‘पडिक्कमा’ : संगीता गुंदेचा का शब्द संसार ~ शर्मिला जालान | Sangita Gundecha Book Review Sharmila Jalan


"संगीता के युवा मन में पीढ़ियों की जड़ें गहरी हैं। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है संगीता संकेत में कुछ कह रही हैं।" 
जिस पुस्तक की समीक्षा इतनी सुंदर है वह स्वयं कितनी ही सुंदर होगी। संगीता गुंदेचा को बधाई और शुक्रिया शर्मिला जालान को।  ~ सं 

Sangita Gundecha Book Review Sharmila Jalan


संगीता गुंदेचा का कविता संग्रह 'पडिक्कमा'

समीक्षा: शर्मिला जालान

उपन्यास -  शादी से पेशतर (2001-राजकमल प्रकाशन)  उन्नीसवीं बारिश ( 2022-सेतु प्रकाशन )  कहानी संग्रह 1 .बूढ़ा चांद ( 2008-भारतीय ज्ञानपीठ) 2 . राग विराग और अन्य कहानियां (2018-वाग्देवी प्रकाशन ) 3 .माँ ,मार्च और मृत्यु (2019-सेतु प्रकाशन ) 'बूढ़ा चांद' कहानी पर मुम्बई, पटना आदि कई जगहों पर 12-13 मंचन हो चुके हैं। सम्मान : भारतीय भाषा परिषद - 2004 का युवा पुरस्कार / कृष्ण वलदेव वैद फ़ेलोशिप -2019 कन्हैयालाल सेठिया सारस्वत सम्मान/ मोबा: 09433855014 ईमेल- sharmilajalan@gmail.com


‘एकांत का मानचित्र’ कहानियों और कविताओं की पुस्तक के बाद हाल ही में संगीता गुंदेचा का काव्य संग्रह ‘पडिक्कमा’ आया है। इस संग्रह की कविताओं को श्याम भज्जू सिंह के चित्रों के साथ पढ़ना, रोमांचित होना, नई ऊर्जा और विशेष तरह के अनुभव से गुजरना है। कला और कविता दोनों विधाएँ बहुत पास हैं ऐसे जैसे सहोदर। हम जानते हैं कि पद्मश्री प्राप्त भज्जू सिंह श्याम परधान शैली के समकालीन चित्रकारों में अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए विशेष रूप से विख्यात हैं। 

इस संग्रह में कविताओं के चार खंड हैं। अपनी रुचि के अनुसार पहले जिस पर बात करूँगी वे हैं ‘जी’ कविताओं का खंड। ‘जी’ यानी नानी। माँ अपनी माँ को ‘जी’ कहती थी। ‘मैं’ भी ‘जी’ कहती है। इस तरह ‘जी’ ‘माँ’, ‘मैं’ तीन पीढ़ी यहाँ उपस्थित हैं। इस खंड पर मैं विस्तार से बात करूँगी। 

अगर कविता के कथ्य को देखा जाए तो ‘जी’ कविताओं में नानी की स्मृतियां हैं, और है उनका संसार। ‘जी’ कविताओं को पढ़ते हुए एक पारंपरिक भारतीय स्त्री का संसार खुलने लगता है। आस्तिक नानी की 24 तीर्थंकरों में शांतिनाथ जो 16वे तीर्थंकर रहे उन के प्रति गहरी निष्ठा है। वे अस्वस्थ हैं। उन का अंतिम समय है। गाँव में लोगों को पता चलते ही परकोटे की राजपूत स्त्रियां रंग-बिरंगी साड़ियों में घूंघट लेकर मिलने आती है। पैर गँवा चुके दोस्त गुजराती मंत्र और सत्संगी औरतें भजन सुनाने आती हैं। नानी के पास आने वालों में कुम्हार हैं जो यह पूछते हैं कि उनके मटको पर चित्रकारी कैसे हो? गली में रंभाती गाय हैं जो नानी को पुकार रही है। नानी भोजन से पहले गाय या कुत्ते को रोटी देती है, अपने भोजन से एक कवा बचाकर चीटियों के बिल पर रख आती है और पक्षियों को चावल देना नहीं भूलती। नानी ऐसे समाज की स्त्री है जहां पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, पौधे सब उनके संसार में शामिल हैं और अड़ोस-पड़ोस से भाईचारा, नाता बहुत गहरा है । संगीता के अंदर उस संसार की गहरी स्मृतियाँ हैं जो उन्होंने देखा, सुना और भोगा है। आज के कंज्यूमर-युग में ‘जी’ के जीवन का आचार-व्यवहार, साधारण लोगों से संगत और भरा¬¬-भरा जीवन पारंपरिक स्त्री के जीवन का वैभव दिखाता है। इन कविताओं की पृष्ठभूमि आंचलिक है। लोक भाषा मालवी का प्रयोग है। ये कविताएँ थोड़े में ज्यादा कहती हुई, रमणीय और स्मरणीय हैं, जिसमें लय और ध्वन्यात्मकता, उपमा और व्यंजना है।

जी अपने घाघरे, लुगड़े और काँचली में
यहाँ से वहाँ फिसलती रहती 
गिलहरी की तरह

कराहती हुई जी के सिरहाने 
मालिन सुर्ख गुलाब रख गयी है 
माँ उसके कानों पर अपने ओंठ ले जाकर पूछती है :
जी थारे कंई वेदना हे बता तो सई?
जी अपने पोपले मुँह से 
बड़ी मुश्किल से फुसफुसाती है :
कंई कोनि! 
जब उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी जाती है 
वह अपने पोपले मुँह से 
बड़ी मुश्किल से फुसफुसाती है: 
कंई कोनि! 


