ज़माने में बैक-पैक्स भी नहीं आये थे और न ही थे रेढ़ू पे चलते आज जैसे ट्राली नुमा सूटकेस। दोनों कंधो पे झूलते झोले सबसे कामयाब होते थे और कंधो को बोझा ढ़ोने की हिम्मत भी थी। हमारा किताबों का संसार सिर्फ लाइब्रेरी तक सीमित था जिसे देख रश्क करते थे और दुआ करते थे काश हमारे पास भी बहुत सारे पैसे आ जाएँ।
कुछ साल पहले तक स्कूल बच्चों के लिए मेले पे जाने का खास इंतज़ाम किया करते थे। बच्चे मेले से नादारद हैं। इस मेले से बहुत कुछ नादारद है। वो माहौल नादारद है।
तब मेले में किताबें खरीदने को इतने पैसे तो नहीं होते थे पर अंग्रेज़ी पब्लिशर्स को हम अपने चार्म में बाँध कर बहुत सी किताबें मुफ्त में ऐंठ लिए करते थे। उन दिनों हिंदी साहित्य हमारी पकड़ से दूर था। सिर्फ किताबें ही नहीं उन दिनों हम बड़े लेखकों की तस्वीरों के पोस्टर भी इकठा करते थे जिसके लिए मेले के आखरी रोज़ देर रात तक रुकना पड़ता था और खुद पोस्टरों तो दीवार से उधेड़ना होता था। मेरे पास आज भी बर्नार्ड शा और सिलविआ प्लैथ के वो पोस्टर रखे हैं। उन दिनों अमेरिका और यूरोप के बहुत सारे प्रकाशक मेले में भाग लेते थे। अंग्रेजी किताबों की भरमार होती थी। हिंदी और बाकि भाषाओँ वाले प्रकाशक कम होते थे या हमे कम दिखते थे । पुरानी या कोई रद्दी किताबों का कोई स्टाल मेले के अंदर नहीं होता था, उसके लिए सिर्फ लाल किले के पीछे का या दरियागंज की सड़क तय थी। मेले में किताबें और सिर्फ़ किताबें होती थीं ना कि स्टेशनरी, खिलौनों या धार्मिक प्रचार की दुकानें।
उन दिनों मेला बहुत बड़ा और फैला हुआ होता था। खाने पीने की दुकाने कम होती थीं पर बेहतरीन कड़क चाय और सादी कॉफ़ी लेक के पास वाले कैफेटेरिया से सस्ती ही मिल जाती थी। ये जगह चाय पीने, सूटा लगाने, किताबों के बारे में बात करने, दोस्तों का इंतज़ार करने, गपें लगाने, खुले आसमान के नीचे आराम करने और थकी हुई टांगों को लेक के पानी में लटका कर बैठने के लिए बिलकुल परफेक्ट होती थी। दीवार से टंगे दो पब्लिक फ़ोन कभी कभार दिलरुबा को फोन कर मेले पर ना आने का गिला करने के काम आते थे। अब तो झील भी नहीं बची और न ही वो अठन्नी वाला फोन या दिलरुबा । अब हॉल्स के आस पास कोई खुली जगह नहीं है न ही कोई घास का मैदान है। चारों तरफ काम चल रहा है और सब धूल मट्टी से सना है। लोगों का खाने पे ज़ोर ज़्यादा है। वहां जमा भीड़ को देख कर कोई भी कह सकता है कि किताब बेचने वालों से सो गुना ज़्यादा पैसे छोले -भटूरे बेचने वाला कमा रहा है।
हाल नंबर 2 के बाहर किसी को ज़ोर से ठहाका लगा के कहते सुना "साला अब तो जवान लोग मस्तराम भी नहीं पढते"। मुझे क़िताब और मैगज़ीने किराये पर लेकर पढ़ने वाले दिन याद आ गए।