ये राग विराग की कविताएँ हैं, जिनमें देख रही हूँ तीन पीढ़ी की कथा। कृष्णा सोबती अपनी सुप्रसिद्ध लम्बी कहानी ‘ऐ लड़की’ में तीन पीढ़ी को रचती हैं, मन्नू भंडारी के माँ के संस्मरण में आती है तीन पीढियाँ। ‘जी’ कविताओं में तीन काल खंड हैं नानी, माँ और मैं का। संगीता के युवा मन में पीढ़ियों की जड़ें गहरी हैं। 

संग्रह का पहला खंड है ‘पडिक्कमा’। ‘पडिक्कमा’ का अर्थ ‘प्रतिक्रमण’ या ‘लौटना’ है। यह प्राकृत भाषा का बोलचाल शब्द है। संगीता गुंदेचा पुस्तक में कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहती हैं जिन दो परिजनों के लौट जाने पर कविता लिखी गई है, वे बाऊजी (पिता सी. एम. गुंदेचा) और विमल दा (बड़े भाई रामाकांत गुंदेचा) हैं। यह कविता इन दोनों परिजनों की मृत्यु की परिक्रमा करती है। पुस्तक का नाम ‘पडिक्कमा’ ही है, क्योंकि कविता करना प्रतिक्रमण कर गये अपने मृतकों और पुरखों की परिक्रमा करने जैसा ही है। यह चंपू कविता है। संगीता अपनी कविताओं में प्रयोगधर्मी है। 

इसी खंड में ‘अंधायुग’ शीषक कविता में अप्रतिम रंग निर्देशक श्री रतन थियाम को याद करती हैं तो ‘एकसाथ’ शीर्षक कविता में युवा रंगकर्मी राजेंद्र पांचाल की पंक्ति से भी संवाद करती हैं। हम जानते हैं उज्जैन में जन्मी संगीता भारतीय रंगमंच की गंभीर अध्येता हैं। उन्होंने अपने समय के तीन सर्वश्रेष्ठ रंग निर्देशकों सर्वश्री कावालम नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियाम से महत्वपूर्ण संवाद किया है और इस तरह रतन थियाम पर लिखी कविता का मर्म और भी खुलता है। 

इस खंड में जो श्रृंगारिक कविताएँ हैं उसका उजलापन और उनमें भोक्ता की आत्मा का स्पंदन हम महसूस कर सकते हैं।


संग्रह में और भी खंड है। ‘पीले पत्ते पर पड़ी लाल लकीर’ शीर्षक से हाइकुनुमा कविताएँ हैं। 
इन दस कविताओं में से कुछ शब्दों को लें -- प्रतीक्षा, बसंत, पीले पत्ते, आकुल, आसमान, चाँद, तो उनसे ऐसे संसार की सृष्टि होती है जिसमें जितना विराग है उतना अनुराग भी। यहाँ राग-विराग की, प्रेम-विरह की सूक्ष्म प्रतिध्वनियां हैं। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है संगीता संकेत में कुछ कह रही हैं। 

यहाँ लाल शब्द रामकुमार की याद दिलाता है। रामकुमार की पेंटिंग में लाल रंग उदास भी कर सकता है। प्रेम और विरह की सूक्ष्म कविताओं में उदासी और अकेलापन अवसाद की तरह नहीं आता।संगीता की शब्द सजगता और लाघव का प्रमाण नीचे लिखी कविताओं में देखा जा सकता है। 

दिन डूबा
रात हुई
सितारे उभरे आँसुओं की तरह

आकाश में कटोरे-सा चंद्रमा
खालीपन-
कितना भरा हुआ !
ये सुक्ष्म भाव बोध की श्रृंगार रस की कविताएँ हैं जिनका उजास इन्हें पढ़ने के बाद ही पाठक को महसूस होगा।

 
संग्रह का अंतिम खंड ‘उदाहरण काव्य’ है। यहाँ प्राकृत-संस्कृत की कुछ जानी-मानी कविताओं के अनुवाद और पुनर्रचनाएं हैं। श्रृंगार रस की इन कविताओं को पढ़ते हुए हम उस कालखंड में चले जाते हैं जहां प्रेम-विरह के पवित्र सौरमंडल की आभा हमें घेर लेती है। 

संगीता गुंदीचा के काव्य संग्रह ‘पडिक्कमा’ को समझने का एक सूत्र इन वाक्यों में भी है। सुविख्यात फिल्मकार और चिंतक कुमार शहानी कहते हैं –- ‘मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा की संस्कृति में किस तरह की भाषा–लिपि का इस्तेमाल किया जाता था, यह अज्ञात है। खुदाई में मिले बर्तनों, मटकों और शिल्पों आदि पर चित्रित नृत्य मुद्राओं के संकेतों को यदि बूझा जा सके, हमें वहां की अज्ञात भाषा-लिपि के कुछ संकेत अवश्य मिल जायेंगे। हम सबके भीतर भी मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा की तरह अज्ञात भाषा-लिपि का वास है। इस अज्ञात भाषा लिपि से ध्वनित होते संकेतों के रूपांतरण के प्रयास में ही चित्रकला, मिट्टी की कला या तमाम तरह की कलाएं जन्म लेती हैं। 

यह विशेष तरह से बनाया गया संग्रह है। संग्रह में कविताओं को पढ़ने के समानांतर मलाट ( कवर ) पर उदयन बाजपेयी, रतन थियम, खालिद जावेद ने जो सम्मतियाँ लिखीं हैं उनके गद्य से गुजरना भी विरल सा अनुभव है।

‘पूर्वारम्भ’ और ‘कृतज्ञता’ कविताओं को समझने के लिए पाद टिप्पणी की तरह है।

कविताओं के साथ चित्रांकन को देखना विशेष तरह से समृद्ध होना है। यह संग्रह अपनी तरह का अनूठा संग्रह है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।
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