'द हॉल ऑफ नेशंस' और 'द हॉल ऑफ इंडस्ट्रीज' (जो हलाक कर दिए गए हैं ) में सब बड़े प्रकाशक होते थे बाकि सब हॉल नंबर 5 से 9 तक में रहते थे। तब मेले में आने को टिकट नहीं लगता था न ही सुबह के समय आने में कोई पाबंदी थी। झल्ली वालों की टोलियाँ किताबों के गठर सर पे उठाये गेट से हॉल तक आती जाती नज़र आती थीं। मेला अक्सर फ़रवरी के पहले और दुसरे हफ्ते से पहले निपट लेता था। मौसम ज़्यादातर खुशगवार या ठंडा रहता था। तब लेखकों का मेले में आने का रिवाज़ कम था, हाँ नयी किताबों के अंश पढ़े जाते थे और नयी छपी किताबें भी सस्ते दामों पर मिल जाय करती थीं। ना ही बहुत सारी किताबों का विमोचन या रिलीज़ फंक्शन होता था इसके बावजूद ज़मीनी तौर पे किताबों पे चर्चा बहुत होती थी। पुरानी किताबों तो भारी छूट पे हासिल हो जाती थीं। किताबों को ढो के वापिस ले जाने के बजाये प्रकाशक ख़ुद अच्छी रिबेट या डिस्काउंट दे दिया करते थे जिसके लिए आखरी दो दिन मेले में बहुत भीड़ रहती थी। आज के मुकाबले भीड़ तो वैसे भी बहुत ज़्यादा होती थी और बहुत सारे लोग किताबें ख़रीदते थे। उस समय के मुकाबले अब बहुत कम लोग किताबें खरीद रहे हैं।
मेले में लगी दूकान वालों से बात करने की ज़रुरत नहीं आप दूर खड़े हो कर ही अनुमान लगा सकते हैं की धंधा कुछ ख़ास नहीं है। ज़्यादातर लोग बैठे ऊंघ रहे हैं। यकीनन किताबें महंगी भी हैं। दो सौ पन्ने की पेपरबैक 399 रु की है। जिल्द वाली 500 की। धार्मिक, लाइफ-स्टाइल, गिग इकॉनमी और आईएएस प्रतियोगिता वाली किताबों बिक रहीं हैं बस, या फिर लोग सेल्फ़ी खेंचने में मगन हैं। और एक चेहरा है जो आपके पीछा नहीं छोड़ता वो बड़े बड़े होर्डिंग्स या बैकड्रॉप्स पे हर खाली जगह पे लगा है। यहाँ तक की हाल के बाहर एक सेल्फी पॉइंट का फ्रेम है जिसमें महामहिम एक किताब लिए खड़े हैं जिसे दूसरी तरफ़ से भक्त लोग पकड़ कर तस्वीर खिंचवा रहे हैं। उम्र दराज़ लोगों के लिए तो वैसे भी कोई जगह है नहीं हिंदुस्तान में।
कुछ साल पहले तक स्कूल बच्चों के लिए मेले पे जाने का खास इंतज़ाम किया करते थे। बच्चे मेले से नादारद हैं। इस मेले से बहुत कुछ नादारद है। वो माहौल नादारद है। सबसे पहले तो ये लगा कि पढ़ने का जज़्बा ही नादारद है। ललक रखने वाला पाठक नादारद है। छापे हुए कागज़ की वो फसक और कागज़ पे सियाही की महक़ नादारद है। जिल्द से आती गोंद की गंध नादारद है। क़िताब का अपना रुतबा और उसकी आत्मा नादारद है। बहुत कुछ नादारद है नहीं है और है तो बस नई पीढ़ी के बेफिक्र युवा हैं जिन्हे शायद पैसे बचा कर नया मोबाइल लेना ज़्यादा ज़रूरी है। सामने दीवार से सटे खड़े 20 लड़के लड़कियाँ अपने अपने मोबाइल पर किसी OTT पे रिलीज़ हुआ नया एपिसोड देख रहे है किसी हाथ में भी कोई क़िताब नहीं है ।
लड़के लड़कियाँ का एक दूसरा जुट घर वापसी को मेट्रो स्टेशन को जा रहा है । जेबों में हाथ डाले लौट रही उस पल्टन के कोई किताब दिखती नहीं है। DU से भी हम लोग पल्टन की पल्टन बन कर आते और जाते थे हालांकि तब मेट्रो और कैब भी नहीं थी और बसों पे किताबें ढो के ले जाने में बहुत मुश्किल होती थी। कल खरीदी गई इन किताबों को सँभालने के घर लाने के लिए एक कैनवास बैग भी खरीदना पड़ा। एक बार को लगा कि थैला पलट दूँ उसमे से निकाल सारी किताबें इन नौजवान लोगों में बाँट दूँ। फिर सोचा ये लोग तो मुफ्त में बट रहे कैटेलॉग भी नहीं ले जा रहे किताब लेने से मना कर दिया तो ? इस बार मेले से दिल उचाट गया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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